ज्ञानयोग/१०. बहुत्व में एकत्व

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१०. बहुत्व में एकत्व

पराच्चि खानि व्यतृणत् स्वयम्भूस्तस्मात् परान् पश्यति

नान्तरात्मन्।

कश्चिद्धीर ..प्रत्यगात्मानमैक्षदावृत्तचक्षुरमृतत्वमिच्छन् ।

—कठोपनिपद् , द्वितीय अध्याय, प्रथम वल्ली

स्वयंभू ने इन्द्रियो को बहिर्मुख होने का विधान बनाया है, इसीलिये मनुष्य सामने की ओर (विपयो की ओर ) देखता है.अन्तरात्मा को नहीं देखता। कोई कोई जानी व्यक्ति जो विपयो की ओर से निवृत्तदृष्टि है और अमृतत्व प्राप्ति की इच्छा रखता है, अन्तरस्थ आत्मा को देखा करता है।" हम देख चुके है कि वेदो के संहिता भाग मे तथा अन्य ग्रन्थो मे भी जगत् के तत्व का जो अनुसन्धान हो रहा था उससे बाहरी प्रकृति की तत्वालोचना द्वारा ही जगत् के कारण का अनुसन्धान करने की चेष्टा की गई थी, उसके बाद इन सभी सत्य की खोज करने वालो के हृदय मे एक नवीन प्रकाश आलोकित हुआ; उन्होंने समझ लिया कि बहिर्जगत् के अनुसन्धान द्वारा वस्तु का वास्तविक स्वरूप जानना असम्भव है । फिर किस प्रकार उसको जानना होगा ? वाहर की ओर से दृष्टि को फिरा कर अर्थात् भीतर की ओर दृष्टि करके जानना होगा। और यहाँ पर आत्मा का विशेपण स्वरूप जो 'प्रत्यक्' शब्द प्रयुक्त हुआ है वह भी एक विशेष भाव का द्योतक है । प्रत्यक् अर्थात् जो भीतर की ओर गया है -हमारी अन्तरतम वस्तु [ २०६ ]हृदय-केन्द्र, वही परम वस्तु जिससे मानो सब बाहर आया है, वही मध्यवर्ती सूर्य जिसकी किरणे है मन, शरीर, इन्द्रियाँ और जो कुछ हमारा है वह सब।

'पराचः कामाननुयन्ति बालास्ते मृत्योर्यन्ति विततस्य पाशम्।
अथ धीराः अमृतत्व विदित्वा ध्रुवमध्रुवेश्विह न प्रार्थयन्ते॥

(कठ―पूर्वोक्त)

"बालबुद्धि मनुष्य बाहरी काम्य वस्तुओं के पीछे दौड़ते फिरते है। इसीलिये सब ओर व्याप्त मृत्यु के पाश में बध जाते है, किन्तु ज्ञानी पुरुष अमृतत्व को जान कर अनित्य वस्तुओं में नित्य वस्तु की खोज नहीं करते।" यहाँ पर भी यही भाव प्रकट होता है कि सीमित वस्तुओ से पूर्ण बाह्य जगत् में असीम और अनन्त वस्तु की खोज व्यर्थ है―अनन्त की खोज अनन्त में ही करनी होगी और हमारी अन्तर्वर्ती आत्मा ही एक मात्र अनन्त वस्तु है। शरीर, मन आदि जितना भी जगत्प्रपञ्च हम देखते हैं अथवा जो हमारी चिन्ताये अथवा विचार है कुछ भी अनन्त नहीं हो सकता। इन सभी की उत्पत्ति काल में है और लय भी काल में है। जो द्रष्टा साक्षी पुरुष इन सब को देख रहा है, अर्थात् मनुष्य की आत्मा, जो सदा जाग्रत है वही एक मात्र अनन्त है, वही जगत् का कारणस्वरूप है; अनन्त की खोज करने के लिये हमे अनन्त में ही जाना पड़ेगा―उस अनन्त आत्मा में ही हम जगत् के कारण को देख पायेगे। 'यदेवेह तदमुत्र यदमुत्र तदन्त्रिह। मृत्योः स मृत्युमाप्नोति य इह नानेव पश्यति' (कठ―पूर्वोक्त)। 'जो यहाँ है वही वहाँ भी है; जो वहा है वही [ २०७ ]
यहाॅ भी है। जो यहाॅ नाना रूप देखते है वे बारबार मृत्यु को प्राप्त होते है।' सहिता भाग मे हम देखते है कि आर्यो में स्वर्ग जाने की विशेष रूप से इच्छा रहती थी। जब वे जगत्प्रपञ्च से विरक्त हो उठे तो स्वभावत ही उनके मन में एक ऐसे स्थान मे जाने की इच्छा हुई जहाॅ दुख से बिलकुल रहित केवल सुख ही सुख हो। 'ऐसे स्थानो का ही नाम स्वर्ग है--जहाॅ केवल आनन्द ही होगा, जहाॅ शरीर अजर अमर हो जायगा, मन भी वैसा ही हो जायगा और वे वहाँ पितृगणो के साथ सदा वास करेगे। किन्तु दार्शनिक विचारो की उत्पत्ति होने के बाद इस प्रकार के स्वर्ग की धारणा असगत और असम्भव मालूम पड़ेन लगी। 'अनन्त किसी एक देश मे है,' यह वाक्य ही स्वविरोधी है। किसी भी स्थानविशेष की उत्पत्ति और नाश दोनो ही काल में होते हैं। अतः उन्हे स्वर्गविषयक धारणा का त्याग कर देना पडा। वे धीरे धीरे समझ गये कि ये सब स्वर्ग मे रहने वाले देवता लोग एक समय इसी जगत् के मनुष्य थे, बाद मे किसी सत्कर्म के फलस्वरूप वे देवता बन गये है: अतः यह देवत्व केवल विभिन्न पढो का नाम मात्र है। वेद का कोई भी देवता किसी व्यक्तिविशेष का नाम नहीं है।

इन्द्र या वरुण किसी व्यक्ति के नाम नहीं है। ये सब विभिन्न पदो के नाम है। उनके मत के अनुसार जो पहले इन्द्र थे वे अब इन्द्र नहीं है, उनका इन्द्रत्व अब नहीं है, एक अन्य व्यक्ति यहाॅ से जाकर उस पद पर आरूढ़ हो गया है। सभी देवताओ के सम्बन्ध में इसी प्रकार समझना चाहिये। जो सब मनुष्य कर्म के बल से देवत्व प्राप्ति के योग्य अवस्य को प्राप्त कर चुके है
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वे ही सब इन पदो पर समय समय पर प्रतिष्ठित होते है। किन्तु इनका भी विनाश होता है। प्राचीन ऋग्वेद मे देवताओ के सम्बन्ध मे हम इस अमरत्व शब्द का व्यवहार देखते है अवश्य, किन्तु बाद के काल मे इसका एकदम परित्याग कर दिया गया है; कारण, उन्होने देखा कि यह अमरत्व देश-काल से अतीत होने के कारण किसी भौतिक वस्तु के सम्बन्ध में प्रयुक्त नही हो सकता, चाहे वह वस्तु कितनी ही सूक्ष्म क्यो न हो। वह कितनी ही सूक्ष्म क्यो न हो, उसकी उत्पत्ति देश-काल में ही है, कारण, आकार की उत्पत्ति का प्रधान उपादान देश है। देश को छोड़ कर आकार के विषय की कल्पना करके देखो, यह असम्भव है। देश ही आकार के निर्माण का एक विशिष्ट उपादान है--इस आकृति का निरन्तर परिवर्तन हो रहा है। देश और काल माया के भीतर है। और स्वर्ग भी इसी पृथ्वी के समान देश-काल की सीमा से बद्ध है यह भाव उपनिषदो के निम्नलिखित श्लोकांश मे व्यक्त किया गया है--'यदेवेह तदमुत्र यदमुत्र तदन्विह'--'जो कुछ यहाॅ है वह वहाॅ है, जो कुछ वहाॅ है वही यहाॅ भी है।' यदि ये ही देवता हैं तो जो नियम यहाँ है वही वहाॅ भी लागू होते है, और सभी नियमों का चरम उद्देश्य है--विनाश, और बाद मे फिर नये नये रूप धारण करना। इसी नियम के द्वारा सभी जड पदार्थ विभिन्न रूपो मे परिवर्तित हो रहे है, और टूट कर, चूरचूर होकर फिर उन्ही जड कणों मे परिणत हो रहे है। जिस किसी वस्तु की उत्पत्ति है, उसका विनाश होता ही है। अतएव यदि स्वर्ग है तो वह भी इसी नियम के अधीन होगा। [ २०९ ]हम देखते है कि इस जगत् में सभी प्रकार के सुखो की छाया के रूप में कोई न कोई दुःख रहता है। जीवन के पीछे उसकी छाया के रूप में मृत्यु रहती है। वे दोनो सदा एक साथ ही रहते है। कारण वे परस्पर विरोधी नहीं है: वे दोनो पूर्ण पृथक् सत्ताये नहीं हैं, वे एक ही वस्तु के दो विभिन्न रूप है, वह एक ही वस्तु जीवन-मृत्यु, सुख-दुःख, अच्छे-बुरे आदि रूप में प्रकाशित हो रही है। अच्छी और बुरी ये दोनो सम्पूर्ण रूप से पृथक् वस्तुये हैं और वे अनन्त काल से चली आ रही है, यह धारणा नितान्त असंगत है। वे वास्तव में एक ही बत्तु के विभिन्न रूप है―जो कभी अच्छे रूप में और कभी बुरे रूम में प्रतिभात हो रही है, बस। यह विभिन्नता प्रकारगत नहीं परिमाणगत है। उनका भेद वास्तव में मात्रा के तारतम्य में है। हम देखते हैं कि एक ही स्नायुप्रणाली अच्छे बुरे दोनो प्रकार के प्रवाह को ले जाती है। किन्तु यदि स्नायुमण्डली किसी प्रकार से बिगड़ जाय तो किसी प्रकार की अनुभूति ही न होगी। मान लो, एक स्नायु में पभाघात हो गया, उस समय उसमे से होकर जो सुखकर अनुभूति आती थी वह नहीं आयेगी, और दुःखकर अनुभूति भी नहीं आयेगी। वे सुख दुःख कभी भी पृथक् नहीं होते, वे मानो सर्वदा एकत्र ही रहते है और एक ही वस्तु जीवन में कभी सुख, कभी दुःख का उत्पादन करती है। एक ही वस्तु किसी को सुख और किसी को दुःख देती है। मांसाहार से खाने वाले को सुख अवश्य मिलता है, किन्तु जिसका मास खाया जाता है उसे तो भयानक कष्ट है। ऐसा कोई विषय ही नहीं जो सब को समान रूप से सुख देता हो। कुछ लोग सुखी हो रहे है और कुछ दुःखी। इसी प्रकार चलेगा।

१८ [ २१० ]अतः अब यह स्पष्ट होगया कि यह द्वैतभाव वास्तव में मिथ्या है। इससे क्या प्राप्त हुआ? मैं पहले व्याख्यान में ही यह कह चुका हूँ कि जगत् में ऐसी अवस्था कभी आ ही नहीं सकती जब सभी कुछ अच्छा हो जायगा और बुरा कुछ भी नहीं रहेगा। इससे अनेक व्यक्तियों की चिर घोषित आशा अवश्य चूर्ण हो जायगी, अनेक इससे भयभीत भी होंगे किन्तु इसे स्वीकार करने के अतिरिक्त मैं अन्य उपाय नहीं देखता। यदि मुझे कोई समझा दे कि वह सत्य है तो मैं समझने को तैयार हूँ, परन्तु जब तक मेरी समझ में नहीं आता तब तक कैसे मान सकता हूँ?

मेरे इस कथन के विरुद्ध कुछ युक्तियुक्त मालूम पड़ने वाला एक तर्क है कि क्रमविकास की गति के क्रम से समयानुसार जो कुछ अशुभ हम देखते है सभी चला जायगा―इसका फल यह होगा कि इसी प्रकार कम होते होते लाखों वर्ष के बाद एक ऐसा समय आयेगा जब सभी अशुभ नष्ट हो कर केवल शुभ ही शुभ शेष रह जायगा। ऊपर से देखने पर यह युक्ति एकदम अखण्डनीय मालूम पड़ सकती है। ईश्वरेच्छा से यदि यह सत्य होती तो बड़ा ही आनंद होता, किन्तु इस युक्ति में एक दोष है। वह यह कि यह शुभ और अशुभ दोनों को निर्दिष्ट परिमाण में लेती है। यह स्वीकार करती है कि एक निर्दिष्ट परिमाण में अशुभ है, मान लो कि वह १०० है, और इसी प्रकार निश्चित परिमाण में शुभ भी है और यह अशुभ कम होता जा रहा है और केवल शुभ बचता जा रहा है। किन्तु क्या वास्तव में ऐसा ही है? जगत् का इतिहास साक्षी है कि शुभ के समान अशुभ भी क्रमशः बढ़ ही रहा है। [ २११ ]समाज के अत्यन्त निम्न स्तर के व्यक्ति को लीजिये। वह जंगल में रहता है, उसके भोगसुखों की संख्या कम है, इसलिये उसके दुःख भी कम है। उसके दुःख केवल इन्द्रियविषयो तक ही सीमित हैं। यदि उसे पर्याप्त मात्रा में भोजन न मिले तो वह दुःखी हो जाता है। उसे खूब भोजन दो, उसे स्वच्छन्द हो कर घूमने फिरने और शिकार करने दो, वह पूरी तरह सुखी हो जायगा। उसका सुख-दुःख सभी केवल इन्द्रियो में ही आबद्ध है। मानलो कि उसका ज्ञान बढ़ने लगा। उसका सुख बढ़ रहा है, उसकी बुद्धि खुल रही है, वह जो सुख पहले इन्द्रियो में पाता था अब वही सुख उसे बुद्धि की वृत्तियो को चलाने में मिलता है। वह एक सुन्दर कविता पाठ करके अपूर्व सुख का स्वाद लेता है। गणित की किसी समस्या की मीमांसा करने में ही उसका सम्पूर्ण जीवन कट जाय, इसी में उसको परम सुख प्राप्त है। किन्तु इसके साथ साथ असभ्य अवस्था में जिस तीव्र यंत्रणा का उसने अनुभव नहीं किया, अब उसके स्नायु उसी तीव्र यंत्रणा का अनुभव करने के भी क्रमशः अभ्यासी हो जाते है, अतः उसे तीव्र मानसिक कष्ट होता है। एक बहुत ही साधारण उदाहरण लीजिये। तिब्बत देश में विवाह नहीं होता, अतः वहाँ प्रेम की ईर्ष्या भी नहीं पाई जाती, फिर भी हम जानते ही है कि विवाह अपेक्षाकृत उन्नत समाज का परिचायक है। तिब्बती लोग निष्कलक स्वामी और निष्कलक स्त्री के विशुद्ध दाम्पत्य-प्रेम का सुख नहीं जानते। किन्तु साथ ही किसी पुरुष या स्त्री के पतन हो जाने से दूसरे के मन में कितनी भयानक ईर्ष्या, कितना अन्तर्दाह उपस्थित हो जाता है वे यह भी नहीं जानते। एक ओर उच्च धारणा से सुख में वृद्धि हुई अवश्य, किन्तु दूसरी ओर इससे दुःख की भी वृद्धि हुई। [ २१२ ]आप अपने देश की ही बात लीजिये―पृथ्वी पर इसके समान धनिको का देश दूसरा नहीं है―और दुःख कष्ट यहाँ किस प्रबल रूप में विराजमान है वह भी देखिये। अन्यान्य देशों की अपेक्षा यहाँ पागलों की संख्या कितनी अधिक है! इसका कारण है, यहाँ के लोगो की वासनाये अति तीव्र, अत्यन्त प्रबल हैं। यहाँ के लोगों को जीवन का स्तर सर्वदा ऊँचा ही रखना होता है। आप लोग एक वर्ष में जितना खर्च कर देते हैं, वह एक भारतीय के लिये जीवन भर की सम्पत्ति के बराबर है। और आप लोग दूसरों को उपदेश भी नहीं दे सकते कि खर्च कम करो, कारण, यहाँ चारों ओर की अवरथा ही ऐसी है कि किसी विशेष स्थान में इतने से कम में खर्च ही नहीं चलेगा―नहीं तो सामाजिक चक्र में आपको पिस जाना पड़ेगा। यह सामाजिक चक्र दिन रात घूम रहा है―वह विधवा के आँसुओं पर और अनाथ बालक-बालिकाओं के चीत्कार पर तनिक भी कान नहीं देता। आपको भी इसी समाज में आगे बढ़कर चलना होगा, नहीं तो इसी चक्र के नीचे पिस जाना होगा। यहाँ सभी जगह यही अवस्था है। आप लोगो की भोगसम्बन्धी धारणा भी अत्यधिक परिमाण में विकासप्राप्त हो गई है, आप का समाज भी अन्यान्य समाजो की अपेक्षा लोगों को अधिक आकर्षित करता है। आपके भोगों के भी नाना प्रकार के उपाय हैं। किन्तु जिनके पास आपके समान भोगो की सामग्री नहीं है या कम है उनके लिये आपकी अपेक्षा दुःख भी कम हैं। इसी प्रकार आप सभी जगह देखेगे। आपके मन में जितनी दूर तक उच्च अभिलाषाये रहेगी आपको सुख भी उतना ही अधिक मिलेगा और उसी परिमाण में दुःख भी। एक मानो दूसरे की छाया स्वरूप है। अशुभ कम होता जा रहा है यह बात सत्य हो सकती है, किन्तु उसके साथ ही शुभ भी कम [ २१३ ]
हो रहा है यह भी कहना पड़ेगा। किन्तु वास्तव मे एक ओर जैसा दुःख कम हो रहा है दूसरी ओर वैसा ही क्या करोडो गुना बढ नहीं रहा है? बात यही है कि सुख यदि समयुक्तान्तर श्रेणी (Arithmetical progression) के नियम से बढ रहा है तो दुःख समगुणितान्तर श्रेणी अर्थात् (Geometrical progression) के नियम से बढ रहा है ऐसा कहना पडेगा। इसीका नाम माया है। यह न केवल सुखवाद है, न केवल दुःखवाद। वेदान्त यह नहीं कहता कि जगत् केवल दुख मय है। ऐसा कहना ही भूल है। और जगत् सुख से परिपूर्ण है, यह कहना भी ठीक नही है। बालको के लिये यह जगत् केवल मधुमय है--यहाॅ केवल सुख है, केवल फूल है, केवल सौन्दर्य हैं, केवल मधु है--इस प्रकार की शिक्षा देना भूल है। हम सारे जीवन इन्ही फूलो का स्वप्न देखते है। और कोई एक व्यक्ति अन्य की अपेक्षा अधिक दुख भोगता है, इसीलिये सब दुखमय है यह कहना भी भूल है। जगत् इसी द्वैत भाव से पूर्ण अच्छे बुरे का खेल है। वेदान्त इसके अतिरिक्त एक और बात कहता है। यह मत सोचो कि अच्छा और बुरा दो सम्पूर्ण पृथक वस्तुये है। वास्तव में वह एक ही वस्तु है। एक ही वस्तु भिन्न भिन्न रूप से भिन्न भिन्न आकार मे आविर्भूत हो कर एक ही व्यक्ति के मन मे भिन्न भिन्न भाव उत्पन्न करती है। अतएव वेदान्त का प्रथम कार्य है इस ऊपर से भिन्न प्रतीत होने वाले वाह्य जगत् मे एकत्व का आविष्कार करना। पारसीयो का मत है कि दो देवताओ ने मिलकर जगत् की सृष्टि की है। यह मत अवश्य ही बहुत कम उन्नत मन का परिचायक है। उनके मत से जो अच्छा देवता है वह सभी सुखो का विधान कर रहा है; और बुरा देवता सभी बुरे विषयो का विधान कर रहा है। यह स्पष्ट है कि ऐसा
[ २१४ ]होना असम्भव है; कारण, वास्तव में यदि इसी नियम से सभी कार्य हो तो प्रत्येक प्राकृतिक नियम के दो अंश हो जायेंगे―कभी तो एक देवता उसे चलाता है, वह चला गया, उसकी जगह और एक आया। किन्तु वास्तव में हम देखते है कि जो शक्ति हमे खाना पीना देती है वही दैवदुर्विपाक द्वारा अनेकों का संहार भी करती है। यह मल स्वीकार करने में एक और गड़बड यह है कि एक ही समय दो देवता कार्य कर रहे है। एक स्थान पर एक किसी का उपकार कर रहा है, दूसरे स्थान पर दूसरा किसी का अपकार कर रहा है। फिर भी दोनों के बीच सामञ्जस्य बना रहता है―यह किस प्रकार सम्भव है? अवश्य ही यह मत जगत् के द्वैत तत्व को प्रकाश करने की एक बहुत ही स्थूल प्रणाली मात्र है―इसमे कोई सन्देह नहीं।

अब हम उच्चतर दर्शनों में इस विषय में क्या सिद्धान्त माना गया है इस पर विचार करेगे। इनमें स्थूल तत्व की बात छोड़कर सूक्ष्म भाव की दृष्टि से कहा जाता है कि जगत् कुछ तो अच्छा है, कुछ बुरा। पहले जो युक्तिपरम्परा हमने ग्रहण की, उसके अनुसार वह भी असम्भव है।

अतएव हम देखते है कि केवल सुखवाद अथवा केवल दुःख- वाद―किसी भी मत के द्वारा जगत् की यथार्थ व्याख्या या वर्णन नहीं होता। कुछ घटनाएँ सुखवाद की पोषक है, कुछ दुःखवाद की समर्थक। किन्तु क्रमशः हम देखेंगे कि वेदान्त में सभी दोष प्रकृति के कन्धो से हटाकर हमारे अपने ऊपर दिया गया है। और इसी में हमे विशेष आशा भी दी गई है। वेदान्त वास्तव में अमंगल अस्वीकार नहीं करता। वह जगत् की सभी घटनाओ के सभी अंशों [ २१५ ]का विश्लेषण करता है---किसी भी विषय को छिपाकर रखना नहीं चाहता। वह मनुष्य को एकदम निराशा के सागर मे नही बहा देता। वह अज्ञेयवादी भी नहीं है। उसने इस सुख-दुःख के प्रतीकार के उपाय का आविष्कार किया है, और यह प्रतीकार का उपाय वज्र के समान दृढ़ भित्ति पर प्रतिष्ठित है। वह ऐसा उपाय नहीं बताता जिससे कि केवल बच्चे का मुँह बन्द कर दिया जाय एवं जिसे वह सहज में ही समझ ले, ऐसे स्पष्ट असत्य के द्वारा उसकी दृष्टि को अन्धा कर दिया जाय। मुझे याद है, जब मैं बालक था उस समय किसी युवक के पिता मर गये जिससे वह बड़ा गरीब हो गया, एक बड़े परिवार का भार उसके गले पड़ गया। उसने देखा कि उसके पिता के मित्र लोग ही उसके प्रधान शत्रु है। एक दिन एक धर्माचार्य के साथ साक्षात् होने पर वह अपने दुःख की कहानी कहने लगा और वे उसको सान्त्वना देने के लिये कहने लगे, "जो होता है अच्छा ही होता है, जो कुछ होता है अच्छे के लियेही होता है।" पुराने घाव को जिस प्रकार मखमल के कपड़े से ढक रखना होता है, धर्माचार्य की उपर्युक्त बात भी ठीक वैसी ही थी। यह हमारी अपनी दुर्बलता और अज्ञान का परिचय मात्र है। छ मास के बाद उसी धर्माचार्य के घर एक सन्तान हुई, उसके उपलक्ष्य मे जो उत्सव हुआ उसमे वह युवक भी निमत्रित था। धर्माचार्य महोदय भगवान् की पूजा आरम्भ करके बोले---ईश्वर की कृपा के लिये उसे धन्यवाद है।' तब युवक उठकर बोला---'यह क्या कह रहे है? उसकी कृपा कहाँ है? यह नो घोर अभिशाप है।' धर्माचार्य ने पूछा---'वह कैसे?' युवक ने उत्तर दिया---'जब मेरे पिता की मृत्यु हुई तब ऊपर ऊपर अमंगल होने पर भी उसे आपने मंगल कहा था। इस [ २१६ ]
समय आपकी सन्तान का जन्म भी यद्यपि ऊपर ऊपर आपको मगल सा लग रहा है किन्तु वास्तव मे मेरी दृष्टि से यह महा अमंगलकारी मालूम होता है। इसी प्रकार जगत् के दुःख-अमगल को ढक रखना ही क्या जगत् का दुःख दूर करने का उपाय हो सकता है? स्वयं अच्छे वनो और जो कष्ट पा रहे है उनके ऊपर दया करो। जोड जाड करके रखने की चेष्टा मत करो, उससे भवरोग दूर नही होगा। वास्तव मे हमे जगत् के बाहर जाना पडेगा।

यह जगत् सदा ही भले और बुरे का मिश्रण है। जहाॅ भलाई देखो, समझ लो कि उसके पीछे बुराई भी छिपी है। किन्तु इन सभी व्यक्त भावों के पीछे--इन सब विरोधी भावो के पीछे वेदान्त उसी एकत्व को देखता है। वेदान्त कहता है, बुराई छोडो, और भलाई भी छोडो। ऐसा होने पर शेष क्या रहा? वेदान्त कहता है कि केवल अच्छे बुरे का ही अस्तित्व है यह बात नही। इनके पीछे एक ऐसी वस्तु रहती है जो वास्तव मे तुम्हारी है, जो वास्तव मे तुम्हीं हो, जो सब प्रकार के शुभ और सब प्रकार के अशुभ के बाहर है। वही वस्तु शुभ और अशुभ रूप मे प्रकाशित हो रही है। पहले इसको जान ली-तभी, और केवल तभी तुम पूर्ण सुखवादी हो सकते हो। इसके पूर्व नहीं। ऐसा होने पर ही तुम सभी पर विजय प्राप्त कर सकते हो। इन्ही आपातप्रतीयमान व्यक्त भावो को अपने आधीन करो, तब तुम उस सत्य वस्तु को इच्छानुसार जैसा चाहो प्रकाशित कर सकोगे। तभी तुम उन्हे चाहे शुभ रूप मे, चाहे अशुभ रूप मे जैसी इच्छा हो प्रकाशित कर सकोगे। किन्तु पहले तुम्हे स्वय अपना ही प्रभु बनना पड़ेगा। उठो, अपने को मुक्त करो, इस समस्त
[ २१७ ]
नियमो के राज्य के बाहर जाओ, कारण ये नियम प्रकृति के सभी अशो मे व्यापक नहीं है, वे तुम्हारे वास्तविक स्वरूप को बहुत कम प्रकाशित करते है। पहले अपने को समझो कि तुम प्रकृति के दास नही हो, न कभी थे, न कभी होओगे-प्रकृति यो तो अनन्त मालूम पडती है अवश्य, किन्तु वास्तव मे वह ससीम है। वह समुद्र का एक बिन्दु मात्र है, और तुम्ही वास्तव मे समुद्र रूप हो, तुम चन्द्र, सूर्य, तारे सभी के अतीत हो। तुम्हारे अनन्त स्वरूप की तुलना में वे केवल बुदबुदो के समान है। यह जान लेने पर तुम अच्छे और बुरे दोनो पर विजय पा जाओगे। तभी तुम्हारी दृष्टि एकदम परिवर्तित हो जायगी, तब तुम खडे हो कर कह सकोगे, 'मंगल कितना सुन्दर है और अमगल कितना अद्भुत है!'

वेदान्त यही करने को कहता है। वेदान्त यह नहीं कहता कि स्वर्णपत्र से घाव के स्थान को ढॉक कर रक्खो, और घाव जितना ही पकता जाय उसे और भी स्वर्णपत्रो से मढ दो। जीवन एक कठिन समस्या है इसमे सन्देह नहीं। यद्यपि वह वज्र के समान दुर्भेद्य प्रतीत होता है, तथापि यदि हो सके तो इसके बाहर जाने की चेष्टा करो--आत्मा इस देह की अपेक्षा अनन्त गुना शक्तिमान है। वेदान्त तुम्हारे कर्म-फल के लिये दूसरे देवता पर दायित्व नहीं डालता, वह कहता है, तुम स्वय ही अपने अदृष्ट के निर्माता हो। तुम अपने कर्म--फल से अच्छे और बुरे दोनो ही फल भोग करते हो, तुम अपने ही हाथो से अपनी ऑखे मूॅद कर कहते हो-अन्धकार है। हाथ हटाओ--तुम्हे प्रकाश दिखेगा। तुम ज्योतिस्वरूप हो--तुम पहले से ही सिद्ध हो। अब हम-- 'मृत्यो. स मृत्युमाप्नोति य इह नानेव पश्यति' इस श्रुति का अर्थ समझ पा रहे हैं। [ २१८ ]किस प्रकार हम इस तत्व को जान सकते है? यह मन जो इतना भ्रान्त और र्दबल है, जो इतने सहज में विभिन्न दिशाओं में दौड़ जाता है, इस मनको भी सबल किया जा सकता है―जिससे वह उस ज्ञान का―उसी एकत्व का आभास पा सके। उस समय वही ज्ञान पुनः पुनः मृत्यु के हाथो से हमारी रक्षा करता है। "यथोदकं दुर्गे वृष्टं पर्वतेषु विधावति। एवं धर्मान् पृथक् पश्यंस्तानेवानुविधावति।" (कठ॰ अ॰ २, वल्ली १, श्लोक १४) "जल उच्च दुर्गम भूमि में वरस कर जिस प्रकार पर्वतों में से होकर विकीर्ण हो दौड़ता है, उसी प्रकार जो व्यक्ति गुणों को पृथक् करके देखता है वह उन्हीं का अनुवर्तन करता है।" वास्तविक शक्ति एक है, केवल माया में पड़ कर अनेक होगई है। अनेक के पीछे मत दौड़ो, बस उसी एक की ओर अग्रसर होओ।" हंसः शुचिषद्वसुरन्तरिक्षसद्धोता वेदिपदतिथि- र्दुरोणसत्। नृषद्वरसदृतसद्वयोमसदव्जा गोजा ऋतजा अद्रिजा ऋतं वृहत्।" (कठ॰ अ॰ २, वल्ली २, श्लोक २) "वह (वही आत्मा) आकाशवासी सूर्य, अन्तरिक्षवासी वायु, वेदिवासी अग्नि और कलशवासी सोमरस है। वही मनुष्य, देवता, यज्ञ और आकाश में है, वही जल में, पृथिवी पर, यज्ञ में और पर्वत पर उत्पन्न होता है; वह सत्य है, वह महान् है।" "अग्निर्यथैको भुवन प्रविष्टो रूपं रूपं प्रतिरूपो वभूव। एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा रूप रूप प्रतिरूपो बहिश्च।" "वायुर्यथैको भुवंन प्रविष्टो रूपं रूपं प्रतिरूपो वभूव। एकस्तथा सर्व- भूतान्तरात्मा रूपं रूपं प्रतिरूपो वहिश्च।" (कठ॰ अ॰ २, वल्ली २, उलोक ९-१०) "जिस प्रकार एक ही अग्नि जगत् में प्रविष्ट होकर" दाह्य वस्तु के रूपभेद से भिन्न भिन्न रूप धारण करती है उसी प्रकार सब भूतों का एक अन्तरात्मा नाना वस्तुओं के भेद से उस उस वस्तु [ २१९ ]का रूप धारण कर लेता है, और सब के बाहर भी रहता है। जिस प्रकार एक ही वायु जगत् में प्रविष्ट होकर नाना वस्तुओ के भेद से तत्तद्रूप हो गयी है उसी प्रकार वही एक सब भूतो का अन्तरात्मा नाना वस्तुओं के भेद से उस उस रूप का हो गया है और उनके बाहर भी है।" जब तुम इस एकत्व की उपलब्धि करोगे तभी यह अवस्था होगी, उससे पूर्व नहीं। यही वास्तविक सुखवाद है―सभी जगह उसका दर्शन करना। अब प्रश्न यही है कि यदि यह सत्य है, यदि वह शुद्ध स्वरूप अनन्त आत्मा इन सब के भीतर प्रवेश करके रहता है तब यह क्यो सुख दुःख भोग करता है? क्यों वह अपवित्र होकर दुःख भोग करता है। उपनिषद कहते हैं कि वह दुःखानुभव नहीं करता। "सूर्यो यथा सर्वलोकस्य चक्षुर्न लिप्यते चाक्षुपैः बाह्यदौषै। एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा न लिप्यते लोकदुःखेन बाह्यः।" (कठ॰ अ॰ २, वल्ली २, श्लोक ११) "सभी लोको का चक्षुरूप सूर्य जिस प्रकार चक्षुग्राह्य वाह्य अपवित्र वस्तु के साथ लिप्त नहीं होता उसी प्रकार एक मात्र सब प्राणियो का अन्तरात्मा जगत् सम्बन्धी दुःख के साथ लिप्त नहीं होता, कारण वह फिर भी जगत् के अतीत है।" हमे एक रोग ऐसा हो सकता है जिसके कारण हमे सभी कुछ पीले रंग का दिखाई दे, किन्तु इससे सूर्य पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। "एको वशी सर्वभूतान्तरात्मा एकं रूप बहुधा यः करोति। तमान्मस्थ येऽनुपश्यन्ति धीरास्तपां सुखं शाश्वतं नेतरेपाम्।" (कठ॰ अ॰ २, वल्ली २, श्लोक १२) "जो एक है, सब का नियन्ता एवं सब प्राणियों का अन्तरात्मा, जो अपने एक रूप को अनेक प्रकार का कर लेता है, उसका दर्शन जो ज्ञानी पुरुष अपने में करते है, वे ही नित्य सुखी है, अन्य नहीं।" "नित्योऽनित्यानां चेतनश्चेतनानामेको [ २२० ]वहूनां यो विदधाति कामान्। तमात्मस्थं येऽनुपश्यन्ति धीरास्तेषां शान्तिः शाश्वती नेतरेपाम्।" (कठ० अ० २, वल्ली २, श्लोक १३) "जो अनित्य वस्तुओ मे नित्य है, जो चेतना वालो मे चेतन है, जो एकाकी अनेको की सभी काम्य वस्तुओ का विधान करता है, उसका जो ज्ञानी लोग अपने अन्दर दर्शन करते है, उन्ही को नित्य शान्ति मिलती है, औरों को नहीं।" बाह्य जगत् मे वह कहाॅ मिल सकता है। सूर्य चन्द्र अथवा तारे उसको कैसे पा सकते है? "न तत्र सूर्यो भाति, न चन्द्रतारक, नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्नि', तमेव भान्तमनुभाति सर्वं, तस्य भासा सर्वमिद विभाति।" (कठ० अ० २, वल्ली २, श्लोक १५) "वहाॅ सूर्य प्रकाश नहीं देता, चन्द्र तारे आदि नहीं चमकते, ये बिजलियाॅ भी नहीं चमकतीं, फिर अग्नि की क्या बात? सभी वस्तुये उस प्रकाशमान से ही प्रकाशित होती है, उसी की दीप्ति से सब दीप्त होते है।" "ऊर्ध्वमूलोऽवाक्शाखः एषोऽश्वत्थ सनातनः। तदेव शुक्र तद्ब्रह्म तदेवामृतमुच्यत। तस्मॅिल्लोकाः श्रिताः सर्वे तदु नात्यति कश्चन। एतद्वैतत्।" (कठ० अ० २, वल्ली ३, श्लोक १) "ऊपर की ओर जिसका मूल और नीचे की ओर जिसकी शाखाये है ऐसा यह चिरतन अश्वत्थ वृक्ष (ससार वृक्ष) है। वही उज्ज्वल है, वही ब्रह्म है, उसी को अमृत कहते है। समस्त संसार उसी मे आश्रित है। कोई उसको अतिक्रमण नही कर सकता। यही वह आत्मा है।"

वेद के ब्राह्मण भाग मे नाना प्रकार के स्वर्गों की कथाये है। उपनिषद का यही कहना है कि स्वग जाने की इस वासना का त्याग करना होगा। इन्द्रलोक या वरुणलोक जाने से ही ब्रह्मदर्शन होगा यह बात नहीं है, वरञ्च इस आत्मा के अन्दर ही ब्रह्म का दर्शन
[ २२१ ]
स्पष्ट रूप से होता है। "यथादर्शे तथात्मनि यथा स्वप्ने तथा पितृलोके। यथाप्सु परीव ददृशे तथा गन्धर्वलोके छायातपयोरिव ब्रह्मलोके। (कठ० अ० २, बल्ली ३, श्लोक ५) "जिस प्रकार आरसी मे लोग अपना प्रतिबिम्ब स्पष्ट रूप से देखते है, उसी प्रकार आत्मा में ब्रह्म का दर्शन होता है। जिस प्रकार स्वप्न मे हम अपने को अस्पष्ट रूप से देखते है उसी प्रकार पितृलोक मे ब्रह्मदर्शन होता है। जिस प्रकार जल मे लोग अपना रूप देखते है उसी प्रकार गन्धर्वलोक मे ब्रह्मदर्शन होता है। जिस प्रकार प्रकाश और छाया परस्पर पृथक् है उसी प्रकार ब्रह्मलोक मे ब्रह्म और जगत् स्पष्ट रूप से पृथक् मालूम पडते है।" किन्तु फिर भी पूर्ण रुप से ब्रह्मदर्शन नहीं होता। अतएव वेदान्त कहता है कि हमारा अपना आत्मा ही सर्वोच्च स्वर्ग है, मानवात्मा ही पूजा के लिये सर्वश्रेष्ठ मन्दिर है, वह सभी स्वर्गों से श्रेष्ठ है। कारण इस आत्मा मे उस सत्य का जैसा स्पष्ट अनुभव होता है और कही भी उतने स्पष्ट रूप से अनुभव नहीं होता। एक स्थान से अन्य स्थान में जाने से ही आत्मदर्शन के सम्बन्ध मे कुछ विशेष सहायता होती हो सो बात नही। जब मै भारतवर्ष में था तो सोचता था कि किसी गुफा मे बैठ कर शायद खूब स्पष्ट रूप से ब्रह्म की अनुभूति होगी, परन्तु उसके बाद देखा कि यह बात नहीं है। फिर सोचा जगल मे जाकर बैठने से शायद सुविधा होगी। काशी की बात भी मन में आई। सभी स्थान एक प्रकार के है, कारण हम स्वय ही अपना जगत् तैयार कर लेते है। यदि मैं बुरा बन जाऊँ तो सभी जगत् मुझे बुरा दीख पडेगा। उपनिषद् यही कहते हैं और वही एक नियम सब जगह लागू होगा। यदि मेरी यहाॅ मृत्यु हो जाती है एवं यदि
[ २२२ ]मैं स्वर्ग जाता हूँ तो वहाँ भी मैं सब कुछ यही के समान देखूँगा। जब तक आप पवित्र नहीं हो जाते तब तक गुफा, जंगल, काशी अथवा स्वर्ग जाने से कोई विशेष लाभ नहीं। और यदि आप अपने चित्त रूपी दर्पण को निर्मल कर सकें तब आप चाहे कही भी रहे, आप वास्तविक सत्य का अनुभव करेंगे। अतएव इधर उधर भटकना शक्ति का व्यर्थ ही भय करना मात्र है―उसी शक्ति को यदि चित्तदर्पण को निर्मल बनाने में लय किया जाय तभी ठीक होता है। निम्नलिखित श्लोक में इसी भाव का वर्णन है:―

न सन्दृशे तिष्ठति रूपमस्य
न चक्षुपा पश्यति कश्चनैनम्।
हृदा मनीषा मनसाभिक्लृप्तो
य एतद्विदुरमृतास्ते भवन्ति।

(कठ॰ अ॰ २, बल्ली ३, श्लोक ९)

उसका रूप देखने की वस्तु नहीं। कोई उसको आँख से नहीं देख सकता। हृदय, संशयरहित बुद्धि एवं मनन के द्वारा वह प्रकाशित होता है। जो इस आत्मा को जानते है वे अमर हो जाते है। जिन लोगों ने राजयोग सम्बन्धी मेरे व्याख्यान सुने है उनके लिये मैं कहता हूँ कि वह योग ज्ञानयोग से कुछ भिन्न प्रकार का है। ज्ञानयोग का लक्षण इस प्रकार कहा गया है। जैसेः―

यदा पञ्चावतिष्ठन्ते ज्ञानानि मनसा सह।
बुद्धिश्च न विचेष्टति तामाहुः परमां गतिम्॥

(कठ॰ अ॰२, वल्ली ३, श्लोक १०)

[ २२३ ]अर्थात् जब सभी इन्द्रियाँ संयत हो जाती हैं, जब मनुष्य इनको अपना दास बना कर रखता है, जब वे मन को चंचल नहीं कर

पाती, तभी योगी चरम गति को प्राप्त होता है।

यदा सर्वे प्रमुच्चन्ते कामा येऽस्य हृदि श्रिता।
अथ मोर्त्योऽमृतो भवत्यत्र ब्रह्म समश्नुते॥
यदा सर्वे प्रभिद्यन्ते हृदयस्येह ग्रन्थयः।
अथ मोर्त्योऽमृतो भवत्येतावद्धयनुशासनम्॥

(कठ॰ अ॰ २, वल्ली ३, श्लोक १४, १५)

"जो सब कामनाये मर्त्य जीव के हृदय का आश्रय लेकर रहती है वे सब जब नष्ट हो जाती है तब मनुष्य अमर हो जाता है और यही ब्रह्म को प्राप्त होता है। जब इस संसार में हृदय की सभी ग्रन्थियाँ कट जाती है तब मनुष्य अमर हो जाता है, यही उपदेश है।"

साधारणतः लोग कहते है कि वेदान्त, केवल वेदान्त ही क्यों, भारतीय सभी दर्शन और धर्म इस जगत् को छोड़ कर इसके बाहर जाने का उपदेश देते है। किन्तु ऊपर कहे हुये दोनो श्लोकों से प्रमाणित होता है कि वे स्वर्ग अथवा अन्य कही जाना नहीं चाहते, प्रत्युत वे कहते हैं कि स्वर्ग के भोग, सुख, दुःख सब क्षणस्थायी है। जब तक हम दुर्बल रहेगे तब तक हमे स्वर्ग नरक आदि में घूमना पड़ेगा, किन्तु आत्मा ही एक मात्र वास्तविक सत्य है। वे यह भी कहते है कि आत्महत्या द्वारा जन्म-मृत्यु के इस प्रवाह को अतिक्रमण नहीं किया जा सकता। हॉ. वास्तविक मार्ग पाना अन्यन्त कठिन [ २२४ ]अवश्य है। पाश्चात्य लोगो के समान हिन्दू भी क्रियात्मक रूप चाहते हैं, परन्तु दोनो का दृष्टिकोण भिन्न है। पश्चिमी लोग कहते है, एक अच्छा सा मकान बनाओ, उत्तम भोजन करो, उत्तम वस्त्र पहिनो, विज्ञान की चर्चा करो, बुद्धि की उन्नति करो। ये सब करने के समय वे अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होते है। किन्तु हिन्दू लोग कहते हैं, आत्मज्ञान ही जगत् का ज्ञान हैं। वे उसी आत्मज्ञान के आनन्द में विभोर हो कर रहना चाहते हैं। अमेरिका में एक प्रसिद्ध अज्ञेयवादी वक्ता है, वे अत्यन्त सन्जन और एक बड़े सुन्दर वक्ता भी है। वे धर्म के सम्बन्ध में एक व्याख्यान देते और कहते है कि धर्म की कोई आवश्यकता नहीं है, परलोक को लेकर अपना मस्तिष्क खराब करने की हमे तनिक भी आवश्यकता नहीं है। अपने मत को समझाने के लिये उन्होंने इस उदाहरण को लेकर कहा है―जगत् रूप यह सन्तरा हमारे सामने है, हम उसका सब रस बाहर निकाल लेना चाहते है। मेरी एक बार उनसे भेट हुई। मैंने उनसे कहा-"मेरा आप के साथ एकमत है, मेरे पास भी यही फल है, मैं भी इसका सब रस लेना चाहता हूँ। किन्तु आपसे मेरा मतभेद है केवल इस विषय को लेकर कि यह फल है क्या। आप इसे सन्तरा समझते है और मैं कहता हूँ यह आम है। आप समझते हैं कि जगत् में आकर खूब खा पीकर, पहिन कर और कुछ वैज्ञानिक तत्व जानकर ही बस चूडान्त हो गया, किन्तु आपको यह कहने का कोई अधिकार नहीं है कि इसे छोड़कर मनुष्य का और कोई कर्तव्य ही नहीं है। मेरे लिये तो यह धारणा बिलकुल ही छोटी है।"

यदि जीवन का एक मात्र कार्य यह जानना ही हो कि सेब [ २२५ ]किस प्रकार भूमि पर गिरता है अथवा विद्युत का प्रवाह किस प्रकार स्नायुओ को उत्तेजित करता है तब तो मैं इसी क्षण आत्महत्या कर लूँ। मेरा संकल्प है कि मैं सभी वस्तुओ के मर्म की खोज करूँगा और जीवन का वास्तविक रहस्य क्या है यह जानूँगा। आप प्राण के विभिन्न विकासो की आलोचना कीजिये, मैं तो प्राण का स्वरूप जानना चाहता हूँ। मैं इस जीवन का समस्त रस सोख लेना चाहता हूँ। मेरा दर्शन कहता है कि जगत् और जीवन का समस्त रहस्य जानना होगा, स्वर्ग नरक आदि का सभी कुसंस्कार छोड़ देना होगा, चाहे उनकी सत्ता ठीक इसी पृथ्वी के समान क्यो न हो। मैं इस आत्मा की अन्तरात्मा को जानूँगा—उसका वास्तविक स्वरूप जानूँगा, वह क्या है, यह जानूँगा, केवल वह किस प्रकार कार्य करता है एवं उसका प्रकाश क्या है यह जान कर ही मेरी तृप्ति नहीं होगी। सभी वस्तुओ का 'क्यो' जानना चाहता हूँ-'कैसे होती है,' यह खोज बालक करते रहे। विज्ञान और क्या है? आपके ही किसी बड़े आदमी ने कहा है-'सिगरेट पीते समय जो जो होता है वही यदि मैं लिख कर रक्खूँ तो वही सिगरेट का विज्ञान होगा।' अवश्य ही वैज्ञानिक होना अच्छा है और गौरव की बात है―ईश्वर उनके अनुसन्धान में सहायता और आशीर्वाद दे; किन्तु जब कोई कहता है कि यह विज्ञान-चर्चा ही सर्वस्व है, इसके अतिरिक्त जीवन का और कोई उद्देश्य नहीं है, तब समझ लेना चाहिये कि वह निर्वोध के समान बात कह रहा है। समझ लो कि उसने जीवन के मूल रहस्य को जानने की कभी चेष्टा नहीं की; वास्तविकता क्या है, इसकी उसने कभी आलोचना ही नहीं की। मैं यो ही केवल तर्क के द्वारा ही समझा दे सकता हूँ कि तुम्हारा जो कुछ भी ज्ञान है सब

१५ [ २२६ ]
भित्तिहीन, आधारहीन है। तुम प्राण के विभिन्न विकासों को लेकर आलोचना कर रहे हो, किन्तु यदि तुमसे पूछूॅ कि प्राण क्या है, तो तुम कहोगे, हम नहीं जानते। यह ठीक है कि तुम्हे जो अच्छा लगे करो, कोई इसमे बाधा नहीं देता, किन्तु मुझे अपने ही भाव में रहने दो।

और यह भी लक्ष्य करना कि मेरा जो भाव है उसे मै कार्य रूप मे परिणत करता रहता हूॅ। अतएव यह कहना व्यर्थ है कि अमुक मनुष्य क्रियात्मक (Prachcal) है, अमुक नही। तुम एक ढंग से क्रियात्मक हो, मै दूसरे ढग से। एक ऐसे भी लोग हैं कि जिनसे कहो कि एक पैर से खडे रहने से सत्य मिलेगा, तो वे एक पैर से खडे रहेगे। और एक इस प्रकार के लोग है--उन्होंने सुना कि अमुक जगह सोने की खान है, किन्तु उसके चारों ओर असभ्य जातियाॅ रहती है। तीन आदमियों ने यात्रा की। उनमे दो शायद मर गये--एक सफल हुआ। उस व्यक्ति ने सुना है कि आत्मा नाम की कोई वस्तु है, किन्तु वह पुरोहितो के ऊपर ही इसकी मीमांसा का भार देकर निश्चिन्त हो जाता है। किन्तु पूर्वोक्त व्यक्ति स्वर्ण के लिये असभ्यों के बीच जाने के लिये राजी नहीं है। वह कहता है कि इस कार्य में विपत्ति की आशङ्का है। किन्तु यदि उससे कहा जाय कि एवरेस्ट पर्वत के ऊपर, समुद्र की सतह से ३०००० फुट ऊपर एक ऐसा आश्चर्यजनक साधु रहता है जो उसे आत्मज्ञान दे सकता है, तो वह तुरन्त ही बिना कपडा आदि लिये ही जाने को प्रस्तुत हो जाता है। इसी चेष्टा मे शायद ४०००० लोग मर जा सकते है, किन्तु एक व्यक्ति को सत्य की प्राप्ति हुई। वह भी एक दृष्टि से क्रियात्मक
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व्यक्ति है--किन्तु लोगो की भूल इसी मे है कि तुम जितने को जगत् कहते हो वही सब कुछ है, यह समझना। तुम्हारा जीवन क्षणस्थायी इन्द्रियो का भोग मात्र है--उसमे नित्य कुछ भी नही है, प्रत्युत उसमें दुःख क्रमश: बढता ही जाता है। हमारे मार्ग मे अनन्त शान्ति है, तुम्हारे मार्ग मे अनन्त दुःख है।

मैं यह नहीं कहता जिसे तुम वास्तविक क्रियात्मक मार्ग कहते हो वह भ्रम है। तुमने जिस रूप मे समझा है वही करो। उससे परम मंगल होगा-लोगों का बड़ा हित होगा, किन्तु यह कहकर हमारे पक्ष पर दोषारोप मत करना। हमारा मार्ग भी हमारे विचार से हमारे लिये क्रियात्मक मार्ग है। आओ, हम सब अपने अपने ढंग से कार्य करे। ईश्वर की इच्छा से यदि हम दोनो ही ओर कार्यात्मक होते तो बड़ा अच्छा होता। मैंने ऐसे अनेक वैज्ञानिक देखे है जो विज्ञान और अध्यात्मतत्त्व दोनों ओर से क्रियात्मक है--और मैं आशा करता हूॅ कि एक समय आयेगा जब समस्त मानवजाति इसी ढग की क्रियात्मक हो जायगी। मान लो एक कढाई मे जल गरम हो रहा है--उस समय क्या होता है इस बात को यदि तुम लक्ष्य करो तो देखोगे कि एक कोने मे एक बुद्बुद उठ रहा है, दूसरे कोने में एक और उठ रहा है। ये बुद्बुद क्रमशः बढते जाते हैं--चार पांच एकत्र हुये और बाद मे सब एकत्र होकर एक प्रबल गति आरम्भ हो गई। यह जगत् भी ऐसा ही है। प्रत्येक व्यक्ति मानो एक बुद्बुद है, और विभिन्न जातियाॅ मानो कई एक बुद्बुद समष्टि रूप है। क्रमशः जातियो मे परस्पर मिलन होता है--मेरी निश्चय धारणा है कि एक दिन ऐसा आयेगा जब जाति नामक कोई वस्तु नहीं रहेगी--जाति और जाति
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का भेद चला जायगा। हम चाहे इच्छा करे या न करे, हम जिस एकत्व की ओर अग्रसर होकर चल रहे है वह एक दिन प्रकाशित होगा ही। वास्तव मे हम सब के बीच भ्रातृसम्बन्ध स्वाभाविक ही है--किन्तु हम सब इस समय पृथक् हो गये है। ऐसा समय अवश्य आयेगा जब ये सब विभिन्न भाव एकत्र मिल जायेगे। प्रत्येक व्यक्ति जिस प्रकार वैज्ञानिक विषय में उसी प्रकार आध्यात्मिक विषय में भी क्रियात्मक हो जायगा। उस समय वही एकत्व, वही सम्मिलन जगत् मे व्यक्त होगा। तब सभी जगत् जीवन्मुक्त हो जायगा। अपनी ईर्ष्या, घृणा, मेल और विरोध मे से होकर हम उसी एक दिशा मे चल रहे है। एक वेगवती नदी समुद्र की ओर जा रही है। छोटे छोटे कागज के टुकड़े तिनके आदि इसमे बह रहे है, वे इधर उधर जाने की चेष्टा कर सकते है, किन्तु अन्त मे उन्हे अवश्य ही समुद्र मे जाना पड़ेगा। इसी प्रकार तुम और मैं तो क्या, समस्त प्रकृति ही क्षुद्र क्षुद्र कागज के टुकड़ो की भाँति उस अनन्त पूर्णता के सागर ईश्वर की ओर अग्रसर हो रही है--हम भी इधर उधर जाने की चेष्टा कर सकते है, परन्तु अन्त मे हम भी उस जीवन और आनन्द के अनन्त समुद्र मे पहुॅचेगे।


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