ज्ञानयोग/७. ब्रह्म और जगत्

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७. ब्रह्म और जगत्

अद्वैत वेदान्त के इस विषय की धारणा करना अत्यन्त कठिन है कि जो ब्रह्म अनन्त है वह सान्त अथवा ससीम किस प्रकार हुआ। यह प्रश्न मनुष्य सर्वदा करता रहेगा किन्तु जीवन भर इस प्रश्न का विचार करते रहने पर भी उसके हृदय से यह प्रश्न कभी दूर नहीं होगा—जो असीम है वह सीमित कैसे हुआ? मैं अब इसी प्रश्न को लेकर आलोचना करूँगा। इसको ठीक प्रकार से समझाने के लिये मैं नीचे दिये हुये चित्र की सहायता लूँगा।

(क) ब्रह्म

(ग)
देश
काल
निमित्त


(ख) जगत्

इस चित्र में (क) ब्रह्म है और (ख) है जगत्। ब्रह्म ही जगत् हो गया है। यहाँ पर जगत् शब्द से देश केवल जड़ जगत् ही नहीं किन्तु सूक्ष्म तथा आध्यात्मिक जगत् भी उसके साथ ग्रहण करना होगा—स्वर्ग, नरक—एक शब्द में, जो कुछ भी है जगत् शब्द से यह समस्त ही लिया जायगा। मन एक प्रकार के परिणाम का नाम है, शरीर एक दूसरे प्रकार के परिणाम का—इत्यादि, इत्यादि। यही सब कुछ लेकर जगत् है। यही ब्रह्म (क) जगत् (ख) बन गया है—देश-काल-निमित्त (ग) में से होकर आने से, यही अद्वैतवाद की मूल बात है। देश-काल-निमित्त रूपी काँच में से हम ब्रह्म को देखते हैं, और इस प्रकार नीचे की ओर से देखने से ब्रह्म हमें जगत् के रूप में दीखता है। इससे यह स्पष्ट है कि जहाँ ब्रह्म है वहाँ देश-काल-निमित्त नहीं है। काल वहाँ रह नहीं सकता, कारण [ १४२ ]कि वहाँ न मन है, न चिन्ता। देश भी वहाँ नहीं रह सकता, क्योंकि वहाँ कोई परिणाम नहीं है। गति एवं निमित्त अथवा कार्यकारण- भाव भी वहाँ नहीं रह सकता जहाँ एक मात्र सत्ता विराजमान है। यही बात समझना और अच्छी तरह धारणा बनाना हमारे लिये अत्यावश्यक है कि जिसको हम कार्यकारणभाव कहते है वह ब्रह्म के प्रपञ्च रूप में अवनत भाव को प्राप्त होने के बाद ( यदि हम इस भाषा का प्रयोग करे तो) ही होता है, उससे पहले नहीं; और हमारी इच्छा वासना आदि जो कुछ है वह सब उसके बाद आरम्भ होता है। मेरी बराबर यही धारणा रही है कि शोपेनहावर (Schopenhauer) वेदान्त के समझने में यहीं पर भ्रम में पड़ गये है कि उन्होंने इस 'इच्छा' को ही सर्वस्व मान लिया है। वे ब्रह्म के स्थान में इस 'इच्छा' को ही बैठाना चाहते है। किन्तु पूर्ण ब्रह्म का कभी भी 'इच्छा' (Will) कह कर वर्णन नहीं किया जा सकता, कारण, इच्छा जगत्प्रपञ्च के अन्तगर्त है और इसीलिये परिणामशील है, किन्तु ब्रह्म में ('ग' के अर्थात् देश-काल-निमित्त के ऊपर) किसी प्रकार की गति नहीं है, किसी प्रकार का परिणाम नहीं है। इस (ग) के नीचे ही गति है―बाह्य और आभ्यन्तर सभी प्रकार की गति का आरम्भ इसके नीचे ही है और इसी आभ्यन्तरिक गति को ही चिन्ता कहते है। अतः (ग) के ऊपर किसी प्रकार की इच्छा नहीं रह सकती, अतएव 'इच्छा' जगत् का कारण नहीं हो सकती। और भी निकट आकर देखो; हमारे शरीर की सभी गतियाँ इच्छा से प्रेरित नहीं होतीं। मैं इस कुर्सी को उठाता हूँ। यहाँ पर इच्छा अवश्य ही उठाने का कारण है। यह इच्छा ही पेशियों की शक्ति के रूप में परिणत हो गई है। यह बात ठीक है। किन्तु जो शक्ति कुर्सी उठाने का कारण है वही शक्ति [ १४३ ]हृदय में फेफड़ों को भी चला रही है किन्तु 'इच्छा' के रूप में नहीं। इन दोनों शक्तियों को एक मान लेने पर भी जिस समय यह ज्ञान की भूमि में आती है उसी समय 'इच्छा' कहलाती है, किन्तु इस भूमि में आरोहण करने के पहले इसको 'इच्छा' नाम से पुकारना भूल होगी। इसी कारण से शोपेनहावर के दर्शन में बड़ी गड़बड़ी हो गई है। इसके बजाय यदि हम 'प्रज्ञा' और 'संवित्' दो शब्दों का प्रयोग करे तो अधिक उपयुक्त होगा। ये दो शब्द मन की सभी प्रकार की अवस्थाओं के सम्बन्ध में व्यवहृत हो सकते है। प्रज्ञा और संवित् ठीक ठीक ज्ञान की अवस्था अथवा ज्ञान के पूर्व की अवस्था नहीं है, किन्तु इसे मानसिक परिणामसमूह का एक साधारण भाव कहा जा सकता है।

जो हो, इस समय हम यह विचार करेंगे कि हम कोई प्रश्न क्यों करते हैं? एक पत्थर गिरा और हमने प्रश्न किया, इसके गिरने का क्या कारण है? इस प्रश्न का औचित्य अथवा सम्भावना इस अनुमान अथवा धारणा के ऊपर निर्भर करता है कि जो कुछ होता है उसके पहले ही और कुछ हुआ है या हो चुका है। मेरा अनुरोध है कि इस धारणा को आप अपने मन में खूब स्पष्ट रखिये, कारण, जैसे ही हम प्रश्न करते हैं कि-यह घटना क्यो हुई, वैसे ही हम मान लेते है कि सभी वस्तुओं को, सभी घटनाओं का एक 'क्यों' रहता ही है। अर्थात् उसके घटने के पहले और कुछ उसका पूर्ववर्ती रहेगा ही। इसी पूर्ववर्तिता और परवर्तिता को ही निमित्त अथवा 'कार्यकारणभाव' कहते हैं। और जो कुछ हम देखते, सुनते और अनुभव करते है' सक्षेप में जगत् का सभी कुछ, एक बार कारण और एक बार कार्य बनता है। एक वस्तु अपने बाद आने वाली वस्तु का कारण बनती है [ १४४ ]और वही वस्तु अपनी पूर्ववर्ती किसी अन्य वस्तु का कार्य भी है। इसी को कार्यकारण कहते है। यही हमारा स्थिर विश्वास है। हमारा विश्वास है कि जगत् के प्रत्येक परमाणु का अन्य सभी वस्तुओं के साथ जैसा भी कुछ क्यों न हो, कोई न कोई सम्बन्ध रहता ही है। हमारी यह धारणा किस प्रकार से बन गई इस बात को लेकर बहुत वाद- विवाद हो चुके है। योरप में अनेक सहज प्राज्ञ (Intuitive) दार्शनिक है जिनका यह विश्वास है कि यह मानव जाति की स्वाभाविक धारणा है और बहुत से लोगों का विचार है कि यह धारणा अनुभवजनित है किन्तु इस प्रश्न की मीमांसा अभी तक हो नहीं पाई। वेदान्त इसकी क्या मीमांसा करता है यह हम बाद में देखेंगे। अतएव पहले तो हमे यह समझना है कि 'क्यों' का प्रश्न इस धारणा के ऊपर निर्भर रहता है कि इसके पूर्व कुछ हो चुका है और इसके बाद भी कुछ होगा। इसी प्रश्न में एक अन्य विश्वास भी अन्तर्निहित रहता है कि जगत् का कोई भी पदार्थ स्वतंत्र नहीं है, सभी पदार्थों के ऊपर उनके बाहर स्थित अन्य कोई पदार्थ भी कार्य कर सकता है। जगत् के सभी पदार्थ इसी प्रकार परस्पर सापेक्ष है―एक दूसरे के आधीन हैं—कोई भी स्वतंत्र नहीं है। जब हम कहते है कि "ब्रह्म के ऊपर किस शक्ति ने कार्य किया?" तब हम यह भूल करते है कि हम ब्रह्म को जगत् के अन्तर्गत किसी वस्तु के समान मान बैठते है। यह प्रश्न करते ही हमे यह अनुमान करना पड़ेगा कि वह ब्रह्म भी किसी अन्य वस्तु के आधीन है―यह निरपेक्ष ब्रह्मसचा भी किसी अन्य वस्तु के द्वारा बद्ध है। अर्थात् ब्रह्म, अथवा 'निरपेक्ष सत्ता' शब्द को हम जगत् के समान समझते है। ऊपर बताई हुई रेखा के ऊपर तो देश-काल-निमित्त है ही नहीं; कारण, वह एकमेवाद्वितीयम्―मन के अतीत वस्तु [ १४५ ]है। जो केवल अपने अस्तित्व में स्वयं ही प्रकाशित है, जो एक मात्र, एकमेवाद्वितीयम् है उसका कोई कारण हो ही नहीं सकता। जो मुक्तस्वभाव है, स्वतंत्र है उसका कोई कारण नहीं हो सकता, क्योकि, ऐसा होने पर वह मुक्त नहीं रहेगा, बद्ध हो जायगा। जिसके- भीतर आपेक्षिकता है वह कभी मुक्तस्वभाव नहीं हो सकता। अतएव अब आपने देख लिया कि अनन्त सान्त कैसे हुआ, यह प्रश्न ही भ्रमात्मक और स्वविरोधी है।

यह सब सूक्ष्म विचार छोड़ कर सीधे सादे भाव से भी हम इस विषय को समझा सकते है। मान लो, हमने समझ लिया कि ब्रह्म किस प्रकार जगत् हो गया, अनन्त किस प्रकार सान्त हो गया, तब क्या ब्रह्म ब्रह्म ही रह गया, और क्या अनन्त अनन्त ही रह गया? ऐसा होने पर अनन्त सान्त ही हो गया। साधारण रूप से हम ज्ञान किसे कहते है? जो कोई विषय हमारे मन के विषयीभत हो जाता है अर्थात् मन के द्वारा सीमाबद्ध हो जाता है वही हम जान सकते है, और जब वह हमारे मन के बाहर रहता है अर्थात् मन का विषय नहीं रहता तब हम उसे नहीं जान सकते। अब यह स्पष्ट हो गया कि यदि यही अनन्त ब्रह्म मन के द्वारा सीमाबद्ध हो गया तो फिर अब वह अनन्त नहीं रहा, वह सान्त हो गया। मन के द्वारा जो कुछ भी सीमाबद्ध है वह सभी ससीम है। अतएव, उसी 'ब्रह्म को जानना' यह बात भी स्वविरोधी ही है। इसीलिये इस प्रश्न का उत्तर अब तक नहीं मिला; कारण, यदि उत्तर मिल जाय तो वह असीम नहीं रहेगा; ईश्वर 'ज्ञात' हो जाय तो उसका ईश्वरत्व नहीं रह सकता―वह हमारे ही समान एक व्यक्ति हो जायगा―इस कुर्सी के समान एक [ १४६ ]वस्तु बन जायगा। उसको जाना नहीं जा सकता, वह सर्वदा ही अज्ञेय है। किन्तु तब भी अद्वैतवादी कहते हैं कि वह केवल 'ज्ञेय' ही नहीं, उससे भी विशिष्ट और कुछ है। अब हमें इस बात को समझना होगा। आपको यह नहीं समझना चाहिये कि अज्ञेयवादियों के ईश्वर के समान वह अज्ञेय है। दृष्टान्त स्वरूप देखो—सामने यह कुर्सी है, उसे मैं जानता हूँ―वह मेरा ज्ञात पदार्थ है। और आकाश के बाहर क्या है, वहाँ कुछ लोगो की बस्ती है कि नहीं, यह बात शायद बिल्कुल ही अज्ञेय है। किन्तु ईश्वर इन दोनों पदार्थों की भाँति ज्ञेय भी नहीं है और अज्ञेय भी नहीं। किन्तु ईश्वर जिसे हम 'ज्ञात' कहते हैं उससे और भी कुछ अधिक ज्ञात है―ईश्वर को अज्ञात वा अज्ञेय कहने से यही समझा जाता है, किन्तु जिस अर्थ में कुछ लोग कुछ प्रश्नों को अज्ञात या अज्ञेय कहते हैं उस अर्थ में नहीं। ईश्वर ज्ञात से भी अधिक और कुछ है। यह कुर्सी हमारे लिये ज्ञात है, किन्तु हमारे लिये ईश्वर इससे भी अधिक ज्ञात है, कारण, पहले उसे जान कर―उसी के भीतर से―हमे कुर्सी का ज्ञान प्राप्त करना होता है, क्योंकि वह साक्षी स्वरूप है, सभी ज्ञान का वह अनन्त साक्षी स्वरूप है। हम जो कुछ भी जानते है, पहले उसे जान कर―उसी के भीतर से―जानते है। वहीं हमारी आत्मा का सार सत्ता स्वरूप है। वही वास्तविक 'अहं' है―वही 'अहं' हमारे इस 'अहं' का सार सत्ता स्वरूप है। हम उस 'अहं' के भीतर से जाने बिना कुछ भी नहीं जान सकते, अतएव सभी कुछ हमे ब्रह्म के भीतर से ही जानना पड़ेगा। अतएव इस कुर्सी को जानना होगा तो उसे ब्रह्म के भीतर से ही जानना होगा। अतएवं ब्रह्म कुर्सी की अपेक्षा हमारे अधिक निकट हुआ, किन्तु फिर भी वह हमारे निकट [ १४७ ]होने से बहुत ऊँचे पर रह गया। ज्ञात भी नहीं, अज्ञात भी नहीं किन्तु दोनों की अपेक्षा अनन्त गुना ऊँचा। वह तुम्हारा आत्म- स्वरूप है। कौन इस जगत में एक क्षण भी जीवन धारण कर सकता, कौन इस जगत में एक क्षण को भी श्वास-प्रश्वास के कार्य का निर्वाह कर पाता यदि वह आनन्दस्वरूप इसके प्रति-परमाणु में विराजमान न रहता? कारण, उसी की शक्ति से हम श्वास-प्रश्वास का कार्य निर्वाहित करते हैं और उसी के अस्तिव से हमारा भी अस्तित्व है। वह कोई एक विशेष स्थान पर बैठकर हमारा रक्त- सञ्चालन कर रहा है ऐसी बात नहीं है। तात्पर्य यही है कि वही समुदय जगत का सत्तास्वरूप है, वह हमारी आत्मा की भी आत्मा है; आप किसी प्रकार भी यह नहीं कह सकते कि आप उसे जानते हैं― इससे उसको बहुत नीचे गिराना हो जाता है। आप हठात् अपने भीतर से बाहर नहीं आसकते, अतएव आप उसे जान भी नहीं सकते। ज्ञान शब्द से 'विषयीकरण' (Objectification)―वस्तु को बाहर लाकर विषय की भाँति (ज्ञेय वस्तु की भाँति) प्रत्यक्ष करना समझा जाता है। उदाहरण स्वरूप देखिये, स्मरण करने में आप बहुतसी वस्तुओं को 'विषयीकृत' करते हैं—मानो आप अपने ही स्वरूप को बाहर प्रक्षेप करते हैं! सभी प्रकार की स्मृति—जो कुछ मैंने देखा है और जो कुछ मैं जानता हूँ, सभी मेरे मन में अवस्थित है। इन सभी वस्तुओं की छाप या चित्र मेरे भीतर मौजूद है। जब मैं उनके विषय में सोचने की इच्छा करता हूँ, उनको जानना चाहता हूँ तो पहले इन सब को मानो बाहर प्रक्षेप करना पड़ता है। ईश्वर के सम्बन्ध में ऐसा करना असम्भव है, कारण वह हमारी आत्मा का आत्मा स्वरूप है, हम उसे बाहर प्रक्षेप नहीं कर पाते। छान्दोग्य उपनिषद में कहा [ १४८ ]है―'स य एपोऽणिमैतदात्म्यमिदं सर्वं तत् सत्यं स आत्मा तत्वमसि श्वेतकेतो,' जिसका अर्थ है, 'वही सूक्ष्म स्वरूप जगत का कारण सकल वस्तुओं का आत्मा, वही सत्य स्वरूप है, हे श्वेतकेतो, तुम वही हो।' यही 'तत्वमसि' वाक्य वेदान्त में सब से अधिक पवित्र वाक्य―महावाक्य―कहलाता है और इस पूर्वोक्त वाक्यांश के द्वारा 'तत्वमसि' का वास्तविक अर्थ क्या है यह भी स्पष्ट हो गया। 'तुम्ही वह हो' इसके अतिरिक्त ईश्वर की और किसी भाषा द्वारा आप वर्णन नहीं कर सकते। भगवान को पिता, माता, भाई या प्रिय मित्र कहने से उसको 'विषयीकृत' करना पड़ता है―उसको बाहर लाकर देखना पड़ता है―जो कभी हो ही नहीं सकता। वह तो सभी विषयों का अनन्त विषयी है। जिस प्रकार मैं जब इस कुर्सी को देखता हूँ तो मैं कुर्सी का द्रष्टा हूँ―मैं उसका विषयी हूँ, उसी प्रकार ईश्वर मेरी आत्मा का नित्य द्रष्टा है—नित्य ज्ञाता है―नित्य विषयी है। किस प्रकार आप उसको―अपनी आत्मा के अन्तरात्मा को―सब वस्तुओं की सार सत्ता को 'विषयीकृत' करेगे, बाहर लाकर देखेगे? इसीलिये मैं आप से फिर कहता हूँ कि ईश्वर ज्ञेय भी नहीं है, अज्ञेय भी नहीं है, वह ज्ञेय और अज्ञेय दोनों से अत्यन्त ऊँचा है―वह हमारे साथ अभिन्न है, ओर जो हमारे साथ एक है वह हमारे लिये ज्ञेय अथवा अज्ञेय कुछ नहीं हो सकता, जैसे तुम्हारी आत्मा या मेरी आत्मा ज्ञेय अथवा अज्ञेय कुछ नहीं है। आप अपनी आत्मा को नहीं जान सकते, आप उसे हिला डुला नहीं सकते, न उसे 'विषय' करके दृष्टिगोचर कर सकते हैं, कारण, आप स्वयं वही हैं, आप अपने को उससे पृथक नहीं कर सकते। आप उसको अज्ञेय भी नहीं कह सकते, क्योंकि अज्ञेय कहते ही प्रथम उसे विषय बनाना पड़ेगा―और यह हो नहीं सकता। आप [ १४९ ]अपने निकट स्वयं जितने परिचित या ज्ञात है उससे अधिक कौन सी वस्तु आपको ज्ञात है? वास्तव में वह हमारे ज्ञान का केन्द्ररूप है। ठीक इसी प्रकार कहा जा सकता है कि ईश्वर ज्ञात भी नहीं है, अज्ञात भी नहीं, वह इन दोनो की अपेक्षा अनन्त गुना ऊँचा है, कारण, वही हमारी आत्मा का अन्तरात्मा स्वरूप है।

अतएव हमने देखा कि पहले तो यह प्रश्न ही स्वविरोधी है कि पूर्णब्रह्मसत्ता से जगत किस प्रकार उत्पन्न हुआ और दूसरे, हम यह भी देखते हैं कि अद्वैतवाद में ईश्वर की धारणा यही एकत्व है―अतः हम उसको विषयीकृत नहीं कर सकते, कारण, जान बूझकर या अनजाने, हम सदा ही उसी में जीवित और उसी में रहकर समस्त कार्यकलाप करते है। हम जो कुछ भी करते हैं सब उसके भीतर से ही करते हैं। अब प्रश्न यह है कि देश-काल-निमित्त क्या है? अद्वैतवाद का मर्म तो यही है कि एक ही वस्तु है, दो नहीं। किन्तु फिर हम कहते है कि वही अनन्त ब्रह्म देश-काल-निमित्त के आवरण के द्वारा नाना रूप में प्रकाशित हो रहा है। अतः अब यह मालूम होता है कि दो वस्तुये है, एक तो वह अनन्त ब्रह्म और दूसरी देश-काल-निमित्त की समष्टि अर्थात् माया। आपाततः दो वस्तुये हैं, यही स्थिर सिद्धान्त मालूम होता है। अद्वैतवादी इसका उत्तर देते है कि वास्तव में इस प्रकार दो नहीं हो सकते। यदि दो वस्तुयें मानेगे तो ब्रह्म की भाँति―जिसके ऊपर कोई निमित्त कार्य नहीं कर सकता―दो स्वतन्त्र सत्ताये माननी पड़ेगी। प्रथम तो काल, देश और निमित्त ये तीनों ही स्वतन्त्र सत्ता नहीं हो सकतीं, काल तो बिलकुल ही स्वतन्त्र सत्ता नहीं है; हमारे मन के प्रत्येक [ १५० ]परिवर्तन के साथ उसका परिवर्तन होता है। कभी कभी हम स्वप्न में देखते है कि हम कई वर्ष निरन्तर जी रहे है, और कभी कभी ऐसा बोध होता है कि कई मास एक ही क्षण में गुज़र गये है।

अतएव हमने देखा कि काल आपके मन की अवस्था के ऊपर पूर्ण रूप से निर्भर रहता है। दूसरे, काल का ज्ञान कभी कभी बिलकुल ही नहीं रहता, और फिर आ जाता है। देश के सम्बन्ध में भी यही बात है। हम देश का स्वरूप नहीं जान सकते। तथापि, उसका निर्दिष्ट लक्षण करना असम्भव होने पर भी वह है―इस बात को अस्वीकार करने का कोई उपाय नहीं है—वह अन्य किसी पदार्थ से पृथक हो कर रह नहीं सकता। निमित्त अथवा कार्य-कारण भाव के सम्बन्ध में भी यही बात है। इन देश, काल और निमित्त में हम यही एक विशेषता देखते है कि ये अन्यान्य वस्तुओं से पृथक होकर नहीं रह सकते। आप शुद्ध 'देश' की कल्पना कीजिये कि जिसमे न कोई रंग है, न सीमा, चारों ओर रहने वाली किसी भी वस्तु से जिसका कोई संसर्ग नहीं है। आप इसकी कल्पना कर ही नहीं सकते। आपको देश सम्बन्धी विचार करते ही दो सीमाओ के बीच अथवा तीन वस्तुओं के बीच स्थित देश की चिन्ता करनी होगी। अतः हमने देखा कि देश का अस्तित्व अन्य किसी वस्तु के ऊपर निर्भर रहता है। काल के सम्बन्ध में भी यही बात है। शुद्ध काल के सम्बन्ध में आप कोई धारणा नहीं कर सकते। काल की धारणा करने पर आपको एक पूर्ववर्ती और एक परवर्ती घटना लेनी पड़ेगी और काल की धारणा के द्वारा उन दोनों को मिलाना होगा। जिस प्रकार देश बाहर रहने वाली दो वस्तुओं पर निर्भर रहता है इसी प्रकार [ १५१ ]काल भी दो घटनाओं पर निर्भर रहता है। और 'निमित्त' अथवा 'कार्यकारण भाव' की धारणा इन देश और काल के ऊपर निर्भर रहती है। 'देश-काल-निमित्त' इन सब के भीतर विशेषत्व यही है कि इनकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। इस कुर्सी अथवा उस दीवार का जैसा अस्तित्व है उनका वैसा भी नहीं है। वे जैसे-सभी वस्तुओं के पीछे लगी हुई छाया के समान है, आप किसी प्रकार भी उन्हें पकड़ नहीं सकते। उनकी तो कोई सत्ता नहीं है―हम देख चुके है कि उनका वास्तविक अस्तित्व ही नहीं है—अधिक से अधिक वे छाया के समान है। और, वे कुछ भी नहीं है यह भी नहीं कहा जा सकता; कारण, उन्हीं के द्वारा जगत् का प्रकाश हो रहा है―ये तीनो मानो स्वभावतः ही मिल कर नाना रूपों की उत्पत्ति कर रहे है। अतएव पहले हमने देखा कि इन देश-काल- निमित्त की समष्टि का अस्तित्व भी नहीं है और वे बिलकुल असत् (अस्तित्व शून्य) भी नहीं है। दूसरे, ये कभी कभी बिलकुल ही अन्तर्हित हो जाते है। उदाहरण स्वरूप समुद्र की तरंगों को लीजिये। तंरग अवश्य ही समुद्र के साथ अभिन्न है तथापि हम उसको तरंग कड़कर समुद्र से पृथक रूप में जानते हैं। इस विभिन्नता का कारण क्या है—नाम रूप। नाम अर्थात् उस वस्तु के सम्बन्ध में हमारे मन में जो एक धारणा रहती है; और रूप अर्थात् आकार। फिर क्या तरंग को समुद्र से बिलकुल पृथक रूप में हम सोच सकते है? कभी नहीं। वह सदा ही इसी समुद्र की धारणा के ऊपर निर्भर रहती है। यदि यह तंरग चली जाय, तो रूप भी अन्तर्हित हो गया, किन्तु यह रूप बिलकुल ही भ्रमात्मक था, यह बात नहीं। जब तक यह तरंग थी तब तक यह रूप था और आप को बाध्य होकर यह [ १५२ ]रूप देखना पड़ता था―यही माया है। अतएव यह समुदय जगत् उसी ब्रह्म का एक विशेष रूप है। ब्रह्म ही वह समुद्र है और तुम और मैं, सूर्य, तारे सभी उस समुद्र में विभिन्न तरंग मात्र है। तरंगों को समुद्र से पृथक कौन करता है? वही रूप; और वह रूप है केवल देश-काल-निमित्त। ये देश-काल-निमित्त भी सम्पूर्ण रूप से इन तरंगो के ऊपर निर्भर रहते है। तरंगें जैसे ही चली जाती है वैसे ही ये भी अन्तर्हित हो जाते हैं। जीवात्मा ज्योंही इस माया का परित्याग कर देता है उसी समय उसके लिये वह, अन्तर्हित हो जाती है और वह मुक्त हो जाता है। हमारी सभी चेष्टाये इन देश-काल-निमित्त के अतीत होने के लिये होनी चाहिये। वे सदा ही हमारी उन्नति के मार्ग में बाधा डाल रहे हैं और हम सदा ही उनका ग्रास बनने से अपने को बचा रहे हैं। विद्वान लोग क्रमविकासवाद (Theory of Evolution) किसको कहते हैं? इसके भीतर दो बाते है। एक तो यह कि एक प्रबल अन्तर्निहित गूढ़ शक्ति अपने को प्रकाशित करने की चेष्टा कर रही है और बाहर की अनेक घटनाये उसमे बाधा पहुँचाती है―आस पास की परिस्थितियाँ उसको प्रकाशित नहीं होने दे रही हैं । अतः इन परिस्थितियाँ से युद्ध करने के लिये यह शक्ति नये नये शरीर धारण कर रही है। एक क्षुद्रतम कीटाणु उन्नत होने की चेष्टा में एक और शरीर धारण करता है एवं कितनी ही बाधाओं को पराजित करके रहता है, और इसी प्रकार भिन्न भिन्न शरीर धारण करते हुय अन्त में मनुष्य रूप में परिणत हो जाता है। अब यदि इसी तत्व को उसके स्वाभाविक चरम सिद्धान्त पर ले जाया जाय तो यह अवश्य स्वीकार करना पड़ेगा कि ऐसा समय आयेगा जब [ १५३ ]कि जो शक्ति कीटाणु के भीतर क्रीड़ा कर रही थी और जो अन्त में मनुष्य के रूप में परिणत हो गई वह सभी बाधाओ को अति- क्रमण करेगी, बाहर की घटनाये उसको फिर बाधा नहीं पहुँचा पायेगी। इसी बात को दार्शनिक भाषा में इस प्रकार कहना होगा― प्रत्येक कार्य के दो अंश होते हैं; एक विषयी, दूसरा विषय। एक व्यक्ति ने मेरा तिरस्कार किया, मैंने अपने को दुःखी अनुभव किया― यहाँ भी ये ही दो बाते है, और हमारे सारे जीवन की चेष्टा क्या है? यही न कि अपने मन को इतनी दूर तक सरल कर लेना कि जिससे बाहर की परिस्थितियों पर हम अपना आधिपत्य कर सके, अर्थात् उनके द्वारा हमारा तिरस्कार होने पर भी हम किसी कष्ट का अनुभव न करें। इसी प्रकार हम प्रकृति को पराजित करने की चेष्टा कर रहे है। नीति का अर्थ क्या है? 'अपने' को दृढ़ करना―उसे क्रमशः सभी प्रकार की परिस्थितियों को सहन कराना, जैसे आपका विज्ञान कहता है कि कुछ समय के बाद मनुष्य-शरीर सभी अवस्थाओ को सहन करने में समर्थ होगा, और यदि विज्ञान की यह बात सत्य हो तो हमारे दर्शन का यही सिद्धान्त (अर्थात् एक ऐसा समय आयेगा जब हम सभी परिस्थितियों के ऊपर विजय प्राप्त कर सकेगे) आकाटय युक्ति पर स्थापित हो गया, यही कहना पड़ेगा; कारण, प्रकृति सीमित है।

यह बात भी अब समझनी होगी कि प्रकृति ससीम है। 'प्रकृति ससीम है,' कैसे जाना? दर्शन के द्वारा यह जाना जाता है कि प्रकृति उस अनन्त का ही सीमावद्ध भाव मात्र है। अतएव वह सीमित है। अतएव एक समय ऐसा आयेगा जब हम बाहर की परि[ १५४ ]स्थितियों पर विजय प्राप्त कर सकेगे। उनको पराजित करने का उपाय क्या है? वास्तव में तो हम बाहर के विषयों में परिवर्तन उत्पन्न करके उनके ऊपर विजय प्राप्त कर नहीं पाते। छोटी सी मछली जल में रहने वाले अपने शत्रुओं से अपनी रक्षा करना चाहती है। किस प्रकार वह इस कार्य को करती है? आकाश में उड़ कर, पक्षी बन कर। मछली ने जल अथवा वायु में कोई परिवर्तन नहीं किया―जो कुछ भी परिवर्तन हुआ वह उसके अपने अन्दर ही हुआ। परिवर्तन सदा 'अपने' अन्दर ही होता है। इसी प्रकार हम देखते है कि समस्त क्रमविकास में परिवर्तन 'अपने' अन्दर ही होते होते, प्रकृति पर विजय प्राप्त हो रही है। इसी तत्व का धर्म और नीति में प्रयोग करो तो देखोगे कि यहाँ भी 'अशुभजय' 'अपने' भीतर परिवर्तन के द्वारा ही साधित हो रही है। सभी कुछ 'अपने' ऊपर निर्भर रहता है। यह 'अपने' के ऊपर ज़ोर डालना ही अद्वैतवाद की वास्तविक दृढ़ भूमि है। 'अशुभ, दुःख' यह सब बात कहना ही भूल है, कारण, बहिर्जगत् में इनका कोई अस्तित्व नहीं है। क्रोध के कारणों के बार बार होने पर भी इन सब घटनाओं में स्थिर भाव से रहने का यदि हमे अभ्यास होजाय, तो हमारे अन्दर क्रोध का उद्रेक कभी नहीं होगा। इसी प्रकार लोग मुझसे चाहे कितनी ही घृणा करे, यदि मैं उसका अपने ऊपर प्रभाव नहीं लेता, तो मेरा भी उनके प्रति घृणाभाव उत्पन्न नहीं होगा। इसी प्रकार 'अशुभजय' करना पड़ता है-'अपनी' उन्नति का साधन करके। अतएव आप देखते है कि अद्वैतवाद ही एकमात्र ऐसा धर्म है जो आधुनिक वैज्ञानिकों के सिद्धान्तों के साथ भौतिक और आध्यात्मिक दोनों ही दिशाओं में मिल जाता है, इतना ही [ १५५ ]नहीं वरन् इन सभी सिद्धान्तो से भी उच्चतर सिद्धान्तो को स्थापित करता है और इसी कारण से यह आधुनिक वैज्ञानिको को बहुत भाता है। वे देखते है कि प्राचीन द्वैतवादी धर्म उनके लिये पर्याप्त नहीं है, उनसे उनकी ज्ञान की भूख नहीं मिटती। किन्तु इस अद्वैतवाद में उनके ज्ञान की भूख मिटती है। केवल दृढ़ विश्वास रहने से ही मनुष्य का काम नहीं चलेगा, ऐसा विश्वास होना चाहिये जिससे उसकी ज्ञानवृद्धि चरितार्थ हो। यदि मनुष्य से जो कुछ वह देखे उसी पर विश्वास करने को कहा जाय तो वह शीघ्र ही पागलखाने में चला जायगा। एक बार एक महिला ने मेरे पास एक पुस्तक भेजी―उसमे लिखा था, सभी बातों पर विश्वास करना उचित है। उसमे यह भी लिखा था कि मनुष्य की आत्मा अथवा इस प्रकार की अन्य किसी वस्तु का अस्तित्व ही नहीं है। किन्तु स्वर्ग में देव-देवियाँ हैं और एक प्रकाश का सूत्र हममे से प्रत्येक के मस्तक के साथ स्वर्ग का संयोग कर रहा है। लेखिका को इन सब बातो का पता कैसे लगा? उन्होने प्रत्यादिष्ट होकर इन सब तत्वो को जाना था और उन्होने मुझसे भी इनपर विश्वास करने को कहा था। जब मैंने उनकी इन सब बातो पर विश्वास करना अस्वीकार कर दिया तब उन्होने कहा―"तुम अवश्य ही बड़े दुराचारी हो― तुम्हारे लिये अब कोई आशा नहीं है।" जो भी हो, इस उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम भाग में भी हमारे बाप-दादा से आया हुआ धर्म ही एक मात्र सत्य है, अन्य जिस किसी स्थान में जिस-किसी भी धर्म का प्रचार हो रहा है वह अवश्य ही मिथ्या है―इस प्रकार की धारणा अनेक स्थानो में है। इससे प्रमाणित होता है कि हमारे भीतर अभी भी अनेक दुर्बलताये है―ये दुर्बलताये दूर करनी होंगी। [ १५६ ]मैं यह नहीं कहता कि यह दुर्बलता केवल इसी देश में (इंग्लैण्ड में) है-यह सभी देशों में है और जैसी मेरे देश में है वैसी तो कहीं भी नहीं है―और यह बहुत ही भयानक रूप में है। इसीलिये अद्वैतवाद का प्रचार साधारण लोगों में कभी होने नहीं दिया गया। संन्यासी लोग अरण्य (वन) में इसकी साधना करते थे, इसी कारण वेदान्त का एक नाम 'आरण्यक' भी था। अन्त में भगवान की कृपा से बुद्ध देव ने आकर सर्व साधारण लोगों के बीच इसका प्रचार किया, उस समय समस्त जाति बौद्ध धर्म से जाग उठी। बहुत समय के बाद जब नास्तिकों ने समस्त जाति को ध्वंस करने की फिर चेष्टा की तब ज्ञानियों ने समझा कि भारत की नास्तिकता के अन्धकार को दूर करने के लिये एक मात्र उपाय यही धर्म है। दो बार इसने नास्तिकता से भारत की रक्षा की है। पहले, बुद्धदेव के आने से पूर्व नास्तिकता अति प्रबल हो उठी थी―योरोप अमेरिका के विद्वानो में आजकल जैसी नास्तिकता है वैसी नहीं; वह इससे भी भयङ्कर नास्तिकता थी। मैं एक प्रकार का नास्तिक हूँ, कारण मेरा विश्वास है कि केवल पदार्थ का ही अस्तित्व है। आधुनिक वैज्ञानिक नास्तिक भी यही कहते हैं, किन्तु वे उसे 'जड़' नाम से पुकारते हैं और मैं उसे 'ब्रह्म' कहता हूँ। ये 'जड़वादी' नास्तिक कहते है, इसी 'जड़' से ही मनुष्य की आशा, भरोसा, धर्म सभी कुछ हैं। मैं कहता हूँ, 'ब्रह्म' से ही सब कुछ हुआ है। मैं इस प्रकार की नास्तिकता की बात नहीं कह रहा हूँ, मैं चार्वाकों के मत की बात कह रहा हूँ―खाओ, पिओ, मौज उड़ाओ; ईश्वर, आत्मा या स्वर्ग कुछ भी नहीं है, धर्म कुछ धूर्त दुष्ट पुरोहितो की कल्पना मात्र है―यावज्जीवेत् सुखं जीवेत् ऋण कृत्वा घृतं पिबेत्।' इस प्रकार की नास्तिकता बुद्धदेव [ १५७ ]के आविर्भाव के पूर्व इतनी बढ़ गई थी कि उसका एक नाम हो गया 'लोकायत दर्शन'। इस प्रकार की अवस्था में बुद्धदेव ने आकर साधारण लोगों में वेदान्त का प्रचार करके भारतवर्ष की रक्षा की। बुद्धदेव के तिरोधान के ठीक एक हजार वर्ष पश्चात् फिर इसी प्रकार की बात हुई। चण्डाल भी बौद्ध होने लगे। नानाविध विभिन्न जातियाँ बौद्ध होने लगी। अनेक लोग अति नीच जाति के होते हुये भी बौद्ध धर्म ग्रहण करके बड़े सदाचारी बन गये। किन्तु इनमे नाना प्रकार के कुसंस्कार थे―नाना प्रकार के टोने टोटके, मंत्र तंत्र और भूत-देवताओं में विश्वास था। बौद्ध धर्म के प्रभाव से ये बातें कुछ दिनो तक अवश्य दबी रही। किन्तु वे फिर प्रकट हो पड़ी। अन्त में भारतवर्ष के बौद्ध धर्म में नाना प्रकार के विषयों की खिचड़ी हो गई। उस समय फिर से नास्तिकता के बादलों से भारत का आकाश ढक गया―अच्छे परिवार के लोग स्वेच्छाचारी और साधारण लोग कुसंस्कारी हो गये। ऐसे समय में शंकराचार्य ने उठ कर फिर से वेदान्त की ज्योति को जगाया। उन्होने उसका एक युक्ति- संगत विचारपूर्ण दर्शन के रूप में प्रचार किया। उपनिषदों में विचार- भाग बड़ा ही अस्फुट है। बुद्धदेव ने उपनिषदों के नीति-भाग के ऊपर खूब ज़ोर दिया था, शंकराचार्य ने उनके ज्ञान-भाग के ऊपर अधिक ज़ोर दिया। उनके द्वारा उपनिषदों के सिद्धान्त युक्ति और विचार के द्वारा प्रमाणित और प्रणालीबद्ध रूप में लोगों के समक्ष स्यापित हुए है। योरोप में भी आजकल ठीक वही अवस्या उपस्थित है। इन नास्तिकों की मुक्ति के लिये―वे जिससे विश्वास करे इसके―लिये आप सारे संसार को इकट्ठा करके प्रार्थना करे किन्तु वे विश्वास नहीं करेगे; वे युक्ति चाहते [ १५८ ]हैं। अतः योरोप की मुक्ति इस समय इसी विचार द्वारा पवित्र हुये धर्म अद्वैतवाद के ऊपर निर्भर है; और एक मात्र यही अद्वैतवाद, यह निर्गुण ब्रह्म का भाव ही विद्वानों के ऊपर प्रभाव डाल सकता है। जब कभी धर्म लुप्त होने का उपक्रम होता है और अधर्म का अभ्युत्यान होता है तभी इसका आविर्भाव होता है। इसीलिये योरोप और अमेरिका में प्रवेश प्राप्त कर यह दृढ़मूल होता जा रहा है।

इसमे केवल एक बात और जोड़ देनी होगी। प्राचीन उप- निषद बड़े उच्च कवित्व से पूर्ण हैं। उपनिषदों के वक्ता ऋषि लोग महाकवि थे। आपको अवश्य ही याद होगा कि प्लेटो ने कहा है― कवित्व के द्वारा भी जगत् में अलौकिक सत्य का प्रकाश होता है। मानों कवित्व द्वारा उच्चतम सत्यों को जगत् को देने के लिये विधाता ने साधारण मनुष्यो से बहुत ऊँची पदवी पर आरूढ़ कवियों के रूप में उपनिषदों के ऋपियों की सृष्टि की थी। वे प्रचार भी नहीं करते थे अथवा दार्शनिक विचार भी नहीं करते थे और लिखते भी नहीं थे। उनके हृदय के झरने से संगीत का फुहारा बहता था। उसके बाद बुद्धदेव में हम देखते है―हृदय अनन्त सहनशक्ति वाला―उन्होंने धर्म को सर्व साधारणोपयोगी बना कर प्रचार किया। असाधारण धीशक्तिसम्पन्न शंकराचार्य ने उसको ज्ञान के प्रखर आलोक में प्रकाशित किया। हमको अब चाहिये कि इस प्रखर ज्ञान-सूर्य के साथ बुद्धदेव के इस अद्भुत हृदय―इस अद्भुत प्रेम और दया को, सम्मि- लित करें। अत्यन्त ऊँचे दार्शनिक भाव भी इसमे रहें, यह विचारपूत हो और साथ ही साथ इसमे उच्च हृदय, प्रबल प्रेम और [ १५९ ]दया का योग रहे। तभी मणि और काञ्चन का योग होगा, तभी विज्ञान और धर्म एक दूसरे को सहयोग देगे। यही भविष्य में धर्म होगा और यदि हम इसको ठीक ठीक ले सकें तो यह निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि यह सभी काल और अवस्थाओं के लिये उपयोगी होगा। यदि आप घर जाकर स्थिर भाव से विचार करें तो देखगे कि सभी विज्ञानों में कुछ न कुछ त्रुटि है। किन्तु ऐसा होने पर भी यह निश्चय जानिये कि आधुनिक विज्ञान को इसी एक मार्ग पर आना पड़ेगा―पड़ेगा क्यों―वह तो अभी भी इस ओर आ रहा है। जब कोई बड़ा वैज्ञानिक कहता है कि सभी कुछ उस एक शक्ति का विकास है तब क्या आपके मन में नहीं आता कि उस समय वे उपनिषदो में वर्णित उसी ब्रह्म की महिमा का कीर्तन करते हैं?

अग्निययैको भुवनं प्रविष्टो रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव।
एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा रूपं रूपं प्रतिरूपो बहिश्च॥

कठोपनिषद, २९

"जिस प्रकार एक ही अग्नि जगत में प्रविष्ट हो कर नाना रूपों में प्रकट होती है उसी प्रकार वह सब जीवों का अन्तरात्मा एक ब्रह्म नाना रूपो में प्रकाशित हो रहा है और वह जगत के बाहर भी है।" विज्ञान किस ओर जा रहा है, क्या आप नहीं समझ रहे है? हिन्दू जाति मनस्तत्व की आलोचना करते करते दर्शन के द्वारा आगे बढ़ी थी। योरोपीय जातियाँ बाह्य प्रकृति की आलोचना करते करते अग्रसर हुईं। अब दोनों एक स्थान पर पहुँच रहे हैं। मनस्तत्व के भीतर होकर हम उसी एक अनन्त सार्वभौमिक सत्ता में पहुँच रहे है― [ १६० ]जो सब वस्तुओं की अन्तरात्मा स्वरूप है, जो सब का सार और सभी वस्तुओं का सत्यस्वरूप है, जो नित्यमुक्त, नित्यानंद और नित्यसत्ता स्वरूप है। बाह्य विज्ञान के द्वारा भी हम उसी एक तत्त्व पर पहुँचते है। यह समस्त जगत्प्रपञ्च उसी एक का विकास है—वह जगत् में जो कुछ भी है उस सब का समष्टि स्वरूप है। और समग्र मानवजाति मुक्ति की ओर अग्रसर हो रही है, बन्धन की ओर वह कभी जा ही नहीं सकती। मनुष्य नीतिपरायण क्यों हो? क्योंकि नीति ही मुक्ति का और दुर्नीति बन्धन का मार्ग है।

अद्वैतवाद का एक और विशेषत्व यह है कि अद्वैत सिद्धान्त अपने आरम्भ काल से ही अन्य धर्मों या मतों को तोड़ फोड़ कर फेंक देने की चेष्टा नहीं करता। अद्वैतवाद का एक और महत्व यह है कि यह प्रचार करना महान् साहस का कार्य है कि―

न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसंगिनाम्।
जोषयेत् सर्वकर्माणि विद्वान् युक्तः समाचरन्॥

गीता, ३ । २६

"ज्ञानी लोगों को अज्ञ अतएव कर्म में आसक्त व्यक्तियों में बुद्धिभेद उत्पन्न नहीं करना चाहिये, विद्वान व्यक्ति को स्वयं युक्त रह कर उन लोगों को सब प्रकार के कर्मों में नियुक्त करना चाहिये।"

अद्वैतवाद यही कहता है―किसी की बुद्धि को विचलित मत करो, किन्तु सभी को उच्च से उच्चतर मार्ग पर जाने में सहायता करो। अद्वैतवाद जिस ईश्वर का प्रचार करता है वह समस्त जगत [ १६१ ]का समष्टि स्वरूप है; यदि यह मत सत्य है तो यह अवश्य ही सब मतों को अपने विशाल उदर में ग्रहण कर लेगा। यदि ऐसा कोई सार्वजनीन धर्म है जिसका लक्ष्य सबको ग्रहण करना हो, तो उसका केवल कुछ लोगों के ग्रहण करने योग्य ईश्वर का एक विशेष भाव से प्रचार करने से काम नहीं चलेगा, उसमें सब भावों की समष्टिं होना आवश्यक है। अन्य किसी मत में यह समष्टि का भाव उतना परिस्फुटित नहीं है, फिर भी वे सभी उसी समष्टि की प्राप्ति की चेष्टा कर रहे है। विशेष विशेष भावो का अस्तित्व केवल इसीलिये है कि वे सर्वदा ही समष्टि बनने की चेष्टा करते रहते है। इसीलिये अद्वैतवाद के साथ भारतवर्ष के किसी भी सम्प्रदाय का पहले से ही कोई विरोध नहीं था। भारत में आजकल भी अनेक द्वैतवादी है, जिनकी संख्या भी अत्यधिक है। इसका कारण है, अशिक्षित लोगों के मन में स्वभावतः द्वैतवाद का उदय होता है। द्वैतवादी कहते है कि यही जगत् की एक बिलकुल स्वाभाविक व्याख्या है, किन्तु इन द्वैतवादियो के साथ अद्वैतवादियो का कोई विवाद नहीं है। द्वैतवादी कहते है, "ईश्वर जगत् के बाहर है, वह स्वर्ग के बीच एक विशेष स्थान में रहता है।" अद्वैतवादी कहते है, "जगत् का ईश्वर उसका अपना ही अन्तरात्मा-स्वरूप है, उसको दूरवर्ती कहना ही नास्तिकता है। उसको स्वर्ग में अथवा अन्य किसी दूरवर्ती प्रदेश में अवस्थित किस प्रकार कहते हो? उससे पृथक होने का भाव मन में लाना भी भयानक है! वह तो अन्यान्य सब वस्तुओं से हमारे अधिक निकट है। 'तुम्ही वह हो'―इस एकत्व सूचक वाक्य को छोड़ किसी भी भाषा में ऐसा कोई शब्द नहीं है जिसके द्वारा उसकी निकटता प्रकट की जा सके। जिस प्रकार द्वैतवादी अद्वैतवादियों की बातो से डरते है और उसे

११ [ १६२ ]नास्तिकता कहते है, अद्वैतवादी भी उसी प्रकार द्वैतवादियों की बातों से डरते और कहते है कि मनुष्य किस प्रकार उसको (ईश्वर को) अपनी ज्ञेय वस्तु समझने का साहस करता है? ऐसा होने पर भी वे जानते है कि धर्मजगत् में द्वैतवाद का स्थान कहाँ पर है―वे जानत है कि द्वैतवादी अपने दृष्टिकोण से ठीक ही बात कहते हैं, अतः उनसे उनका कोई विवाद नहीं। जब तक वे समष्टिभाव से न देख कर व्यष्टि भाव से देखते है तब तक उन्हे अवश्य ही 'अनेक' देखना पड़ेगा। व्यष्टि भाव की ओर से देखने पर उन्हे अवश्य ही भगवान को बाहर देखना पड़ेगा—ऐसा न हो, यह हो ही नहीं सकता। वे कहते हैं—'हमे अपने मत में ही रहने दो।' फिर भी अद्वैतवादी जानेत है कि द्वैतवादियों के मत में चाहे कितनी ही असम्पूर्णता क्यों न हो, वे सभी उसी एक लक्ष्य की ओर जा रहे है। इसी स्थान पर उनका द्वैतवादियों के साथ पूरा मतभेद है। संसार के सभी द्वैतवादी स्वभावतः ही एक ऐसे सगुण ईश्वर में विश्वास करते है जो एक उच्च शक्तिसम्पन्न मनुष्यमात्र है, और जिस प्रकार मनुष्य के कुछ प्रिय पात्र होते हैं, तथा कुछ अप्रिय पात्र, उसी प्रकार द्वैतवादियो के ईश्वर के भी होते है। वह बिना किसी कारण के ही किसी से तो सन्तुष्ट है, किसी से विरक्त। आप देखेंगे कि सभी जातियों में ऐसे लोग कितने ही है जो कहते हैं―'हम ईश्वर के अन्तरंग प्रिय पात्र है और कोई नहीं; यदि अनुतप्त हृदय से हमारी शरण में आओ तभी हमारा ईश्वर तुम पर कृपा करेगा।' और कितने ही द्वैतवादी ऐसे हैं, जिनका मत और भी भयानक है। वे कहते है―"ईश्वर जिनके प्रति दयालु है, जो उसके अन्तरंग हैं, वे पहले से ही ईश्वर द्वारा 'निर्दिष्ट' है―और कोई यदि माथा फोड़ कर भी मर जाय तो भी इस अन्तरग [ १६३ ]
दल के बीच प्रवेश नहीं पा सकता।" आप मुझे ऐसा कोई भी द्वैतवादात्मक धर्म बता दीजिये जिसके भीतर यह संकीर्णता नहीं है। इसी कारण से ये सब धर्म सदा ही परस्पर युद्ध करते रहेंगे और करते रहे है। और ये द्वैतवादी धर्म सदा ही लोकप्रिय होते हैं, क्योकि अशिक्षितों के भाव सदा ही लोकप्रिय होते है। द्वैतवादी समझते है कि एक दण्डधारी ईश्वर के बिना किसी प्रकार की नीति ठहर ही नही सकती। मानलो एक छकड़ा गाड़ी का घोड़ा व्याख्यान देना प्रारम्भ करता है। वह कहेगा--" लन्दन के लोग बड़े खराव हैं; कारण वे हमें नित्यप्रति कोडे नहीं मारते।" वह स्वयं चाबुक खाने मे अभ्यस्त हो गया है। इससे अधिक वह और क्या समझ सकता है? किन्तु वास्तव मे चाबुक की मार से लोग और भी खराब हो जाते है। गहरी चिन्ता करने में असमर्थ लोग सभी देशो में द्वैतवादी हो जाते है। बेचारे गरीबों पर सढा ही अत्याचार होता रहा है। अतः उनकी मुक्ति की धारणा केवल इस दण्ड से मुक्ति पाना है। दूसरी ओर हम यह भी जानते है कि सभी देशो के चिन्ताशील महापुरुषों ने इसी निर्गुण ब्रह्मभाव को लेकर ही कार्य किया है। इसी भाव से भरकर ईसामसीह ने कहा है--'मै और मेरा पिता एक है।' इसी प्रकार का व्यक्ति लाखो व्यक्तियो मे शक्तिसञ्चार करने में समर्थ होता है। यही शक्ति सहस्रों वर्ष तक मनुष्यो के प्राणों मे शुभ परित्राण देने वाली शक्ति का संचार करती है। और हम यह भी जानते हैं कि ये महापुरुष अद्वैतवादी थे, इसीलिये दूसरों के प्रति दयाशील थे। उन्होने साधारण लोगो को 'हमारा स्वर्गस्थ पिता' की शिक्षा दी थी। साधारण लोग जो सगुण ईश्वर से उच्चतर अन्य किसी भाव को धारण नहीं कर सकते थे उन्होंने उनको अपने स्वर्ग मे रहने वाले पिता से
[ १६४ ]प्रार्थना करना सिखाया। किन्तु यह भी कहा कि 'जब समय आयेगा तो तुम देखोगे कि मैं तुम्हीं में हूँ, और तुम मुझमें हो, जिससे तुम सभी उस पिता के साथ एक हो सकोगेजिस प्रकार मैं और मेरे पिता अभिन्न है।' बुद्धठेव देवता, ईश्वर आदि को विशेष नहीं मानते थे। साधारण लोग उनको नास्तिक कहते थे किन्तु वे एक साधारण बकरी के लिये प्राण तक देने को प्रस्तुत थे। उन्ही बुद्धदेव ने, जो नीति मनुष्य-जाति के लिये सर्वोच्च ग्रहणीय हो सकती है, उसका प्रचार किया था। जहाँ कहीं भी आप किसी प्रकार का नीति-विधान पायेंगे, वहीं देखेंगे कि उनका प्रभाव, उनका प्रकाश जगमगा रहा है। जगत् के इन सब उच्चहृदय व्यक्तियों को आप किसी सङ्कीर्ण दायरे में बाँध कर नहीं रख सकते, विशेषतः आज, जब कि मनुष्य जाति के इतिहास में एक ऐसा समय आ गया है और सब प्रकार के ज्ञान की ऐसी उन्नति हुई है जिसकी सौ वर्ष पूर्व स्वप्न में भी कल्पना न थी, यहाँ तक कि पचास वर्ष पूर्व जो किसीने स्वप्न में भी नहीं सोचा था, ऐसे सभी प्रकार के वैज्ञानिक ज्ञान का स्रोत वह चला है। ऐसे समय में क्या लोगो को अब भी इस प्रकार के सङ्कीर्ण भावो में आबद्ध करके रखा जा सकता है? हाँ, लोग यदि बिलकुल ही पशुतुल्य चिन्ताहीन जड़ पदार्थ के समान हो जायँ तो यह सम्भव है। इस समय आवश्य- कता है उच्चतम ज्ञान के साथ उच्चतम हृदय, अनन्त ज्ञान के साथ अनन्त प्रेम का योग करने की। अतएव वेदान्ती कहते है, उस अनन्त सत्ता के साथ एकीभूत होना ही एक मात्र धर्म है, और वे भगवान को केवल इतना ही बतलाते है―अनन्त सत्ता, अनन्त ज्ञान, अनन्त आनन्दः और वे कहते हैं कि ये तीनों एक है। ज्ञान और आनन्द के बिना सत्ता कभी रह ही नहीं सकती। हमे यही सम्मेलन [ १६५ ]चाहिये―इस अनन्त सत्ता, ज्ञान और आनन्द की चरम उन्नति― एकदेशीय उन्नति नहीं। हमे चाहिये सभी बातो की समान उन्नति। बुद्धदेव के समान महान् हृदय के साथ महान् ज्ञान का योग होना सम्भव है। मैं आशा करता हूँ, हम सभी उस एक लक्ष्य पर पहुँचने की प्राणपण से चेष्टा करेंगे।







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यह कार्य भारत में सार्वजनिक डोमेन है क्योंकि यह भारत में निर्मित हुआ है और इसकी कॉपीराइट की अवधि समाप्त हो चुकी है। भारत के कॉपीराइट अधिनियम, 1957 के अनुसार लेखक की मृत्यु के पश्चात् के वर्ष (अर्थात् वर्ष 2024 के अनुसार, 1 जनवरी 1964 से पूर्व के) से गणना करके साठ वर्ष पूर्ण होने पर सभी दस्तावेज सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आ जाते हैं।


यह कार्य संयुक्त राज्य अमेरिका में भी सार्वजनिक डोमेन में है क्योंकि यह भारत में 1996 में सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आया था और संयुक्त राज्य अमेरिका में इसका कोई कॉपीराइट पंजीकरण नहीं है (यह भारत के वर्ष 1928 में बर्न समझौते में शामिल होने और 17 यूएससी 104ए की महत्त्वपूर्ण तिथि जनवरी 1, 1996 का संयुक्त प्रभाव है।