तितली/2.10

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तितली - उपन्यास - जयशंकर प्रसाद  (1934) 
द्वारा जयशंकर प्रसाद

[ ७४ ]

10.

नील-कोठी में अस्पताल खुल गया। बैंक के लिए भी प्रबंध हो गया। वहीं गांव की पाठशाला भी आ गई थी। वाट्सन ने चकबंदी की रिपोर्ट और नक्शा भी तैयार कर दिया और प्रांतीय सरकार से बुलावा आने पर वहीं लौट गए। साथ-ही-साथ अपने सौजन्य और स्नेह से पुर के बहुत-से लोगों के हृदयों में अपना स्थान भी बना गए। शैला उनके बनाए हुए नियमों पर साधक की तरह अभ्यास करने लगी।

अभी भी जमींदार के परिवार पर उस उत्सव की स्मृति सजीव थी। किंतु श्यामदुलारी के मन में एक बात खटक रही थी। उनके दामाद बाबू श्यामलाल उस अवसर पर नहीं आए। इंद्रदेव ने उन्हें लिखा भी था; पर उनको छुट्टी कहां? पहले ही एक बोट पर गंगा-सागर चलने के लिए अपनी मित्र-मंडली को उन्होंने निमंत्रित किया था। कुल आयोजन उन्हीं का था। चन्दा तो सब लोगों का था; किंतु किसको ताश खेलना है, किसे संगीत के लिए बुलाना है और कौन व्यंग्य-विनोद से जुए में हारे हुए लोगों को हंसा सकेगा, कौन अच्छी ठंडाई बनाता है, किसे बढ़िया भोजन पकाने की क्रिया मालूम है यह तो सभी को नहीं मालूम था। श्यामलाल के चले आने से उनकी मित्र-मंडली गंगा-सागर का पुण्य न लूटती। वह आने नहीं पाए।

तहसीलदार और चौबेजी जल उठे थे तितली के ब्याह से। जो जाल उनका था, वह छिन्न हो गया। शैला के स्थान पर जो पात्री चुनी गई थी, वह भी हाथ से निकल गई। उन्होंने श्यामदुलारी के मन में अनेक प्रकार से यह दुर्भावना भर दी कि इंद्रदेव चौपट हो रहे हैं और हम लोग कुछ नहीं कर सकते। शैला को घर से तो हटा दिया गया; पर वह एक पूरी शक्ति इकट्ठी करके उन्हीं की छाती पर जम गई। [ ७५ ] श्यामदुलारी की खीझ बढ़ गई। उनके मन में यह धारणा हो रही थी कि इंद्रदेव चाहते, और भी दो-एक पत्र लिखते, तो श्यामलाल अवश्य आते। वह इंद्रदेव से उदासीन रहने लगी। घरेलू कामों में अनवरी मध्यस्थता करने लगी। कुटुंब में पारस्परिक उदासीनता का परिणाम यही होता है। श्यामदुलरी का माधुरी के प्रति अकारण पक्षपात और इंद्रदेव पर संदेह, उनके कर्तव्य-ज्ञान को चबा रहा था।

कभी-कभी मनुष्य की यह मूर्खतापूर्ण इच्छा होती है कि जिनको हम स्नेह की दृष्टि से देखते हैं, उन्हें अन्य लोग भी उसी तरह प्यार करें। अपनी असंभव कल्पना को आहत होते देखकर वह झल्लाने लगता है।

श्यालदुलारी की इस दीनता को इंद्रदेव समझ रहे थे; पर यह कहें किस तरह। कहीं ऐसा न हो कि मन में छिपी हुई बात कह देने से मां और भी क्रोध कर बैठे; क्योंकि उसको स्पष्ट करने के लिए इंद्रदेव को अपने प्रेमाधिकार से औरों की तुलना करनी पड़ती, यह और भी उन्हीं के लिए लज्जा की बात होगी। उनका साधारण स्नेह जितना एक आत्मीय पर होना चाहिए, उससे अधिक भाग तो इंद्रदेव अपना समझते थे। किंतु जब छिपाने की बात है, तो स्नेह की अधिकता का भागी कोई दूसरा ही है क्या?

श्यामदुलारी अपने मन की बात अनवरी से कहलाने की चेष्टा क्यों करती है? मां को अधिकार है कि वह बच्चे का, उसके दोषों पर, तिरस्कार करे। गुरुजनों का यह कर्तव्य छोड्कर बनावटी व्यवहार इंद्रदेव को खलने लगा, जिसके कारण उन्हें अपनों को दूर हटाकर दूसरों को अपनाना पड़ा है। अनवरी आज इतनी अंतरंग बन गई है!

बड़ी कोठी में जैसे सब कुछ संदिग्ध हो उठा। अपना अवलम्ब खोजने के लिए जब इंद्रदेव ने हाथ बढ़ाया, तो वहां शैला भी नहीं! सारा क्षोभ शैला को ही दोषी बनाकर इंद्रदेव को उत्तेजित करने लगा। इस समय शैला उनके समीप होती!

अनवरी से लड़ने के लिए छाती खोलकर भी अपने को निस्सहाय पाकर इंद्रदेव विवश थे। विराट् वट-वृक्ष के समान इंद्रदेव के संपन्न परिवार पर अनवरी छोटे-से नीम के पौधे की तरह उसी का रस चूसकर हरी-भरी हो रही थी। उसकी जड़ें वट को बेधकर नीचे घुसती जा रही थीं। सब अपराध शैला का ही था। वह क्यों हट गई। कभी-कभी अपने कामों के लिए ही वह आती, तब उससे इंद्रदेव की भेंट होती; किंतु वह किसानों की बात करने में इतनी तन्मय हो जाती कि इंद्रदेव को वह अपने प्रति उपेक्षा-सी मालूम होती।

कभी-कभी घर के कोने से अपने और तितली के भावी संबंध की सूचना भी उन्होंने सुनी थी। तब उन्होंने हंसी में उड़ा दिया था। कहां वह और कहां तितली—एक ग्रामीण बालिका! किंतु उस दिन ब्याह में जो तितली की निश्चल सौंदर्यमयी गंभीरता देखकर उन्हें एक अनुभूति हुई थी, उसे वह स्पष्ट न कर सके थे। हां, तो शैला ने उस ब्याह में भी योग दिया। क्या यह भी कोई सकारण घटना?

इंद्रदेव का मानसिक विप्लव बढ़ रहा था। उनके मन में निश्चल क्रोध धीरे-धीरे संचित होकर उदासीनता का रूप धारण करने लगा।

सांयकाल था। खेतों की हरियाली पर कहीं-कहीं डूबती हुई किरणों की छाया अभी पड़ रही थी। प्रकाश डूब रहा था। प्रशांत गंगा का कछार शून्य हृदय खोले पड़ा था। करारे पर सरसों के खेत में बसंती चादर बिछी थी। नीचे शीतल बालू में कराकुल चिड़ियों का एक [ ७६ ]झुण्ड मौन होकर बैठा था।

कंधों से सरसों के फूलों के घनेपन को चीरते हुए इंद्रदेव ने उस स्पंदन-विहीन प्रकृतिखंड को आदोलित कर दिया। भयभीत कराकुल झुंड-के-झुंड उड़कर उस धूमिल आकाश में मंडराने लगे।

इंद्रदेव के मस्तक पर कोई विचार नहीं था। एक सन्नाटा उसके भीतर और बाहर था। वह चुपचाप गंगा की विचित्र धारा को देखने लगे।

चौबेजी ने सहसा आकर कहा—बड़ी सरकार बुला रही हैं।

क्यों?

यह तो मैं.. .हां, बाबू श्यामलाल जी आए हैं; इसी के लिए बुलाया होगा।

तो मैं आता हूं अभी जल्दी क्या है?

उसके लिए कौन-सा कमरा...?

हूं, तो कह दो कि मां इसे अच्छी तरह समझती होंगी। मुझसे पूछने की क्या आवश्यकता? न हो मेरे ही कमरे में, क्यों, ठीक होगा न? न हो तो छोटी कोठी में, या जहां अच्छा समझें।

जैसा कहिए।

तब यही जाकर कह दो। मैं अभी ठहरकर आऊंगा।

चौबे चले गए।

इंद्रदेव वहीं खड़े रहे। शैला को इस अंधकार के शैशव में वहीं देखने की कामना उत्तेजित हो रही थी, और वह आ भी गई। इंद्रदेव ने प्रसन्न होकर कहा—इस समय मैं जो भी चाहता, वह मिलता।

क्या चाहते थे?

तुमको यहां देखना। देखा, आज यह कैसी संध्या है! मैं तो लौटने का विचार कर रहा था।

और मैं कोठी से होती हुई आ रही हूं। भला, आज कितने दिनों पर।

तुम अप्रसन्न हो इसके लिए न! मैं क्या करूं।—कहते-कहते शैला का चेहरा तमतमा गया। वह चुप हो गई।

कुछ कहो शैला! तुम क्यों आने में संकोच करती हो? मैं कहता हूं कि तुम मुझे अपने शासन में रखो। किसी से डरने की आवश्यकता नहीं।

शैला ने दीर्घ निःश्वास लेकर कहा—मैं तो शासन कर रही हूं। और अभी अधिक तम्हारे ऊपर अत्याचार करते हए मैं कांप उठती हं! इंद्र! तम कैसे दबले हए जा रहे हो? तम नहीं जानते कि मैं तुम्हारे अधिक क्षोभ का कारण नहीं बनना चाहती। कोठी में अधिक जाने से अच्छा तो नहीं होता।

क्या अच्छा नहीं होता। कौन है जो तुमको रोकता। शैला! तुम स्वयं नहीं आना चाहती हो। और मैं भी तुम्हारे पास आता हूं तो गांव-भर का रोना मेरे सामने इकट्ठा करके रख देती हो। और मेरी कोई बात ही नहीं! तुम कोठी पर...

ठहरो, सुन लो, मैं अभी कोठी पर गई थी। वहां कोई बाबू आए हैं। तुम्हारे कमरे में बैठे [ ७७ ]थे। मिस अनवरी बातें कर रही थीं। मैं भीतर चली गई। पहले तो वह घबराकर उठ खड़े हुए। मेरा आदर किया। किंतु अनवरी ने जब मेरा परिचय दिया, तो उन्होंने बिल्कुल अशिष्टता का रूप धारण कर लिया। वह बीबी-रानी के पति हैं?

शैला आगे कहते-कहते रुक गई; क्योंकि इंद्रदेव के स्वभाव से परिचित थी। इंद्रदेव ने पूछा क्या कहा, कहो भी?

बहुत-सी भद्दी बातें! उन्हें सुनकर तुम क्या करोगे? मिस अनवरी तो कहने लगी कि उन्हें ऐसी हंसी करने का अधिकार है। मैं चुप हो रही। मुझे बहुत बुरा लगा। उठकर इधर चली आई।

इंद्रदेव ने भयानक विषधर की तरह श्वास फेंककर कहा शैला! जिस विचार से हम लोग देहात में चले आए थे, वह सफल न हो सका। मुझे अब यहां रहना पसंद नहीं। छोड़ो इस जंजाल को, चलो हम लोग किसी शहर में चलकर अपने परिचित जीवन-पथ पर सुख लें! यह अभागा...

शैला ने इंद्रदेव का मुंह बंद करते हुए कहा—मुझे यहीं रहने दो। कहती हूं न, क्रोध से काम न चलेगा। और तुम भी क्या घर को छोड़कर दूसरी जगह सुखी हो सकोगे? आह! मेरी कितनी करुण कल्पना उस नील की कोठी में लगी-लिपटी है! इंद्र! तुमसे एक बार तो कह चुकी हूं। वह उदास होकर चुप हो गई। उसे अपनी माता की स्मृति ने विचलित कर दिया।

इंद्रदेव को उसकी यह दुर्बलता मालूम थी। वह जानते थे कि शैला के चिर दुखी जीवन में यही एक सांत्वना थी। उन्होंने कहा-तो मैं अब यहां से चलने के लिए न कहूंगा। जिसमें तुम प्रसन्न रहो।

तुम कितने दयालु हो इंद्रदेव! मैं तुम्हारी ऋणी हं!

तुम यह कहकर मुझे चोट पहुंचाती हो शैला! मैं कहता हूं कि इसकी एक ही दवा है। क्यों तुम रोक रही हो। हम दोनों एक-दूसरे की कमी पूरी कर लेंगे। शैला स्वीकार कर लो।—कहते-कहते इन्द्रदेव ने उस आर्द्रहृदया युवती के दोनों कोमल हाथों को अपने हाथों में दबा लिया।

शैला भी अपनी कोमल अनुभूतियों के आवेश में थी। गद्गद कंठ से बोली-इंद्र! मुझे अस्वीकार कब था? मैं तो केवल समय चाहती हूं। देखो, अभी आज ही वाट्सन का यह पत्र आया है, जिसमें मुझे उनके हृदय के स्नेह का आभास मिला है। किंतु मैं...

इंद्रदेव ने हाथ छोड़ दिया। वाट्सन!—उनके मन में द्वेषपूर्ण संदेह जल उठा। तभी तो शैला! तुम मुझको भुलावा देती आ रही हो। ऐसा न कहो! तुम तो पूरी बात भी नहीं सुनते।

इंद्रदेव के हृदय में उस निस्तब्ध संध्या के एकांत में सरसों के फूलों से निकली शीतल सुगंध की कितनी मादकता भर रही थी, एक क्षण में विलीन हो गई। उन्हें सामने अंधकार की मोटी-सी दीवार खड़ी दिखाई पड़ी।

इंद्रदेव ने कहा—मैं स्वार्थी नहीं हूं शैला! तुम जिसमें सुखी रह सको।

वह कोठी की ओर चलने के लिए घूम पड़े। शैला चुपचाप वहीं खड़ी रही। इंद्रदेव ने पूछा-चलोगी न? [ ७८ ]हां, चलती हूं—कहकर वह भी अनुसरण करने लगी।

इंद्रदेव के मन में साहस न होता था कि वह शैला के ऊपर अपने प्रेम का पूरा दबाव डाल सकें। उन्हें संदेह होने लगता था कि कहीं शैला यह न समझे कि इंद्रदेव अपने उपकारों का बदला चाहते हैं।

इंद्रदेव एक जगह रुक गए और बोले शैला, मैं अपने बहनोई साहब के किए हुए अशिष्ट व्यवहार के लिए तमसे क्षमा चाहता है।

शैला ने कहा तो यह मेरे डायरी पढ़ने की क्षमा-याचना का जवाब है न! मुझे तुमसे इतने शिष्टाचार की आशा नहीं। अच्छा अब मैं इधर से जाऊंगी। महौर महतो से एक नौकर के लिए कहा था। उससे भेंट कर लूंगी। नमस्कार!

शैला चल पड़ी। इंद्रदेव भी वहीं से घूम पड़े। एक बार उनकी इच्छा हुई कि बनजरिया में चलकर रामनाथ से कुछ बातचीत करें। अपने क्रोध से अस्तव्यस्त हो रहे थे, उस दशा में श्यामलाल से सामना होना अच्छा न होगा—यही सोचकर रामनाथ की कुटी पर जब पहुंचे, तो देखा कि तितली एक छोटा-सा दीप जलाकर अपने आंचल से आड़ किए वहीं आ रही है, जहां रामनाथ बैठे हुए संध्या कर रहे थे। तितली ने दीपक रखकर उसको नमस्कार किया; फिर इंद्रदेव को और रामनाथ को नमस्कार करके आसन लाने के लिए कोठरी में चली गई।

रामनाथ ने इंद्रदेव को अपने कंबल पर बिठा लिया। पूछा—इस समय कैसे? यूं ही इधर घूमते-घूमते चला आया।

आपका इस देहात में यश फैल रहा है। और सचमुच आपने दुखी किसानों के लिए बहुत-से उपकार करने का शुभारंभ किया है। मेरा हृदय प्रसन्न हो जाता है; क्योंकि विलायत से लौटकर अपने देश की संस्कृति और उसके धर्म की ओर उदासीनता आपने नहीं दिखाई। परमात्मा आप-जैसे श्रीमानों को सुखी रखे।

किंतु आप भूल कर रहे हैं। मैं तो अपने धर्म और संस्कृति से भीतर-ही-भीतर निराश हूं। मैं सोचता हूं कि मेरा सामाजिक बंधन इतना विशृंखल है कि उसमें मनुष्य केवल ढोंगी बन सकता है। दरिद्र किसानों से अधिक-से-अधिक रस चूसकर एक धनी थोड़ा-सा दान-कहीं दया और कभी-कभी छोटा-मोटा उपकार_करके. सहज ही में आप-जैसे निरीह लोगों का विश्वासपात्र बन सकता है। सुना है कि आप धर्म में प्राणिमात्र की समता देखते हैं, किंतु वास्तव में कितनी विषमता है। सब लोग जीवन में अभाव-ही-अभाव देख पाते। प्रेम का अभाव, स्नेह का अभाव, धन का अभाव, शरीर-रक्षा की साधारण आवश्यकताओं का अभाव, दुःख और पीड़ा—यही तो चारों ओर दिखाई पड़ता है। जिसको हम धर्म या सदाचार कहते हैं, वह भी शांति नहीं देता। सबमें बनावट, सबमें छल-प्रपंच! मैं कहता हूं कि आप लोग इतने दुखी हैं कि थोड़ी-सी सहानुभूति मिलते ही कृतज्ञता नाम की दासता करने लग जाते हैं। इससे तो अच्छी है पश्चिम की आर्थिक या भौतिक समता, जिसमें ईश्वर के न रहने पर भी मनुष्य की सब तरह की सुविधाओं की योजना है।

मालूम होता है, आप इस समय किसी विशेष मानसिक हलचल में पड़कर उत्तेजित हो रहे हैं। मैं समझ रहा हूं कि आप व्यावहारिक समता खोजते हैं; किन्तु उसकी आधारशिला तो जनता की सुख-समृद्धि ही है न? जनता को अर्थ-प्रेम की शिक्षा देकर उसे पशु बनाने की [ ७९ ]चेष्टा अनर्थ करेगी। उसमें ईश्वर-भाव का आत्मा का निवास न होगा तो सब लोग उस दया, सहानुभूति और प्रेम के उद्गम से अपरिचित हो जायेंगे जिससे आपका व्यवहार टिकाऊ होगा। प्रकृति में विषमता तो स्पष्ट है। नियन्त्रण के द्वारा उसमें व्यावहारिक समता का विकास न होगा। भारतीय आत्मवाद की मानसिक समता ही उसे स्थायी बना सकेगी। यांत्रिक सभ्यता पुरानी होते ही ढीली होकर बेकार हो जाएगी। उसमें प्राण बनाए रखने के लिए व्यावहारिक समता के ढांचे या शरीर में, भारतीय आत्मिक साम्य की आवश्यकता कब मानव-समाज समझ लेगा, यही विचारने की बात है। मैं मानता हूं कि पश्चिम एक शरीर तैयार कर रहा है। किंतु उसमें प्राण देना पूर्व के अध्यात्मवादियों का काम है। यहीं पूर्व और पश्चिम का वास्तविक संगम होगा, जिससे मानवता का स्रोत प्रसन्न धार में बहा करेगा।

तब उस दिन की आशा में हम लोग निश्चेष्ट बैठे रहें?

नहीं; मानवता की कल्याण-कामना में लगना चाहिए। आप जितना कर सकें, करते चलिए। इसीलिए न, मैं जितनी ही भलाई देख पाता हूं, प्रसन्न होता हूं। आपकी प्रशंसा में मैंने जो शब्द कहे थे बनावटी नहीं थे। मैं हृदय से आपको आशीर्वाद देता हूं।

इंद्रदेव चुप थे, तितली दूर खड़ी थी। रामनाथ ने उसकी ओर देखकर कहा—क्यों बेटी, सरदी में क्यों खड़ी हो? पछ लो जो तम्हें पछना हो। संकोच किस बात का?

बापू, दूध नहीं है। आपके लिए क्या...?

अरे तो न सही; कौन एक रात में मैं मरा जाता हूं।

इंद्रदेव ने अभाव की इस तीव्रता में भी प्रसन्न रहते हुए रामनाथ को देखा। वह घबराकर उठ खड़े हुए। उनसे यह भी न कहते बन पड़ा कि मैं ही कुछ भेजता हूं। चले गए।

इंद्रदेव को छावनी में पहंचते-पहंचते बहत रात हो गई। वह आंगन से धीरे-धीरे कमरे की ओर बढ़ रहे थे। उनके कमरे में लैम्प जल रहा था। हाथ में कुछ लिये हुए मलिया कमरे के भीतर जा रही थी। इंद्रदेव खम्भे की छाया में खड़े रह गए। मलिया भीतर पहुंची। दो मिनट बाद ही वह झनझनाती हुई बाहर निकल आई। वह अपनी विवशता पर केवल रो सकती थी, किंतु श्यामलाल का मदिरा-जड़ित कंठ अट्टहास कर उठा; और साथ-ही साथ अनवरी की डांट सुनाई पड़ी हरामजादी, झूठमूठ चिल्लाती है। सारा पान भी गिरा दिया और...

इंद्रदेव अभी शैला की बात सुन आए थे। यहां आते ही उन्होंने यह भी देखा। उनके रोम-रोम में क्रोध की ज्वाला निकलने लगी। उनकी इच्छा हुई कि श्यामलाल को उसकी अशिष्टता का, ससुराल में यथेष्ट अधिकार भोगने का फल दो बूंसे लगाकर दे दें। किंतु मां और माधुरी! ओह? जिनकी दृष्टि में इंद्रदेव से बढ़कर आवारा और गया-बीता दूसरा कोई नहीं।

वह लौट पड़े। उनके लिए एक क्षण भी वहां रुकना असह्य था। न जाने क्या हो जाए। मोटरखाने में आकर उन्होंने ड्राइवर से कहा—जल्दी चलो।

बेचारे ने यह भी न पूछा कि 'कहां'? मोटर हॉर्न देती हुई चल पड़ी!