तितली/3.3

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तितली - उपन्यास - जयशंकर प्रसाद  (1934) 
द्वारा जयशंकर प्रसाद

[ ९१ ]

3.

धामपुर में सन्नाटा हो गया। जमींदार की छावनी सूनी थी। बनजरिया में बाबाजी नहीं। नील-कोठी पर शैला की छाया नहीं। उधर शेरकोट के खंडहर में राजकुमारी अपने दुर्बल अभिमान में एंटी जा रही थी। उसका हृदय काल्पनिक सुखों का स्वप्न देखकर चंचल हो गया था। सुखदेव चौबे ने अकालजलद की तरह उसके संयम के दिन को मलिन कर दिया था। वह अब ढलते हुए यौवन को रोके रखने की चेष्टा में व्यस्त रहती है।

उसकी झोंपड़ी में प्रशाधन की सामग्री भी दिखाई पड़ने लगी। कहीं छोटा-सा दर्पण, तो कहीं तेल की शीशी। वह धीरे-धीरे चिकने पथ पर फिसल रही थी। लोग क्या कहेंगे, इस पर उसका ध्यान बहुत कम जाता। कभी-कभी अपनी मर्यादा के खोये हुए गौरव की क्षीण प्रतिध्वनि उसे सुनाई पड़ती; पर वह प्रत्यक्ष सुख की आशा को—जिसे जीवन में कभी प्राप्त [ ९२ ]न कर सकी थी छोड़ने में असमर्थ थी।

मधुबन भी तो अब वहां नहीं आता। उस दिन ब्याह में राजकुमारी का वह विरोध उसे बहुत ही खला। उसे धीरे-धीरे राजकुमारी के चरित्र में संदेह भी हो चला था। किंतु उसकी वही दशा थी, जैसे कोई मनुष्य भय से आंख मूंद लेता है। वह नहीं चाहता था कि अपने संदेह की परीक्षा करके कठोर सत्य का नग्न रूप देखे।

मधुबन को नील-कोठी का काम करना पड़ता। वहां से उसको कुछ रुपये मिलते थे। इसी बहाने को वह सब लोगों से कह देता कि उसे शेरकोट आने-जाने में नौकरी के लिए असुविधा थी। इसीलिए बनजरिया में रोटी खाता था। राजकुमारी की खीझ और भी बढ़ गई थी। यूं तो मधुबन पहले ही कुछ नहीं देता था। राजकुमारी अपने बुद्धि-बल और प्रबंधकुशलता से किसी-न-किसी तरह रोटी बनाकर खा-खिला लेती थी। पर जब मधुबन को कछ मिलने लगा. तब उसमें से कछ मिलने की आशा करना उसके लिए स्वाभाविक था। किंतु वह नहीं चाहती थी कि वास्तव में उसे मधुबन कुछ दिया करे। हां, वह तो यह भी चाहती थी, मधुबन इसके लिए फिर शेरकोट में न आने लगे; और इससे नवजात विरोध का पौधा और भी बढ़ेगा। विरोध उसका अभीष्ट था।

संध्या होने में भी विलंब था। राजकुमारी अपने बालों में कंघी कर चुकी थी। उसने दर्पण उठाकर अपना मुंह देखा। एक छोटी-सी बिंदी लगाने के लिए उसका मन ललच उठा। रोली, कुमकुम, सिंदूर वह नहीं लगा सकती, तब? उसने नियम और धर्म की रूढ़ि बचाकर काम निकाल लेना चाहा। कत्थे और चूने को मिलाकर उसने बिंदी लगा ली। फिर से दर्पण देखा। वह अपने ऊपर रीझ रही थी। हां, उसमें वह शक्ति आ गई थी कि पुरुष एक बार उसकी ओर देखता। फिर चाहे नाक चढ़ाकर मुंह फिरा लेता। यह तो उनकी विशेष मनोवत्ति है। परुष. समाज में वही नहीं चाहता. जिसके लिए उसी का मन छिपेछिपे प्रायः विद्रोह करता रहता है। वह चाहता है, स्त्रियां सुंदर हों, अपने को सजाकर निकलें और हम लोग देखकर उनकी आलोचना करें। वेश-भूषा के नये-नये ढंग निकालता है। फिर उनके लिए नियम बनाता हैं पर जो सुंदर होने की चेष्टा करती हो, उसे अपना अधिकार प्रमाणित करना होगा।

राजो ने यह अधिकार खो दिया था। वह बिंदी लगाकर पंडित दीनानाथ की लड़की के ब्याह में नहीं जा सकती थी। दुःख से उसने बिंदी मिटाकर चादर ओढ़ ली। बुधिया, सुखिया और कल्लो उसके लिए कब से खड़ी थीं। राजकुमारी को देखकर वह सब-की-सब हंस पड़ी।

क्या है रे?—अपने रूप की अभ्यर्थना समझते हुए भी राजकुमारी ने उनकी हंसी का अर्थ समझना चाहा। अपनी किसी भी वस्तु की प्रशंसा कराने की साध बड़ी मीठी होती है न? चाहे उसका मूल्य कुछ हो। बुधिया ने कहा—चलो मालकिन! बारात आ गई होगी!

जैसे तेरा ही कन्यादान होने वाला है। इतनी जल्दी।—कहकर राजकुमारी घर में ताला लगाकर निकल गई। कुछ ही दूर चलते-चलते और भी कितनी ही स्त्रियां इन लोगों के झुंड में मिल गईं। अब यह ग्रामीण स्त्रियों का दल हंसते-हंसते परस्पर परिहास में विस्मृत, दीनानाथ के घर की ओर चला।

अन्न को पका देने वाली पश्चिमी पवन सर्राटे से चल रही थी। जौ-गेहूं के कुछ-कुछ पीले बाल उसकी झोंक में लोट-पोट हो रहे थे। वह फागुन की हवा मन में नई उमंग बढ़ाने [ ९३ ] वाली थी, सुख-स्पर्श थी। कुतूहल से भरी ग्राम-वधुएं, एक-दूसरे की उमंग आलोचना में हंसी करती हुई, अपने रंग-बिरंगे वस्त्रों में ठीक-ठीक शस्य-श्यामल खेतों की तरह तरंगायित और चंचल हो रही थीं। वह जंगली पवन वस्त्रों से उलझती थी। युवतियां उसे समेटती हुईं, अनेक प्रकार से अपने अंगों को मरोर लेती थीं। गांव की सीमा में निर्जनता थी। उन्हें मनमानी बातचीत करने के लिए स्वतंत्रता थी। पीली-पीली धूप, तीसी और सरसों के फूलों पर पड़ रही थी। वसंत की व्यापक कला से प्रकृति सजीव हो उठी थी। सिंचाई से मिट्टी की सोंधी महक, वनस्पतियों की हरियाली की और फूलों की गंध उस वातावरण में उत्तेजना-भरी मादकता ढाल रही थी।

राजकुमारी इस टोली की प्रमुख थी। वह पहले ही पहल इस तरह ब्याह के निमंत्रण में चली थी! संयम का जीवन जैसे कारागार के बाहर आकर संसार की वास्तविक विचित्रता से और अनुभूति से परिचित हो रहा था।

राजकुमारी को दूर से दीनानाथ के घर की भीड़-भाड़ दिखाई पड़ी। उसकी संगिनियों का दल भी कम न था। उसने देखा कि राग-विरागपूर्ण जन-कोलाहल में दिन और रात की संधि, अपना दुःख-सुख मिलाकर एक तृप्ति-भरी उलझन से संसार को आदोलित कर रही है। राजकुमारी का मन उसी में मिल जाने के लिए व्यग्र हो उठा।

जब वह पंडितजी के घर पर पहुंची तो बारात की अगवानी में गति गाने वाली कुलकामिनियों के झुंड ने अपनी प्रसन्न चेष्टा, चपल संकेतों और खिलखिलाहट-भरी हंसी से उसका स्वागत किया। राजकुमारी ने देखा कि जीवन का सत्य है, प्रसन्नता। वह प्रसन्नता और आनंद की लहरों में निमग्न हो गई।

तहसीलदार बारात का प्रबंध कर रहे थे। इसलिए गोधूलि में जब बारात पहुंची तो वही सबके आगे था। इधर दीनानाथ के पक्ष से चौबे अगवानी कर रहे थे। द्वार पूजा होकर बारात वापस जनवासे लौट गई। वहां मैना का नाच होने लगा।

इधर पंडितजी के घर पर स्त्रियों का कोलाहल शांत हो रहा था। बहुत-सी तो लौटने लगी थीं। पर राजकुमारी का दल अभी जमा था। गाना-बजाना चल रहा था। लग्न समीप था, इसलिए ब्याह देखकर ही इन लोगों को जाने की इच्छा थी।

तितली, जो भीड़ में दूसरी ओर बैठी थी, उठकर आंगन की ओर आई। वह जाने के लिए छुट्टी मांग चुकी थी। छपे हुए किनारे की सादी खादी की धोती। हाथों में दो चूड़ियां और सुनहरे कड़े। माथे में सौभाग्य सिंदूर। चादर की आवश्यकता नहीं। अपनी सलज्ज गरिमा को ओढ़े हुए, वहउन स्त्रियों की रानी-सी दिखलाई पड़ती थी। पंडित की बड़ी लड़की जमुना शहर में ब्याही थी। उसने तितली को जाते देखा। देहात में यह ढंग! वह चकित हो रही थी। मित्रता के लिए चंचल होकर वह सामने आकर खड़ी हो गई।

वाह बहन! तुम चली जाती हो। यह नहीं होगा। अभी नहीं जाने दूंगी। चलो, बैठो। ब्याह देखकर जाना।

वह गाने वाले झुंड की ओर पकड़कर उसे ले चली। राजकुमारी ने तितली को देखा और तितली ने राजकुमारी को। तितली उसके पास पहुंची। आँचल का कोना दोनों हाथों में पकड़कर गांव की चाल से वह पैर छूने लगी। राजकुमारी अपने रोष की ज्वाला में धधकती हुई मुंह फेरकर बैठ गई। [ ९४ ] जमुना को राजो के इस व्यवहार पर क्रोध आ गया। वह तो तितली की मित्र थी। फिर दबने वाली भी नहीं। उसने कहा—बेचारी तो पैर छू रही है और तुम अपना मुंह घुमा लेती हो, यह क्या है। तुम तो तितली की ननद हो न!

मैं कौन हूं? यह सिर चढ़ी तो स्वयं ही दूल्हा खोजकर आई है। भला इस दिखावट की आवभगत से क्या काम?

राजकुमारी का स्वर बड़ा तीव्र और रूखा था।

अब तो आ गई हूं जीजी—तितली ने हंसकर कहा।

कुछ युवतियों ने उसकी बात पर हंस दिया। परंतु एक दल ऐसा भी था, जो तितली से उग्र प्रतिवाद की आशा रखता था। गाना-बजाना बंद हो गया। तितली और राजकुमारी का द्वंद्व देखने का लोभ सबको उस ओर आकर्षित किए था।

एक ने कहा—सच तो कहती है, अब तो वह तुम्हारे घर आ गई है। तुमको अब वह बातें भुला देनी चाहिए।

मैं कर क्या रही हूं। मैं तो कुछ बोलती भी नहीं। तुम लोग झूठ ही मेरा सिर खा रही हो। क्या मैं तो चली जाऊं?—कहती हुई राजकुमारी उठ खड़ी हुई। जमुना ने उसका हाथ पकड़कर बिठाया, और तितली भौंचक-सी अपने अपराधों को खोजने लगी। उसने फिर साहस एकत्र किया और पूछा जीजी, मेरा अपराध क्षमा न करोगी?

मै कौन होती हूं क्षमा करनेवाली? तुमको हाथ जोड़ती हूं, तुम्हारे पैरों पड़ती हूं, तुम राजरानी हो, हम लोगों पर दया रखो।

राजकुमारी और कुछ कहना ही चाहती थी कि किसी प्रौढ़ा ने हंसकर कहा—बेचारी के भाई को जादू-विद्या से इस कल की छोकरी ने अपने बस में कर लिया है। उसे दुख न हो?

राजकुमारी ने देखा कि वह बनाई जा रही है, फिर भी तितली की ही विजय रही। वह जल उठी। चुप होकर धीरे-से खिसक जाने का अवसर देखने लगी—पंडित दीनानाथ कुछ क्रोध से भरे हुए घर में आए और अपनी स्त्री से कहने लगे—मैं मना करता था कि इन शहरवालों के यहां एक ब्याह करके देख चुकी हो, अब यह ब्याह किसी देहात में ही करूंगा। पर तुम मानो तब तो। मांग-पर-मांग आ रही है। अनार-शरबत चाहिए। ले आओ, है घर में? इस जाड़े में भी यह ढकोसला! मालूम होता है, जेठ-वैसाख की गरमी से तप रहे हैं!

जमुना की मां धीरे-से अपनी कोठरी में गई और बोतल लिये हुए बाहर आई। उसने कहा—फिर समधी हैं, अनार-शरबत ही तो मांगते हैं। कुछ तुमसे शराब तो मांगते नहीं। घबराने की क्या बात है? सुखदेव चौबे से कह दो, जाकर दे आवें और समझा दें कि हम लोग देहाती हैं; पंडित जी को सागसत्तू ही दे सकते हैं, ऐसी वस्तु न मांगें जो यहां न मिल सकती हो।

जमुना की मां की एक बहन बड़ी हंसोड़ थी। उसने देखा कि अच्छा अवसरहै। वह चिल्ला उठी-छिपकली।

पंडित जी कहां-कहते हुए उछल पड़े। सब स्त्रियां हंस पड़ीं। जमुना की मां ने कहा—छिपकली के नाम पर उछलते हो, यह सुनकर समधी तो तुम्हारे ऊपर सैकड़ों छिपकलियां उछाल देंगे।

पंडित जी ने कहा—तुम नहीं जानती हो, इसके गिरने से शुभ और अशुभ देखा जाता [ ९५ ]है। यह है बड़ी भयानक वस्तु। इसका नाम है 'विषतूलिका'। सामने गिर पड़े तो भी दुःख देती है।

पंडित जी जब 'विषतूलिका' का उच्चारण अपने होंठों को बना कर बड़ी गंभीरता से कर रहे थे और सब स्त्रियां हंस रही थीं, तब राजकुमारी ने तितली की ओर देखकर मन-हीमन घृणा से कहा—विषतूलिका। उस समय उसकी मुखाकृति बड़ी डरावनी हो गई थी। परंतु सुखदेव चौबे को सामने देखते ही उसका हृदय लहलहा गया। रधिया को न जाने क्या सूझा, ढोल बजाती हुई सुखदेव के नाम के साथ कुछ जोड़कर गाने लगी। सब उस परिहास में सहयोग करने लगीं। तितली उठकर मर्माहत-सी जमुना के पास चली गई।

रात हो गई थी। राजकुमारी भी छुट्टी मांगकर अपनी बुधिया, कल्लो को लेकर चली। राह में ही जनवासा पड़ता था। रावटियों के बाहर बड़े-से-बड़े चंदोवे के नीचे मैना गा रही थी-

'लगे नैन बालेपन से'

राजकुमारी कुछ काल के लिए रुक गई। दुधिया ने कहा—चलो, न मालकिन! दूर से खड़ी होकर हम लोग भी नाच देख लें। नहीं रे! कोई देख लेगा।

कौन देखता है, उधर अंधेरे में बहुत-सी स्त्रियां हैं। वहीं पीछे हम लोग भी बूंघट खींचकर खड़ी हो जाएंगी। कौन पहचानेगा?

राजकुमारी के मन की बात थी। वह मान गई। वह भी जाकर आम के वृक्ष की घनी छाया में छिपकर खड़ी हो गई। बुधिया और कल्लो तो ढीठ थीं, आगे बढ़ गईं। उधर गांव की बहुत-सी स्त्रियां और लड़के बैठे थे। वे सब जाकर उन्हीं में मिल गईं। पर राजकुमारी का साहस न हुआ। आम की मंजरी की मीठी मतवाली महक उसके मस्तिष्क को बेचैन करने लगी।

मैना उन्मत्त होकर पंचम स्वर में गा रही थी। उसका नृत्य अद्भुत था। सब लोग चित्रखिंचे-से देख रहे थे। कहीं कोई भी दूसरा शब्द नहीं सुनाई पड़ता था। उसके मधुर नूपुर की झनकार उस वसंत की रात को गुंजा रही थी।

राजकुमारी ने विव्हल होकर कहा—बालेपन से; साथ ही एक दबी सांस उसके मुंह से निकल गई। वह अपनी विकलता से चंचल होकर जल्दी से अपनी कोठरी में पहुंचकर किवाड़ बंद कर लेने के लिए घबरा उठी। पर जाए तो कैसे। बुधिया और कल्लो तो भीड़ में थीं। वहां जाकर उन्हें बुलाना उसे जंचता न था। उसने मन-ही-मन सोचा-कौन दूर शेरकोट है। मैं क्या अकेली नहीं जा सकती। कब तक यहीं खड़ी रहूंगी?—वह लौट पड़ी।

अंधकार का आश्रय लेकर वह शेरकोट की ओर बढ़ने लगी। उधर से एक बाहा पड़ता था। उसे लांघने के लिए वह क्षण-भर के लिए रुकी थी कि पीछे से किसी ने कहा—कौन है?

भय से राजकुमारी के रोंए खड़े हो गए। परंतु अपनी स्वाभाविक तेजस्विता एकत्र करके वह लौट पड़ी। उसने देखा, और कोई नहीं, यह तो सुखदेव चौबे हैं।

गांव की सीमा में खलिहानों पर से किसानों के गति सुनाई पड़ रहे थे। रसीली चांदनी की आर्द्रता से मंथर पवन अपनी लहरों से राजकुमारी के शरीर में रोमांच उत्पन्न करने लगा था। सुखदेव ज्ञानविहीन मूक पशु की तरह, उस आम की अंधेरी छाया में राजकुमारी के [ ९६ ]परवश शरीर के आलिंगन के लिए, चंचल हो रहा था। राजकुमारी की गई हुई चेतना लौट आई। अपनी असहायता में उसका नारीत्व जगकर गरज उठा। अपने को उसने छुड़ाते हुए कहा—सुखदेव! मुझे सब तरह से मत लूटो। मेरा मानसिक पतन हो चुका है। मैं किसी ओर की न रही। तो तुम्हारी भी न हो सकूँगी। मुझे घर पहुंचा दो।

सुखदेव अनुनय करने लगा। रात और भीगने लगी। ज्यों-ज्यों विलम्ब हो रहा था, राजकुमारी का मन खीझने लगा। उसने डांटकर कहा—चलो घर पर, मैं यहां नहीं खड़ी रह सकती।

विवश होकर दोनों ही शेरकोट की ओर चले।

उधर बारात में नाच-गाना, खाना-पीना चल रहा था। सब लोग जब आनन्द-विनोद में मस्त हो रहे थे, तब एक भयानक दुर्घटना हुई। एक हाथी, जो मस्त हो रहा था, अपने पीलवान को पटककर चिंघाड़ने लगा। उधर साटे-बरदार, बरछी वाले दौड़े, पर चंदोवे के नीचे तो भगदड़ मच गई। हाथी सचमुच उधर ही आ रहा था। मधुबन भी इसी गड़बड़ी में अभी खड़ा होकर कुछ सोच ही रहा था, कि उसने देखा, मैना अकेली किंकर्तव्यविमूढ़-सी हाथी के सूंड की पहुंच ही के भीतर खड़ी थी। बिजली की तरह मधुबन झपटा। मैना को गोद में उठाकर दैत्य की तरह सरपट भागने लगा। मैना बेसुध थी।

उपद्रव की सीमा से दर निकल आने पर मधबन को भी चैतन्य हआ। उसने देखा. सामने शेरकोट है। आज कितने दिनों पर वह अपने घर की ओर आया था। अब उसे अपनी विचित्र परिस्थिति का ज्ञान हुआ। वह मैना को बचा ले आया, पर इस रात में उसे रखे कहां। उसने मन को समझाते हुए कहा—मैं अपना कर्त्तव्य कर रहा हूं। इस समय राजो को बुलाकर इस मूर्छित स्त्री को उसकी रक्षा में छोड़ दूं। फिर सवेरे देखा जाएगा।

मैना मूर्छित थी। उसे लिये हुए धीरे-धीरे वह शेरकोट के खंडहर में घुसा। अभी वह किवाड़ के पास नहीं पहुंचा था कि उसे सुखदेव का स्वर सुनाई पड़ा—खोल दो राजो! मैं दो बात करके चला जाऊंगा। तुमको मेरी सौगंध।

मधुबन के चारों ओर चिंगारियां नाचने लगी। उसने मैना को धीरे-से दालान की टूटी चौकी पर सुलाकर सुखदेव को ललकारा—क्यों चौबे की दुम। यह क्या?

सुखदेव ने घूमकर कहा—मधुबन! बे, ते मत करो!

साथ ही मधुबन के बलवान हाथ का भरपूर थप्पड़ मुंह पर पड़ा नीच कहीं का। रात को दूसरों के घर की कुंडियां खटखटाता है और धन्नासेठी भी बघारता है। पाजी!

अभी सुखदेव संभाल भी नहीं पाया था कि दनादन लात-घूसे पड़ने लगे। सुखदेव चिल्लाने लगा। मैना सचेत होकर यह व्यवहार देखने लगी। उधर से राजो भी किवाड़ घोलकर बाहर निकल आई! मधुबन का हाथ पकड़कर मैना ने कहा-बस करो मधुबन बाबू!

राजो तो सन्न थी। सुखदेव ने सांस ली। उसकी अकड़ के बंधन टूट चुके थे।

मैना ने कहा हम लोग यहीं रात बिता लेंगे। अभी न जाने हाथी पकड़ा गया कि नहीं। उधर जाना तो प्राण देना है।

सुखदेव चतुरता से चूकने वाला न था। उसने उखड़े हुए शब्दों में अपनी सफाई देते हुए कहा—मैं क्या जानता था कि हाथी से प्राण बचाने जाकर बाघ के मुंह में चला गया हूं। [ ९७ ]मैना को हंसी आ गई। पर मधुबन का क्रोध शांत नहीं हुआ था। वह राजकुमारी की ओर उस अंधकार में घूरने लगा था। राजो का चुप रहना उस अपराध में प्रमाण बन गया था। परंतु मधुबन उसे अधिक खोलने के लिए प्रस्तुत न था।

मैना एक वेश्या थी। उसके सामने कुलीनता का आडम्बर रखने वाले घर का यह भंडाफोड़। मधुबन चुप था। राजकुमारी ने कहा—अच्छा, भीतर चलो। जो किया सो अच्छा किया। यह कौन है?

अब मधुबन को जैसे थप्पड़ लगा।

मैना का प्राण बचाकर उसने अच्छा ही किया था। पर थी तो वह वेश्या! उतनी रात को उसे उठाकर ले भागना; फिर उसे अपने घर ले आना! गांवभर में लोग क्या कहेंगे! और तब तो जो होगा, देखा जाएगा, इस समय राजकुमारी को क्या उत्तर दे। उसका संकोच उसके साहस को चबाने लगा।

मधुबन की परिस्थिति मैना समझ गई। उसने कहा—मैं यहां नाचने आई हूं। हाथी बिगड़कर मुझ पर दौड़ा। यदि मधुबन बाबू वहां न आते तो मैं मर चुकी थी। अब रात-भर मुझे कहीं पड़े रहने के लिए जगह दीजिए, सवेरे ही चली जाऊंगी।

राजकुमारी को समझौता करना था। दूसरा अवसर होता तो वह कभी न ऐसा करती। उसने कहा—अच्छा आओ मैना—उसके साथ भीतर चलते हुए मधुबन का हाथ पकड़कर मैना बोली—सुखदेव को वहीं पड़ा रहने दीजिए। रात है, अभी न जाने हाथी कुचल दे तो बेचारे की जान चली जाएगी।

मधुबन कुछ न बोला। वह भीतर चला गया।

सुखदेव सवेरा होने के पहले ही धीरे-धीरे उठकर बनजरिया की ओर चला। उसका मन विषाक्त हो रहा था। वह राजकुमारी पर क्रोध से भुन रहा था। मधुबन को भी चबाना चाहता था। परंतु मधुबन के थप्पड़ों को भूलना सहज बात नहीं। वह बल से तो कुछ नहीं कर सकता था, तब कुछ छल से काम लेने की उसे सूझी। अपनी बदनामी भी बचानी थी।

बनजरिया के ऊपर अरुणोदय की लाली अभी नहीं आई थी। मलिया झाडू लगा रही थी। तितली ने जागकर सवेरा किया था। मधुबन की प्रतीक्षा में उसे नींद नहीं आई थी। वह अपनी संपूर्ण चेतना से उत्सुक-सी टहल रही थी। सामने से चौबेजी आते हुए दिखाई पड़े। वह खड़ी हो गई। चौबे ने पूछा–मधुबन बाबू अभी तो नहीं आए न?

नहीं तो।

रात को उन्होंने अद्भुत साहस किया। हाथी बिगड़ा तो इस फुर्ती से मैना को बचाकर ले भागे कि लोग दंग रह गए। दोनों ही का पता नहीं। लोग खोज रहे हैं। शेरकोट गए होंगे।

तितली तो अनमनी हो रही थी। चौबे की उखड़ी हई गोल-मटोल बातें सनकर वह और भी उद्विग्न हो गई। उसने चौबे से फिर कुछ न पूछा। चौबेजी अधिक कहने की आवश्यकता न देखकर अपनी राह लगे। तितली को इस संवाद के कलंक की कालिमा बिखरती जान पड़ी। वह सोचने लगी-मैना! कई बार उसका नाम सुन चुकी हूं। वही न! जिसने कलकत्ते वाले पहलवान को पछाड़ने पर उनको बौर दिया था। तो...उसको लेकर भागे। बरा क्या किया। मर जाती तो? अच्छा तो फिर यहां नहीं ले आए? शेरकोट राजकुमारी के यहां! जो मुझसे उसको छीनने के लिए तैयार! मुझको फूटी आंखों भी नहीं [ ९८ ]देखना चाहती। वहीं रात बिताने का कारण?

वह अपने को न संभाल सकी? रामनाथ की तेजस्विता का पाठ भूली न थी। उसने निश्चय किया कि आज शेरकोट चलूंगी, वह भी तो मेरा ही घर है, अभी चलूंगी। मलिया से कहा—चल तो मेरे साथ।

तितली उसी वेश में मधुबन की प्रतीक्षा कर रही थी जिसमें दीनानाथ के घर गई थी। वहां, आंखें जगने से लाल हो रही थीं। दोनों शेरकोट की ओर पग बढ़ाती हुई चलीं।

ग्लानि और चिंता से मधुबन को भी देर तक निद्रा नहीं आई थी। पिछली रात में जब वह सोने लगा तो फिर उसकी आंख ही नहीं खुलती थी। सूर्य की किरणों से चौंककर जब झुंझलाते हुए मधुबन ने आंखें खोली तो सामने तितली खड़ी थी। घूमकर देखता है तो मैना भी बैठी मुस्कुरा रही है। और राजो वह जैसे लज्जा-संकोच से भरी हुई, परिहास-चंचल अधरों में अपनी वाणी को पी रही है। तितली को देखते ही उससे न रहा गया। उसका हाथ पकड़कर वह अपनी कोठरी में ले जाते हुए बोली—मैना! आज मेरे मधुबन की बहू अपनी ससुराल में आई है। तुम्हीं कुछ मंगल गा दो। बेचारी मुझसे रूठकर यहां आती ही न थी।

मधुबन अवाक् था। मैना समझ गई। उसने गाने के लिए मुंह खोला ही था कि मधुबन की तीखी दृष्टि उस पर पड़ी। पर वह कब मानने वाली। उसने कहा—बाबूजी, जाइए, मुंह धो आइए। मैं आपसे डरने वाली नहीं। ऐसी सोने-सी बह देखकर गाने का मन न करे. वह कोई दूसरी होगी। भला मुझे यह अवसर तो मिला।

मधुबन ने तितली से पूछा भी नहीं कि तुम कैसे यहां आई हो। उसने बाहर की राह ली। तितली इस आकस्मिक मेल से चकित-सी हो रही थी। उस दिन राजो के घर धूम-धाम से खाने-पीने का प्रबंध हुआ। मधुबन जब खाने बैठा तो मैना गाने लगी। तितली की आंखों में संदेह की छाया न थी। राजो के मुंह पर स्पष्टता का आलोक था। और मधुबन! वह कभी शेरकोट को देखता, कभी तितली को।

मैना रामकलेवा के चुने हुए गति गा रहा थी। मलिया अपने विलक्षण स्वर में उसका साथ दे रही थी। मधुबन आज न जाने क्यों बहुत प्रसन्न हो रहा था।