जायसी ग्रंथावली/भूमिका/ऐतिहासिक आधार

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ऐतिहासिक आधार

पद्मावत की संपूर्ण आाख्यायिका को हम दो भागों में विभक्त कर सकते हैं। रत्नसेन की सिंहलद्वीप यात्रा से लेकर चित्तौर लौटने तक हम कथा का पूर्वार्ध मान सकते हैं और राघव के निकाले जाने से लेकर पद्मिनी के सती होने तक उत्तरार्ध। ध्यान देने की बात यह है कि पूर्वार्ध तो बिलकुल कल्पित कहानी है और उत्तर ऐतिहासिक आधार पर है। ऐतिहासिक अंश के स्पष्टीकरण के टाड राजस्थान में दिया हुआ चित्तौरगढ़ पर अलाउद्दीन की चढ़ाई का वृत्तांत हम नीचे देते हैं--

'विक्रम संवत १३३१ में लखनसी चित्तौर के सिंहासन पर बैठा। वह छोटा था। इससे इसका चाचा भीमसी (भीमसिंह)ही राज्य करता था। भीमसी का विवाह [ १७ ] सिंहल के चौहान राजा हम्मीर शंक की कन्या पद्मिनी से हुआ था जो रूप गुणों में जगत् में अद्वितीय थी। उसके रूप की ख्याति सुनकर दिल्ली के बादशाह अलाउद्दीन ने चित्तौरगढ़ पर चढ़ाई को। घोर युद्ध के उपरांत अलाउद्दीन ने संधि का प्रस्ताव भेजा कि मुझे एक बार पद्मिनी का दर्शन ही हो जाय तो मैं दिल्ली लौट जाऊँ। इसपर यह ठहरी कि अलाउद्दीन दर्पण में पद्मिनी की छाया मात्र देख सकता है। इस प्रकार युद्ध बंद हुआ और अलाउद्दीन बहुत थोड़े से सिपाहियों के साथ चित्तौरगढ़ के भीतर लाया गया। वहाँ से जब वह दर्पण में छाया देखकर लौटने लगा तब राजा उसपर पूरा विश्वास करके गढ़ के बाहर तक उसको पहुँचाने आया। बाहर अलाउद्दीन के बहुत से सैनिक पहले से घात में लगे हुए थे। ज्यों ही राजा बाहर आया, वह पकड़ लिया गया और मुसलमानों के शिविर में, जो चित्तौर से थोड़ी दूर पर था, कैद कर लिया गया। राजा को कैद करके यह घोषणा की गई कि जबतक पद्मिनी न भेज दी जायगी, राजा नहीं छूट सकता।

'चित्तौर में हाहाकार मच गया। पद्मिनी ने जब यह सुना तब उसने अपना मायके के गोरा और बादल नाम के दो सरदारों से मंत्रणा की। गोरा पद्मिनीक चाचा लगता था और बादल गोरा का भतीजा था। उन दोनों ने राजा के उद्धार की एक युक्ति सोची। अलाउद्दीन के पास कहलाया गया कि पद्मिनी जायगी, पर रानी की मर्यादा के साथ। अलाउद्दीन अपनी सब सेना वहाँ से हटा दे और परदे का पूरा इंतजाम कर दे। पद्मिनी के साथ बहुत सी दासियाँ रहेंगी और दासियों के सिवा बहुत सी सखियाँ भी होंगी जो केवल उसे पहुँचाने और बिदा करने जायँगी। अंत में सौ पालकियाँ अलाउद्दीन के खेमे की ओर चलीं। हर एक पालकी में एक एक सशस्त्र वीर राजपूत बैठा था। एक एक पालकी उठानेवाले जो छह छह कहार थे वे भी कहार बने हुए सशस्त्र सैनिक थे। जब वे शाही खेमे के पास पहुंचे तब चारों ओर कनातें घेर दी गईं। पालकियाँ उतारी गईं।

पद्मिनी को अपने पति से अतिम भेंट करने के लिये आधे घंटे का समय दिया गया। राजपूत चटपट राजा को पालकी में बिठाकर चित्तौरगढ़ की ओर चल पड़े। शेष पालकियाँ मानो पद्मिनी के साथ दिल्ली जाने के लिये रह गईं। अलाउद्दीन की भीतरी इच्छा भीमसी को चित्तौरगढ़ जाने देने की न थी। देर देखकर वह घनराया। इतने में पालकियों से वीर राजपूत निकल पड़े। अलाउद्दीन पहले से सतर्क था। उसने पीछा करने का हुक्म दिया। पालकियों से निकले हुए राजपूत बड़ी वीरता से उन पीछा करनेवालों को कुछ देर तक रोके रहे पर अंत में एक एक करके वे सब मारे गए।

'इधर भीमसी के लिये बहुत तेज घोड़ा तैयार खड़ा था। वह उसपर सवार होकर गोरा बादल आदि कुछ चुने साथियों के साथ चित्तौरगढ़ के भीतर पहुँच गया। पीछा करनेवाली मुसलमान सेना फाटक तक साथ लगी आई। फाटक पर घोर युद्ध हुआ। गोरा बादल के नेतृत्व में राजपूत वीर खूब लड़े। अलाउद्दीन अपना सा मुँह लेकर दिल्ली लौट गया; पर इस युद्ध में चित्तौर के चुने चुने वीर काम आए। गोरा भी इसी युद्ध में मारा गया। बादल, जो चारणों के अनुसार [ १८ ] केवल बारह वर्ष का था, बड़ी वीरता के साथ लड़कर जीता बच पाया। उसके मुँह से अपने पति की वीरता का वृत्तांत सुनकर गोरा की स्त्री सती हो गई।

'अलाउद्दीन ने सवत् १३४६ (सन् १२६० ई०; पर फरिश्ता के अनुसार सन् १३०३ ई० जो कि ठीक माना जाता है) में फिर चित्तौरगढ़ पर चढ़ाई की। इसी दूसरी चढ़ाई में राणा अपने ग्यारह पुत्रों सहित मारे गए। जव राणा के ग्यारह पुत्र मारे जा चुके और स्वयं राणा के युद्ध क्षेत्र में जाने की बारी आई तब पद्मिनी ने जौहर किया। कई सहल राजपूत ललनात्रों के साथ पद्मिनी ने चित्तौरगढ़ के उस गुप्त भूधरे में प्रवेश किया जहाँ उन सती स्त्रियों को अपने गोद में लेने के लिये आग दहक रही थी। इधर यह कांड समप्त हुआ उधर वीर भीमसी ने रणक्षेत्र में शरीरत्याग किया।

टाड ने जो वृत्त दिया है वह राजपूताने में रक्षित चारणों के इतिहासों के आधार पर है। दो चार व्योरों को छोड़कर ठीक यही वृत्तांत 'आइने अकबरी' में दिया हुआ है। 'आइने अकबरी' में भीमसी के स्थान पर रतनसी (रत्नसिंह या रत्नसेन) नाम है। रतनसी के मारे जाने का व्योरा भी दूसरे ढंग पर है। 'आइने अकबरी' में लिखा है कि अलाउद्दीन दूसरी चढ़ाई में भी हारकर लौटा। वह लौटकर चित्तौर से सात कोस पहुँचा था कि रुक गया और मैत्री का नया प्रस्ताव भेजकर रतनसी को मिलने के लिये बुलाया। अलाउद्दीन की बार बार की चढ़ाइयों से रतनसी ऊब गया था इससे उसने मिलना स्वीकार किया। एक विश्वासघाती को साथ लेकर वह अलाउद्दीन से मिलने गया और धोखे से मार डाला गया। उसका संबंधी अरसी चटपट चित्तौर के सिंहासन पर बिठाया गया। अलाउद्दीन चित्तौर की ओर फिर लौटा और उसपर प्राधिकार किया। अरसी मारा गया और पद्मिनी सब स्त्रियों के सहित सती हो गई।'

इन दोनों ऐतिहासिक वृत्तों के साथ जायसी द्वारा वर्णित कथा का मिलान करने से कई बातों का पता चलता है। पहली बात तो यह है कि जायसी ने जो 'रत्नसेन' नाम दिया है यह उनका कल्पित नहीं है, क्योंकि प्रायः उनके समसामयिक या थोड़े ही पीछे के ग्रंथ 'आइने अकबरी' में भी यही नाम आया था। यह नाम अवश्य इतिहासज्ञों में प्रसिद्ध था। जायसी को इतिहास की जानकारी थी। यह 'जायसी की जानकारी' के प्रकरण में हम दिखावेंगे। दूसरी बात यह है कि जायसी ने रत्नसेन का मुसलमानों के हाथ से मारा जाना लिखा है उसका आधार शायद विश्वासघाती के साथ बादशाह से मिलने जानेवाला यह प्रवाद हो जिसका उल्लेख पाइने अकबरीकार ने किया है।

अपनी कथा को काव्योपयोगी स्वरूप देने के लिये ऐतिहासिक घटनाओं के व्योरों में कुछ फेरफार करने का अधिकार कवि को बराबर रहता है। जायसी ने भी इस अधिकार का उपयोग कई स्थलों पर किया है। सबसे पहले तो हमें राघव चेतन की कल्पना मिलती है। इसके उपरांत अलाउद्दीन के चित्तौरगढ़ घेरने पर संभिकी जो शर्त (समुद्र से पाई हुई पाँच वस्तुओं को देने की) अलाउद्दीन की ओर से पेश की गई वह भी कल्पित है। इतिहास में दर्पण के बीच पद्मिनी की छाया देखने की शर्त प्रसिद्ध है। पर दर्पण के प्रतिबिंब देखने की बात का जायसी ने [ १९ ] आकस्मिक घटना के रूप में वर्णन किया है। इतना परिवर्तन कर देने से नायक रत्नसेन के गौरव की पूर्ण रूप से रक्षा हुई है। पद्मिनी की छाया भी दूसरे को दिखाने पर संमत होना रत्नसेन ऐसे पुरुषार्थी के लिये कवि ने अच्छा नहीं समझा। तीसरा परिवर्तन कवि ने यह किया है कि अलाउद्दीन के शिविर में बंदी होने के स्थान पर रत्नसेन का दिल्ली में दंदी होना लिखा है। रत्नसेन को दिल्ली में ले जाने से कवि को दूती और जोगिन के वृत्तांत, रानियों के विरह और विलाप तथा गोरा बादल के प्रयत्नविस्तार का पूरा अवकाश मिला है। इस अवकाश के भीतर जायसी ने पद्मिनी के सतीत्व की मनोहर व्यजना के अनंतर बालक बादल का वह क्षात्र तेज तथा कर्तव्य की कठोरता का वह दिव्य और मर्मस्पर्शी दृश्य दिखाया है जो पाठक के हृदय को द्रवीभूत कर देता है। देवपाल और अलाउद्दीन का दूती भेजना तथा बादल और उसकी स्त्री का संवाद, ये दोनों प्रसंग इसी निमित्त कल्पित किए गए हैं। देवपाल कल्पित पात्र है, पीछा करते हुए अलाउद्दीन के चित्तौर पहुँचने के पहले ही रत्नसेन का देवपाल के हाथ से मारा जाना और अलाउद्दीन के हाथ से न पराजित होना दिखाकर कवि ने अपने चरितनायक की पान रखी है।

पद्मिनी क्या सचमुच सिंहल की थी? पद्मिनी सिंहलद्वीप की हो नहीं सकती। यदि 'सिंहल' नाम ठीक मानें तो वह राजपूताने या गुजरात का कोई स्थान होगा। न तो सिंहलद्वीप में चौहान आदि राजपूतों की बस्ती का कोई पता है, न इधर हजार वर्ष से कूपमंडूक बने हुए हिंदुओं के सिंहलद्वीप में जाकर विवाह संबंध करने का। दुनिया जानती है कि सिंहलद्वीप के लोग (तमिल और सिंहली दोनों) कैसे काले कलूटे होते हैं। वहाँ पर पद्मिनी स्त्रियों का पाया जाना गोरखपंथी साधुनों की कल्पना है।

नाथपंथ की परंपरा वास्तव में महायान शाखा के योगमार्गी बौद्धों की थी जिसे गोरखनाथ ने शैव रूप दिया। बौद्धधर्म जब भारतवर्ष से उठ गया तब उसके शास्त्रों के अध्ययन अध्यापन का प्रचार यहाँ न रह गया। सिंहलद्वीप में ही बौद्ध शास्त्रों के अच्छे अच्छे पंडित रह गए। इसी से भारतवर्ष के अवशिष्ट योगमार्गी बौद्धों में सिंहलद्वीप एक सिद्धपीठ समझा जाता रहा। इसी धारणा के अनुसार गोरखनाथ के अनुयायी भी सिंहलद्वीप को एक सिद्ध पीठ मानते हैं। उनका कहना है कि योगियों को पूर्ण सिद्धि प्राप्त करने के लिये सिंहलद्वीप जाना पड़ता है जहाँ साक्षात् शिव परीक्षा के पीछे सिद्धि प्रदान करते हैं। पर वहाँ जानेवाले योगियों के शम दम की पूरी परीक्षा होती है। वहाँ सुवर्ण और रत्नों की अतुल राशि सामने आती है तथा पद्मिनी स्त्रियाँ अनेक प्रकार से लुभाती हैं। बहुत से योगी उन पद्मिनियों के हाव भाव में फंस योगभ्रष्ट हो जाते हैं। कहते हैं, गोरखनाथ (वि० संवत् १४०७) के गुरु मत्स्येंद्रनाथ (मछंदरनाथ) जब सिंहल में सिद्धि की पूर्णता के लिये गए तब पद्मिनियों के जाल में इसी प्रकार फंस गए। पद्मिनियों ने उन्हें एक कएँ में डाल रखा था। अपने गुरु की खोज में गोरखनाथ भी सिंहल गए और उसी कुएँ के पास से होकर निकले। उन्होंने अपने गुरु की आवाज पहचानी और कुएँ के किनारे खड़े होकर बोले 'जाग मछंदर गोरख पाया!' इसी प्रकार की और कहानियाँ प्रसिद्ध हैं। [ २० ]अब 'पद्मावत' की पूर्वार्ध कथा के संबंध में एक और प्रश्न यह होता है कि वह जायसी द्वारा कल्पित है अथवा जायसी के पहले से कहानी के रूप में जनसाधारण के बीच प्रचलित चली आती है। उत्तर भारत में, विशेषतः अवध में, 'पद्मिनी रानी और हीरामन सूए' की कहानी अबतक प्रायः उसी रूप में कही जाती है जिस रूप में जायसी ने उसका वर्णन किया है। जायसी इतिहासविज्ञ थे इससे उन्होंने रत्नसेन, अलाउद्दीन आदि नाम दिए हैं, पर कहानी कहनेवाले नाम नहीं लेते हैं; केवल यही कहते हैं कि 'एक राजा था', 'दिल्ली का एक बादशाह था', इत्यादि। यह कहानी बीच बीच में गा गाकर कही जाती है। जैसे, राजा की पहली रानी जब दर्पण में अपना मुँह देखती है तब सूए से पूछती है

देस देस तुम फिरौ हो सुग्रटा! मोरे रूप और कहु कोई?

सूआ उत्तर देता है--

काह बखानौं सिंहल के रानी। तोरे रूप भरै सब पानी।

इसी प्रकार 'वाला लखन देव' आदि की और रसात्मक कहानियाँ अवध में प्रचलित हैं जो बीच बीच में गा गाकर कही जाती हैं।

इस संबंध में हमारा अनुमान है कि जायसी ने प्रचलित कहानी को ही लेकर सूक्ष्म व्योरों की मनोहर कल्पना करके, उसे काव्य का सुंदर स्वरूप दिया है। इस मनोहर कहानी को कई लोगों ने काव्य के रूप में बाँधा। हुसैन गजनवी ने 'किस्सए पद्मावत' नाम का एक फारसी काव्य लिखा। सन् १६५२ ई० में रायगोविंद मुंशी ने पद्मावती की कहानी फारसी गद्य में 'तुकफतुल कुलूब' के नाम से लिखी। उसके पीछे मीर जियाउद्दीन 'इव्रत' और गुलाम अली 'इशरत' ने मिलकर सन् १७६६ ई० में उर्दू शेरों में इस कहानी को लिखा। यह कहा जा चुका है कि मलिक मुहम्मद जायसी ने अपनी 'पदमावत' सन् १५२० ई० में लिखी थी।