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ज्ञानयोग/९. जगत् (अन्तर्जगत्)

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नागपुर: श्री रामकृष्ण आश्रम, पृष्ठ १८२ से – २०४ तक

 


९. जगत्

( अन्तर्जगत् )

स्वभावतः ही मनुष्य का मन बाहर जाना चाहता है, मानो वह इन्द्रिय-प्रणालियो के द्वारा जैसे शरीर के बाहर झांकना चाहता हो। आँखे जरूर देखेगी, कान जरूर सुनेगे, इन्द्रियाँ जरूर बाहरी जगत को देखती रहेगी। इसीलिये स्वभावतः प्रकृति का सौन्दर्य तथा महिमा मनुष्य की दृष्टि को प्रथम ही आकृष्ट कर लेते है। प्रथमतः बहिर्जगत के बारे में मनुष्य ने प्रश्न उठाया था; आकाश, नक्षत्रपुञ्ज, नभोमंडल के अन्यान्य पदार्थसमूह, पृथ्वी, नदी, पर्वत, समुद्र आदि वस्तुओं के विषय में प्रश्न किये गये थे, एवं प्रत्येक प्राचीन धर्म में हमे इसका कुछ न कुछ परिचय मिलता ही है। पहले पहल मानव का मन अंधकार में टटोलता हुआ वाहर में जो कुछ देख पाता था उसे ही पकड़ने की चेष्टा करता था। इसी तरह उसने नदी का एक देवता, आकाश का और कोई देव, मेघ तथा वर्षा का दूसरा अधिष्ठाता देवता मान लिया जिनको हम प्रकृति की शक्ति के नाम से जानते है उन्हे ही सचेतन पदार्थ कहना शुरू हुआ। किन्तु इस प्रश्न की जितनी अधिक खोज होने लगी उतनी ही इन बाह्य देवताओं से मानव के मन को कम तुष्टि मिलने लगी। तब मानव की सारी शक्ति उसके अपने ओर ही मुड़कर प्रवाहित होने लगी। अपनी आत्मा के सम्बन्ध मे प्रश्न होने लगा। वहिर्जगत से यह प्रश्न अन्तर्जगत मे आ पहुँचा। बहिर्जगत का विश्लेषण हो जाने पर मनुष्य ने अन्तर्जगत का विश्लेषण करना शुरू किया। किन्तु यह भीतरी मनुष्य के सम्बन्ध मे प्रश्न कब उठ खड़ा होता है जानते हो?--या तो उच्चतर सभ्यता से इसकी उत्पत्ति होती है, या प्रकृति के विषय मे गंभीरतम अन्तर्दृष्टि से या उन्नति के उच्चतम सोपान पर आरूढ़ होने से।

यह अन्तर्मानव ही आज हमारी आलोचना का विषय है। अन्त-र्मानव सम्बन्धी यह प्रश्न मनुष्यो के लिये जितना प्रिय है तथा उसके हृदय को जितना द्रवीभूत कर देता है उतना और कुछ नहीं। कितने बार कितने देशो मे यह प्रश्न पूछा गया है। चाहे वह अरण्यवासी सन्यासी हो, चाहे राजा, प्रजा, अमीर, गरीब, साधु या पापी सभी नर-नारियो के मन में यह प्रश्न एक बार ज़रूर उठ खड़ा हुआ है कि इस क्षणस्थायी मानव जीवन मे क्या शाश्वत नाम का कुछ भी नहीं है? इस शरीर का अन्त होने पर भी क्या ऐसा कुछ नहीं है जो कभी नहीं मरता है? जब यह देह धूल मे मिल जाती है तब क्या ऐसा कुछ नहीं रहता जो जीवित रहता हो? अग्नि से शरीर भस्मसात होने पर क्या कुछ भी शेष नहीं रहता? अगर रहता है तो उसका परिणाम क्या है? वह जाता कहाॅ है? कहाॅ से वह आया था? ये प्रश्न बार बार पूछे गये हैं और जब तक यह सृष्टि रहेगी, जब तक मानव-मस्तिष्क की चिन्तनक्रिया बन्द नहीं होगी तब तक यह प्रश्न पूछा ही जायगा। इससे आप लोग यह न समझे कि इसका उत्तर कभी भी नहीं मिला है-- ज्योंही यह
प्रश्न पूछा गया है त्योंही उत्तर भी मिला है, एवं जितना ही समय बीतता जायगा वह उतना ही महत्वपूर्ण बनता जायगा। वास्तव मे हजारों वर्ष पहले ही उस प्रश्न का निश्चित उत्तर दिया गया था और परवर्ती काल में वही उत्तर फिर से दुहराया गया व हमारी बुद्धि मे उसका पूर्ण विकास होता गया। अतएव हमे केवल उस उत्तर को फिर से एक बार दुहरा देना है। इन समस्याओं को हम एक नये रूप से जांच करने की कोशिश नही करेगे; हम चाहते है कि वर्तमान युग की भाषा मे हम उस सनातन महान सत्य को प्रकाशित करे, प्राचीन की चिन्ता हम नवीनों की भाषा मे व्यक्त करे। दार्शनिको की चिन्ता हम लौकिक भाषा मे कहेगे--देवताओं की चिन्ता को हम मनुष्यो की भाषा मे प्रकट करेगे, ईश्वर संबंधी चिन्ताएँ मानव की दुर्बल भाषा मे कहते जायेगे ताकि सब उसे समझ सके। क्योंकि हम बाद मे देखेंगे कि जिस ईश्वरीय सत्ता से ये सब भाव प्रसूत हुए है वह मानवों मे भी वर्तमान है--जिस सत्ता ने इन चिन्ताओं की सृष्टि की है, मानव मे स्वय वह प्रकट होकर स्वय ही इन्हे समझ सकेगी।

मैं तुम लोगों को देख पा रहा हूॅ। इस दर्शनक्रिया के लिये कितनी चीजो की ज़रूरत होती है? पहले तो ऑखों की आवश्यकता हम अनुभव करते है--ऑखे अवश्य ही रहनी चाहिये। मेरी अन्यान्य इन्द्रियाॅ स्वस्थ होते हुए भी यदि मेरी ऑखे न हों तो मै तुम लोगो को नहीं देख सकूॅगा। अतएव पहले ऑखे अवश्य ही रहनी चाहिये। दूसरी बात यह है, ऑखों के पीछे और कुछ रहने की आवश्यकता होती है जिसे हम प्रकृत रूप से दर्शनेन्द्रिय कह सकते है। यदि हममें यह न हो तो दर्शनक्रिया असम्भव है। वस्तुतः ऑखे कोई
इन्द्रिय नहीं है, वे दर्शन करने के यंत्र मात्र ही है। यथार्थ इंद्रिय जो चक्षु के पीछे है, मस्तिष्क के स्नायुकेन्द्र में अवस्थित है। यदि वह केन्द्र किसी प्रकार नष्ट हो जाय तो स्वच्छ चक्षुद्वय रहते हुए भी मनुष्य कुछ नहीं देख सकेगा। अतएव दर्शनक्रिया के लिये उस प्रकृत इन्द्रिय का अस्तित्व नितान्त आवश्यक है। हमारी अन्यान्य इन्द्रियों के बारे में यही एक बात कही जा सकती है। बाहर के कान केवल आवाज को भीतर लेजाने के यंत्र है। वह आवाज़ मस्तिष्क में अवस्थित केन्द्र में जा पहुँचती है, किन्तु इससे श्रवणक्रिया पूर्ण नहीं होती। कभी कभी ऐसा भी होता है कि पुस्तकालय में बैठकर तुम ध्यान से कोई पुस्तक पढ़ रहे हो, घड़ी में बारह बजने की आवाज होती है, किन्तु तुम्हे कुछ सुनाई नहीं देता। क्यो तुम कुछ नहीं सुन पाए? यहाँ किस चीज़ की कमी थी? उस इन्द्रिय के साथ मन का कोई योग नहीं था। अतएव हम देख रहे है कि मन का रहना भी नितान्त आवश्यक है। प्रथमतः बहिर्यन्त्र, उसके बाद यह बहिर्यन्त्र मानो किसी विषय को वहन कर इन्द्रिय के निकट ले जाता है, फिर उस इन्द्रिय के साथ मन युक्त रहना चाहिये। जब मस्तिष्क में अवस्थित उसइन्द्रिय का मन से कोई योग नहीं रहता है तब कर्ण-यन्त्र तथा मस्तिष्क के केन्द्र पर किसी भी विषय का प्रभाव पड़ सकता है किन्तु हमे कोई अनुभव नहीं होगा। मन भी केवल वाहक है, उसे इस विषय का प्रभाव और भी भीतर वहन कर बुद्धि को प्रदान करना पड़ता है। अब बुद्धि को उसका निश्चय करना पड़ता है परन्तु इससे भी पर्याप्त फल नहीं होता। बुद्धि को उसे फिर और भी भीतर ले जाकर शरीर के राजा आत्मा के पास पहुँचाना पड़ता है। उनके पास पहुँचने पर वे आदेश देते हैं कि "हाँ यह करो" या " यह न करो"। तब जिस क्रम के अनुसार वह भीतर गया था ठीक उसी क्रम से वह बहिर्यन्त्र मे आता है--पहले बुद्धि मे, उसके बाद मन मे, फिर मस्तिष्क केन्द्र में, अन्त मे बहिर्यन्त्र मे; तभी विषय का ज्ञान सम्पन्न होता है।

इन सब यन्त्रों का अवस्थान मनुष्य की स्थूल देह मे है, लेकिन मन तथा बुद्धि का कोई दूसरा निवास है। हिन्दू शास्त्र मे उसका नाम है सूक्ष्म शरीर, ईसाई शास्त्र मे वह आध्यात्मिक शरीर है। इस शरीर से वह बहुत ही सूक्ष्म है, परन्तु फिर भी उसे आत्मा नहीं कहा जा सकता। आत्मा इन सबों के अतीत है। कुछ दिनो मे स्थूल शरीर का अन्त हो जाता है, किसी मामूली कारण से ही उसके भीतर गड़बडी पैदा हो जाती है और वह नष्ट हो जा सकता है। इतनी आसानी से सूक्ष्म शरीर नष्ट नहीं होता, किन्तु उसे भी कभी कभी कमज़ोरी आ जाती है। हम देखते है कि बूढ़े लोगों मे मन का उतना ज़ोर नहीं रहता है, फिर शरीर में बल रहने से मन की शक्ति भी कायम रहती है--विविध औषधियाँ मन पर अपना प्रभाव डालती है। बाहर की सब वस्तुऍ उस पर अपना प्रभाव डालती है, और वह भी वाह्य जगत पर अपना प्रभाव डालता है। जैसे शरीर में उन्नति और अवनति होती है वैसे ही मन भी कभी कभी सबल और निर्बल हो जाता है, अतएव मन कभी आत्मा नहीं हो सकता, क्योंकि आत्मा अविमिश्रित तथा क्षयरहित होता है। हम कैसे यह जान सकते हैं? क्योकर हम जान सकते है कि मन के पीछे और भी कुछ है? स्वप्रकाश (Self luminous) ज्ञान कभी जड़ का धर्म नहीं हो सकता है। ऐसी कोई जड़ वस्तु नहीं दिखाई देती जिसका निजी रूप ही ज्ञान है। जड़ भूत कभी स्वयं ही स्वयं को प्रकाशित नहीं कर सकता। ज्ञान ही सब जड़ो को प्रकाशित करता है। यह जो सामने हाँल दिखाई दे रहा है ज्ञान को ही इसका मूल कहना पड़ेगा, क्योकि बिना किसी न किसी ज्ञान के सहारे उसका अस्तित्व हम कभी अनुभव ही नहीं कर सकते थे। यह शरीर स्वप्रकाश नहीं है―यदि वैसा ही होता तो मृत-शरीर भी स्वप्रकाशित होता। मन अथवा आध्यात्मिक शरीर भी कभी स्वप्रकाश नहीं हो सकता। वह ज्ञानस्वरूप नहीं है। जो स्वप्रकाश है उसका कभी ध्वंस नहीं होता। जो दूसरे के आलोक से आलोकित है उसका आलोक कभी रहता है, कभी नहीं। किन्तु जो स्वयं आलोकस्वरूप है उसके आलोक का क्या आविर्भाव― तिरोभाव, हास अथवा वृद्धि कभी हो सकती है? हम देख पाते है कि चन्द्रमा का क्षय होता है, फिर वह बढ़ता जाता है―क्योंकि वह सूर्य के आलोक से ही आलोकित है। यदि लोहे का गोला आग में फेक दिया जाय और उसे लाल सा बनाया जाय तो उससे आलोक निकलता रहेगा, किन्तु वह दूसरे का आलोक है, इसलिये वह शीघ्र ही लुप्त हो जायगा। अतएव उसी आलोक का क्षय होता है जो दूसरे से प्राप्त किया गया हो, जो स्वप्रकाश आलोक नहीं है।

अब हमने देखा है कि यह स्थूल देह स्वप्रकाश नहीं है, वह स्वयं अपने को नहीं जान सकती। मन भी स्वयं को नहीं जान सकता। क्यो? क्योकि मन की शक्ति में हास-वृद्धि होती है, कभी उसमे बहुत जोर रहता है तो कभी वह कमज़ोर बन जाता है। कारण बाह्य सभी वस्तुएँ उस पर अपना अपना प्रभाव डालकर उसे या तो शक्तिशाली बना सकती है, या शक्तिहीन भी। अतएव मन के भीतर से जो आलोक आ रहा है वह उसका निजी आलोक नहीं है। फिर वह किसका है? वह ऐसे किसी का आलोक अवश्य होगा जिसके लिये यह आलोक कोई उधार लिया हुआ नहीं है, या जो दूसरे किसी आलोक का प्रतिविम्ब भी नहीं है, किन्तु जो स्वयं ही आलोकस्वरूप है। इसीलिये वह आलोक या ज्ञान उसी पुरुष का स्वरूप होने के कारण कभी नष्ट नहीं हो सकता, कभी उसका क्षय नहीं होता, वह न तो कभी बलवान हो सकता है, न कमजोर। वह स्वप्रकाश है, वह आलोकस्वरूप है। हम यो न समझे कि 'आत्मा जानता है,' वह तो ज्ञानस्वरूप है। यह नहीं कि आत्मा का अस्तित्व है, लेकिन वह अस्तित्व स्वरूप है। आत्मा सुखी है ऐसी कोई बात नहीं, परन्तु आत्मा सुखस्वरूप है। जो सुखी होता है वह उस सुख को किसी दूसरे से प्राप्त करता है--वह और किसी का प्रतिविम्ब है। जिसका ज्ञान है उसने अवश्य ही उस ज्ञान को किसी दूसरे से प्राप्त किया है, वह प्रतिबिम्ब स्वरूप है। जिसका अस्तित्व है उसका वह अस्तित्व दूसरे किसी के अस्तित्व पर निर्भर करता है। जहाॅ गुण व गुणी का भेद है वहाॅ ऐसा समझना चाहिये कि वे गुण गुणी के ऊपर प्रतिबिम्बित हुए है। किन्तु ज्ञान, अस्तित्व या आनन्द--ये आत्मा के धर्म नहीं है, वे आत्मा के स्वरूप है।

फिर प्रश्न पूछा जा सकता है कि हम इस बात को क्यो स्वीकार कर ले? क्यो हम यह स्वीकार करले कि आनन्द, अस्तित्व तथा स्वप्रकाशत्व आत्मा का स्वरूप है, आत्मा का धर्म नहीं? इसका उत्तर यह है कि हम पहले ही देख चुके है कि मन के प्रकाश में शरीर का प्रकाश होता है। जब तक मन रहता है तब तक उसका प्रकाश होता रहता है, जब मन लुप्त हो जाता है तब इस देह का प्रकाश भी बंद हो जाता है। आँखो से यदि मन चला जाय तो तुम लोगो की ओर आँखे डालने पर भी हम तुम्हें नहीं देख पायेगे; अथवा श्रवणेन्द्रिय से वह यदि अनुपस्थित रहे तो हम जरा सी आवाज भी नहीं सुन सकते। यही हाल सभी इन्द्रियो के बारे में है। अतएव हम देख रहे है कि मन के प्रकाश में ही शरीर का प्रकाश है। फिर मन के विषय में वही एक सी बात। बाहरी सभी वस्तुएँ उसके ऊपर अपना अपना प्रभाव डाल रही है, अति तुच्छ कारण से ही उसका परिवर्तन हो सकता है, मस्तिष्क के भीतर कोई मामूली गड़बड़ी होने से ही उसमे परिवर्तन हो जाता है। अतएव मन भी स्वप्रकाश नहीं हो सकता, क्योकि यह तो प्राकृतिक नियम है कि जो किसी वस्तु का स्वरूप होता है उसका कभी कोई परिवर्तन नहीं हो सकता। केवल जो अन्य वस्तु का धर्म है, जो दूसरो का प्रतिबिम्ब स्वरूप है उसी का परिवर्तन हुआ करता है। किन्तु अब एक प्रश्न हमारे सामने आता है कि हम यह क्यो नहीं मान लेते कि आत्मा का प्रकाश, उसका ज्ञान व आनन्द भी उसी तरह दूसरे से लिये हुए है? इस तरह मान लेने से हमारी ग़लती यह होगी कि ऐसी स्वीकृति का कोई अन्त नहीं मिलेगा―फिर प्रश्न आयेगा उसे कहाँ से आलोक मिला है? यदि हम कहे कि वह दूसरी किसी आत्मा से मिला है तो फिर प्रश्न होगा कि उसने कहाँ से वह आलोक प्राप्त किया? अतएव अन्त में हमे ऐसे एक स्थान पर पहुँचना होगा जिसका आलोक दुसरे से नहीं आया है। इसलिये इस विषय में न्यायसंगत सिद्धान्त यही है कि जहाँ पहले ही स्वप्रकाशत्व दिखाई देगा
वहीं ठहरना होगा, और अधिक आगे जाने की जरूरत नहीं।

अतएव हमने देखा कि पहले मनुष्य की यह स्थूल देह है, उसके पीछे एक सूक्ष्म शरीर है, उसके पश्चात् मनुष्य का प्रकृत रूप छिपा हुआ है जिसे हम आत्मा कहते है। हमने देखा है कि स्थूल देह की सारी शक्तियाॅ मन से प्राप्त होती है-मन फिर आत्मा के आलोक से आलोकित है।

आत्मा के स्वरूप के बारे मे फिर विविध प्रश्न पूछे जा सकते है। आत्मा स्वप्रकाश है, सच्चिदानंद ही आत्मा का स्वरूप है। इस युक्ति से यदि आत्मा का अस्तित्व मान लिया जाय तो स्वभावतः यह प्रमाणित होता है कि वह शून्य से पैदा नही हो सकता। जो स्वय स्वप्रकाश है, जो अन्यवस्तुनिरपेक्ष है वह कभी शून्य से उत्पन्न नही हो सकता। हमने देखा है कि यह जड़ जगत भी शून्य से नही आया है--तो फिर आत्मा कैसे आ सकता है? अतएव सर्वदा ही उसका अस्तित्व था। ऐसा समय कभी नहीं था जब उसका कोई अस्तित्व न था, क्योकि यदि तुम कहो कि कभी आत्मा का अस्तित्व नहीं था तो प्रश्न यह है कि समय का कहाॅ अवस्थान था? काल तो आत्मा के भीतर ही अवस्थित है। जब मन के ऊपर आत्मा की शक्ति प्रतिबिम्बित होती है और मन चिन्तनकार्य में लग जाता है तभी काल की उत्पत्ति होती है। जब आत्मा नहीं था तो चिन्ता भी नहीं थी। फिर चिन्ता न रहने से समय भी नहीं रह सकता है। अतएव जब समय आत्मा मे अवस्थित है तब आत्मा समय मे अवस्थित है यह हम कैसे कह सकते हैं? उसका न तो जन्म है, न मृत्यु, वह केवल विभिन्न स्तरो मे से आगे बढ़ती जाती है। धीरे धीरे वह निम्नावस्था से उच्च भाव मे स्वयं को प्रकाशित करती है। मन के

भीतर से शरीर के ऊपर कार्य करके वह अपनी महिमा का विकास कर रही है, फिर शरीर से बहिर्जगत का ग्रहण तथा अनुभव कर रही है। वह एक शरीर ग्रहण कर उसका उपयोग करती है; जब उस शरीर के द्वारा और कोई कार्य करने की सभावना नही रहती है तब वह दूसरे शरीर को ग्रहण कर लेती है।

अब आत्मा के पुनर्जन्म के बारे मे प्रश्न आता है। पुनर्जन्म के नाम से आदमी डर जाते है और लोगो के कुसस्कार ने इस तरह अपनी जड़़े़े जमा रखी है कि चिन्ताशील आदमी भी विश्वास कर लेगे कि हम शून्य से पैदा हुए है, फिर महायुक्ति के साथ सिद्धान्त स्थापित कर यह निश्चय करने की कोशिश करेगे की यद्यपि हम शून्य से आये है तथापि हम चिरकाल तक रहेगे। जो शून्य से आया है वह जरूर शून्य मे ही मिल जायगा। हममे कोई भी शून्य से नही आया है इसलिये हम कभी शून्य मे नही मिट जायेगे। अनादिकाल से हमारी उपस्थिति है व चिरकाल तक हम रहेगे और जगतब्रह्माण्ड मे एसी कोई शक्ति नहीं है जो हम लोगो का अस्तित्व मिटा दे। इस पुनर्जन्मबाद से हमे किसी तरह डरना नहीं चाहिये, क्योकि वही मानवो की नैतिक उन्नति का प्रधान सहायक है। चिन्ताशील व्यक्तियो के मतानुसार यही न्यायसगत सिद्धान्त है। यदि भविष्य में चिरकाल के लिये तुम्हारा अस्तित्व रहना सम्भव हो तो यह भी सच है कि अनादिकाल से तुम्हारा अस्तित्व था। इस बात को कोई अस्वीकार नही कर सकता है। इस मत के विरुद्ध कई आपत्तियाॅ उठाई गई है, इनका निराकरण करने की चेष्टा करूॅगा। यद्यपि ये आपत्तियाॅ कुछ साधारण सी ही है तथापि हमे उनका उत्तर देना

ही पड़़े़ेगा; क्योकि हम जानते है कि बड़े बड़े चिन्ताशील व्यक्ति भी कभी-कभी बालकोचित वाते किया करते है। लोग जो कहते है कि ऐसा कोई असंगत मत नहीं है जिसका समर्थन करने के लिये कोई दार्शनिक आगे नहीं बढ़ता है' यह बिलकुल सच है। पहली शंका यह है कि हमे अपने जन्म-जन्मान्तर की बाते क्यो याद नही रहती है? इस पर यह पूछा जा सकता है कि क्या इसी जन्म की सब बीती घटनाओ को हम याद कर सकते है? तुम लोगों मे से कितने बचपन की घटनाओं को स्मरण कर सकते है? बचपन की कोई बात तुम नही याद कर सकते, फिर यदि स्मृति-शक्तियो के ऊपर अस्तित्व निर्भर रहे तो यह कहना पड़ेगा कि बचपन मे तुम्हारा अस्तित्व ही नहीं था, क्योकि उस समय की कोई बात तुम याद नहीं कर सकते हो। यह कहना बेकार है कि यदि हम स्मरण कर सके तभी हम पूर्वजन्म का अस्तित्व स्वीकार करने को तैयार है। क्या इसका कोई कारण है कि पूर्वजन्म की बाते हमारे स्मरण मे रहेगी ही? उस समय का मस्तिष्क भी बिलकुल नष्ट हो गया है एव एक नये मस्तिष्क की रचना हुई है। अतीतकाल के संस्कारों का जो समष्टिभूत पाल है वही हमारे मस्तिष्क मे आया है--उसी को लेकर मन हमारे इस शरीर मे अवस्थित है।

मै अब जिस दशा मे हूॅ वह मेरे अनत अतीतकाल के कर्म के परिणाम का फल है; किन्तु मुझे उस अतीत का स्मरण करने से क्या प्रयोजन? कुसंस्कारो का ऐसा प्रभाव है कि जो लोग पुनर्जन्मवाद नही मानते वे ही फिर कहते है कि एक समय हम बन्दर थे; किन्तु फिर उन्हे उस मर्कट-जन्म का स्मरण क्यो नहीं है? इसके कारणो की

खोज करने का उन्हे साहस नही होता है। जब हम सुनते है कि प्राचीन काल के किसी साधु या ऋषि ने सत्य को प्रत्यक्ष किया है तो हम कह देते है कि वह सब भूल है; परन्तु यदि कोई कहे कि हक्सले का मत है या टिण्डाल ने बताया है तो हम तुरन्त सारी बाते मान लेते है। प्राचीन कुसस्कारों की जगह हम आधुनिक कुसंस्कार लाये है, धर्म के प्राचीन पोप के बदले हमने विज्ञान के आधुनिक पोप का स्वागत किया है। अतएव हमे मालूम हो गया कि स्मृति-सम्बन्धी शंका खोखली है। और पुनर्जन्म के बारे मे जिन आपत्तियो की अवतारणा की गयी है उनमे यही एक है जिसे विज्ञ लोग सामने ला सकते है।

हमने यह देखा है कि पुनर्जन्मवाद सिद्ध करने के लिये साय ही साय स्मृति भी रहे--यह प्रमाणित करने की कोई आवश्यकता नहीं है। फिर भी हम दाबे के साथ यह कह सकते है कि अनेको मे ऐसी स्मृति आयी है और जिस जन्म मे तुम लोगो को मुक्तिलाभ होगा उस जन्म मे तुम लोग भी ऐसी स्मृति के अधिकारी बनोगे। तभी तुम्हे मालूम होगा कि जगत् स्वप्न-सा है, तभी तुम अन्तस्तल से अनुभव कर सकोगे कि तुम इस जगत् मे नट मात्र हो और यह जगत् रंगभूमि है, तभी प्रचण्ड अनासक्ति का भाव तुम्हारे भीतर उदित होगा--तभी सब भोगवासनाॅए, जीवन से इतना प्रेम--यह संसार आदि,सब चिरकाल के लिये लुप्त हो जायेगे। तब तुम्हे स्पष्ट मालूम हो जायगा कि जगत् मे तुम कितने बार आये हो, कितने लाखो बार तुमने पिता, माता, पुत्र, कन्या, स्वामी. स्त्री, बन्धु, ऐश्वर्य, शक्ति लेकर इसी जगत् में जीवन बिताया है। यह सब कितने बार हुआ था, फिर कितने बार चला गया था। कितने बार संसार-तरंग के सर्वोच्च शिखर पर तुम चढ़े थे और कितने ही वार नैराश्य के अतल गर्त में

१३ तुम गिर गये। जब स्मृति यह सब तुम्हारे मन में ला देगी केवल तभी तुम वीर-से खड़े हो सकोगे तथा संसार के कटाक्ष तुम हँसकर उड़ा दे सकोगे। तभी वीर की तरह खड़े होकर तुम कह सकोगे, "मृत्यो, तुझसे मै जरा भी नहीं डरता, तुम व्यर्थ क्यों मुझे डराने की चेष्टा कर रहे हो?" जब तुम जान जाओगे कि तुम पर मृत्यु का कोई प्रभाव नहीं है, तभी तुम मृत्यु पर विजय प्राप्त कर सकोगे एवं धीरे धीरे हम सभी इस मृत्युजयी अवस्था में पहुचेगे।

आत्मा का पुनर्जन्म होता है इसका कौन सा युक्तियुक्त प्रमाण है? अब तक हम शंका का समाधान कर रहे थे। हमने देखा कि पुन- र्जन्मवाद अप्रमाणित करने के लिये जो युक्तियाँ उठाई जाती है वे खोखली है। अब पुनर्जन्मवाद के पक्ष में जितनी युक्तियाँ हैं उनकी हम आलोचना करेगे। पुनर्जन्मवाद के बिना ज्ञान असंभव है। मानो मैंने रास्ते पर एक कुचा देखा। मैं कैसे जान पाया कि वह कुत्ता ही है? जैसे ही मेरे मन पर उसकी छाप पड़ी वैसे ही उसे मैं अपने मन के पूर्वसंस्कारो के साथ मिलाने लगा। मैने देखा कि वहाँ मेरे समस्त पूर्वसंस्कार स्तर स्तर में अवस्थित हैं। ज्होही कोई नया विषय आया त्योही मैंने प्राचीन सस्कारो से उसकी तुलना की। जैसे ही मैने अनु- भव किया कि उसी की भाँति और भी कई संस्कार वहाँ विद्यमान है, वैसे ही उसकी तुलना करने लगा―तभी मैं तृप्त हुआ। मैंने तब उसे कुत्ते के नाम से जान पाया, क्योकि पहले के कई संस्कारो के साथ वह मिल गया। जब हम उस जैसे संस्कार को अपने भीतर नहीं देख पाते है तभी हममे असतोप पैदा होता है। इसीको अज्ञान कहते है। और सन्तोष मिल जाने से ही ज्ञान कहलाता है। जब एक सेव गिरा तो मनुष्य को असंतोष हुआ। इसके बाद मनुष्य ने क्रमश इसी प्रकार की कई घटनाएँ देखी। शृंखला की तरह ये घटनाएँ एक दूसरे से बंधी हुई थी। यह शृंखला क्या थी? वह शृंखला यह थी कि सभी सेव गिरते है। और इसीको उसने 'माध्याकर्षण' का नाम दिया। अतएव हमने देखा कि पहले की अनुभूतियाँ न रहने से कोई नई अनुभूति प्राप्त करना असभव है, क्योकि उस नयी अनुभूति से तुलना करने के लिये कुछ भी नहीं मिल सकेगा। इसलिये कई यूरोपीयन दार्शनिको का जो मत है कि 'पैदा होते समय बच्चा संसारशून्य मन लेकर आता है' यदि सच हो तो संसार से उसे संस्कारशून्य मन लेकर जाना पड़ेगा क्योंकि नयी अनुभूति के साथ मिलने के लिये उसने कोई संस्कार ही नहीं हैं। अतएव हमने देखा कि इस पूर्वसंचित ज्ञान- भाडार के बिना कोई नया ज्ञान प्राप्त करना असंभव है। वस्तुत हम सभी को पूर्वसचित ज्ञान-मांडार अपने साथ लेकर आना पड़ा है। ऐसे ज्ञान के बिना जानने का और कोई दूसरा उपाय नहीं है। यदि हमे यहाँ पर वह ज्ञान नहीं मिला हो तो अवश्य ही हमने अन्य कही से उसे प्राप्त किया होगा। मृत्यु से हम सर्वदा डर जाते है, लेकिन क्यों? मुर्गी का एक बच्चा जो अभी पैदा हुआ है, एक चील को आते देखकर भाग गया। उसने कहाँ से तथा कैसे सीखा कि चील मुर्गी के बच्चों को खा जाती है। इसका एक पुराना विश्लेषण है, किन्तु उसे हम सिर्फ विश्लेषण ही नहीं कह सकते। वह स्वाभाविक संस्कार (Instinct) कहा जाता है। मुर्गी के उस छोटे बच्चे में कहा से मरने का डर आया? अंडे से अभी अभी निकली वदक पानी के निकट आते ही क्यो कूद पड़ती है तथा तैरने लगती है? वह तो पहले कभी तैरना नहीं जानती थी, न तो पहले उसने किसीको तैरते

देखा है। लोग कहते है कि वह " स्वाभाविक ज्ञान" है । " स्वाभा- "विक ज्ञान" कहने से हमने एक लम्बे चौड़े शब्द का प्रयोग किया है इतना ही, किनु उसन हम नयी कोई वस्तु नही सिखाई । अब आलोचना की जाय कि यह स्वाभाविक ज्ञान है क्या। हमारे भीतर ही अनेक प्रकार के स्वाभाविक ज्ञान वर्तमान है। मानो एक व्यक्ति ने पियानो गाना बजाना सीखना शुरू किया । पहले 'सरगम' की ओर गहरा ध्यान देकर उंगलियों को चलाना पड़ता है, किन्तु कई महीनो नथा मालो अभ्यास हो जाने पर उंगलियों आप ही आप ठीक ठीक स्यानो पर चलती फिरती है और वह स्वाभाविक हो जाता है । किसी समय जिममे ज्ञान -पूर्वक इच्छा का प्रयोजन होता था, उसमे और उसकी कोई जरूरत न रह गई, एवं ज्ञानपूर्वक इच्छा के विना ही वह अब सम्पन्न हो सकता है और उसी को स्वाभाविक ज्ञान कहते है । पहले वह इच्छा के साथ था, अन्त में उसमे इच्छा का कोई ग्रयोजन न रहा । किन्तु स्वाभाविक ज्ञान का तत्व अभी पूरा नहीं कहा गया है, अब भी आधा रह गया है। वह यह है कि जो सब कार्य अब हमारे लिये स्वाभाविक हैं, प्रायः उन सभी को हम अपनी इच्छा के वश मे ला सकते है। शरीर की प्रति पेशी को ही हम अपने वश मे ला सकते है। आजकल यह विषय हम सभी को अच्छी तरह से ज्ञात है । अतएव अन्वयी व व्यतिरेकी इन दोनो उपायो से

ही प्रमाणित किया गया है कि जिसे हम स्वाभाविक ज्ञान कहते है वह इच्छाकृत कार्य के अवनत भाव के अतिरिक्त और कुछ नहीं है । अतएव जब सारी प्रकृति में एक ही नियम का राज्य है तो समग्र नृष्टि में 'उपमान-प्रमाण' का प्रयोग करके इस सिद्धान्त मरहम पहुंच
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सकते है कि तिर्यग् जाति व मनुष्य में जो स्वाभाविक ज्ञान के रूप मे प्रकट होता है वह केवल इच्छा का अवनत भाव है।

बहिर्जगत् मे हमें जो नियम मिला था, अर्थात् “प्रत्येक क्रम-विकास-प्रक्रिया के पहले एक क्रम-संकोच-प्रक्रिया रहती है और क्रमसकोच के साथ साथ क्रमविकास भी रहता है " इस नियम से हम स्वाभाविक ज्ञान का कौनसा तात्पर्य निकाल सकते है। यही कि स्वाभाविक ज्ञान विचार -पूर्वक कार्य का क्रम-सकुचित भाव है । अतएव मनुष्य अथवा पशु मे जिसे हम स्वाभाविक ज्ञान कहते है वह अवश्य ही पूर्ववर्ती इच्छाकृत कार्य का क्रम-संकोच भाव होगा। और 'इच्छाकृत कार्य ' कहने से पहले यह अपने आप ही स्वीकृत हो जाता है कि हमने अभिज्ञता या अनुभव का लाभ किया था । पूर्वकृतकार्य से वह संस्कार आया था और वह संस्कार अब भी विद्यमान है। मरने का भय, जन्म से ही तैरने लगना तथा मनुष्य में जितने अनिच्छाकृत स्वाभाविक कार्य पाये जाते है वेसभी पूर्व-कार्य व पूर्व-अनुभूति के फल है-वे ही अब स्वाभाविक ज्ञान के रूप मे परिणत हुये हैं। अब तक इस विचार मे हम आसानी से आगे बढ़ सके है और यहॉ तक आधुनिक विज्ञान भी हमारा सहायक रहा । आधुनिक वैज्ञानिक धीरे धीरे प्राचीन ऋषियो से सहमत हो रहें है एवं प्राचीन ऋपियो के मत को वैज्ञानिक जहाँ तक मान लेते है वहाँ तक कोई गड़बड नहीं है। वैज्ञानिक मानते है कि प्रत्येक मनुष्य एवं प्रत्येक पशु कई अनुभूतियो की समष्टि लेकर जन्म लेते है, वे यह भी मानते है कि मन के ये सब कार्य पूर्व अनुभूति के फल है । किन्तु यहॉ पर वे लोग और एक प्रश्न पूछते हैं: उन लोगो का कहना है कि यह बात कहने की क्या आवश्यकता है कि ये अनु
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भृतिया आत्मा की है ? ऐसा कहना ही ठीक है कि वे मव शरीर के धर्म है । इसे आनुवशिक सचार (Hereditary Transmission) ही कह सकते है । यही शेष प्रश्न है। जिन सब संस्कारों को लेकर मैने जन्म लिया है वे हमारे पूर्वजो के संचित सस्कार है, ऐसा हम क्यो न कहे ? छोटे जीवाणु से लेकर सर्वश्रेष्ठ मनुष्य तक समो के कर्मसत्कार मुझमे मिले हुए हैं, किन्तु आनुवशिक संचार के कारण ही मुझमें वे आकर मिल गये हैं। यदि हम ऐसा कहते तो कौनसी बाधा होती ? यह प्रश्न बहुत ही सूक्ष्म है । हॉ, इस आनुवंशिक संचार को कुछ अश तक हम मानते है। लेकिन हम इतनाही मानते है कि इससे आत्मा को रहने के लिये एक स्थान मिल जाता है। हम अपने पूर्व कर्मों के द्वारा शरीरविशेष का आश्रय लेते हैं | और जिन्होंने उस आत्मा को सतान के रूप में प्राप्त करने को स्वयं को उपयुक्त किया है, उनसे ही वह आत्मा उपयुक्त उपादान ग्रहण करती है। आनुवंशिक संचारवाढ ( Doctrine of Heredity ) किसी प्रमाण के विना ही एक अदभुत बात मानता है कि पन के मस्कारों की छाप जड में रह सकती है। जब मै तुम्हारी ओर देखता हूँ तब मेरे चिन्ता-हट म तरग उठती है। वह तरंग थोड़े ही नमय मे लुप्त हो जाती है; किन्तु सूक्ष्म रुप मे वह तरंग के रूप मे ही वर्तमान रहती है | हम यह समझ सकते हैं। हम यह भी समझ सकते है कि भौतिक सस्कार शरीर में रह सकते हैं। किन्तु इसका क्या प्रमाण है कि शरीर के भग होने पर मानसिक सस्कार शरीर मे रहते है ?किसके द्वारा ये सस्कार सचारित होते हैं ? मानो, मन का प्रत्येक मम्कार शरीर में रहना सम्भव है; मानो आनुवंशिकता के अनुसार आदिम मनुष्य से लेकर सव पूर्वजों के संस्कार मेरे पिता के शरीर मे

पर्नेमान है एवं पिता के शरीर से मै उन्हें प्राप्त कर रहा हूँ। कैसे ?
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जगत्

तुम शायद कहोगे जीवाणुकोप ( Blo plasrmic Cell ) के द्वारा। किन्तु यह कैसे सभव हो सकता है ? क्योंकि पिता का शरीर तो संतान मे सम्पूर्ण रूप से नही आता है। एक ही पिता-माता की कई सतान हो सकती है । इसलिये यदि हम यह आनुवशिक संचारवाद मान ले तो यह भी हमे अवश्य स्वीकार करना पडेगा कि प्रत्येक संतान के जन्म के साथ-ही-साथ पिता-माता को भी अपनी निजी मनोवृत्ति का कुछ अंश खोना पड़ेगा, (कि उन लोगो के मत से सचारक व सचार्य एक अर्थात् भौतिक है ) एवं यदि तुम कहोगे कि उनकी सारी मनोवृत्तियों ही सचारित होती है तो यह बात माननी पड़ेगी कि प्रथम सन्तान के जन्म के बाद ही उन लोगो का मन पूर्ण रूप से शून्य हो जायगा । फिर यदि जीवाणुकोप में चिरकाल के अनत सस्कार रह जायें तो पूछा जायगा कि ये कहाँ रहते हैं और किस रूप से 2 यह पक्ष बिलकुल असम्भव है । जब तक ये जड़बाढी प्रमाणित न कर सके कि कैसे चे संस्कार उस कोप मे रह सकते है तथा कहाँ रह सकते है एवं “ भौतिक कोप मे ये मनोवृत्तियाँ निद्रित रहती है " इसका तात्पर्य वे जब तक समझा नहीं सकते तब तक उनका सिद्धान्त मान लेना असम्भव है । इतना तो हम अच्छी तरह समझ जाते है कि ये संस्कार मन के भीतर ही निवास करते है । मन ही बार बार जन्म ग्रहण करता आता है, मन ही अपने उपयोगी उपादान ग्रहण करता है और इस मन ने जिस शरीरविशेप के धारण करने के उपयुक्त कर्म किये है, तन्निर्माणोपयोगी उपादान जब तक वह नहीं पाता, तब तक उसे राह देखनी पड़ती है। यह हम अनुभव करते हैं । अतएव आत्मा के लिए व्हगठनोपयोगी उपाठान प्रस्तुत करने तक ही आनुवंशिक संचारबाट स्वीकृत किया जा सकता है। परन्तु

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आत्मा देह के बाद देह ग्रहण करती है, शरीर के बाद शरीर प्रस्तुत करती है, और हम जो कुछ चिन्ता करते है, हम जो कुछ कार्य करते है वही सूक्ष्म भाव मे रह जाता है और समय आने पर वे ही स्थूल रूप मे व्यक्त भाव धारण करके आत्मप्रकाश के लिये उन्मुख होते हैं । मैं अपना अभिप्राय तुम्हे और भी अधिक स्पष्ट रूप से कह दूं । जव कभी मैं तुम लोगों की ओर देखता हूँ तो मेरे मन मे एक तरग उठती है। वह मानो मेरे चिन्ताहद के भीतर डूब जाती है, सूक्ष्म से सूक्ष्मतर होती जाती है, परन्तु वह विलकुल ही नष्ट नहीं हो जाती । मन मे वह किसी भी मुहूर्त मे स्मृति-तरंग के रूप मे प्रकट होने को प्रस्तुत रहती है। इसी तरह मेरे मन के भीतर ही यह समस्त संस्कारसमष्टि विद्यमान है जो मृत्यु के समय पर साथ ही वाहर हो जायगी | मानो, इस कमरे मे कहीं एक गेद पड़ी है और हम सब एक एक छडी से सब ओर से उसे मारने लगे। गेद कमरे के एक कोने से दूसरे कोने में दौड़ने लगी, दरवाजे के नजदीक जाते ही वह वाहर चली गई। वह किस शक्ति से बाहर चली जाती है ?--जितनी छड़ियाँ उसे मारी गई थी उनकी सम्मिलित शक्ति से । किस ओर उसकी गति होगी, यह भी इन सभी के समवेत फल से निर्णित होगा। इसी प्रकार, शरीर का पतन होने पर आत्मा की गति का निर्णायक क्या होगा? उसने जैसे कर्म किये है,जैसी चिन्ताएं की है, वे ही उसे किसी विशेष दिशा मे परिचालित करेगी। अपने भीतर उन सबो की छाप लेकर वह आत्मा अपने गन्तव्य की ओर अग्रसर होगी। यदि समवेत कर्मफल इस प्रकार हो कि भोग के लिये उसे पुनः एक नया शरीर गढ़ना होगा तो वह ऐसे पिता-माता के पास जायगी जिनसे वैसे शरीर गठन करने के उपयुक्त उपादान प्राप्त कर सके और उन्ही उपादानो के द्वारा वह एक नया
शरीर धारण कर लेगी। इसी तरह वह आत्मा एक देह से दूसरी देह मे जाती रहेगी, कभी स्वर्ग मे जायगी तो कभी पृथ्वी पर आकर मानव देह धारण करेगी अथवा अन्य कोई उच्चतर या निम्नतर जीव-शरीर धारण करेगी। और इस प्रकार वह तब तक आगे बढ़ती जायगी जब तक उसका भोग समाप्त होकर वह अपने निजी स्थान पर लौट न आयेगी। तभी वह अपना स्वरूप जान सकती है, जान सकती है कि वह यथार्थतः क्या है। तब समस्त अज्ञान दूर हो जाता है और उसकी सारी शक्तियाॅ प्रकाशित होजाती है। वह तब सिद्ध हो जाती है, पूर्णता प्राप्त कर लेती है, तब उसके लिये स्थूल शरीर की सहायता से कार्य करने की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती। सूक्ष्म शरीर के द्वारा कार्य करने की भी आवश्यकता नही रहती। वह तब स्वयंज्योति व मुक्त हो जाती है, उसका फिर जन्म या मृत्यु कुछ भी नहीं होता।

अब इस विषय पर हम और अधिक कुछ आलोचना नही

करेगे। पुनर्जन्म के बारे मे केवल एक और बात की ओर आप लोगो का ध्यान आकर्षित कर हम यह आलोचना समाप्त करेगे। यही मत केवल जीवात्मा की स्वाधीनता की घोषणा करता है। केवल यही एक मत है जो हमारी सारी दुर्बलताओ का दोष दूसरे के मत्थे नही मढता। अपने निज के दोष दूसरे के मत्थे मढ़ना मनुष्य की स्वाभाविक दुर्बलता है। हम अपने दोष नहीं देखते है। क्या ऑखे कभी अपने को देख पाती है? किन्तु वे दूसरे सभी को ऑखे देख सकती है। हम मनुष्य है, अपनी दुर्बलताये, अपनी गलतियॉ मानने को हम तब तक राजी नहीं होते जब तक हम दूसरो पर ये सब लाद सकते है। साधारणतः मनुष्य अपने दोषों तथा अपनी भूलो
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को पडोसियो पर लादना चाहता है । और यदि यह न बन सके. तो ईश्वर को इसके लिये उत्तरदायी बनाने की चेष्टा करता है और यदि इसमे भी सफल न हुआ तो भाग्य नामक एक भूत की कल्पना करता है और उसी को इसके लिये उत्तरदायी करके निश्चिन्त रहता है। परन्तु प्रश्न यह है कि 'भाग्य' नाम की यह वस्तु है क्या और रहती कहाँ है ? हम तो जो कुछ बोते है उसीको पाते है।

हमने स्वय ही अपने अपने भाग्यो की सृष्टि की है। यद्यपि हमारा भाग खोटा हो तब भी हम किसी को उत्तरदायी नहीं बना सकते और यदि हमारे भाग्य अच्छे हो तो भी किसी की प्रशंसाहकरने की आवश्यकता नहीं है। वायु सर्वदा बह रही है। जिन सब जहाजों के पाल उठे रहते है उन्हीं का वायु साथ देती है और वे ही उसके सहारे आगे बढ़ते है। किन्तु जिनके पाल लगाये नही गये उन पर वायु का कोई असर नहीं होता। किन्तु यह क्या वायु का दोष है ? हममे कोई सुखी है तो कोई दुःखी । क्या यह भी उनहकरुणामय पिता के कारण है जिनकी कृपा-रूपी वायु दिनरात बहती रहती है, जिनकी दया का अन्त नहीं है ? हम स्वयं ही अपने भाग्यों के निर्माता है। उनका सूर्य सभों के लिये उगता है चाहे वे दुर्बल हो या बलवान । साधु, पापी सभी के लिये उनकी वायु बह रही है । वे सभो के प्रभु है, पिता है, वे दयामय तथा समदर्शी है । क्या तुम लोगो की यह धारणा है कि हम छोटी छोटी चीजों को जिस दृष्टि से देखते है, वे भी उसी दृष्टि से देखते है ? भगवान के सवध मे हमारी यह कितनी क्षुद्र धारणा है। कुत्ते के पिल्लो की

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तरह हम नाना विपयो के लिये प्राणपण से चेष्टा कर रहे है और मूर्ख की तरह हम समझ रहे है कि भगवान भी उन विषयों को ठीक उसी तरह सत्य समझकर ही ग्रहण करेगे। इन पिल्लो के इस खेल का क्या अर्थ है, वे अच्छी तरह जानते है। उन पर सब दोप लाट देना या यह कहना कि वे ही दण्ड-पुरस्कार देने के मालिक है, मूर्खता की बाते है। वे किसी को दण्ड नहीं देते, पुरस्कार भी किसी को नही देते । प्रत्येक देश मे, प्रत्येक काल मे और प्रत्येक दशा मे प्रत्येक जीव उनकी अनंत दया प्राप्त करने का अधिकारी है । किस तरह उसका व्यवहार किया जायगा यह हम पर निर्भर रहता है। मनुष्य, ईश्वर या और किसी पर दोप लादने की चेष्टा न करो। जब तुम स्वय कष्ट पाते हो तो अपने को ही उसके लिये दोषी समझो एवं जिससे अपना कल्याण हो सके उसी की चेष्टा करो।

पूर्वोक्त समस्या का यही समाधान है | जो लोग अपने दुःखो या कष्टो के लिये दूसरों को ढोपी बनाते है (दुःख इस बात का है कि ऐसे लोगो की सख्या दिनो दिन बढ़ती जा रही है) साधारणतया वे लोग दुर्बल-मस्तिष्क है; अपने कर्म-दोष से वे ऐसी परिस्थिति मेंcआ पडे है, किन्तु अब वे इसलिये दूसरों को उत्तरदायी बना रहे है- इससे उनकी दशा मे तनिक भी परिवर्तन नहीं होता वरन्दृcसरो पर दोष लादने की चेष्टा करने के कारण वे और भी दुर्बल बन जाते हैं । अतएव अपने दोष के लिये तुम किसी को उत्तरदायी न समझो. अपने ही पैरो पर खड़े होने की चेष्टा करो, सब कामों के लिये अपने को ही उत्तरदायी समझो । कहो कि जिन कप्टो को हम अभी झेल रहे है वे हमारे ही कृत कर्मों के फल है। यदि यह मान लिया जाय तो यह भी प्रमाणित हो जायगा कि वे फिर हमारे ही द्वारा नष्ट भी किये जा सकेगे । हमने जो कुछ सृष्ट किया है उस सभी का ध्वंस भी हमीं कर सकते है, जो कुछ दूसरों ने बनाया है उसका नाश हमसे कभी नहीं हो सकता । अतएव उठो, साहसी वनो, वीर्यवान होओ। सब उत्तरदायित्व अपने ऊपर ले लो यह याद रखो कि तुम स्वय ही अपने भाग्य के निर्माता हो। तुम जो कुछ बल या सहायता मागते हो वह तुम्हारे भीतर ही विद्यमान है। इसलिये इसी ज्ञानरूपी शक्ति के सहारे तुम बल प्राप्त करो और अपना भविष्य अपने हाथों बनाओ। 'गतस्य शोचना नास्ति'-अब समस्त भविप्प तुम्हारे सामने पड़ा हुआ है । सर्वदा तुम इस बात का स्मरण रखो कि तुम्हारी प्रत्येक चिन्ता,प्रत्येक कार्य सचित रहेगा, और यह भी याद रखो कि जैसे तुम्हारी प्रत्येक असत् चिन्ता या असत् कार्य शेरों की तरह तुम पर कूद पड़ने की चेष्टा करेगा वैसे ही सत् चिन्ताएँ एवं सत् कार्य भी हजारों देवताओं की शक्ति लेकर सर्वदा तुम्हारी रक्षा के लिये उद्यत रहेगे।

 

यह कार्य भारत में सार्वजनिक डोमेन है क्योंकि यह भारत में निर्मित हुआ है और इसकी कॉपीराइट की अवधि समाप्त हो चुकी है। भारत के कॉपीराइट अधिनियम, 1957 के अनुसार लेखक की मृत्यु के पश्चात् के वर्ष (अर्थात् वर्ष 2024 के अनुसार, 1 जनवरी 1964 से पूर्व के) से गणना करके साठ वर्ष पूर्ण होने पर सभी दस्तावेज सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आ जाते हैं।


यह कार्य संयुक्त राज्य अमेरिका में भी सार्वजनिक डोमेन में है क्योंकि यह भारत में 1996 में सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आया था और संयुक्त राज्य अमेरिका में इसका कोई कॉपीराइट पंजीकरण नहीं है (यह भारत के वर्ष 1928 में बर्न समझौते में शामिल होने और 17 यूएससी 104ए की महत्त्वपूर्ण तिथि जनवरी 1, 1996 का संयुक्त प्रभाव है।