तितली/3.4

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तितली - उपन्यास - जयशंकर प्रसाद  (1934) 
द्वारा जयशंकर प्रसाद

[ ९८ ]

4.

जब से श्यालदुलारी शहर चली गई; धामपुर में तहसीलदार का एकाधिपत्य था। धामपुर के कई गांवों में पाला ने खेती चौपट कर दी थी। किसान व्याकुल हो उठे थे। तहसीलदार की कड़ाई और भी बढ़ गई थी। जिस दिन रामजस का भाई पथ्य के अभाव से मर गया और उसकी मां भी पुत्रशोक में पागल हो रही थी, उसी दिन जमींदार की कुर्की पहुंची। पाला से जो कुछ बचा था, वह जमींदार के पेट में चला गया। खड़ी फसल कुर्क हो गई। महंगू भी इस ताक में बैठा ही था। उसका कुछ रुपया बाकी था। आज-कल करते हुए बहुत दिन बीत गए। रामजस के बैलों पर उसकी डीठ लगी थी। रामजस निर्विकार भाव से जैसे प्रतीक्षा कर रहा था कि किसी तरह सब कुछ लेकर संसार मुझे छोड़ दे और मैं भी माता के मर जाने के बाद [ ९९ ]इस गांव को छोड़ दूं। दूसरे ही दिन उसकी मां भी चल बसी। मधुबन ने उसे बहुत समझाया कि ऐसा क्यों करते हो, मेम साहब को आने दो, कोई-न-कोई प्रबंध हो जाएगा; परंतु उसके मन में उस जीवन से तीव्र उपेक्षा हो गई थी। अब वह गांव में रहना नहीं चाहता। मधुबन के यहां कितने दिन तक रहेगा। उसे तो कलकत्ता जाने की धुन लगी थी।

उस दिन जब बारात में हाथी बिगड़ा और मैना को लेकर मधुबन भागा तो गांव-भर में यह चर्चा हो रही थी कि मधुबन ने बड़ी वीरता का कार्य किया। परंतु उसके शत्रु तहसीलदार और चौबेजी ने यह प्रवाद फैलाया कि 'मधुबन' बाबा रामनाथ के सुधारक दल का स्तंभ है। उसी ने ऐसा कोई काम किया कि हाथी बिगड़ गया, और यह रंग-भंग हुआ! क्योंकि वे लोग बारात में नाच-रंग के विरोधी थे।'

महंगू के अलाव पर गांव पर की आलोचना होती थी। रामजस को बेकारी में दूसरी जगह बैठने की कहां थी। महंगू ने खांसकर कहा—मधुबन बाबू को ऐसा नहीं करना चाहिए था। भला ब्याह-बारात में किसी मंगल काम में, ऐसा गड़बड़ करा देना चाहिए।

झूठे हैं, जो लोग ऐसी बात कहते हैं महतो! रामजस ने उत्तेजित होकर कहा।

और यह भी झूठ है कि रात-भर मैना को अपने घर ले जाकर रखा। भाई, अभी लड़के हो, तुम भी तो उसी दल के हो न! देह में जब बल उमड़ता है तब सब लोग ऐसा कर बैठते हैं। फिर भी लोक-लाज तो कोई चीज है। मधबन अभी और क्या-क्या करते हैं, देखना; मेरा भी नाम महंगू है।

तुम बूढ़े हो गए, पर समझ से तो कोसों दूर भागते हो। मधुबन के ऐसा कोई हो भी। देखो तो वह लड़कों को पढ़ाता है, नौकरी करता है, खेती-बाड़ी संभालता है, अपने अकेले दम पर कितने काम करता है। उसने मैना का प्राण बचा दिया तो यह भी पाप किया?

तुम्हारे जस लाग उसकसाथ नहाग तो दूसर कान हाग। उसा का बात सुनत-सुनत अपना सब कुछ गंवा दिया, अभी उसकी बड़ाई करने से मन नहीं भरता।

रामजस को कोड़ा-सा लगा। वह तमककर खड़ा हो गया। और कहने लगा—चार पैसे हो जाने से तुम अपने को बड़ा समझदार और भलामानुस समझने लगे हो। अभी उसी का खेत जोतते-जोतते गगरी में अनाज दिखाई देने लगा, उसी को भला-बुरा कहते हो। मैं चौपट हो गया तो अपने दुर्दैव से महंगू! मधुबन ने मेरा क्या बिगाड़ा। और तुम अपनी देखो।—कहता हुआ रामजस बिगड़कर वहां से चलता बना। वह तो बारात देखने के लिए ठहर गया था। आज ही उसका जाने का दिन निश्चित था। मधुबन से मिलना भी आवश्यक था। वह बनजरिया की ओर चला। उसके मन में इस कृतघ्न गांव के लिए घोर घृणा उत्तेजित हो रही थी। वह सोचता चला जा रहा था कि किस तरह महंगू को उसकी हेकड़ी का दंड देना चाहिए। कई बातें उसके मन में आईं। पर वह निश्चय न कर सका।

सामने मधुबन को आते देखकर वह जैसे चौंक उठा। मधुबन के मुंह पर गहरी चिंता की छाया थी। मधुबन ने पूछा—क्यों रामजस, कब जा रहे हो?

मैं तो आज ही जाने को था, परंतु अब कल सवेरे जाऊंगा, मधुबन भइया! एक बात तुमसे पूछू तो बुरा नहीं मानोगे?

बुरा मानकर कोई क्या कर लेता है रामजस! तुम पूछो!

भइया, तुमको क्या हो गया जो मैना को लेकर भागे? गांव-भर में इसकी बड़ी [ १०० ]बदनामी है। वह तो कहो कि हाथी ही बिगड़ा था नहीं तो इस पर परदा डालने के लिए कौन-सी बात कही जाती?

और हाथी को भी तो मैंने ही छेड़कर उत्तेजित कर दिया था। यह क्या तुम नहीं जानते?

लोग तो ऐसा भी कहते हैं।

तब फिर मैना के लिए क्या ऐसा नहीं किया जा सकता। जिन लोगों के पास रुपया है वे तो रुपया खर्च कर सकते हैं। और जिसके पास न हो तो वे क्या करें?

नहीं, यह बात मैं नहीं मानता। मेरी भाभी के पैर की धूल भी तो वह नहीं है।

तेरी भाभी भी यही बात मानती है।

तब यह बात किसने फैलायी है, जानते हो भइया, उसी पाजी महंगू ने।

तुम्हारी ही खाकर मोटा हुआ है, तुम्हारी ही बदनामी करता है! अपने अलाव पर बैठकर हुक्का हाथ में ले लेता है, तब मालूम पड़ता है कि नवान का नाती है। अभी उससे मेरी एक झपट हो गई है। भइया, मैंने सब गंवा दिया, अब तो मुझे यहां रहना नहीं है। कहो तो रात में उसको ठीक करके कलकत्ते खिसक जाऊं। किसको पता चलेगा कि किसने यह किया है।

नहीं-नहीं रामजस! उसके ऊपर तुम संदेह न करो। यह सत्य है कि उसके पास चार पैसा हो गया है। उसके पास साधन-बल और जनबल भी है। इसी से कुछ बहकी हुई बातें करने लगा है, वह मन का खोटा नहीं है! संपन्न होने से इस तरह का अभिमान आ जाते देर नहीं लगती। इस तरह की बात, जब तुम गांव छोड़कर परदेश जा रहे हो तब, न सोचनी चाहिए। न जाने किस अपराध के कारण तुमको यह दिन दिखाई पड़ा तब सचमुच तुम चलते-चलते अपने माथे कलंक का टीका न लो। मैं जानता हूं जो यह सब कर रहा है। पर मैं अभी उसका नाम न लूंगा।

बता दो भइया, मैं तो जा ही रहा हूं। उसको पाठ पढ़ाकर जाता तो मुझे खुशी होती। मेरा गांव छोड़ना सार्थक हो जाता। ठहरो भाई! हम लोगों के संबंध में लोगों की जब ऐसी धारणा हो रही है तो सोचसमझकर कछ कहना चाहिए। जिसकी दष्टता से यह सब हो रहा है उसके अपराध का परा प्रमाण मिले बिना दंड देना ठीक नहीं। परंतु रामजस, न कहने से पेट में हूक-सी उठ रही है। तुमसे कहूं; लज्जा मेरा गला दबा रही है।

कहते-कहते मधुबन रुककर सोचने लगा। उसका श्वास विषधर के फुफकार की तरह सुनाई पड़ रहा था। फिर उसने ठहरकर कहना आरंभ कर दिया-भाई, जब मैना के सामने यह बात खुल गई तो तुमसे कहने में क्या संकोच! सुनो, भगदड़ में जब मैं मैना को लेकर भागा तो मुझे ज्ञान न था कि मैं किधर जा रहा हूं। जा पहुंचा शेरकोट और वहां देखा कि भीतर से किवाड़ बंद है, बाहर सुखदेव चौबे खड़ा होकर कह रहा है, 'राजो, किवाड़ खोलो'। मेरा खून खौल उठा। मैना को छोड़कर मैंने उसे दो-चार हाथ जमाया ही था कि मैना ने रोक लिया और मैं तो उसकी हत्या ही कर बैठता; पर यही जानकर कि जब राजो के सा चौबे का कोई संबंध था तभी तो यह बात हुई, मैं रुक गया। तुम तो जानते हो कि मैं ब्याह के बाद शेरकोट गया ही नहीं: इधर यह सब क्या हो गया, मुझे मालूम नहीं। मेरा [ १०१ ]हृदय जला जा रहा है। मैं जानता हूं कि चौबे ही इसकी जड़ में है, पर क्या करूं, लोक-लाज और अपना कलंक मेरा गला घोट रहा है।

रामजस ने अपनी लाठी पटकते हुए कहा—ब्याह करके तुम कायर हो गए हो, यह नहीं कहते। स्त्री का मोह हो रहा है। सुखदेव को तो मैं उसी दिन समझ गया था कि बह पड़ा पाजी है, जब वह मां के मरने में ज्योनार देने के लिए बहुत-कुछ कह रहा था। उस नीच को मालूम था कि मेरा भाई पथ्य के लिए भूखों मर गया। और मां दरिद्रता की उस घोर पीड़ा और अभिमान के कारण पागल होकर मर गई। परंतु वह श्रद्धा के अवसर पर बड़ी-सी ज्योनार देने के लिए निर्लज्जता से हठ करता रहा। ऐसे ढोंगी को तो वहीं मार डालना चाहता था। पाजी जब मेरे खेत के लिए नीलामी की बोली बोलने आया था तब नहीं जानता था कि मेरे पास कुछ नहीं है। मुझे धर्म और परलोक का पाठ पढ़ाता था। मैं तो अब कलकत्ते नहीं जाता। देलं कौन मेरा खेत काटता है। मैं तो आज से प्रतिज्ञा करता हं कि बिना इसका सिर फोड़े नहीं जाता। पैसे के बल पर धर्म और सदाचार का अभिनय करना भुलवा दूंगा! मैंने जो कुछ पढ़ा-लिखा है, सब झूठा था। आज-कल क्या, सब युगों में लक्ष्मी का बोलबाला था। भगवान भी इसी के संकेतों पर नाचते हैं। मैं तुम्हारी इस झूठे पाप-पुण्य की दुहाई नहीं मानता।

तुम ठहरो रामजस! इस दरिद्रता का अनिवार्य कुफल लोग समझने लगे हैं, देखते नहीं हो, गांव में संगठन का काम चलाने के लिए मिस शैला कितना काम कर रही हैं। सबका सामूहिक रूप से कल्याण होने में विलम्ब है अवश्य, परंतु उसे अपनी उच्छृखलताओं से अधिक दूर करने से तो कुछ लाभ नहीं। मैं कायर हूं, डरपोक हूं, मुझे मोह है, यह सब तुम कह रहे हो केवल इसलिए कि मुझे भविष्य के कल्याण से आशा है। मैं धैर्य से उसकी प्रतीक्षा करने का पक्षपाती हूं।

मैं यह सब मानता। पेट के प्रश्न को सामने रखकर शक्ति-संपन्न पाखंडी लोग अभावपीड़ितों को सब तरह के नाच नचा रहे हैं। मनुष्य को अपनी वास्तविकता का जैसे ज्ञान नहीं रह गया है। तब यह सब बातें सुनने के योग्य नहीं रह जातीं। प्रभुत्व और धन के बल पर कौन-कौन से अपराध नहीं हो रहे हैं। तब उन्हीं लोगों के अपराध-अपराध चिल्लाने का स्वर दूसरे गांव में भटक कर चले आने वाले नए कुत्ते के पीछे गांव के कुत्तों का-सा है। वह सब मैं सुनते-सुनते ऊब गया हूं मधुबन भइया! मधुबन ने गंभीर होकर कहा—तुम्हारे खेत की फसल नीलाम हो चुकी है। अब तुम उसे छुओगे तो मुकदमा चलेगा। चलो तुम बनजरिया में रहो। फिर देखा जाएगा।

होठ बिचकाकर रामजस ने जैसे उसकी बातों को उड़ाते हुए हंस दिया। फिर ठहरकर उसने कहा—अच्छा आज तो मैं अपने खेत का हाबुस भूनकर खाऊंगा। फिर कल, यहां रहना होगा तो बनजरिया में ही आकर रहूंगा।

रामजस चला गया, परंतु मधुबन के हृदय पर एक भारी बोझ डालकर। वह बाबा रामनाथ की शिक्षा स्मरण करने लगा—मनुष्य के भीतर जो कुछ वास्तविकता है, उसे छिपाने के लिए जब वह सभ्यता और शिष्टाचार का चोला पहनता है तब उसे संभालने के लिए व्यस्त होकर कभी-कभी अपनी आखों में ही उसको तुच्छ बनना पड़ता है।

मधुबन के सामने ऐसी ही परिस्थिति थी। रामनाथ के महत्त्व का बोझ अब उसी के [ १०२ ]सिर पर आ पड़ा था। वह बनावटी बड़प्पन से पीड़ित हो रहा था। उसके मन में साफ-साफ झलकने लगा था कि रामनाथ के लिए जो बात अच्छी थी वही उसके लिए भी सोलह आने ठीक उतरे, यह असंभव है।

जीवन तो विचित्रता और कौतूहल से भरा होता है। यही उसकी सार्थकता है। उस छोटी-सी गुड़िया ने मुझे पालतू सुग्गा बनाकर अपने पिंजड़े में रख छोड़ा है। मनुष्य का जीवन, उसका शरीर और मन एक कच्चे सूत में बांधकर लटका देने का खेल करना चाहती है, यही खेल बराबर नहीं चल सकता। मैना को लेकर जो कांड अकस्मात् खड़ा हो गया है उसकी वजह से वह आज-कल दिन-रात सोचती है। रूठी हुई शांत-सी, किंतु भीतर-भीतर जैसे वह उबल पड़ने की दशा। बोलती है तो जैसे वाणी हृदय का स्पर्श करने नहीं आती। मैं अपनी सफाई देता हूं, उसकी गांठ खोलना चाहता हूं, किंतु वह तो जैसे भयभीत और चौकन्नी-सी हो गई है। पुरुष को सदैव यदि स्त्री को सहलाते, पचकारते ही बीते तो बहत ही बुरा है। उसे तो उनमुक्त, विकासोन्मुख और स्वतंत्र होना चाहिए। संसार में उसे युद्ध करना है। वह घड़ी-भर मन बहलाने के लिए जिस तरह चाहे रह सकता है। उसके आचरण में, कर्म में नदी की धारा की तरह प्रवाह होना चाहिए। तालाब के बंधे पानी-सा जिसके जीवन का जल सड़ने और सूखने के लिए होगा तो वह भी जड़ और स्पन्दन-विहीन होगा!

अभी-अभी रामजस क्या कह गया है? उसका हृदय कितना स्वतंत्र और उत्साहपूर्ण है। मैं जैसे इस छोटी-सी गृहस्थी के बंधन में बंधा हुआ, बैल की तरह अपने सूखे चारे को चबाकर संतुष्ट रहने में अपने को धन्य समझ रहा हूं। नहीं, अब मैं इस तरह नहीं रह सकता। सचमुच मेरी कायरता थी। चौबे को उसी दिन मुझे इस तरह छोड़ देना नहीं चाहिए था। मैं डर गया था। हां, अभाव! झगड़े के लिए शक्ति, संपत्ति और साहाय्य भी तो चाहिए। यदि यही होता, तब मैं उसे संग्रह करूंगा। पाजी बनूंगा; सब करते क्या हैं। संसार में चारों ओर दुष्टता का साम्राज्य है। मैं अपनी निर्बलता के कारण ही लूट में सम्मिलित नहीं हो सकता। मेरे सामने ही वह मेरे घर में घुसना चाहता था। मेरी दरिद्रता को वह जानता है। और राजो। ओह! मेरा धर्म झूठा है। मैं क्या किसी के सामने सिर उठा सकता हूं। तब...रामजस सत्य कहता है। संसार पाजी है, तो हम अकेले महात्मा बनकर मर जाएंगे।...

मधुबन घर की ओर मुड़ा। वह धीरे-धीरे अपनी झोंपड़ी के सामने आकर खड़ा हुआ। तितली उसकी ओर मुंह किए एक फटा कपड़ा सी रही थी। भीतर राजो-रसोईघर में से बोली-बहू, सरसों का तेल नहीं है। ऐसे गृहस्थी चलती है; आज ही आटा भी पिस जाना चाहिए।

जीजी, देखो मलिया ले आती है कि नहीं।! उससे तो मैंने कह दिया था कि आज जो दाम मटर का मिले उससे तेल लेते आना।

और आटे के लिए क्या किया?

जौ, चना और गेहूं एक में मिलाकर पिसवा लो। जब बाबू साहब को घर की कुछ चिंता नहीं तब तो जो होगा घर में वही न खाएंगे?

कल का बोझ जो जाएगा उसमें अधिक दाम मिलेगा, करंजा सब बिनवा चुकी हूं। बनिए ने मांगा भी है। गेहूं कल मंगवा लूंगी। उनकी बात क्या पूछती हो। तुम्हीं तो मुझसे चिढ़कर उसके लिए मैना को खोज लाई हो, जीजी!—कहती हुई तितली ने हंसी को [ १०३ ]बिखराते हुए व्यंग्य किया।

भाड़ में गई मैना! बहू, मुझे यह हंसी अच्छी नहीं लगती। आ तो आज तेरी चोटी बांध

मधुबन यह बातें सुनकर धीरे-से उल्टे पांव लौटकर बनजरिया के बाहर चला गया। वह मैना की बात सोचने लगा था। कितनी चंचल, हंसमुख और सुंदर है, और मुझे...मानती है। चाहती होगी! उस दिन हजारों के सामने उसने मुझे जब बौर दिया था, तभी उसके मन में कुछ था। मधुबन को शरीर की यौवन भरी संपत्ति का सहसा दर्प भरा ज्ञान हुआ। स्त्री और मैना-सी मनचली! यह तो...तब इस कूड़ा-करकट में कब तक पड़ा रहूंगा? रामजस ठीक ही कहता था!

न जाने कह, हृदय की भूमि सोंधी होकर वट-बीज-सा बुराई की छोटी-सी बात अपने में जमा लेती है। उसकी जड़ें गहरी और भीतर-भीतर घुसकर अन्य मनोवृत्तियों का रस चूस लेती हैं। दूसरा पौधा आस-पास का निर्बल ही रह जाता है?

मधुबन ने एक दीर्घ निःश्वास लेकर कहा—स्त्री को स्त्री का अवलम्बन मिल गया। तितली, मैना के भय से राजो को पकड़कर उसकी गोद में मुंह छिपाना चाहती है। और राजो, उसकी भी दर्बलता साधारण नहीं। चलो अच्छा हआ एक-दसरे को संभाल लेंगी।

मधुबन हल्के मन से रामजस को खोजने के लिए निकल पड़ा।

तहसीलदार की बैठक में बैठे चौबेजी पान चबाते हुए बोले—फिर संभालते न बनेगा। मैं देख रहा हूं कि तुम अपना भी सिर तुड़वाओगे और गांव-भर पर विपत्ति बुलाओगे। मैं अभी देखता आ रहा हूं रामजस बैठा हुआ अपने उपरवार खेत का जौ उखाड़ कर होला जला रहा था, बहुत-से लड़के उसके आसपास बैठे हैं।

उसका यह साहस नहीं होता यदि और लोग न उकसाते। यह मधुबन का पाजीपन है। मैं उसे बचा रहा हूं, लेकिन देखता हूं कि वह आग में कूदने के लिए कमर कसे है। बड़ा क्रोध आता है, चौबे, मैं भी तो समय देख रहा हूं। बीबी-रानी के नाम से हिस्सेदारी का दाखिलखारिज हो गया है। मुखतारनामा मुझे मिल जाए तो एक बार इन पाजियों को बता दूं कि इसका कैसा फल मिलता है।

वह तो सबसे कहता है कि मेरे टुकड़ों से पला हुआ कुत्ता आज जमींदार का तहसीलदार बन गया। उसको मैं समझता क्या हूं!

पला तो हूं, पर देख लेना कि उससे टुकड़ा न तुड़वाऊं तो मैं तहसीलदार नहीं। मैं भी सब ठीक कर रहा हूं। बनजरिया और शेरकोट पर घमंड हो गया है! सुखदेव! अब क्या यहां इंद्रदेव या श्यामदुलारी फिर आवेंगी? देखना, इन सबको मैं कैसा नाच नचाता हूं।

तहसीलदार के मन में लघुता को पहले मधुबन के पिता के यहां की हुई नौकरी के कलंक को-धो डालने के लिए बलवती प्रेरणा हुई—यह कल का छोकरा सबसे कहता फिरता है तो उसको भी मालूम हो जाए कि मैं क्या हूं—कुछ विचार करके सुखदेव से कहा-

तुम जाकर एक बार रामजस को समझा दो। नहीं तो अभी उसका उपाय करता हूं। मैं चाहता हूं कि भिड़ना हो तो मधुबन पर ही सीधा वार किया जाए। दूसरों को उसके साथ [ १०४ ]मिलने का अवसर न मिले।

मैं जाता तो हूं; पर यदि वह मुझसे टर्राया और तुम फिर चुप रह गए तो यह अच्छी बात न होगी—कहकर सुखदेव चौबे रामजस के खेत पर चले। वहां लड़कों की भीड़ जुटी थी। पूरा भोज का-सा जमघट था। कोई बेकार नहीं। कोई उछल रहा है, कोई गा रहा है, कोई जौ के मुट्टों की पत्तियां जलाकर झुलस रहा है। रामजस ने जैसे टिाड्डियों को बुला लिया है। वह स्थिर होकर यह अत्याचार अपने ही खेत पर करा रहा है। जैसे सर्वनाश में उसको विश्वास हो गया हो। अपनी झोपड़ी में से, जो रखवाली के लिए वहां पड़ी थी, सूखे खरों को खींचकर लड़कों को दे रहा था। लड़कों में पूरा उत्साह था। जिसके यहां कोल्हू चल रहा था, वे दौड़कर अपने-अपने घरों से ईख का रस ले आते थे। ऐसा आनन्द भला वे कैसे छोड़ सकते थे। एक लड़के ने कहा–रामजस दादा, कहो तो ढोल ले आवें।

नहीं बे, रात को चौताल गाया जाएगा। अभी तो खब पेट भरकर खा ले। फिर...

अभी बात पूरी न हो पाई थी कि सामने से सुखदेव ने कहा—यह क्या हो रहा है रामजस! कुछ पीछे की भी सुध है? क्या जेल जाने की तैयारी कर रहे हो?

क्या तुम हथकड़ी लेकर आये हो?

अरे नहीं भाई! मैं तो तुमको समझाने आया हूं। देखो ऐसा काम न करो कि सब कुछ चौपट हो जाने के बाद जेल भी जाना पड़े। यह खेत..

यह खेत क्या तुम्हारे बाप का है? मैंने इसे छाती का हाड़ तोड़कर जोता-बोया है; मेरा अन्न है, मैं लुटा देता हूं, तुम होते कौन हो?

पीछे मालूम होगा, अभी तुम मधुबन के बहकाने में आ गये हो, जब चक्की पीसनी होगी; तब हेकड़ी भूल जाओगे।

कहे देता हूं कि सीधे-सीधे चले जाओ, नहीं तो तुम्हारी मस्ती उतार दूंगा। कहकर रामजस सीधा तनकर खड़ा हो गया। सुखदेव ने भी क्रोध में आकर कहा–दूंगा एक झापड़, दांत झड़ जायेंगे। मैं तो समझा रहा हूं, तू बहकता जा रहा है।

तो तुमने मुझको भी मधुबन भइया समझ रखा है न। अच्छा तो लेते जाओ बच्चू!कहकर रामजस ने लाठी घुमाकर हाथ उसके मोढ़े पर जड़ दिया। जब तक चौबे संभले तब तक उसने दुहरा दिया।

चौबेजी वहीं लेट गये। लड़के इध-उधर भाग चले। गांव भर में हल्ला मचा। लोग इधर-उधर से दौड़कर आये।

महंगू ने कहा—यह बड़ा अंधेर है। ऐसी नवाबी तो नहीं देखी। भला कुर्क हुए खेत को इस तरह तहस-नहस करना चाहिए।

पांडेजी ने कहा-चौबेजी को तो पहले उठा ले चलो, यहां खड़े तुम लोग क्या देख रहे

पांडेजी के कहने पर लोगों को मूर्छित चौबे का ध्यान आया। उन्हें उठाकर जब लोग जा रहे थे तब मधुबन वहां आया। उसने सुन लिया कि सुखदेव पिट गया। मधुबन ने क्षणभर में सब समझ लिया। उसने कहा-रामजस! अब यहां क्या कर रहे हो? चलो मेरे साथ।

उसने कहा—ठहरो दादा, लगे हाथ इस महंगू को भी समझा दें।

मधुबन ने उसका हाथ पकड़कर कहा—अरे महंगू बूढ़ा है। उस बेचारे ने क्या किया है? [ १०५ ] अधिक उपद्रव न बढ़ाओ, जो किया सो अच्छा किया।

अभी मधुबन उसको समझा ही रहा था कि छावनी से दस लट्ठबाज दौड़ते हुए पहुंच गये। 'मार-मार' की ललकार बढ़ चली। मधुबन ने देखा कि रामजस तो अब मारा जाता है। उसने हाथ उठाकर कहा—भाइयो, ठहरो, बिना समझे मारपीट करना नहीं चाहिए।

यही पाजी तो सब बदमाशी की जड़ है।—कहकर पीछे से तहसीलदार ने ललकारा। दनादन लाठियां छूट पड़ीं। दो-तीन तक तो मधुबन बचाता रहा, पर कब तक! चोट लगते ही उसे क्रोध आ गया। उसने लपककर एक लाठी छीन ली और रामजस की बगल में आकर खड़ा हो गया।

इधर दो और उधर दस। जमकर लाठी चलने लगी। मधुबन और रामजस जब घिर जाते तो लाठी टेककर दस-दस हाथ दूर जाकर खड़े हो जाते। छ: आदमी गिरे और रामजस भी लहू से तर हो गया।

गांव वाले बीच में आकर खड़े हो गये। लड़ाई बन्द हुई। मधुबन रामजस को अपने कंधे का सहारा दिये धीरे-धीरे बनजरिया की ओर ले चला।