तितली/4.1

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तितली - उपन्यास - जयशंकर प्रसाद  (1934) 
द्वारा जयशंकर प्रसाद
[ १२८ ] [ १२९ ]

चतुर्थ खंड

1.

मधुबन और रामदीन दोनों ही, उस गार्ड की दया से, लोको ऑफिस में कोयला ढोने की नौकरी पा गए। हबड़ा के जनाकीर्ण स्थान में उन दोनों ने अपने को ऐसा छिपा लिया, जैसे मधु-मक्खियों के छत्ते में कोई मक्खी। उन्हें यहां कौन पहचान सकता था। सारा शरीर काला, कपड़े काले और उनके लिए संसार भी काला था। अपराध करके वे छिपना चाहते थे।

संसार में अपराध करके प्राय: मनुष्य अपराधों को छिपाने की चेष्टा नित्य करते हैं। जब अपराध नहीं छिपते तब उन्हें ही छिपना पड़ता है और अपराधी संसार उनकी इसी दशा से संतुष्ट होकर अपने नियमों की कड़ाई की प्रशंसा करता है। वह बहुत दिनों से सचेष्ट है कि संसार से अपराध उन्मूलित हो जाए। किंतु अपनी चेष्टाओं से वह नये-नये अपराधों की सृष्टि करता जा रहा है।

हां, तो वे दोनों अपराधी थे। कोयले की राख उनके गालों और मस्तक पर लगी रहती, जिसमें आंखें विलक्षणता से चमका करतीं। मधुबन प्राय: रामदीन से कहा करता—जैसा किया उसका फल तो खूब मिला। मुंह में कालिख लगाकर देश-निकाला इसी को न कहते हैं?

भइया, सबका दिन बदलता है! कभी हम लोगों का दिन पलटेगा रामदीन ने कहा। उस दिन दोनों को छुट्टी मिल गई थी। उनके टीन से बने मुहल्ले में अभी सन्नाटा था। अन्य कुली काम पर से नहीं आए थे। सूर्य की किरणें उनकी छाजन के नीचे हो गई थीं। उनका घर पूर्व के द्वार वाला था। सामने एक छोटा-सा गड्ढा था, जिसमें गंदा पानी भरा था। उसी में वे लोग अपने बरतन मांजते थे। एक बड़ा-सा ईंटों का ढेर वहीं पड़ा था, जो चौतरे का काम देता है। मधुबन मुंह साफ करने के लिए उसी गड्ढे के पास आया। धृणा से उसको रोमांच हो आया। उसकी आखों में ज्वाला थी। शरीर भी तप रहा था। ज्वर के पूर्व लक्षण थे। वह अंजलि में पानी भरकर उंगलियों की संधि से धीरे-धीरे गिराने लगा। रामदीन एक पीतल का तसला मांज रहा था। वहां चार ईंटों की एक चौकी थी। चिरकिट उस चौकी पर अपना पूर्ण अधिकार समझता था। वह जमादार था। आज उसके न रहने पर ही रामदीन वहीं बैठकर तसला धो रहा था।

मधुबन ने कहा—रामदीन, उस बम्बे से आज एक बाल्टी पानी ले आओ। मुझे ज्वर हो आया है। उसमें से एक लोटा गरम करके मेरे सिरहाने रख देना! मैं सोने जाता

हूं।

भइया, अभी तो किरन डूब रही है। तनिक बैठे रहो। अभी दीया जल जाने दो।-रामदीन ने अभी इतना ही कहा कि चिरकिट ने दूर से ललकारा[ १३० ] कौन है रे चौतरिया पर बैठा?

रामदीन उठने लगा था। मधुबन ने उसे बैठे रहने का संकेत किया। वह कुछ बोला भी नहीं, उठा भी नहीं। चिरकिट यह अपमान कैसे सह सकता। उसने आते ही अपना बरतन रामदीन के ऊपर दे मारा। मधुबन को कायले की कालिमा से जितनी धृणा थी, उससे अधिक थी चिरकिट के घमंड से। वह आज कुछ उत्तेजित था। मन की स्वाभाविक क्रिया कुछ तीव्र हो उठी। उसने कहा—यह क्या चिरकिट तुमने उस बेचारे पर अपने झूठे बरतन फेंक दिए!

फेंक तो दिए, जो मेरे चौतरिया पर बैठेगा वही इस तरह...वह आगे कुछ कह न सके, इसलिए मधुबन ने कहा—चुप रहो—चिरकिट तुम पाजीपन भी करते हो और सबसे टर्राते हो! वह बरतन मांजकर ईंटें नहीं उठा ले जाएगा। हट जाता है तो तुम भी मांज लेना।

नहीं, उसको अभी हटना होगा।

अभी तो न हटेगा। गरम न हो। बैठ जाओ। वह देखो, तसला धुल गया।

क्रोध से उन्मत्त चिरकिट ने कहा यहां धांधली नहीं चलेगी। ढोएंगे कोयला, बनेंगे ब्राह्मण-ठाकुर। तुम्हारा जनेऊ देखकर यहां कोई न डरेगा। यह गांव नहीं है, जहां घास का बोझ लिये जाते भी तुमको देखकर खाट से उठ खड़ा होना पड़ेगा!

मधुबन ने अपने छोटे कुर्ते के नीचे लटकते हुए जनेऊ को देखा, फिर उस चिरकिट के मुंह की ओर। चिरकिट उस विकट दृष्टि को न सह सका। उसने मुंह नीचे कर लिया था, तब भी झापड़ लगा ही। वह चिल्ला उठा—अरे मनवा, दौड़ रे! मार डाला रे!

कुली इकट्ठे हो गए। मधुबन उन सबों में अविचल खड़ा रहा। उसने सोचा कि “अभी समय है। यदि झगड़ा बढ़ा और पुलिस तक पहुंचा तो फिर...? क्षण-भर में उसने कर्तव्य निश्चित कर लिया। कड़ककर बोला-सनो चिरकिट! समय पड़ने पर मेहनत-मजरी करके खाने से जनेऊ नीचा नहीं हो जाएगा। आज से फिर कभी तुम ऐसी बात न बोलना; और तुमको मेरा यहां रहना बुरा लगता हो तो लो, हम लोग चले। जहां हाथ-पैर चलावेंगे वहीं पैसा लेंगे।

रामदीन समझ चुका था। उसने कम्बल की गठरी बांधी; दोनों चले। मधुबन को रोककर कलियों का उससे झगड़ा करने का उत्साह न हआ। उसकी भी कलकत्ते में रहने की इच्छा थी। हावड़ा के पुल पर आकर उसने एक नया संसार देखा। जनता का जंगल! सब मनुष्य जैसे समय और अवकाश का अतिक्रमण करके, बहुत शीघ्र, अपना काम कर डालने में व्यस्त हैं। वह चकित-सा चला जा रहा था। घूमता हुआ जब मछुआ बाजार की भीड़ से आगे बढ़ा तो उसको ज्वर अच्छी तरह हो आया था। फिर भी उसे विश्राम के लिए इस जनाकीर्ण नगर में कहीं स्थान न था।

पटरी पर एक जगह भीड़ लग रही थी। एक लड़का अपनी भद्दी संगीत-कला से लोगों का मनोरंजन कर रहा था। रामधारी पांडे एक मारवाड़ी कोठी का जमादार था। उसके साथ दस-बारह बलिष्ठ युवक रहते थे। उसके नाम के लिए तो नौकरी थी, परंतु अधिक लाभ तो उसको इन नवयुवकों के साथ रहने का था। सब लोग, इस कानून के युग में भी, बाहुबल से कुछ आशा, भय और सहानुभूति रखते थे। सुरती-चूना मलते हुए प्राय: तमोली की दुकान पर वह बैठा दिखाई पड़ता और एक-न-एक तमाशा लगाए रहने से बाजार [ १३१ ]उसके बहुत-से काम सधा करते थे। रहीम नाम का एक बदमाश मछुआ में उन दिनों बहुत तप रहा था। इसीलिए रामधारी की पांचों उंगलियां घी में थीं!

रहीम के दल का ही वह लडका था। उसका काम था कहीं भी खड़े होकर नाच-गाकर कुछ भीड़ इकट्ठी कर लेना। उसी समय उसके अन्य साथी गिरहकट लड़के जेब कतरते थे। उन सबों की रक्षा के लिए रहीम के दो-एक चर भी रहते थे, जो आवश्यकता होने पर दोचार हाथ इधर-उधर चलाकर लड़कों के भागने में सहायता करते थे। रामधारी और रहीम में संधि थी। साधारण बातों पर वे लोग कभी झगड़ते न थे। जिससे पूरी थैली मिलती, उनके लिए कभी-कभी दो-चार खोपड़ियों का रक्त निकाल दिया जाता था, वह भी केवल दिखाने के लिए!

कलकत्ता में यह व्यापार खुली सड़क पर चला करता। हां, तो वह लड़का गा रहा था। भीड़ इकट्री थी। कोई अच्छी-सी ठमरी का टुकड़ा, उसके कोमल कंठ से निकलकर, लोगों को उलझाए था। इतने ही में भीड़ के उसी ओर, जिधर मधुबन खड़ा था, गड़बड़ी मची। किसी मारवाड़ी युवक का जेब कटा। उसने गिरहकट का हाथ नोट के पुलिंदों के साथ पकड़ा, साथ ही चमड़े के हंटर की गांठ उसके सिर पर बैठी। वह अभी तिलमिला ही रहा था कि रामधारी ने देखा कि उसे युवक की कोठी से कुछ मिलता है। अब उसका बोलना धर्म हो गया। उसने ‘हां-हां' करते हुए उछलकर मारने वालों को पकड़ ही लिया। फिर भी पांडे ने भूल की। उसका कोई साथी वहां न था। उधर रहीम के दल वाले वहां उपस्थित थे। फिर क्या, चल गई। रामधारी पूरी तरह से घिर गया, और वह अधेड़ भी था। तब भी उसकी वीरता देखते ही बनी। मधुबन तो इस अवसर से अपने को कभी वंचित नहीं कर सकता था। वह भी एक कोना पकड़कर यह दृश्य देखने लगा। तीन-चार मिनट में एक कांड हो गया। कई दर्शकों के भी सिर फटे और रामधारी केले के छिलके पर फिसलकर गिर चुका था। सहसा मधुबन ने रहीम के दल वाले के हाथ से लकड़ी छीन ली और उधर नटखट रामदीन ने उस लड़के के हाथ से नोटों का बंडल पहले ही झटक लिया था। मधुबन ने जब रहीम के दल को भागने के लिए बाध्य किया, तब तक रामधारी के साथी और उधर से रहीम के दल वाले और भी जुट गए थे। इतने में पुलिस का हल्ला भी पहुंचा।

अब तक जो यवक चपचाप बड़ी तन्मयता से मधबन के शरीर और उसके लाठी चलाने को देख रहा था, उसके पास आकर बोला—तुम पकड़े जाना न चाहते हो तो मेरे साथ आओ।

मधुबन समझ गया। युवक के पीछे मधुबन और रामदीन एक दूसरी गली में घुस गए।

उस गली के भीतर भी, कितने मोड़ों से घूमते हुए वे लोग जब एक छोटे-से घर के किवाड़ों को खोलकर भीतर घुसे, तो मधुबन ने देखा कि यहां दरिद्रता का पूरा साम्राज्य है। एक गगरी में जल और फटे हुए गूदड़ का बिछावन, बस और कुछ नहीं!

युवक ने कहा—मैं समझता हूं कि तुमको नोटों की आवश्यकता नहीं है; क्योंकि उन्हें लेकर जब तुम कहीं भुनाने जाओगे, तुरंत वहीं पकड़ लिये जाओगे; इसलिए उन्हें तो मेरे पास रख छोड़ो। और लो यह पांच रुपये। अपने लिए सामान रखकर दो-चार दिन यहीं कोठरी में पड़े रहो। फिर देखा जाएगा।

इतना कहकर उसने एक हाथ तो नोटों के लेने के लिए बढ़ाया और दूसरे से पांच रुपये [ १३२ ] देने लगा। मधुबन चकित होकर उसका मुंह देखने लगा—कैसे नोट?

इतने में रामदीन ने नोटों का बंडल निकालकर सामने रख दिया। मधुबन ने पूछाअरे तूने इतने नोट कहां से पाए? क्या उससे तूने छीन लिया पाजी! क्या फिर यहां चोरी पकड़वाएगा।

यह है कलकत्ता! मालूम होता है कि तुम लोग अभी नए आए हो। भाई यहां तो छीनाझपटी चल ही रही है। तुम्हें धर्म के नाम पर भूखे मरना हो तो चले जाओ गंगा-किनारे। लाखों पर हाथ साफ करके सवेरे नहाने वाले किसी धार्मिक की दृष्टि पड़ जाएगी तो दो-एक पाई तुम्हें दे ही देगा। नहीं तो हाथ साफ करो, खाओ, पियो, मस्त पड़े रहो।

मधुबन आश्चर्य से उसका मुंह देख रहा था। युवक ने धीरे से ही नोटों के बंडल को उठाते हुए फिर कहा—आनन्द से यहीं पड़े रहो। देखो, उधर जो काठ का टूटा संदूक है, उसे मत छूना। में कल फ़िर आऊँगा। कोई पूछे तो कह देना कि बीरू बाबू ने मुझे नौकर रखा है। बस।

वह युवक फिर और कुछ न कहकर चला गया। मधुबन हक्का-बक्का-सा स्थिर दृष्टि से उस भयानक और गंदी कोठरी को देखने लगा। उसका सिर घूम रहा था। वह किस भूलभुलैया में आ गया। यह किस नरक में जाने का द्वार है? यही वह बार-बार अपने मन से पछ रहा था। उसने परदेश में फिर वही मूर्खतापर्ण कार्य क्यों किया, जिसके कारण उसे घर छोड़कर इधर-उधर मुंह छिपाना पड़ रहा है। मरता वह, मुझे क्या जो दूसरे का झगड़ा मोल लेकर यहां भी वही भूल कर बैठा जो धामपुर में एक बार कर चुका था। उसे अपने ऊपर भयानक क्रोध आया। उसके घाव भी ठंडे होकर दुख रहे थे। रामदीन भी सन्न हो गया था। फिर भी उसका चंचल मस्तिष्क थोड़ी ही देर में काम करने लगा। उसने धीरे से एक रुपया उठा लिया, और उस घर के बाहर निकल गया।

मधुबन अपनी उधेड़बुन में बैठा हुआ अपने ऊपर झल्ला रहा था। रामदीन बाजार से पूरी-मिठाई लेकर आया। उसने जब मधुबन के सामने खाना खाकर उसका हाथ पकड़कर हिलाया तब उसका ध्यान टूटा। भूख लगी थी, कुछ न कहकर वह खाने लगा।

दोनों सो गए। रात कब बीती, उन्हें मालूम नहीं। हारमोनियम का मधुर स्वर उनकी निद्रा का बाधक हआ। मधबन ने आंख खोलकर देखा कि उसी घर के आंगन में छः-सात युवक और बालक खड़े होकर मधुर स्वर से भीख मांगने वाला गाना आरंभ कर चुके हैं, और बीरू बाबू उनके नायक की तरह ही गेरुआ कपड़ा सिर से बांधे बीच में खड़े हैं!

मधुबन जैसे स्वप्न देख रहा था। उसका सम्मिलित गान बड़ा आकर्षक था। वे धीरे-धीरे बाहर हो गए। दो लड़कों के हाथ में गेरुए कपड़े का झोला था। एक गले में हारमोनिया डाले था, बाकी गा रहे थे। भिखमंगों का यह विचित्र दल अपने नित्य-कर्म के लिए जब बाहर चला गया तब मधुबन अंगड़ाई ले उठ बैठा।

आज सवेरे से बदली थी। पानी बरसने का रंग था। रामदीन सरसों का तेल लेकर मधुबन के शरीर में लगाने लगा। वह इस अनायास की अमीरी का आंख मूंदकर आनन्द ले रहा था। वह जैसे एक नए संसार में आश्चर्य के साथ प्रवेश करने का उपक्रम कर रहा था। उसके जीवन की स्वचेतना जो उसे अभी तक प्राय: समझा-बुझाकर चलने के लिए संकेत किया करती थी—इस आकस्मिक घटना से अपना स्थान छोड़ चुकी थी। जीवन के [ १३३ ]आदर्शवाद मस्तिष्क से निकलने की चिंता में थे। दोपहर होने आयी, वह आलसी की तरह बैठा रहा।

बीरू बाबू का दल लौट आया। झोली में चावल और पैसे थे, जो अलग कर लिये गए। बीरू पैसों को लेकर साग-भाजी लेने चला गया। और लोग भात बनाने में जुट गए। बड़ासा चूल्हा दालान में जलने लगा और चावल धोते हुए ननीगोपाल ने कहा—बीरू आज भी मछली लाता है कि नहीं। भाई, आज तीन दिन हो गए, साग खाकर हारमोनियम गले में डाले गली-गली नहीं घूमा जा सकता। क्यों रे सुरेन!

सुरेन हँस पड़ा। ननी फिर बौखला उठा-पाजी कहीं का, तुझसे कहा था न मैंने कि दो-चार आने उनमें से टरका देना।

और बीरू बाबू की घुड़की कौन सहता?

मरें बीरू और सुरेन, मैं तो जाता हूं अड्डे पर। देहूं एकाध चिलम, चरस...।

बीरू के प्रवेश करते ही सब वाद-विवाद बंद हो गया था। उसने तरकारी की गठरी रखते हुए कहा-

आज भी मछली की ब्योंत नहीं लगी।

मैं तो बिना मछली के आज खा नहीं सकता—कहते हुए मधुबन ने एक रुपया अपनी कोठरी में से फेंक दिया। वह निर्विकार मन से इन बातों को सुनने का आनन्द ले रहा था। ननी दौड़ पड़ा—रुपये की ओर। उसने कहा-

वाह चाचा! तुम कहां से मेरी दुर्बुद्धि की तरह इस घर की खोपड़ी में छिपे थे। तो खाली मछली ही न कि और भी कुछ।

बीरू ने ललकारा—क्यों ने ननी, तरकारी न बनेगी? कहां चला?

जब एक भलेमानस कछ अपना खर्च करके खाने-खिलाने का प्रबंध कर रहे हैं तब भी बीरू चाचा! चूल्हे में डाल दूंगा तुम्हारा सूखा भात...हां-कहते हुए रुपया लेकर दौड़ गया। मधुबन मुस्कुरा उठा। वह आज पूरी अमीरी करना चाहता है।

ठाट-बाट से बीरू के दल की ज्योनार उस दिन हुई। भोजन करके सबको एक-एक बीड़ा, सौंफ और लोंग पड़ा हुआ पान मिला। नारियल भी गुड़गुड़ाया जाने लगा। ताश भी निकला। मधुबन को बातों में ही मालूम हुआ कि उस घर में रहने वाले सब ठलुए बेकार हैं। इस दल से संयोजक हैं 'बीरू बाबू'। उन्होंने परोपकार-दृष्टि से ही इस दल का संघटन किया है। उनकी आस्तिक बुद्धि बड़ी विलक्षण है। अपने दल के सामने जब वह व्याख्यान देते हैं तो सदा ही मनुस्मृति का उद्धरण देते हैं। जब अनायास, अर्थात् बिना किसी पुलिस के चक्कर में पड़े, कोई दल का सदस्य अर्थलाभ कर ले आता है, उसे ईश्वर को धन्यवाद देते हुए वे पवित्र धन समझते हैं। उसे ईश्वर की सहायता समझकर दरिद्रों के लिए, अपने दल की आवश्यकता की पूर्ति के लिए, व्यय करने में कोई संकोच नहीं करते। चाहे वह किसी तरह से आया हो। उन्होंने स्कूल की सीमा पर खड़े होकर कॉलेज को दूर से ही नमस्कार कर दिया था। वह तब भी व्याख्यान वाचस्पति थे। लेखक-पुंगव थे। बंगाल की पत्रिकाओं में दरिद्र के लिए बराबर लेख लिखा करते थे। मधुबन की उदारता को सन्देह की दृष्टि से देखते हुए उस दिन संघ के धन को मितव्ययिता से खर्च करने का उपदेश देते हुए जब अंत में कहा कि ईश्वर सबका निरीक्षण करता है, उसके पास एक-एक दाने का हिसाब रहता है, तब [ १३४ ]झल्लाते हुए ननी ने कहा- अरे भाई, तुमने मनुष्य को अच्छी तरह समझ लिया क्या, जो अब ईश्वर के लिए अपनी बुद्धि की लंगड़ी टांग अड़ा रहे हो? हम लोग हैं भूखे, सब तरह के अभावों से पीड़ित। पहले हम लोगों की आवश्यकता पूरी होने दो। जब ईश्वर हमसे हिसाब मांगेंगे तब हम लोग भी उनसे समझ लेंगे। एक दिन मछली सो सात एकादशी के बाद मिली, वह भी तुमसे देखा नहीं जाता।

बीरू ने देखा कि उसके बड़प्पन में बट्टा लगता है। उसने संभलकर हँसते हुए कहा-अरे तुम चिढ़ गए। अच्छा भाई, वही सही। अच्छी बात का प्रमाण यही है कि वह सबकी समझ में नहीं आती तो ठीक है।

मधुबन चुपचाप इस विचित्र परिवार का दृश्य देख रहा था। उसके मन में समय-समय पर निर्भय होकर निश्चिन्त भाव से संसार-यात्रा करते रहने का विचार घनीभूत होता जा रहा था। उसमें अन्य मनुष्यों से सहायता मिलने का लोभ भी छिपा था, वह मानसिक परावलम्बन की ओर ढलक रहा था। मनुष्य को कुछ चाहिए। वह किस तरह से आ रहा है, इस पर ध्यान देने की इच्छा नहीं रह गई। दूसरे दिन बीरू ने एक रिक्शा-गाड़ी मधुबन के लिए खरीद दी। मधुबन रात को उसे लेकर निकलता। वह सरलता से दो-तीन रुपये ले आने लगा। रामदीन उस दल का सेवक बन गया। दिन को कोई काम न करके, रात को निकलने में मधुबन को कोई असुविधा न थी। कुछ लोग भीख मांगते हुए, कुछ लोग अवसर मिलने पर रात को कुली का काम भी कर लेते। महीनों के भीतर ही एक रिक्शा और आ गई। अच्छी आय होने लगी। उस दल के उड़िया, बंगाली और युक्तप्रान्तीय आनन्द से एक में रहते थे।

रात के दस बजे थे। हबड़ा से चांदपाल घाट को जानेवाली सड़क पर मधबन अपनी रिक्शा लिए धीरे-धीरे चला जा रहा था। वह बैण्ड बजने वाले मड़ो पर खड़ा होकर गंगा की धारा को क्षण-भर के लिए देखने का प्रयत्न करने लगा। इतने में एक स्त्री का हाथ पकड़े हुए एक बाबू साहब लड़खड़ाती चाल से रिक्शा के सामने आकर खड़े हो गए। मधुबन रुककर आज्ञा की प्रतीक्षा करने लगा। दोनों ही मदिरा के नशे में झूम रहे थे। मधुबन ने पूछा -हबड़ा?

तुम पूछकर क्या करोगे, मैं जिधर चलता हूं उधर चलो।

क्या?—मधुबन ने पूछा। बड़ा बकवादी है। तो फिर बैठ जाइए।

दोनों रिक्शा पर बैठ गए। मधुबन उन्हें खींच ले चला। हां, उन मदोन्मत्त विलासी धनियों के लिए वह पशु बन गया था। गंगा का स्पर्श करके आती हुई शतिल वायु धीरे-धीरे बह रही थी। मधुबन रिक्शा खींचते हुए सोच रहा था।-

यदि मैं न छिपता तो फांसी होती। और न होगी, कभी मैं न पहचान लिया जाऊंगा, इसी पर कैसे विश्वास कर लूं। यह दुष्ट मनुष्यों का बोझ मैं गधों की तरह ढो रहा हूं। मेरी शिक्षा! मेरा वह उन्नत हृदय! सब कहां गया। क्या मैं छाती ऊंची करके दण्ड झेलने में असमर्थ था। और भय का वह पहला झोंका; उसी में मैना ने मुझे भगाने के लिए...हां, मैना, [ १३५ ]वह वेश्या! उसने मुझसे रुपये भी लिये और मुझे उस समय निकाल बाहर भी किया। मैं पापी था, अछूत था; पर वह चांदी के चमकीले टुकड़े—उनमें पाप कहां! धीरे से उन्हें वह रख आई। और मैं भगा दिया गया।

रिक्शा पर बैठे हुए बाबू साहब ने कहा—अरे बहुत धीरे-धीरे चलता है।

मधुबन अड़ियल टटू की तरह रुक गया। उसने कहा—तो बाबू साहब, मैं घोड़ा नहीं हूं। आप उतरकर चले जाइए।

मारे हंटरों के खाल खींच लूंगा। नवाबी करने की इच्छा थी तो रिक्शा क्यों खींचने लगा। चल, तुझे दौड़कर चलना होगा।

अच्छा, उतरो नहीं तो...मधुबन को आगे कुछ करने से रोककर उस स्त्री ने कहाबड़ा हठी है। थोड़ी दूर तो हबड़ा का पुल है। वहीं तक चल।

नहीं इसे सूतापट्टी के मोड़ तक चलना होगा मैना! अनवरी के दवाखाने तक! ठीक, वहां तक बिना पहुंचे श्यामलाल उतरने के नहीं।

मधुबन के शरीर में बिजली-सी दौड़ गई। मैना! और यह श्यामलाल वही दंगल वाले बाबू श्यामलाल! यही कलकत्ता में...ठीक तो! उसके क्रोध के कितने कारण एकत्र हो गए थे। अब वह अपने को रोक न सका। उसने रिक्शा छोड़ दी। वह झटके से पृथ्वी पर आ गिरा; और मैना के साथ बाबू श्यामलाल भी।

मैना भी गहरे नशे में थी, श्यामलाल का तो कहना ही क्या था। दोनों रिक्शा से लुढ़ककर नीचे आ गिरे। मधुबन की पशु-प्रवृत्ति उत्तेजित हो उठी। उसने एक लात कसकर मारते हुए कहा—पाजी। श्यामलाल गों-गों करने लगा। उसकी पंसली चरमरा गई थी। किन्तु मैना चिल्ला उठी। थोड़ी दूर खड़ी पुलिस उधर जब दौड़कर आने लगी तो मधुबन अपना रिक्शा खींचकर आगे बढ़ा। पुलिस ने उसे दौड़कर पड़क लिया। मधुबन को विवश होकर, फिर उन्हीं दोनों को लादकर पुलिस के साथ जाना ही पड़ा।

दूसरे दिन हवालात में मैना और मधुबन ने एक-दूसरे को देखा। मैना चिल्ला उठी-मधुबन!

मैना!—मधुबन ने उत्तर दिया।

दोनो चुप थे। पुलिस ने दोनों का नाम नोट किया। श्यामलाल और मैना अनवरी के दवाखाने में पहुंचाए गए। मधुबन पर अभियोग लगाया गया। केवल उसी घटना के आधार पर नहीं; पुलिस के पास उस भगोड़े के लिए भी वारंट था, जिसने बिहारीजी के महन्त के यहां डाका डालकर रुपये लिये थे और उनकी हत्या की चेष्टा की थी। पुलिस के सुविधानुसार उपयुक्त न्यायालय में मधुबन की व्यवस्था हुई। उसके ऊपर डाके डालने के दोनों अभियोग थे। न्यायालय में जब मैना ने उसे पहचानते हुए कहा कि उस रात में रुपयों की थैली लेकर छिपने के लिए मधुबन मेरे यहां अवश्य आया था, पर मैंने उसे अपने यहां रहने नहीं दिया, वह रुपये लेकर उसी समय चला गया, तो मधुबन उसके मुंह को एकटक देख रहा था। मैना! वही तो बोल रही थी। वह वहां धन की प्यासी पिशाची उसका संकेत, उसकी सहृदयता, सब अभिनय! रुपये पचा लेने की कारीगरी!

मधुबन को काठ मार गया। वह चेतना-विहीन शरीर लेकर उस अद्भुत अभिनय को देख रहा था। उसे दस वर्ष सपरिश्रम कठोर कारावास का दण्ड मिला। [ १३६ ] बीरू बाबू ने रिक्शा खरीदने की रसीद दिखाकर रिक्शा पर अपना अधिकार प्रमाणित कर दिया। रिक्शा उन्हें मिल गया। उस परोपकार संघ में मूर्ख रामदीन फिर रिक्शा खींचने लगा। हां, ननीगोपाल उस संघ से अलग हो गया। उसे बीरू बाबू से अत्यन्त घृणा हो गई!