तितली/3.8

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तितली - उपन्यास - जयशंकर प्रसाद  (1934) 
द्वारा जयशंकर प्रसाद

[ १२४ ]

8.

चुनार की एक पहाड़ी कंदरा में रहते हुए, मधुबन को कई सप्ताह हो चुके थे। वह निस्तब्ध रजनी में गंगा की लहरों का. पहाड़ी के साथ टकराने का. गंभीर शब्द सना करता। उसके हृदय में भय, क्रोध और धृणा का भयानक संघर्ष चला करता। उसके जीवन में आरंभ से ही अभाव था, पर वह उसे उतना नहीं अखरता था जितना यह एकांतवास। सब कुछ मिलकर भी जैसे उसके हाथ से निकल गया। छोटी-सी गृहस्थी; उसमें तितली-सी युवती का सावधानी से भरा हुआ मधुर व्यवहार; और भी भविष्य की कितनी ही मधुर आशाएं सहसा जैसे आने वाले पतझड़ के झपेटे में पड़कर पत्तियों की तरह बिखरकर तीन-तेरह हो गईं।

वह अपने ही स्वार्थ को देखता, दूसरों के पचड़े में न पड़ा होता, तो आज यह दिन देखने की बारी न आती। उसने मन-ही-मन विचार किया कि समूचा जगत मेरे लिए एक षड़यंत्र रच रहा था। और मूर्ख मैं, एक भावना में पड़कर, एक काल्पनिक महत्त्व के प्रलोभन में फंसकर, आज इस कष्ट में कदर्थित हो रहा हूं।

उसके जीवन का गणित भ्रामक नहीं था। और फल अशद्ध निकलता दिखाई पड़ रहा है। तब यह दोष उसका हो ही नहीं सकता। नहीं, इसमें अवश्य किसी दूसरे का हाथ है!

मुझे पिशाच के भयानक चंगुल में फंसाकर सब निर्दिष्ट आनन्द ले रहे हैं। कौन। राजो. तितली. .मैना...सुखदेव...तहसीलदार...और शैला! सब चुपचाप? तब मैं कितने दिनों तक छिपा-छिपा फिरूंगा? और शेरकोट, बनजरिया, उसमें तितली का सुंदर-सा मुखसोचते-सोचते उसे झपकी आ गई। भूख से भी वह पीड़ित था। दिन ढल रहा था; परंतु जब तक रात न हो जाए, बाजार तक जाने में वह असमर्थ था। उसकी निद्रा स्वप्न को खींच लाई।

उसने देखा-तितली हंसती हुई अपनी कुटिया के द्वार पर खड़ी है। उधर इंद्रदेव घोड़े [ १२५ ]पर उसी जगह आकर उतर गए। उन्होंने तितली से कुछ पूछा और तितली ने मंद मुस्कान के साथ न जाने क्या उत्तर दिया। इंद्रदेव प्रसन्न-से फिर घोड़े पर चढ़कर चले गए।

उस समय अपने को उसने घुमची की लता की आड़ में पाया। वह छिपकर देख रहा है। —हां।

फिर सुखदेव आता है। वह भी तितली से बात करके चला जाता है। स्वप्न की संध्या दिन को ढुकलाकर रात को बुला लाई। अंधेरा हो गया। तारे निकल आए। उसे फुसफुसाहट सुनाई पड़ी। तितली अपने आंचल में दीप लिये किसी को पथ दिखलाने के लिए खड़ी है। उसका मुख धूमिल है। वह घबराई-सी जान पड़ती है।

दूसरा दृश्य, अंधकार में और भी मलिन, कलुषपूर्ण हृदय की भूमिका में अत्यन्त विकृति होकर प्रतिभासित हो उठा। शेरकोट—खंडहर, उसमें भीतरी यह लिपी-पुती चूने से चमकीली एक छोटी-सी कोठरी! और राजो बन ठनकर बैठी है। क्यों? किवाड़ बंद है। भीतर ही वह शीशे में अपना रूप देख रही है। बाहर किवाड़ों पर खट-खट का शब्द होता है। वह मुस्कुराकर उठ खड़ी होती है।

स्वप्न देखते हुए भी मधुबन और बलपूर्वक पलकों को दबा लेता है। आंखें जो बंद थीं। वह मानों फिर से बंद हो जाती हैं। आगे का दृश्य देखने में वह असमर्थ है।

तब. वह परुष है। उसको मान के लिए मर मिटना चाहिए: परंत यह नीच व्यापार यं ही चलता रहे। कुत्सित प्राणियों का कालिमापूर्ण...नहीं...अब नहीं। संसार उसको अपने एक कोने में सुख नहीं, आनन्द नहीं, किसी तरह जीवन को बिता लेने के लिए भी अवसर नहीं देना चाहता। तो जिनको मैं परम प्रिय मानता हूं, उनका अपमान चाहे, वह उन्हीं की स्वीकृति से हो रहा हो—नहीं होने दूंगा। नहीं—वह सपने का वीर हुंकार कर उठा।

पहले तितली ही-हां, उसी का गला घोटना होगा। उसे प्यार करता हूं। नहीं तो संसार में न जाने क्या कहां हो रहा है, मुझे क्या? नहीं, तितली को मेरी रक्षा के बाहर संसार में जाने से अपमान, कुत्सा और दुःख भोगना पड़ेगा। मैं चढूंगा फांसी पर चढ़ने के पहले एक बार सबको जी खोलकर गाली दूंगा। संसार को हां, इसी पाजी, नीच और कृतघ्न संसार को-जिसने मेरा मूल्य नहीं समझा और हाहाकार में व्यथित देखकर धीरे-धीरे मुस्कुराता हुआ अपनी चाल पर चला जा रहा है...यह क्या रहने के उपयुक्त है? तब...ठीक तो... अंधकार है।

वह फिर उसी बनजरिया में घुसता है।

फिर तितली का भोला-सा सुंदर मुख!

उसका साहस विचलित होता है। शरीर कांपने लगता है और आंखें खुल जाती हैं। वह पसीने से तर उठ बैठता है।

दिन ढल चुका है। वह धीरे-धीरे अपनी कंदरा से बाहर आया। गंगा की तरी में खेत सुनसान पड़े थे। फसल कट चुकी थी। दूर पर किले की भद्दी प्राचीर ऊंची होकर दिखाई पड़ी। वह धीरे-धीरे बाजार की ओर न जाकर किले की ओर चला। सूर्य डूब रहा था। अभी कोयले से भरी हुई छोटी-छोटी हाथ-गाड़ियां रिफार्मेटरी के लड़के ढकेल रहे थे। मधुबन ने आंख गड़ाकर देखा; वह, वह रामदीन तो नहीं है। है तो वही।

वह वेग से चलने लगा और रामदीन के पास जा पहुंचा। उसने कहा रामदीन! [ १२६ ] रामदीन ने एक बार इधर-उधर देखा, फिर जैसे प्रकृतिस्थ हो गया। इधर कई महीनों से वह धामपुर को भूल गया था। उसे अच्छा खाना मिलता। काम करना पड़ता। तब अन्य बातों की चिंता क्यों करे? आज सामने मधुबन! क्षण भर में उसे अपने बंदी-जीवन का ज्ञान हो गया। वह स्वतंत्रता कि लिए छट-पटा उठा।

मधुबन बाबू!—वह चीत्कार कर उठा।

क्या तू छूट गया रे, नौकरी कर रहा है?

नहीं तो, वही जेल का कोयला ढो रहा हूं। और कौन है तेरे साथ? कोई नहीं, यही अंतिम गाड़ी थी। मैं ले जा रहा हूं और लोग आगे चले गये हैं।

दूर पर प्रशांत संध्या की छाती को धड़काते हुए कोई रेलगाड़ी स्टेशन की ओर आ रही थी। बिजली की तरह एक बात मधुबन के मन में कौंध उठी।

उसने पूछा—मैं कलकत्ता जा रहा हूं—तू भी चलेगा?

रामदीन-नटखट! अवसर मिलने पर कुछ उत्पात-हलचल-उपद्रव मचाने का आनन्द छोड़ना नहीं चाहता। और मधुबन तो संसार की व्यवस्था के विरुद्ध हो ही गया था। रामदीन ने कहा-सच! चलूं?

हां, चल!

रामदीन ने एक बार किले की धुंधली छाया को देखा और वह स्टेशन की ओर भाग चला। पीछे-पीछे मधुबन!

गाड़ी के पिछले डिब्बे प्लेटफार्म के बाहर लाइन में खड़े थे। प्लेटफार्म के ढालूवें छोर पर खड़े होकर गार्ड ने धीरे-धीरे हरी झंडी दिखाई। उस जगह पहुंचकर भी मधुबन और रामदीन हताश हो गए थे। टिकट लेने का समय नहीं। गाड़ी चल चकी है. उधर लौटने से पकड़े जाने का भय। गार्ड वाला डिब्बा गार्ड के समीप पहुंचा। दूर खड़े स्टेशन-मास्टर से कुछ संकेत करते हुए अभ्यस्त गार्ड का पैर, डब्बे की पटरी पर तो पहुंचा; पर वह चूक गया! दूसरा पैल फिसल गया। दूसरे ही क्षण कोई भयानक घटना हो जाती, परंतु मधुबन ने बड़ी तत्परता से गार्ड को खींच लिया। गाड़ी खड़ी हुई। स्टेशन पर आकर गार्ड ने मधुबन को दस रुपये का एक नोट देना चाहा। उसने कहा—नहीं, हम लोग देहाती हैं, कलकत्ता जाना चाहते हैं। गार्ड ने प्रसन्नता से उन दोनों को अपने डिब्बे में बिठा लिया।

गाड़ी कलकत्ता के लिए चल पड़ी।

उसी समय बनजरिया में उदासी से भरा हुआ दिन ढल रहा था। सिरिस के वृक्ष के नीचे, अपनी दोनों हथेलियों पर मुंह रखे हुए, राजकुमारी चुपचाप आंसू की बूंदें गिरा रही थी। उसी के सामने, बटाइ के खेत में से आये हुए, जौ-गेहूं के बोझ पड़े थे। गऊ उसे सुख से खा रही थी। परंतु राजकुमारी उसे हांकती न थी।

मलिया भी पीठ पर रस्सी और हाथ में गगरी लिये पानी भरने के लिए दूसरी ओर चली जा रही थी।

राजकुमारी मन-ही-मन सोच रही थी—मैं ही इन उपद्रवों की जड़ हूं। न जाने किस बुरी घड़ी में, मेरे सीधे-सादे हृदय में, संसार की अप्राप्त सुखलालसा जाग उठी थी, जिससे [ १२७ ]मेरे सुशील मधुबन के ऊपर यह विपत्ति आई। तितली भी चली गई। उसका भी कुछ पता नहीं। सुना है कि कल तक लगान का रुपया न जमा हो जाएगा, तो बनजरिया भी हम लोगों को छोड़ना पड़ेगा। हे भगवान!

वैशाख की संध्या आई। नारंगी के हल्के रंग वाले पश्चिम के आकाश के नीचे, संध्या का प्राकृतिक चित्र मधुर पवन से सजीव हो हिल रहा था। पवन अस्पष्ट गति से चल रही थी। उसमें अभी कुछ-कुछ शीतलता थी! सूर्य की अंतिम किरणें भी डूब चुकी थीं; किंतु राजकुमारी की भावनाओं का अंत नहीं!

सहसा तितली ने पास आकर कहा—मलिया कहां गई? जीजी! क्या तुमने गऊ के ही खाने के लिए इतना-सा बोझ यहां डाल दिया है? वही दृढ़ स्वर! वही अविचल भाव!

राजो ने चौककर उसकी ओर देखा—तितली! तू आ गई! मधुबन का पता लगा? मुकदमे में क्या हुआ?

कहीं पता नहीं लगा। और न तो उसके बिना आए मुकदमा ही चलता है। तब तक हम लोगों को मुंह सीकर तो रहना नहीं होगा जीजी! जीना तो पड़ेगा ही; जितनी सांसें आनेजाने को हैं, उतनी चल कर ही रहेंगी। फिर यह क्या हो रहा है? कहकर उसने गऊ को हांकते हुए अपनी छोटी-सी गठरी रख दी।

आग लगे ऐसे पेट में। जीकर ही क्या होगा। भगवान मुझे उठा ही लेते, तो क्या कोई उनको अपराध लगता! मैं तो...!

मैं भी तुम्हारी-सी बात सोचकर छुट्टी पा जाती जीजी! पर क्या करूं। मैं वैसा नहीं कर सकती। मुझे तो उनके लौटने के दिन तक जीना पड़ेगा। और जो कुछ वे छोड़ गए हैं, उसे संभालकर उसके सामने रख देना होगा।

तितली की प्रशांत दृढ़ता देखकर राजो झल्ला उठी। वह मन-ही-मन सोचने लगीपढ़ी-लिखी स्त्रियां क्या ऐसी ही होती हैं? इतनी विपत्ति में भी जैसे इसको कुछ दुख नहीं! न जाने इसके मन में क्या है!

मनुष्य इसी तरह प्राय: दूसरे को समझा करता है। उसके पास थोड़ा-सा सत्यांश और उस पर अनमानों का घटाटोप लादकर वह दसरे के हृदय की ऐसी मिथ्या मर्ति गढकर संसार के सामने उपस्थित करते हुए निस्संकोच भाव से चिल्ला उठता है कि लो यही है वह हृदय, जिसको तुम खोज रहे थे। मूर्ख मानवता!

राजकुमारी ने एक बार और भी किया—तितली! कल लगान का रुपया न जमा होने से बनजरिया भी जाएगी।

तितली ने गठरी खोलकर अपना कड़ा, और भी दो-एक जो अंगूठी-छल्ला था, राजकुमारी के सामने रख दिया।

राजो ने पूछा—यह क्या?

इसको बेचकर रुपये लाओ जीजी। लगान का रुपया देकर जो बचे उससे एक दालान यहीं बनवाना होगा। मैं यहां पर कन्या-पाठशाला चलाऊंगी और खेती के सामान में जो कुछ कमी हो, उसे पूरा करना होगा। गायें बेच दो। आवश्यकता हो तो बैल खरीद लेना। तुम देखो खेती का काम, और मैं पढ़ाई करूंगी। हम लोगों को इस भीषण संसार से तब तक [ १२८ ]लड़ना होगा, जब तक वे लौट नहीं आते।

फिर ठहरकर तितली ने कहा--जी मिचलाता है, थोड़ा जल दो जीजी!

अंततोगत्वा तितली के उस उत्साह भरे पीले मुंह को राजो आश्चर्य से देख रही थी। मलिया ने आकर उसका पैर छू लिया। बनजरिया में दिया जल उठा।