दुखी भारत/१९ मिस्टर विन्सटन चर्चिल के लिए एक उपहार
मिस्टर विन्सटन चर्चिल के लिए एक उपहार
'हिन्दू' के नवीन वार्षिकाङ्क में लिखते हुए कर्नेल जे॰ सी॰ वेजउड हमें बतलाते हैं कि किस प्रकार मिस्टर विन्स्टन चर्चिल, ब्रिटिश चान्सलर आफ़ दी एक्सचेकर, ने पार्लियामेंट के एक बरामदे में उनके पास से निकलते हुए उन्हें मदर इंडिया की एक प्रति उपहार-स्वरूप भिजवा देने की इच्छा प्रकट की थी। परन्तु कर्नेल साहब उस पुस्तक को पहले ही पढ़ चुके थे। उपहार के ही रूप में उन्हें उसकी एक प्रति मिल चुकी थी। मिस्टर चर्चिल ने पूछा—'क्या! पढ़ चुके! अब आप अपने मित्रों के सम्बन्ध में क्या सोचते हैं?" इसी में उन्होंने वास्तविक घृणा और क्रोध के साथ इतना और जोड़ दिया—'मैं शिशुओं के ऊपर किये गये इन घोर अत्याचारों के अतिरिक्त और कुछ भी सहन कर सकता था।'
मिस मेयो की पुस्तक में शिशुओं के ऊपर किये गये अत्याचार के जो उदाहरण आये हैं उन्हें पढ़कर मिस्टर चर्चिल अत्यन्त भयाकुल हो उठे हैं। मिस्टर चर्चिल उस ढङ्ग के राजनीतिज्ञ हैं जो अपनी इच्छा के अनुसार काम करने पावें तो संसार में बिलकुल शान्ति नहीं रह सकती। उस साम्राज्य का अभाग है जिसकी बागडोर ऐसे हाथों में है! मिस मेयो ने शिशुओं के ऊपर अत्याचार-सम्बन्धी जो आक्षेप किये हैं उनका आधार १८९१ ईसवी में भारतवर्ष के महिला-डाक्टरों-द्वारा बड़ी व्यवस्थापिका सभा में उपस्थित किया गया एक प्रार्थना-पत्र है। सूची में कुल १३ घटनाएँ हैं। इनमें से मिस मेयो ने ७ अत्यन्त बुरी घटनाओं को चुना है। भारतवर्ष ३१ करोड़ ५० लाख मानवों का देश है जो लगभग बीस लाख वर्ग मील भूमि में बसे हुए हैं। ऐसे देश में दस-बारह घटनाओं के आधार पर सारे देश के ऊपर कोई आक्षेप नहीं किया जा सकता। परन्तु यह बात महत्त्व से ख़ाली नहीं है कि मिस मेयो को अपना पक्ष समर्थन करने के लिए एक ३० वर्ष प्राचीन सरकारी काग़ज़ की खोज करनी पड़ी। अस्तु। अभी हाल ही में स्वयं मिस्टर चर्चिल के देश के सम्बन्ध में वहाँ के लोकप्रिय लेखक—'एक धूल झाड़नेवाले सज्जन' ने निम्न-लिखित बात लिखी थी[१]:—
"हमारे बड़े शहरों में आधुनिक बाल-जीवन की क्या अवस्था है? इसको समझने के लिए १६ वर्ष से कम आयु के बच्चों के लिए और १४ वर्ष से कम आयु के बच्चों के लिए क़ानून बनाने की आवश्यकता के सम्बन्ध में पहले गम्भीरता के साथ विचार कीजिए। इन शिशुओं की माताएँ कहाँ हैं? उनके गृह-जीवन की क्या दशा थी? क्या देश के स्त्रीत्व के सम्बन्ध में कुछ पूछना उचित नहीं है? क्या आर्थिक परिस्थितियों के गौण परिणामों की ओर बहक जाना मूर्खता नहीं है?
"उपन्यास-लेखिका मिस क्लिमेन्स डेन ने शिशुओं के प्रति की जानेवाली निर्दयता का प्रश्न उठाया है। यह भयङ्कर और वर्णनातीत निर्दयता हमारे समस्त बड़े नगरों और क़स्बों में पाई जाती है। और न जाने किस अज्ञात कारण से मजिस्ट्रेट लोग इसके लिए बड़ा हलका दण्ड देते हैं।
"उसने समस्त निर्दयताओं से घृणित निर्दयता—बच्चों पर किये गये आक्रमणों—के सम्बन्ध में लिखा है। उसके लेख से मैं निम्नलिखित उदाहरण उद्धृत करता हूँ:—
"बच्चों के प्रति वर्णनातीत अपराध करनेवालों के साथ प्रायः क्या व्यवहार किया जाता है यह बिना किसी चुनाव के समाचार-पत्रों से लिये गये निम्नलिखित उदाहरणों से प्रकट हो जायगा। मैं बहुत सी विस्तृत बातों को छोड़ देती हूँ क्योंकि वे सब छापी नहीं जा सकती हैं:—
'चार वर्ष के एक शिशु पर चोट करने की चेष्टा करने के लिए पूर्व के सुचरित्र के कारण केवल चेतावनी देकर छोड़ दिया गया।'
'सात वर्ष के शिशु पर चोट करने के अपराध में ६ महीने की सज़ा दी गई।'
'चार वर्ष के शिशु पर चोट करने के लिए दो पौंड जुर्माना किया गया।'
'सात वर्ष के शिशु पर आक्रमण और अनाचार करने के अपराध में चेतावनी देकर छोड़ दिया गया।' 'उसी दिन दो बालिकाओं पर आक्रमण करने के लिए चेतावनी देकर छोड़ दिया गया।'
'तीन छोटे बच्चों पर आक्रमण करने के अपराध में—मुक़दमे का विवरण प्रकाशित करने के योग्य नहीं है—पांच पौंड का जुर्माना किया गया।'
'बारह वर्ष के शिशु पर आक्रमण करनेवाले को (जिस पर पहले उसी प्रकार के ६ अपराध लगाये जा चुके थे) तीन मास की सज़ा दी गई।'
'एक धूल झाड़नेवाले सज्जन' अपने पाठकों को स्मरण दिलाते हैं कि 'हम साइबेरिया के सम्बन्ध में नहीं पढ़ रहे हैं। हम संसार के सबसे बड़े देश के सम्बन्ध में और उस देश के सबसे बड़े शहरों के सम्बन्ध में पढ़ रहे हैं। क्या आर्थिक परिस्थितियों के गौण परिणामों की ओर बहक जाना मूर्खता नहीं है? स्त्रियां बहुत बुरी होती जा रही है। नैतिक अध:पतन हो रहा है। अर्थ-शात्र से इन बातों का कोई सम्बन्ध नहीं। जो सबसे धनी हैं उनमें भी और जो सबसे दरिद्र हैं उनमें भी यह प्रवृत्ति देखने में आती है। गृह और शिक्षा के सुप्रबन्ध से यह समस्या हल नहीं हो सकती। समाज के प्रत्येक वर्ग में और समस्त दशाओं में सदाचार को कोई स्थान प्राप्त नहीं रह गया। इन बातों से भिन्न स्त्री सर्वत्र असामयिक समझी जाती है।"
मिस्टर विन्सटन चर्चिल ब्रिटिश कैबिनट के एक सदस्य हैं। उन्होने डिपार्टमेन्टल कमेटी का वह विवरण देखा होगा जिसे सम्राट् ने छोटे बच्चों के विरुद्ध किये गये काम-वासना पूर्ण अपराधों की जांच करके पार्लियामेंट में उपस्थित करने की आज्ञा दी थी[२]। इस विवरण पर २ दिसम्बर १९२५ की तारीख़ पड़ी है। इसके सदस्यों में तीन ब्रिटिश-महिलाएँ थीं। यह कमेटी पहले २८ जुलाई सन् १९२४ ईसवी को मज़दूर-दल में बनाई थी। और फ़रवरी १९२५ ईसवी में साम्राज्यवाद-दल ने भी इसे स्वीकार कर लिया था। इस दल ने पुराने सभापति के मर जाने पर एक नया सभापति चुना था। इस कमेटी के विवरण के अग्रलिखित अंश मिस्टर चर्चिल को भेंट करता हूँ। इस विवरण में उन बातों का वर्णन किया गया है जो पुलिस को मालूम हैं और जिन पर अदालत में मुक़दमा चल चुका है। विवरण के अन्त में उपसंहार ३—में ए से लेकर ई तक अङ्कचक्रों में इसके आंकड़े दिये गये हैं। यहाँ इन अङ्क-चक्रों का संक्षिप्त रूप दिया जाता है।
| वार्षिक औसत | वार्षिक औसत |
---|---|---|
| १९०९ से १९१३ तक | १९२० से १९२४ तक |
अप्राकृतिक व्यभिचार | … ६२ | ६२ |
अप्राकृतिक व्यभिचार करने का उद्योग | … ९६ | २१५ |
बालकों के साथ व्यभिचार | … १३२ | १७६ |
बलात्कार | … १६५ | १२० |
स्त्रियों पर व्यभिचार के लिए आक्रमण | … ११२९ | १५१५ |
१३ से कम आयु की बालिकाओं के साथ भ्रष्टाचार | … १३७ | ७४ |
१६ से कम आयु की बालिकाओं के साथ भ्रष्टाचार | … २१४ | १७४ |
माता-बहन आदि के साथ व्यभिचार | … ५६ | ८९ |
कुल | … १,९९१ | २,४३५ |
यदि इन अङ्कों की पृथक् पृथक् जांच की जाय तो ज्ञात होगा कि ग्रेट ब्रिटेन में पुलिस की जानकारी में बालकों के साथ व्यभिचार के अपराध १९०९ से १९१३ तक २९० प्रतिवर्ष के हिसाब से किये गये और १९२० से १९२४ तक ४५३ प्रतिवर्ष के हिसाब से किये गये। ये अङ्क ऊपर के चक्र में दिये गये प्रथम तीन विषयों से सम्बन्ध रखते हैं। १९२४ ईसवी में इन तीनों प्रकार के अपराधों की संख्या ७०; २६५ और १८५—अर्थात् कुल मिला कर ५२० थी। १३ वर्ष से कम आयु की बालिकाओं के साथ भ्रष्टाचार के अङ्क भी महत्त्वपूर्ण हैं। इस बात के विश्वास करने का यथेष्ट कारण है कि 'जो अङ्क पुलिस को ज्ञात है' वे वास्तविक अङ्कों से बहुत कम हैं। कतिपय स्वाभाविक कठिनाइयों के कारण यहां ऐसे अपराधों की संख्या विशेषरूप से अधिक है जिनका पुलिस को पता नहीं चला और जिनके लिए किसी को दण्ड नहीं दिया गया। विवरण के १६वें पैराग्राफ में हम पढ़ते हैं:—
"स्वजनों के साथ व्यभिचार—कुटुम्ब के भीतर अपराध किये जाने पर कुटुम्बी जनों के विशेष पारस्परिक सम्बन्ध के कारण पुलिस को उसका पता लगाने में बड़ी कठिनाई का सामना करना पड़ता है। माता बहन या बेटी के साथ व्यभिचार किये जाने पर यदि अपराधी पकड़ा जाय तो कुटुम्ब उस पिता या भाई की सहायता से कई वर्ष तक वञ्चित रह सकता है तथा कुटुम्ब को उसके कारागारवास के समय तक दरिद्रों के लिए कोष से सहायता मिलने के अतिरिक्त और कहीं से आय नहीं हो सकती। इसलिए इस बात को पुलिस के कर्मचारी तथा अन्य अनुभवी सज्जन तुरन्त स्वीकार कर लेते हैं कि कुटुम्ब के भीतर व्यभिचार की जितनी शिकायतें पहुँचती हैं वास्तव में उनकी संख्या उससे कहीं अधिक होती है।"
विवरण के दशम भाग में कमेटी लिखती है कि छोटे बच्चों के साथ किये गये व्यभिचार के अपराधों का पता लगाने के लिए निम्नलिखित कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है:—
"पुलिस को जितने अपराधों की जानकारी रहती है वह उसकी अपेक्षा इतने कम लोगों पर अभियोग लगाती है कि देखकर चकित रह जाना पड़ता है। यह अनुमान किया जा सकता है कि इन अपराधों की सूचना मिलने पर पुलिस यथासम्भव शीघ्र कार्रवाई नहीं करती परन्तु हमें सन्तोष है कि इस अन्तर से यह बात सिद्ध नहीं होती।
"प्रमाण न मिलने की घोर कठिनाई, अपराध का समर्थन न होना, और अदालत में उपस्थित किये जाने से पूर्व वादी की जांच-पड़ताल करना आदि ऐसी बातें हैं जिनके कारण भी पुलिस अपराध को जानती रहती है पर कोई कार्रवाई नहीं कर सकती। हमें ऐसी घटनायें बतलाई गई हैं जिनमें केवल इन्हीं कारणों से कोई कार्रवाई नहीं की गई; यद्यपि अपराध करनेवाला पुलिस को ज्ञात था। "हमारी समझ में अपराधियों की एक बड़ी संख्या के छोड़ दिये जाने से कारण हैं उदाहरण के लिए बच्चों की साक्षी पर दबाव पड़ना और उनका कोई समर्थक न मिलना।"
और एक कठिनाई यह भी है कि 'कचहरियां जब तक कोई समर्थन करनेवाला न हो शिशुओं की बिना शपथ ली गई साक्षी पर कार्रवाई नहीं कर सकतीं।' कचहरियों ने प्रायः '१० वर्ष या ११ वर्ष के शिशु की भी शपथ पर ध्यान देना अस्वीकार कर दिया है।' समर्थन के सम्बन्ध में जो कठिनाइयाँ उपस्थित होती हैं वे विवरण के ६८ वें अंश में दर्ज हैं।
"अपराध का समर्थन प्राप्त करना प्रायः असम्भव होता है। क्योंकि जो लोग अपराध करते हैं वे इस बात की बड़ी सावधानी रखते हैं कि उनके अपराध ऐसी परिस्थितियों में न हों जो उन्हें पकड़वा दें। इसलिए होता यह है कि किसी कम आयु के शिशु पर घोर अत्याचार किया जाता है पर अदालत को समर्थन के अभाव के कारण, जानते हुए भी अपराधी को छोड़ देना पड़ता है। हमारे देखने में ऐसे बहुत से उदाहरण आये हैं और हमारे पास इस बात का प्रमाण है कि अदालतों को शिशु का शपथ-विहीन वक्तव्य ध्यान से सुनकर इस निश्चय पर पहुँचने पर भी कि वह सत्य कह रहा है, मुक़दमा खारिज कर देना पड़ा है। नीर एक मामले का उदाहरण दिया जाता है। इसमें एक व्यक्ति व्यभिचार के लिए छोटे शिशुयों पर आक्रमण करने के अपराध में ६ बार अदालत में लाया गया था:––
२७ मार्च १९२२––पाँच वर्ष की बालिका पर व्यभिचार के लिए आक्रमण––मुकदमा उठा लिया गया था।
२७ मार्च १९२३––सात वर्ष की बालिका पर व्यभिचार के लिए आक्रमण––अपराधी छोड़ दिया गया।
२७ जून १९२३––तीन वर्ष की बालिका पर व्यभिचार के लिए आक्रमण––मुकदमा खारिज कर दिया गया।
१९ नवम्बर १९२३––साढ़े तीन वर्ष की बालिका पर व्यभिचार के लिए आक्रमण––अपराधी छोड़ दिया गया।
२४ जून सन् १९२४––चार वर्ष की बालिका पर व्यभिचार के लिए आक्रमण––बारह महीने का कठिन कारागार दिया गया। "यह तो सम्भव हो सकता है कि भिन्न भिन्न शिशुओं के प्रति इतने अपराध करनेवाले को प्रथम अपराध में समर्थन करनेवाले के अभाव में छोड़ दिया जाय। परन्तु यह बात समझ में नहीं आती कि उसके पश्चात् भी वह व्यक्ति दूसरे शिशुओं पर आक्रमण करता रहता है और कानून उसका कुछ न कर सकता। अन्त में जब वह ऐसी परिस्थिति में पाप करता है जिसमें शिशु के बयान के समर्थक मिल जाते हैं तब कहीं जाकर उसे सजा मिलती है।"
१३ वर्ष से १६ वर्ष की आयु तक की बालिकाओं के सम्बन्ध में इस कमेटी की सम्मति है कि ऐसी जितनी घटनाओं का पता पुलिस और अदालत को चलता है वास्तविक संख्या उससे कहीं बढ़ कर होती है! कमेटी कहती है:––
"इस प्रकार के अपराध में वे घटनाएँ हैं जिनमें बालिका और उसको भ्रष्ट करनेवाले पापी के अतिरिक्त यह बात किसी और को मालूम नहीं हो पाती। ऐसे अपराधों का पता गर्भधारण के पश्चात् चलता है। इनमें से अधिकांश कुमारियाँ संरक्षण-गृहों, या मातृ-भवनों में जाकर गुप्तरूप से शिशु को जन्म दे आती हैं और पुलिस को कभी सूचना तक नहीं मिलती कि कोई अपराध हुआ है।
"स्वास्थ्य-विभाग के मंत्रि-मण्डल की सहायता से हमें ऐसी 'माताओं और शिशुओं' के लिए खुले ७२ गृहों की जाँच करने का अवसर मिला। हमें १ जून १९२५ ईसवी को समाप्त होनेवाले वर्ष में इन गृहों में १६ वर्ष से कम आयु में गर्भवती होनेवाली जो कुमारियां शिशुओं को जन्म देने आई थीं उनकी संख्या का भी पता चला है। ३५ गृहों से यह मालूम हुआ कि उस वर्ष उनमें ऐसी कोई कुमारी नहीं भर्ती हुई। ३७ गृहों के विवरण से ज्ञात हुआ कि उनमें १६ वर्ष से कम आयु में गर्भवती होनेवाली कुल ७८ कुमारियां भर्ती की गई थीं। इन ७७ कुमारियों में से ४४ के साथ कोई कानूनी कार्यवाही नहीं की गई। इस प्रकार ज्ञात अपराधों में ५६ प्रतिशत ऐसे हुए जिन पर कोई कार्यवाही नहीं की गई।
"यह स्मरण रखना चाहिए कि १६ वर्ष से कम आयु की बालिकाओं के साथ जो भ्रष्टाचार किये जाते हैं उनमें बहुत न्यून दशाओं में गर्भधारण होता है। अपराधों के संख्या-चक्र से ज्ञात होता है कि १६ वर्ष से कम आयु की बालिकाओं के विषय-भोग-सम्बन्धी ज्ञान के २०० अपराध प्रति वर्ष पुलिस को मालूम होते हैं। इन २०० अपराधे में 'व्यभिचार के असफल उद्योग' भी सम्मिलित हैं। जब केवल अविवाहिता माताओं के लिए ३७ जनन-गृहों से ७८ गर्भधारण की घटनाओं का पता चलता है और ऐसी 'माताओं और शिशुओं के लिए खुले अन्य गृहों की संख्या १०१ है (गरीबों के कानून के अनुसार बने गृह, अस्पताल और दूसरे मातृ-भवन भी प्रायः सबके सब ऐसी स्त्रियों की जो सहायता करते हैं वह अलग ही है) तब यह स्पष्ट है कि यदि प्रत्येक अपराध की सूचना पुलिस को मिलती तो १३ वर्ष से १६ वर्ष की आयु की बालिकाओं के सम्भोग-सम्बन्धी ज्ञान के सरकारी तौर पर दर्ज किये गये अङ्क २०० से बहुत ऊपर हो जाते। ऐसे गृहों के सञ्चालक लोग इन अपराधों की सूचना पुलिस को देने में हिचकिचाते हैं। इसका कारण या तो बालिकाओं का आ-स्वास्थ्य होता है या वे अपराधी के प्रायः न पकड़े जा सकने के कारण हतोत्साह हो जाते हैं।
एक गृह ने १६ वर्ष से कम आयु की बालिकाओं के साथ व्यभिचार होने की ५ सूचनाएँ पुलिस को दीं। दो में पुलिस केवल इतना ही कर सकी कि उसने गृह-सञ्चालकों को मुकदमा चलाने की राय दी। दो में अपराधी की गिरफ्तारी नहीं हो सकी। अन्तिम सूचना में अपराधी अस्सीज़ेज़ में पकड़ा गया। परन्तु अपील करने पर वह छोड़ दिया गया। दूसरे गृह में १६ वर्ष से कम आयु की ११ गर्भवती बालिकाएँ भर्ती की गई। गृह ने इनमें से तीन बालिकाओं की ओर से अदालत में मुकदमा चलाया। परन्तु किसी में भी अपराधी पकड़े नहीं गये।
ऐसे अपराधों की वृद्धि के सम्बन्ध में यह कमेटी अपने अनुसन्धानों के अनुसार जिन परिणामों पर पहुँची है उनके विवरण के १८ वें भाग में इस प्रकार संक्षिप्त उल्लेख किया गया है:––
"अल्पवयस्कों के साथ किये गये भ्रष्टाचारों के सम्बन्ध में हमने सरकारी और स्थानीय अङ्कों पर तथा साधारण साक्षियों पर विचार किया है और इसके अनुसार हम निम्नलिखित परिणामों पर पहुँचे हैं कि:––
१––जितने अपराधों की सूचना पुलिस को मिलती है उनकी अपेक्षा कहीं अधिक विषय-भोग-सम्बन्धी अत्याचार अल्प-वयस्क पर किये जाते हैं।
हम आशा करते हैं कि इस जाँच का एक परिणाम यह होगा कि ऐसे जिन अपराधों का भेद खुलेगा उनकी सूचना जनता बड़ी तत्परता के साथ पुलिस को देगी।
२––ऐसे मुकदमों में उनकी संख्या अधिक है जिनमें अपराधी छोड़ दिये जाते हैं। ३––बलात्कार-पूर्वक विषय-भोग के अपराधों की संख्या यथेष्ट रूप से घट गई है।
४––१६ वर्ष से कम आयु के बालक-बालिकाओं पर गन्दे उद्देश्य से आक्रमण करने के अपराधों की संख्या यथेष्ट रूप से बढ़ गई है। यह बात अपराधों के अङ्क-चक्र में दिवाई जा चुकी है।
सरकारी काग़ज़ों में दिखाये गये ऐसे अपराधों की वृद्धि कहाँ तक ठीक है? इस सम्बन्ध में हमें जो प्रमाण मिले है वे विवाद-ग्रस्त हैं। इन समस्त साक्षियों और प्रमाणों की गम्भीरता के साथ परीक्षा करने के उपरान्त इम इस निश्चय पर पहुँचते हैं कि अल्प-वयस्कों पर किये गये गन्दे आक्रमणों की संख्या में वृद्धि हुई है।
५––शिशुओं या अल्प-वयस्कों के हितों से सम्बन्ध रखनेवाली सज़ाओं के घटा देने के कारण अब इन पर जो गन्दे आक्रमण होते हैं उनमें बलात्कारपूर्वक व्यभिचार करने के भयङ्कर अपराध भी सम्मिलित होने लगे हैं। ऐसे अपराधों की वृद्धि के सम्बन्ध में गम्भीरता के साथ विचार करने का एक यह भी कारण है।"
बहुत से साक्षी देनेवालों ने कमेटी से यह सिफ़ारिश की कि चाचा और भतीजी के बीच किया गया व्यभिचार भी माता-बहन के साथ किये गये व्यभिचार के दण्ड-नियम के अनुसार दण्डनीय ठहरा दिया जाय। इसके अतिरिक्त कमेटी को ये सिफारिशें विशेषरूप से करनी पड़ी कि पुत्रियों पर पिताओं के गन्दे आक्रमणों को रोकने के लिए क़ानून बनाये जायँ।
पूरे पाँच पैराग्राफ (८३-८८) 'बुजुर्गों' के अपराधों––अधिक आयु के लोगों के अल्प आयुवालों पर गन्दे अक्रमणों––के विवरण से भरे हैं। ८४ वें पैराग्राफ़ में हम पढ़ते हैं:––
"हमारा ध्यान ऐसे गन्दे उदाहरणों की ओर भी आकर्षित किया गया है जिनमें वृद्ध लोग छोटे बच्चों पर गन्दे आक्रमण करते हैं। उनके विरुद्ध कार्यवाही करने की कठिनाइयों को भी हमें बताया गया है। ये कठिनाइयाँ और भी बढ़ जाती हैं जब अपराध का कारण कुछ शारीरिक या मानसिक सम्बन्ध होता है। हम यह निश्चय करते हैं कि यदि किसी वृद्ध मनुष्य पर किसी ऐसे अपराध का अभियोग लगाया जाय, तो उसको दण्ड देने का सबसे अच्छा उपाय यह है कि जहाँ उसके सम्बन्धी हों और उसका उत्तरदायित्व अपने ऊपर लेना स्वीकार करें वहीं उसका चरित्र सुधारने के लिए उसे उनकी देख-रेख में रख दिया जाय या उसे इस शर्त पर ज़मानत लेकर छोड़ दिया जाय कि बह अपने सम्बन्धियों के साथ रहेगा।
"हमें ८० वर्ष से भी अधिक आयु के वृद्धों के सम्बन्ध में ज्ञात हुआ है कि अन्य सब प्रकार से प्रतिष्ठित व्यक्ति होते हुए भी उन्हें गन्दे अपराधों के कारण बार बार कारागार में बन्द होना पड़ा है। हमारा निश्चय है कि ऐसे व्यक्तियों के सुधार का सबसे अच्छा उपाय यह है कि उन्हें कारागार के अतिरिक्त किसी अन्य संस्था में कुछ समय तक के लिए रोक रक्खा जाय।"
'वृद्धों के अपराधों' के सम्बन्ध में जो अन्तिम पैराग्राफ दिया गया है उसमें इन अपराधों के 'केवल थोड़े से उदाहरण ऐसे हैं जो हमारे सामने उपस्थित किये गये हैं।' परन्तु ये उदाहरण उन मेयों और चर्चिलों का मुँह बन्द कर देने के लिए यथेष्ट हैं जो भारतवर्ष को अस्पताल और फौजदारी की अदालत से ली गई कुछ घटनाओं के कारण दात दिखाते हैं। विवरण कहता है:––
"जो हो, हमारे सामने जो बातें उपस्थित की गई उन पर गम्भीरता के साथ विचार करने के पश्चात् हम इस परिणाम पर पहुँचे हैं कि कतिपय दशानों में अपराधों को देखते हुए जो दण्ड दिये गये वे बहुत कम थे। इनमें से कई एक मुकदमे पार्लियामेंट में टीका-टिप्पणी के लिए रक्खे गये थे और इसमें सन्देह नहीं कि ये टीकायें उचित समझी गई। उदाहरण के लिए हमें एक ऐसे अभियोग के सम्बन्ध में लेागों ने बतलाया जिसमें पिता ने अपनी पुत्री पर दो बार व्यभिचार करने के लिए आक्रमण किया था। इनके लिए उस पिता को केवल एक मास की सज़ा दी गई थी। दूसरा अभियोग एक ऐसे पापी पर लगाया गया था जिसने दो छोटी बालिकाओं पर बलात्कार किया था। प्रत्येक के लिए उसे चार चार मास की सज़ाए दी गई थीं। पर दोनों सज़ायें साथ साथ चलती थीं। एक और भी अभियोग के सम्बन्ध में हमें मालूम हुआ है। एक मनुष्य व्यभिचार की चेष्टा करने के कारण किसी स्थान पर कुछ समय तक चरित्र सुधारने के लिए रख दिया गया था। इसी काल में वह दूसरा ऐसा ही गन्दा पाप-कार्य कर बैठा। इसके परिणाम-स्वरूप उसके चरित्र सुधारने का काल बढ़ा दिया गया । एक मुकदमे की सुनवाई अस्सी जेज़ में हुई थी। उसमें एक २४ वर्ष के युवक ने एक १४ वर्ष की बालिका के साथ सम्भोग किया था। युवक उस बालिका के घर में ठहरा हुआ था और बालिका में आयु के अनुसार बचपन का स्वभाव विद्यमान था तथा उसका स्वास्थ्य अच्छा नहीं था। जब यह बालिका गर्भवती हो गई तब भण्डाफोड़ हुआ। जब अभियोग लगाया गया तब उस मनुष्य ने अपना अपराध स्वीकार कर लिया और कहा कि मैंने तो गर्भ न रहने के लिए पूरी सावधानी की थी। उसे चार मास की सजा हुई।"
योरपीय विषय-भाग-सम्बन्धी जीवन के सम्बन्ध में प्रसिद्ध और प्रामाणिक लेखक डाक्टर ब्लाच[३] ने 'वृद्ध लोगों के एक प्रकार के सम्भोग-सम्बन्धी पागलपने' का वर्णन किया है जो ८० वर्ष पहले इँगलैंड में प्रचलित था और जिसके कारण बच्चों का जीवन बड़ा सङ्कटमय बना रहता था।
इस अध्याय को समाप्त करने से पहले कदाचित् एक विशेष कारण अर्थात् योरप के कई एक सभ्य देशों में फैले इस अन्ध-विश्वास कि बच्चों के साथ सम्भोग करने से इन्द्रिय रोग दूर हो जाते हैं––की ओर ध्यान आकर्षित कर देना अधिक आवश्यक होगा। क्योंकि बच्चों पर किये गये आक्रमणों की एक विचारणीय संख्या का उत्तरदायित्व इसी पर है। डाक्टर ब्लाच[४] ने इसका एक बड़ा ही 'शोचनीय उदाहरण' उपस्थित किया है। 'एक किसान को गर्मी हो गई थी। उसे यह राय दी गई कि यदि वह किसी अनूठी कुमारी के साथ सम्भोग करे तो अच्छा हो सकता है। उसने खास अपनी ही पुत्री से सम्भोग किया और रोग से मुक्त होगया!!'
उस ब्रिटिश कमेटी को भी, जिसके विवरण से हम इतने उद्धरण दे चुके हैं, इस अन्धविश्वास का सामना करना पड़ा था। १ से लेकर ५ वर्ष तक के तथा ५ से लेकर १४ वर्ष तक के बालक-बालिकाओं में गर्मी और सुज़ाक के रोग पाये जाने के सम्बन्ध में यह कमेटी लिखती है:––
"कानूनी और चिकित्सा-सम्बन्धी साक्षियों पर विचार करने के पश्चात् हम इस विचार पर पहुँचे हैं कि इन छोटी बालिकाओं में सुज़ाक की बीमारी के पाये जाने का कारण यह अन्धविश्वास हैं कि अनूठी बालिकाओं से सम्भोग करने से ये रोग दूर हो जाते हैं।" यह कमेटी आशा कर रही है कि शीघ्र ही इस अन्धविश्वास का जादू पूर्णरूप से नष्ट हो जायगा। हम भी हृदय से चाहते हैं कि 'ऐसा ही हो।'
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मिस मेयो ने 'लिबर्टी' नामक पत्र में जो लेख प्रकाशित कराया है और जिसका हम विषय-प्रवेश में उल्लेख कर चुके हैं, उसमें भी वह अपने उन्हीं आक्षेपों पर जाती है जिनका कि इस अध्याय में उत्तर दिया गया है। महात्मा गाँधी ने मदर इंडिया को 'मोरी निरीक्षक का विवरण' ठीक ही कहा था। उनका तर्क था कि:––
"यदि मैं लन्दन के समस्त नाबदानों से जो दुर्गन्धि निकल रही है उसको खोलूँ और कहूँ––'देखो यह लन्दन है'! तो मेरी बातों का कोई खण्डन नहीं कर सकता। परन्तु मेरा निणय सत्य का उपहास समझा जायगा और उसकी निन्दा होगी। मिस मेयो की पुस्तक न इससे अच्छी है न इससे भिन्न।"
इसके उत्तर में मिस मेयो न्यूयार्क के 'आउटलुक' नामक पत्र की 'सच्ची और यथेष्ट अमरीकन टिप्पणी' उद्धत करती है।' टिप्पणी यह है:––
"सम्भव है! परन्तु यह किसी ने कभी नहीं बतलाया कि लन्दन में लोग छोटी बालिकाओं को नाबदानों में कैद कर रखते हैं।"
इस प्रकार की कपटपूर्ण बातों में शिकागो और न्यूयार्क के ही लोग संसार में सबसे अधिक आनन्द लेते हैं! परन्तु कदाचित् संसार के इन पाप केन्द्रों की यही विशेषता है। इस अध्याय में हमने जो प्रामाणिक साक्षियाँ उपस्थित की हैं उनसे यह सिद्ध नहीं होता कि लन्दन के नाबदान बच्चों के लिए बड़े आनन्ददायक हैं। और अमरीका के नगरों के तो निश्चय ही कुछ अच्छे नहीं हैं। इस समय हमारे पास अमरीका का कोई ऐसा सरकारी विवरण नहीं है जैसा कि ब्रिटिश का, जिसका कि इस अध्याय में हम वर्णन कर चुके हैं। न्यूयार्क और शिकागो के दैनिक 'विश्व निन्दकों' को साक्षी के लिए उपस्थित करना अमरीका के साथ न्याय न होगा। परन्तु उसी सिलसिले में हम इतना उल्लेख किये देते हैं कि यह अमरीका का ही एक राज्य––देवादा––था जिसने छोटे बच्चों के साथ विषय-भोग का अपराध करनेवाले और सुधारें न जा सकनेवाले अमरीकनों के लिए विद्युत् प्रयोग द्वारा अवीर्य बनाने का वैज्ञानिक दण्ड निकाला था। इस सुन्दर दण्ड' को शीघ्र ही सरकारी किताब से निकाल देना पड़ा क्योंकि असुधारणीय अमरीकावासियों ने इस दण्ड को कोई दण्ड समझना ही अस्वीकार कर दिया।
- ↑ दी ग्लास आफ़ फ़ैशन (शृङ्गार-दर्पण) मिल्स एण्ड बून लन्दन, १९२२, पृष्ठ १४५-१४७।
- ↑ सम्राट् के स्थायी कार्य्यालय से प्रकाशित, १९२६। (सी॰ एम॰ डी॰ २५६१) हाल ही में लेडी अस्टर की अध्यक्षता में एक डेपुटेशन सर डब्लू॰ एम॰ ज्वान्सन हिक्स से मिला था कि इस विवरण में सिफ़ारिश की गई बातों के अनुसार कार्य्य आरम्भ किया जाय और स्वीकृति की आयु १४ वर्ष से बढ़ाकर १६ वर्ष कर दी जाय।
- ↑ वही पुस्तक
- ↑ उसी पुस्तक से।