ज्ञानयोग/६. माया और मुक्ति
६. माया और मुक्ति
कवि कहते हैं कि "हम जिस समय जगत् में प्रवेश करते हैं उस समय अपने पीछे मानों एक हिरण्मय मेघजाल लेकर प्रवेश करते है।" किन्तु यदि सच पूछो तो हम में से सभी इस प्रकार महिमामण्डित होकर संसार में प्रवेश नहीं करते, हममें से बहुत से तो कुज्झटिका (कुहरे) की कालिमा अपने पीछे लेकर जगत् में प्रवेश करते हैं, इसमें कोई सन्देह नहीं। हम लोग, हममें से सभी मानों युद्ध करने के लिये युद्धक्षेत्र में प्रेरित कर दिये गये है। रोते रोते हमे इस जगत् में प्रवेश करना होगा―यथासाध्य चेष्टा करके अपना मार्ग बनाना होगा―इस अनन्त जीवन-समुंद्र में पीछे की ओर कोई चिन्ह तक न छोड़कर मार्ग बनाना होगा―सम्मुख की ओर हम अग्रसर हो रहे है, पीछे अनन्त युग पड़े है, और सामने भी अनन्त युग पड़े हैं। इसी प्रकार हम चलते रहते है और अन्त में मृत्यु आकर हमें इस क्षेत्र से अपसारित कर देती है―विजयी अथवा पराजित कुछ भी निश्चित नहीं है; यही माया है।
बालक के हृदय की आशा बलवती होती है। बालकों के विस्फारित नयनों के समक्ष समस्त जगत् मानों, एक सुनहले चित्र के समान मालूम पड़ता है, वह समझता है कि मेरी जो इच्छा होगी वही होगा। किन्तु जैसे ही वह आगे बढ़ता है वैसे ही प्रत्येक पद पर प्रकृति बज्रदृढ़ प्राचीर के रूप में उसका गतिरोध करके खड़ी हो जाती है। बारम्बार उस प्राचीर को भंग करने के उद्देश्य से वह वेग के साथ उसके ऊपर टक्कर मार सकता है। सारे जीवन भर जितना वह अग्रसर होता जाता है उतना ही उसका आदर्श उससे दूर होता चला जाता है―अन्त में मृत्यु आ जाती है और सारा खेल समाप्त हो जाता है; यही माया है।
वैज्ञानिक उठे, महाज्ञान की पिपासा लिये। उनके लिये ऐसा कुछ भी नहीं है जिसका वे त्याग न कर सकते हों, कोई किसी प्रकार भी उन्हे निरुत्साह नहीं कर सकता। वे धीरे धीरे आगे बढ़ते हुये प्रकृति के एक के बाद एक गुप्त तत्वो का आविष्कार करते है ―प्रकृति के अन्तस्तल में से आभ्यन्तरीण गूढ़ रहस्यो का उद्घाटन करते हैं―किन्तु इसका उद्देश्य क्या है? इस सब के करने का क्या उद्देश्य है? हम इन वैज्ञानिकों का गौरव क्यों करे? उन्हे कीर्ति क्यो मिले? क्या प्रकृति मनुष्य जितना जान सकता है उससे अनन्त गुना अधिक नहीं जान सकती? ऐसा होने पर भी क्या वह जड़ नहीं है? जड़ का अनुकरण करने में कौन सा गौरव है? बज्र चाहे कितना ही विद्युत्शक्तिशाली क्यो न हो, प्रकृति उसे चाहे जितनी दूर उठाकर फेक सकती है। यदि कोई मनुष्य उसका शतांश भी कर सकता है तो हम उसे उठाकर आकाश में पहुँचा देते है! परन्तु यह सब किस लिये? प्रकृति के अनुकरण के लिये, मृत्यु के, जड़त्व के, अचेतन के अनुकरण के लिये हम उसकी प्रशंसा क्यों करे?
मध्याकर्षण शक्ति भारी से भारी पदार्थ को क्षण भर में खण्ड खण्ड कर फेक सकती है, फिर भी वह एक जड़ शक्ति है। जड़ के अनुकरण से क्या लाभ है? तथापि हम सारे जीवन भर केवल इसी के लिये चेष्टा करते रहते हैं; यही माया है।
इन्द्रियाँ मनुष्य की आत्मा को बाहर खींच लाती है। मनुष्य उन स्थानो में सुख और आनन्द की खोज कर रहा है जहाँ वह उन्हे कभी भी नहीं पा सकता। युगो से हम यह सीखते आ रहे है कि यह निरर्थक और व्यर्थ है; यहाँ हमे सुख नहीं मिल सकता, परन्तु हम सीख नहीं सकते! अपने अनुभव के अतिरिक्त और किसी उपाय से हम सीख नहीं सकते। हम प्रयत्न करते है; हमे धक्का लगता है, फिर भी क्या हम सीखते है? नहीं, फिर भी नहीं सीखते। पतग जैसे दीपक की लौ पर जलते है उसी प्रकार हम इन्द्रियो में सुख की प्राप्ति की आशा से अपने को बार बार झोकते है। हम फिर लौटते हैं, ताजगी लेकर; इसी प्रकार चलता रहता है और अन्त में असमर्थ होकर, धोखा खाकर हम मर जाते है; और यही माया है।
यही बात हमारी बुद्धि के सम्बन्ध में भी है। हमजगत् के रहस्य की मीमासा करने की चेष्टा करते है―हम इस जिज्ञासा, इस अनुसन्धान की प्रवृत्ति को बन्द नहीं रख सकते; किन्तु हम लोगो को यह जान लेना चाहिये कि ज्ञान प्राप्तव्य वस्तु नहीं है―कुछ पद अग्रसर होते ही अनादि अनन्त काल का प्राचीर बीच में व्यवधान के रूप में आ खड़ा होता है जिसे हम लाँघ नहीं सकते। कुछ दूर बढ़ कर अनादि देश का व्यवधान आकर खड़ा हो जाता है जिसे अतिक्रमण नहीं कर सकते; सभी कुछ अनतिक्रमणीय हो कर हम हम कार्यकारण रूपी दीवार की सीमा से बद्ध है। हम इसे लाँघ कर आगे नहीं जा सकते। तो भी हम चेष्टा करते रहते है। चेष्टा हमे करनी ही पड़ेगी; यही माया है।
प्रत्येक साँस में, हृदय की प्रत्येक धड़कन में, अपनी प्रत्येक गति में हम समझते है कि हम स्वतन्त्र हैं, और उसी क्षण हम देखते है कि हम स्वतन्त्र नहीं है। क्रीत दास―हम प्रकृति के क्रीत दास है―शरीर, मन तथा सभी चिन्ताओ एवं सभी भावो में हम प्रकृति के क्रीत दास है; यही माया है।
ऐसी एक भी माता नहीं है जो अपनी सन्तान को अद्भुत शिशु―महापुरुष नहीं समझती है। वह उसी बालक को लेकर पागल हो जाती है, उसी बालक के ऊपर उसके प्राण पड़े रहते है। बालक बड़ा हुआ―शायद बिलकुल शराबी और पशुतुल्य हो गया―जननी के प्रति बुरा व्यवहार तक करने लगा। जितना ही उसका दुर्व्यवहार बढ़ता है उतना ही जननी का प्रेम भी बढ़ता है। लोग इसे जननी का निःस्वार्थ प्रेम कह कर खूब प्रशंसा करते है―उनके मन में प्रश्न भी नहीं उठता कि वह माता जन्म भर के लिये केवल एक क्रीत दासी के समान है―यह प्रेम किये बिना रह ही नहीं सकती। हजारो बार उसकी इच्छा होती है कि वह इस मोह का त्याग कर देगी, किन्तु वह कर ही नहीं सकती। अतः वह इसे सुन्दर पुष्पों से सजा कर उसी को अद्भुत प्रेम कह कर व्याख्या करती है; यही माया है।
हम सब का यही हाल है। नारद ने एक दिन श्रीकृष्ण से पूछा, "प्रभो, आपकी माया कैसी है, मैं देखना चाहता हूँ।" कई दिन के बाद श्रीकृष्ण नारद को लेकर एक जंगल में गये। बहुत दूर जाने के बाद श्रीकृष्ण नारद से बोले―"नारद, मुझे बड़ी प्यास लगी है। क्या कहीं से थोड़ा जल लाकर पिला सकते हो?" नारद बोले― "प्रभो, कुछ देर ठहरिये, मैं अभी जल लेकर आता हूँ।" यह कह कर नारद चले गये। कुछ दूर पर एक गाँव था, नारद वहीं जल की खोज करने लगे। एक मकान के द्वार पर पहुँच कर उन्होंने खटखटाया। द्वार खुला और एक परम सुन्दरी कन्या उनके सम्मुख आकर खड़ी हुई। उसे देखते ही नारद सब कुछ भूल गये। भगवान उनकी प्रतीक्षा कर रहे होगे, वे प्यासे होगे, हो सकता है प्यास से उनका प्राणवियोग भी हो जाय―ये सभी बाते नारद भूल गये। सब कुछ भूल कर वे उसी कन्या के साथ बातचीत करने लगे, धीरे धीरे एक दूसरे के प्रति प्रणयभाव उत्पन्न होने लगा। तब फिर नारद उस कन्या के पिता के पास जाकर उसके साथ विवाह करने के लिये प्रार्थना करने लगे—विवाह भी हो गया और वे उसी गाँव में रहने लगे― धीरे धीरे उनके सन्तति भी होने लगी। इसी तरह रहते रहते बारह वर्ष बीत गये। नारद के ससुर भी मर गये और उनकी सम्पत्ति के नारद उत्तराधिकारी हो गये और पुत्र कलत्र, भूमि, पशु, सम्पत्ति, गृह आदि को लेकर नारद खूब स्वच्छन्दता पूर्वक सुख से रहने लगे। अन्त में उन्हे यह बोध होने लगा कि वे खूब सुखी है। इसी समय उस देश में बाढ़ आई। एक दिन रात के समय नदी दोनों तटों को तोड़कर बहने लगी और सम्पूर्ण गाँव डूब गया। मकान सब गिरने लगे; मनुष्य, पशु, पक्षी, सब बह बह कर डूबने लगे, नदी की धार में सभी कुछ बहने लगा। नारद को भी भागना पड़ा। एक हाथ से उन्होंने स्त्री को पकड़ा, दूसरे हाथ से दो बच्चों को, और एक बालक को कन्धे पर बिठा कर उस भयङ्कर नदी को पार करने की चेष्टा करने लगे। कुछ दूर जाने के बाद ही लहरों का वेग बढ़ने लगा। कन्धे पर बैठे हुये शिशु की नारद किसी प्रकार रक्षा न कर सके; वह गिर कर तरंगो में वह गया। निराशा और दुख से नारद चीत्कार कर उठे। उसकी रक्षा करने को जाते ही और एक बालक, जिसका हाथ वे पकड़े हुये थे, हाथ से छूट डूब कर मर गया। अपनी पत्नी को वे अपने शरीर की समस्त शक्ति लगा कर पकड़े हुये थे, अन्त में तरंगो के वेग से पत्नी भी उनके हाथ से छूट गई और वे स्वयं तट पर गिर कर मिट्टी मे लोटपोट होने लगे और बड़े कातर स्वर में विलाप करने लगे। इसी समय मानो किसी ने उनकी पीठ पर कोमल हाथ रख कर कहा―"वत्स, कहाँ, जल कहाँ है? तुम जल लेने गये थे, मैं तुम्हारी प्रतीक्षा में हूँ। तुम्हें गये हुये आधा घण्टा हुआ।" आध घण्टा! नारद के लिये तो बारह वर्ष बीत चुके थे! और आध घण्टे के भीतर ही ये सब दृश्य उनके मन के अन्दर से निकल गये―यही माया है! किसी न किसी रूप में हम सब इसी माया के भीतर रहते है। यह बात समझना बड़ा कठिन है―विषय भी बड़ा जटिल है। इसका क्या तात्पर्य है? तात्पर्य यही है कि―यह बात बड़ी भयानक है―सभी देशों में महापुरुषो ने इसी तत्व का प्रचार किया है, सभी देशो के लोगों ने यही शिक्षा प्राप्त की है, किन्तु बहुत कम लोगों ने इस पर विश्वास किया है, उसका कारण यही है कि स्वयं बिना भोगे हुये, बिना ठोकर खाये हुये हम इस पर विश्वास नहीं कर सकते। सच पूछिये तो सभी बृथा है, सभी मिथ्या है।
सर्व-संहारक काल आकर सब को ग्रास कर लेता है, कुछ भी नहीं छोड़ता। वह पाप को खा जाता है, पापी को भी खा जाता है, वह राजा को, प्रजा को, सुन्दर को, कुत्सित को―सभी को खा डालता है, किसी को भी नहीं छोड़ता। सभी कुछ उस चरम गति―विनाश की ओर अग्रसर हो रहा है। हमारा ज्ञान, शिल्प विज्ञान― सभी कुछ उसी एक अनिवार्य गति मृत्यु की ओर अग्रसर हो रहा है। कोई भी इस तरंग की गति को नहीं रोक सकता, कोई भी इस विनाशाभिमुखी गति को एक क्षण के लिये भी रोक कर रख नहीं सकता। हम उसे भूले रहने की चेष्टा कर सकते है, जैसे किसी देश में महामारी फैलने पर शराब, नाच, गान आदि व्यर्थ की चेष्टाये करके लोग सब कुछ भूलने की चेष्टा करते हुये लकवा मारे हुये मनुष्य की भाँति गतिशक्तिरहित हो जाते है। हम लोग भी इसी प्रकार इस मृत्यु की चिन्ता को भूलने की अति कठोर चेष्टा कर रहे है―सभी प्रकार के इन्द्रियसुखों के द्वारा उसे भूलने की चेष्टा कर रहे है किन्तु इससे उसकी निवृत्ति नहीं होती।
लोगों के सामने दो मार्ग है। इनमे से एक सभी जानते है― वह यह है―"जगत् में दुःख है, कष्ट है, सब सत्य है किन्तु इस सम्बन्ध में बिल्कुल सोचना नहीं चाहिये। 'यावज्जीवेत्सुखं जीवेत् ऋणं कृत्वा घृत पिबेत्।' दुःख अवश्य है किन्तु उधर नज़र मत डालो। जो थोड़ा बहुत सुख मिले उसे भोग कर लो, इस संसार-चित्र के अन्धकारमय अश को मत देखो―केवल प्रकाशमय अंश, की ओर देखो।" इस प्रकार के विचारों में कुछ सत्य तो अवश्य है किन्तु इस में भयानक विपत्ति की आशंका भी है। इसमें सत्य इतना ही है कि यह हमे कार्य में प्रवृत्त रखता है। आशा एवं इसी प्रकार का एक प्रत्यक्ष आदर्श हमे कार्य में प्रवृत्त और उत्साहित करता है अवश्य, किन्तु इसमे यह एक विपत्ति है कि अन्त में हताश होकर सब चेष्टाये छोड़ देनी पड़ती है। जो लोग कहते है―"संसार को जैसा देखते हो वैसा ही ग्रहण करो; जितनी दूर तक स्वच्छन्द रह सकते हो, रहो 'समस्त दुःख, कष्ट आने पर भी सन्तुष्ट रहो; आघात होन पर भी कहो कि यह आघात नहीं; पुष्पवृष्टि है; दास के समान परिचालित होने पर भी कहो―'मैं मुक्त हूँ, स्वाधीन हूँ' दूसरों के तथा अपनी आत्मा के सम्मुख दिन रात मिथ्या बोलो, क्योंकि संसार में रहने का, जीवित रहने का यही एक मात्र उपाय है,"―ऐसे लोग बाध्य होकर ही अन्त में ऐसा करते है। इसी को पक्का सांसारिक ज्ञान कहते है और इस उन्नीसवीं शताब्दी में यह ज्ञान जितना साधारण है उतना साधारण कभी भी नहीं था, इसका कारण यही है कि लोग इस समय जो चोटे खा रहे है ऐसी चोटें उन्होने पहले कभी नहीं खाई थीं, प्रतिद्वन्दिता भी इतनी तीव्र पहले कभी नहीं थी; इस समय मनुष्य अपने दूसरे भाइयों के प्रति जितना निष्ठुर है उतना पहले कभी नहीं था, और इसीलिये आज कल यह सान्वना दी जाती है। आज कल यह उपदेश ही अधिकतर दिया जाता है, किन्तु इस उपदेश से अब कोई फल नहीं होता; कभी भी नहीं होता। गले हुये शव को फूलो से ढक कर कब तक रखा जा सकता है। असम्भव कंब तक चल सकता है? एक दिन ये सब फूल उड़ जायेंगे, तब यह शव पहले से भी अधिक वीभत्स रूप में दिखेगा। हमारा समस्त जीवन ही ऐसा है। हम अपने पुराने सड़े घाव को स्वर्ण के वस्त्र से ढक देने की चेष्टा कर सकते हैं किन्तु एक दिन आयेगा जब वह स्वर्णवस्त्र खिसक पड़ेगा और वह घाव अत्यन्त वीभत्स रूप में हमारे सम्मुख प्रकाशित होगा। तब क्या कोई आशा नहीं है? यह बात सत्य है कि हम सभी माया के दास हैं, हम सभी माया के अन्दर ही जन्म लेते हैं और माया में ही हम जीवित रहते हैं।
तब क्या कोई उपाय नहीं है, कोई आशा नहीं है? यह वात कि हम सब अतीव दुर्दशा में पड़े है, यह जगत् वास्तव में एक कारागार है, हमारी पूर्वप्राप्त महिमा की छटा भी एक कारागार है, हमारी बुद्धि और मन भी एक कारागार के समान है, ये सब बातें सैंकडो युगो से लोगो को मालूम है। मनुष्य चाहे जो कुछ कहें, ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं है जो किसी न किसी समय इस बात को हृदय से अनुभव न करता हो। बुड्ढे लोग इसको और भी तीव्रता के साथ अनुभव करते है, क्योकि उनकी जीवन भर की सञ्चित अभि- ज्ञता रहती है, प्रकृति की मिथ्या भाषा उन्हें अधिक ठग नहीं सकती। इस बन्धन को तोड़ने का क्या उपाय है? क्या इसे तोड़ने का कोई उपाय नहीं है? हम देखते हैं कि यह भयंकर व्यापार, यह बन्धन हमारे सामने, पीछे, चारों ओर रहने पर भी इसी दुःख और काष्ट के बीच, इसी जगत् में जहाँ जीवन और मृत्यु का एक ही अर्थ है, यहाँ भी एक महावाणी सभी युगों में, सभी देशो में, सभी व्यक्तियो के हृदय के भीतर से मानो उठ रही है―
"दैवी ह्येपा गुणमयी मम माया दुरत्यया।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते॥"
"मेरी ग्रह देवी त्रिगुणमयी माया बड़ी मुश्किल से पार की जाती है। जो मेरी शरण में आते है वे इस माया के पार हो जाते हैं।" "हे परिश्रान्त, भाराक्रान्त मनुष्यों, आओ, मैं तुम्हें आश्रय दूँगा।" यह वाणी ही हम सब को बराबर अग्रसर कर रही है। मनुष्य इस वाणी को सुनता है, अनन्त युगों से सुनता आ रहा है। जिस समय मनुष्य को लगता है कि उसका सब कुछ चला जा रहा है, जब उसकी आशा टूटने लगती है, जब अपने बल में उसका विश्वास नष्ट होने लगता है, जब सभी मानो उसकी अँगुलियों में से खिसककर भागने लगता है और जीवन केवल एक भग्नस्तूप में परिणत हो जाता है, तब वह यही वाणी सुनता है,―और यही धर्म है।
अतएव एक ओर तो यह अभय वाणी, यह आशाप्रद वाक्य है कि-यह सब कुछ नहीं; केवल माया है―इसकी उपलब्धि करो किन्तु इसके बाहर जाने का मार्ग है। दूसरी ओर हमारे सांसारिक लोग कहते हैं―"धर्म, दर्शन―ये सब व्यर्थ की वस्तुये ले कर दिमाग खराब मत करो। जगत् में रहो; यह जगत् बड़ा अशुभपूर्ण है सही, किन्तु जितनी दूर तक हो सके इसका सद्व्यवहार कर लो।" सीधे सादे शब्दो में इसका अर्थ यही है कि उलटे सीधे दिन रात प्रतारणा- पूर्ण जीवन यापन करो—अपने घाव को जब तक हो सके ढक कर रक्खो। एक के बाद दूसरी जोड़-गाँठ करते जाओ यहाँ तक कि सब कुछ नष्ट हो जाय और तुम केवल जोड़गाँठ का एक समूह मात्र रह जाओ। इसी को सांसारिक जीवन कहते है। जो इस जोड़गाँठ से सन्तुष्ट है वे कभी भी धर्मलाभ नहीं कर सकते। जब जीवन की वर्तमान अवस्था में भयानक अशान्ति उत्पन्न हो जाती है, जब अपने जीवन में भी ममता नहीं रहती, जब इस जोड़गाँठ पर अपार घृणा उत्पन्न हो जाती है, जब मिथ्या और प्रवञ्चना के ऊपर भारी वितृष्णा उत्पन्न हो जाती है तभी धर्म का आरम्भ होता है। वास्तविक धार्मिक होने के योग्य वही है जो, बुद्धदेव ने बोधिवृक्ष के नीचे खड़े होकर दृढ़ स्वर से जो बात कही थी, उस बात को रोम रोम से बोल सकता हो। संसारी होने की इच्छा उनके हृदय में भी एक बार उत्पन्न हुई थी। उस समय उन्होंने स्पष्ट रूप से समझा कि उनकी यह अवस्था, यह सांसारिक जीवन एकदम भूल है; किन्तु इसके बाहर जाने का कोई मार्ग उन्हें नहीं मिल रहा था। प्रलोभन एक बार उनके निकट आया और कहने लगा―सत्य की खोज छोड़ो, संसार में लौटकर वही पुराना प्रतारणापूर्ण जीवन यापन करो, सभी वस्तुओ को उनके गलत नामों से पुकारो, अपने निकट और सब के निकट दिन रात मिथ्या बोलते रहो—यह प्रलोभन उनके पास एक बार आया था, किन्तु उस महावीर ने अतुल पराक्रम से उसी क्षण उसे परास्त कर दिया। उन्होंने कहा―"अज्ञान पूर्वक केवल खापीकर जीने की अपेक्षा मरना ही अच्छा है; पराजित होकर जीने की अपेक्षा युद्धक्षेत्र में मरना अच्छा है।" यही धर्म की भित्ति है। जब मनुष्य इस भित्ति के ऊपर खड़ा होता है तब वह सत्य की प्राप्ति के पथ पर, ईश्वर के लाभ के पथ पर चल रहा है ऐसा समझना चाहिये। धार्मिक होने के लिये भी पहले यह प्रतिज्ञा आवश्यक है। मैं अपना रास्ता स्वंय ढूँढ़ लूँगा। सत्य को जानूँगा अथवा प्राण दे दूँगा। कारण, संसार की ओर से तो और कुछ पाने की आशा है ही नहीं, वह तो शून्य स्वरूप है, वह दिन रात अन्तर्हित हो रहा है। आज का सुन्दर आशापूर्ण तरुण पुरुष कल का बूढ़ा है। आशा,आनन्द, सुख― ये सब मुकुलो की भाँति कल के शिशिर-पात से नष्ट हो जायेगे। यह हुई इस ओर की बात; दूसरी ओर विजय का प्रलोभन रहता है। जीवन के सभी अशुभों पर विजय-प्राप्ति की सम्भावना रहती है। और तो क्या, जीवन और जगत् के ऊपर भी विजयप्राप्ति की आशा रहती है। इसी उपाय से मनुष्य अपने पैरों पर खड़ा हो सकता है। अतएव जो लोग इस विजयप्राप्ति के लिये, सत्य के लिये, धर्म के लिये चेष्टा कर रहे है वे ही सत्य पथ पर है, और सब वेद भी यही प्रचार करते हैं, "निराश मत होओ, मार्ग बड़ा कठिन है―जैसे छुरे की धार पर चलना; फिर भी निराश मत होओ; उठो, जागो और अपने चरम आदर्श को प्राप्त करो।"
सभी विभिन्न धर्मों की, चाहे वे किसी भी रूप में मनुष्य के निकट अपनी अभिव्यक्ति करत हो, सब की यही एक मूलभित्ति है। सभी धर्म जगत् के बाहर जाने का अर्थात् मुक्ति का उपदेश देते है। इन सब धर्मों का उद्देश्य―संसार और धर्म के बीच मुलह कराना नहीं, किन्तु धर्म को अपने आदर्श में दृढप्रतिष्ठित करना है, संसार के साथ सुलह करके उस आदर्श को नीचे नहीं लाना―प्रत्येक धर्म इसका प्रचार करता है और वेदान्त का कर्तव्य है—विभिन्न धर्मभावों का सामञ्जस्य स्थापित करना, जैसा हमन अभी देखा कि मुक्ति की बात को लेकर जगत् के उच्चतम और निम्नतम धर्मों में सामञ्जस्य पाया जाता है। हम जिसको अत्यन्त घृणित कुसंस्कार कहते है, और जो सर्वोच्च दर्शन है सभी की यह एक साधारण भित्ति है कि वे सभी इस एक प्रकार के सङ्कट से निस्तार पाने का मार्ग दिखाते है और इन सब धर्मों में से अधिकांश में प्रपंचानीत पुरुषविशेष की सहायता से―प्राकृतिक नियमो से आवद्ध नहीं अर्थात् नित्य मुक्त पुरुषविशेप की सहायता से― इस मुक्ति की प्राप्ति करनी पड़ती है। इस मुक्त पुरुष के स्वरूप के सम्बन्ध में नाना प्रकार की कठिनता तथा मतभेदों के होने पर भी― यह ब्रह्म सगुण है या निर्गुण, मनुष्य की भाँति ज्ञानसम्पन्न है या नहीं, वह पुरुष है, स्त्री है अथवा नपुंसक―इस प्रकार के अनन्त विचारों के होने पर भी―विभिन्न मतो के प्रबल विरोध होने पर भी―इन सब के भीतर एकत्व का जो सुवर्णसूत्र उन्हे ग्रंथित किये हुये है, वह हम देख पाते है; अतः यह सब विभिन्नता या विरोध हमारे अन्दर भय उत्पन्न नहीं करता; और इसी वेदान्त-दर्शन में यह सुवर्ण-सूत्र आविष्कृत हुआ है; हमारी दृष्टि के सामने थोड़ा थोड़ा करके प्रकाशित हुआ है, और इसमे पहले ही यही तत्व प्राप्त होता है कि हम सभी विभिन्न पथो के द्वारा उसी एक मुक्ति की ओर अग्रसर हो रहे है; सभी धर्मों का यही एक साधारण भाव है।
अपने सुख, दुःख, विपत्ति और कष्ट, सभी अवस्थाओं में हम यही आश्चर्य की बात देखते है कि हम सब धीरे धीरे उसी मुक्ति की ओर अग्रसर हो रहे है। प्रश्न उठा—यह जगत् वास्तव में क्या है? कहाँ से इसकी उत्पत्ति हुई और कहाँ इसका लय है? और इसका उत्तर था,―मुक्ति से ही इसकी उत्पत्ति है, मुक्ति में यह विश्राम करता है और अन्त में मुक्ति में ही इसका लय हो जाता है। यह जो मुक्ति की भावना है कि वास्तव में हम मुक्त है, इस आश्चर्य- जनक भावना को छोड़ कर हम एक क्षण भी नहीं चल सकते, इस भाव को छोड़ कर तुम्हारे सभी कार्य, यहाँ तक की तुम्हारा जीवन तक व्यर्थ है। प्रतिक्षण प्रकृति हमारा दासत्व सिद्ध कर रही है किन्तु उसके साथ ही साथ यह दूसरा भाव भी हमारे मन में उत्पन्न होता रहता है कि फिर भी हम मुक्त हैं। प्रतिक्षण ही हम माया के द्वारा आहते होकर बद्ध के समान मालूम होते है किन्तु उसी क्षण, उसी आघात के साथ ही साथ, 'हम बद्ध है' इस भाव के साथ ही साथ और भी एक भाव हमारे अन्दर आता है कि हम मुक्त है। मानों हमारे अन्दर से कोई हमे यह कहने को बाध्य कर रहा है कि हम मुक्त है। किन्तु इस मुक्ति की प्राणो से उपलब्धि करने में, अपने मुक्त स्वभाव का प्रकाश करने में सब बाधाये उपस्थित होती है वे भी एक प्रकार से अनतिक्रमणीय है। तथापि अन्दर से हमारे हृदय के अन्त- स्तल में मानो वह आवाज़ सदा ही उठती रहती है―मैं मुक्त हूँ, मैं मुक्त हूँ। और यदि तुम संसार के सभी धर्मों की आलोचना करके देखो तो समझोगे―उनमें से सभी में किसी न किसी रूप में यह भाव प्रकाशित हुआ है। केवल धर्म में ही नहीं―धर्म शब्द को आप संकीर्ण अर्थ में मत लीजिये—सभी प्रकार का सामाजिक जीवन केवल इसी एक मुक्त भाव की अभिव्यक्ति मात्र है। सभी प्रकार की सामा- जिक गति उसी एक मुक्त भाव का विभिन्न प्रकाश मात्र है। मानो सभी लोग जान बूझकर या अनजाने ही उस स्वर को सुन रहे हैं जो दिन रात कह रहा है, "ओ थके हुये और बोझ से लदे हुये मनुष्यो! मेरे पास आओ!" एक ही प्रकार की भाषा अथवा एक ही ढंग से, चाहे वह प्रकाशित न होती हो, किन्तु मुक्ति की ओर हमें आह्वान करने वाली वह वाणी किसी न किसी रूप में हमारे साथ सदा वर्तमान रहती है। हमारा यहाँ जो जन्म हुआ है वह भी इसी वाणी के कारण; हमारी प्रत्येक गति ही इसी के लिये है। हम जानें या न जाने, किन्तु हम सभी मुक्ति की ओर चल रहे ह, जान कर या अनजाने हम उसी वाणी का अनसरण कर रहे है। उस वाणी का अनुसरण जब हम करते हैं तभी हम नीति- परायण होते हैं। केवल जीवात्मा ही नहीं किन्तु छोटे से छोटे जड़ परमाणु से लेकर ऊँचे से ऊँचे मनुष्यों तक सभी ने वह स्वर सुना है, और सब उसी की दिशा में दौड़े जा रहे है। और इस चेष्टा में या तो हम परस्पर मिल जाते हैं या एक दूसरे को धक्का देते है। और इसी से प्रतिद्वन्द्विता, हर्ष, संवर्ष, जीवन, सुख और मृत्यु आदि उत्पन्न होते हैं और उस वाणी तक पहुँचने के लिये यह जो संघर्ष चल रहा है यह समस्त जगत् उसी का परिणाम मात्र है। यही हम सब करते चल रहे है। यही व्यक्त प्रकृति का परिचय है।
इस वाणी के सुनने से क्या होता है? इससे हमारे सामने का दृश्य परिवर्तित होने लगता है। जैसे ही तुम इस स्वर को सुनते हो और समझते हो कि यह क्या है, वैसे ही तुम्हारे सामने का समस्त दृश्य बदल जाता है। यही जगह जो पहले माया का वीभत्स युद्धक्षेत्र था, अब और कुछ―अपेक्षाकृत अधिक सुन्दर―हो जाता है। तब फिर हमे प्रकृति को कोसने की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती। जगत् बड़ा वीभत्स है अथवा यह सब वृथा है यह बात भी कहने की आवश्यकता नहीं रह जाती; रोने चिल्लाने की भी आवश्यकता नहीं रह जाती। जैसे ही तुम इस स्वर को सुन पाते हो, वैसे ही तुम्हारी समझ में आ जाता है कि यह सब चेष्टा, यह युद्ध, यह प्रतिद्वन्द्विता, यह गडबड, यह निष्ठुरता, यह सब छोटे छोटे सुखों का प्रयोजन क्या है! तब यह स्पष्ट समझ में आता है कि यह सब प्रकृति क स्वभाव से ही होता है; हम सब जान कर अथवा अनजाने उसी स्वर की ओर अग्रसर हो रहे है, इसीलिये यह सब हो रहा है। अतएव समस्त मानव जीवन, समस्त प्रकृति उसी एक मुक्तभाव को अभिव्यक्त करने की चेष्टा कर रही है, बसः सूर्य भी उसी ओर चल रहा है, पृथिवी भी उसी के लिये सूर्य के चारों ओर भ्रमण कर रही है, चन्द्र भी इसीलिये पृथिवी के चारों ओर घूम रहा है। उसी स्थान पर पहुँ- चने के लिये समस्त ग्रह-नक्षत्र भ्रमण कर रहे है और वायु बह रही है। उसी मुक्ति के लिये बिजली तीव्र घोष करती है और उसी के लिये मृत्यु भी चारो ओर घूम फिर रही है। सभी उस दिशा में जाने के लिये चेष्टा कर रहे है। साधु लोग भी उसी ओर जा रहे हैं, बिना गये वे रह ही नहीं सकते, उनके लिये यह कोई प्रशंसा की बात नहीं है। पापी लोगो की भी यही दशा है। खूब दान देने वाला व्यक्ति भी वही सब लक्ष्य बना कर सरल भाव से चल रहा है, बिना चले बह रहे ही नहीं सकता; और भयानक कृषण व्यक्ति भी उसी को लक्ष्य बनाकर चल रहा है। जो महासत्कर्मशील हैं उन्होने भी उसी वाणी को सुना है, वे सत्कर्म किये बिना रह ही नहीं सकते, और बड़े आलसी व्यक्ति का भी यही हाल है। एक व्यक्ति का पदस्खलन दूसरे की अपेक्षा अधिक हो सकता है और जिस व्यक्ति का पदस्खलन अधिक होता है उसे हम दुर्बल कहते है और जिसका कम होता है उसे सज्जन या सत् कहते है। अच्छा या बुरा ये दो भिन्न वस्तुये नहीं हैं, बल्कि एक ही है; उनके बीच का भेद प्रकारगत नहीं, परिणामगत है।
अब देखिये, यदि यही मुक्तभाव रूपी शक्ति वास्तव में समस्त जगत् में कार्य कर रही है तो हमारे विशेष आलोच्य विषय―धर्म में उसका प्रयोग करने पर हम देख पाते हैं―सभी धर्म इसी एक भाव के द्वारा नियमित हैं। अत्यन्त निम्न कोटि के धर्मों को लीजिये तो शायद किसी मृत पूर्वपुरुष की अथवा किसी निष्ठुर देवता की उपासना हो रही है किन्तु उनके उपास्य इन देवताओ अथवा मृत पूर्वपुरुषों की धारणा क्या है? धारणा यह है कि वे प्रकृति से ऊपर है, इस माया के द्वारा वे बद्ध नहीं है। हाँ, प्रकृति के बारे में उनकी धारणा अवश्य ही सामान्य है। वे केवल आकर्षण और विप्रकर्षण इन दोनो शक्तियो से परिचित है। उपासक, जो कि एक मूर्ख अज्ञानी व्यक्ति है उसकी बिल्कुल स्थूल धारणा है कि वह घर की दीवार को भेद कर नहीं जा सकता अथवा शून्य में उड़ नहीं सकता। अतः इन सब बाधाओ को अतिक्रमण करना या न करना इसके अतिरिक्त शक्ति की उच्चतर धारणा उसे है ही नहीं; अतएव वह ऐसे देवता की उपासना करता है जो दीवार भेदकर अथवा आकाश में होकर आ जा सकते है अथवा जो अपना रूप परिवर्तित कर सकते है। दार्शनिक भाव से देखने पर इस प्रकार की देवोपासना में क्या रहस्य छिपा है? रहस्य यही है कि यहाँ भी वही मुक्ति का भाव मौजूद है, उनकी देवता की धारणा परिज्ञात प्रकृति की धारणा से उन्नत है। और जो उनसे अधिक उन्नत देवों के उपासक है उनकी भी उसी मुक्ति की दूसरे प्रकार की धारणा है। जैसे जैसे प्रकृति के सम्बन्ध में हमारी धारणा उन्नत होती जाती है वैसे ही प्रकृति के प्रभु आत्मा के सम्बन्ध में भी वह उन्नत होती जाती है; अन्त में हम एकेश्वरवाद में पहुँच जाते है। यही माया― यही प्रकृति रह जाती है, और इसी माया के एक प्रभु रह जाते है― यही हमारी आशा का स्थल है। जहाँ पहले पहल इस एकेश्वरवाद के सूचक भाव का आरम्भ होता है वही वेदान्त का भी आरम्भ हो जाता है। वेदान्त इससे भी अधिक गम्भीर अन्वेषण करना चाहता है। वह कहता है― इस माया प्रपञ्च के पीछे जो एक आत्मा मौजूद है। जो माया का स्वामी है पर जो माया के अधीन नहीं है, वह हमे अपनी ओर आकर्षित कर रहा है और हम सब भी धीरे धीरे उसी की ओर चल रहे है; यह धारणा तो ठीक ही है, किन्तु अभी भी यह धारणा शायद स्पष्ट नहीं हुई है, अभी तक यह दर्शन अस्पष्ट और अस्फुट है यद्यपि वह स्पष्ट रूप से युक्तिविरोधी नहीं है। जिस प्रकार आपके यहाँ प्रार्थना में कहा जाता है―'मेरे ईश्वर, तेरे अति निकट,' (Nearer, my God, to Thee) वेदान्ती भी ऐसे ही प्रार्थना करेगा, केवल एक शब्द बदलकर―'मेरे ईश्वर, मेरे अति निकट (Nearer, my God, to Me)'। हमारा चरम लक्ष्य बहुत दूर है, बहुत दूर; प्रकृति से अतीत प्रदेश में, और हम उसके निकट धीरे धीरे अग्रसर हो रहे है। इस दूरी के भाव को धीरे धीरे हमें और अपने निकट लाना होगा किन्तु आदर्श की पवित्रता और उच्चता को अक्षुण्ण रखते हुये। मानो यह आदर्श क्रमशः हमारे निकटतर होता जाता है―अन्त में स्वर्ग का ईश्वर मानो प्रकृतिस्थ ईश्वर बन जाता है, फिर प्रकृति में और ईश्वर में कोई भेद नहीं रहजाता, वही मानो इस देहमन्दिर के अधिष्ठातृदेवता के रूप में, और अन्त में इसी देवमन्दिर के रूप में जाना जाता है और वही मानो अन्त से जीवात्मा और मनुष्य के रूप में सामने आता है। और यही वेदान्त की शिक्षा का अन्त है। जिसको ऋपिगण विभिन्न स्थानों में खोजा करते थे वह तुम्हारे अन्दर ही है। वेदान्त कहता है―तुमने जो वाणी सुनी थी वह ठीक सुनी थी, किन्तु उसे सुनकर तुम ठीक मार्ग पर नहीं चले। जिस मुक्ति के महान् आदर्श का तुमने अनुभव किया था वह सत्य है, किन्तु उसे बाहर की ओर खोजकर तुमने भूल की। इसी भाव को अपने निकट और निकटतर लाते चलो जब तक कि तुम यह न जान लो कि यह मुक्ति, यह स्वाधीनता तुम्हारे अन्दर ही है, वह तुम्हारी आत्मा की अन्तरात्मा है। यह मुक्ति बराबर तुम्हारा स्वरूप ही था, और माया ने तुम्हे कभी भी आक्रान्त नहीं किया। तुम्हारे ऊपर शक्ति विस्तार करने की माया की कमी सामर्थ्य ही न थी। बालक को भय दिखान पर जो बात होती है उसी प्रकार तुम भी स्वप्न देख रहे थे कि प्रकृति तुम्हे नचा रही है और इससे मुक्त होना तुम्हारा लक्ष्य है। केवल इसे बुद्धि से जानना ही नहीं, प्रत्यक्ष करना, अपरोक्ष करना, हम इस जगत् को जितने स्पष्ट रूप से देखते है उससे अधिक स्पष्ट रूप से देखना। तभी हम मुक्त होंगे, तभी हमारी गड़बड़ समाप्त होगी; तभी हृदय की समस्त चञ्चलता स्थिर हो जायगी, तभी सारा टेढ़ापन सीधा हो जायगा, तभी यह बहुत्वभ्रान्ति चली जायगी, तभी यह प्रकृति, यह माया अभी के भयानक अवसादकारक स्वप्न न होकर अति सुन्दर रूप में दीखगी, और यह जगत् जो इस समय कारागार के समान प्रतीत हो रहा है वह ऐसा न होकर क्रीड़ाक्षेत्र के रूप में दीख पड़ेगा, तब सब विपत्तियाँ, विश्रृंखलाये, और तो और, हम जो सब यन्त्रणाये भोग रहे है वे भी ब्रह्मभाव में परिणत हो जायँगी―उस समय वे अपने प्रकृत स्वरूप में दीख पड़ेगी―सभी वस्तुओ के पीछे, सभी का सारसत्ता स्वरूप वह मौजूद है ऐसा मालूम पड़ेगा और मालूम पड़ेगा कि वही हमारा वास्तविक अन्तरात्मा स्वरूप है।
_________