ज्ञानयोग/४. मनुष्य का यथार्थ स्वरूप

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४. मनुष्य का यथार्थ स्वरूप

(न्यूयार्क में दिया हुआ भाषण)

हम यहाँ खड़े है परन्तु हमारी दृष्टि दूर, बहुत दूर―अनेक समय, कोसो दूर चली जाती है। जब से मनुष्य ने चिन्ता करना आरम्भ किया तभी से उसको यह आदत रही है। मनुष्य सदा ही वर्तमान से बाहर देखने की चेष्टा करता है, वह जानना चाहता है कि इस शरीर के नष्ट होने के बाद वह कहाँ चला जाता है। इसी रहस्य को उद्घाटित करने के लिय अनेक मतो का प्रचार हुआ; सैकडों मतो की स्थापना हुई, और सैकड़ो मत खण्डित होकर छोड़ भी दिये गये; और जितने दिन मनुष्य इस जगत् में रहेगा, जितने दिन वह चिन्ता करता रहेगा उतने दिन ऐसे ही चलेगा। इन सब मतो में ही कुछ न कुछ सत्य है। और इन्ही में बहुतसा असत्य भी है। इस सम्बन्ध में भारत में जो अनुसन्धान हुआ है उसीका सार, उसीका फल मैं आपके सामने रखने की चेष्टा करूँगा। भारतीय दार्शनिकों के इन सब मतों का समन्वय करने तथा यदि हो सका तो उसके साथ आधुनिक वैज्ञानिक सिद्धान्तों का भी समन्वय करने की चेष्टा करूँगा।

वेदान्त-दर्शन का एक ही उद्देश्य है―एकत्र का अनुसन्धान या अन्वेषण। हिन्दू लोग विशेष के पीछे नहीं दौड़ते, वे सदा ही सामान्य वस्तु का―नहीं नहीं, सर्वव्यापी सार्वभौमिक वस्तु का [ ६८ ]अन्वेषण करते हैं। हम देखते है कि उन्होंने वार वार इसी एक सत्य का अनुसन्धान किया है--" ऐसा कौन सा पदार्थ है जिसके जान लेने से सब कुछ जाना जा सकता है?" जिस प्रकार मिट्टी के एक ढेले को जान लेने पर जगत् की सारी मिट्टी को जान लिया जाता है उसी प्रकार ऐसी कौनसी वस्तु है जिसे जान कर जगत् की सभी वस्तुये जानी जा सकती हैं? यही उनका एक मात्र अनु- सन्धान है, यही उनकी एकमात्र जिज्ञासा है। उनके मत से समस्त जगत् का विश्लेषण करके उसे एक मात्र 'आकाश' में पर्यचसित किया जा सकता है। हम अपने चारो ओर जो कुछ भी देखते है, छूते है, आस्वादन करते है, अधिक क्या, हम जो कुछ भी अनुभव करते हैं वह सब केवल इसी आकाश का विभिन्न विकास मात्र है। यह आकाश सूक्ष्म और सर्वव्यापी है। कठिन, तरल, वाष्पीय, सब पदार्थ, सब प्रकार की आकृतियॉ, शरीर, पृथ्वी, सूर्य, चन्द्र, तारा-- सब इसी आकाश से उत्पन्न है। किस शक्ति ने इस आकाश पर कार्य करके इसमे से जगत् की सृष्टि की? आकाश के साथ एक सर्वव्यापी शक्ति रहती है। जगत् में जितनी भी भिन्न भिन्न शक्तियाँ है--आकर्षण, विकर्षण, यहाॅ तक कि चिन्ताशक्ति भी, सभी प्राण नामक एक महाशक्ति का विकास मात्र है। इसी प्राण ने आकाश के ऊपर कार्य करके इस जगत्-प्रपञ्च की रचना की है। कल्प के प्रारम्भ में यही प्राण मानो अनन्त आकाश-समुद्र में प्रसुप्त रहता है। प्रारम्भ मे यह आकाश गतिहीन होकर अवस्थित था। बाद में प्राण के प्रभाव से इस आकाश-समुद्र मे गति उत्पन्न होती है। और इस प्राण की जैसे ही गति होती है वैसे ही इस आकाश- समुद्र मे से नाना ब्रह्माण्ड, नाना जगत्, कितने ही सूर्य, चन्द्र, तारा[ ६९ ]
गण, पृथ्वी, मनुष्य, जन्तु, उद्भिद् और नाना शक्तियाँ उत्पन्न होती रहती हैं। अतएव हिन्दुओ के मत से सब प्रकार की शक्ति प्राण का और सब प्रकार के दृश्य पदार्थ आकाश का विभिन्न स्वरूप मात्र हैं; कल्पान्त मे सभी घन पदार्थ पिघल जायॅगे, और वह तरल पदार्थ वाष्पीय आकार में परिणत हो जायगा। वह फिर तेज रूप धारण करेगा। अन्त मे सब कुछ जिसमे से उत्पन्न हुआ था उसी आकाश मे विलीन हो जायगा। और आकर्षण, विकर्षण, गति आदि समस्त शक्तियाँ धीरे धीरे मूल प्राण मे परिणत हो जायँगी। उसके बाद जब तक फिर कल्परम्भ नही होता तब तक यह प्राण मानो निद्रित अवस्था मे रहेगा। कल्पारम्भ होने पर वह फिर जाग कर नाना रूपों को प्रकाशित करेगा और कल्पान्त मे सभी कुछ लय हो जायगा। इसी प्रकार वह आता है, जाता है, एक वार पीछे और एक बार आगे--मानो झूल रहा है। आधुनिक विज्ञान की भाषा मे कहेगे कि एक समय वह स्थितिशील (Static) रहता है, फिर गतिशील (Dynamic) हो जाता है; एक समय प्रसुप्त रहता है और फिर क्रियाशील हो जाता है। इसी रूप से अनन्त काल से चला आरहा है।

किन्तु यह विश्लेषण भी अधूरा ही रहा। आधुनिक पदार्थ- विज्ञान ने भी यही तक जान पाया है। इसके ऊपर भौतिक विज्ञान की गति नहीं है। किन्तु इस अनुसन्धान का यहीं अन्त नहीं हो जाता। हमने अभी तक उस वस्तु को प्राप्त नहीं किया जिसे जान कर सब कुछ जाना जा सके। हमने समस्त जगत् को भूत और शक्ति मे अथवा प्राचीन भारतीय दार्शनिको के शब्दो मे आकाश
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और प्राण मे पर्यवसित कर दिया। अब आकाश और प्राण को किसी एक वस्तु मे पर्यवसित करना होगा। इन्हे मन नामक उच्चतर क्रिया- शक्ति मे पर्यवसित किया जा सकता है। महत् अथवा समष्टि चिन्ता- शक्ति से प्राण और आकाश दोनो की उत्पत्ति होती है। चिन्ता- शक्ति ही इन दो शक्तियों के रूप मे विभक्त हो जाती है। प्रारम्भ मे यही सर्वव्यापी मन था। इसी ने परिणत होकर आकाश और प्राण रूप धारण किये और इन्हीं दोनो के सम्मिश्रण से समस्त जगत् बना।

अब हम मनस्तत्व की आलोचना करेगे। मै आपको देख रहा हूॅ। आँखे विषय को ग्रहण कर रही है और अनुभूतिजनक स्नायु उसे मस्तिष्क मे प्रेरित कर रहे है। आँखे देखने का साधन नही है, वे केवल बाहरी यन्त्र है, कारण देखने का जो वास्तविक साधन है, जो मस्तिष्क मे विषय-ज्ञान को संवाद ले जाता है, उसको यदि नष्ट कर दिया जाय तब मेरी बीस आँखे रहते हुए भी आप मे से किसी को भी मै नही देख सकूँगा। अक्षिजाल (Retina) के ऊपर पूरा अक्स या प्रतिबिम्ब पड़ सकता है फिर भी तुम सब को मै देख नहीं पाऊँगा। अतएव सिद्ध है कि वास्तविक दर्शनेन्द्रिय इस ऑख से पृथक् कोई वस्तु है; प्रकृत चक्षुरिन्द्रिय अवश्य ही चक्षुयन्त्र के पीछे विद्यमान है। सभी प्रकार की विषयानुभूति के सम्बन्ध मे इसी प्रकार समझना चाहिये। नासिका घ्राणेन्द्रिय नही है; वह केवल यन्त्र मात्र है, उसके पीछे घ्राणेन्द्रिय है। प्रत्येक इन्द्रिय के सम्बन्ध मे समझना होगा कि पहले तो इस स्थूल शरीर मे बाह्य यन्त्र लगे हुये है; पीछे किन्तु इसी स्थूल शरीर मे इन्द्रियाॅ भी मौजूद हैं। किन्तु इन सब से भी काम नही चलता! मान लीजिये, मै आपसे कुछ कह रहा हूँ
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और आप बड़े मनोयोग के साथ मेरी बात सुन रहे हैं, इसी समय यहाँ एक घण्टा बजता है; शायद आप उस घण्टे की ध्वनि को नहीं सुन सकेगे। यह शब्द-तरंग आपके कान में पहुॅच कर कान के पर्दे मे लगी, स्नायुओ के द्वारा यह संवाद मस्तिष्क मे पहुॅचा, किन्तु फिर भी आप उसे क्यों नहीं सुन सके? यदि मस्तिष्क मे संवाद वहन करने तक ही समस्त श्रवण-प्रक्रिया सम्पूर्ण हो जाती, तो फिर तुम क्यो नही सुन पा सके? अतएव मालूम हुआ कि सुनने की प्रक्रिया के लिये और भी कुछ आवश्यक है--मन इन्द्रिय से युक्त नहीं था। जिस समय मन इन्द्रियों से पृथक रहता है उस समय इन्द्रियाॅ उसके पास जो कुछ भी संवाद लायेगी मन उनको ग्रहण नहीं करेगा। जब मन उनसे युक्त रहता है तभी वह किसी संवाद को ग्रहण करने मे समर्थ होता है। किन्तु इससे भी विषयानुभूति, पूर्ण नही होगी। बाहरी यन्त्र संवाद वहन कर सकता है, इन्द्रियगण उसे भीतर ले जा सकती है और मन इन्द्रियों से संयुक्त रह सकता है, फिर भी विषया- नुभूति पूर्ण नहीं होगी। एक वस्तु और आवश्यक है। भीतर से प्रति- क्रिया आवश्यक है। प्रतिक्रिया से ही ज्ञान उत्पन्न होगा। बाहर की वस्तु ने मानों मेरे अन्दर संवाद-प्रवाह प्रेरित किया। मेरे मन ने उसे लेकर बुद्धि के निकट अर्पण कर दिया, बुद्धि ने पहले से बने हुये मन के संस्कारो के अनुसार उसे सजाया और बाहर की ओर प्रति- क्रिया-प्रवाह की प्रेरणा की, इसी प्रतिक्रिया के साथ साथ विषयानुभूति होती है। मन की जो शक्ति इस प्रतिक्रिया की प्रेरणा करती है उसे 'बुद्धि' कहते है। किन्तु फिर भी अभी विषयानुभूति पूर्ण नहीं हुई। मान लीजिये, एक चित्रक्षेपक यन्त्र है और एक पर्दा है। मै इस पर्दे पर एक चित्र डालने की चेष्टा कर रहा हूॅ। तो मै क्या
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करूँगा? मै उस यन्त्र से नाना प्रकार की प्रकाश-किरणें इस पर्दे पर डालने की और उन्हे एक स्थान में एकत्रित करने की चेष्टा करूँगा। एक ऐसी अचल वस्तु की आवश्यकता है जिस पर चित्र डाला जा सके। किसी चञ्चल वस्तु पर यह करना असम्भव है, कोई स्थिर वस्तु चाहिये। कारण, मै जो प्रकाश-किरणे डालना चाहता हूँ वे चञ्चल है; इन चञ्चल प्रकाश-किरणों को किसी अचल वस्तु के ऊपर एकत्रीभूत, एकीभूत करके एक जगह लाना होगा। यही बात उन संवादों के विषय मे भी है जिन्हें इन्द्रियाॅ मन के आगे और मन बुद्धि के आगे समर्पित करता है, जब तक ऐसी कोई वस्तु नहीं मिल जाती जिस पर यह चित्र डाला जा सके, जिस पर भिन्न भिन्न भाव एकत्रीभूत हो कर मिल सके तब तक यह विषयानुभूति भी पूर्ण नही होगी। वह क्या वस्तु है जो समुदय को एकत्व का भाव प्रदान करती है। वह कौनसी वस्तु है जो विभिन्न गतियो के भीतर भी प्रतिक्षण एकत्व की रक्षा किये रहती है? वह कौन सी वस्तु है जिसके ऊपर भिन्न भिन्न भाव मानो एक ही जगह गूॅथे रहते है, जिसके ऊपर विषय आकर मानो एक जगह वास करते है और एक अखण्ड भाव को धारण करते है? हमने देखा कि ऐसी कोई वस्तु आवश्यक है और उस वस्तु का शरीर और मन की तुलना मे अचल होना भी आवश्यक है। जिस पर्दे के ऊपर यह चित्रक्षेपक यन्त्र चित्र डाल रहा है वह इन प्रकाश-किरणो की तुलना मे अचल है, ऐसा न होने पर चित्र पडेगा ही नहीं। अर्थात् इसका एक व्यक्ति (Individual) होना आवश्यक है। यही वस्तु, जिसके ऊपर मन यह सब चित्रांकन करता है, यही वस्तु जिसके ऊपर मन और बुद्धि द्वारा ले जायी
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जाकर हमारी विपयानुभूति स्थापित, श्रेणीबद्ध और एकत्रीभूत होती है, इसी को मनुष्य की आत्मा कहते हैं।

तो, हमने देखा कि समष्टि मन या महत्, आकाश और प्राण इन दो भागो मे विभक्त रहता है। और मन के पीछे आत्मा रहता है। समष्टि मन के पीछे जो आत्मा है उसको ईश्वर कहते है। व्यष्टि मे यह मनुष्य की आत्मा मात्र है। जिस प्रकार समष्टि मन आकाश और प्राण के रूप मे परिणत हो गया है उसी प्रकार समष्टि आत्मा भी मन के रूप में परिणत हो गया है। अब प्रश्न उठता है -- क्या इसी प्रकार व्यष्टि मनुष्य के सम्बन्ध मे भी समझना होगा? मनुष्य का मन भी क्या उसके शरीर का स्रष्टा है और क्या उसका आत्मा उसके मन का स्रष्टा है? अर्थात् मनुष्य का शरीर, मन और आत्मा--ये तीन विभिन्न वस्तुये है, अथवा ये एक के भीतर ही तीन है, अथवा ये सब एक पदार्थ की ही तीन विभिन्न अवस्थाऍ मात्र है? हम क्रमशः इसी प्रश्न का उत्तर देने की चेष्टा करेगे। जो भी हो, हमने अब तक यही देखा कि पहले तो यह स्थूल देह है, उसके बाद इन्द्रियाॅ, मन, बुद्धि और बुद्धि के भी बाद आत्मा। तो पहली बात यह हुई कि आत्मा शरीर से पृथक तथा मन से भी पृथक वस्तु है। यहीं से धर्म जगत् मे मतभेद देखा जाता है। द्वैतवादी कहते है कि आत्मा सगुण है अर्थात् भोग, सुख, दुःख–-सभी यथार्थ में आत्मा के धर्म है; अद्वैतवादी कहते है कि वह निर्गुण है।

हम पहले द्वैतवादियों के मत का--आत्मा और उसकी गति के सम्बन्ध मे उनके मत का वर्णन करके उसके बाद जो मत इसका सम्पूर्ण रूप से खण्डन करता है उसका वर्णन करेगे। अन्त मे
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अद्वैतवाद के द्वारा दोनों मतों का सामञ्जस्य सिद्ध करने की चेष्टा करेगे। यह मानवात्मा शरीर और मन से पृथक है एवं आकाश और प्राण से गठित नही है इसीलिये अमर है। क्यो? मर्त्यत्व या विनश्वरत्व का अर्थ क्या है? जो विश्लिष्ट हो जाता है वही विनश्वर है। और जो वस्तु कई एक पदार्थों के संयोग से बनती है वही विश्लिष्ट होगी; केवल वह पदार्थ जो अन्य पदार्थों के संयोग से उत्पन्न नहीं है, कभी विश्लिष्ट नहीं होता, इसीलिये उसका कभी विनाश नहीं हो सकता। वह अविनाशी है। वह अनन्त काल से है, उसकी कमी सृष्टि नहीं हुई। सृष्टि तो केवल सयोग मात्र है। शून्य से कभी किसी ने सृष्टि नहीं देखी। सृष्टि के सम्बन्ध में हम केवल यह जानते है कि यह पहले से वर्तमान कितनी ही वस्तुओ का नये नये रूप मे एकत्र मिलन मात्र है। यदि ऐसा है तो यह मानवात्मा भिन्न भिन्न वस्तुओ के संयोग से उत्पन्न नही है, अतः वह अवश्य ही अनन्त काल से है और अनन्त काल तक रहेगा। इस शरीर का नाश हो जाने पर भी आत्मा रहेगा। वेदान्तवादियों के मत से--जब इस शरीर का नाश हो जाता है तब मनुष्य की इन्द्रियो का मन मे लय हो जाता है, मन का प्राण मे लय हो जाता है, प्राण आत्मा मे प्रविष्ट हो जाता है और उस समय वही मानवात्मा मानो सूक्ष्म शरीर अथवा लिंग शरीर रूपी वस्त्र पहिन कर चला जाता है। इसी सूक्ष्म शरीर मे मनुष्य के समस्त संस्कार वास करते है। संस्कार क्या है? मन मानो तालाब के समान है--और हमारी प्रत्येक चिन्ता मानों उसी तालाब की लहर के समान है। जिस प्रकार तालाब में लहर उठती है, गिरती है, गिरकर अन्तर्हित हो जाती है उसी प्रकार मन में ये सब चिन्ताओ की तरंगे लगातार
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उठती और अन्तर्हित होती रहती हैं। किन्तु वे एकदम अन्तर्हित भी नही होतीं। वे क्रमशः सूक्ष्मतर होती जाती है, परन्तु वर्तमान रहती ही है। प्रयोजन होने पर फिर उठती हैं। जिन चिन्ताओ ने सूक्ष्मतर रूप धारण कर लिया है उन्हीं में से कुछ एक को फिर तरड्गाकार मे लाने को ही स्मृति कहते है। इसी प्रकार हमने जो कुछ ही चिन्ता की है, जो कुछ कार्य हमने किये है सभी कुछ मन के अन्दर अवस्थित है। ये सब सूक्ष्म भाव से ही स्थित रहते है और मनुष्य के मर जाने पर भी ये संस्कार उसके मन मे रहते है—फिर वे सूक्ष्म शरीर के ऊपर कार्य करते रहते है। आत्मा ये ही सब संस्कार एवं सूक्ष्म शरीर रूपी वस्त्र धारण करके चला जाता है और यह विभिन्न संस्कार रूप विभिन्न शक्तियो का समवेत फल ही आत्मा की गति को नियमित करता है। उनके मत से आत्मा की तीन प्रकार की गति होती है।

जो अत्यत धार्मिक हैं उनकी मृत्यु के बाद वे सूर्यरश्मियों का अनुसरण करते है; सूर्यरश्मियो का अनुसरण करके वे सूर्यलोक मे जाते है; वहाॅ से वे चन्द्रलोक और चन्द्रलोक से विद्युल्लोक मे उपस्थित होते है; वहाॅ एक मुक्त आत्मा से उनका साक्षात्कार होता हैं; वे इन जीवात्माओं को सर्वोच्च ब्रह्मलोक मे ले जाते है। यहाॅ उन्हे सर्वज्ञता और सर्वशक्तिमत्ता प्राप्त होती है; उनकी शक्ति और ज्ञान प्राय: ईश्वर के समान हो जाता है, और द्वैतवादियों के मत मे वे अनन्त काल तक वहाॅ वास करते है, अथवा अद्वैतवादियो के अनुसार कल्पान्त मे ब्रह्म के साथ एकत्व लाभ करते है। जो लोग सकाम भाव से सत्कार्य करते हैं वे मृत्यु के बाद चन्द्रलोक मे जाते है, वहाँ नाना
[ ७६ ]प्रकार के स्वर्ग हैं। वे वहाँ पर सूक्ष्मशरीर―देवशरीर प्राप्त करते हैं। वे देवता होकर वहाँ वास करते है और दीर्घ काल तक स्वर्ग के सुखों का उपभोग करते है। इस भोग का अन्त होने पर फिर उनका प्राचीन कर्म बलवान हो जाता है; अतः फिर उनका मर्त्यलोक में पतन हो जाता है। वे सब वायुलोक, मेघलोक आदि लोकों के भीतर होकर आते है और अन्त में वृष्टिधारा के साथ पृथ्वी पर गिर पड़ते है। वृष्टि के साथ गिर कर वे किसी शस्य का आश्रय ले कर रहते हैं। इसके बाद जब कोई व्यक्ति उस अन्न को खाता है तब उसकी औरस सन्तति में वह जीवात्मा फिर शरीर धारण करता है। जो लोग अत्यंत दुष्ट है उनकी मृत्यु होने पर वे भूत अथवा दानव हो जाते हैं और चन्द्रलोक और पृथ्वी के बीच किसी स्थान में वास करते है। उनमे से कोई कोई मनुष्यों के ऊपर बड़ा अत्याचार करते है और कोई कोई मनुष्यो से मैत्री भी कर लेते है। वे कुछ समय तक इसी स्थान में रहकर फिर पृथ्वी पर आकर पशु-जन्म लेते है। कुछ समय पशु-देह में रहकर वे फिर मनुष्यत्व लाभ करते है और फिर एक बार मुक्तिलाभ करने की उपयोगी अवस्था को प्राप्त करते है। तो हमने देखा कि जो लोग मुक्ति की निकटतम सीढ़ी पर पहुँच गये है, जिनके भीतर कम अपवित्रता रह गई है वे ही सूर्य की किरणों के सहारे ब्रह्मलोक में जाते है। जो मध्य वर्ग के लोग हैं, जो स्वर्ग जाने की इच्छा से सत्कर्म करते है वे ही सब चन्द्रलोक में जाकर वहाँ के स्वर्गों में वास करते है और देवशरीर को भी प्राप्त करते है, किन्तु उन्हे मुक्तिलाभ करने के लिये फिर मनुष्य देह धारण करना पड़ता है। और जो अत्यन्त दुष्ट है वे भूत, दानव आदि रूप में परिणत होते है, उसके बाद वे पशु होते है; और मुक्तिलाभ के लिये उन्हे फिर मनुष्यजन्म [ ७७ ]
ग्रहण करना पड़ता है। इस पृथ्वी को कर्मभूमि कहा जाता है। अच्छा बुरा सभी कर्म यहीं करना होता है। मनुष्य स्वर्गकाम होकर सत्कार्य करने पर स्वर्ग मे जाकर देवता हो जाता है। इस अवस्था मे वह कोई नया कर्म नहीं करता, केवल पृथ्वी पर किये हुये अपने सत्कर्मों का फल भोग करता है। और जब ये सत्कर्म समाप्त हो जाते है उसी समय जो असत् या बुरे कर्म उसने पृथ्वी पर किये थे उनका सञ्चित फल वेग के साथ उसके ऊपर आ जाता है और उसे वहाँ से फिर एक बार पृथ्वी पर घसीट लाता है। इसी प्रकार जो भूत हो जाते है वे उसी अवस्था मे कोई नूतन कर्म न करते हुए केवल भूत कर्म का फल भोग करते रहते है; उसके बाद पशुजन्म ग्रहण कर वहाॅ भी कोई नया कर्म नहीं करते। उसके बाद वे भी फिर मनुष्य हो जाते है।

मान लो कि एक व्यक्ति ने जीवन भर अनेक बुरे काम किए किन्तु एक बहुत अच्छा काम भी किया। ऐसी दशा मे उस सत्कार्य का फल उसी क्षण प्रकाशित हो जायगा, और इस सत्कार्य का फल शेष होते ही बुरे कार्यों का फल भी उसे मिलेगा। जिन सब लोगो ने अनेक अच्छे अच्छे बड़े बड़े कार्य किये है किन्तु उनके समस्त जीवन की गति अच्छी नहीं रही, वे सब देवता हो जायॅगे। देवदेह से सम्पन्न होकर देवताओं की शक्ति का कुछ काल तक सम्भोग करके उन्हे फिर मनुष्य होना पड़ेगा। जिस समय सत्कर्मों की शक्ति क्षय हो जायगी उस समय फिर वही पुरातन असत्कार्यों का फल होने लगेगा। जो अत्यन्त बुरे कर्म करते है उन्हे भूतयोनि, दावनयोनि मे जाना पड़ेगा, और जब उनके बुरे कर्मों का फल समाप्त हो जायगा उस समय उनका जितना भी सत्कर्म शेष है उसके फल से वे फिर
[ ७८ ]मनुष्य हो जायँगे। जिस मार्ग से ब्रह्मलोक मे जाया जाता है, जहाँ से, पतन अथवा प्रत्यावर्तन की सम्भावना नहीं रहती उसे देवयान कहते है, और चन्द्रलोक के मार्ग को पितृयान कहते हैं।

अतएव वेदान्त-दर्शन के मत मे मनुष्य ही जगत् में सर्वश्रेष्ठ प्राणी है और यह पृथ्वी ही सर्वश्रेष्ठ स्थान है, कारण कि एक मात्र यहीं पर मुक्त होने की सम्भावना है। देवता आदि को भी मुक्त होने के लिये मनुष्य-जन्म ग्रहण करना पड़ेगा। इसी मानव-जन्म में ही मुक्ति की सब से अधिक सुविधा है।

अब हम इसके विरोधी मत की आलोचना करेंगे। बौद्ध लोग इस आत्मा का अस्तित्व एकदम अस्वीकार करते हैं। वे कहते हैं कि शरीर और मन के पीछे आत्मा नामक एक पदार्थ है, यह मानने की क्या आवश्यकता है? इस शरीर और मन का यन्त्र स्वतःसिद्ध है, यह कहने से क्या यथेष्ट व्याख्या नहीं हो जाती? और एक तीसरे पदार्थ की कल्पना से क्या लाभ? यह युक्ति खूब प्रबल है। जितनी दूर तक अनुसन्धान किया जाय, यही मालूम होता है कि यह शरीर और मन का यन्त्र स्वतःसिद्ध है, और हममे से अनेक इस तत्व को इसी भाव से देखते है। तब फिर शरीर और मन के अतिरिक्त अथच शरीर और मन के आश्रयभूमि स्वरूप आत्मा नामक एक पदार्थ के अस्तित्व की कल्पना की आवश्यकता क्या है? बस शरीर और मन कहना ही तो पर्याप्त है; नियत परिणामशील जड़स्रोत का नाम शरीर है और नियत परिणामशील चिन्तास्रोत का नाम मन है। तब जो एकत्व की प्रतीति हो रही है वह कैसे? बौद्ध कहते है कि यह एकत्व वास्तविक नहीं है। मान लो कि एक जलती मशाल को [ ७९ ]घुमाया जा रहा है। घुमाने पर एक ही अग्नि का वृत्तस्वरूप या गोल आकार हो जायगा। वास्तव में कोई वृत्त है नहीं, किन्तु मशाल के नियमित घूमने से उसने यह वृत्त का आकार धारण कर लिया है। इसी प्रकार हमारे जीवन मे भी एकत्व नही है; जड़ की राशि क्रमागत रूप से चल रही है। सम्पूर्ण जड़राशि को एक कह कर संबोधित करने की इच्छा होगी तो कर सकते हो, किन्तु उसके अतिरिक्त वास्तव मे कोई एकत्व नहीं है। मन के सम्बन्ध मे भी यही बात है; प्रत्येक चिन्ता दूसरी चिन्ताओं से पृथक है। इस प्रबल चिन्तास्रोत मे ही इस भ्रमात्मक एकत्व का भाव रख दिया जाता है; अतएव फिर तीसरे पदार्थ की आवश्यकता क्या है? यह जो कुछ देखा जाता है, यह जड़स्रोत और यह चिन्तास्रोत–केवल इन्हीं का अस्तित्व है; इनके बाद और कुछ सोचने की आवश्यकता ही क्या है? अनेक आधुनिक सम्प्रदायों ने बौद्धों के इस मत को ग्रहण कर लिया है, किन्तु वे सभी इसे अपना अपना आविष्कार कह कर प्रतिपादित करना चाहते है। अधिकांश बौद्ध दर्शनो मे मोटी बात यही है कि यह दृश्यमान जगत् पर्याप्त है। इसके पीछे और कुछ है कि नहीं यह अनुसन्धान करने की बिलकुल ही आवश्यकता नहीं है। यह इन्द्रियग्राह्य जगत् ही सर्वस्व है-किसी वस्तु को इस जगत् के आश्रय रूप में कल्पना करने की आवश्यकता ही क्यों पड़ी? सब ही गुणसमष्टि है। ऐसे आनुमानिक पदार्थ की कल्पना करने की क्या आवश्यकता है कि जिस मे वे सब गुण लगे रहे हो? पदार्थ का ज्ञान आता है केवल गुणराशि के वेग से स्थान परिवर्तन के कारण, कोई अपरिणामी पदार्थ वास्तव मे इनके पीछे है, ऐसी बात नहीं। हम देखते हैं कि यह युक्ति अति प्रबल है और साधारण मनुष्य की अनुभूति के पक्ष मे खूब सहायक [ ८० ]
हो जाती है। वास्तव में एक लाख मनुष्यों में एक व्यक्ति भी इस दृश्य जगत् से अतीत और किसी वस्तु की धारणा भी कर सकता है कि नहीं इसमें सन्देह है। अधिकांश लोगों के लिये प्रकृति नित्य- परिणामशील मात्र है। हम लोगों मे भी कम लोगों ने हमारे सब के पीछे स्थित उस स्थिर समुद्र का कुछ कुछ आभास भी पाया होगा। हमारे लिये यह जगत् केवल तरंगपूर्ण है। इस प्रकार हमे दो मत मिलते हैं। एक तो यह कि शरीर और मन के पीछे एक अपरिणामी सत्ता रहती है; दूसरा यह कि इस जगत् में निश्चलत्व नामक कुछ भी नहीं है, सब कुछ चञ्चल है, सभी कुछ परिणाम है, जो हो अद्वैत वाद में ही इन दोनो मतो का सामञ्जस्य मिलता है।

अद्वैतवादी कहते हैं, 'जगत् का एक अपरिणामी आश्रय है'--द्वैतवादियो की यह बात सत्य है। किसी अपरिणामी पदार्थ की कल्पना किये बिना हम परिणाम की कल्पना कर ही नहीं सकते। किसी अपेक्षाकृत अल्पपरिणामी पदार्थ की तुलना मे किसी पदार्थ की परिणाम के रूप मे चिन्ता की जा सकती है, और उसकी अपेक्षा भी अल्प परिणामी पदार्थ के साथ तुलना मे उसे भी परिणामी रूप मे निर्देश किया जा सकता है जब तक कि एक पूर्ण अपरिणामी पढार्थ को बाध्य होकर स्वीकार न कर लिया जाय। यह जगत्-प्रपञ्च अवश्य ही एक ऐसी अवस्था में था जब यह स्थिर शान्त था; जब यह दो शक्तियो के सामञ्जस्य-रूप मे था अर्थात् जब वास्तव मे किसी भी शक्ति का अस्तित्व नही था; कारण वैषम्य न होने पर शक्ति का विकास नहीं होता। यह ब्रह्माण्ड फिर उसी साम्यावस्था की प्राप्ति की ओर जा रहा है। यदि हमारा किसी विषय के सम्बन्ध में निश्चित ज्ञान है, तो वह यही है। [ ८१ ]द्वैतवादी जब कहते हैं कि कोई अपरिणामी पदार्थ है तब वह ठीक ही कहते हैं; किन्तु वह शरीर और मन से बिलकुल अतीत है, शरीर और मन से बिलकुल पृथक् है, यह कहना भूल है। बौद्ध लोग जो कहते है कि समुदय जगत् केवल परिणाम-प्रवाह मात्र है यह बात भी सत्य है; कारण, जब तक मैं जगत् से पृथक हूँ; जब तक मैं अपने अतिरिक्त और सभी कुछ देख रहा हूँ, मोटी बात है कि जब तक द्वैतभाव रहेगा; तब तक यह जगत् परिणामशील ही प्रतीत होगा। किन्तु वास्तविक बात यह है कि यह जगत् परिणामी भी है और अपरिणामी भी। आत्मा, मन और शरीर ये तीनो पृथक् वस्तुएँ नहीं है वरञ्च एक ही है। एक ही वस्तु कभी देह, कभी मन और कभी देह और मन से अतीत आत्मा प्रतीत होती है। जो शरीर की ओर देखते हैं व मन तक को भी नहीं देख सकते; जो मन को देखते है वे आत्मा को नहीं देख पाते; और जो आत्मा को देखते है उनके लिये शरीर और मन दोनो न जाने कहाँ चले जाते है! जो लोग केवल गति देखते है वे सम्पूर्ण स्थिर भाव को नहीं देख पाते, और जो इस सम्पूर्ण स्थिर भाव को देख पाते है उनके निकट गति न जाने कहाँ चली जाती है। सर्प में रज्जु का भ्रम हुआ। जो व्यक्ति रज्जु में सर्प ही देखता है उसके लिये रज्जु कहाँ चली जाती है, और जब भ्रान्ति दूर होकर वह व्यक्ति रज्जु ही देखता है तो फिर उसके लिये सर्प नहीं रहता।

तो हमने देखा कि वस्तु एक ही है और वही एक नाना रूप से प्रतीत होती है। इसको आत्मा कहे या वस्तु कहे या अन्य कुछ नाम दे, जगत् में एकमात्र इसी का अस्तित्व है। अद्वैवादियो की

[ ८२ ]भाषा में यह आत्मा ही ब्रह्म है, जो केवल नानारूप उपाधिवश अनेक प्रतीत हो रहा है। समुद्र की तरड्गो की ओर देखो; एक भी तरड् समुद्र से पृथक् नहीं है। तब फिर तरड्ग पृथक् क्यो प्रतीत होती है? नामरूप ने—तरड्ग की आकृति और हमने जो इसे तरड्ग नाम दे दिया है उसी ने उसे समुद्र से पृथक् कर दिया है। नामरूप के नष्ट हो जाने या चले जाने पर वह जो समुद्र था वही रह जाता है। तरंग और समुद्र के बीच कौन प्रभेद कर सकता है? अतएव यह समुदय जगत् एक स्वरूप हुआ। जितना भी पार्थक्य है वह सब नामरूप के ही कारण है। जिस प्रकार सूर्य लाखों जलकणो पर प्रतिबिम्बित होकर प्रत्येक जलकण के ऊपर सूर्य की एक सम्पूर्ण प्रति- कृति की सृष्टि कर देता है उसी प्रकार वही एक आत्मा, वही एक सत्ता विभिन्न वस्तुओ में प्रतिबिम्बित होकर नाना रूप में दिखाई पड़ता है। किन्तु वास्तव में वह एक है। वास्तव में 'मैं' अथवा 'तुम' नामक कुछ नहीं है―सब एक है। चाहे कहो―सभी मैं हूँ, या कहो―सभी तुम हो। किन्तु यह द्वैतज्ञान बिलकुल मिथ्या है, और समुदय जगत् इसी द्वैतज्ञान का फल है। जब विवेक उदय होने पर मनुष्य देख पाता है कि दो वस्तुएँ नहीं है, एक ही वस्तु है, तब उसे बोध होता है कि वही स्वयं यह अनन्त ब्रह्माण्ड स्वरूप हो गया है। मैं ही यह परिवर्तनशील जगत् हूँ, और मैं ही अपरिणामी, निर्गुण, नित्यपूर्ण नित्यानन्दमय हूँ।

अतएव नित्यशुद्ध, नित्य, पूर्ण अपरिणामी अपरिवर्तनीय एक आत्मा है; उसका परिणाम कभी नहीं होता, और ये सब विभिन्न परिणाम उसी एकमात्र आत्मा में ही प्रतीत होते हैं। उसके ऊपर नामरूप [ ८३ ]ने ये सब विभिन्न स्वप्नचित्र अङ्कित किये है। आकृति ने ही तरंग को समुद्र से पृथक् किया है। मान लो कि तरंगे मिल गईं, तब क्या यह आकृति रहेगी? नहीं, वह बिलकुल ही चली जायगी। तरंग का अस्तित्व पूर्ण रूप से समुद्र के अस्तित्व के ऊपर निर्भर रहता है; किन्तु समुद्र का अस्तित्व तरंग के अस्तित्व के ऊपर निर्भर नहीं रहता। जब तक तरंग रहती है तब तक रूप भी रहता है, किन्तु तरंग की निवृत्ति होने पर वह रूप नहीं रह सकता। इसी नाम-रूप को माया कहते है। यह माया ही भिन्न व्यक्तियो का सृजन करके एक व्यक्ति का दूसरे व्यक्ति से पृथक् बोध करा रही है। किन्तु वास्तव में इसका अस्तित्व नहीं है। माया का अस्तित्व है यह नहीं कहा जा सकता। रूप या आकृति का अस्तित्व है यह नहीं कहा जा सकता, कारण, वह तो दूसरे के अस्तित्व पर निर्भर रहती है। और वह नहीं है यह भी नहीं कहा जा सकता, कारण, उसी ने तो यह सब भेद उत्पन्न किया है। अद्वैतवादियो के मत में यही माया या अज्ञान या नामरूप अथवा योरोपीय लोगो के मत में देश-काल-निमित्त ही इसी एक अनन्त सत्ता से इस विभिन्नरूप जगत् की सत्ता दिखा रहे हैं। परमार्थतः यह जगत् एक अखण्ड स्वरूप है; जब तक कोई दो वस्तुओ की कल्पना करता है तब तक वह भ्रम में है। जब वह जान जाता है कि एक मात्र सत्ता है तभी वह यथार्थ को जानता है। जितना ही समय बीतता जाता है उतना ही हमारे निकट यह सत्य प्रमाणित होता जाता है। क्या जड़ जगत् में, क्या मनोजगत् में और क्या अध्यात्म जगत् में, सभी जगह यह सत्य प्रमाणित हो रहा है। अब प्रमाणित हो गया है कि तुम, मैं, सूर्य, चन्द्र, तारे―ये सभी एक जड़ समुद्र के विभिन्न अंशों के नाम मात्र हैं। इस जड़राशि का क्रमागत परिणाम हो रहा है। जो शक्ति का कण कुछ मास [ ८४ ]पहले सूर्य में था, हो सकता है कि आज वह मनुष्य के भीतर आगया हो, कल शायद वह पशु के भीतर और परसो शायद किसी उद्भिद के भीतर प्रवेश कर जायगा। आना जाना निरन्तर हो रहा है। यह सब एक ही अखण्ड जड़राशि है―केवल नामरूप से पृथक् पृथक् है। उसके एक बिन्दु का नाम सूर्य है, एक का नाम चन्द्र, एक का तारा, एक का मनुष्य, एक का पशु, एक का उद्भिद, इसी प्रकार और भी, और ये जो भिन्न भिन्न नाम हैं ये भ्रमात्मक हैं; कारण, इस जड़ राशि का क्रमागत परिवर्तन हो रहा है। इसी जगत् को एक दूसरे भाव से देखने पर यह एक विशाल चिन्ता-समुद्र के समान प्रतीत होगा जिसका एक एक बिन्दु एक एक मन है। तुम एक मन हो, मैं एक मन हूँ, प्रत्येक व्यक्ति केवल एक एक मन है। और इसी जगत् को ज्ञान की दृष्टि से देखने पर, अर्थात् जब आँखों पर से मोह का आवरण हट जाता है, जब मन शुद्ध हो जाता है तब वही नित्य शुद्ध, अपरिणामी, अविनाशी, अखण्ड पूर्ण स्वरूप पुरुप के रूप में प्रतीत होगा। तब द्वैतवादियो का परलोकवाद―मनुष्य मरने के बाद स्वर्ग जाता है अथवा अमुक लोक में जाता है, असत् लोक में भूत हो जाता है, उस के बाद पशु होता है ये सब बाते क्या हुई? अद्वैतवादी कहते हैं―न कोई आता है न कोई जाता है—तुम्हारे लिये जाना आना किस तरह सम्भव है? तुम तो अनन्त स्वरूप हो; तुम्हे जाने के लिये स्थान कहाँ है?

किसी स्कूल में छोटे बच्चों की परीक्षा हो रही थी। परीक्षक इन छोटे छोटे बच्चो से कठिन कठिन प्रश्न कर रहे थे। उन्हीं प्रश्नों में एक प्रश्न था कि "पृथ्वी गिरती क्यो नहीं?" प्रायः सभी वालक इस प्रश्न [ ८५ ]को समझ नहीं सके और अपनी अपनी समझ से उल्टे सीधे उत्तर देने लगे। तब एक बुद्धिमती बालिका ने उसका उत्तर दे दिया। वह बोली― "पृथ्वी गिरेगी किस पर?" यह प्रश्न ही तो भूल है। जगत् में ऊँचा नीचा तो कुछ है नहीं। ऊँचा नीचा तो केवल आपेक्षिक ज्ञान मात्र है। आत्मा के सम्बन्ध में भी यही बात है। जन्म-मृत्यु का प्रश्न ही भूल है। कौन जाता है, कौन आता है? तुम कहाँ नहीं हो? वह स्वर्ग कहाँ है जहाँ तुम पहले से ही नही हो? मनुष्य का आत्मा सर्वव्यापी है। तुम कहाँ जाओगे? कहाँ नहीं जाओगे? आत्मा तो सब जगह है। अतएव पूर्ण रूप से जीवन्मुक्त व्यक्ति के लिये यह बालकों का सा स्वप्न, जन्म-मृत्यु के सम्बन्ध में यह बालकों का सा भ्रम, स्वर्ग-नरक आदि का स्वप्न―सभी कुछ एकदम अन्तर्हित हो जाता है, जिनके भीतर कुछ अज्ञान अवशिष्ट है उनको वह नाना प्रकार के ब्रह्मलोक पर्यन्त दृश्य दिखा कर अन्तर्हित हो जाता है और अज्ञानियो के लिये वह रह जाता है।

समस्त जगत्, स्वर्ग जायँगे, मरेगे, पैदा होंगे—इन सब बातों पर विश्वास क्यों करता है? मैं एक पुस्तवा पढ़ रहा हूँ, उसके पृष्ठ पर पृष्ठ पढ़े जा रहे है और उलटे जा रहे हैं। एक पृष्ठ आया, उलट दिया गया। परिणाम किसका हो रहा है? कौन आ जा रहा है? मैं नहीं, केवल इस पुस्तक के पन्ने उलटे जारहे है। समस्त प्रकृति आत्मा के सम्मुख रक्खी एक पुस्तक के समान है। उसका एक के बाद दूसरा अध्याय पढ़ा जा रहा है, उलटा जा रहा है, और प्रति वार एक नूतन दृश्य सामने आ रहा है। पढ़ने के बाद इसे भी उलट दिया गया। फिर एक नया अध्याय सामने आया; किन्तु आत्मा जो [ ८६ ]
था वही है--अनन्तस्वरूप। परिणाम प्रकृति का हो रहा हैं आत्मा का नहीं। उसका कभी भी परिणाम नहीं होता। जन्म मृत्यु प्रकृति में है, तुममे नहीं। तथापि अज्ञ लोक भ्रान्त हो कर सोचते है, हम मर रहे हैं, जी रहे है, प्रकृति नहीं; ठीक उसी तरह जैसे हम भ्रान्तिवश समझते है कि सूर्य चल रहा है, पृथ्वी नहीं। अतः यह सब भ्रान्ति ही है, जैसे रेलगाडी पर बैठ कर भ्रमवशतः उसे चलती हुई न समझकर खेत आदि को चलायमान समझते है। जन्म और मृत्यु की भ्रान्ति भी ठीक ऐसी ही है। जब मनुष्य किसी विशेष भाव में रहता है तब वह इसे पृथ्वी, सूर्य, चन्द्र, तारा आदि के रूप मे देखता है; और जितने मनुष्य इस मनोभाव से युक्त हैं वे सब इसी रूप में देखते है। मेरे तुम्हारे वीच लाखो जीव हो सकते है जो विभिन्न प्रकृतिसम्पन्न है। वे हमे कभी न देख पायेगे और हम भी उन्हे कभी नहीं। हम एक ही प्रकार की चित्तवृत्ति सम्पन्न प्राणी को देख पाते है। जिन वाद्य-यन्त्रों में एक ही प्रकार का कम्पन है, उनमे से एक के बजने पर बाकी सब वजेगे। मान लो कि हम अब जिस प्राण-कम्पन से युक्त है, उसे हम मानव-कम्पन नाम से पुकार सकते है; यदि यह परिवर्तित हो जाय तो अब यहॉ मनुष्य दिखाई नहीं पड़ेगे; उसके बदले मे और ही अनुरूप दृश्य हमारे सामने आ जायॅगे--या तो देव जगत् और देवतादि आयेंगे अथवा दुष्ट मनुष्यों के लिये दानव और दानव जगत्; किन्तु ये सब एक ही जगत् के विभिन्न भाव मात्र हैं। यह जगत् मानव दृष्टि से पृथिवी, सूर्य, चन्द्र, तारा आदि रूप मे और दानवो की दृष्टि से देखने पर यही नरक या शास्तिस्थान के रूप मे प्रतीत होगा और जो स्वर्ग जाना चाहते है उन्हें स्वर्ग के रूप मे प्रतीत होगा। जो व्यक्ति आजीवन यह सोचता रहा कि मैं स्वर्ग मे सिंहासन
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पर बैठे हुए ईश्वर के निकट जा कर सारा जीवन उनकी उपासना करूॅगा, उसकी मृत्यु होने पर वह अपने चित्त में स्थित इसी विषय को देखेगा। यह जगत् ही उसके लिये एक बृहत् स्वर्ग मे परिणत हो जायगा; वह देखेगा कि नाना प्रकार की अप्सराये, किन्नर आदि उडते फिर रहे है और देवता लोग सिंहासनों पर बैठे है। स्वर्ग आदि समस्त ही मनुष्य कृत है। अतएव अद्वैतवादी कहते है-- द्वैतवादियों की बात तो सत्य ही है, परन्तु यह सब उनका अपना ही बनाया हुआ है। ये सब लोक, ये सब दैत्य, पुनर्जन्म आदि सभी रूपक (Mythology) है, और मानवजीवन भी ऐसा ही है। ये सब रूपक हों और मानव जीवन सत्य हो, यह नही हो सकता। मनुष्य सर्वदा यही भूल करता है। अन्यान्य वस्तुओ को--जैसे स्वर्ग नरक आदि को रूपक कहने से उसकी समझ मे आता है किन्तु अपने अस्तित्व को वह कभी भी रूपक स्वीकार करना नहीं चाहता। यह दृश्यमान जगत् सभी रूपक मात्र है और सब से बड़ा मिथ्या ज्ञान यह है कि हम शरीर है जो हम न कभी थे, न कभी हो सकते है। हम केवल मनुष्य है, यह एक भयानक असत्य है। हमी जगत् के ईश्वर है। ईश्वर की उपासना करके हमने सदा अपने अव्यक्त आत्मा की ही उपासना की है। तुम जन्म से ही दुष्ट और पापी हो यह सोचना ही सब से बड़ी मिथ्या बात है। जो स्वयं पापी है वह केवल दूसरों को पापी ही देखते है। मान लो कि एक बच्चा यहाॅ है और सोने की मोहरों की एक थैली तुम यहाॅ मेज पर रख देते हो। मान लो कि एक चोर आया और थैली ले गया। बच्चे की दृष्टि मे थैली का रखा जाना और चोरी हो जाना—दोनों ही समान हैं। उसके भीतर चोर नहीं है इसलिये वह बाहर भी चोर नही देखता। पापी और दुष्ट मनुष्य ही
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बाहर पाप देख पाता है, किन्तु साधु मनुष्य को उसका बोध नहीं होता। अत्यन्त असाधु पुरुष इस जगत् को नरक स्वरूप देखते है; मध्यम श्रेणी के लोग इसे स्वर्गस्वरूप देखते है; और जो पूर्ण सिद्ध पुरुष है वे इसे साक्षात् भगवान के रूप में ही देखते हैं। बस, तभी उनके नेत्रों का आवरण हट जाता है, और तब वे ही व्यक्ति पवित्र और शुद्ध होकर देख पाते है कि उनकी दृष्टि बिलकुल बदल गई है। जो दुःस्वप्न उन्हे लाखों वर्षों से पीड़ित कर रहे थे वे सब एकदम समाप्त हो जाते है, और जो अपने को इतने दिन मनुष्य, देवता, दानव, आदि समझ रहे थे, जो अपने को कभी ऊपर, कभी नीचे, कभी पृथ्वी पर, कभी स्वर्ग मे अथवा कभी, किसी और स्थान में स्थित समझते थे वे देख पाते है--वे वास्तव मे सर्वव्यापी है, वे काल के अधीन नहीं हैं, काल उनके अधीन है, समस्त स्वर्ग उनके भीतर है, वे स्वयं किसी स्वर्ग मे अवस्थित नहीं हैं--और मनुष्य ने किसी काल के जिस किसी देवता की उपासना की है वे सब उसके भीतर ही है, वह किसी देवता के अन्दर अवस्थित नहीं है; वह देव, असुर, मानुष, पशु, उद्भिद, प्रस्तर आदि का सृष्टिकर्ता है, और उस समय मनुष्य का स्वरूप उसके निकट इस जगत् से श्रेष्ठतर होकर, स्वर्ग से भी श्रेष्ठतर और सर्वव्यापी आकाश से भी अधिक सर्वव्यापी रूप में प्रकाशित होता है। उसी समय मनुष्य निर्भय हो जाता है, उसी समय मनुष्य मुक्त हो जाता है। उस समय सब भ्रान्ति दूर हो जाती है, सभी दुःख दूर हो जाते हैं, सभी भय एक बार में ही चिर काल के लिये समाप्त हो जाते हैं। तब जन्म न जाने कहाँ चला जाता है और उसके साथ मृत्यु भी चली जाती है; दुःख भी चला जाता है और उसके साथ
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सुख भी चला जाता है। पृथिवी उड़ जाती है और उसके साथ साथ स्वर्ग भी उड़ जाता है; शरीर चला जाता है, उसके साथ मन भी चला जाता है। उस व्यक्ति की दृष्टि मे यह समस्त जगत् ही मानों अव्यक्त भाव धारण कर लेता है। यह जो शक्तियों का निरन्तर संग्राम, निरन्तर संघर्ष है यह सब एकदम स्थगित हो जाता है, और जो शक्ति और भूत रूप में, प्रकृति की विभिन्न चेष्टाओ के रूप मे प्रकाशित हो रहा था, जो स्वयं प्रकृति रूप मे प्रकाशित हो रहा था, जो स्वर्ग, पृथिवी, उद्भिद, पशु, मनुष्य, देवता आदि के रूप मे प्रकट हो रहा था, वही समस्त एक अनन्त, अच्छेद्य, अपरि णामी सत्ता के रूप में परिणत हो जाता है; और ज्ञानी पुरुष देख पाते है कि वे उत्त सत्ता से अभिन्न है। "जिस प्रकार आकाश मे नाना वर्ण के मेघ आकर कुछ देर खेल फिर अन्तर्हित हो जाते हैं," उसी प्रकार इस आत्मा के सम्मुख पृथ्वी, स्वर्ग, चन्द्रलोक, देवता, सुख, दुःख आदि आते है; किन्तु वे उसी अनन्त, अपरिणामी, नीलवर्ण आकाश को हमारे सम्मुख छोड़कर अन्तर्हित हो जाते हैं। आकाश का कभी भी परिणाम नहीं होता, परिणाम केवल मेघ का ही होता है। भ्रम के कारण ही हम सोचते है कि हम अपवित्र है, हम सान्त है। हम जगत् से पृथक् हैं। प्रकृत मनुष्य यही एक अखण्ड सत्ता रूप है।

यहाँ पर दो प्रश्न उठते है। पहला यह है कि "क्या अद्वैत ज्ञान की उपलब्धि सम्भव है? अब तक तो सिद्धान्त की बात हुई; क्या उसकी अपरोक्षानुभूति सम्भव है?" हाॅ बिलकुल सम्भव है। ऐसे अनेक व्यक्ति संसार में इस समय भी जीवित है जिनका अज्ञान
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सदा के लिये चला गया है। तो क्या इन लोगों की, सत्य ज्ञान की प्राप्ति होने के बाद तुरन्त ही मृत्यु हो जाती है? हम जितनी जल्दी समझते हैं उतनी जल्दी नहीं। मान लो, दो पहिये जो एक लकड़ी से जुड़े हुए है साथ साथ चल रहे है। अब यदि मै एक पहिये को पकड़ कर बीच की लकड़ी को काट दूॅ तो जिस पहिये को मैंने पकड़ रखा है वह तो रुक जायगा; किन्तु दूसरा पहिया, जिसमे पहले का वेग अभी है, कुछ दूर और चल कर गिर पड़ेगा। पूर्ण शुद्ध स्वरूप आत्मा मानो एक पहिया है और शरीर मन आदि रूप भ्रान्ति दूसरा पहिया; और कर्म रूपी काष्ठ दण्ड द्वारा ये दोनो जुड़े हुए है। ज्ञान ही मानो कुठार है जो इस संयोग-दण्ड को काट देता है। जब आत्मा रूपी पहिया रुक जायगा, तब आत्मा, आ रहा है जा रहा है अथवा उसका जन्म और मृत्यु हो रहा है, इस प्रकार के सभी अज्ञान के भावो का त्याग कर देगा,और प्रकृति के साथ उसका सयुक्त भाव एवं अभाव, वासना--सब चला जायगा; तब आत्मा देख सकेगा कि वह पूर्ण है, वासना रहित है। किन्तु शरीर और मन के पहिये मे अभी प्राक्तन कर्मों का वेग रहेगा। इसलिये जब तक यह कर्मों का वेग पूरी तरह समाप्त नहीं होगा तब तक शरीर और मन रहेगे ही; यह वेग समाप्त हो जाने पर इनका भी पतन हो जायगा, तब आत्मा मुक्त होगा। तब फिर स्वर्गलोक जाना स्वर्ग से पृथिवी पर लौटना यहाँ तक कि ब्रह्मलोक जाना तक स्थागित हो जायगा; कारण वह (आत्मा) कहाॅ से आयेगा, कहाॅ जायेगा? जिन व्यक्तियो ने इस जीवन मे ही इस अवस्था को प्राप्त किया है, जिन्हे अन्ततः एक मिनट के लिये भी यह संसार का दृश्य बदल कर सत्य का आभास
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मिला है उन्हे जीवन्मुक्त के नाम से पुकारते है। यही जीवन्मुक्त अवस्था लाभ करना वेदान्ती का लक्ष्य है।

एक बार मैं पश्चिमी भारत मे हिन्दमहासागर के तटवर्ती मरु-- देश में भ्रमण कर रहा था। बहुत दिन तक निरन्तर पैदल भ्रमण करता रहा। किन्तु यह देख कर मुझे महान् आश्चर्य होता था कि चारों ओर सुन्दर सुन्दर झीलें हैं और झीलों के चारो ओर वृक्ष-लताएँ है और उनकी सुखद शीतल छाया जल मे पड़ रही है। कैसे अद्भुत दृश्य थे वे! और लोग इसे रेगिस्तान कहते है! एक मास तक वहाँ मैं घूमता रहा और प्रतिदिन ही मुझे वे सुन्दर दृश्य दिखाई दिये। एक दिन मुझे बड़ी प्यास लग रही थी और मैने सोचा कि वहाँ एक झील पर जाकर प्यास बुझा लूॅ। अतएव मै इन सुन्दर निर्मल तालाबों में से एक की ओर अग्रसर हुआ। जैसे ही मैं वहाॅ पहुँचा कि वह सब दृश्य न जाने कहाँ लुप्त हो गया। और तब मेरे मन मे यह ज्ञान हुआ कि 'जीवन भर जिस मरीचिका की बात पुस्तकों में पढ़ता रहा हूँ यह वही मरीचिका है। और उसके साथ साथ यह ज्ञान भी हुआ कि 'इस पिछले मास भर प्रतिदिन मै मरीचिका ही देखता रहा हूॅ, किन्तु मैने कभी न जाना कि यह मरीचिका है।' इसके बाद फिर दूसरे दिन मैने चलना प्रारम्भ किया। फिर वही सुन्दर दृश्य दिखने लगे, किन्तु उसके साथ साथ यह ज्ञान भी होने लगा कि यह सममुच झील नहीं है, मरीचिका है। इस जगत् के सम्बन्ध में भी यही बात है। हम प्रति दिन, प्रति मास, प्रति वर्ष इस जगत् रूपी मरुस्थल मे भ्रमण कर रहे है, किन्तु मरीचिका को मरीचिका नहीं समझ पाते हैं। एक दिन यह मरीचिका अदृश्य हो जायगी, किन्तु
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फिर आ जायगी। शरीर पूर्वकृत कर्म के अधीन रहेगा इसीलिये यह मरीचिका फिर लौट आयेगी। जब तक हम कर्म से बँधे हुए है तब तक जगत् हमारे सम्मुख आयेगा ही। नर, नारी, पशु, उद्भिद, आसक्ति, कर्तव्य--सभी कुछ आयेगा किन्तु पहले की तरह हमारे ऊपर इसकी शक्ति का प्रभाव नहीं पड़ेगा। इसी नवीन ज्ञान के प्रभाव से कर्म की शक्ति का नाश होगा, उसका विष का दाँत टूट जायगा; जगत् हमारे सम्मुख एकदम बदल जायगा; कारण, जैसे जगत् दिखाई देगा वैसे ही उसके साथ सत्य और मरीचिका के भेद का ज्ञान भी आयेगा।

उस समय यह जगत् पहले का सा जगत् नहीं रहेगा। किन्तु इस प्रकार के ज्ञान की साधना मे एक विपदाशङ्का है। हम देखते है कि प्रत्येक देश मे लोग यही वेदान्त का मत ग्रहण करके वाहते है, "मै धर्माधर्म से अतीत हूँ, मै विधि-निषेध से परे हूँ, अतः मेरी जो इच्छा होगी वही मै करूॅगा।" इसी देश में देखो,अनेक अज्ञानी कहते रहते हैं, "मैं बद्ध नही हूॅ, मे स्वय ईश्वर स्वरूप हूँ; मेरी जो इच्छा होगी वही करूॅगा।" यह ठीक नहीं है यद्यपि यह बात सच है कि आत्मा भौतिक, मानसिक और नैतिक सभी प्रकार के नियमो से अतीत है। नियम के अन्दर बन्धन हैं, नियम के बाहर मुक्ति। यह भी सच है कि मुक्ति आत्मा का जन्मगत स्वभाव है, यह उसका जन्मप्राप्त स्वत्व है और आत्मा का वास्तविक मुक्त स्वभाव भौतिक आवरण के भीतर से मनुष्य की आपातप्रतीयमान स्वतन्त्रता के रूप मे प्रतीत होता है। अपने जीवन के प्रतिक्षण में तुम अपने को मुक्त अनुभव करते हो। हम अपने को मुक्त अनुभव बिना किये एक क्षण भी जीवित नहीं रह सकते,
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बोल नहीं सकते और श्वास-प्रश्वास भी नहीं ले सकते। किन्तु फिर कुछ देर विचार करने पर यह भी प्रमाणित हो जाता है कि हम एक यन्त्र के समान है, मुक्त नहीं। तब कौन सी बात सत्य मानी जाय ? "हम मुक्त है" यह धारणा ही क्या-भ्रमात्मक है? एक पक्ष कहता है कि 'मै मुक्त स्वभाव हूॅ' यह धारणा भ्रमात्मक है, दूसरा पक्ष कहता है कि 'मै बद्धभावापन्न हूॅ' यह धारणा ही भ्रमात्मक है। तब यह दो प्रकार की अनुभूति कहाॅ से आती है? मनुष्य वास्तव मे मुक्त है; मनुष्य परमार्थतः जो है वह मुक्त के अतिरिक्त और कुछ हो ही नहीं सकता, किन्तु जैसे ही वह माया के जगत् मे आता है, जैसे ही वह नामरूप के भीतर पड़ जाता है, वैसे ही वह बद्ध हो जाता है। 'स्वाधीन इच्छा' यह कहना ही भूल है। इच्छा कभी स्वाधीन हो ही नही सकती। कैसे होगी? जो प्रकृत मनुष्य है वह जब बद्ध हो जाता है तभी उसकी इच्छा की उत्पत्तिः होती है, उससे पहले नहीं।

मनुष्य की इच्छा बद्ध है, किन्तु जो इसका मूल है वह तो सदा ही मुक्त है। अतएव बन्धन की दशा मे भी, चाहे वह मनुष्य-जीवन हो, चाहे देव-जीवन हो, चाहे स्वर्ग मे हो, चाहे पृथिवी पर, फिर भी हमारे अन्दर उस विधिप्रदत्त अधिकार स्वरूप स्वतन्त्रता या मुक्ति की स्मृति रहती ही है। और जानबूझ कर या अनजाने ही हम सब इस मुक्ति की ओर अग्रसर हो रहे है। मनुष्य जब मुक्त हो जाता है तब किस प्रकार नियम मे बद्ध रह सकता है? जगत् का कोई भी नियम उसे बाॅध नही सकता। कारण, यह विश्वब्रह्माण्ड उसीका तो है। और वह उस समय समुदय विश्वब्रह्माण्डस्वरूप ही
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है। चाहे हम कहें कि वही समुइय जगत् है, या कहें -- उसके लियें जगत् का अस्तित्व ही नहीं है। तब उसके लिये लिंग देश आदि छोटे छोटे भाव किस प्रकार सम्भव हैं? यह कैसे कहेगा -- मैं पुरुष हूँ, मैं स्त्री हूॅ, मैं बालक हूॅ? क्या यह सब मिथ्या नहीं है? उसने जान लिया है कि यह सब मिथ्या है। तब वह किस तरह कहेगा -- यह पुरुष का अधिकार है, यह स्त्री का अधिकार है? किसी का कुछ अधिकार नहीं है, किसी का स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है। पुरुष भी नहीं है, स्त्री भी नहीं है, आत्मा लिंगहीन है, निन्यशुद्ध। मैं पुरुष या स्त्री हूँ यह कहना और मैं अमुक देशवासी हूॅ यह कहना केवल मिथ्यावाद है। सभी देश मेरे हैं, समस्त जगत् मेरा है; कारण, समस्त जगत् के द्वारा मैंने मानो अपने को ढक लिया है, समस्त जगत् ही मानो मेरा शरीर हो गया है। किन्तु हम देखते हैं कि बहुत से लोग विचार करते समय ये सब बाते कह कर काम के समय सभी प्रकार के अपवित्र काम करते हैं; और यदि हम उनसे पूछे कि 'क्यों तुम ऐसा कर रहे हो' तो वे उत्तर देंगे, 'यह तुम्हारी बुद्धि का ही भ्रम है। हमारे द्वारा कोई अन्याय होना असम्भव है।' इन सब लोगों की परीक्षा करने का क्या उपाय है? उपाय यही है कि --

यद्यपि सत् और असत् दोनो एक ही आत्मा के आंशिक प्रकाश मात्र हैं तथापि असद्भाव ही आत्मा का वाह्य आवरण है, और 'सत्' भाव मनुष्य के वास्तविक स्वरूप आत्मा के अपेक्षाकृत अधिक निकट का आवरण है। जब तक मनुष्य असत् का स्तर भेद नहीं कर लेता तब तक वह सत् के स्तर पर नहीं पहुँच सकता; और जब तक वह सत् और असत् दोनों के स्तर को
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भेद नहीं करता तब तक वह आत्मा के निकट पहुँच नहीं सकता। आत्मा के निकट पहुँचने के बाद उसके लिये फिर क्या रह जाता है? अत्यन्त सामान्य कर्म, भूत जीवन के कार्य का अति सामान्य वेग ही शेष रह जाता है, किन्तु यह- वेग भी शुभ कर्मों का ही वेग है। जब तक असद्वेग एकदम समाप्त नहीं हो जाता, जब तक पहले की अपवित्रता बिलकुल दग्ध नहीं हो जाती तब तक कोई व्यक्ति सत्य का साक्षात्कार तथा प्राप्ति नहीं कर सकता। अतएव जो लोग आत्मा के निकट पहुॅच गये हैं, जिन्होंने सत्य का साक्षात्कार कर लिया है उनके केवल गत जीवन के शुभ संस्कार, शुभ वेग अवशिष्ट रह जाते है। शरीर मे वास करते हुए भी, एवं अनवरत कर्म करते हुए भी वे केवल सत्कर्म ही करते हैं; उनके मुख से सभी के प्रति केवल आशीर्वाद ही निकलता है, उनके हाथ केवल सत्कार्य ही करते हैं, उनका मन केवल सच्चिन्ता ही कर सकता है, उनकी उपस्थिति ही, चाहे वे कहीं भी जायँ सभी जगह मानवजाति के लिये महाकल्याण करनेवाली होती है। इस प्रकार के व्यक्ति के द्वारा क्या कोई बुरा कार्य सम्भव है? याद रखिये, 'प्रत्यक्षानुभूति' में और 'केवल मुख से कहने' में बड़ा अन्तर है! अज्ञानी व्यक्ति भी नाना प्रकार की ज्ञान की बातें कहते है। तोता भी इसी तरह बका करते हैं। मुॅह से कहना और बात है और अनुभव करना और बात। दर्शन, मतामत, विचार, शास्त्र, मन्दिर, सम्प्रदाय आदि कोई भी बुरा नहीं है। किन्तु प्रत्यक्षानुभूति होने पर इन सब की आवश्यकता नही रहती। नक्शा अच्छी वस्तु है, परन्तु नक्शे मे अंकित देश स्वयं देख कर आने के बाद यदि उसी नक्शे को फिर से देखो तो कितना अन्तर दिखाई पड़ेगा! अतएव जिसने सत्य को प्रत्यक्ष कर लिया है उसे फिर
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समझने के लिये न्याय-युक्ति, तर्क-वितर्क आदि का आश्रय नहीं लेना पड़ता। उसके लिये तोसत्य अन्तरात्मा के मर्म मर्म में प्रविष्ट हो गया है -- प्रत्यक्ष का भी प्रत्यक्ष हो गया है। वेदान्तियों की भाषा मे कहे तो कहेंगे कि वह उसके लिये करामलकवत् हो गया है। प्रत्यक्ष उपलब्धि करने वाले लोग निःसंकोच भाव से कह सकते हैं, 'यही आत्मा है।' तुम उनके साथ कितना ही तर्क क्यों न करो, वे तुम्हारी बात पर केवल हॅसेगे, वे उसे अण्ड बण्ड बकवास ही समझेगे। बालक चाहे कुछ भी बोले उससे वे कुछ कहते नहीं। वे तो सत्य की उपलब्धि करके भरपूर हो गये हैं। मान लो कि तुम एक देश देख कर आये हो और कोई व्यक्ति तुम्हारे पास आकर यह तर्क करने लगे कि उस देश का कहीं अस्तित्व ही नही है; इसी तरह वह व्यक्ति तर्क करता जाता है, किन्तु उसके प्रति तुम्हारा भाव यही होगा कि वह पागलखाने मे भेज देने के योग्य है। इसी प्रकार जो धर्म की प्रत्यक्ष उपलब्धि कर चुके है वे कहते है कि "जगत् मे धर्म सम्बन्धी जो बाते सुनी जाती है वे सब केवल बालको की बाते है। प्रत्यभानुभूति ही धर्म का सार है।" धर्म की उपलब्धि की जा सकती है। प्रश्न यह है कि क्या तुम इसके अधिकारी हो चुके हो? क्या तुम्हे धर्म की वास्तव में आवश्यकता है? यदि तुम ठीक ठीक चेष्टा करो तो तुम्हें प्रत्यक्ष उपलब्धि होगी, और तभी तुम वास्तव मे धार्मिक होओगे। जब तक यह उपलब्धि तुम्हे नहीं होती तब तक तुममे और नास्तिक में कोई भेद नहीं। नास्तिक तो फिर भी निष्कपट होते है, किन्तु जो कहता है कि 'मैं धर्म मे विश्वास करता हूॅ' और उसकी प्रत्यक्ष अनुभूति की चेष्टा कभी नहीं करता वह निश्चय ही निष्कपट नहीं है। [ ९७ ]इसके बाद फिर प्रश्न उठता है -- उपलब्धि के बाद क्या होता है? मान लो कि हमने जगत् का यही अखण्ड भाव (हम ही एक मात्र अनन्त पुरुष है यह भाव) उपलब्ध किया; मान लो कि हमने जान लिया कि आत्मा ही एक मात्र है और वह विभिन्न रूप से प्रकाशित हो रहा है; इस प्रकार जान लेने के बाद हमारा क्या होता है? तब क्या हम निश्चेष्ट होकर एक कोने मे बैठ कर मर जाते है? इसके द्वारा जगत् का क्या उपकार होगा? वही प्राचीन प्रश्न फिर घूम कर आता है! पहले तो इसके द्वारा जगत् का उपकार होगा ही क्यों? इसके लिये भी कोई युक्ति है? लोगों को यह प्रश्न करने का अधिकार ही क्या है कि इससे जगत् का क्या भला होगा? इसका अर्थ क्या है?--छोटे छोटे बच्चे मिठाई पसन्द करते है। मान लो कि तुम विद्युत् के विषय मे गवेषणा कर रहे हो। बच्चा तुम से पूछता है, 'इससे क्या मिठाई खरीदी जाती है?' तुमने कहा -- 'नहीं।' 'तो इससे क्या लाभ?' तत्वज्ञान की आलोचना मे व्यस्त देख कर भी लोग इसी प्रकार की जिज्ञासा करते है, 'इससे जगत् का क्या उपकार होगा? क्या इससे हमें रुपया मिलेगा? 'नहीं।तो फिर इससे क्या लाभ है?' उपकार का अर्थ लोग इतना ही समझते है। तो भी धर्म की इस प्रत्यक्ष अनुभूति से जगत् का पूर्ण उपकार होता है। लोगो को भय लगता है कि जब वे यह अवस्था प्राप्त करेगे, जब उन्हे ज्ञान होगा कि सभी एक है तब उनके प्रेम का स्रोत सूख जायगा; जीवन मे जो कुछ मूल्यवान है वह सब चला जायगा; इस जीवन में और पर जीवन मे जो कुछ भी उन्हे प्रिय है वह सब उनके लिये कुछ भी न रहेगा। किन्तु लोग यह बात एक बार सोच कर भी नहीं देखते कि जो सब व्यक्ति अपने सुख की चिन्ता की ओर से उदासीन

[ ९८ ]हो गये हैं वे ही जगत् में सर्वश्रेष्ठ कर्मी हो गये हैं। मनुष्य तभी वास्तव मे प्रेम करता है जब वह देख पाता है कि उसके प्रेम का पात्र कोई क्षुद्र मर्त्य जीव नही है। मनुष्य तभी वास्तविक प्रेम कर सकता है जब वह देख पाता है कि उसके प्रेम का पात्र एक मिट्टी का ढेला नहीं किन्तु स्वयं भगवान् है। स्त्री स्वामी से और अधिक प्रेम करेगी यदि वह समझेगी कि स्वामी साक्षात् ब्रह्मस्वरूप हैं। स्वामी भी स्त्री से अधिक प्रेम करेगा यदि वह जानेगा कि स्त्री स्वयं ब्रह्मस्वरूप है। वे मातायें भी सन्तान से अधिक स्नेह करेंगी जो सन्तान को ब्रह्म स्वरूप देखेगी। वे ही लोग अपने महान् शत्रुओं से भी प्रेमभाव रक्खेंगे जो जानेंगे कि ये शत्रु साक्षात् ब्रह्मस्वरूप है। वे ही लोग साधु व्यक्तियों से प्रेम करेंगे जो समझेंगे कि साधु व्यक्ति साक्षात्ब्र ह्मस्वरूप हैं। वे ही लोग अत्यन्त असाधु व्यक्तियों से भी प्रेम करेंगे जो यह जान लेंगे कि इन महा दुष्टों के भी पीछे वही प्रभु विद्यमान है। जिनका क्षुद्र अहंकार एकदम मर चुका है और उसके स्थान पर ईश्वर ने अधिकार जमा लिया है वे ही लोग जगत् को इशारे पर चला सकते हैं। उनके लिये समस्त जगत् दूसरा ही रूप धारण कर लेता है। दुःखकर अथवा क्लेशकर जो कुछ भी है वह सब उनकी दृष्टि में चला जाता है; सभी प्रकार का गोलमाल और द्वन्द्व मिट जाता है। उनके लिये जगत् उस समय कारागार स्वरूप न रह कर (जहाँ हम प्रति दिन एक टुकड़ा रोटी के लिये झगड़ा, मारपीट करते हैं) हमारे क्रीड़ाक्षेत्र के रूप में बदल जायगा। उस समय जगत् बड़े ही सुन्दर रूप में परिणत हो जायगा। इसी प्रकार के व्यक्ति को यह कहने का अधिकार है कि-'यह जगत् कितना सुन्दर है!' उन्हीं को यह कहने का भी अधिकार है कि सभी मंगल स्वरूप है। इस प्रकार की [ ९९ ]
प्रत्यक्ष उपलब्धि होने से जगत् का यह महान् हित होगा कि जगत् का यह सब विवाद, गोलमाल सब दूर होकर शान्ति का राज्य होगा। यदि जगत् के सभी मनुष्य आज इस महान् सत्य के एक बिन्दु की भी उपलब्धि कर सकें तो उनके लिये यह समस्त जगत्, एक दूसरा ही रूप धारण कर लेगा और यह सब गोलमाल समाप्त हो कर शान्ति का राज्य आ जायगा। यह घिनौनी तथा अमानुषिक जल्दबाज़ी, यह स्पर्धा, जो हमें अन्य सभी के आगे बढ़ निकलने के लिये बाध्य करती है, इस संसार से उठ जायगी। इसके साथ साथ सब प्रकार की अशान्ति, घृणा, ईर्ष्या एवं सभी प्रकार का अशुभ सदा के लिये चला जायगा। उस समय देवता लोग इसी जगत् मे वास करेंगे। उस समय यही जगत् स्वर्ग हो जायगा। और जब देवता देवता में खेल होगा, देवता का देवता से कार्य होगा, देवता देवता में प्रेम होगा तब क्या अशुभ ठहर सकता है? ईश्वर की प्रत्यक्ष उपलब्धि का यही एक बड़ा सुफल है। समाज मे आप जो कुछ भी देखते है वह सभी उस समय परिवर्तित होकर एक दूसरा रूप धारण कर लेगा। तब आप मनुष्य को खराब समझ कर नही देखेगे; यही प्रथम महालाभ है। उस समय आप लोग किसी अन्य अन्याय कार्य करने वाले दरिद्र नर-नारी की ओर घृणापूर्वक दृष्टिपात नहीं करेगे। हे महिलागण, फिर आप, जो दुखिया कामिनी रात भर रास्ते मे भटकती फिरती है, उसके प्रति घृणा पूर्वक दृष्टिपात न करेगी; कारण, आप वहाॅ भी साक्षात् ईश्वर को देखेगी। तब आप मे ईर्ष्या अथवा दूसरों पर शासन करने का भाव उदय नहीं होगा; यह सब चला जायगा उस समय प्रेम इतना प्रबल जायगा कि मानव जाति को सत्पथ पर चलाने के लिये फिर चाबुक की आवश्यकता नहीं रहगी। [ १०० ]यदि संसार के नरनारियों के लाखवें भाग का एक भाग भी बिल्कुल चुप रह कर एक क्षण के लिये भी कहे, -- "तुम,सभी ईश्वर, हो; हे मानवगण, हे पशुओ, हे सभी प्रकार के जीवित प्राणियो! तुम सभी एक जीवन्त ईश्वर के प्रकाश हो,"तो आधे घण्टे के अन्दर ही समस्त जगत् का परिवर्तन हो जायगा। उस समय चारों ओर घृणा का बीज न फैला कर, ईर्ष्या और असत् चिन्ता का प्रवाह न फैला कर सभी देशो के लोग सोचेगे कि सभी 'वह' है। जो कुछ तुम देख रहे हो या अनुभव कर रहे हो, वह सब वही है। तुम्हारे भीतर अशुभ न रहने पर तुम अशुभ किस तरह देखोगे? तुम्हारे भीतर ही यदि चोर नहीं है तो तुम किस प्रकार चोर को देखोगे? तुम स्वयं यदि खूनी नहीं हो तो किस प्रकार खूनी को देख सकते हो? साधु हो जाओ, तो असाधुभाव तुम्हारे अन्दर से एक दम चला जायगा। इसी प्रकार समस्त जगत् का परिवर्तन हो जायगा, यही समाज का महान् लाभ है। मनुष्य के पक्ष मे यह महान् लाभ है। इन्ही सब भावों को भारत में प्राचीन काल में अनेक महात्माओ ने आविष्कृत और कार्य रूप मे परिणत किया था। किन्तु आचार्यों की सकीर्णता तथा देश की पराधीनता आदि कारणो से यह सब चिन्ता चारो ओर प्रचार न पा सकी। ऐसा होने पर भी ये सब महान् सत्य है। जहाॅ भी इन विचारों का प्रभाव पड़ा है वही मनुष्य ने, देवत्व को प्राप्त किया है। इसी प्रकार के एक देवतास्वरूप मनुष्य के द्वारा मेरा समस्त जीवन परिवर्तित हो गया है। इस सम्बन्ध मे आगामी रविवार को मैं आप से कुछ कहूॅगा। इस समय यही सब भाव जगत् मे प्रचार करने का समय आ गया है। मठों मे आबद्ध न रह कर, केवल पण्डितो के पढ़ने के लिये दार्शनिक पुस्तक-समूह मे आबद्ध न रह
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कर, केवल कुछ सम्प्रदायों के अथवा कुछ पण्डितों के एकमात्र अधि कार मे न रह कर इसका समस्त जगत् मे प्रचार होगा जिससे यह साधु, पापी, आबालवृद्धवनिता, शिक्षित, अशिक्षित सभी की साधारण सम्पत्ति हो सके। तब ये सब भाव जगत् की वायु मे खेलेगे और हम जो वायु श्वास-प्रश्वास द्वारा ले रहे है वह प्रत्येक ताल पर बोलेगी-- 'तत्त्वमसि', यह असंख्य चन्द्र-सूर्य-पूर्ण ब्रह्माण्ड वाक्योच्चारण करने वाले प्रत्येक पदार्थ के भीतर से बोल उठेगा--'तत्त्वमसि'!




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