दुखी भारत/१५ हिन्दू-विधवा

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पन्द्रहवाँ अध्याय

हिन्दू विधवा

विधवाओं के पुनर्विवाह का निषेध भी उन कुप्रथाओं में से एक है जो न्यायानुकूल नहीं कही जा सकतीं। हिन्दू विधवा का भाग्य अवश्य बुरा है। परन्तु उसके धर्माचरण के विरुद्ध जो भयानक बातें कही गई हैं उन्हें दूषित मस्तिष्क की उपज के अतिरिक्त और क्या कहें। साधारणतया हिन्दू विधवाएँ त्याग और सेवा का जीवन व्यतीत करती हैं। मिस मेयो का मस्तिष्क जितना धारण कर सकता है उतने से कहीं अधिक ऊँचा धर्माचरण वे रखती हैं। अपने घातक वक्तव्यों को प्रकाशित करके उसने केवल वास्तविक परिस्थिति से अपनी अनभिज्ञता का और अत्यन्त निर्बल प्रमाणों के बल पर निष्कर्ष निकालने की अपनी जल्दबाज़ी का परिचय दिया है।

पहले तो विधवाओं के पुनर्विवाह का निषेध ही सार्वभौमिक नहीं है अधिकांश हिन्दुओं में विधवाओं का पुनर्विवाह करने की रीति है। सैनिक जातियों जैसे जाट, गूजर, आदि, और गौ चरानेवाली जातियों जैसे अहीर, गड़ेरिया, कुर्मी, आदि, में विधवाओं का पुनर्विवाह होता है। नीच जातियों के नाम से जो जातियाँ प्रसिद्ध हैं उनमें भी विधवा-विवाह होता है। 'समाज के अधिकांश भाग में, जिसे हम औसत दर्जे का हिन्दू समाज कह सकते हैं, हमें ऐसी जातियों और उपजातियों का एक बड़ा समूह मिलता है जिनमें बड़ी अवस्था में विवाह होता है और विधवा-विवाह भी होता है[१]। यह निषेध केवल उच्च जातियों तक ही परिमित है जिनकी संख्या कुल हिन्दू-जन-संख्या के ३० प्रतिशत से अधिक नहीं हो सकती है[२][ २१२ ]मिस मेयो का यह वक्तव्य बिलकुल बेढङ्गा है कि कट्टर हिन्दू-धर्म में विधवा-विवाह एक असम्भव बात है। इसमें सन्देह नहीं कि कट्टरता है और ख़ूब है। मैं ऐसे अनेक कट्टर हिन्दुओं को जानता हूँ जिन्होंने अपनी विधवा पुत्रियों और विधवा पुत्र-वधुओं को पुनर्विवाह की आज्ञा दी है। मदर इंडिया के ८६ वें पृष्ठ पर लिखा गया मिस मेयो का यह वक्तव्य कि हिन्दू विधवा का पुनर्विवाह अब भी 'कल्पनातीत' है, असत्य से किसी अंश में कम नहीं है।

दूसरे वैधव्य जीवन व्यतीत करने के नियम सब प्रान्तों में या सब जातियों में एक ही नहीं हैं। उत्तर-पश्चिम सीमा-प्रान्त में, पञ्जाब में, संयुक्त-प्रान्त में या राजपूताने में मैंने हिन्दू विधवा को सिर मुँड़ाते कहीं नहीं देखा। [ २१३ ]तीसरे विवाह के सम्बन्ध में उसका भाग्य अवश्य कठोर है परन्तु अन्य बातों में हिन्दू विधवा का जीवन इतना दुःखमय नहीं है जितना कि मिस मेयो ने उसे दर्शाया है। न्यू इँगलेंड अमरीका के एक सभ्य पुरुष प्रोफ़ेसर ग्रेट ने इसी विषय पर अत्यन्त निष्पक्ष होकर विचार किया है। वे कहते हैं[३]

"इसमें सन्देह नहीं कि भारतीय विधाओं की स्थिति और जीवन-चर्य्या उनके व्यक्तित्व और जिस कुटुम्ब में रहने का उन्हें सौभाग्य या दुर्भाग्य प्राप्त हुआ है उनके अनुसार भिन्न भिन्न होती है। डुबोइस जैसे लेखकों से आप यह अनुमान करेंगे कि उस पर सदैव निर्दय अत्याचार होते रहते हैं और वह उदासी तथा अनिच्छा के साथ रात-दिन काम में पिसी रहती है। भगिनी निवेदिता और उनके समकक्ष विचार रखनेवालों के लेखों से आप यह अनुमान करेंगे कि हिन्दू विधवा के साथ सदैव स्नेह का बर्ताव किया जाता है और बड़े प्रेम से उसका पालन-पोषण होता है और वह संन्यासिनी हो जाती है तथा अपने दुःखमय जीवन को सत्कार्य्यों में लगा देती है। निःसन्देह अपने परिमित क्षेत्र में ये दोनों विचार सत्य हैं पर हमें इनमें से किसी को भी ज्यों का त्यों नहीं मान लेना चाहिए। निश्चय ही विधवा का स्वाभाविक जीवन दुःखमय है। और कठोर हिन्दू सिद्धान्तों के अनुसार उसे दुःखी जीवन व्यतीत भी करना चाहिए, क्योंकि विधवा के लिए प्रसन्नता की अपेक्षा उदासी ही की अधिक आवश्यकता है। और निःसन्देह जो विधवाएँ इस सिद्धान्त में विश्वास रखती हैं और स्वेच्छापूर्वक अपने जीवन को सर्वथा त्यागमय बना कर सेवा-कार्य्य में लग जाती हैं वे अन्त में अग्नि में तपाये सोने के समान चमकती हैं।......गृहपति की विधवा माता को केवलप्रभ और आदर का ही स्थान प्राप्त नहीं रहता बरन उसे शक्ति और अधिकार का स्थान भी प्राप्त रहता है। कम आयु की विधवाएँ निस्सन्देह ऐसे अधिकारों से वञ्चित रहती हैं साथ ही उन्हें इच्छा से हो या अनिच्छा से इतना ही काम भी करना पड़ता है। जो स्त्रियाँ सत्ती या संन्यासिनी बनने की इच्छा नहीं रखतीं उनके लिए भारतवर्ष में वैधव्य जीवन वास्तव में अत्यन्त कठिन है।

"प्रत्येक दृष्टिकोण से देखा जाय तो भारतीय गृह अत्यन्त संकुचित और परिमित प्रतीत होगा परन्तु इसके साथ ही यह पवित्र और प्रेममय स्थान भी हो सकता है। हिन्दू गृह ने ऐसी स्त्रियों की सृष्टि की है जो यह जानती हैं कि प्रेम कैसे किया जाता है, कष्ट सहन कैसे किया जाता है और अपने [ २१४ ]प्रेमीजनों की सेवा में भक्ति के साथ अपने आपको कैसे भुलाया जा सकता है। विधवाओं की इस श्रेणी की शक्तियाँ परिमित अवश्य हैं परन्तु वे एक विशेष प्रकार के उच्च सौन्दर्य से वञ्जित नहीं हैं। यह दूसरी बात है कि वे आधुनिक लड़ाका और मताधिकार माँगनेवाली महिलाओं से बिल्कुल विपरीत स्थिति में हैं।"

चौथे यदि हिन्दू विधवा माता हुई तो उसकी पूजा होती है। मिस्टर प्रेट कहते हैं[४] कि 'कदाचित् भारतवर्ष के समान सम्माननीय स्थान माता को संसार में कहीं भी प्राप्त नहीं है।'

"भगिनी निवेदिता लिखती हैं–'यदि कोई मनुष्य मर जाता है तो उसकी पत्नी उसके पुत्र की संरक्षिका होती है और जायदाद का प्रबन्ध करती है। और जब पुत्र वयस्क हो जाता है तब भी वह अपनी माता के जीवनकाल तक अपनी जायदाद का स्वतंत्र स्वामी नहीं हो सकता। यदि वह अपनी माता की अनुमति के विरुद्ध कभी भी कोई काम करता है तो समस्त संसार उसे धिक्कारता है। और लेन देन के सम्बन्ध में फ़्रांस की स्त्रियों की भाँति भारतवर्ष की महिलाएँ इतनी योग्य समझी जाती हैं कि ऋणग्रस्त जायदाद के लिए यह कहा जाता है कि इसके लिए एक विधवा के देख-रेख की आवश्यकता है।"

लाहौर के गवर्नमेंट कालेज के प्रथम प्रिन्सिपल डाक्टर जी॰ डब्ल्यू॰ लीटनर ने गत शताब्दी के अन्तिम भाग में पञ्जाब के जीवन का बहुत परिश्रम के साथ अध्ययन किया था। उन्होंने हिन्दुओं के उच्च वैवाहिक आदर्श और उनकी विधवाओं की स्थिति के सम्बन्ध में इस प्रकार लिखा था[५]

"बेचारी विधवाओं की स्थिति समस्त संसार में बड़ी शोचनीय है और वे हम सबकी सहानुभूति की अधिकारिणी हैं। परन्तु भारतवर्ष में निम्नलिखित बातों से उनका दुःख यथासंभव कम हो जाता है:–

(१) मुसलमानों, सिखों, अधिकांश पहाड़ी जातियों और समस्त निम्न जातियों में विधवा-विवाह प्रचलित है। जाटों की विधवाओं को उत्तराधिकार की रक्षा के लिए अपने देवरों के साथ विवाह करना ही पड़ता है। [ २१५ ](२) जिन विधवाओं के बड़े बड़े लड़के होते हैं या जिनकी आयु इतनी होती है कि वे गृह-प्रबन्ध में राय दे सकें वे क्रियात्मक रूप से और अनेक अवस्था में तो निश्चय रूप से गृह में शासन करती हैं।

(३) इस प्रकार केवल उच्च और मध्यम श्रेणी की जातियों में विधवाओं की एक अल्प संख्या ऐसी रह जाती है जिसे पुनर्विवाह से वञ्चित रहना पड़ता है। परन्तु उनमें केवल उन्हीं की दशा शोचनीय है जो या तो निर्धन होती हैं या जिनके सम्बन्धी नहीं होते या होते हैं तो उनके साथ प्रेम का वर्ताव नहीं करते। पर ऐसा अवसर बहुत कम उपस्थित होता है।

(४) इनका भी दुःख निम्नलिखित बातों से कम हो जाता है–

(क) विवाह-बन्धन के पवित्र आदर्श से। स्वर्ग में पति-मिलन की आशा से। इस योग्य होने के लिए वे तप का जीवन व्यतीत करती हैं। जैसे चारपाई के बदले भूमि पर सोती हैं; इत्यादि। यही वह स्थिति है जिसमें धर्म उच्चमना हिन्दू विधवा के चरित्र को ऊँचा उठाता है और उसे दृढ़ बनाता है।

(ख) जो विधवाएँ अपने कार्य्यों से अपने मृतक पति के लिए आन्तरिक शोक प्रकट करती हैं उन्हें समाज में मिले यथेष्ट आदर से।

(ग) पति की मृत्यु के पश्चात् पिता के कुटुम्ब के जनों की सहानुभूति से, जहाँ वे प्रायः लौट जाती हैं।

(घ) पति की मृत्यु के तेरहवें दिन उनके लिए जीवन भर को जो उदार व्यवस्था कर दी जाती है उससे। यह नियम चाहे जिस प्रकार हो उनको चिन्ताओं से मुक्त कर देता है। और यदि कोई सन्तान हो तो उसकी शिक्षा आदि का प्रबन्ध करने की उन्हें आज्ञा दे देता है।

यह वर्णन बिल्कुल सत्य है। जब मैं वकालत करता था तब वकील की हैसियत से और व्यक्तिगत रूप से भी मुझे ऐसी अनेक बातों पर विचार करने का अवसर पड़ा है। इस तरह अपने निजी अनुभव से मैं इसे ऐसा ही समझता भी हूँ। मिस मेयो का निम्नलिखित वर्णन पैशाचिक अतिशयोक्तियों से भरा पड़ा है[६]:––

"अपने पति के घर में रहनेवाली स्त्री, उसके मृत्यु के पश्चात् विधवा हो जाने पर यद्यपि अपनी रक्षा का हिन्दू नियम अनुसार दावा नहीं कर [ २१६ ]सकती तथापि ऊपर वर्णन की गई बातों का पालन करने से वह घर में रख ली जा सकती है या निकाल दी जा सकती है तब वह चाहे भिक्षा-वृत्ति करके अपना निर्वाह करे चाहे वेश्या-वृत्ति करके। अधिकतर वह वेश्यावृत्ति ही स्वीकार करती है। वह मैले कुचैले चिथड़े पहने, सिर मुँड़ाये, दुःखी जीवन से धँसा जाता हुआ चेहरा लिये मन्दिरों की भीड़ में या तीर्थ-स्थानों की गलियों में प्रायः दिखाई पड़ती है। वहाँ कंजूस पुण्यात्मा लोग कभी कभी उसे एक मुट्ठी चावल दे देते हैं।

मिस मेयो यह कहकर कि 'विधवा क़ानून की दृष्टि से अपनी रक्षा का दावा नहीं कर सकती' केवल हिन्दू-क़ानून से अपनी अनभिज्ञता प्रकट करती है। मृतक हिन्दू की जायदाद से उसकी विधवा को निवास और भरण-पोषण का हक़ सबसे पहले रहता है। उसके मृतक पति की सामाजिक स्थिति के अनुसार इस बात की व्यवस्था की जाती है।


  1. रिसले, उसी पुस्तक से, पृष्ठ १७८
  2. "पंजाब में मनुष्य-गणना के अनुसार ३० वर्ष से कम आयु की विधवाओं की संख्या केवल १,३४,६४५ थी। अर्थात् ० से ९ वर्ष तक की बाल-विधवाओं की संख्या १,२०८ थी; १० से १४ वर्ष तक की विधवाओं की संख्या ६,७७८ थी; १५ से १९ वर्ष तक की विधवाओं की संख्या १९,३४६ थी; २० से २४ वर्ष तक की ४१,३८६ थी। २५ से २६ वर्ष की ६५,६२७ थी। (इनमें से कम से कम तीन चौथाई ऐसी हैं जो पुनर्विवाह कर सकती हैं) इसके पश्चात् ३० वर्ष से ६० वर्ष तक की और उससे अधिक आयु की विधवाएँ हैं। उनमें से अधिकांश के बड़े बड़े बेटे हैं और अपनी गृहस्थी की प्रायः वे ही देख-रेख करती हैं। इसलिए विवाह योग्य विधवाएँ पञ्जाब की ८०,१५,२१० स्त्रियों की संख्या में ५६.४३ पीछे केवल १ हैं। और बलात् ब्रह्मचर्य्य का जीवन इनमें से एक चौथाई को भी नहीं व्यतीत करना पड़ता। इससे यह सिद्ध है कि विधवाओं की व्यथा इतनी व्यापक नहीं है जितनी कि वह बताई जाती है।" जी॰ डब्लू लीटनर-लिखित 'पञ्जाब में प्राचीन शिक्षण-पद्धति के इतिहास' से उद्धृत। (कलकत्ता गवर्नमेंट प्रेस १८८२) पृष्ठ १०१ की पाद-टिप्पणी। उसी पुस्तक में यह विवरण भी मिलता है:— "० से ९ वर्ष तक की हिन्दू बाल-विधवाओं की संख्या ६७५ थी। और १० से १४ वर्ष तक की हिन्दू बाल-विधवाओं की संख्या ४,०७० थी। इनमें कम से कम दो तिहाई उन जातियों की हैं जिनमें पुनर्विवाह होता है। १८८१ ईसवी में ३० वर्ष से कम आयु की हिन्दू विधवाओं की संख्या कुल मिलाकर ७३,३२० थी। इनमें केवल एक तिहाई को पुनर्विवाह करने की आज्ञा नहीं थी। ३० वर्ष से कम मुसलमान विधवाओं की संख्या ५३,३८२ थी। निःसन्देह इनमें से अधिकांश पुनर्विवाह करेंगी। इसी आयु की सिख-विधवाओं की संख्या ८,०३५ थी। योरप में वह देश कहाँ है जहाँ विधवाओं को भारत की अपेक्षा पुनर्विवाह की सुविधा अधिक हो।
  3. भारतवर्ष और उसके मत। जे॰ बी॰ ग्रेट-लिखित, हाटन मिलफिन, न्यूयार्क से १९१५ ई॰ में प्रकाशित; पृष्ठ १३०-१३१
  4. उसी पुस्तक से, पृष्ठ १३०
  5. पञ्जाब में प्राचीन शिक्षण-पद्धित का इतिहास, पृष्ठ १८०।
  6. मदर इंडिया, पृष्ठ ८४