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दुखी भारत/११ चाण्डाल से भी बदतर—समाप्त

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प्रयाग: इंडियन प्रेस, लिमिटेड, पृष्ठ १६२ से – १७७ तक

 

ग्यारहवाँ अध्याय

चाण्डाल से भी बदतर-समाप्त।

क्लू क्स क्लान, जो प्रतिवर्ष कई बार सभी देशों के समाचार-पत्रों में प्रथम पृष्ठ के आकर्षक शीर्षकों में दिखाई पड़ता है, अमरीका की अपनी ख़ास उपज है। उस अमरीका की नहीं, जिसने व्हिटमैन और इमर्सन को उत्पन्न किया, बल्कि उस अमरीका की जिसने दूसरे प्रकार के नमूने जैसे बैविट, डब्लू॰ आर॰ हर्स्ट और कैथरिन मेयो को जन्म दिया।

अत्यन्त महत्त्वपूर्ण और सनसनी उत्पन्न करनेवाले क्लान के जो समाचार छन कर समस्त देशों में पहुँचते हैं उनमें हबशियों की नियम-विरुद्ध और निर्दयता-पूर्ण हत्याओं का वर्णन मिलता है। परन्तु वास्तव में क्लान हबशियों का वध करने के लिए केवल गुप्त-संघ ही नहीं है बल्कि यह अमरीका के समस्त मनोभावों का प्रतिबिम्ब भी है। यह अत्यन्त अत्याचार से युक्त अमरीका के प्रोटेस्टैंट सम्प्रदाय की राष्ट्रीयता का नमूना है। यह अपने से भिन्न सम्प्रदायों-कैथलिक, यहूदी और हबशी-पर अपना सिक्का जमाना चाहता है। कदाचित् कुछ पाठक जल्दी से यह न समझ सकेंगे कि वृणापात्रों की इस सूची में कैथलिकों को क्यों सम्मिलित कर लिया गया है। यह स्मरण रखना चाहिए कि अमरीका में कैथलिकों के विरुद्ध जो भाव है वह अभी पुराना नहीं हो गया। कैथलिकों की संख्यायें*[] इतनी महत्त्वपूर्ण होते हुए भी अभी तक कोई कैथलिक ईसाई अमरीका के इतिहास में प्रेसीडेन्ट का पद नहीं


प्राप्त कर सका है। इस पद के कैथलिक उम्मेदवार अल स्मिथ को, यह घोषित करने पर भी कि वह जितना अच्छा कैथलिक है उतना ही अच्छा अमरीकन भी है, इस द्वेष-भावना पर विजय नहीं प्राप्त हुई।

वर्तमान रूप में क्लान का सङ्गठन १९१५ ईसवी में हुआ था। परन्तु यह उसी गुल्ल संस्था का वंशज हैं जो १९ वीं सदी में 'सर्वथा अज्ञात' के नाम से विख्यात थी। जिन राज्यों में पहले दासता की प्रथा थी वहां गोरों की प्रभुता बनाये रखने के लिए जो प्राचीन आदर्श, उपाय, और शब्दकोष थे वही अब भी उसी रूप में चले जा रहे हैं। इसलिए विलियम जोसेफ साइमन्स ने-जो स्पेन और अमरीका के युद्ध में स्वयं सेवक होने के कारण कर्नेल साइमन्स भी कहलाता था और जो प्रोटेस्टेंट मत का एक साधारण उपदेशक था-१९१५ ईसवी में क्लान का सङ्गठन करके कोई नवीन प्रयोग नहीं किया।

क्लान एक गुप्त-क्रान्तिकारी संस्था है जो भेदभरे गम्भीर, पर हास्यास्पद नामों वाले त्यौहारों के साथ अज्ञानी हबशियों को भयभीत करने के उद्देश्य से स्थापित हुई है। सावधान करने के लिए रहस्यपूर्ण चिट्टियाँ, गुम-नाम धमकियां, सफ़ द नकावें, जलती मशालों के शान्त और गम्भीर जुलूस, मानव-ठठरी के हबशियों पर लगे हाथ, क्रूरतापूर्ण वध, कोड़ों का प्रयोग, कल्ल, और समस्त नियमों और कानूनों की अवहेलना आदि बातों ने क्लान को बड़ी भयङ्कर शक्तियाँ दे दी हैं। इस गुप्त-दल में जो पदाधिकारी हैं उनको बहुत बड़ी बड़ी उपाधिर्या प्रदान की गई हैं। सबके ऊपर महान् जागर होता है जो एक अदृश्य साम्राज्य का शासक कहा जाता है। उसके नीचे प्रत्येक राज्य के लिए एक महान् राक्षस होता है। प्रत्येक उपनिवेश के लिए एक महान प्रेत होता है। प्रत्येक गुफा के लिए एक महान् एकाक्ष दानव होता है। इनके अतिरिक्त महान् पादरी, महान् तुर्क और महान् पहरेदार भी होते हैं।.........

क्लोरन नामक पुस्तक में इस विचित्र बर्बरतापूर्ण संस्था के त्यौहार आदि वर्णित हैं। उनमें कर्नेल साइमन्स ने 'उन सब बातों को भी जोड़ दिया है जो कैथलिकों और यहदियों के त्योहारों और त्यों के विरुद्ध हो सकती हैं। हवशियों के विरुद्ध जो बातें थीं उनमें कोई परिवर्तन नहीं हुआ क्योंकि वे पहले से ही अत्यन्त प्रबल थीं। क्लान का धार्मिक विश्वास वही है जो प्रोटेस्टेंट सम्प्रदाय का है। और गोरी जाति के नाते उसने गोरों की अमर प्रभुता स्थापित करने की प्रतिज्ञा की है। इसके सदस्यों की संख्या*[] बढ़ रही हे या घट रही हो, पर यह सब प्रकार से एक ऐसा संगठन है जिसका अमरीका की राजनीति पर बड़ा प्रबल प्रभाव है । जहाँ क्लान का प्रश्न प्राता है वहाँ राजनीतिज्ञ लोग खूब फेंक फूक कर पैर रखते हैं†[]

श्रीयुत एम॰ सीगफ़्रीड ने क्लान‡[] के पाक्षिक मुख पत्र अमरीकन स्टैंडर्ड से निम्नलिखित बातें संग्रह की हैं। इनसे कैथलिक सम्प्रदाय के प्रति क्लान के मनाभाव का अच्छा परिचय मिल जाता है। पहली बात अगस्त १९२५ ई॰ की संख्या से ली गई है:-

"क्या आप जानते हैं कि भविष्य में रोम वाशिंगटन को अपनी शक्ति का केन्द्र बनाना चाहता है। इसलिए वह हमारे शासन के सब विभागों में कैथलिकों को भर रहा है। हमारी राजधानी में वर्षों से पोपों की मण्डली अपने अनुकूल युद्ध-स्थान खरीद रही है। वाशिंगटन में हमारे शासन-विभाग में ६१ सैकड़ा कर्मचारी रोमन कैथलिक हैं। हमारे कोष-विभाग में जिसे शराबखोरी आदि की बन्दी के अधिकार प्राप्त हैं ७० सैकड़ा रोमन कैथलिक भरे हैं।"


दूसरी बात १ अक्टूबर १९२५ की संख्या से ली गई है:-

"हमको रोमन-कैथलिक की पोप-मण्डली पर पुनः आक्रमण करना पड़ रहा है। क्योंकि वह अपने स्वार्थ-पूर्ण उद्देश्यों को सिद्ध करने के लिए लगातार यह उद्योग कर रही है कि हम लोग यह विश्वास करने लगे कि अमरीका का अन्वेषण क्रिस्टोफर कोलम्बस ने किया था। इस प्रकार छल से वह अपना पैतृक अधिकार जमाना चाहती है जो कि वास्तव में प्रोटेस्टेंट लोगों का है। क्योंकि इस महाद्वीप का अन्वेषण बीफ एरिस्कन ने १००० ईसवी में किया था।"

इस पर एम॰ सीगफ़्रीड हास्यपूर्ण व्यङ्ग करते हैं कि १००० सन् में तो प्रोटेस्टेंट थे ही नहीं। इसलिए लीफ़ एरिस्कन कैथलिक ही रहा होगा। इस प्रसङ्ग को पाठकों को और अच्छी तरह समझाने के लिए यहाँ यह बता देना आवश्यक है कि एक बार (गत शताब्दी के अन्त में) पोप की ओर से एक झूठी चिट्ठी उपस्थित की गई थी जिसमें पोप से यह दावा कराया गया था कि अमरीका का पता लगानेवाला कोलम्बस कैथलिक था। इसलिए समस्त अमरीका कैथलिक-सम्प्रदाय का है।

यह विवाद बड़ा मनोरञ्जनमय है। इस बात की कल्पना बड़ी सरलतापूर्वक की जा सकती है कि जिस प्रकार भारतवर्ष में ब्रिटिश हैं वैसे ही यदि यहाँ भी कोई तीसरा दल होता तो क्या कैथलिक और क्लान के लोग हिन्दू-मुसलमानों से भी अधिक भयङ्कर रूप धारण करके न लड़ते?

एक असम्बद्ध बात मानी जायगी। परन्तु इस विषय से जो बात विशेष सम्बन्ध रखती है वह यह पूछना है कि क्या चाण्डालों के प्रति ब्राह्मणों का जो बर्ताव था वह हबशियों के प्रति अमरीका के कान से भी अधिक अन्याय-युक्त और निर्दयतापूर्ण था?

अभी एक ऐसी जाति का वर्णन करना और शेष रह गया है जिसके ऊपर भी श्रमरीका में अछूतों के ही समान निर्दयतापूर्ण बर्ताव किया जाता है। यह जाति रेड इंडियन की है। बारप के लोगों ने जब से अमरीका का पता लगाया है तभी से इन लोगों को उस देश के जङ्गली भैंसों और अन्य पशुओं की भांति नष्ट करना प्रारम्भ कर दिया है। इसका सरकार और नागरिक दोनों ने कोई विवरण नहीं रक्खा। अब बनैले पशुओं के समान उनका पीछा और शिकार नहीं किया जाता। वे अफ़्रीका के आदिनिवासियों के दर्जे पर आ गये हैं। जिस प्रकार पूर्वी अफ़्रीका में मसाई जाति के लोगों के लिए विशेष भूमि नियत कर दी जाती है और उसमें वे पशुओं की भाँति रख दिये जाते हैं वैसे ही इनके लिए भी प्रबन्ध होगया है। पूर्वी अफ्रीका में जिस प्रकार अत्यन्त उपजाऊ भूमि गोरे दख़ल लेते हैं और रद्दी भूमि वहाँ के आदिनिवासियों को मिलती है उसी प्रकार अमरीका में भी 'रेड इंडियन को ऐसी रद्दी भूमि मिलती है कि जिससे जीवन निर्वाह बड़ी कठिनता के साथ हो सकता है।' (फिर भी गोरों के लिए एक दुःख का कारण उपस्थित हो गया है, क्योंकि इस रद्दी भूमि के भी कुछ भाग ने अपने हृदय में मिट्टी के तेल आदि के खजाने छिपा रक्खे थे और उनसे रेड इंडियन की सम्पत्ति बहुत बढ़ गई है।)

रेड इंडियनों को अस्वास्थ्यकर स्थानों में रखा जाता है। इसलिए उनकी मृत्यु-संख्या गोरों की मृत्यु-संख्या से बहुत अधिक बढ़ गई है। उनमें तपेदिक और नेत्ररोग विशेषरूप से पाये जाते हैं।

रेड इंडियनों की शिक्षा के लिए अमरीका का संयुक्त राज्य धन व्यय कर रहा है।परन्त जिनके हाथ में इस व्यय का अधिकार दिया गया है उनकी रेड इंडियनों के साथ कोई सहानुभूति नहीं है। इससे उचित फल की प्राप्ति नहीं हो रही है। मैंचेस्टर गार्जियन के न्यूयार्क के संवाददाता ने मिस्टर एच॰ एल॰ रसेल-एक रेड इंडियन स्कूल के प्रधान-के पत्र से कुछ प्रमाण हाल ही में उद्धत किये थे। उस पत्र में मिस्टर रसेल ने स्कूलों में रेड इंडियनों के बालकों पर जो पाशविक अत्याचार किया जाता है उसी के सम्बन्ध में लिखा था। संयुक्तराज्य की सिनेट में एक रेड इंडियन की समस्याओं पर विचार करनेवाली कमेटी है उसी के सामने यह पत्र उपस्थित किया गया था। पत्र का कुछ अंश इस प्रकार है।

"मैंने देखा है कि दण्ड देने के लिए रेड इंडियन के बालकों को रात में बिस्तर से बाँध देते हैं। मैंने देखा है कि वे मकानों के नीचे बनी गुफाओं में बन्द कर दिये जाते हैं। इन गुफाओं को छात्रावास का अधिकारी कारागार कहता है। मैंने देखा है कि उनके जूते निकलवा लिये जाते हैं और उन्हें दूध दुहने में सहायता देने के लिए गोशाला तक बर्फ पर नङ्गे पांवों जाने के लिए विवश किया जाता है। मैंने देखा है कि वे सन के रस्सों से .... पानी रखने के थैलों से भी पीटे जाते हैं और कर्मचारियों तथा सुपरिटेंडेन्ट के लिए शिक्षा और उद्योग की आड़ में नौकरों का काम करते हैं। बदले में कुछ पाते भी नहीं।"

वह संवाददाता लिखता है कि संक्षेप में बालकों पर अत्यन्त नियन्त्रण रखने और उनसे काम लेनेवाली प्रथा अब तक जीवित है और खूब फल-फूल रही है।

१९२६ ईसवी में संयुक्त राज्य में रेड इंडियनों की संख्या ३,४९,९६४ थी। यह अनुमान किया जाता है कि उनको नागरिक स्वीकार कर लिया गया है। परन्तु वे पूर्णरूप से किसी प्रकार के राजनैतिक अधिकार से ही वचित नहीं हैं बल्कि गृह-प्रबन्ध-सम्बन्धी अधिकारों से भी वञ्चित हैं। संयुक्त राष्ट्र की सरकार का रेड इंडियन शासन-विभाग, जिसमें लगभग ५,००० वैतनिक गोरे कार्य करते हैं-'अयोग्य' रेड इंडियनों की सम्पत्ति पर पूर्ण अधिकार रखता है। रेड इंडियनों की जो सम्पत्ति सीधी इस विभाग के अधीन है वह कुल मिला कर ३०,००,००,००० पौंड की अनुमान की जाती है। इसमें नकद और जमानत मिलकर १,१०,००,०७० पौंड हैं। ये 'अयोग्य रेड इंडियन वाशिंगटन में स्थित अपने कमिश्नर की स्वीकृति लिये बिना अपनी सम्पत्ति का स्वतन्त्रता के साथ प्रयोग नहीं कर सकते। 'जश्च तक वह (कमिश्नर) स्वीकार न करे न तो पट्टा लिख सकते हैं, न भूमि खरीद सकते हैं, और न बेच सकते हैं, या किसी को दे सकते हैं। वे अपनी पैरवी कराले के लिए वकील नियुक्त कर सकते हैं। परन्तु इस बात के अनेक प्रतिवाद आते रहते हैं कि उनकी ऐसी इच्छाएँ कुछ ही वकीलों तक परिमित हैं। वे वकील रही होते हैं जो फेडरल के कर्मचारियों के विरुद्ध नहीं जाते। न्यूयार्क के संवाद-दाता-द्वारा प्रयोग किया गया यह अन्तिम वाक्य मिल मेयो के उस निरीवण का पुनः स्मरण दिलाता है जिसमें वह कहती है कि अपने अधीन कुत्ते को उसके पिँजड़े में रखने के लिए एक नहीं, अनेक उपात्र हैं।

यही वह देश है जहाँ से मिस मेयो ओलों की दृष्टि कर रही है। दलितजातियों के प्रति व्यवहार के सम्बन्ध में हम लोगों पर निर्णय देने के लिए उसका बैठना ऐसा ही है जैसा तवे का यह कहना कि पतेली काली है। इतने पर भी अमरीका का संयुक्त राज्य संसार में सबसे बढ़कर स्वतन्त्र देश समझा जाता है। निःसन्देह बड़ा स्वतंत्र है! क्योंकि अब भी वर्णनातीत निर्दयता और नृशंसता के साथ निरपराध हबशियों का वध जारी है। कदाचित् 'आधुनिक सभ्यता' के अनुरूप कार्य यही हो।

एँग्लो-इंडियनों का और मिल मेयो का यह कहना है कि वे 'दलित जातियों के मित्र हैं। ब्रिटिशवादियों की तो मुसलमानों के विरुद्ध हिन्दुओं को, अब्राह्मणों के विरुद्ध ब्राह्मणों को, निम्न-जातियों के विरुद्ध उच्च जातियों को दबाने में ही बन पाती है। दलित जातियों के साथ राजनैतिक सहानुभूति प्रदर्शित करने से उनका बड़ा काम निकलता है। परन्तु उनके इन ढोंगों का नैतिक खोखलापन प्रकट हो जाता है जब हम यह स्मरण करते हैं कि संसार में एक सिरे से लेकर दूसरे सिरे तक अगौर जातियों के साथ वे क्या बर्ताव कर रहे हैं। साम्राज्य-विस्तार के लिए उन्होंने जो मनुष्य-जाति-विनाशक युद्ध किये उन पर ध्यान न दीजिए तब भी आपके सामने अमृत्सर का हत्याकाण्ड और पेट के बल रेंगाने की आज्ञा मौजूद है। दैनिक जीवन में जहाँ भी 'गौर' तथा 'अगौर' जाति के लोग परस्पर मिलते हैं वहाँ गोरों का उद्धत बर्ताव देखने में आता रहता है। अफ़्रीका में ब्रिटिशवादी यह ढोंग रचते हैं कि वे काफिर जाति के स्वार्थों के संरक्षक हैं। परन्तु ये संरक्षक अपने संरक्षित की स्वतन्त्रता और भूमि दोनों हड़प लेते हैं। संरक्षित श्रम में पिसते हैं और संरक्षक उनके परिश्रम का फल चखते हैं। ये संरक्षक अपने संरक्षितों के साथ, भारत में प्रकृतों के साथ जो बर्ताव किया जाता है उससे भी बुरा, बर्ताव करते हैं। दोनों की बस्तियों में ही अन्तर नहीं है, जीवन के प्रत्येक कार्य में वे एक दूसरे से बहुत दूर रहते हैं। बहुत से स्थानों में गोरों की सड़कों और रेलगाड़ियों का भी उनके अधीन लोग उपयोग नहीं कर सकते। भारतवर्ष में वर्णभेद-संबन्धी घृणा का भाव अब कम हो रहा है परन्तु अब भी ऐसी घटनाएँ होती रहती हैं जब अत्यन्त सुशिक्षित और उच्च से उच्च श्रेणी के भारतीयों को भी अभिमानी गोरे रेलगाड़ियों में स्थान देना अस्वीकार कर यह अध्याय समाप्त करने से पूर्व मैं पाठकों को सावधान कर देना चाहता हूँ कि दे यह न समझे कि मैंने ऊपर जो बातें उपस्थित की हैं, उनका उद्देश्य अस्पृश्यता का समर्थन करना या उसे बहुत कम करके दिखलाना है। मैं अस्पृश्यता का घोर विरोधी हूँ। इसे समर्थन के पूर्ण अयोग्य, अमानुषिक, बर्बर और ऐसी प्रथा समझता हूँ जो हिन्दुओं और हिन्दू-धर्म के सर्वथा अयोग्य है। यह उस संस्कृति पर कलङ्क-स्वरूप है जिसे इसके अतिरिक्त संसार की सर्वश्रेष्ठ संस्कृति कह सकते हैं। सर्वश्रेष्ठ नहीं तो कम से कम सर्वश्रेष्ठ संस्कृतियों में से एक तो-जिसकी, जाति के समस्त इतिहास में, मानवीय प्रतिमा ने रचना की है-अवश्य समझता हूँ।

कतिपय राज्यों में यहूदी नागरिकों के साथ अब भी जो म्यवहार किया जाता है उसका यहाँ हमने वर्णन नहीं किया। उनके लिए जिन दो अपमानजनक शब्दों-'पोगरोग' और 'घीटो' का प्रयोग किया जाता है उन्हीं का उल्लेख कर देना पर्याप्त है।

हम अपने ऊपर लगाये गये इस अपराध को स्वीकार करते हैं कि हमारी सामाजिकपद्धति अनेक जातियों और उपजातियों के रूप में विकसित हुई। हम इन जाति-बन्धनों के तोड़ने का यथाशक्ति उद्योग कर रहे हैं। परन्तु निःसन्देह हमसे यह कहना गोरों के मुँह का काम नहीं है कि हम 'संसार के लिए भय-स्वरूप हैं-और मनुष्य-जाति के एक भाग को मनुष्य से भी कम समझते हैं। इतिहास इस बात का प्रमाण है कि गोरा-साम्राज्यवाद संसार के लिए सबसे बड़ा खतरा है। और इसका जातिद्वेष केवल इस विचार पर स्थित है कि जो 'गोरे' नहीं हैं वे 'मनुष्य से कम' हैं। इसने विशाल जनसंख्या को राजनैतिक और नागरिकता-बन्धी अधिकारों से वञ्चित कर रक्खा है और यह निर्दयता के साथ उसे अपने अर्थ-साधन के लिए सता रहा है। इसने अनाचार का दौर-दौरा कर दिया है। हाल के ऐसे अनेक कार्यों में पूर्व की रानी देमस्कस पर झांस-द्वारा गोले-बारी का उदाहरण दिया जा सकता है। यदि शीघ्रता और प्रभाव के साथ इसे रोका न गया तो इसमें केवल अगौर जातियों की ही सभ्यता को नहीं, संसार की समस्त सभ्यता को नष्ट कर देने के लक्षण दिखलाई पड़ रहे हैं। १९१४ के विश्वव्यापी युद्ध में लालच और द्वेष से उत्तेजित किया गया इसका एक नमूना हम देख चुके हैं। गोरी जातियों ने अगौर जातियों के साथ जो दुर्व्यवहार किया है उसकी तुलना में भारतवर्ष के जातीय दुर्व्यवहार क्या ठहरेंगे?

भारतवासियों से यह कहा जाता है कि उन्हें ब्रिटिश साम्राज्य का अभिमान करना चाहिए; परन्तु साम्राज्य के सब भागों में उनके साथ गुलामों के जैसा बर्ताव किया जाता है। आस्ट्रेलिया, कनाडा और दक्षिणी अफ्रीका में उनको सब प्रकार के अपमानों और असुविधाओं का सामना करना पड़ता है। गोरों के होटलों, विश्राम-गृहों, और कहवा आदि की दूकानों में उनका प्रवेश वर्जित है।

परन्तु जब हम अफ़्रीका के आदि-निवासियों के प्रति उनके ढोंगी संरक्षकों-गोरों-के व्यवहार पर विचार करते हैं तो हमें ये सब बातें घरेलू प्रतीत होती हैं। उन भयानक और रक्त को शुष्क कर देनेवाले दृश्यों को दिखाने के लिए 'निविंसन' या 'मोरेल' की लेखनी होनी चाहिए। मिस्टर मोरेल ने इस विषय के अध्ययन में अपना सम्पूर्ण जीवन लगा दिया है और वे निम्नलिखित परिणाम पर पहुँचने के लिए विवश हुए हैं*[]

"उसकी भूमि पर गोरों के पक्षपात-पूर्ण अधिकार जो नहीं कर सके, योरप के राजनैतिक प्रभाव के घेरे जो नहीं कर सके, मशीनगनें और बन्द जो नहीं कर सकी, गुलामों के दल, खानों के भीतर के परिश्रम जो नहीं कर सके, चेचक, खसरा, और गर्मी आदि के खरीद कर लाये गये रोग जो नहीं कर सके, और जो समुद्र-पार गुलाम लेजाकर बेचने की प्रथा भी नहीं कर सकी, उसकी सबकी पूर्ति आधुनिक पूंजीवादियों की लूट-खसोट, आधुनिक विनाशक-यन्त्रों की सहायता से, बड़ी सफलता के साथ कर देगी।

"क्योंकि इन पूँजीपतियों की वैज्ञानिक रीति से बलपूर्वक प्रयोग की गई लूट-खसोट से बचने का अफ्रीकावाली के पास कोई उपाय नहीं है। इसके विनाशक प्रभाव सामयिक ही नहीं हैं बल्कि चिरस्थायी भी हैं। इसके स्थायित्व में ही इसके घातक परिणाम भरे हैं। यह केवल शरीर का ही नहीं बल्कि प्रात्मा का भी हनन करती है। यह उत्साह को भङ्ग कर देती है। अफ़्रीका निवासी जिधर मुँह मोड़ते हैं उधर ही यह उन पर थप्पड़ जमाती है। यह उनके सङ्गठन को नष्ट करती है, उन्हें उनकी भूमि से उखाड़ती है, उनके गाहस्थ्य-जीवन पर आक्रमण करती है, उनके प्राकृतिक साधनों को नष्ट करती है, उनके सम्पूर्ण समय पर दावा करती है और उन्हें उन्हीं के घर में गुलाम बनाकर रखती है।"

इस लूट-खसोट का इतिहास देना या इसके कारण प्रादि-निवासियों की जो दुर्दशा हो रही है उसका वर्णन करना हमारे विषय के बाहर की बात है। परन्तु हम कुछ ऐसी घटनाएँ दे सकते हैं जो गोरे-साम्राज्यवाद की 'दयालु' नीति पर प्रकाश डालेंगी। हमारा संग्रह केवल अफ्रीका में रबर की खेती तक ही परिमित रहेगा। कांगो में रबर की खेती के सम्बन्ध में लिखते हुए श्रीयुत मोरेल लिखते हैं*[]-

"अब हमें उस प्रणाली के कारनामों का वर्णन करना है जिसे कयनन डायल ने 'समस्त इतिहास में सबसे बड़ा पाप कहा था; सर सिडनी ओलवियर ने 'प्राचीन गु़लामी की प्रथा का परिवर्तित स्वरूप कहा था, ब्रिटेन के प्रधान पादरी ने तत्कालीन समस्त राजनैतिक प्रश्नों से बहुत ऊपर की बात कहा था; और एक विदेश के लिए ब्रिटिश मंत्री ने 'अत्यन्त स्वार्थी आचरण की स्वार्थ-साधना के लिए अत्यन्त पाशविक और निदर्य परिस्थितियों का बन्धन' बताया था। ये उद्धरण इसी प्रकार के वक्तव्यों के समूह से लिये गये हैं। इस प्रकार के वक्तव्यों से एक पूरी पुस्तक भर देना बड़ा सरल काम होगा। सब देशों के, सब श्रेणियों के और सब पेशों के मनुष्य व्यवस्थापिका सभाओं में व्याख्यान-सञ्चों पर, धर्म-वेदियों से और समस्त संसार के समाचार-पत्रों के द्वारा दस वर्ष से भी अधिक समय से इसी प्रकार चिल्ला रहे हैं। और इस बात को कोई अस्वीकार नहीं कर सकता कि समुद्र-पार गुलाम ले जाकर बेचने की प्रथा के बन्द हो जाने के बाद से अफ्रीका में योरपवालों ने जो अनाचार किये हैं वे सब कांगो की दुर्घटना के सामने फीके पड़ जाते हैं और कुछ भी नहीं ऊँचते। साना, उद्देश और अवधि पर विचार किया जाय तो निःसन्देह कोई तुलना सम्भव नहीं हो सकती।" एक अमरीकन ईसाई प्रचारक ने रबर के 'मानवीय' पहलू पर जो टिप्पणी की थी और जिसे मारले*[] ने उद्धृत किया था वह नीचे दी जाती है:-

"उनको (सैनिकों को) वध किये गये लोगों के हाथों के साथ लौटते हुए देखकर रक्त शुष्क पड़ जाता है। और उनके बड़े हाथों में नन्हें बालकों के कटे हाथ देखकर उनकी बहादुरी का पता चल जाता है......। इस जिले से जो रबर जाता है उसने सैकड़ों प्राण लिये हैं। और मैंने दुःखी लोगों की सहायता करने की अपनी असमर्थ अवस्था में जो दृश्य देखे उनके कारण मेरे हृदय में यह इच्छा उठने लगी कि मैं यह दृश्य देखने से पहले मर गया होता तो अच्छा होता।......यह रबर का व्यापार रक्त से सना हुआ है। यदि अफ्रीका के ये श्रादि-निवासी उठ खड़े हो और ऊपरी कांगो से प्रत्येक गोरे को सुरधाम पहुँचा दें तो भी उनके यश में एक भयङ्कर कमी शेष रह जायगी।"

यह बात बेलजियन कांगो के सम्बन्ध में लिखी गई है। परन्तु फ्रांसीसी कांगो भी इससे अच्छा नहीं था। १९०८ ईसवी में एक अमरीकन ईसाई धर्म-प्रचारक ने निम्नलिखित बात नोट की थी:-

"फ़्रांसीसी कांगो की जो नष्टप्राय दशा है उसका अपराधी किसे ठहराया। जाय? व्यापार मर गया है, जो नगर हरे भरे थे और उन्नति पर थे वे आज उजाड़ हो रहे हैं, और समस्त जङ्गली जातियाँ केवल थोड़े से व्यक्तियों की अनाचार-वृत्ति के लिए व्यर्थ में निर्दयता के साथ पीसी जा रही हैं...। नगर घेरे जाते हैं और लूटे जाते हैं। पिता, भाई और पति दुर्गन्धि से भरे कारागारों में बन्द कर दिये जाते हैं और जब तक घर के शेष लोग आवश्यक कर इकट्ठा करके चुका नहीं देते तब तक वे छोड़े नहीं जाते। फ्रांस ने ठीकेदारों को पूर्ण अधिकार दे रक्खा है। वे अपनी स्वीकृत भूमि पर अपना पूरा स्वत्व समझते हैं।......उद्योग-पूर्ण और उन्नतशील स्वतंत्रता के जीवन से किसी सभ्य देश को भी आलस्य और विवशतापूर्ण दीनता के जीवन में गिरा दिया जाय तो वह सर्वथा ही पतित हो जायगा। जङ्गली जातियों के साथ फिर इसका परिणाम क्या न होगा? फ्रांसीसियों के ही कहने के अनुसार समस्त देश अव्यवस्थित होगया है, अर्थात् उलट गया है, घबड़ा गया है, प्रशान्त हो उठा है, उत्तेजित हो उठा है और उजड़ गया है। और अपने कुकृत्यों के परिणामों का इस प्रकार वर्णन करने में फ्रांसीसी सत्य मार्ग पर हैं।


समस्त देश उजाड़ हो गया है, पतित हो गया है और मरने के करीब है। आदि-निवासियों के रस्म-रिवाजों पर आवात किया जाता है, तथा उनके अधिकारों की उपेक्षा की जाती है। बड़े बड़े मैदान जो कुछ ही समय पूर्व व्यापारी काफिलों से गुलज़ार हो रहे थे अब शान्त और उजाड़ हो गये हैं। अब उनमें केवल चीटियों के बिलों, सूखी घास और हवा से स्वच्छ किये हुए मागों के रूप में ही जीवन के चिह्न शेष रह गये हैं।"

यदि किसी को मानव-निर्दयता के दिल दहला देनेवाले उदाहरणों का संग्रह करना हो तो उसके लिए सबसे अच्छा उपाय यही है कि वह मोरेल की 'लाल रबर' नामक पुस्तक खोलकर 'कृत्य' शीर्षक अध्याय को पढ़े। मैंने अपने जीवन में जो अत्यन्त भयङ्कर बातें पढ़ी हैं उनमें से कुछ मुझे इसी अध्याय में मिली हैं। मिस्टर मोरेल ने एक अँगरेज यात्री ई॰ जे॰ ग्लेव का वक्तव्य अपनी पुस्तक में इस प्रकार उद्धत किया है*[]-

"मन्टुम्बा झील से लेकर इकलेम्बा तक सरकार अर्थ-लाम के उद्देश्य से बड़ी कर नीति का प्रयोग कर रही है।...विषुवत रेखा पर स्थित समस्त जिलों में युद्ध हुए हैं, सहस्रों मनुष्य मारे गये हैं और धर-बार नष्ट किये गये हैं।...बहुत से स्त्री और बालक गिरफ्तार किये गये। स्टेनली के जल-प्रपात के पास २४ सिर लाये गये। उनसे कैप्टन रोम ने अपने गृह के सामने की एक फूलों की क्यारी को सजाया।"

मिस्टर मारेल ने कैम्पबेल नामक एक प्रेस वटेरियन ईसाई प्रचारक के खेखों के भी बड़े बड़े अवतरण दिये हैं।†[] नीचे हम उसी के वक्तव्य से एक उद्धरण देते हैं:-

"चारों और व्यभिचार-वृद्धि और स्त्रियों तथा कन्याओं के निर्लज्जता का जीवन व्यतीत करने के लिए विवश होने के कारण अफ्रीका का गाईस्थ्य जीवन और उसकी पवित्रता को बड़ा आघात पहुँचा है। और इस प्रकार कांगो राज्य में चारों और बीमारियों के जो बीज बोये गये वे अब खूब अच्छी तरह फल-


फूल ला रहे हैं। पहले स्थानिक परिस्थिति के कारण बीमारियों के फैलने में बहुत कुछ रुकावट हो जाती थी और ये एक ही स्थान तक सीमित रहती थीं। परन्तु कांगो की नीति को सफल बनाने के लिए १७,००० सैनिक अपने स्त्रियों और सम्बन्धियों से पृथक करके कभी इस जिले में और कभी उस जिले में भेजे जाते थे। इन सैनिकों को जहाँ भी वे जायँ, स्त्रियां मिलनी चाहिए और इन स्त्रियों का प्रबन्ध उस जिले की आदि-जातियों के घरों से होना चाहिए। आदिनिवासियों की संस्थाओं, अधिकारों, रीति-रिवाजों की रक्षा करना एक अच्छे शासन का कर्तव्य होना चाहिए। पर इन सब बातों की अवहेलना की गई है।"

आइवरी रिजाइम की एक घटना का मिस्टर कैम्पबेल ने इस प्रकार वर्णन किया है:-

"कटोरो के पश्चात् एक दूसरे बहुत बड़े मुखिया पर आक्रमण किया गया। यह मुखिया पश्चिमी और पूर्वी लुभालबा के शिखर के समीप रहता था । भीड़ पर बिना किसी भेद-भाव के गोली चलाई गई। पन्द्रह मारे गये। इनमें चार स्त्रियाँ भी थीं और एक की गोद में बच्चा था। सिर काट लिये गये और स्थानापन्न अधिकारी के सम्मुख उपस्थित किये गये। उसने आज्ञा दी कि हाथ भी कार कर लाये जाय। ये सिर और हाथ छेदे गये, रस्सी में गूथे गये और पड़ाव की आग में सेंक कर सुखा लिये गये। इन सिरों को मैंने दूसरे बहुत से सिरों के साथ स्वयं अपनी आँखों से देखा था। नगर जो पहले अत्यन्त सम्पन्न था, जला दिया गया। और जो वे अपने साथ नहीं ले जा सके वह नष्ट कर दिया गया। लोगों की भीड़ गिरफ़्तार कर ली गई। इसमें अधिकतर बुडढी और युवती स्त्रियों थी। इस प्रकार रस्सी में बंधी तीन मुण्डों की और वृद्धि हुई। इन कैदियों के समूहों में केवल चमड़े और हड्डियाँ रह गई थीं। जब मैंने उनको देखा तब उनके शरीर बुरी तरह घायल किये गये थे। इसके पश्चात् चियम्बो नामक एक बहुत बड़े नगर पर आक्रमण किया गया। लोगों का एक बड़ा समूह मार डाला गया। उनके सिर और हाथ काट लिये गये और अफसरों के पास ले जाये गये।...इसके थोड़ी ही देर पश्चात् सरकार के काफिलों ने झण्डे उड़ाते हुए और बिगुल बजाते हुए मिशन के पड़ाव में प्रवेश किया। यह पड़ाव मेरू झील के किनारे लुआब्जा में था। उस समय वहाँ मैं अकेला था। मानव सिरों से भरी गहरी टोकरियों का शोकाकुल कर देनेवाला वह दृश्य मैं जल्दी नहीं भूल सकूँगा। युद्ध की स्मृति के लिए रख छोड़ी गई सिरों से भरी ये टोकरियाँ जब किसी बड़े युद्ध नृत्य का समारोह होता था तब निकाली जाती थी। बारूद टोपिर्या सरकार देती थी।"

गोरी सभ्यता को उसके सच्चे रूप में प्रकट करनेवाले अपने इन प्रमाणों के अध्याय को समाप्त करने से पहले हम बीसवीं सदी की घटनाओं से सम्बन्ध रखनेवाले कुछ उद्धरण भी दे देना चाहते हैं। ५० अप्रेल सन् १९०० ईसवी को अनवरोइज़ ट्रस्ट के लैकरोइक्स नामक किसी एजंट ने अएना निम्नलिखित अपराध स्वीकार किया था*[१०]:-

"मैं न्यायाधीश के सन्मुख उपस्थित होने जा रहा हूँ। क्योंकि मैंने १५० मनुष्यों का वध किया है, ६० के हाथ काटे हैं, स्त्रियों और बच्चों को सताया है और बहुत से पुरुषों की गुप्तेन्द्रियाँ काट काट कर गाँव के टट्ठरों पर लटकाई हैं।"

मिस्टर मोरेल ने १९०३-१९०५ और उसके बाद की भी बहुत सी घटनाओं का वर्णन किया है। पर स्थानाभाव के कारण हम इन सबको नहीं दे सकते। यह अनुमान किसी तरह भी न करना चाहिए कि ये सव केवल प्राचीन इतिहास की बातें हैं । गत महायुद्ध के समय में और उसके पश्चात् भी उपनिवेशों में जर्मनी की निर्दयताओं की खूब चर्चा हुई थी। परन्तु वह स्वार्थ-भाव से अपने हित के लिए किया गया आन्दोलन-मात्र था। क्योंकि यदि ऐसा न हो तो इस बात के लिए आप क्या कहेंगे कि युद्ध के पश्चात् भी जर्मनी के इन ढोंगी सुधारकों-द्वारा कर कृत्य होते रहे हैं?

प्रसिद्ध फ़्रांसीसी लेखक श्रीयुत एम॰ अन्डर गाइड ने अभी हाल ही में दिल बहलाने के लिए अफ्रीका की यात्रा की थी। उनकी इस यात्रा का वर्णन 'नौवेली रिव्यू फ़्रांकेस ने प्रकाशित किया था। जिन जिन स्थानों में रबर उत्पन्न करनेवाली कम्पनियों का अधिकार था वहाँ वहाँ मिस्टर गाइड ने बड़े भयङ्कर दृश्य देखें। झांसीसी शासक एम॰ पाचा†[११] के पापों के सम्बन्ध में एक गोरे के रोज़नामचे से मिस्टर गाइड ने निम्नलिखित वर्णन अपनी पुस्तक में दिया है:-

"एम॰ पाचा घोषित करते हैं कि मैंने बोदो के निकटवर्ती क्या लोगों का दमन-कार्य समाप्त कर दिया है। उनके अनुमान में सब आयु के मारे गये स्त्रीपुरुषों की संख्या एक हज़ार होगी। युद्ध का फल सूचित करने के लिए सैनिकों और सहयोगियों को यह आज्ञा दी गई थी कि वे पराजित मृतकों के कान और लिङ्ग-चिह्न काटकर लेते आवें। यह काण्ड जुलाई के मास में हुआ था।

"इन सब बातों के कारण रबर की कम्पनियाँ ही हैं। रबर के व्यापार की एक-मात्र अधिकारिणी तथा स्थानीय शासन में पूर्ण स्वतन्त्र होने से उन्होंने अफ्रीका के इन प्राचीन वासियों को बड़ी दुर्गति और गुलामी में फँसा रक्खा है।"

गोरे लुटेरों के पास जितने साधन हैं उतनी ही निठुराई से वे काम लेते हैं। इस युग्म के कारण वेचारा आदि-निवासी पूर्ण रूप से असमर्थ हो जाता है। मोरेल के इस निष्कर्ष में कोई अतिशयोक्ति नहीं प्रतीत होती कि:-

"इस प्रकार गोरों के जड़ देवता के सामने अफ्रीकावासी वास्तव में बिल्कुल लाचार हैं। ये जड़ देवता त्रिमुख है। अर्थात् साम्राज्यवाद, पूँजी-द्वारा लूट-खसोट-वाद और सेना-वाद। यदि गोरों ने इन देवताओं की पूजा जारी रक्खी और अपने ही समान अफ्रीकावासियों को भी इसकी पूजा करने के लिए विवश किया, तो अफ़्रीकावासी 'रेड इंडियन', 'कैरिब', 'गुआञ्ची', आस्ट्रेलिया के आदिनिवासी और ऐसी अन्य जातियों के मार्ग का अनुसरण करने लगेंगे। और यह तत्काल एक महाभयङ्कर पाप और विश्वव्यापी अशान्ति का रूप धारण कर लेगा।"

थोड़ा ही समय हुआ जब दो ब्रिटिश-न्यायाधीशों ने 'सीरा लिओन' नामक ब्रिटिश-रक्षित राज्य के तद्देशीय नरेशों के शासन में गुलामी की प्रथा को जारी: रखने का समर्थन किया था तब 'लभ्य' संसार के उदार-दल को बड़ा धक्का लगा था। कदाचित् इस बात पर बिलकुल ध्यान नहीं दिया जाता कि अफ्रीकावासी को वहाँ भी ग़ुलाम बनने के लिए विवश किया जाता है जहाँ पहले कभी ग़ुलामी का नाम भी नहीं सुना गया। पूर्वी अफ्रीका में ब्रिटिश सरकार ने मसाई और अन्य जङ्गली जातियों के लिए कुछ भूमि विशेष रूप से पृथक कर दी है। परन्तु यह भूमि उनकी जीविका के लिए यथेष्ट नहीं है। इसके अतिरिक्त उन पर कड़े कर लगाये गये हैं। इसका परिणाम यह होता है कि उन्हें गोरों के खेतों में उन्हीं की शतों पर काम करने के लिए विवश होना पड़ता है। यह प्रणाली अफ्रीकावासियों को जिस असमर्थता तक पहुँचा देती है उसकी कथा बड़ी करुण है। पूर्वी अफ़्रीका में स्वास्थ्य-विभाग के एक ब्रिटिश-अफसर डाक्टर नार्मन लीज़ ने अपनी 'कीनिया' नाम पुस्तक में इस कथा का बड़ा ही मर्मस्पर्शी वर्णन किया है। अभी हाल में एक ब्रिटिश इजीनियर श्रीयुत मैकग्रेगर रॉस ने भी इसी कथा को फिर से कहा है।

अफ़्रीका के आदिवासियों के लिए पृथक भूमि की व्यवस्था कर देने की नीति दक्षिणी अफ़्रीका में काम में ले आई जाने लगी है। डाक्टर नारमन लीज़ एक समाचार-पत्र में लिखते हैं कि, 'गत ग्रीष्म-काल में शासन-संघ ने अफ़्रीका के आदिवासियों के सम्बन्ध में जो कानून जारी किया है वह उसी नीति का अनुकरण है जो वर्ण-भेद-नियम के रूप में बर्ती जा रही है, जो अफ्रीकावासियों को मुख्य मुख्य बुद्धिमानी के व्यवसाय करने से रोकती है और जिसने केप प्रान्त के विवासियों को अब तक प्राप्त मताधिकार से वञ्चित कर दिया है। दक्षिणी अफ़्रीका के नये कानून के अनुसार गवर्नर जेनरल "सार्वजनिक हित के लिए जब उचित समझे तब और चाहे जिन शतों पर एक देशी जाति को या उसके किसी भाग को या किसी देशी व्यक्ति को अपने संघ के भीतर एक स्थान से दूसरे में जाकर रहने की प्राज्ञा दे सकता है। हां, यदि कोई जाति इस पर आपत्ति करे तो जब तक पार्लियामेंट के दोनों भवनों में इस आशय का कोई प्रस्ताव पास न हो जाय तब तक गवर्नर जेनरल ऐसी आज्ञा को स्थगित रखेगा।'

इस प्रकार देशी जातियों का, जिन्होंने अपने खास व्यापार-संध स्थापित कर लिये हैं, दमन करने के लिए इस कानून द्वारा एक मार्ग निकल आया। और यदि इस कानून को इसी रूप में कार्य करने दिया गया तो यह देशी जातियों को उनकी भूमि से भी वञ्चित कर सकता है। देशी जातियों पर इस दमन कानून का क्या प्रभाव पड़ेगा इसका अनुमान सहज ही किया जा सकता है।


  1. *"१९२४-२५ के गिरजाघरों के वार्षिक विवरण के अनुसार १९२३ ईसवी में वहाँ १२,६१,००० कैथलिक ईसाई थे और २,८३,६६,००० प्रोटस्टैंट थे। यदि इनमें उन लेागों की संख्या भी जोड़ दी जाती जो प्रोटेस्टैंट सम्प्रदाय के साथ सहानुभूति रखते हैं यद्यपि उसके रजिस्टर में दर्ज नहीं हैं तो इसकी संख्या ८,००,००,००० के लगभग हो जाती।" ए॰ सीग फ़्रीड-कृत 'अमरीका कम्स आफ़ एज' (जोनाथन केप, १९२७) पृष्ठ, ३८
  2. *"१९२१ ईसवी में न्यूयार्क वर्ल्ड नामक समाचार-पत्र ने इसकी सदस्य-संख्या १ लाख अनुमान की थी। १९२३ ई॰ में कांग्रेस-द्वारा नियुक्त एक जाँच कमेटी को यह संख्या १ लाख से अधिक नहीं मिली। १९२४ ईसवी में क्लान पर मेकलिंग की एक उच्च कोटि की पुस्तक प्रकाशित हुई। उसमें इनकी संख्या लाखों बताई गई है। इसके पश्चात् इसमें कमी प्रारम्भ हुई। पहले दक्षिण में उसके बाद दक्षिण-पश्चिम में-१ सितम्बर तक वाशिंगटन की सड़कों पर लान के जुलूस निकल सकते थे। परन्तु १९२६ ईसवी में न्यूयार्क के टाइम्स ने इसकी जाँच कराई तो पता चला कि यह संस्था अब मिट चुकी है।" "अमेरिका कम्स आफ़ एज' नामक पुस्तक से।
  3. † वही पुस्तक पृष्ठ, १३५
  4. ‡ सीगफ़्रीड-कृत वही पुस्तक पृष्ठ १३८
  5. * दी ब्लैक मैन्स बर्डन' लन्दन, नैशनल लैबौ प्रेस १९२०, पृष्ठ ७-८।
  6. * वही पुस्तक पृष्ठ १०५
  7. * उसी पुस्तक से पृष्ट १२१-२
  8. * लाल रबर लन्दन, नेशनल लेवर प्रेस, १८१६ पृष्ट ४२
  9. † उसी पुस्तक से, पृष्ठ ४४
  10. * उसी पुस्तक से पृष्ठ ५६
  11. † देखिए न्यू मासेज़, न्यूयार्क, जनवरी १९२८