तितली/3.6

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तितली - उपन्यास - जयशंकर प्रसाद  (1934) 
द्वारा जयशंकर प्रसाद

[ ११० ]

6.

मधुबन गहरे नशे से चौंक उठा था। हत्या! मैंने क्या कर दिया? फांसी की टिकठी का चित्र उसके कालिमापूर्ण आकाश में चारों ओर अग्निरेखा में स्पष्ट हो उठा। इमली के घने वृक्षों की छाया में अपने ही श्वासों से सिहर कर सोचता हुआ वह भाग रहा था।

तो, क्या वह मर गया होगा? नहीं—मैंने तो उसका गला ही घोट दिया है। गला घोटने से मूर्छित हो गया होगा। चैतन्य हो जाएगा अवश्य?

थोड़ा-सा उसके हृदय की धड़कन को विश्राम मिला। वह अब भी बाजार के पीछेपीछे अपनी भयभीत अवस्था में सशंक चल रहा था। महन्त की निकली हुई आंखें जैसे उसकी आखों में घुसने लगीं। विकल होकर वह अपनी आखों को मूंदकर चलने लगा, उसने कहा—नहीं, मैं तो वहां गया भी नहीं था। किसने मुझको देखा? राजो! हत्यारिन! ओह उसी की बुलाई हुई यह विपत्ति है। यह देखो, इस वयस में उसका उत्पात! हां, मार डाला है मैंने, इसका दण्ड दूसरा नहीं हो सकता। काट डालना ही ठीक था। तो फिर मैंने किया क्या, हत्या? नहीं! और किया भी हो तो बुरा क्या किया।

उसके सामने महन्त की निकली हुई आखों का चित्र नाचने लगा। फिर—तितली का निष्पाप और भोला-सा मुखड़ा। हाय-हाय। मधुबन! तूने क्या किया! वह क्या करेगी? कौन उसकी रक्षा करेगा?

उसका गला भर आया। वह चलता जाता था और भीतर-ही-भीतर अपने रोने को, सांसों को, दबाता जाता था। उसे दूर से किसी के दौड़ने का और ललकारने का भ्रम हुआ।– [ १११ ]अरे! पकड़ा गया तो...।

क्षण-भर के लिए रुका। उसने पहचाना, यह तो मैना के घर के पीछे की फुलवारी की पक्की दीवार है। तो वह छिप जाए। यहीं न; अच्छा अब तो सोचने का समय नहीं है। लो, वह सब आ गए।

छोटी-सी दीवार फांदते उसको क्या देर लगती। मैना की फुलवारी में अंधकार था। उसके कमरे की खिड़की की संधि से आलोक की पहली रेखा निकलकर उस विराट अंधकार में निष्प्रभ हो जाती थी।

मधुबन सिरस से ऊपर चढ़ी हुई मालती की छाया में ठिठक गया। पीछा करने वालों की आहट लेने लगा। किंतु मेरा भ्रम है। अभी कोई नहीं आया। उसने साहस भरे हृदय से विश्वास किया, यह सब मेरा भ्रम है। अभी कोई नहीं आया और न जानता है कि मैं कहां हूं। यह मैना का घर है।...कोई दसरा भी तो यहां आ सकता है। कौन जाने वह किसी के साथ उस कोठरी में सुख लुटाती हो। वेश्या...रुपये की पुजारिन! है तो...मेरे पास भी।

उसने अपनी थैली पर हाथ रखा। फिर महन्त की आंखें उसके सामने आ गईं। धीरेधीरे बड़ी होने लगी। ओह! कितनी बड़ी। उनसे छिपकर वह बच नहीं सकता। समूचा आकाश केवल महन्त की आंख बनकर उसके सामने खड़ा था।

मधुबन ने आख बंद करके अपना सिर एक बार दोनों हाथों से दबाया। उसने कहातो भय क्या! फांसी ही न पाऊंगा फिर इस समय तो, अच्छा देखू कोई है तो नहीं।

वह धीरे-धीरे बिल्ली के-से दबे पांवों से मैना की खिड़की के पास गया। संधि में से भीतर का सब दृश्य दिखाई दे रहा था। आंगन में भीतर खुलने वाला किवाड़ बंद था। खिड़की से लगा हुआ मैना का पलंग था। वह लालटेन के उजाले में कोई पुस्तक पढ़ रही थी। मधुबन को विश्वास न हुआ कि वह अकेली ही है। उसने धीरे से खिड़की के पल्लों को खोला। मैना ध्यान से पढ़ रही थी। उसने फिर पल्लों को हटाया। अब मैना ने घूमकर देखा।

वह चिल्लाना ही चाहती थी कि मधुबन की अंगुली मुंह पर जा पड़ी। चुप रहने का संकेत पाकर वह उठ खड़ी हुई। धीरे से किवाड़ खोला। उसने चकित होकर मधुबन का उस रात में आना देखा। वह संदेह, प्रसन्नता और आश्चर्य से चकित हो रही थी।

मधुबन ने भीतर आकर किवाड़ बंद कर दिया। मैना सोच रही थी-मधुबन बाब सबसे छिपकर मुझ वेश्या के यहां इस एकांत रजनी में अभिसार करने आए हैं!—उसे न जाने क्यों विरक्ति-सी हुई। उसने मधुबन को पलंग पर बैठाते हुए कहा—भला इधर से आने की...

उसके मुंह पर हाथ रखकर मधुबन ने कहा चुप रहो। पहले यह बताओ कि तुम्हारे यहां इस समय कौन-कौन है। यहां कोई हम लोगों की बात सुनता तो नहीं?

वह मुस्कुराने लगी। वेश्या के यहां आने में इतने भयभीत। क्यों? यहां तो कोई नहीं सुन सकता। मां और निळू तो आंगन के उस पार सड़क वाले कमरे में हैं। रधिया सोई होगी। वह तो संध्या से ही ऊंघने लगती है। इधर तो मैं ही हूं। फिर इतना डर काहे का? कुछ चोरी तो नहीं कर रहे हैं। एक रात मेरे घर रहने से बहू रूठ न जाएगी। मैं...

मधुबन ने फिर उसको चुप रहने का संकेत किया। मैना ने देखा कि मधुबन का मुंह विवर्ण और भयभीत है। उसने मधुबन के शरीर से सटकर पूछा—बात क्या? [ ११२ ] मधुबन का हाथ अपने कमर में बंधी थैली पर जा पड़ा। ओह! हत्या का प्रमाण तो उसी के पास है। उसने धीरे से उसे कमर से खोल कर पलंग पर रख दिया। थैली का रंग लाल था। उसे देखते-ही-देखते मधुबन की आंखें चढ़ गईं।

मैना ने देखा कि मधुबन उन्मत्त-सा हो गया है। उसे झिंझोड़कर उसने हिला दिया, क्योंकि मधुबन का वह रूप देखकर मैना को भी भय लगा। उसने पूछा—क्यों बोलते नहीं?

मधुबन को सहसा चेतना हुई। उसने धीरे-से शैली खोलकर उसमें से गिन्नियां और रुपये पलंग पर रख दिए। मैना को तो चकाचौंध-सी लग गई।

मधुबन ने धीरे-से लैम्प की चिमनी उतारकर उसकी लौ से थैली लगा दी। वह भकभक करके जल उठी।

अब तो मैना से न रहा गया। उसने मधुबन का हाथ पकड़कर कहा-तुम कुछ न कहोगे तो मैं मां को बुलाती हूं। मुझे डर लग रहा है।

मैंने खून किया है—मधुबन ने अविचल भाव से कहा। बाप रे! यह क्यों? मुझे रुपये देने के लिए?

मैना का श्वास रुकने लगा। उसने फिर संभलकर कहा—मैं तो बिना रुपये की तुम्हारी ही थी। यह भला तमने क्या किया?

जो करना था कर दिया। अब बताओ, तुम मुझे यहां छिपा सकती हो कि नहीं? मैं कल यहां से जाऊंगा। रात भर में मुझे जो कुछ करना है, उसे सोच लूंगा। बोलो!

मधुबन बाबू! प्राण देकर भी आपकी सेवा करूंगी; पर आप यह तो बताइए कि ऐसा क्यों?

क्यों—मत पूछो। इस समय मुझे अकेले छोड़ दो। मैं सोना चाहता हूं।

मैना ने स्थिर होकर कुछ विचार किया। उसने कहा—तो मेरी बात मानिए। जैसा मैं कहती हूं। वैसा कीजिए।

मधुबन ने कहा—अच्छा, जो तुम कहो वही करूंगा।

मैना ने पलंग पर से चादर को रुपयों समेत बटोर लिया और धीरे से दूसरी छोटी कोठरी में चली गई।

थोड़ी देर के बाद जब वह उसमें से निकली तो उसके मुंह पर चंचलता न थी। हाथ में एक कटोरा दूध था। मधुबन के मुंह से लगाकर उसने कहा—पी जाइए।

मधुबन बच्चों की तरह पीने लगा—उसका कंठ प्यास से सूख रहा था। दूध पीकर मधुबन ने मैना से कहा—मैं कुछ दिनों के लिए धामपुर छोड़ देना चाहता हूं। रामजस वाले मामले में पुलिस मेरे पीछे पड़ी है। अब एक और काण्ड हो गया है। मैना! तुम वेश्या हो तो क्या, न जाने क्यों मैं तुम्हारे ऊपर विश्वास करता हूं। तुम तितली की रक्षा करना, वह निरपराध!

इसके आगे मधुबन कुछ न कह सका। वह सिसककर रोने लगा। मैना की आखों से भी औसू बहने लगे। उसने बड़ी देर तक मधुबन को समझाया और कहा कि घबराने की कोई बात नहीं। तम सीधे गंगा के किनारे-किनारे भागो, फिर चनार जाकर रेल पर चढना। इधर कोई तुम्हारा पता न पावेगा। एक पहर रात रहते मैं तुम्हें जगा दूंगी। इस समय सो [ ११३ ]जाओ।

मधुबन आज्ञाकारी बालक के समान सोने की चेष्टा करने लगा पर उसे नींद कहां आती

मैना ने उसके पास जाकर समय बिताया। जब पीपल पर पहला कौआ अपने आलस भरे स्वर में बोल उठा, तो उसने मधुबन को जाने के लिए कहा। मधुबन के हृदय में एक टीस हुई। अपनी जन्मभूमि छोड़ने का यह पहला अवसर था।

मैना ने उसे समझाया कि तुम कुछ दिन कलकत्ते रहो; फिर यहां सब ठीक हो जाएगा तो तुमको पत्र लिखूंगी।

उस पिछली रात में मधुबन चल पड़ा। कच्ची सड़क, जो गंगा के घाट पर जाती थी, सुनसान पड़ी थी—धूल ठंडी थी, चांदनी फीकी। मधुबन अपनी धुन में चल रहा था। घाट पर पहुंचते-पहुंचते उजाला हो चला। एक नाव बनारस जाने के लिए थी। मांझी मधुबन की जान-पहचान का था। उसने पूछा–मधुबन बाबू इतने सवेरे?

तुम कहां-मधुबन ने नाव पर बैठते हुए कहा—जानते नहीं हो? रामजस के मुकदमे में पुलिस मुझको भी चाहती है। मैं बनारस जा रहा हूं। वकील से सलाह करने।