तितली/3.5

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तितली - उपन्यास - जयशंकर प्रसाद  (1934) 
द्वारा जयशंकर प्रसाद

[ १०५ ]

5.

कच्ची सड़क के दोनों ओर कपड़े, बरतन, बिसातखाना और मिठाइयों की छोटी-बड़ी दूकानों से अलग, चूने से पुती हुई पक्की दीवारों के भीतर, बिहरिजिा का मन्दिर था। धामपुर का यहीं बाजार था। बाजार के बनियों की सेवा-पूजा से मंदिर का राग-भोग चलता ही था, परन्तु अच्छी आय थी महन्तजी को सूद से। छोटे-छोटे किसानों की आवश्यकता जब-जब उन्हें सताती, वे लोग अपने खेत बड़ी सुविधा के साथ यहां बन्धक रख देते थे।

महन्तजी मन्दिर से मिले हुए, फूलों से भरे, एक सुन्दर बगीचे में रहते थे। रहने के लिए छोटा, पर दृढ़ता से बना हुआ, पक्का घर था। दालान में ऊंचे तकिये के सहारे महन्तजी प्राय: बैठकर भक्तों की भेंट और किसानों का सूद दोनों ही समभाव से ग्रहण करते। जब कोई किसान कुछ सूद छोड़ने के लिए प्रार्थना करता तो वह गम्भीरता से कहते-भाई, मेरा तो कुछ है नहीं, यह तो श्री बिहरिजी की विभूति है, उनका अंश लेने से क्या तुम्हारा भला होगा?

भयभीत किसान बिहरिजी का पैसा कैसे दबा सकता था? इसी तरह कई छोटी-मोटी आसपास की जमींदारी भी उनके हाथ आ गई थी। खेतों की तो गिनती न थी।

संध्या की आरती हो चुकी थी। घंटे की प्रतिध्वनि अभी दूर-दूर के वायुमंडल में गूंज रही थी। महन्तजी पूजा समाप्त करके अपनी गद्दी पर बैठे ही थे कि एक नौकर ने आकर कहा—ठाकुर साहब आए हैं।

ठाकुर साहब-जैसे चौंककर महन्त ने कहा।

हां महाराज!-अभी वह कही रहा था कि ठाकुर साहब स्वयं आ धमके। लम्बे-चौड़े शरीर पर खाकी की आधी कमीज और हाफ-पैण्ट, पूरा मोजा और बूट, हाथ में हण्टर! [ १०६ ]इस मूर्ति को देखते ही महन्तजी विचलित हो उठे। आसन से थोड़ा-सा उठकर कहा-

आइए, सब कुशल तो है न?

कुर्सी पर बैठते रामपाल सिंह इंस्पेक्टर ने कहा—सब आपकी कृपा है। धामपुर में जांच के लिए गया था। वहां से चला आ रहा हूं। सुना है कि वह चौबे जो उस दिन की मारपीट में घायल हुआ था, आपके यहां है।

हां साहब! वह बेचारा तो मर ही गया होता। अब तो उसके घाव अच्छे हो रहे हैं। मैंने उससे बहुत कहा कि शहर के अस्पताल में चला जा, पर वह कहता है कि नहीं, जो होना था, हो गया; मैं अब न अस्पताल जाऊंगा, न धामपुर, और न मुकदमा ही चलाऊंगा; यहीं ठाकुरजी की सेवा में पड़ा रहूंगा।

पर मैं तो देखता हूं कि यह मुकदमा अच्छी तरह न चलाया गया तो यहां के किसान फिर आप लोगों को अंगूठा दिखा देंगे। एक पैसा भी उनसे आप ले सकेंगे, इसमें संदेह है। सुना है कि आपका रुपया भी बहुत-सा इस देहात में लगा है।

ठाकुर साहब! मैं तो आप लोगों के भरोसे बैठा हूं। जो होगा देखा जाएगा। चौबे तो इतना डर गया है कि उससे अब कुछ भी काम लेना असंभव है। वह तो कचहरी जाना नहीं चाहता।

अच्छी बात है; मैंने मुकदमा छावनी के नौकरों का बयान लेकर चला दिया है। कई बड़ी धाराएं लगा दी हैं। उधर तहसीलदार ने शेरकोट और बनजरिया की बेदखली का भी दावा किया। अपने-आप सब ठीक हो जाएंगे। फिर आप जानें और आपका काम जाने। धामपुर में तो इस घटना से ऐसी सनसनी है कि आप लोगों का लेन-देन सब रुक जाएगा।

महन्तजी को इस छिपी हुई धमकी से पसीना आ गया। उन्होंने संभलते हुए कहाबिहरिजी का सब कुछ है, वही जानें।

ठाकुर साहब पान-इलाइची लेकर चले गए। महन्तजी थोड़ी देर तक चिंता में निमग्न बैठे रहे। उनका ध्यान तब टूटा, जब राजकुमारी के साथ माधो आकर उनके सामने खड़ा हो गया। उन्होंने पूछा-क्या है?

राजकुमारी ने घूंघट संभालते हुए कहा हम लोगों को रुपये की आवश्यकता है। बन्धन रखकर कुछ रुपया दीजिएगा? बड़ी विपत्ति में पड़ी हूं। आप न सहायता करेंगे तो सब मारे जाएंगे।

तुम कौन हो और क्या बंधन रखना चाहती हो? भाई आज-कल कौन रुपया देकर लड़ाई मोल लेगा। तब भी सुनूं।

शेरकोट को बंधक रखकर मेरे भाई मधुबन को कुछ रुपये दीजिए। तहसीलदार ने बड़ी धम-धाम से मकदमा चलाया है। आप न सहायता करेंगे तो मकदमे की पैरवी न हो सकेगी। सब-के-सब जेल चले जाएंगे।

शेरकोट! भला उसे कौन बंधक रखेगा? तुम लोगों के ऊपर तो 'बेदखली' हो गई है। बनजरिया का भी वही हाल है। मैं उस पर रुपया नहीं दे सकता। मैं इस झंझट में नहीं पडूंगा।—कहकर महन्तजी ने माधो की ओर देखकर कहा—और तुम क्या चाहते हो? रुपये दोगे कि नहीं? आज ही देने के लिए कहा था न?

महन्तजी, आप हमारे माता-पिता हैं। इस समय आप न उबारेंगे तो हमारा दस [ १०७ ]प्राणियों का परिवार नष्ट हो जाएगा। घर की स्त्रियां रात को साग खोंटकर ले आती हैं। वही उबालकर नमक से खाकर सो रहती हैं। दूसरे-तीसरे दिन अन्न कभी-कभी, वह भी थोड़ा-सा मुंह में चला जाता है। हम लोग तो चाकरी-मजूरी भी नहीं कर सकते। मटर की फसल भी नष्ट हो गई। थोड़ी-सी ईख रही, उसे पेरकर सोचा था कि गुड़ बनाकर बेच लेंगे, तो आपको भी कुछ देंगे और कुछ बाल-बच्चों के खाने के काम में आएगा।

फिर क्या हुआ, उसकी बिक्री भी चट कर गए? तुमको देना तो है नहीं, बात बनाने आए हो।

महाराज! मनुवां गुलौर झोंक रहा था, जब उसने सुना कि जमींदार का तगादा आ गया है, वह लोग गुड उठाकर ले जा रहे हैं, तो घबरा गया। जलता हुआ गुड उसके हाथ पर पड़ गया। फिर भी हत्यारों ने उसके पानी पीने के लिए भी एक भेली न छोड़ी। यहीं बाजार में खड़े-खड़े बिकवा कर पाई-पाई ले ली। पानी के दाम मेरा गुड़ चला गया। आप इस समय दस रुपये से सहायता न करेंगे तो सब मर जाएंगे। बिहारी जी आपको...

भाग यहां से, चला है मुझको आशीर्वाद देने। पाजी कहीं का। देना न लेना, झूठ-मूठ ढंग साधने आया है। पुजारी! कोई यहां है नहीं क्या?—कहकर महन्तजी चिल्ला उठे।

भूखा और दरिद्र माधो सन्न हो गया। महन्त फिर बड़बड़ाने लगा—इनके बाप ने यहां पर जमा दिया है, बिहरिजी के पुछल्ले!

भयभीत माधो लड़खड़ाते पैर से चल पड़ा। उसका सिर चकरा रहा था। उसने मंदिर के सामने आकर भगवान को देखा। वह निश्चल प्रतिमा! ओह करुणा कहीं नहीं! भगवान के पास भी नहीं!

माधो किसी तरह सड़क पर आ गया। वहां मधुबन खड़ा था। उसने देखा कि माधो गिरना चाहता है। उसे संभालकर एक बार क्रूर-दृष्टि से उस चूने से पूते हुए झकाझक मंदिर की ओर देखा।

मधुबन गाढ़े की दोहर में अपना अंग छिपाए था। वह सबसे छिपना चाहता था। उसने धीरे से माधो को मिठाई की दूकान दिखाकर कुछ पैसे दिए और कहा—वहीं पर जल पीकर तुम बैठो। राजो के आने पर मैं तुमको बुला लूंगा।

मधुबन तो इतना कहकर सड़क के वृक्षों की अंधेरी छाया में छिप गया, और माधो जल पीने चला गया। आज उसको दिन-भर कुछ खाने के लिए नहीं मिला था।

उधर राजो चुपचाप महन्तजी के सामने खड़ी रही। उसके मन में भीषण क्रोध उबल रहा था; किंतु महन्तजी को भी न जाने क्या हो गया था कि उसे जाने के लिए तब तक नहीं कहा था! राजो ने पूछा-महाराज! यह सब किसलिए!

किसलिए? यह सब?—चौंककर महन्तजी बोले।

ठाकुरजी के घर में दुखियों और दीनों को आश्रय न मिले तो फिर क्या यह सब ढोंग नहीं? यह दरिद्र किसान क्या थोड़ी-सी भी सहानुभूति देवता के घर से भीख में नहीं पा सकता था? हम लोग गृहस्थ हैं, अपने दिन-रात के लिए जुटाकर रखें तो ठीक भी हैं। अनेक पाप, अपराध, छल-छन्द करके जो कुछ पेट काटकर देवता के लिए दिया जाता है, क्या वह भी ऐसे ही कामों के लिए है? मन में दया नहीं, सूखा-सा...

राजकुमारी तुम्हारा ही नाम है न? मैं सुन चुका हूं कि तुम कैसी माया जानती हो। [ १०८ ]अभी तुम्हारे ही लिए वह चौबे बिचारा पिट गया है। उसको मैं न रखता तो वह मर जाता। क्या यह दया नहीं है? तुमको भी, यहां रहो तो सब कुछ मिल सकता है। ठाकुरजी का प्रसाद खाओ, मौज से पड़ी रह सकती हो। सूखा-रूखा नहीं!

फिर कुछ रुककर महन्त ने एक निर्लज्ज संकेत किया। राजकुमारी उसे जहर के बूंट की तरह पी गई। उसने कहा—तो क्या चौबे यहीं हैं।

हां; यहीं तो है, उसकी यह दशा तुम्हीं ने की है। भला उस पर तुमको कुछ दया नहीं आई। दूसरे की दया सब लोग खोजते हैं और स्वयं करनी पड़े तो कान पर हाथ रख लेते हैं। थानेदार उसको खोजते हुए अभी आए थे। गवाही देने के लिए कहते थे।

राजकुमारी मन-ही-मन कांप उठी। उसने एक बार उस बीती हुई घटना का स्मरण करके अपने को सम्पूर्ण अपराधिनी बना लिया। क्षण-भर में उसके सामने भविष्य का भीषण चित्र खिंच गया। परंतु उसके पास कोई उपाय न था। इस समय उसको चाहिए रुपया, जिससे मधुबन के ऊपर आई हुई विपत्ति टले। मधुबन छिपा फिर रहा था, पुलिस उसको खोज रही थी। रुपया ही एक अमोघ अस्त्र था जिससे उसकी रक्षा हो सकती थी। उसका गौरव और अभिमान मानसिक भावना और वासना के एक ही झटके में, कितना जर्जर हो गया था। वही राजकुमारी! आज वह क्या हो रही है? और चौबेजी! कहां से यह दुष्ट-ग्रह के समान उसके सीधे-सादे जीवन में आ गया? अब वह भी अपना हाथ दिखावे तो कितनी आपत्ति बढ़ेगी?

सोचते-सोचते वह शिथिल हो गई। महन्त चुपचाप चतुर शिकार की तरह उसकी मुखाकृति की ओर ध्यान से देख रहा था।

इधर राजकुमारी के मन दूसरा झोंका आया! कलंक! स्त्री के लिए भयानक समस्यामैं ही तो इस काण्ड की जड़ हं उसने मलिन और दयनीय चित्र अपने सामने ने देखा। आज वह उबर नहीं सकती थी। वह मुंह खोलकर किसी से कुछ कहने जाती है, तो शक्तिशाली समर्थ पापी अपनी करनी पर हंसकर परदा डालता हुआ उसी के प्रवाद-मूलक कलंक का चूंघट धीरे-से उधार देता है। ओह! वह आखों से औसू बहाती हुई बैठ गई। उसकी इच्छा हुई कि जैसे हो, जो कुछ भी करना पड़े; मधुबन को इस बार बचा लेती। शैला के पास रुपया नहीं है. और वह मधबन की सहायता करेगी ही क्यों। मधबन कहता था कि उसने जाते लड़ाई-झगड़ा करने के लिए मना किया था। अब वह लज्जा से अपनी सब बातें कहना भी नहीं चाहता। मेरा प्रसंग वह कैसे कह सकता था। इसीलिए शैला की सहायता से भी वंचित! अभागा मधुबन!

राजकुमारी ने गिड़गिड़ाकर कहा—सचमुच मेरा ही सब अपराध है, मैं मर क्यों न गई? पर अब तो लज्जा आपके हाथ है। दुहाई है, मैं सौगंध खाती हूं आपका सब रुपया चुका दूंगी। मेरी हड्डी-हड्डी से अपनी पाई-पाई ले लीजिएगा। मधुबन ने कहा है कि वह पहले वाला एक सौ का दस्तावेज और पांच सौ यह, सब मिलाकर सूद-समेत लिखा लीजिए।

और जमानत में क्या देती हो?—कहकर महन्त फिर मुस्कुराया।

राजकुमारी ने निराश होकर चारों ओर देखा। उस एकांत-स्थान में सन्नाटा था महन्त के नौकर-चाकर खाने-पीने में लगे थे। वहां किसी को अपना परिचित न देखकर वह सिर झुकाकर बोली—क्या शेरकोट से काम न चल जाएगा? [ १०९ ] नहीं जी, कह तो चुका, वह आज नहीं तो कल तुम लोगों के हाथ से निकला ही हुआ है। फिर तुम तो अभी कह रही थी कि मेरी हड्डी से चुका लेना। क्यों वह बात सच है?

अपनी आवश्यकता से पीड़ित प्राणी कितनी ही नारकीय यंत्रणाएं सहता है। उसकी सब चीजों का सौदा मोल-तोल कर लेने में किसी को रुकावट नहीं। तिस पर वह स्त्री, जिसके संबंध में किसी तरह का कलंक फैल चुका हो। उसको मधुबन मना कर रहा था कि वहां तुम मत जाओ, मैं ही बात कर लूंगा। किंतु राजो का सहज तेज गया तो नहीं था। वह आज अपनी मूर्खता से एक नई विपत्ति खड़ी कर रही है, इसका उसको अनुमान भी नहीं हुआ था। वह क्या जानती थी कि यहां चौबे भी मर रहा है। भय और लज्जा, निराशा और क्रोध से वह अधीर होकर रोने लगी। उसकी आंखों से आंसू गिर रहे थे। घबराहट से उसका बुरा हाल था। बाहर मधुबन क्या सोचता होगा?

महन्त ने देखा कि ठीक अवसर है। उसने कोमल स्वर में कहा तो राजकमारी! तुमको चिंता करने की क्या आवश्यकता? शेरकोट न सही, बिहरिजी का मंदिर तो कहीं गया नहीं। यहीं रहो न ठाकुरजी की सेवा में पड़ी रहोगी। और मैं तो तुमसे बाहर नहीं। घबराती क्यों हो?

महन्त समीप आ गया था; राजकुमारी का हाथ पकड़ने ही वाला था कि वह चौंककर खड़ी हो गई। स्त्री की छलना ने उसको उत्साहित किया। उसने कहा-दूर ही रहिए न! यहां क्यों!

कामुक महन्त के लिए दूसरा आमन्त्रण था। उसने साहस करके राजो का हाथ पकड़ लिया। मंदिर से सटा हुआ वह बाग एकांत था। राजकुमारी चिल्लाती, पर वहां सहायता के लिए कोई न आता! उसने शांत होकर कहा—मैं फिर आ जाऊंगी। आज मुझे जाने दीजिए। आज मुझे रुपयों का प्रबंध करना है!

सब हो जाएगा। पहले तुम मेरी बात तो सुनो।—कहकर वह और भी पाशव भीषणता से उस पर आक्रमण कर बैठा।

राजकुमारी अब न रुकी। उसका छल उसी के लिए घातक हो रहा था। वह पागल की तरह चिल्लाई। दीवार के बाहर ही इमली की छाया में मधुबन खड़ा था। पांच हाथ की दीवार लांघते उसे कितना विलम्ब लगता? वह महन्त की खोपड़ी पर यमदूत-सा आ पहुंचा। उसके शरीर का असुरों का-सा सम्पूर्ण बल उन्मत्त हो उठा। दोनों हाथों से महन्त का गला पकड़कर दबाने लगा। वह छटपटाकर भी कुछ बोल नहीं सकता था। और भी बल से दबाया। धीरे-धीरे महन्त का विलास-जर्जर शरीर निश्चेष्ट होकर ढीला पड़ गया! राजकुमारी भय से मूर्छित हो गई थी, और हाथ से निर्जीव देह को छोड़ते हुए मधुबन जैसे चैतन्य हो गया।

अरे यह क्या हुआ? हत्या! मधुबन को जैसे विश्वास नहीं हुआ, फिर उसने एक बार चारों ओर देखा। भय ने उसे ज्ञान दिया, वह समझ गया कि महन्त को एक स्त्री के साथ जानकर यहां अभी कोई नहीं आया है, और न कुछ समय तक आवेगा। उसको अपनी जान बचाने की सूझी। सामने संदूक का ढक्कन खुला था, उसमें से रुपयों की थैली लेकर उसने कमर में बांधी। इधर राजकमारी को ज्ञान हआ तो चिल्लाना चाहती थी कि उसने कहाचुप! वहीं दूकान पर माधो बैठा है। उसे लेकर सीधे घर चली जा। माधो से भी मत कहना। [ ११० ]भाग! अब मैं चला!

मधुबन तो अंधकार में चला गया। राजकुमारी थर-थर कांपती हुई माधो के पास पहुंची।

सड़क पर सन्नाटा हो गया था। देहाती बाजार में पहर-भर रात जाने पर बहुत ही कम लोग दिखाई पड़ रहे थे। मिठाई की दुकान पर माधो खा-पीकर संतुष्टि की झपकी ले रहा था। राजकुमारी ने उसे उंगली से जगाकर अपने पीछे आने के लिए कहा। दोनों बाजार के बाहर आए। एक्के वाला एक तान छेड़ता हुआ अपने घोड़े को खरहरा कर रहा था। राजकुमारी ने धीरे-से शेरकोट की ओर पैर बढ़ाया। दोनों ही किसी तरह की बात नहीं कर रहे थे। थोड़ी ही दूर आगे बढ़े होंगे कि कई आदमी दौड़ते हुए आए। उन्होंने माधो को रोका। माधो ने कहा—क्यों भाई! मेरे पास क्या धरा है, क्या है?

हम लोग एक स्त्री को खोज रहे हैं। वह अभी-अभी बिहरिजी के मंदिर में आई थी-उन लोगों ने घबराए हुए स्वर में कहा।

यह तो मेरी लड़की है। भले आदमी, क्या दरिद्र होने के कारण राह भी न चलने पावेंगे? यह कैसा अत्याचार? कहकर माधो आगे बढ़ा। उसके स्वर में कुछ ऐसी दृढ़ता थी कि मंदिर के नौकरों ने उसका पीछा छोड़कर दूसरा मार्ग ग्रहण किया।