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ज्ञानयोग/३. मनुष्य का यथार्थ स्वरूप

विकिस्रोत से

नागपुर: श्री रामकृष्ण आश्रम, पृष्ठ ३७ से – ६६ तक

 

३. मनुष्य का यथार्थ स्वरूप

(लन्दन में दिया हुआ भाषण)

पञ्चेन्द्रियग्राह्य जगत् में मनुष्य इतना अधिक आसक्त हो जाता है कि वह उसे सहज में ही त्याग करना नहीं चाहता। किन्तु वह इस बाह्य जगत् को चाहे कितना ही सत्य या साररूप क्यों न समझे प्रत्येक व्यक्ति तथा जाति के जीवन में एक समय ऐसा आता है कि जब उसे अनिच्छा से भी जिज्ञासा करनी होती है, कि क्या यह जगत् सत्य है? जिन व्यक्तियों को अपनी इन्द्रियों की गवाही में अविश्वास करने का तनिक भी समय नहीं मिलता, जिनके जीवन का प्रत्येक क्षण किसी न किसी प्रकार के विषयभोग में वीतता है, मृत्यु उनके भी सिरहाने आकर खड़ी हो जाती है और विवश होकर उन्हे भी कहना पड़ता है―क्या यह जगत् सत्य है? इसी एक प्रश्न में धर्म का आरम्भ होता है और इसी के उत्तर में धर्म की इति भी हो जाती है। इतना ही क्यो, सुदूर अतीत काल में जिसका निश्चित इतिहास भी अब नहीं मिलता, उसी रहस्यमय पौराणिक युग में भी, सभ्यता के उस अस्फुट उषाकाल में भी, हम देखते है कि यही एक प्रश्न उस समय भी पूछा गया है―क्या यह जगत् सत्य है?

कवित्वमय कठोपनिषद् के प्रारम्भ में हम यह प्रश्न देखते है, मनुष्य के मरने पर, कोई कोई लोग कहते है कि उसका अस्तित्व समाप्त हो जाता है, और कोई कहते हैं कि, नहीं, उसका अस्तित्व फिर भी रहता है, इन दोनों बातों में कौन सी सत्य है? (येयं प्रेते विचिकित्सा मनुष्ये, अस्तीत्येके नायमस्तीति चकै)।" जगत् में इस सम्बन्ध में अनेक प्रकार के उत्तर मिलते है। जितने प्रकार के दर्शन या धर्म संसार में है वे सब वास्तव में इसी प्रश्न के विभिन्न रूप के उत्तरो से परिपूर्ण है। अनेक तो ऐसे है जिन्होंने इस प्रश्न को ही― प्राणों की इस महती आकांक्षा को―संसार से अतीत परमार्थ सत्ता के इस अन्वेषण को―व्यर्थ कह कर उड़ा देने की चेष्टा की है। किन्तु जब तक मृत्यु नाम की कोई वस्तु जगत् में है तब तक इस प्रश्न को यो ही उड़ा देने की सारी चेष्टायें विफल रहगी। यह कहना सरल है कि हम जगत् के अतीत की सत्ता का अन्वेषण नहीं करेगे वर्तमान क्षण में ही हम अपनी समस्त आशा, आकांक्षा को सीमित रक्खेगे; हम इसके लिये भरपूर चेष्टा कर सकते हैं और बहिर्जगत् की सब वस्तुये ही हमे इन्द्रियो की सीमा के भीतर बन्द करके रख सकती है, सारा संसार मिलकर वर्तमान की क्षुद्र सीमा के बाहर दृष्टि प्रसारित करने से हमें रोक सकता है; किन्तु जितने दिन जगत् में मृत्यु रहेगी उतने दिन यह प्रश्न बार बार उठेगा― हम जो इन सब वस्तुओं को सत्य का सत्य, सार का भी सार समझ कर इनमे भयानक रूप से आसक्त है, क्या मृत्यु ही इस सब का अन्तिम परिणाम है? जगत् एक क्षण में ही ध्वंस होकर न जाने कहाँ चला जाता है। ऊँचे गगनस्पर्शी पर्वत के नीचे की गम्भीर गुफा मानो मुँह फैलाये जीवो को निगलने को आरही है। इस भीषण पर्वत के पास खड़े होकर, कितना ही कठोर अन्तःकरण क्यो न हो, निश्चय ही सिहर उठेगा और पूछेगा―यह सब क्या सत्य है? कोई तेजस्वी हृदय जीवन भर बड़े आग्रह के साथ जिस आशा को अपने हृदय में रख कर पालता रहा वह एक मुहूर्त में ही उड़ कर न जाने कहाँ चली गई, तो क्या हम इस सब आशा को सत्य कहे? इस प्रश्न का उत्तर देना होगा। प्राणो की इस आकांक्षा की, हृदय के इस गम्भीर प्रश्न की शक्ति का कभी भी ह्रास नहीं होगा, वरञ्च काल का स्रोत ज्यो ज्यो आगे बढ़ता जायगा त्यो त्यो इस प्रश्न की शक्ति बढती जायगी और उतने ही अधिक प्रबल वेग से यह प्रश्न हृदय के ऊपर आघात करेगा। मनुष्य को सुखी होने की इच्छा होती है। अपने को सुखी करने की इच्छा से मनुष्य सभी ओर दौड़ता फिरता है―इन्द्रियो के पीछे पीछे दौड़ता फिरता है―पागल की भाँति बहिर्जगत् में कार्य करता जाता है। जो युवक जीवनसड्ग्राम में सफल हुये है उनसे यदि पूछो तो कहेगे, यह जगत् सत्य है―उन्हे सभी बाते सत्य प्रतीत होती है। ये ही व्यक्ति जब बूढ़े हो जायेगे, जब सौभाग्यलक्ष्मी उन्हे बार बार धोखा देगी तब उन्हीसे यदि पूछोगे तो यही कहेंगे कि 'सब ही अदृष्ट है'। उन्होने इतने दिन तक यही देख पाया कि वासना की पूर्ति नहीं होती। वे जिधर जाते है उधर ही मानों वज्र के समान दृढ़ दीवार उनके सामने खड़ी हो जाती है जिसे लॉघ कर जाना उनके लिये असम्भव है। इन्द्रियो की चञ्चलता की ही प्रतिक्रिया होती रहती है। सुख और दुःख दोनों ही क्षणस्थायी है। विलास, विभव, शक्ति, दारिद्रय, यहाँ तक कि जीवन भी क्षणस्थायी है।

उपर्युक्त प्रश्न के दो उत्तर है। एक है―शून्यवादियो की भाँति विश्वास करना कि सभी शून्य है, हम कुछ भी नहीं जान सकते, हम भूत, भविष्यत् या वर्तमान के सम्बन्ध में भी कुछ नहीं जान सकते। ―कारण कि जो व्यक्ति भूत भविष्य को अस्वीकार कर केवल वर्तमान को स्वीकार करते हुए उसी में अपनी दृष्टि को सीमित रखना चाहता है वय केवल बातूनी है; क्योकि ऐसा होने पर वह माता-पिता को स्वीकार न करते हुए भी सन्तान के अस्तित्व को स्वीकार करेगा! और ऐसा कहना इस अवस्था में युक्तिसंगत ही होगा; क्योकि भूत भविष्य को अस्वीकार करने का अर्थ है वर्तमान को भी अस्वीकार करना। यही एक भाव―यही शून्यवादियो का मत है। किन्तु मैने ऐसा मनुष्य आज तक नहीं देखा जो एक मुहूर्त के लिये भी शून्यवादी हो सके;― मुख से कहना तो अवश्य ही बहुत सरल है।

दूसरा उत्तर यह है कि इस प्रश्न के वास्तविक उत्तर की खोज करो―सत्य की खोज करो―इस नित्य परिवर्तनशील नश्वर जगत् में क्या सत्य है इसकी खोज करो। यह शरीर जो कुछ भौतिक अणुओ का समष्टि मात्र है, क्या इसके अन्दर कुछ सत्य भी है? देखा जाता है कि मानवजीवन के इतिहास में सर्वदा ही इस तत्व का अन्वेषण किया गया है। हम देखते है कि अति प्राचीन काल में ही मनुष्य के मन में इस तत्व का अस्पष्ट प्रकाश उद्भासित हो गया था। हम देखते हैं कि उसी समय से मनुष्य ने स्थूल देह से अतीत एक अन्य देह का भी पता पा लिया है—यह देह अधिकांश इसी स्थूल देह के समान अवश्य है किन्तु पूर्ण रूप से नहीं; यह स्थूल देह से श्रेष्ठ हे― शरीर का नाश हो जाने पर भी इसका नाश नहीं होगा। हम ऋग्वेद के एक सूक्त में किसी मृत शरीर का दाह करने वाले अग्निदेव के प्रति कहा हुआ यह स्तब देखते हैं,―"हे अग्नि! तुम इसे अपने हाथो में लेकर धीरे धीरे ले जाओ―इसे सर्वांग सुन्दर ज्योतिर्मय देह से सम्पन्न करो―इसे उसी स्थान में ले जाओ जहाँ पितृगण वास करते है, जहाँ दुःख नहीं है, जहाँ मृत्यु नहीं है।" तुम देखोगे कि सभी धर्मो में यही एक भाव विद्यमान है, और इसके साथ ही हम एक और तत्व भी पाते है। आश्चर्य की बात है—सभी धर्म एक स्वर से घोषणा करते है कि मनुष्य पहले निष्पाप और पवित्र था, इस समय उसकी अवनति हो गई है―यही भाव, चाहे वे रूपक की भाषा में, या दर्शन की सुस्पष्ट भाषा में, अथवा कविता की सुन्दर भाषा में लपेट कर प्रकाशित क्यो न करे किन्तु सभी इस एक तत्व की घोषणा करते अवश्य है। सभी शास्त्री और पुराणो में यही एक तत्व पाया जाता है कि मनुष्य जैसा पहले था वैसा अब नहीं है और इस समय वह पहले था वैसा अब नहीं है और इस समय वह पहले से गिरी हुई दशा में है। यहूदियों के शास्त्र बाइबिल के प्राचीन भाग में आदम के पतन की जो कथा है उसमे भी सार यही है। हिन्दू शास्त्रो में इसका बार बार उल्लेख हुआ है। उन्होने सतयुग कहकर जिस युग का वर्णन किया है, जब कि मनुष्य की मृत्यु उसकी इच्छानुसार होती थी, जब मनुष्य जितने दिन चाहे अपने शरीर को धारण कर सकता था, जब मनुष्यों का मन शुद्ध और दृढ़ था, इस सब में भी उसी एक सार्वभौमिक सत्य का इशारा दीखता है। वे कहते है कि उस समय मृत्यु नहीं थी एवं किसी प्रकार का अशुभ और दुख नहीं था, और वर्तमान युग उसी उन्नत अवस्था का अवनत भाव ही तो है। इस वर्णन के साथ साथ हम सभी धर्मों में जलप्लावन अर्थात् जलप्रलय का वर्णन भी पाते है। यह जलप्रलय की कथा ही इस बात को प्रमाणित करती है कि सभी धर्म वर्तमान युग को प्राचीन युग की अवनत अवस्था ही मानते है। जगत् की अवनति क्रमशः बढ़ती ही गई। इसके बाद जब जलप्रलय हुआ तो अधिकाश जगत् उसमे डूब गया। फिर उन्नति आरम्भ हुई। और अब यह जगत् अपनी उसी प्राचीन पवित्र अवस्था को प्राप्त करने के लिये धीरे धीरे अग्रसर हो रहा है। आप सब Old Testament (पुराने बाइबिल) में जलप्रलय की कथा जानते ही है। यही एक कथा प्राचीन बेबीलोन, मित्र, चीन एवं हिन्दू धर्म में भी प्रचलित थी। हिन्दू शास्त्र में जलप्रलय का इस प्रकार का वर्णन मिलता है,― महर्षि मनु जब एक दिन गंगातट पर सन्ध्या वन्दन में लगे थे, तब एक छोटी सी मछली ने उनसे आकर कहा―'मुझे आश्रय दीजिये।' मनु ने उसी क्षण पास रक्खे हुए पात्र में उसे रख कर उससे पूछा― 'तू क्या चाहती है?' मछली बोली―'एक बड़ी भारी मछली मुझे मार डालने के लिये मेरा पीछा कर रही है। मेरी रक्षा कीजिये।' मनु उसे घर ले गये, प्रातःकाल देखा, वह बढ़ कर पात्र के बराबर गई है। मछली बोली―'मैं अब इस पात्र में नहीं रह सकती।' तब मनु ने उसे एक कुण्ड में रख दिया। दूसरे दिन वह कुण्ड के बराबर हो गई और कहने लगी―मैं इसमे भी नहीं रह सकती।' तब मनु ने उसे नदी में डाल दिया। प्रातःकाल को देखा कि उसका शरीर सारी नदी में फैल गया है। तब उन्होने उसे समुद्र में डाल दिया। तब मछली कहने लगी,―'मनु, मैं जगत् का सृष्टिकर्ता हूँ। मैं जलप्रलय से जगत् को ध्वंस करूँगा। तुम्हे साव- धान करने के लिये मैं मछली का रूप धारण करके आया था। तुम एक बहुत बड़ी नौका बना कर सभी प्रकार के प्राणियो का एक एक जोड़ा उसमे रख कर उनकी रक्षा करो और स्वयं भी सपरिवार उसमे बैठो। सभी स्थान जब उस जल में डूब जाएँगे तब उस जल में तुम्हे मेरा एक सीग (कॉटा) दिखेगा, तुम नौका को उससे बाँध देना। उसके बाद जल घट जाने पर नौका से उतर कर प्रजावृद्धि करना।' इसी प्रकार भगवान के कथनानुसार जलप्रलय हुआ और मनु ने अपने परिवार सहित प्रत्येक जन्तु के एक एक जोड़े और उद्भिदो के बीज की प्रलय से रक्षा की, और प्रलय समाप्त हो जाने पर इस नौका से उतर कर वे प्रजा उत्पन्न करने में लग गये―और हम लोग मनु के वंशज होने से मानव कहलाने लगे (मन् धातु से मनु बनता है; मन् धातु का अर्थ है मनन अर्थात् चिन्ता करना)। अब देखो, मनुष्य की भाषा उस आभ्यन्तरीण सत्य को प्रकाशित करने की चेष्टा मात्र है। मेरा स्थिर विश्वास है कि यह सब कथा और कुछ नहीं, मानो एक छोटा बालक, जिसकी एकमात्र भाषा अस्फुट अस्पष्ट शब्दराशि ही है, अपनी तोतली भाषा में एक महान् गम्भीर दार्शनिक सत्य को प्रकाशित करने की चेष्टा कर रहा है―केवल उसके पास इसको प्रकाशित करने के लिये कोई उपयुक्त इन्द्रिय अथवा अन्य कोई उपाय नहीं है। उच्चतम दार्शनिक और शिशु की भाषा में प्रकार का कोई भेद नहीं है, भेद है केवल मात्रा (Degree) का। आजकल की विशुद्ध, प्रणालीवद्ध, गणित के समान कटी छँटी भाषा और प्राचीन ऋषियो की अस्फुट रहस्यमय पौराणिक भाषा में अन्तर केवल मात्रा की अधिकता और अल्पता का है। इन सब कथाओ के पीछे एक महान् सत्य छिपा है जिसे प्रकाशित करने की प्राचीन लोगो ने चेष्टा की है। बहुधा इन सब प्राचीन पौराणिक कथाओ के भीतर ही महामूल्य सत्य रहता है, और दुख के साथ कहना पड़ता है कि आधुनिक लोगो की चटपटी भाषा में बहुधा भूसी ही रहती है, तत्व नहीं रहता। अतएव, रूपक में सत्य छिपा है यह कह कर और आजकल के 'राम' 'श्याम' की समझ में नहीं आता यह कह कर सभी प्राचीन बातो को ताक पर रख देना चाहिये, इसका भी कोई अर्थ नहीं है। 'अमुक महापुरुष ने ऐसा कहा है, अतएव इस पर विश्वास करो' इस प्रकार बोलने के कारण ही यदि सभी धर्म उपहासास्पद हो जाते है तब आजकल के लोग और भी उपहासास्पद हैं। आजकल यदि कोई मूसा, बुद्ध अथवा ईसा की उक्ति को उद्धृत करता है तो उसकी हँसी उड़ाई जाती है; किन्तु हक्सले, टिण्डल अथवा डारविन का नाम लेते ही बात एकदम अकाट्य और प्रामाणिक बन जाती है। 'हक्सले ने यह कहा' बहुतो के लिये तो इतना ही कहना पर्याप्त है! सचमुच ही हम कुसस्कागे या अन्ध- विश्वासो से मुक्त हो गये हैं। पहले था धर्म का कुसंस्कार, अब है विज्ञान का कुसंस्कार; किन्तु पहले के कुसंस्कार के भीतर एक जीवन- दायक आध्यात्मिक भाव रहता था पर आधुनिक कुसंस्कार द्वारा तो केवल काम और लोभ ही उत्पन्न होता है। वह अन्धविश्वास था ईश्वर की उपासना को लेकर और आजकल का अन्धविश्वास है महाघृणित धन, यश और शक्ति की उपासना को लेकर। यही भेद है। अब हम ऊपर कही हुई पौराणिक कथा के सम्बन्ध में विवेचना करेंगे। इन सब कथाओ के भीतर यही एक प्रधान भाव देखने में आता है कि मनुष्य जिस अवस्था में पहले था अब उससे गिरी हुई दशा में है। आजकल के तत्वान्वेषी लोग इस बात को एकदम अस्वी- कार करते हैं। क्रमविकासवादी विद्वानों ने तो मानो इस सत्य का सम्पूर्ण रूप से ही खण्डन कर दिया है। उनके मत में मनुष्य एक विशेष प्रकार के क्षुद्र मांसल जन्तु( Mollusc ) का क्रमविकास मात्र है, अतएव पूर्वोक्त पौराणिक सिद्धान्त मत्य नहीं हो सकता। किन्तु भारतीय पुराण तो दोनो ही मतो का समन्वय करता है। भारतीय पुराणों के मत के अनुसार सभी प्रकार की उन्नति तरंग के आकार की होती है। प्रत्येक तरंग एक बार उठती है, फिर गिरती है, गिर कर फिर उठती है, फिर गिरती है, इसी प्रकार क्रम चलता रहता है। प्रत्येक गति ही चक्राकार होती है। आधुनिक विज्ञान की दृष्टि से देखने पर भी मनुष्य केवल क्रमविकास का परिणाम है, यह बात सिद्ध नहीं होती। क्रमविकास कहने के साथ साथ ही क्रमसंकोच की प्रक्रिया को भी मानना पड़ेगा। विज्ञानवेत्ता ही तुमसे कहते है कि किसी यन्त्र में तुम जितनी शक्ति का प्रयोग करोगे उतनी ही शक्ति तुम्हे उसमे से मिलेगी। असत् (कुछ नहीं) से कभी भी सत् (कुछ) की उत्पत्ति नहीं हो सकती। यदि मानव―पूर्ण मानव―बुद्ध-मानव ईसा-मानव, एक क्षुद्र मांसल जन्तु का क्रमविकास ही है तो इस क्षुद्र जन्तु को भी क्रमसंकुचित बुद्ध कहकर मानना पड़ेगा। यदि ऐसा नहीं तो ये सब महापुरुष कहाँ से उत्पन्न हुए? असत् से सत् की उत्पत्ति तो कभी होती नहीं। इसी रूप से हम शास्त्र के साथ आधुनिक विज्ञान का समन्वय कर सकते हैं। जो शक्ति धीरे धीरे अनेक सीढ़़ियो से होती हुई पूर्ण मनुष्य के रूप में परिणत होती है वह कभी भी शून्य में से उत्पन्न नहीं हो सकती। वह कही न कहीं वर्तमान थी; और यदि तुम विश्लेषण करते करते इसी प्रकार के क्षुद्र जन्तुविशेष या जीवाणु (Protoplasm) तक ही पहुँच कर उसी को आदिकारण सिद्ध करते हो तो यह निश्चय है कि इसी जीवाणु में यह शक्ति किसी न किसी रूप में विद्यमान थी। आजकल यही एक महान विचार चल रहा है कि क्या यह देह ही जो पञ्चभूत की समष्टि मात्र है, आत्मा अथवा चिन्ता (Thought) आदि कही जाने वाली शक्ति के विकास का कारण है? अथवा चिन्ताशक्ति ही देहोत्पत्ति का कारण है? अवश्य ही संसार के सभी धर्म कहते है कि चिन्ता नाम की शक्ति ही शरीर की प्रकाशक है―कोई भी धर्म इसके विपरीत विश्वास नहीं प्रकट करता। किन्तु आधुनिक अनेक सम्प्रदाय (Comte's Positivism) मानते है कि चिन्ताशक्ति केवल शरीर नामक यन्त्र के विभिन्न अंशों के एक विशेष रूप के सन्निवेश से उत्पन्न होती है। यदि इसी मत को मान कर कहा जाय कि यह आत्मा, मन अथवा इसका जो कुछ भी नाम रक्खा जाय, यह सब इसी जड़ देह रूप यंत्र का ही फलस्वरूप है, जिन सब जड़ परमाणुओं से मस्तिफ और शरीर का गठन होता है उन्ही के रासायनिक अथवा भौतिक योग से उत्पन्न होने वाली वस्तु है, तब तो यह प्रश्न ही अमीमांसित रह जायगा। शरीर गठन कौन करता है, कौन सी शक्ति इन भौतिक अणुओं को शरीर के रूप में परिणत करती है? कौन सी शक्ति प्रकृति में पड़ी हुई जड़ वस्तुओ के ढेर में से कुछ अंश लेकर तुम्हारा शरीर एक प्रकार का और मेरा शरीर दूसरे प्रकार का बना डालती है? यह सब विभिन्नता क्यों होती है? आत्मा नामक शक्ति शरीर में रहने वाले भौतिक परमाणुओं के विभिन्न सन्निवेशो से उत्पन्न होती है यह कहना ऐसे ही है जैसे गाड़ी के पीछे की ओर घोड़े को जोत देना। यह सन्निवेश कैसे उत्पन्न हुआ? किस शक्ति ने ऐसा कर दिया? यदि तुम कहो कि अन्य किसी शक्ति ने यह संयोग कर दिया है, और आत्मा―जो इस समय एक विशेष जड़राशि के साथ संयुक्त रूप से दृष्टिगोचर हो रहा है वह इन्ही सब जड़ परमाणुओ के सयोग का फल है, तब तो उत्तर ठीक नहीं हुआ। जो मत अन्यान्य मतों का खण्डन किये बिना ही, चाहे उसमे सब का समन्वय न हो, अधिकांश घटनाओ की, अधि- कांश विषय की व्याख्या कर सकता है वही ग्राह्य है। अतएव यही बात युक्तिसंगत है कि जो शक्ति जड़राशि को लेकर उसमें से शरीर का निर्माण करती है और जो शक्ति शरीर के भीतर प्रकाशित रहती है ये दोनों एक ही है। अतः यह कहना कि "जो चिन्ता- शक्ति हमारे शरीर में प्रकाशित होती है वह केवल जड़ अणुओ के सयोग से उत्पन्न होती है और इसीलिये शरीर से पृथक उसका कोई अस्तित्व नहीं" विलकुल ही निरर्थक है। और शक्ति कभी जड़वस्तु से उत्पन्न हो नहीं सकती। वरञ्च यह प्रमाणित करना अधिक सम्भव है कि हम जिसे जड़ कहकर पुकारते है उसका अस्तित्व ही नहीं है। यह केवल शक्ति की एक विशेष अवस्था है। यह सिद्ध किया जा सकता है कि काठिन्य आदि जो जड़ के गुण है वे सब विभिन्न रूप के स्पन्दनो के फल है। जड़ परमाणुओं के भीतर प्रबल स्पन्दन या कम्पन उत्पन्न कर देने से वे कठिन हो जायेगे। थोड़ी सी वायुराशि में यदि अतिशय प्रबल गति उत्पन्न कर दी जाय तो वह मेज के काठ से भी अधिक कठोर मालूम होगी। अदृश्य वायुराशि यदि प्रबल झटके के साथ गतिशील हो जाय तो वह लोहे के डण्डे को मोड़ देगी और तोड़ देगी―केवल गतिशीलता के द्वारा ही उसमे कठिनता का धर्म या गुण उत्पन्न हो जायगा। इसी दृष्टान्त से यह कल्पना भी की जा सकती है कि अननुभाव्य अजड ईयर को यदि प्रबल चक्र की गदि से चलाया जाय तो इसमे जड पदार्थों के सभी गुणो का सादृश्य दीख पड़ेगा। इसी प्रकार से विचार करने पर यह पूर्ण रूप से सिद्ध किया जा सकता है कि हम जिन्हें पञ्चभूत कहते है उनका कोई अस्तित्व नहीं है, किन्तु दूसरा मत सिद्ध नहीं किया जा सकता।

शरीर के भीतर यह जो शक्ति का विकास देखा जाता है यह क्या है? हम सभी यह बात सरलता से समझ सकते है कि यह शक्ति जो कुछ भी हो, यही शक्ति जड़ परमाणुओ को लेकर उनसे एक विशेष आकृति―मनुष्य देह―को तैयार करती है। और कोई आकर तुम्हारे मेरे शरीर को नहीं बनाता। दूसरा कोई मेरे लिये खा रहा है ऐसा मैने कभी नहीं देखा। मुझे ही इस भोजन का सार शरीर में लेकर उससे रक्त, मास, अस्थि आदि का गठन करना होता है। यह अद्भुत शक्ति क्या है? भूत भविष्य के सम्बन्ध में कोई भी सिद्धान्त मनुष्यो को भयावह प्रतीत होता है, बहुत लोगों को तो यह केवल एक अमानुषिक बात मालूम होती है। अतएव वर्तमान में क्या होता है, हम यही समझने की चेष्टा करेगे। हम वर्तमान विषय को ही लेगे। वह शक्ति क्या है जो इस समय हमारे भीतर बैठी काम कर रही है? हम देख चुके है कि सभी प्राचीन शास्त्रो में इस शक्ति को लोगो ने इसी शरीर के समान शरीर से सम्पन्न एक ज्योतिर्मय पदार्थ माना है; उनका विश्वास था कि इस शरीर के चले जाने पर भी वह शरीर रहेगा। क्रमश: हम देखते है कि केवल ज्योतिर्मय देह कहने से सन्तोष नहीं होता―एक और भी ऊँचा भाव लोगों के मन पर अधिकार करता दिखाई देता है। वह यह है कि किसी प्रकार का शरीर शक्ति का स्थान नहीं ले सकता। जिस किसी वस्तु की आकृति है वह वस्तु केवल बहुत से परमाणुओं का एक समूह है, अतएव उसको चलाने के लिये और कुछ भी चाहिये। यदि इस शरीर का गठन और परिचालन करने के लिये इस शरीर के अतिरिक्त किसी अन्य वस्तु की आवश्यकता है तो इसी कारण से उस ज्योतिर्मय देह का गठन और परिचालन करने के लिये भी तदतिरिक्त और कुछ चाहिये। यही "और कुछ" आत्मा नाम से पुकारा जाने लगा। आत्मा ही मानो इस ज्योतिर्मय देह के भीतर से स्थूल शरीर के ऊपर काम कर रहा है। यही ज्योतिर्मय शरीर मन का आधार कहा जाता है, और आत्मा इससे अतीत है। आत्मा मन नहीं है, वह मन के ऊपर कार्य करता है और मन के भीतर से शरीर के ऊपर कार्य करता है। तुम्हारे एक आत्मा है, मेरे भी एक आत्मा है सभी के पृथक् एक-एक आत्मा है और एक-एक सूक्ष्म शरीर भी है; इसी सूक्ष्म शरीर की सहायता से हम स्थूल शरीर के ऊपर कार्य करते है। अब प्रश्न उठा―आत्मा और उसके स्वरूप के सम्बन्ध में। शरीर और मन से पृथक् इस आत्मा का क्या स्वरूप है? बहुत से से वाद प्रतिवाद होने लगे, बहुत से सिद्धान्त और अनुमान माने जाने लगे, बहुत से दार्शनिक अनुसन्धान होने लगे―मैं आपके समक्ष इस आत्मा के सम्बन्ध में उन्होने जो कई एक सिद्धान्त अपनाये है उनका वर्णन करने की चेष्टा करूँगा। भिन्न-भिन्न दर्शनों का इस एक विषय में मतैक्य देखा जाता है कि आत्मा का स्वरूप जो कुछ भी हो, उसकी कोई आकृति नहीं है, और जिसकी आकृति नहीं वह अवश्य ही सर्वव्यापी होगा। काल मन के अन्तर्गत है―देश भी मन के अन्तर्गत है। काल को छोड़ कार्यकारण-भाव भी नहीं रह सकता। क्रमवर्तिभाव को छोड़ कार्य-कारण-भाव भी नहीं रह सकता। अतएव, देश-काल-निमित्त मन के अन्तर्गत है और यह आत्मा, मन से अतीत और निराकार है, इसलिये वह भी अवश्य

ही देश-काल-निमित्त से अतीत है। और जब वह देश-काल-निमित्त से अतीत है तो अवश्य ही अनन्त होगा। अब इस बार हिन्दूदर्शन का उच्चतम विचार आता है। अनन्त कभी दो नहीं हो सकते। यदि आत्मा अनन्त है तो केवल एक ही आत्मा हो सकता है, और यह जो अनेक आत्माओ की धारणा है―तुम्हारा एक आत्मा, मेरा दूसरा आत्मा—यह सत्य नहीं है। अतएव मनुष्य का प्रकृत स्वरूप एक ही है, अनन्त और सर्वव्यापी, और यह व्यवहारिक जीव मनुष्य के इस वास्तविक स्वरूप का केवल एक सीमाबद्ध भाव है। इसी हिसाब से पूर्वोक्त पौराणिक तत्व भी सत्य हो सकते है कि व्यवहारिक जीव, चाहे वह कितना ही बड़ा क्यो न हो जाय फिर भी मनुष्य के इस अतीन्द्रिय प्रकृत स्वरूप का अस्फुट प्रतिबिम्बमात्र ही है। अतएव मनुष्य का प्रकृत स्वरूप―आत्मा― जो कार्य-कारण से अतीत है―जो देश-काल से अतीत है―अवश्य ही मुक्त स्वभाव है―वह कभी बद्ध नहीं था, उसको बद्ध करने की शक्ति किसीमे नहीं थी। यह व्यवहारिक जीव, यह प्रतिबिम्ब देश-काल-निमित्त के द्वारा सीमाबद्ध है, इसलिये यह बद्ध है। अथवा किन्ही-किन्ही दार्शनिको की भाषा में यो कहेगे कि "मालूम होता है कि जैसे वह बद्ध हो गया है, परन्तु वास्तव में वह बद्ध नहीं है।" हमारी आत्मा के भीतर यथार्थ सत्य केवल इतना ही है―यही सर्वव्यापी, अनन्त चैतन्यस्वभाव है। हम स्वभाव से ही ऐसे है―चेष्टा करके हमे ऐसा बनने की आवश्यकता नहीं। प्रत्येक आत्मा ही अनन्त है इसलिये जन्म और मृत्यु का प्रश्न उठ ही नहीं सकता। कुछ बालक परीक्षा दे रहे थे। परीक्षक कठिन कठिन प्रश्न पूछ रहे थे। उनमे यह भी प्रश्न था—'पृथिवी गिरती क्यों नहीं है?'वे मध्याकर्षण के नियम आदि सम्बन्धी उत्तर की आशा कर रहे थे। अधिकांश बालक-बालिक कोई उत्तर नहीं दे सके। कोई कोई बालक मध्याकर्षण या और कुछ कह कह कर उत्तर देने लगे। उनमे से एक बुद्धिमती बालिका ने एक और प्रश्न करके इस प्रश्न का समाधान कर दिया—"पृथिवी गिरेगी कहाँ पर?" यह प्रश्न ही गलत है। पृथिवी कहाँ गिरे? पृथिवी के लिये पतन और उत्थान का कोई अर्थ नहीं है। अनन्त देश का ऊपर और नीचे कैसा? यह दोनो तो आपेक्षिक है। जो अनन्त है वह कहाँ जायगा और कहाँ से आयेगा? जब मनुष्य भूत और भविष्य की चिन्ता का―उसका क्या क्या होगा, इस चिन्ता का―त्याग कर देता है, जब वह देह को सीमाबद्ध और इसीलिये उत्पत्ति-विनाश- शील जान कर देहाभिमान का त्याग कर देता है, उसी समय वह एक उच्चतर अवस्था में पहुँच जाता है। देह भी आत्मा नहीं, मन भी आत्मा नहीं; कारण इनका ह्रास और वृद्धि होती है। केवल जड़ जगत् से अतीत आत्मा ही अनन्त काल तक रह सकता है। शरीर और मन प्रतिनियत परिवर्तनशील है। ये दोनो ही कई एक परि- वर्तनशील घटनाश्रेणियो के नाममात्र है। ये मानो एक नदी के समान है जिसका प्रत्येक जलपरमाणु नियत, चञ्चल है। तब भी हम देखते है कि यह वही एक नदी है। इस देह का प्रत्येक परमाणु नियतपरिणामशील है; कोई भी व्यक्ति कुछ क्षण को भी एक ही रूप का शरीर नहीं रख सकता। तथापि मन के ऊपर एक प्रकार का संस्कार बैठ गया है जिसके कारण हम इसे एक ही शरीर कह कर विवेचना करते हैं। मन के सम्बन्ध में भी यही बात है। क्षण में सुखी, क्षण में दुःखी, क्षण में सवल, क्षण में दुर्बल―नियत परिणामशील भँवर के समान। अतएव मन भी आत्मा नहीं हो सकता, आत्मा तो अनन्त है। परिवर्तन केवल ससीम वस्तु में ही सम्भव है। अनन्त में किसी प्रकार का परिवर्तन हो, यह असम्भव बात है। यह कभी नहीं हो सकता। शरीर के हिसाब से तुम और मैं एक स्थान से दूसरे स्थान को जा सकते है, जगत् का प्रत्येक अणु-परमाणु ही नित्य परिणामशील है; किन्तु जगत् को समष्टि रूप में लेने पर उसमें गति या परिवर्तन असम्भव है। गति सब जगह सापेक्ष होती है। मैं जब एक स्थान से दूसरे स्थान को जाता हूँ तब एक मेज़ अथवा और किसी वस्तु के साथ तुलना करके देखना होगा; जगत् का कोई परमाणु दूसरे किसी परमाणु के साथ तुलना करके ही परिणाम को प्राप्त हो सकता है; किन्तु सम्पूर्ण जगत् को समष्टि रूप में लेने पर किसके साथ तुलना करके उसका स्थान परिवर्तन होगा? इस समष्टि के अतिरिक्त तो और कुछ है नहीं। अतएव यह अनन्त― एकमेवाद्वितीयम्, अपरिणामी, अचल और पूर्ण है और यही पार- मार्थिक सत्ता है। इसलिये सर्वव्यापी के भीतर ही सत्य है, सान्त के भीतर नहीं। यह धारणा कि मैं एक क्षुद्र, सान्त, सदा परिणामी जीव हूँ कितनी ही आराम देनेवाली क्यों न हों, फिर भी यह एक पुराना भ्रमज्ञान ही है। यदि किसी से कहो कि―'तुम सर्वव्यापी अनन्त पुरुष हो।' तो वह डर जायगा। सब के भीतर बैठ कर तुम कार्य कर रहे हो, सब पैरो के द्वारा तुम चल रहे हो, सब-सुखों से तुम बातचीत कर रहे हो, सब नासिकाओ के द्वारा तुम श्वास-प्रश्वास के कार्य को चला रहे हो—किसी से यह सब कहने से वह डर जाता है। वह तुमसे बार बार कहेगा यह 'अहं' ज्ञान कभी नहीं जायगा। लोगो का यह 'मैं' कौन सा है, यह तो मैं देख ही नहीं पाता हूँ। देख पाता तो सुखी हो जाता। छोटे बालक के मूँछें नहीं होतीं। बड़े होने पर उसके दाढ़ी मूँछ निकल आती है। यदि 'अहं' शरीर में रहता है तब तो बालक का 'अहं' नष्ट हो गया। यदि 'अहं' शरीरगत होता तब हमारी एक आँख अथवा हाथ टूट जाने पर 'अहं' भी नष्ट हो जाता। शराबी का शराब छोड़ना ठीक नहीं, क्योकि इससे उसका 'अह' नष्ट हो जायगा! चोर का साधु बनना भी ठीक नहीं, क्योकि इससे उसका 'अहं' भी छूट जागगा। इसी भय से किसी को भी अपना व्यसन छोड़ना उचित नहीं। अनन्त को छोड़कर और किसी में 'अहं' है ही नहीं। केवल इस अनन्त का ही परिवर्तन नहीं होता, और सभी का क्रमागत परिणाम होता है। 'अहं' भाव स्मृति में भी नहीं है। स्मृति में यदि 'अहं' होता तो मस्तिष्क में गहरी चोट लगने के कारण स्मृतिलोप हो जाने पर वह 'अहं' भी नष्ट हो जाता और हमारा बिलकुल ही लोप हो जाता! प्रारम्भिक बचपन के दो तीन वर्ष का मुझे कोई स्मरण नहीं; यदि स्मृति के ऊपर मेरा अस्तित्व निर्भर करता होता तो ये दो-तीन वर्ष मेरा अस्तित्व ही नहीं था―कहना ही पड़ेगा। तब तो मेरे जीवन का जो अंश मुझे स्मरण नहीं, उस समय मैं जीवित नहीं था, यह कहना ही पड़ेगा। अवश्य ही यहाँ 'अहं' का बहुत ही सङ्कीर्ण अर्थ लिया गया है। हम अमी तक 'मैं' नहीं हैं। हम इसी 'मैं' को प्राप्त करने की चेष्टा कर रहे है—यह अनन्त है, यही मनुष्य का प्रकृत स्वरूप है। जिनका जीवन सम्पूर्ण जगत् को व्याप्त किये हुये है वे ही जीवित है, और हम जितना ही अपने जीवन को शरीर रूपी छोटे-छोटे सान्त पदार्थों में बद्ध करके रखेगे उतना ही हम मृत्यु की ओर अग्रसर होगे। हमारा जीवन जिस मुहूर्त में समस्त जगत् में व्याप्त रहता है, जिस क्षण से वह दूसरे में व्याप्त रहता है, उसी मुहूर्त में हम जीवित है, और जिस समय हम इस क्षुद्र जीवन में अपने को वद्ध करके रखते है उसी मुहूर्त में मृत्यु है एवं इसी कारण हमें मृत्युभय होता है। मृत्युभय को तभी जीता जा सकता है जब मनुष्य यह समझले कि जब तक जगत् में एक भी जीवन शेष है तब तक वह भी जीवित है। इस प्रकार के व्यक्तियो को ऐसी उपलब्धि होती है कि, "मैं सब वस्तुओ में, सब देहो में वर्तमान हूँ। सब जन्तुओं में मैं वर्तमान हूँ। मैं ही यह जगत् हूँ, सम्पूर्ण जगत् ही मेरा शरीर है। जितने दिन एक भी परमाणु शेष है उतने दिन मेरी मृत्यु की सम्भावना ही क्या है? कौन कहता है कि मेरी मृत्यु होगी?"-ऐसा ज्ञान हो जाने पर ऐसे लोग निर्भय हो जाते हैं, ऐसे ही समय निर्भीक अवस्था आ जाती है। नियतपरिणामशील छोटी-छोटी वस्तुओ में अविनाशत्व है यह कहना मूर्खता है। एक प्राचीन भारतीय दार्शनिक ने कहा है कि आत्मा अनन्त है इसलिये आत्मा ही 'अहं' हो सकता है। अनन्त का भाग नहीं किया जा सकता, अनन्त को खण्ड-खण्ड नहीं किया जा सकता। यही एक अविभक्त, समष्टिरूप अनन्त आत्मा है, वही मनुष्य का यथार्थ 'मैं' है, वही 'प्रकृत मनुष्य' है। मनुष्य के नाम से जिसको हम जानते है वह केवल इस 'मैं' को व्यक्त जगत् में प्रकाशित करने की चेष्टा का फल मात्र है; और आत्मा में कभी 'क्रमविकास' नहीं रह सकता। यह जो सब परिवर्तन हो रहा है, बुरा-भला हो रहा है, पशु मनुष्य हो रहा है, यह सब कभी आत्मा में नहीं होता। कल्पना करो कि एक पर्दा मेरे सामने है और उसमे एक छोटा सा छिद्र है; इसके भीतर से मैं केवल कुछ चेहरे देख पा रहा हूँ। यह छिद्र जितना बड़ा होता जाता है उतना ही अधिक सामने का दृश्य मेरे सम्मुख प्रकाशित होता जाता है और जब यह छिद्र सम्पूर्ण पर्दे को व्याप्त कर लेता है तब मैं तुम सब को स्पष्ट देख पाता हूँ। यहाँ पर तुम्हारे अन्दर कोई परिवर्तन नहीं हुआ; तुम जो थे, वही हो। केवल छिद्र का क्रमविकास होता रहा, और उसके साथ साथ तुम्हारा प्रकाश होता रहा। आत्मा के सम्बन्ध में भी यही बात है। तुम मुक्त स्वभाव और पूर्ण ही हो। इसके लिये चेष्टा करनी नहीं होगी। धर्म, ईश्वर या परकाल, यह सब धारणा कहाँ से आई? मनुष्य 'ईश्वर, ईश्वर' करता क्यो घूमता फिरता है? सभी जातियों, सभी समाजो में मनुष्य क्यों पूर्ण आदर्श का अन्वेषण करता फिरता है चाहे वह आदर्श मनुष्य में हो या ईश्वर में या अन्य किसी वस्तु में? इसका कारण यह है कि वह तुम्हारे भीतर ही वर्तमान है। तुम्हारा अपना ही हृदय धक-धक करता है, तुम सोचते हो, बाहर कोई वस्तु यह शब्द कर रही है। तुम्हारी आत्मा के अन्दर बैठा ईश्वर ही तुम्हे अपना अनुसन्धान करने को―अपनी उपलब्धि करने को प्रेरित कर रहा है।

यहाँ, वहाँ, मन्दिर में, गिरजाघर में, स्वर्ग-मर्त्य में, नाना स्थानो में नाना उपायो से अन्वेषण करने के बाद अन्त में हमने जहाँ से आरम्भ किया था―अर्थात् हमारी आत्मा में ही हम वृत्ताकार घूम कर वापस आते है और देखते हैं कि जिसकी हम समस्त जगत् में खोज करते थे, जिसके लिये हमने मन्दिरों, गिरजाओ में जाकर कातर होकर प्रार्थनाये की, आँसू बहाये, जिसको हम सुदूर आकाश में मेघराशि के पीछे छिपा हुआ अव्यक्त रहस्यमय समझते रहे, वह हमारे निकट से भी निकट है, प्राण का प्राण है, वही हमारा शरीर है, वही हमारा आत्मा है―तुम ही 'मैं' हो, मैं ही 'तुम' हूँ। यही तुम्हारा स्वरूप है―इसीका प्रकाश करो। तुम्हें पवित्र होना नहीं पड़ेगा―तुम पवित्र स्वरूप ही हो। तुम्हें पूर्ण स्वरूप होना नहीं पड़ेगा―तुम पूर्ण स्वरूप ही हो। समस्त प्रकृति ही पर्दे के समान अपने अन्दर रहने वाले सत्य को ढांके रहती है। तुम जो कुछ भी अच्छा विचार या अच्छा कार्य करते हो वह मानों केवल उस आवरण को धीरे-धीरे छिन्न करते हो और वही मानों प्रकृति के अन्दर स्थित शुद्ध स्वरूप अनन्त ईश्वर प्रकाशित हो रहा है। यही मनुष्य का सारा इतिहास है। यही आवरण जितना ही सूक्ष्म से सूक्ष्मतर होता जाता है, उतना ही प्रकृति के अन्दर स्थित प्रकाश भी अपने स्वभाव के अनुसार ही क्रमशः अधिकाधिक दीप्त होता जाता है, क्योंकि उसका स्वभाव ही इसी प्रकार दीप्त होना है। उसको जाना नहीं जा सकता, हम सब उसको जानने की वृथा ही चेष्टा करते हैं। यदि वह ज्ञेय होता तो उसका स्वभाव ही बदल जाता, कारण वह नित्यज्ञाता है। और ज्ञान तो ससीम है; किसी वस्तु का ज्ञान-लाभ करने के लिये उसकी ज्ञेय वस्तु के रूप में, विषय के रूप में चिन्ता करनी होती है। वह तो सकल वस्तुओं का ज्ञाता स्वरूप है, सब विषयो का विषयी स्वरूप है, इस विश्वब्रह्माण्ड का साक्षी स्वरूप है, तुम्हारा ही आत्मा स्वरूप है। ज्ञान तो मानो एक नीचे की अवस्था है―केवल एक अवनत भाव है। हम ही वह आत्मा हैं, फिर इसे हम किस प्रकार जानेंगे? प्रत्येक व्यक्ति वह आत्मा है और विभिन्न उपायो से इसी आत्मा को जीवन में प्रकाशित करने की सभी चेष्टा कर रहे है; यदि ऐसा न होता तो ये सब नीतिप्रणालियाँ कहाँ से आती? सभी नीति- प्रणालियो का तात्पर्य क्या है? सभी नीतिप्रणालियों में एक ही भाव भिन्न-भिन्न रूप से प्रकाशित हुआ है―दूसरों का उपकार करना। मानवजाति के समस्त सत्कर्मों की मूल अभिसन्धि है—मनुष्य, जन्तु आदि सभी के प्रति दया। किन्तु ये सब 'मैं ही जगत् हूँ, यह जगत् एक अखण्ड स्वरूप है,' इसी सनातन सत्य के विभिन्न भाव मात्र है। यदि ऐसा नहीं हो तो दूसरो का हित करने में क्या युक्ति है? मैं क्यों दूसरों का उपकार करूँ? परोपकार करने को मुझे कौन बाध्य करता है? सब जगह समदर्शन से उत्पन्न जो सहानभूति का भाव है उसी से तो यह बात हुई। अत्यन्त कठोर अन्तःकरण भी कभी- कभी दूसरो के प्रति सहानुभूति से भर जाता है। और तो क्या, जो व्यक्ति 'यह आपातप्रतीयमान (Apparent) 'अहं' वास्तव में भ्रम- मात्र है,' 'इस भ्रमात्मक 'अहं' में आसक्त रहना अत्यन्त नीच कार्य है'―ये सब बाते सुनकर भयभीत हो जाता है―वही व्यक्ति तुमसे कहेगा कि सम्पूर्ण आत्मत्याग ही सब नीतियों की भित्ति है। किन्तु पूर्ण आत्मत्याग क्या है? सम्पूर्ण आत्मत्याग हो जाने पर शेष क्या रहेगा? आत्मत्याग का अर्थ है इसी आपातप्रतीयमान 'अहं' का त्याग, सब प्रकार की स्वार्थपरता का त्याग। यह अहंकार और ममता पूर्व कुसंस्कारों के फल स्वरूप है और जितना ही इस 'अहं' का त्याग होता जाता है उतना ही आत्मा अपने नित्य स्वरूप में, अपनी पूर्ण महिमा में प्रकाशित होता है। यही वास्तविक आत्मत्याग है, यही समस्त नैतिक शिक्षा की भित्ति है, केन्द्र है। मनुष्य इसको जाने या न जाने, समस्त जगत् धीरे-धीरे इसी दिशा में जा रहा है, अल्पाधिक परिमाण में इसीका अभ्यास कर रहा है। केवल, अधिकांश लोग इसे अज्ञात भाव से ही कर रहे है। वे इसे ज्ञात भाव से करे। यह प्रकृत आत्मा नहीं है यह समझ कर वे इस त्याग-यज्ञ को करे। यह व्यवहारिक जीव ससीम जगत् के भीतर आबद्ध है। इस समय जिसको मनुष्य नाम से पुकारा जाता है वह इसी जगत् की अतीत अनन्त सत्ता का सामान्य आभास मात्र है, उसी सर्वस्वरूप अनन्त अग्नि का एक कण मात्र है। किन्तु वह अनन्त ही तो उसका वास्तविक स्वरूप है।

इस ज्ञान का फल—इस ज्ञान की उपकारिता क्या है? आज- कल सभी विषयो को उनकी इस उपकारिता से ही नापा जाता है। अर्थात् मोटी बात यो है कि इससे कितने रुपये, कितने आने और कितने पैसो का लाभ है? किन्तु लोगो को इस प्रकार प्रश्न करने का क्या अधिकार है? क्या सत्य को भी उपकार या धन के मापदण्ड से नापा जायगा? मान लो कि इससे कोई लाभ नहीं होता तो क्या यह सत्य कुछ कम सत्य हो जायगा? उपकार अथवा प्रयोजन सत्य का निर्णायक कभी नहीं हो सकता (Bentham's Utilitarianism and Jame's Pragmatism)। जो भी हो, इस ज्ञान में बड़ा उपकार तथा प्रयोजन भी है। हम देखते है, सब लोग सुख की खोज करते है; किन्तु अधिकांश लोग नश्वर मिथ्या वस्तुओं में उसको ढूँढते फिरते है। इन्द्रियो में कभी किसी को सुख नहीं मिलता। सुख तो केवल आत्मा में ही मिलता है। अतएव आत्मा में इस सुख की प्राप्ति ही मनुष्य का सबसे बड़ा प्रयोजन है। और एक बात यह है कि अज्ञान ही सब दुःखो का कारण है, और मेरी समझ में सब से बड़ा अज्ञान यही है कि जो अनन्त स्वरूप है वह अपने को सान्त मान कर रोता है; समस्त अज्ञान की मूलभित्ति यही है कि अविनाशी, नित्य शुद्ध पूर्ण आत्मा होते हुए भी हम सोचते हैं कि हम छोटे मन, छोटे छोटे देह मात्र हैं; यही समस्त स्वार्थपरता का मूल है। जब ही मैं अपने को एक क्षुद्र देह समझ कर विवेचना करता हूँ तभी मैं उसकी―जगत् के अन्यान्य शरीरो के सुख-दुःख की ओर दृष्टि बिना डाले ही―रक्षा करने की तथा उसका सौन्दर्य सम्पादन करने की इच्छा करता हूँ। उस समय तुम और मैं भिन्न हो जाता हूँ। और जब ही यह भेद-ज्ञान आता है तभी यह सब प्रकार के अमंगल का द्वार खोल देता है और सब प्रकार के दुःखों की उत्पत्ति करता है। अत: पूर्वोक्त ज्ञानलाम से यह लाभ होगा कि आजकल की भनुष्य-जाति का एक बहुत छोटा अश भी यदि क्षुद्र भाव का त्याग कर सके तो कल ही यह संसार स्वर्गरूप में परिणत हो जायगा, किन्तु नाना प्रकार के यन्त्रो के तथा बाह्य जगत् सम्बन्धी ज्ञान की उन्नति से यह कभी नहीं हो सकता। जिस प्रकार अग्नि में तेल डालने से अग्निशिखा और भी वर्धित होती है उसी प्रकार इन सब वस्तुओ से दुःखों की ही वृद्धि होती है। आत्मज्ञान के अतिरिक्त जितना भी भौतिक ज्ञान उपार्जित किया जाता है वह केवल अग्नि में घृताहुति मात्र है। इससे केवल स्वार्थपर लोगों के हाथों में दूसरों का कुछ लेने के लिये, दूसरों के लिये अपना जीवन बिना दिये दूसरो के कन्धो पर बैठ कर खाने के लिये एक और यंत्र एक और सुविधा मात्र आ जाती है।

एक और प्रश्न है―क्या इसे कार्य रूप में परिणत करना सम्भव है? वर्तमान समाज में क्या इसको कार्य रूप में परिणत किया जा सकता है? इसका उत्तर यही है कि सत्य―प्राचीन अथवा आधुनिक किसी समाज का भी सम्मान नहीं करता। समाज को ही सत्य का सम्मान करना पड़ेगा, अन्यथा ध्वस अवश्यम्भावी है। सत्य ही समस्त प्राणियो तथा समाज का मूल आधार है, अतः सत्य कभी भी समाज के अनुसार अपना गठन नहीं करेगा। यदि निःस्वार्थपरता के समान महान सत्य समाज में कार्य रूप में परिणत नहीं किया जा सकता तो ऐसे समाज को छोड़ कर वन में जाकर बसना ही अच्छा है। इसीका नाम साहस है। साहस दो प्रकार का होता है। एक साहस होता है तोप के मुँह में दौड़ पड़ना। यदि यही वास्तविक साहस होता तो सिंह आदि मनुष्य से श्रेष्ठ होते। किन्तु एक और साहस होता है जिसे सात्त्विक साहस कह कर पुकार सकते है। एक बार एक दिग्विजयी सम्राट भारतवर्ष में आया। उसके गुरु ने उसे भारतीय साधुओं से साक्षात्कार करने का आदेश दिया था। बहुत खोज करने के बाद उसने देखा कि एक वृद्ध साधु एक पत्थर के ऊपर बैठे है। सम्राट को उनके साथ कुछ देर बातचीत करने से बड़ा सन्तोष हुआ। अतएव उसने साधु को अपने साथ देश ले जाने की इच्छा प्रकट की। साधु ने इसे स्वीकार नहीं किया और कहा—"मैं इसी वन में बड़े आनन्द में हूँ।" सम्राट बोला―"मैं समस्त पृथिवी का सम्राट हूँ। मैं आपको असीम ऐश्वर्य तथा उच्च पद- मर्यादा दूँगा।" साधु बोले―"ऐश्वर्य, पदमर्यादा, किसी में भी मेरी आकांक्षा नहीं है।" तब सम्राट ने कहा―"आप यदि मेरे साथ नहीं जायेगे तो मैं आपका विनाश कर दूँगा।" इस पर साधु बहुत हँसे और बोले―"महाराज, तुमने जितनी बाते कही, उनमे यही सब से अधिक अज्ञानपूर्ण मालूम होती है। क्या तुम मेरा संहार कर सकते हो? सूर्य मुझे सुखा नहीं सकता, अग्नि मुझे जला नहीं सकती, कोई यंत्र भी मेरा संहार नहीं कर सकता, कारण कि मैं जन्म रहित अविनाशी, नित्यविद्यमान, सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान आत्मा हूँ।" यह एक अन्य प्रकार की साहसिकता है। सन १८५७ ई. में सिपाही-विद्रोह के समय एक मुसलमान सिपाही ने एक संन्यासी महात्मा को तलवार से भोंक दिया। हिन्दू विद्रोहियों ने इस मुसलमान को स्वामीजी के पास लाकर कहा―"आप कहे तो इसकी हत्या कर दे हम?" स्वामीजी ने उनकी ओर मुँह फिरा कर कहा―"भाई, तुम्हीं वह हो, तुम्ही वह हो।" यही कहते-कहते उन्होंने शरीर छोड़ दिया। यह भी एक प्रकार की साहसिकता है। यदि तुम सत्य के आदर्श पर समाज का संगठन नहीं कर सकते, यदि तुम इस प्रकार समाज- संगठन नहीं कर सकते कि जिसमे वह सर्वोच्च सत्य-स्थान पा सके तब फिर तुम अपने बाहुबल पर क्या अभिमान करते हो? तब फिर तुम अपनी सारी पाश्चात्य संस्थाओं का क्या अभिमान करते हो? अपनी महानता तथा श्रेष्ठता का तुम क्या गौरव करते हो, यदि तुम दिन-रात यही कहते रहते हो कि, "इसका कार्य में परिणत करना असम्भव है।" पैसा-कौड़ी को छोड़ कर क्या और कुछ भी करने योग्य नहीं है? यदि यही है तो अपने समाज पर इतना अहंकार क्यो करते हो? वही समाज सर्वश्रेष्ठ है जहाँ सर्वोच्च सत्य को कार्य मे परिणत किया जा सकता है―यही मेरा मत है। और यदि समाज इस समय उच्चतम सत्य को स्थान देने में समर्थ नहीं है तो उसे इस योग्य बनाओ। उसको इस योग्य बनाओ और जितनी शीघ्र तुम इस कार्य में सफल होगे उतना ही अच्छा। हे नरनारिगण! आत्मा के सम्बन्ध में जाग्रत होओ, सत्य में विश्वास करने का साहस करो, सत्य के अभ्यास का साहस करो। संसार में कितने ही साहसी नरनारियो की आवश्यकता है। साहसी होना बड़ा कठिन है। शारीरिक साहस में तो व्याघ्र मनुष्य से श्रेष्ठ है, उसके स्वभाव में ही इस प्रकार की साहसिकता है। बल्कि इस विषय में तो चींटी अन्य जन्तुओ से श्रेष्ठ है। परन्तु इस शारीरिक साहसिकता की बात क्यो करते हो? उसी साहस का अभ्यास करो जो मृत्यु के समक्ष भयभीत नहीं होता, जो मृत्यु का स्वागत कर सकता है, जिस मनुष्य जान सके―कि वह आत्मा है, और सरल जगत् में कोई भी अस्त्र ऐसा नहीं जो उसे संहार कर सके, सारे बज्र मिल कर भी उसका संहार नहीं कर सकते, जगत् की समस्त अग्नि भी उसे दग्ध नहीं कर सकती—जो साहसिकता सत्य को जानने का साहस करती है और जीवन में उस सत्य को दिखा सकती है, ऐसी साहसिकता जिसमे है वही व्यक्ति मुक्त पुरुष है, वही व्यक्ति वास्तव में आत्मस्वरूप हो गया। यह इसी समाज में― प्रत्येक समाज में―अभ्यास करना होगा। 'आत्मा के सम्बन्ध में पहले श्रवण, फिर मनन, उसके बाद निदिध्यासन करना होगा।'

आज कल के समाज में एक बात देखी जाती है―कार्य करने ने अधिक ज़ोर लगाना और सब प्रकार के मनन, ध्यान, धारणा आदि पर बिल्कुल ध्यान न देना। अवश्य ही कार्य अच्छा हो सकता है किन्तु वह भी तो चिन्ता से ही उत्पन्न होता है। मन के भीतर जो छोटी-छोटी शक्तियो का विकास होता रहता है वही जब शरीर द्वारा अनुष्टित होता है तब उसी को कार्य कहते हैं। बिना चिन्ता के कोई कार्य नहीं हो सकता। मस्तिष्क को ऊँची-ऊँची चिन्ताओ, ऊँचे- ऊँचे आदर्शों से भर लो, उन्हीं को दिन-रात मन के सम्मुख स्थापित करके रक्खो; ऐसा होने पर इन्हीं विचारो से बड़े-बड़े कार्य होगे। अपवित्रता के सम्बन्ध में कोई बात मत कहो किन्तु मन से कहो कि मैं शुद्ध पवित्र स्वरूप हूँ। हम क्षुद्र हैं, हमने जन्म लिया, हम मरेंगे, इन्हीं चिन्ताओं में हमने अपने आप को एकदम अभिभूत कर रक्खा है, और इसीलिये हम सर्वदा एक प्रकार के भय से कॉपते है।

एक सिंहनी जिसका प्रसवकाल निकट था, एक बार अपने शिकार की खोज में बाहर निकली। उसने दूर पर भेड़ों के एक झुण्ड को चरते देख कर उन पर आक्रमण करने के लिये जैसे ही छलाँग मारी वैसे ही उसके प्राणपखेरू उड़ गये और एक मातृहीन सिंह के बच्चे ने जन्म लिया। भेड़ो ने उस सिंह के बच्चे की देखरेख प्रारम्भ कर दी और वह भेड़ो के बच्चो के साथ साथ बड़ा होने लगा, भेड़ो की भाँति घास-पात खाकर प्राण-धारण करने लगा, भेड़ो की भाँति 'मे-मे' भी करने लगा। यद्यपि वह ठीक एक सिंह के समान हो उठा था, फिर भी वह अपने को भेड़ समझता था। इसी प्रकार दिन बीत रहे थे कि एक दिन एक बड़ा भारी सिंह शिकार के लिये उधर आ निकला, किन्तु उसे यह देख कर बड़ा आश्चर्य हुआ कि भेड़ों के बीच में एक सिंह भी है और भेड़ों की भाँति ही वह विपत्ति आने की सम्भावना मात्र से ही भाग रहा है। तब सिंह उसके पास जाकर- 'वह सिंह है, भेड़ नहीं' यह समझाने की चेष्टा करने लगा, किन्तु जैसे ही वह आगे बढ़ा वैसे ही भेड़ों का झुण्ड भागने लगा और उसके साथ-साथ वह 'मेष-सिंह' भी भागने लगा। जो हो उसने उस मेष-सिंह को अपने यथार्थ स्वरूप को समझाने का सकल्प नहीं छोड़ा। वह लक्ष्य करने लगा कि भेड़-सिंह कहाँ रहता है, क्या करता है। एक दिन उसने देखा कि वह एक जगह पड़ा सो रहा है। देखते ही वह उसके ऊपर कूद कर जा पहुँचा और बोला―"अरे, तुम भेड़ों के साथ रह कर अपना स्वभाव किस प्रकार भूल गये? तुम तो भेड़ नहीं हो, तुम सिंह हो।" मेप-सिंह बोल उठा--"क्या कह रहे हो? मै भेड हूॅ, सिंह कैसे हो सकता हूॅ?" उसे किसी प्रकार विश्वास नहीं हुआ कि वह सिंह है, और वह भेड़ों की भॉति चीत्कार करने लगा। तब सिंह उसे उठा कर एक सरोवर के किनारे ले गया और बोला--"यह देखो अपना प्रतिबिम्ब, यह देखो मेरा प्रतिबिम्ब।" और तब वह इन दोनों की तुलना करने लगा। वह एक बार सिंह की ओर, और एक बार अपने प्रतिबिम्ब की ओर ध्यान से देखने लगा। उस समय क्षण भर मे ही उसका यह ज्ञान जाग गया कि 'सचमुच, मै तो सिंह ही हूॅ।' तब वह सिंहगर्जना करने लगा और उसका भेडों का सा चीत्कार न जाने कहाॅ चला गया! तुम सब सिंह स्वरूप हो, तुम आत्मा हो, शुद्धस्वरूप, अनन्त और पूर्ण। जगत् की महाशक्ति तुम्हारे भीतर है। "हे सखा, क्यो रोदन करते हो? जन्म-मृत्यु तुम्हारा भी नहीं है, मेरा भी नहीं है। क्यों रोते हो? तुम्हे रोग, दुःख कुछ भी नहीं है, तुम अनन्त आकाश स्वरूप हो जिसके ऊपर नाना प्रकार के मेघ आते है और कुछ देर खेल कर न जाने कहाॅ अन्तर्हित हो जाते है; किन्तु आकाश जैसा पहले नीला था वैसा ही नीला रह जाता है।" इसी प्रकार के ज्ञान का अभ्यास करना होगा। हम जगत् मे पाप-ताप क्यों देखते है? कारण, हम स्वय ही असत् है। एक मार्ग मे एक ठूॅठ खड़ा था। एक चोर उधर से जा रहा था, उसने समझा यह कोई पहरेवाला है। नायक ने समझा, वह उसकी नायिका है। एक बच्चे ने जब उसे देखा तो भूत समझ कर चीत्कार करने लगा। भिन्न-भिन्न व्यक्तियों ने इस प्रकार यद्यपि उसे भिन्न-भिन्न रूपों मे देखा, तथापि वह एक ट ठूॅठ के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं था। हम स्वयं जैसे होते है जगत् को वैसा ही देखते है। एक मेज़ पर एक मोहर की थैली रख दो और सोचो कि यहाॅ पर एक बच्चा बैठा है। एक चोर ने आकर उस थैली को ले लिया। क्या बच्चा समझेगा कि चोरी हो गई ? हमारे भीतर जो है वही हम बाहर भी देखते हैं। बच्चे के मन में चोर नहीं था, अतएव उसने चोर को नहीं देखा। सब प्रकार के ज्ञान के सम्बन्ध मे ऐसा ही होता है। जगत् के पाप, अत्याचार की बात मत कहना। किन्तु तुम्हे जगत् मे अब भी जो पाप देखना पड़ता है उसके लिये रोदन करो। अपने लिये रोओ कि तुम्हें अब भी सर्वत्र पाप देखना पड़ता है। और यदि तुम जगत् का उपकार करना चाहते हो तो जगत् के ऊपर दोषारोपण करना छोड़ दो। उसे और भी दुर्बल मत करो। यह सब पाप, दुःख आदि क्या हैं? यह सव तो दुर्बलता का ही फल है। लोग बचपन से ही शिक्षा पाते है कि वे दुर्बल है, वे पापी है। इस प्रकार की शिक्षा से जगत् दिन पर दिन दुर्बल होता जा रहा है। उनको सिखाओ कि वे सब उसी अमृत की सन्तान हैं--और तो क्या, जिसके भीतर आत्मा का प्रकाश अति क्षीण है उसे भी यही सिखाओ। वाल्य-काल से ही उनके मस्तिष्क में इस प्रकार की चिन्ताएँ प्रविष्ट कर दो जिनसे कि उनकी यथार्थ सहायता हो सके, जो उनको सबल बनाये, जिनसे उनका कुछ यथार्थ हित हो, जिससे दुर्बलता तथा अवसादकारक चिन्ता उनके मस्तिष्क मे प्रवेश ही न करे। सच्चिन्ता के स्रोत मे शरीर को डुबा दो, अपने मन से सर्वदा कहो--'मै ही वह हूॅ, मै ही वह हूॅ।' तुम्हारे मन में दिन रात यह बात संगीत की भाॅति बजती रहे, और मृत्यु के समय भी 'सोऽहम्, सोऽहम्' बोलते हुए मरो। यही सत्य है--जगत् की अनन्त शक्ति

तुम्हारे भीतर है। जो कुसंस्कार तुम्हारे मन को ढके रखता है, उसे भगा दो। साहसी बनो। सत्य को जान कर उसे जीवन में परिणत करो, चरम लक्ष्य बहुत दूर हो सकता है, किन्तु 'उत्तिष्ठत, जाग्रत, प्राप्य वरान् निबोधत।"






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