तितली/4.5

विकिस्रोत से
तितली - उपन्यास - जयशंकर प्रसाद  (1934) 
द्वारा जयशंकर प्रसाद

[ १५४ ]

5.

शैला की तत्परता से धामपुर का ग्राम-संघटन अच्छी तरह हो गया था। इन्हीं कई वर्षों में धामपुर एक कृषि-प्रधान छोटा-सा नगर बन गया। सड़कें साफ-सुथरी, नालों पर पुल, करघों की बहुतायत, फूलों के खेत, तरकारियों की क्यारियां, अच्छे फलों के बाग-वह गांव कृषि-प्रदर्शनी बन रहा था! खेतों के सुंदर टुकड़े बड़े रमणीय थे। कोई भी किसान ऐसा न था, जिसके पास पूरे एक हल की खेती के लिए पर्याप्त भूमि नहीं थी। परिवर्तन में इसका ध्यान रखा गया था कि एक खेत कम-से-कम एक हल से जोतने-बोने लायक हो।

पाठशाला, बैंक और चिकित्सालय तो थे ही, तितली की प्रेरणा से दो-एक रात्रिपाठशालाएं भी खुल गयी थीं। कृषकों के लिए कथा के द्वारा शिक्षा का भी प्रबंध हो रहा था। स्मिथ उस प्रांत में 'बूढ़ा बाबा' के नाम से परिचित था। उसके जीवन में नया उल्लास और विनोदप्रियता आ गई थी। हंसा-हंसाकर वह ग्रामीणों को अपने सुधार पर चलने के लिए बाध्य करता।

हां, उसने ग्रमीणों में अखाड़े और संगीत-मंडलियों का भी खूब प्रचार किया। वह स्वयं अखाड़े जाता, गाने-बजाने में सम्मिलित होता, उनके रोगी होने पर कटिबद्ध होकर सेवा करता। युवकों में स्वयं-सेवा का भाव भी उसने जगाया।

धामपुर स्वर्ग बन गया। इंद्रदेव ने तो मां के लौटा देने पर भी उसकी आय अपने लिए कभी नहीं ली। शैला के सामने धामपुर का हिसाब पड़ा रहता। जिस विभाग में कमी होती, वहीं खर्च किया जाता। वह प्राय: धामपुर आया करती। नंदरानी की प्रेरणा से शैला एक चतुर भारतीय गृहिणी बन गई थी। इंद्रदेव के स्वावलम्बन में वह अपना अंश तो पूरा कर ही देती। बैरिस्टरी की आय, उन लोगों के निजी व्यय के लिए पर्याप्त थी।

और तितली? उसके और खेत बनजरिया से मिल जाने पर बीसों बीघे का एक चक हो गया था, जिसमें भट्टों की जगह बराबर करके धान की क्यारी बना दी गई थी। उसका बालिका-विद्यालय स्वतंत्र और सुंदर रूप से चल रहा था।

दो जोड़ी अच्छे बैल, दो गायें और एक भैंस उसकी पशुशाला में थीं। साफ-सुथरी [ १५५ ]चरनी, चरी के लिए अलग गोदाम, रामजस के अधीन था। अन्न की व्यवस्था राजो करती। मलिया और रामदीन की सगाई हो गई थी। उनके सामने एक छोटा-सा बालक खेलने लगा।

किंतु तितली अपनी इस एकांत साधना में कभी-कभी चौंक उठती थी। मोहन के मुंह पर गम्भीर विषाद की रेखा कभी-कभी स्पष्ट होकर तितली को विचलित कर देती थी।

मोहन का अभिन्न मित्र था रामजस। वह अभी तीस बरस का नहीं हुआ था, किंतु उसके मुंह पर वृद्धों की-सी निराशा थी। उसके हृदय में उल्लास तभी होता, जब मोहन के साथ किसी संध्या में गंगा की कछार रौंदते हुए वह घूमता था। वह चलता जाता था। और उसकी पुरानी बातों का अंत न था। किस तरह उसका खेत चला गया, कैसे लाठी चली, कैसे मधुबन भइया ने उसकी रक्षा की, यही उसकी बात-चीत का विषय था। मोहन ध्यानमग्न तपस्वी की तरह उन बातों को सुना करता।

मोहन भी अब चौदह बरस का हो गया था। वह सबसे तो नहीं, किंतु राजो से नटखटपन किए बिना नहीं मानता था। उसे चिढ़ाता, मुंह बनाता; कभी-कभी नोच-खसोट भी करता। पर उस दुलार से कृत्रिम-रोष प्रकट करके भी बाल-विधवा राजो एक प्रकार का संतोष ही पाती थी।

सच तो यह है कि राजो ने ही उसे यह सब सिखाया था। तितली कभी-कभी इसके लिए राजो को बात भी सुनाती। पर वह कह देती कि चल, तुझसे तो यह पाजीपन नहीं करता। इतना ही पाजी तो मधुबन भी था लड़कपन में, यह भी अपने बाप का बेटा है न।

राजो के मन में मधुबन के बाल्यकाल का स्नेहपूर्ण चित्र उपस्थित करते हुए मोहन उसको सांत्वना दिया करता।

मोहन कभी-कभी माता के गंभीर प्यार से ऊबकर रामजस के साथ घूमने चला जाता। वह आज गंगा के किनारे-किनारे घूम रहा था। संध्या समीप थी। सेवार और काई की गंध गंगा के छिछले जल से निकल रही थी। पक्षियों के झुण्ड उड़ते हुए, गंगा की शांत जलधारा में अपना क्षणिक प्रतिबिम्ब छोड़ जाते थे। वहां की वायु सहज शतिल थी। सब जैसे रामजस के हृदय की तरह उदास था।

रामजस को आज कुछ बात-चीत न करते देखकर मोहन उव्दिग्न हो उठा। उसे इतना चलना खलने लगा। न जाने क्यों, उसको रामजस से हंसी करने को सूझी। उसने पूछाचाचा! तुमने ब्याह क्यों नहीं किया? बुआ तो कहती थी, लड़की बड़ी अच्छी है। तुम्हीं ने नाहीं कर दी। हां रे मोहन! लड़की अच्छी होती है, यह तू जानने लगा। कह तो, मैं ब्याह करके क्या करूंगा? उसको खाने के लिए कौन देगा?

मैं दूंगा, चाचा! यह सब इतना-सा अन्न कोठरी में रखा रहता है। हर साल देखता हूं कि उसमें घुन लगते हैं, तब बुआ उसको पिसाकर इधर-उधर बांटती फिरती है। चाची को खाना न मिलेगा! वाह, मैं बुआ की गर्दन पर जहां चढ़ा, सीधे से थाली परोस देगी।

तुम बड़े बहादुर हो। क्या कहना! पर भाई, अब तो मैं तुम्हारा ही ब्याह करूंगा! अपना तो चिता पर होगा।

छी-छी चाचा, तुम्हीं न कहते हो कि बुरी बात न कहनी चाहिए। और अब तुम्हीं... [ १५६ ]देखा, फिर ऐसी बात करोगे तो मैं बोलना छोड़ दूंगा।

रामजस की आंखो में औसू भर आए। उसे मधुबन का स्मरण व्यथित करने लगा। आज वह इस अमृत-वाणी का सुख लेने के लिए क्यों नहीं अंधकार के गर्त से बाहर आ जाता। उसकी उदासी और भी बढ़ गई।

धीरे-धीरे धुंधली छाया प्रकृति के मुंह पर पड़ने लगी। दोनों घूमते-घूमते शेरकोट के खंडहर पर पहुंच गए थे। मोहन ने कहा-चाचा! यह तो जैसे कोई मसान है?

लम्बी सांस लेकर रामजस ने कहा-हां बेटा! मसान ही है। इसी जगह तुम्हारे वंश की प्रभुता की चिता जल रही है। तुमको क्या मालूम; यही तुम्हारे पुरुषों की डीह है। तुम्हारी ही यह गढ़ी है।

मेरी? -मोहन ने आश्चर्य से पूछा।

हां तुम्हारी, तुम्हारे पिता मधुबन का ही घर है।

मेरे पिता। दुहाई चाचा। तुम एक सच्ची बात बताओगे? मेरे पिता थे! फिर स्कूल में रामनाथ ने उस दिन क्यों कह दिया था कि-चल, तेरे बाप का भी ठिकाना है!

किसने कहा बेटा! बता, मैं उसकी छाती पर चढ़कर उसकी जीभ उखाड़ लूं। कौन यह कहता है?

अरे चाचा! उसे तो मैंने ही ठोक दिया। पर वह बात मेरे मन में कांटे की तहर खटक रही है। पिताजी हैं कि मर गये, यह पूछने पर कोई उत्तर क्यों नहीं देता। बुआ चुप रह जाती हैं। मां आंखो में आंसू भर लेती हैं। तुम बताओगे, चाचा।

बेटा, यही शेरकोट का खंडहर तेरे पिता को निर्वासित करने का कारण है। हां, यह खंडहर ही रहा। न इस पर बैंक बना, न पाठशाला बनी। अपने को उजाड़कर यह अभागा पड़ा है और एक सुंदर गृहस्थी को भी उजाड़ डाला!

तो चाचा! कल से इसको बसाना चाहिए। यह बस जाएगा तो पिताजी आ जाएंगें?

कह नहीं सकता।

तब आओ, हम लोग कल से इसमें लपट जाएं। इधर तो स्कूल में गर्मी की छुट्टी है। दोतीन घर बनाते कितने दिन लगेंगे।

अरे पागल! यह जमींदार के अधिकार में है! इसमें का एक तिनका भी हम छू नहीं सकते!

हम तो छुएंगे चाचा! देखो, यह बांस की कोठी है। मैं इसमें से आज ही एक कैन तोड़ता हूं। -कहकर मोहन, रामजस के 'हां-हां' करने पर भी पूरे बल से एक पतली-सी बांस की कैन तोड़ लाया। रामजस ने ऊपर से तो उसे फटकारा, पर भीतर वह प्रसन्न भी हुआ। उसने संध्या की निस्तब्धता को आंदोलित करते हुए अपना सिर हिलाकर मन-ही-मन कहा-है तू मधुबन का बेटा!

रामजस का भूला हुआ बल, गया हुआ साहस, लौट आया। उसने एक बार कंधा हिलाया। अपनी कल्पना के क्षेत्र में ही झूमकर वह लाठी चलाने लगा, और देखता है कि शेरकोट में सचमुच घर बन गया। मोहन के लिए उसके बाप-दादों की डीह पर एक छोटा-सा सुंदर घर प्रस्तुत हो ही गया।

अंधकार पूरी तरह फैल गया था। उसने उत्साह से मोहन का हाथ पकड़ -हिला दिया, [ १५७ ]और कहा-चलो मोहन! अब घर चलें।

वे दोनों घूमते हुए उसी घाट पर के विशाल वृक्ष के नीचे आए। उसके नीचे पत्थर पर मलिन मूर्ति का भ्रम मोहन को हुआ। उसने धीरे-से रामजस से कहा-चाचा, वह देखो, कौन है?

रामजस ने देखकर कहा-होगा कोई, चलो, अब रात हो रही है। तेरी बुआ बिगड़ेगी।

बुआ! वह तो बात-बात में बिगड़ती है। फिर प्रसन्न भी हो जाती है। हां, मां से मुझे...।

डर लगता है? नहीं बेटा! तितली के दुखी मन में एक तेरा ही तो भरोसा है। वह बेचारी तुम्हीं को देखकर तो जी रही है। हे भगवान्! चौदह बरस पर तो रामचंद्र जी वनवास झेलकर लौट आए थे। पर उस दुखिया का...।

वे लोग बातें करते हुए दूर निकल गए थे। वृक्ष के नीचे बैठी हुई मलिन मूर्ति हिल उठी।

बनजरिया के पास पहंचते-पहंचते रात हो गई। मोहन ने कहा-चाचा! क्या वह भूत था? तुमने मुझे देख लेने क्यों नहीं दिया? इसी से लोग डर जाते हैं? पागल! डर की कौन बात है? तेरा बाप तो डरना जानता ही न था? ।

हां, मैं भी डरता नहीं पर तुमने देखने क्यों नहीं दिया।

मोहन के मन में एक तरह का कतहल-मिश्रित भय उत्पन्न हो गया था। वह सन चका था कि एकांत में वृक्षों के पास भूत-प्रेत रहते हैं। तब भी वह अपने स्वाभाविक साहस को एकत्र कर रहा था।

तितली ने डांटकर पूछा—क्यों, तू इतनी देर तक कहां घूमता रहा? छुट्टी है तो क्या घर पर पढ़ने को नहीं है?

उसने मां की गोद में मुंह छिपाकर कहा—मां, मैं आज अपनी पुरानी डीह देखने चला गया था। शेरकोट!

दीपक के धुंधले प्रकाश में तितली ने उदासी से रामजस की ओर देखते हुए कहारामजस! इस बच्चे के मन में तुम क्यों असंतोष उत्पन्न कर रहे हो? शेरकोट को भूल जाने से क्या उनकी कुछ हानि होगी?

भाभी, शेरकोट मोहन का है। तुमको उसे भी लौटा लेना पड़ेगा, जैसे हो तैसे। मुझे उसके लिए मरना पड़े, तो भी मैं प्रस्तुत हूं। कल मैं स्मिथ साहब के पास जाऊंगा। न होगा तो लगान पर ही उसको मांग लूंगा। मधुबन भइया लौटकर आवेंगे, तो क्या कहेंगे।

उसको हटाने के लिए तितली ने कहा—अच्छा, जाओ। तुम लोग खा-पी लो। कल देखा जाएगा।

तितली एकांत में बैठकर आज रोने लगी! मधुबन आवेंगे? यह कैसी दुराशा उसके मन में आज भीषण रूप से जाग उठी। पुरुषोचित साहस से उसने इन चौदह बरसों से संसार का सामना किया था। किसी से न झुकने की टेक, अविचल कर्तव्य-निष्ठा और अपने बल पर खड़े होकर इतनी सारी गृहस्थी उसने बना ली। पर क्या मधुबन लौट आवेंगे? आकर उसके संयम और उसकी साधना का पुरस्कार देंगे? एक स्नेहपूर्ण मिलन उसके फूटे भाग्य में है?

निष्ठुर विधाता! बचपन अकाल की गोद में! शैशव बिना दुलार का बीता! यौवन के आरंभ में अपने बाल-सहचर 'मधुवा' का थोड़ा-सा प्रणयमधु जो मिला, वह क्या इतना [ १५८ ]अमर कर देने वाला है कि यंत्रणा में पीड़ित होकर वह अनन्तकाल तक प्रतीक्षा करती हुई जीती रहेगी?

उसे अपनी संसार-यात्रा की वास्तविकता में संदेह होने लगा। वह क्यों इतनीधमधाम से हलचल मचाकर संसार के नश्वर लोक में अपना अस्तित्व सिद्ध करने की चेष्टा करती रही? जिएगी, तो झेलेगा कौन? यह जीवन कितनी विषम घटियों से होकर धीरेधीरे अंधकार की गुफा में प्रवेश कर रहा है। मैं निरालम्ब होकर चलने का विफल प्रयत्न कर रही हूं क्या?

गांव भर मुझसे कुछ लाभ उठाता है, और मुझे भी कुछ मिलता है; किंतु उसके भीतर एक छिपा हुआ तिरस्कार का भाव है। और है मेरा अलक्षित बहिस्कार! मैं स्वयं ही नहीं जानती; किंतु यह क्या मेरे मन का संदेह नहीं है? मुझे जीभ दबाकर लोग न जाने क्या-क्या कहते हैं! यह सब चल रहा है. तो भी मैं अपने में जैसे किसी तरह संतष्ट हो लेती हैं।

मेरी स्व-चेतना का यही अर्थ है कि मैं और लोगों की दृष्टि में लघुता से देखी जाती हूं मैं और उसकी जानकारी से अपने को अछूती रखना चाहती हूं। किंतु यह 'लुक-छिप' कब तक चला करेगी? एक बार ध्वंस होकर यह खंडहर भी शेरकोट की तरह बन जाये!

शैला! कितनी प्यारी और स्नेह-भरी सहेली है। किंतु उससे भी मन खोलकर मैं नहीं मिल सकती। वह फिर भी सामाजिक मर्यादा में मुझसे बड़ी है, और मुझे वैसा कोई आधार नहीं। है भी तो केवल एक मोहन का। वह कोमल अवलम्ब! अपनी ही मानसिक जटिलताओं से अभी से दुर्बल हो चला है। वह सोचने लगा है, कुढ़ने लगा है, किसी से कुछ कहता नहीं। जैसे लज्जा की छाया, उसके सुंदर मुख पर दौड़ जाती है। मुझसे, अपनी मां से, अपनी मन की व्यथा खोलकर नहीं कह सकता। हे भगवान्! वह रोने लगी थी। हां, हां, रोने में आज उसे सुख मिलता था।

किंतु वह रोने वाली स्त्री न थी। वह धीरे-धीरे शांत होकर प्रकृतिस्थ होने लगी थी। सहसा दौड़ता हुआ मोहन आया। पीछे राजो थी। वह कह रही थी देख न, रोटी और दूध दे रही हूं। यह कहता है, आज तरकारी क्यों नहीं बनी। अपने बाप की तरह यह भी मुझको खाने के लिए तंग करता ही है।

मोहन तितली के पास आ गया था। तितली ने उसके सिर पर हाथ रखा, वह जल रहा था। उसने कहा—मां, मुझे भूख नहीं है।

अरे तुमको तो ज्वर हो रहा है तितली ने भयभीत स्वर में कहा। क्या? अब तो इसको आज खाने को नहीं देना चाहिए!

यह कहकर राजो चली गयी, और मोहन मां की गोद में भयभीत हिरणशावक की तरह दुबक गया।

तितली ने उसे कपड़ा ओढ़ाकर अपने पास सुला लिया। वह भी चुपचाप पड़ा मां का मुंह देख रहा था। दीप-शिखा के स्निग्ध आलोक में उसकी पुतली, सामना पड़ जाने पर, चमक उठती थी। तितली, उसके शरीर को सहलाती रही, और मोहन उसके मुंह को देखता ही रहा।

सो जा बेटा!—तितली ने कहा। नींद नहीं आ रही है। मोहन ने कहा। उसकी आंखों में जिज्ञासा भरी थी। क्या है रे? [ १५९ ]तितली ने दुलार से पूछा।

मां मैंने पेड़ के नीचे, शेरकोट के पास जो घाट पर बड़ा-सा पेड़ है उसी के नीचे, आज संध्या को एक विचित्र...।

क्या तू डर गया है? पागल कहीं का!

नहीं मां, मैं डरता नहीं। पर शेरकोट के पास कौन बैठा था। मेरे मन में जैसे बडा...

जैसे बड़ा, जैसा बड़ा क्या बड़े खाएगा? तू भी कैसा लड़का है। साफ-साफ नहीं कहता?—तितली का कलेजा धक्-धक् करने लगा।

मां! मैं एक बात पूछे?

पूछ भी तितली ने उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा। उसका पसीना अपने आंचल से पोंछकर वह उसकी जिज्ञासा से भयभीत हो रही थी।

मां!..

कह भी! मुझे जीते-जी मार न डाल! मेरे लाल! पूछ! तुझे डर किस बात का है? तेरी मां ने संसार में कोई ऐसा काम नहीं किया है कि तुझे उसके लिए लज्जित होना पड़े।

मां, पिताजी!...

हां बेटा, तेरे पिताजी जीवित हैं। मेरा सिंदूर देखता नहीं?

फिर लोग क्यों ऐसा कहते हैं?

बेटा! कहने दे, मैं अभी जीवित हूं। और मेरा सत्य अविचल होगा तो तेरे पिताजी भी आवेंगे।

तितली का स्वर स्पष्ट था। मोहन को आश्वासन मिला। उसके मन में जैसे उत्साह का नया उद्गम हो रहा था। उसने पूछा–मां, हमीं लोगों का शेरकोट है न? हां बेटा, शेरकोट तेरे पिताजी के आते ही तेरा हो जाएगा। कल मैं शैला के पास जाऊंगी। तू अब सो रह!

तितली को जीवन भर में इतना मनोबल कभी एकत्र नहीं करना पड़ा था। मोहन का ज्वर कम हो चला था। उसे झपकी आने लगी थी।

उसी कोठरी से सटकर एक मलिन मूर्ति बाहर खड़ी थी। सुकुमार लता उस द्वार के ऊपर बंदनवार-सी झुकी थी। उसी की छाया में वह व्यक्ति चुपचाप मानो कोई गंभीर संदेश सुन रहा था।

तितली की आंखो में एक क्षणिक स्वप्न आया और चला गया। उसकी आंखो फिर शून्य होकर खुल पड़ी। वह बेचैन हो गयी। उसने मोहन का सिर सहलाया। वह निर्मल हल्के-से ज्वर में सो रहा था। तब भी कभी-कभी चौंक उठता था। धीरे-धीरे उसके होठ हिल जाते थे। तितली जैसे सुनती थी कि वह बालक 'पिताजी' कह रहा है। वह अस्थिर होकर उठ बैठी। उसकी वेदना अब वाणी बनकर धीरे-धीरे प्रकट होने लगी-

नहीं! अब मेरे लिए यह असम्भव है। इसे मैं कैसे अपनी बात समझा सकूँगी! हे नाथ! यह संदेह का विष, इसके हृदय में किस अभागे ने उतार दिया। ओह! भीतर-ही-भीतर यह छटपटा रहा है। इसको कौन समझा सकता है। इसके हृदय में शेरकोट, अपने पुरखों की जन्मभूमि के लिए उत्कट लालसा जगी है।...ओह, सम्भव है, यह मेरे जीवन का पुण्य मुझे ही पापिनी और कलंकिनी समझता हो तो क्या आश्चर्य। मैंने इतने धैर्य से इसीलिए संसार का सब अत्याचार सहा कि एक दिन वह आवेंगे, और मैं उनकी थाती उन्हें सौंपकर अपने [ १६० ]दुःखपूर्ण जीवन से विश्राम लूंगी। किंतु अब नहीं। छाती में झंझरिया बन गयी हैं। इस पीड़ा को कोई समझने वाला नहीं। कभी एक मधुर आश्वासन! नहीं, नहीं, वह नहीं मिला, और न मिले! किंतु अब मैं इसको नहीं संभाल सकती। जिसने इसे संसार में उत्पन्न किया हो वही इसको संभाले। तो अभी नारी-जीवन का मूल्य मैंने इस निष्ठुर संसार को नहीं चुकाया क्या?

ठहर जाऊं? कुछ दिन और भी प्रतीक्षा करूं, कुछ दिन और भी हत्यारे मानव-समाज की निंदा और उत्पीड़न सहन करूं। क्या एक दिन, एक घड़ी, एक क्षण भी मेरा, मेरे मन का नहीं आवेगा—जब मैं अपने जीवन-मरण के दुःख-सुख में साथ रहने की प्रतिज्ञा करने वाले के मुंह से अपनी सफाई सुन लूं?

नहीं वह नहीं आने का। तो भी मनुष्य के भाग्य में वह अपना समय कब आता है, यह नहीं कहा जा सकता। रो लूं? नहीं, अब रोने का समय नहीं है। बेचारा सो रहा है। तो चलूं। गंगा की गोद में।

तितली इस उजड़े उपवन से उड़ जाए।

उसने पागलों की तरह मोहन को प्यार किया, उसे चूम लिया।

अचेत मोहन करवट बदलकर सो रहा था। तितली ने किवाड़ खोला।

आकाश का अंतिम कुसुम दूर गंगा की गोद में चू पड़ा, और सजग होकर सब पक्षी एक साथ कलरव कर उठे।

तितली इतने ही से तो नहीं रुकी। उसने और भी देखा, सामने एक चिरपरिचित मूर्ति! जीवन-युद्ध का थका हुआ सैनिक मधुबन विश्राम-शिविर के द्वार पर खड़ा था। [ १६२ ]

राजपाल एण्ड सन्ज़ के चर्चित उपन्यास

[ १६४ ]


जयशंकर प्रसाद बहुआयामी रचनाकार थे। कवि, नाटककार, कहानीकार होने के साथ-साथ वह उच्चकोटि के उपन्यासकार भी थे। जयशंकर प्रसाद और मंशी प्रेमचंद समकालीन लेखक थे लेकिन दोनों के लेखन की अलग-अलग धाराएँ थीं। जहाँ प्रेमचंद की अधिकांश रचनाएँ उस समय के यथार्थवाद को उजागर करती हैं वहीं जयशंकर प्रसाद का लेखन आदर्शवादी है। जिसमें भारतीय संस्कृति, इतिहास और प्राचीन गौरव-गाथाओं की झलक मिलती है। जयशंकर प्रसाद ने मात्र दो उपन्यास लिखे-कंकाल और तितली। तीसरा उपन्यास इरावती उनके निधन के कारण अधूरा रह गया।

तितली कृषि और ग्रामीण जीवन को केन्द्र में रखकर एक नारी की कहानी है। जो भारतीय दृष्टि और कृषि सभ्यता की पहचान करवाती है। इसमें वर्णित नारी की छवि है एक आदर्श प्रेमिका और आदर्श पत्नी की। वह कैसे अपने दांपत्य जीवन और प्रेम की पुकार के बीच अपना रास्ता चुनती है, इस द्वंद्व का दिल छू लेने वाला चित्रण इस उपन्यास में है।