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जायसी ग्रंथावली/भूमिका/पद्मावत की कथा

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जायसी ग्रंथावली
मलिक मुहम्मद जायसी, संपादक रामचंद्र शुक्ल

वाराणसी: नागरीप्रचारिणी सभा, पृष्ठ १० से – १६ तक

 

पदमावत की कथा

कवि सिंहलद्वीप, उसके राजा गंधर्वसेन, राजसभा, नगर, बगीचे इत्यादि का वर्णन करके पद्मावती के जन्म का उल्लेख करता है। राजभवन में हीरामन नाम का एक अद्भत सूआ था। जिसे पद्मावती बहुत चाहती थी और सदा उसीके पास रहकर अनेक प्रकार की बातें कहा करती थी। पद्मावती क्रमशः सयानी हुई और उसके रूप को ज्याति भमंडल में सबके ऊपर हुईं। जब उसका कहीं विवाह न हुआ तब वह रात दिन हीरामन से इसी बात की चर्चा किया करती थी। सूए ने एक दिन कहा कि यदि कहो तो देश देशांतर में फिरकर मैं तुम्हारे योग्य वर ढूँढूँ। राजा को जब इस बात चीत का पता लगा तब उसने क्रुद्ध होकर सूए को मार डालने की आज्ञा दी। पद्मावती ने विनती कर किसी प्रकार सूए के प्राण बचाए। सूए ने पद्मावती से बिदा माँगी, पर पद्मावती ने प्रेम के मारे सूए को रोक लिया। सूया उस समय तो रुक गया, पर उसके मन में खटका बना रहा।

एक दिन पद्मावती सखियों को लिए हुए मानसरोवर में स्नान और जलक्रीड़ा करने गई। सूए ने सोचा कि अब यहाँ से चटपट और उड़ा, जहाँ पक्षियों ने उसका बड़ा सत्कार किया। दस दिन पीछे एक बहेलिया हरी पत्तियों की टट्टी लिए उस बन में चला आ रहा था। और पक्षी तो उस चलते पेड़ को देखकर उड़ गए पर हीरामन चारे के लोभ से वहीं रहा। अंत में बहेलिए ने उसे पकड़ लिया और बाजार में उसे बेचने के लिए ले गया। चित्तौर के एक व्यापारी के साथ एक दीन ब्राह्मण भी कहीं से रुपए लेकर लोभ की आशा से सिंघल की हाट में आया था। उसने सूए को पंडित देख मोल ले लिया और लेकर चित्तौर पाया। चित्तौर में उस समय राजा चित्रसेन मर चुका था और उसका बेटा रत्नसेन गद्दी पर बैठा था। प्रशंसा सुनकर रत्नसेन ने लाख रुपये देकर हीरामन सूए को मोल ले लिया।

एक दिन रत्नसेन कहीं शिकार को गया था। उसकी रानी नागमती सूए के पास आई और बोली 'मेरे समान सुंदरी और भी कोई संसार में है?' इसपर सूत्रा हँसा और उसने सिंघल की पद्मिनी स्त्रियों का वर्णन करके कहा कि उनमें और तुममें दिन और अँधेरी रात का अंतर है। रानी ने सोचा कि यदि यह तोता रहेगा तो किसी दिन राजा से भी ऐसा ही कहेगा और वह मुझसे प्रेम करना छोड़कर पद्मावती के लिये जोगी होकर निकल पड़ेगा। उसनी अपनी धाय से उसे ले जाकर मार डालने को कहा। धाय ने परिणाम सोचकर उसे मारा नहीं, छिपा रखा। जब राजा ने लौटकर सूए को न देखा तब उसने बड़ा कोप किया। अंत में हीरामन उसके सामने लाया गया और उसने सब वृत्तांत कह सुनाया। राजा की पद्मावती का रूपवर्णन सुनने की बड़ी उत्कंठा हुई और हीरामन ने उसके रूप का बड़ा लंबा चौड़ा वर्णन किया। उस वर्णन को सुन राजा वेसुध हो गया। उसके हृदय में ऐसा प्रवल अभिलाष जगा कि वह रास्ता बताने के लिये हीरामन को साथ ले जोगी होकर घर से निकल पड़ा।

उसके साथ सोलह हजार कुँवर भी जोगी होकर चले। मध्यप्रदेश के नाना दुर्गम स्थानों के बीच होते हए सब लोग कलिंग देश में पहुँचे। वहाँ के राजा गजपति से जहाज लेकर रत्नसेन ने और सब जोगियों के सहित सिंघलद्वीप को ओर प्रस्थान किया। क्षार समुद्र, क्षीर समुद्र, दधि समुद्र, उदधि समुद्र, सुरा समुद्र और किलकिला समुद्र को पार करके वे सातवें मानसरोवर समुद्र में पहुँचे जो सिंघल द्वीप के चारों ओर है। सिंघलद्वीप में उतरकर जोगी रत्नसेन तो अपने सब जोगियों के साथ महादेव के मंदिर में बैठकर तप और पद्मावती का ध्यान करने लगा और हीरामन पद्मावती से भेंट करने गया। जाते समय वह रत्नसेन से कहता गया कि बसंत पंचमी के दिन पद्मावती इसी महादेव के मंडप में बसंतपूजा करने आएगी; उस समय तुम्हें उसका दर्शन होगा और तुम्हारी आशा पूर्ण होगी।

बहुत दिन पर हीरामन को देख पद्मावती बहुत रोई। हीरामन ने अपने निकल भागने और बेचे जाने का वृत्तांत कह सुनाया। इसके उपरांत उसने रत्नसेन के रूप, कूल, ऐश्वर्य, तेज आदि को बड़ी प्रशंसा करके कहा कि वह सब प्रकार से तम्हारे योग्य वर है और तुम्हारे प्रेम में जोगो होकर यहाँ तक आ पहुँचा है। पद्मावती ने उसकी प्रेमव्यथा को सुनकर जयमाल देने की प्रतिज्ञा की और कहा कि बसंत पंचमी के दिन पूजा के बहाने मैं उसे देखने जाऊँगी। सूआ यह सब समाचार लेकर राजा के पास मंडप में लौट आया।

बसंत पंचमी के दिन पद्मावती सखियों के सहित मंडप में गई और उधर भी पाँची जिधर रत्नसेन और उसके साथी जोगी थे। पर ज्योंही रत्नसेन की आँखें उसपर पड़ी, वह मुर्छित होकर गिर पड़ा। पद्मावती ने रत्नसेन को सब प्रकार से वैसा ही पाया जैसा सूए ने कहा था। वह मुर्छित जोगी के पास पहुँची और उसे दोश में लाने के लिये उसपर चंदन छिड़का। जब वह न जागा तब चंदन से उसके हदय पर यह बात लिखकर वह चली गई कि 'जोगी, तूने भिक्षा प्राप्त करने योग्य योग नहीं सीखा, जब फलप्राप्ति का समय आया सब तू सो गया।'

राजा को जब होश आया तब वह बहुत पछताने लगा और जल मरने को तैयार हुआ। सब देवताओं को भय हुआ कि यदि कहीं यह जला तो इनको घोर विरहाग्नि से सारे लोक भस्म हो जायेंगे। उन्होंने जाकर महादेव पार्वती के यहाँ पूकार की। महादेव कोढी के वेश में बैल पर चढ़े राजा के पास आए और जलने का कारण पूछने लगे। इधर पार्वती की, जो महादेव के साथ आई थीं, यह इच्छा हुई कि राजा के प्रेम की परीक्षा लें। वे अत्यंत सुंदरी अप्सरा का रूप धरकर पाई और बोलीं मझे इंद्र ने भेजा है। पद्मावती को जाने दे, तुझे अप्सरा प्राप्त हुई। रत्नसेन ने कहा 'मझे पद्मावती को छोड़ और किसी से कुछ प्रयोजन नहीं।' पार्वती ने महादेव से कहा कि रत्नसेन का प्रेम सच्चा है। रत्नसेन ने देखा कि इस कोढ़ी की छाया नहीं पड़ती है, इसके शरीर पर मक्खियाँ नहीं बैठती हैं और इसकी पलकें नहीं गिरती हैं अतः यह निश्चय कोई सिद्ध पुरुष है। फिर महादेव को पहचानकर वह उनके पैरों पर गिर पड़ा। महादेव ने उसे सिद्धि गुटिका दी और सिंघलगढ़ में घुसने का मार्ग बताया। सिद्धि गुटिका पाकर रत्‍नसेन सब जोगियों को लिए हुए सिंघलगढ़ पर चढ़ने लगा।

राजा गंधर्वसेन के यहाँ जब यह खबर पहुँची तब उसने दूत भेजे। दूतों से जोगी रत्नसेन ने पद्मिनी के पाने का अभिप्राय कहा। दूत क्रुद्ध होकर लौट गए। इस बीच हीरामन रत्‍नसेन का प्रेमसंदेश लेकर पद्मावती के पास गया और पद्मावती का प्रेम भरा संदेसा पाकर उसने रत्‍नसेन से कहा। इस संदेसे से रत्‍नसेन के शरीर में और भी बल आ गया। गढ़ के भीतर जो अगाध कुंड था वह रात को उसमें धँसा और भीतरी द्वार को, जिसमें वज्र के किवाड़ लगे थे, उसने जा खोला। पर इसी बीच सवेरा हो गया और वह अपने साथी जोगियों के सहित घेर लिया गया। राजा गंधर्वसेन के यहाँ यह विचार हुआ कि जोगियों को पकड़कर सूली दे दी जाय। दल बल के सहित सब सरदारों ने जोगियों पर चढ़ाई की। रत्‍नसेन के साथी युद्ध के लिये उत्सुक हुए पर रत्‍नसेन ने उन्हें यह उपदेश देकर शांत किया कि प्रेममार्ग में क्रोध करना उचित नहीं। अंत में सब जोगियों सहित रत्‍नसेन पकड़ा गया। इधर यह सब समाचार सुन पद्मावती की बुरी दशा हो रही थी। हीरामन सूए ने जाकर उसे धीरज बँधाया कि रत्‍नसेन पूर्ण सिद्ध हो गया है, वह मर नहीं सकता।

जब रत्‍नसेन को बाँधकर सूली देने के लिये लाए तब जिसने जिसने उसे देखा सबने कहा कि यह कोई राजपुत्र जान पड़ता है। इधर सूली की तैयारी हो रही थी, उधर रत्‍नसेन पद्मावती का नाम रट रहा था। महादेव ने जब जोगी पर ऐसा संकट देखा तब वे और पार्वती भाँट भाँटिनी का रूप धरकर वहाँ पहुँचे। इसी बीच हीरामन सुआ भी रत्‍नसेन के पास पद्मावती का यह संदेसा लेकर आया कि 'मैं भी हुथेला पर प्राण लिए बैठी हूँ, मेरा जीना मरना तुम्हारे साथ है।' भाँट (जो वास्तव में महादेव थे) ने राजा गंधर्वसेन को बहुत समझाया कि यह जोगी नहीं राजा है और तुम्हारी कन्या के योग्य वर है, पर राजा इसपर और भी क्रुद्ध हुआ। २० जोगियों का दल चारों ओर से लड़ाई के लिये चढ़ा। महादेव के साथ हनुमान् आदि सब देवता जोगियों की सहायता के लिये आ खड़े हुए। गंधर्वसेन की सेना के हाथियों का समूह जब आगे बढ़ा तब हनुमान जी ने अपनी लंबी पूंछ में सबको लपेटकर आकाश में फेंक दिया। राजा गंधर्वसेन को फिर महादेव का घंटा और विष्णु का शंख जोगियों की ओर सुनाई पड़ा और साक्षात् शिव युद्धस्थल में दिखाई पड़े। यह देखते ही गंधर्वसेन महादेव के चरणों पर जा गिरा और बोला 'कन्या आपकी है, जिसे चाहिए उसे दीजिए'। इसके उपरांत हीरामन सुए ने आकर राजा रत्‍नसेन के चित्तौर से आने का सब वृत्तांत कह सुनाया और गंधर्वसेन ने बड़ी धूमधाम से रत्‍नसेन के साथ पद्मावती का विवाह कर दिया। रत्‍नसेन के साथी जो सोलह हजार कुँवर थे उन सबका विवाह भी पद्मिनी स्त्रियों के साथ हो गया और सब लोग बड़े आनंद के साथ कुछ दिनों तक सिंहल में रहे।

इधर चित्तौर में वियोगिनी नागमती को राजा की बाट जोहते एक वर्ष हो गया। उसके विलाप से पशु पक्षी विकल हो गए। अंत में आधी रात को एक पक्षी ने नागमती के दुःख का कारण पूछा। नागमती ने उससे रत्नसेन के पास पहुंचाने के लिये अपना संदेसा कहा। वह पक्षी नागमती का संदेसा लेकर सिंहलद्वीप गया और समुद्र के किनारे एक पेड़ पर बैठा। संयोग से रत्नसेन शिकार खेलते खेलते उसी पेड़ के नीचे जा खड़ा हा। पक्षी ने पेड़ पर नागमती की दुःख कथा और चित्तौर की हीन दशा का वर्णन किया। रत्नसेन का जी सिंहल से उचटा और उसने स्वदेश की ओर प्रस्थान किया। चलते समय उसे सिंहल के राजा के यहाँ से विदाई में बहुत सामान और धन मिला। इतनी अधिक संपत्ति देख राजा के मन में गर्व और लोभ हुआ। वह सोचने लगा कि इतना अधिक धन लेकर यदि मैं स्वदेश पहुँचा तो फिर मेरे समान संसार में कौन है। इस प्रकार लोभ ने राजा को आ घेरा।

समुद्रतट पर जब रत्नसेन आया तब समुद्र याचक का रूप धरकर राजा से दान माँगने आया, पर राजा ने लोभवश उसका तिरस्कार कर दिया। राजा आधे समुद्र में भी नहीं पहुँचा था कि बड़े जोर का तूफान आया जिससे जहाज दविखन लंका की ओर बह गए। वहाँ विभीषण का एक राक्षस माँझी मछली मार रहा था। वह अच्छा आहार देख राजा से पाकर बोला कि चलो हम तुम्हें रास्ते पर लगा दें। राजा उसकी बातों में आ गया। वह राक्षस सब जहाजों को एक भयंकर समुद्र में ले गया जहाँ से निकलना कठिन था। जहाज चक्कर खाने लगे और हाथी, घोड़े, मनुष्य आदि डूबने लगे। वह राक्षस आनंद से नाचने लगा। इस बीच समद्र का एक राजपक्षी वहाँ आ पहुँचा जिसके डैनों का ऐसा घोर शब्द हुया मानों पहाड़ के शिखर टूट रहे हैं। वह पक्षी उस दुष्ट राक्षस को चंगुल में दबाकर उड़ गया। जहाज के एक तख्ते पर एक ओर राजा बहा और दूसरे तख्ते पर दूसरी ओर रानी।

पद्मावती बहते बहते वहाँ जा लगी जहाँ समुद्र की कन्या लक्ष्मी अपनी सहेलियों के साथ खेल रही थी। लक्ष्मी मूर्छित पद्मावती को अपने घर ले गई। पद्मावती को जब चेत हुआ तब वह रत्नसेन के लिये विलाप करने लगी। लक्ष्मी ने उसे धीरज बँधाया और अपने पिता समुद्र से राजा की खोज कराने का वचन दिया। इधर राजा बहते बहते एक ऐसे निर्जन स्थान में पहुँचा जहाँ गूँगों के टीलों के सिवा और कुछ न था। राजा पद्मिनी के लिये बहुत विलाप करने लगा और कटार लेकर अपने गले में मारा ही चाहता था कि ब्राह्मण का रूप धरकर समुद्र उसके सामने आ खड़ा हुआ और उसे मरने से रोका। अंत में समुद्र ने राजा से कहा कि तुम मेरी लाठी पकड़कर आँख मूंद लो; मैं तुम्हें जहाँ पद्मावती है उसी तट पर पहुंचा दूंगा।

जब राजा उस तट पर पहुँच गया तब लक्ष्मी उसकी परीक्षा लेने के लिये पद्मावती का रूप धारण कर रास्ते में जा बैठी। रत्नसेन उन्हें पद्मावती समझ उनकी ओर लपका। पास जाने पर वे कहने लगीं 'मैं पद्मावती हूँ।' पर रत्नसेन ने जब देखा कि यह तो पद्मावती नहीं है तब चट मुँह फेर लिया। अंत में लक्ष्मी रत्नसेन को पद्मावती के पास ले गई। रत्नसेन और पद्मावती कई दिनों तक समुद्र और लक्ष्मी के मेहमान रहे। पद्मावती की प्रार्थना पर लक्ष्मी ने उन सब साथियों को भी ला खड़ा किया जो इधर उधर बह गए थे। जो मर गए थे वे भी अमृत से जिला दिए गए। इस प्रकार बड़े आनंद से दोनों वहाँ से विदा हुए। विदा होते समय समुद्र ने बहुत से अमूल्य रत्‍न दिए। सबसे बढ़कर पाँच पदार्थ दिए—अमृत, हंस, राजपक्षी, शार्दूल और पारस पत्थर। इन सब अनमोल पदार्थों को लिए अंत में रत्‍नसेन और पद्मावती चित्तौर पहुँच गए। नागमती और पद्मावती दोनों रानियों के साथ रत्‍नसेन सुखपूर्वक रहने लगे। नागमती से नागसेन और पद्मावती से कमलसेन ये दो पुत्र राजा को हुए।

चित्तौर की राजसभा में राघव चेतन नाम का एक पंडित था जिसे यक्षिणी सिद्ध थी। एक दिन राजा ने पंडितों से पूछा 'दूज कब है?' राघव के मुँह से निकला 'आज'। और सब पंडितों ने एक स्वर से कहा कि 'आज नहीं हो सकती कल होगी।' राघव ने कहा कि यदि आज दूज न हो तो मैं पंडित नहीं।' पंडितों ने कहा कि 'राघव वाममार्गी है; यक्षिणी की पूजा करता है, जो चाहे सो कर दिखावे, पर आज दूज नहीं हो सकती।' राघव ने यक्षिणी के प्रभाव से उसी दिन संध्या के समय द्वितीया का चंद्रमा दिखा दिया[]। पर जब दूसरे दिन चंद्रमा देखा गया तब वह द्वितीया का ही चंद्रमा था। इसपर पंडितों ने राजा रत्‍नसेन से कहा 'देखिए, यदि कल द्वितीया रही होती तो आज चंद्रमा की कला कुछ अधिक होती; झूठ और सच की परख कर लीजिए।' राघव का भेद खुल गया और वह वेदविरुद्ध आचार करने वाला प्रमाणित हुआ। राजा रत्‍नसेन ने उसे देशनिकाले का दंड दिया।

पद्मावती ने जब यह सुना तब उसने ऐसे गुणी पंडित का असंतुष्ट होकर जाना राज्य के लिये अच्छा नहीं समझा। उसने भारी दान देकर राघव को प्रसन्न करना चाहा। सूर्यग्रहण का दान देने के लिये उसने उसे बुलवाया। जब राघव महल के नीचे आया तब पद्मावती ने अपने हाथ का एक अमूल्य कंगन—जिसका जोड़ा और कहीं दुष्प्राप्य था—झरोखे पर से फेंका। पद्मावती की झरोखे पर झलक देख राघव बेसुध होकर गिर पड़ा। जब उसे चेत हुआ तब उसने सोचा कि अब यह कंगन लेकर बादशाह के पास दिल्ली चलूँ और पद्मिनी के रूप का उसके सामने वर्णन करूँ। वह लंपट है, परंतु चित्तौर पर चढ़ाई करेगा और इसके जोड़ का दूसरा कंगन भी मुझे इनाम देगा। यदि ऐसा हुआ तो राजा से मैं बदला भी ले लूँगा और सुख से जीवन भी बिताऊँगा।

यह सोचकर राघव दिल्ली पहुँचा और वहाँ बादशाह अलाउद्दीन को कंगन दिखाकर उसने पद्मिनी के रूप का वर्णन किया। अलाउद्दीन ने बड़े आदर से उसे अपने यहाँ रखा और सरजा नामक एक दूत के हाथ एक पत्र रत्‍नसेन के पास भेजा कि पद्मिनी को तुरंत भेज दो, बदले में और जितना राज्य चाहों ले लो। पत्र पाते ही राजा रत्‍नसेन क्रोध से लाल हो गया और बहुत बिगड़कर दूत को वापस कर दिया। अलाउद्दीन ने चित्तौरगढ़ पर चढ़ाई कर दी। आठ वर्ष तक मुसलमान चित्तौर को घेरे रहे और घोर युद्ध होता रहा, पर गढ़ न टूट सका। इसी बीच दिल्ली से एक पत्र अलाउद्दीन को मिला जिसमें हरेव लोगों के फिर से चढ़ पानेका समाचार लिखा था। बादशाह ने जब यह देखा कि गढ़ नहीं टूटता है तब उसने कपट की एक चाल सोची। उसने रत्नसेन के पास संधि का एक प्रस्ताव भेजा और यह कहलाया कि मुझे पद्मिनी नहीं चाहिए; समुद्र से जो पाँच, अमूल्य वस्तुएं तुम्हें मिली हैं उन्हें देकर मेल कर लो।

राजा ने स्वीकार कर लिया और बादशाह को चित्तौरगढ़ के भीतर ले जाकर बड़ी धमधाम से उसकी दावत की। गोरा और बादल नामक विश्वासपात्र सरदारों ने राजा को बहुत समझाया कि मुसलमानों का विश्वास करना ठीक नहीं, पर राजा ने ध्यान न दिया। वे दोनों वीर नीतिज्ञ सरदार रूठकर अपने घर चले गए। कई दिनों तक बादशाह की मेहमानदारी होती रही। एक दिन वह टहलते टहलते पद्मिनी के महलों की ओर भी जा निकला, जहाँ एक से एक रूपवती स्त्रियाँ स्वागत के लिये खड़ी थीं। बादशाह ने राघव से, जो बराबर उसके साथ साथ था, पूछा कि 'इनमें पद्मिनी कौन है?' राघव ने कहा 'पद्मिनी इनमें कहाँ? ये तो उसकी दासियाँ हैं।' बादशाह पद्मिनी के महल के सामने ही एक स्थान पर बैठकर राजा के साथ शतग्ज खेलने लगा। जहाँ वह बैठा था वहाँ उसने एक दर्पण भी रख दिया था कि पद्मिनी यदि झरोखे पर आवेगी तो उसका प्रतिबिंब दर्पण में देखेगा। पद्मिनी कुतूहलवश झरोखे के पास आई और बादशाह ने उसका प्रतिबिंब दर्पण में देखा। देखते ही वह बेहोश होकर गिर पड़ा।

अंत में बादशाह ने राजा से विदा माँगी। राजा उसे पहुँचाने के लिये साथ साथ चला। एक एक फाटक पर बादशाह राजा को कुछ न कुछ देता चला। अंतिम फाटक पार होते ही राघव के इशारे से वादशाह ने रत्नसेन को पकड़ लिया और बाँधकर दिल्ली ले गया। वहाँ राजा को तंग कोठरी में बंद करके वह अनेक प्रकार के भयंकर कष्ट देने लगा। इधर चित्तौर में हाहाकार मच गया। दोनों रानियाँ रो रोकर प्राण देने लगीं। इस अवसर पर राजा रत्नसेन के शत्रु कुंभलनेर के राजा देवपाल को दुष्टता सूझी। उसने कूमदिनी नाम की दूती को पद्मावती के पास भेजा। पहले तो पद्मिनी अपने मायके की स्त्री सूनकर बड़े प्रेम से मिली और उससे अपना दु:ख कहने लगी, पर जब धीरे धीरे उसका भेद खुला तब उसने उचित दंड देकर उसे निकलवा दिया। इसके पीछे अलाउद्दीन ने भी जोगिन के वेश में एक दूतो इस आशा से भेजा कि वह रत्नसेन से भेंट कराने के बहाने पद्मिनी को जोगिन बनाकर अपने साथ दिल्ली लावेगी। पर उसकी दाल भी न गली।

अंत में पद्मिनी गोरा और बादल के घर गई और उन दोनों क्षत्रिय वीरों के सामने अपना दु:ख रोकर उससे उनसे राजा को छुड़ाने की प्रार्थना की। दोनों ने राजा को छुड़ाने की दृढ़ प्रतिज्ञा की और रानी को बहुत धीरज बँधाया। दोनों ने सोचा कि जिस प्रकार मुसलमानों ने धोखा दिया है उसी प्रकार उनके साथ भी चाल चलनी चाहिए। उन्होंने सोलह सौ ढकी पालकियों के भीतर सशस्त्र राजपूत सरदारों को बिठाया और जो सबसे उत्तम और बहुमूल्य पालकी थी उसके भीतर औजार के साथ एक लोहार का बिठाया। इस प्रकार वे यह प्रसिद्ध करके चले कि सोलह सौ दासियों के सहित पद्मिनी दिल्ली जा रही है। गौर के पुत्र बादल की अवस्था बहुत थोड़ी थी। जिस दिन दिल्ली जाना था। उसी दिन उसका गौना आाया था। उसकी नवागता वध ने उसे युद्ध में जाने से बहुत रोका पर उस वीर कुमार ने एक न सुनी। अंत में सोलह सौ सवारियों के सहित वे दिल्ली के किले में पहुँचे। वहाँ कर्मचारियों को घुस देकर अपने अनुकूल किया जिससे किसी ने पालकियों की तलाशी न ली। बादशाह के यहाँ खबर गई कि पद्मिनी आई है और कहती है कि मैं राजा से मिल लूँ और उन्हें चित्तौर के खजाने की कुंजी सुपुर्द कर दूँ’ तब महल में जाऊँ। बादशाह ने आज्ञा दे दी। वह सजी हई पालकी वहाँ पहुँचाई गई जहाँ राजा रत्नसेन कैद था। पालकी में से निकल-कर लौहार ने चट राजा की बेङी काट दी और वह शस्त्र लेकर एक घोड़े पर सवार हो गया जो पहले से तैयार था। देखते देखते और हथियारबंद सरदार भी पालकियों में से निकल पड़े। इस प्रकार गोरा और बादल राजा को छुड़ाकर चित्तौर चले।

बादशाह ने जब सुना तब अपनी सेना सहित पीछा किया। गोरा बादल ने जब शाही फौज पीछे देखी तब एक हजार सैनिकों को लेकर गोरा तो शाही फौज को रोकने के लिये डट गया और बादल राजा रत्नसेन को लेकर चित्तौर की ओर बढ़ा। वृद्ध वीर गोरा बड़ी बीरता से लड़कर और हजारा को मारकर अंत में सरजा के हाथ से मारा गया। इस बीच में राजा रत्नसेन चित्तौर पहुँच गया। पहुँचते ही उसी दिन रात को पद्मिनी के मुँह से रत्नसेन ने जब देवपाल की दुष्टता का हाल सुना तब उसने उसे बाँध लाने की प्रतिज्ञा की। सबेरा होते ही रत्नसेन ने कुंभलनेर पर चढ़ाई कर दी। रत्नसेन और देवपाल के बीच द्वंद्व युद्ध हुआ। देवपाल की साँग रत्नसेन की नाभि में घुसकर उस पार निकल गई। देवपाल साँग मारकर लौटा ही चाहता था कि रत्नसैन ने उसे जा पकड़ा और उसका सिर काटकर उसके हाथ पैर बाँधे। इस प्रकार अपनी प्रतिज्ञा पूरी कर और चित्तौर गढ़ की रक्षा का भार बादल को सौंप रत्नसेन ने शरीर छोड़ा।

राजा के शव को लेकर पद्मावती औौर नागमती दोनों रानियाँ सती हो गईं। इतने में शाही सेना चित्तौरगढ़ जा पहुँची। बादशाह ने पद्मिनी के सती होने का समाचार सुना। बादल ने प्राण रहते गढ़ की रक्षा की पर अंत में वह फाटक की लड़ाई में मारा गया और चित्तौरगढ़ पर मुसलमानों का अधिकार हो गया।

  1. लोना चमारिन के संबंध में भी प्रसिद्ध है कि उसकी बात इसी प्रकार सत्य करने के लिये देवी ने प्रतिपदा के दिन आकाश में जाकर अपने हाथ का कंगन दिखाया था जिससे देखनेवालों को द्वितीया के चंद्रमा का भ्रम हुआा था।