दुखी भारत/२३ भारतवर्ष-वैभव का घर

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तेईसवाँ अध्याय
भारतवर्ष––वैभव का घर*[१]

मदर इंडिया की लेखिका के लिए यह देश न केवल वर्तमान समय में बल्कि सदा से ही 'दरिद्रता का घर' रहा है। इस बात को वह पूरी गम्भीरता के साथ कहती है और अपनी सम्मतियों को ऐतिहासिक खोजों के आधार पर भी उपस्थित करने का ढोंग रचती है। परन्तु उसको इतिहास का उतना ही कम ज्ञान है जितनी शीघ्रता के साथ वह बिना विचारे अपनी सम्मतियाँ निश्चित करती है। उसका थोथा ऐतिहासिक ज्ञान उस समय उसे और भी नीचे गिरा देता है जिस समय वह सिक्खों के विद्रोह को १८४५ की घटना जताने लगती है। (पृष्ठ २५९) श्रीयुत एडवर्ड थामसन ठीक ही यह प्रश्न करते हैं कि आखिर सिक्खों के विद्रोह किया किसके विरुद्ध? अभी तक अँगरेज़ों ने उनके देश को अपने राज्य में नहीं मिलाया था। क्या उन्होंने स्वयं अपने स्वजातीय शासन के विरुद्ध विद्रोह किया था? कदाचित् वह बात स्वयं इतनी महत्त्वपूर्ण नहीं है! परन्तु इसका यह अर्थ अवश्य है कि पाठकों को मिस मेयो के भारतीय इतिहास के ज्ञान पर भरोसा न करना चाहिए।

केवल एक धृष्ट––अर्थात मूर्ख और जल्दबाज़––परिणाम निकालनेवाला ही ऐसा हो सकता है जो यह कहे कि भारतवर्ष से ग्राम्य-शासन-पद्धति का कभी विकास नहीं हुआ। मिस मेयो लिखती है––'यह बात ध्यान देने की है कि भारतवर्ष का इतिहास––उत्तर का भी और दक्षिण का भी––केवल अगणित युद्धों और एक वंश को हटा कर दूसरे वंश के शासन ग्रहण करने की घटनाओं का इतिहास है। यहाँ के निवासियों में म्युनिस्पैलटी, स्वतन्त्र नगर-प्रबन्ध, प्रजातन्त्र और राजनैतिक ज्ञान आदि का भाव कभी उत्पन्न ही नहीं हुआ।' मिस मेयो ने अपने 'दरिद्रता का घर भारतवर्ष' नामक अध्याय में इसी [ ३०७ ]प्रकार की अनेक सम्मतियाँ प्रकट की हैं। उनका न तो कोई ऐतिहासिक प्रमाण दिया गया है और न दिया ही जा सकता है। उसकी पुस्तक के २५१ वें पृष्ठ पर लिखा है––'इस देश में एक स्थान से दूसरे स्थान को आने जाने के लिए सड़कें ऐसी थीं जैसी कि बैलों के चलने से उनके खुरों के कारण कीचड़ और धूल में बन सकती हैं। ऐसे ही थोड़े से पुल भी थे।' परन्तु इस बात का खण्डन तो स्वयं मिस मेयो की पुस्तक की विषय-सूची से हो जाता है। उसकी पुस्तक एक अंश का शीर्षक है––'ग्रैंड ट्रंक रोड।' यदि उसे इस बात का किञ्चिन्मात्र भी ज्ञान होगा कि 'ग्रैंड ट्रंक रोड' क्या वस्तु है तो वह इतना अवश्य जानती होगी कि इस सड़क को न तो बैलों ने बनाया था न उसके अँगरेज़ बहादुरों ने। सब बात तो यह है कि अँगरेज़ों के आगमन से पूर्व भारतवर्ष की कुछ सड़कें ऐसी थीं जिनकी मीलों की लम्बाई चार अङ्कों में गिनी जाती थी और रेल-पथ बनने से पूर्व उनके एक सिरे से दूसरे पर पहुँचने के लिए यात्रियों को उन पर महीनों चलना पड़ता था।

अपनी पुस्तक के 'दरिद्रता का घर' शीर्षक अध्याय में मिस मेयो ने उन वर्णनों को भी सम्मिलित कर लिया है जो यात्रियों ने इस विशाल देश के किसी भाग में अकाल के दिनों में जा निकलने पर लिखे हैं। परन्तु इसे बीते युग का सच्चा ऐतिहासिक चित्र कहना कठिन है। यह सम्भव है कि बीसवीं शताब्दी के अमरीकन आदर्श के अनुसार भारतवर्ष वैभवशाली न रहा हो, परन्तु बीते युगों के उपयुक्त आदर्शों को सामने रखकर विचार किया जाय तो भारतवर्ष निःसन्देह धन-धान्य से सम्पन्न और समुन्नत देश था।

श्रीयुत बी॰ ए॰ स्मिथ के मतानुसार भारतवर्ष का वह भाग्य जो दारा के साम्राज्य में सम्मिलित था, उसके सम्पूर्ण राज्य में सबसे धनी प्रान्त था[२]

थारन्टन-कृत ब्रिटिश भारत के इतिहास का प्रथम पैराग्राफ इस प्रकार आरम्भ होता है:––

"जब नील नदी की बाटी पर तुच्छता का दृष्टि-पात करनेवाली पिरमिडों की सृष्टि नहीं हुई थी, जब योरोपियन सभ्यता के पालने माने जानेवाले [ ३०८ ]यूनान और रोम बिल्कुल असभ्य अवस्था में थे तब भारतवर्ष धन और वैभव का धाम था। इस देश में चारों ओर व्यवसाय कुशल लोगों की बस्तियाँ थीं। भूमि पर उनका परिश्रम अङ्कित हो रहा था। कृषकों के परिश्रम के बदले में प्रकृति उन्हें प्रतिवर्ष धन-धान्य के बहुमूल्य पुरस्कार से पुरस्कृत करती थी। चतुर बुनकर मुलायम और सुन्दर वस्त्र तैयार करते थे। कारीगरों ने ऐसे ऐसे चमत्कारपूर्ण भवनों की रचना की थी कि आज सहस्रों वर्ष की सभ्यता का प्रसार होने पर भी उनकी समता नहीं की जा सकती।......भारतवर्ष की प्राचीन स्थिति अवश्य असाधारण रूप से महत्तापूर्ण रही होगी।"

बौद्धकालीन भारतवर्ष के सम्बन्ध में श्रीयुत रिस डैबिडस कहते हैं[३]:––

"सब लोग सुरक्षित थे। सब लोग स्वतन्त्र थे। न ज़मींदार थे, न भिखमङ्गे। सर्वसाधारण मज़दूरी लेकर काम करने में अपना महान् अपमान समझते थे। केवल बड़ी विपत्ति आ पड़ने पर ही वे ऐसा कर सकते थे।"

परन्तु मिस मेयो को इतना धैर्य कहाँ कि वह इतनी प्राचीन बातों पर विचार करे। इसलिए हम केवल मुस्लिम शासन-काल की और ब्रिटिश-शासन के ठीक पहले के समय की बातों का ही उद्धरण उपस्थित करेंगे।

भारतीय सुधार-समिति, जिसमें पार्लियामेंट के ३७ सदस्य भी सम्मिलित हैं, अपने 'रिफार्म पैम्फलेट' नामक (९ वें) पर्चे में लिखती है:––

"कहा जाता है कि भारतवर्ष के निवासी नीच, पतित और अत्यन्त झूठे हैं।......यदि भारतवर्ष के बड़े से बड़े राजाओं को देखा जाय तो हमारे महा काहिल और स्वार्थी गवर्नर भी अत्यन्त योग्य और उदार प्रतीत होंगे। मुग़ल बादशाहों की विलासितापूर्ण स्वार्थपरता ने भारतनिवासियों को निर्बल और दरिद्र बना दिया था। उनके पूर्वज या तो विश्वासघाती अत्याचारी थे या काहिल व्यभिचारी।......इस देश के समाचार-पत्रों और जनता की सहानुभूति के बल पर हमारे लिए यह बड़ा ही सरल है कि हम अपने पूर्व शासकों को नीच कहकर अपने आपको उच्च घोषित कर दें। हम अपनी कथाओं और अपने प्रमाणों को सर्वथा सत्य कहते हैं। परन्तु यदि हमें अपने से पूर्व के शासकों के सम्बन्ध में कोई अच्छी बात मिलती है तो हम उस पर [ ३०९ ]सन्देह प्रकट करने लगते हैं। हम चौदहवीं सदी के मुग़लों के आक्रमणों की 'पूर्व में उन्नीसवीं सदी की ब्रिटिश-सेना की विजयी, नम्न और दयालुतापूर्ण चढ़ाइयों' से तुलना करते हैं। परन्तु यदि हमारा उद्देश्य न्याय-युक्त हो तो हमें भारतवर्ष पर मुसलमानों के आक्रमणों की तुलना इँगलैंड पर तत्कालीन नारमनों के आक्रमणों से करनी चाहिए––मुग़ल बादशाहों के चरित्र की तुलना पश्चिम के तत्कालीन बादशाहों के चरित्र के साथ करनी चाहिए––‌१४ वीं शताब्दी के भारतीय युद्धों की तुलना फ्रान्स के युद्धों या ऋसेड्स से करनी चाहिए––हिन्दुओं पर मुस्लिम शासन के प्रभाव की तुलना एँग्लोसैक्सनों पर नारमन-शासन के उस समय के प्रभाव से करनी चाहिए जब अंगरेज़ कहलाना गाली समझा जाता था जय न्यायाधीश अन्याय के स्त्रोत होने थे––जब मजिस्ट्रेट लोग जिनका कि न्याय करना कर्तव्य होता था, अत्यन्त निर्दयी और साधारण चोरों और डाकुओं से भी बढ़कर लुटेरे होते थे––जब बड़े लोग इतने धन-लोलुप होते थे कि वे इस बात को सोचते ही न थे कि यह धन कैसे प्राप्त किया जा रहा है––जब इन्द्रिय-लोलुपता इतनी बड़ी चढ़ी थी कि स्काटलैंड की एक राजकुमारी को 'विषयी लोगों के हमलों से बचने के लिए धार्मिक जीवन और परिधान की शरण लेनी पड़ी थी।' (हेनरी आफ़ हनिंगटन, एँग्लो-सैक्सन इतिहास और ईडमन)

"कहा जाता है कि भारतवर्ष के मुसलमान राजवंशों का इतिहास आरम्भिक विजेताओं की निर्दयत्ता और लोलुपता के उदाहरणों से भरा पड़ा है। परन्तु तत्कालीन मसीही इतिहास भी ऐसे ही उदाहरणों से परिपूर्ण मिलता है। ग्यारहवीं शताब्दी के अन्त में जब प्रथम क्रुसेडरस ने जेरूसलम पर अधिकार किया था तब विपक्षी सेना के '४०,००० मनुष्य बिना किसी भेद-भाव के तलवार के घाट उतार दिये गये थे। न हथियारों से वीरों की रक्षा हुई न शत्रु की शरण लेने से कायरों की। आयु, लिङ्ग, जाति आदि किसी का विचार नहीं किया गया। बच्चे और माताएँ एक तलवार से आहत की गई। जेरुसलम की सड़कें मुर्दों से पट गई, प्रत्येक गृह से पीड़ा और अधीरता का आर्तनाद सुनाई पड़ने लगा।' बारहवीं शताब्दी में जब फ्रान्स के बादशाह सप्तम लूइस ने वित्री नामक नगर पर अधिकार किया था तब उसने 'उस नगर लगा देने की आज्ञा दी थी।' इसी समय इँगलैंड में हमारे स्टीफेन के अधीन 'इतने बेग से युद्ध हुआ था कि भूमि बिना खेती के छोड़ दी गई थी और कृषि के औज़ारों को कोई पूछनेवाला न था।' चौदहवीं शताब्दी में फ्रांस में जो युद्ध हुए 'उनका परिणाम अत्यन्त भयानक और विनाशक था। किसी देश या काल को ऐसा अनुभव नहीं है।' कहा जाता है कि मुसलमान विजेताओं की अतृप्त निर्दयता के जो प्रमाण मिलते हैं वे उनकी अतृप्त उदारता के प्रमाणों से कहीं अधिक पुष्ट हैं। हमारे पास तत्कालीन ईसाई विजेताओं की [ ३१० ]निर्दयता के भी प्रचुर प्रमाण मौजूद हैं पर क्या उनकी उदारता का भी कहीं कोई प्रमाण मिलता है?"

"इस प्रकार बड़े बड़े ग्रन्थ लिखाकर देशी राज्य व्यवस्थाओं और देशी नरेशों के चरित्र पर कुठाराघात किया जा रहा है ताकि उनके स्वत्वों को अपने अधिकार में किये रहने के लिए हमें उचित बहाना मिला रहे। ऐसी दशा में यहाँ यह बतला देने की आवश्यकता है कि प्रत्येक देशी 'ओलबियर' के स्थान पर हमारे यहाँ ईसाई 'रोलेंड' मौजूद हैं। अर्थात् यदि भारतवर्ष के मुसलमान शासक निर्दयी और लोलुप थे तो उनके समकालीन ईसाई शासक भी उनसे किसी प्रकार कम नहीं थे। हम लोगों का यह फ़ैशन हो गया है कि हम पन्द्रहवीं या सोलहवीं शताब्दी के भारतवर्ष की तुलना उन्नीसवीं शताब्दी के इँगलैंड के साथ करते हैं और परिणाम पर अपनी प्रशंसा करते हैं। एक बुद्धिमान् समालोचक का कहना है कि 'जब हम इँगलैंड के साथ किसी अन्य देश की तुलना करते हैं तब इँगलैंड से हमारा तात्पर्य केवल उस इँगलैंड से रहता है जैसा कि वह वर्तमान समय में है।‌ हम सुधारकाल के पूर्व के इँगलैंड पर कदाचित् ही ध्यान देते हैं। जो देश किसी अंश में भी हम से पिछड़े रहते हैं, उन्हें हम असभ्य और मूर्ख समझते हैं; उनकी स्थिति हमारे देश से कुछ ही समय पूर्व उत्तम क्यों न रही हो। उन्नीसवीं शताब्दी के इँगलैंड के साथ सोलहवीं शताब्दी के भारतवर्ष की तुलना करना उसी अंश तक उचित है जिस अंश तक ईसाई सन् की प्रथम शताब्दी के दोनों देशों की तुलना करना––जब भारतवर्ष सभ्यता के शिखर पर था और इँगलैड उसकी तलेटी में।"

गत शताब्दी में पार्लियामेंट के सदस्य श्रीयुत डब्लू॰ एम॰ टारेन्स ने लिखा था[४]:––

"प्राचीन भारतीय शासन-पद्धति को पतित स्वेच्छाचारिता और लोकमत की परवाह न करनेवाली कहना एक ऐसी भूल है जिसका कोई आधार नहीं है और जिसके समान भूल कहीं सुनने में नहीं आई। यह बहाना करना कि इस शासन-पद्धति ने जिनका अहित किया वे धर्मान्ध दास थे और वे उसी स्थिति में पड़े रहते यदि विदेशी सभ्यता तलवार बल पर इसमें हस्ताक्षेप न करती, अपने अत्याचार के ज्ञान को सुलाना और अपने राष्ट्रीय आत्म-प्रेम का घमण्ड करना है। इस ढोंगी सिद्धान्त का ऐसे मनुष्यों ने खण्डन किया है [ ३११ ]जिनकी जानकारी के सम्बन्ध में किसी को सन्देह नहीं हो सकता और जिनकी प्रामाणिकता को कोई अस्वीकार नहीं कर सकता।"

मिस्टर टारेन्स अपने पाठकों से भारतीय शासकों की नास-मात्र की अपहरण नीति, निन्दा और धर्मान्धता की तुलना बोर्जियल, नवम लुइस, द्वितीय फिलिप, तृतीय रिचर्ड, मेरी व्यूडर, और अन्तिम स्टुअर्ट की करतूतों से करने के लिए कहते हैं; और उन्हें योरप में भूतकाल कैथरिन डे मेडिसी से लेकर लुइस ले ग्रैंड तक––निर्दयी फिलिफ से लेकर मूर्ख फर्डिनंड तक––विश्वासघाती जोन से लेकर धूर्त चार्लस तक (तथा असक्काय के पितृघाती पीटर और नेपोलियन बोरबन्स को भी बिना विस्मृत किये) के अनुचित शासन पर विचार करने के लिए कहते हैं। इसके पश्चात् वे इस परिणाम पर पहुँचते हैं कि यह बात दक्षिणी एशिया के सम्बन्ध में उतनी सत्य नहीं है जितनी पश्चिमीय योरप के सम्बन्ध में कि वहाँ के प्रधान या आश्रित शासन के प्रतिदिन के कार्य अर्द्ध-पाशविक, क्रूर, स्वार्थमय और लोलुपतापूर्ण होते थे।

रिफ़ार्म पैम्फलेट नम्बर ९ में हम पुनः पढ़ते हैं कि:––

"हिन्दू और मुसलमान दोन जातियों के लेखक एक-स्वर से कहते हैं कि मुसलमानों के प्रथम आक्रमण के समय में भारतवर्ष बड़ी उन्नति पर था। दोनों विस्तार के साथ कन्नौज राज्य की राजधानी की विशालता एवं सुन्दरता का तथा सोमनाथ के मन्दिर की अक्षय विभूति का वर्णन करते हैं।"

अब जरा ब्रिटिश शासक और इतिहासकार एलफिन्स्टन की बातों पर ध्यान दीजिए,[५]––

"साधारण समय में लोगों की जो स्थिति थी उससे उन पर किसी प्रकार की ज्यादती का पता नहीं चलता। फीरोज शाह (१३५१-१३९४ ई॰) के इतिहास-लेखक ने विस्तार के साथ वर्णन किया है कि उस समय प्रजा सुखी थी, लोगों के घर सुन्दर होते थे, साज व सामान की कमी नहीं रहती थी, और स्त्रियाँ आम तौर पर चाँदी और सोने के गहने पहनती थीं।" [ ३१२ ]दूसरे इतिहासकारों और यात्रियों ने जिन बातों का वर्णन किया था, उन सबका एलफिन्स्टन ने उपयोग किया है। नीचे हम उसके कुछ प्रमाणों को संक्षेप में देते हैं:––

"इसमें सन्देह नहीं कि देश की साधारण स्थिति उन्नति पर थी। निकोलो डे कोंटी, जिसने लगभग १४२० ईसवी के भारतवर्ष की यात्रा की थी, गुजरात की बड़ी प्रशंसा करता है। उसने गङ्गा के किनारों को नगरों से भरा देखा था। वे नगर सुन्दर सुन्दर पुष्पों और मेवों के बगीचों से घिरे थे। महराजिया के मार्ग में उसे चार सुन्दर नगर मिले थे। महराजिया के सम्बन्ध में वह लिखता है कि वह बड़ी ही सम्पन्न नगरी थी। वह चांदी सोने और अमूल्य रत्नों से भरी थी। बारबोरा और बारतेमा ने उसके वर्णनों का समर्थन किया है। इन लोगों ने सोलहवीं शताब्दी के आरम्भ-काल में भारतवर्षकी यात्रा की थी।"

"सीज़र फ्रेडरिक ने इसी प्रकार गुजरात का वर्णन किया है। इब्न बतूता ने पन्द्रहवीं शताब्दी के मध्य में, मुहम्मद तुगलक के अत्याचारी और क्रान्तिकारी शासन-काल में जब देश के अधिकांश भाग में विप्लव मचा हुआ था, भारतवर्ष की यात्रा की थी। वह बड़े बड़े धनी बस्ती के कस्बों और नगरों की गणना करता है और बताता है कि इस अशान्ति के पूर्व देश की दशा बड़ी ही उत्तम रही होगी।"

रिफार्म पैम्फलेट में मुग़ल-कालीन भारतवर्ष का वर्णन इस प्रकार दिया हुआ है[६]:––

"तैमूरलंग के पोते के राजदूत अब्दुलरियाज ने १४४२ ईसवी में दक्षिण भारत की यात्रा की थी। दूसरे निरीक्षकों से वह भी इस विषय में सहमत है कि तब यह देश बड़ी उन्नत्ति पर था। खानदेश का राज्य तब अपने खास शासक के अधीन बड़ी उन्नति कर रहा था। उस समय वहीं खेती की सिंचाई के लिए पानी की अनेक धाराओं के मुँह पर पत्थर के बाँध यह कार्य भारतवर्ष के किसी भी औद्योगिक और योग्यता के कार्य की समता कर सकता है।"

"बाबर भारतवर्ष को धनी और उच्च कोटि का देश कहता है। और इसकी घनी बस्ती और हर एक भाँति के अनेक कारीगरों को देखकर आश्चर्य प्रकट करता है।" [ ३१३ ]एलफ़िन्स्टन के निम्नलिखित उद्धरण से मिस मेयो के उस वक्तव्य का पुनः खण्डन हो जाता है जो उसने अँगरेज़ों के शासन-काल से पूर्व के भारत की सड़कों के सम्बन्ध में कहा था[७]

"शेरशाह ने बङ्गाल से सिन्धु नदी के निकट पश्चिमी रोहतास तक चार मास की यात्रा की लम्बी सड़क बनवाई थी। उसके प्रत्येक पड़ाव पर एक सराय और प्रत्येक डेढ़ मील पर एक कुआ था।......सड़क के दोनों ओर यात्रियों को छाया प्रदान करने के लिए उसने वृक्षों की पंक्तियां लगवाई थीं। ८२ वर्ष के पश्चात् भी वह इस लेखक को अधिकांश स्थानों में बिल्कुल वैसी ही मिली जैसा कि ऊपर वर्णन किया गया है।"

रिफ़ार्म पैम्फलेट ने जिन प्रामाणिक लेखकों के वक्तव्य उद्धृत किये हैं उनमें पीटरो डल बेली नामक एक इटली का यात्री भी है। उसने १६२३ ईसवी में लिखा था[८]:––

"प्रायः सभी शान के साथ जीवन व्यतीत करते हैं। क्योंकि राजा अपनी प्रजा को झूठी शिकायतों पर दण्ड नहीं देता और जब उनको शान से धनाढ्य की भांति रहते देखता है तब उनकी किसी वस्तु से उन्हें वञ्चित नहीं करता"

औरंगज़ेब के सम्बन्ध में हम पढ़ते हैं[९]:––

"औरंगजेब और उसके पश्चात् के क्रमानुसार निर्बल और के शासन तथा नादिरशाह, जो १७३९ ई॰ में दिल्ली छोड़ते समय अपने साथ विपुल सम्पत्ति ले गया था, के आक्रमण के होते हुए भी देश की दशा अच्छी ही थी।"

अँगरेज़ों के शासन काल से पूर्व भारतवर्ष के भिन्न भिन्न प्रान्तों की क्या आर्थिक स्थिति थी? इसके सम्बन्ध में भी हम कुछ प्रमाण उद्धृत कर देना [ ३१४ ]चाहते हैं। जेम्स मिल––दार्शनिक मिल के पिता––ने अवध और कर्नाटक के सम्बन्ध में लिखा है[१०]:––

"ब्रिटिश गवर्नमेंट की पराधीनता और कुशासन के कारण अवध और कर्नाटक, भारतवर्ष के दो सर्वोत्तम प्रान्तों के निवासी ऐसी बुरी दशा में पहुँच गये हैं कि वैसी दशा भारतवर्ष के किसी अन्य भाग के निवासियों की––कदाचित् संसार के किसी भाग के निवासियों की––नहीं हो सकती।"

कर्नेल फुलर्टन की 'भारतीय हितसाधन' नामक पुस्तक में हैदरअली के चरित्र और उसके शासन काल में मैसूर की स्थिति का वर्णन मिलता है। रिफ़ार्म पैम्फलेट के लेखक ने लिखा है:––

"कारीगरों और व्यापारियों की खूब उन्नति हुई।...खेती के कामों की वृद्धि हुई। नई नई दस्तकारियाँ दिखाई पड़ने लगी और राजधानी में सम्पत्ति बह चली।...माल के कर्मचारी घोड़ा भी अपराध करते थे तो उन्हें दण्ड दिया जाता था।"

मुअर ने टीपू के शासन के सम्बन्ध में जो लिखा था नीचे उसका सारांश दिया जाता है[११]:––

"जब कोई व्यक्ति किसी अज्ञात देश की यात्रा करता है और उसमें अच्छी खेती, व्यावसायिक लोगों की धनी बस्तियाँ, नवीन नगर, विस्तृत व्यापार, तथा नगरों और प्रत्येक वस्तु की उन्नति को देखता है, जिससे यह पता चलता है कि प्रजा सुखी है, तब वह स्वभावतः यह अनुमान कर लेता है कि देश की शासन-पद्धति प्रजा के अनुकूल है। यह टीपू के राज्य का वर्णन है।"

यह सम्पूर्ण उन्नति हैदर या उसके पुत्र की रचना नहीं थी। उनका शासन तो आधी शताब्दी भी नहीं ठहरा। इस सम्पन्न दशा के लिए हमें प्राचीन हिन्दू राजवंश की ओर ध्यान देना चाहिए। वे ही उन बड़ी बड़ी [ ३१५ ]नहरों के निर्माणकर्ता थे जो मैसूर के एक सिरे से लेकर दूसरे सिरे तक फैली हुई थीं और जिनके कारण उपजाऊ भूमि से प्रजा को अपरिमित अन्न-सम्पत्ति प्राप्त होती थी।

हालबेल साहब अपनी "भारतवर्ष के मार्ग" नामक पुस्तक में के सम्बन्ध में लिखते हैं[१२]:––

"यहाँ जनता की सम्पत्ति और स्वतन्त्रता दोनों सुरक्षित हैं। सभी प्रकार के यात्रियों की रक्षा करना सरकार अपना पहला कर्तव्य समझती है, उनके पास व्यापार की सामग्री हो या न हो, सरकार उन्हें बिना किसी प्रकार का मार्गव्यय लिये एक पड़ाव से दूसरे पड़ाव तक साथ जाने के लिए रक्षक देती है।.........यदि इस प्रान्त में कोई रुपयों या अन्य मूल्यवान् वस्तुओं की थैली पड़ी पाता है तो उसे एक पेड़ से लटका देता है और तुरन्त निकट के रक्षक को सूचित करता है।......"

ढाका के सम्बन्ध में हम पढ़ते हैं कि[१३]:––

"ढाका के धनी प्रान्त के प्रत्येक भाग में खेती होती थी।......न्याय करने में किसी के साथ पक्षपात नहीं किया जाता था।...... जसवन्तराय को पवित्र शिक्षा दी गई थी। उनमें सत्यनिष्ठा और कार्यक्षमता आदि के गुण कूट कूटकर भरे थे। उन्हें अपने प्रान्त का शासन करना ऐसे दङ्ग से सिखाया गया था कि उससे प्रजा के सुख और शान्ति की वृद्धि होती थी। उन्होंने अन्न का व्यापार सबके लिए खोल दिया था और उस पर से चुङ्गी उटा ली थी।"

बङ्गाल के सम्बन्ध में नीचे एक पैराग्राफ़ और दिया जाता है। इसमें बङ्गाल के अँगरेज़ों के अधिकार में आने से ठीक पहले का वर्णन है[१४]:––

"बङ्गाल की यह दशा थी, जब अलीवर्दीखाँ ने उसके शासन की बागडोर अपने हाथ में ली। इस शासन में......प्रान्त की उन्नति हुई। [ ३१६ ]उसकी कृपा प्राप्त करने के लिए केवल दो बातों की आवश्यकता थी; योग्यता और सदाचार की। मन्त्रियों के चुनने में या सेना अथवा प्रबन्ध-विभाग के लिए उच्च पदाधिकारियों के चुनने में वह हिन्दुओं का उतना ही ध्यान रखता था जितना मुसलमानों का। राज्य-कर से जो आय होती थी वह दूरस्थ दिल्ली के कोष में न भेजी जाकर वहीं व्यय की जाती थी।"

मिल मेयो ने ईस्ट इंडिया कम्पनी की बड़ी प्रशंसा की है। परन्तु कम्पनी के शासन में बङ्गाल की क्या स्थिति थी? इसके सम्बन्ध में नीचे लार्ड मेकाले का वक्तव्य दिया जाता है[१५]:––

"क्काइव के बङ्गाल से चले जाने के पश्चात् के पाँच वर्षों में वहाँ अँगरेज़ों का शासन बहुत बिगड़ गया था। वैसा बुरा शासन कभी भी किसी समाज के अनुकूल नहीं हो सकता। यहाँ वे रोमन वायसराय––जो एक या दो वर्ष में किसी प्रान्त को इतना चूस लेते थे कि कम्पेनिया के तट पर सङ्गमरमर के महल और स्नानागार बनाकर निवास करते थे, अम्बर की शराब पीते थे, गानेवाले पक्षियों का मांस खाते थे, तथा तलवार-वाहियों की सेना और जिराफों के समूह का प्रदर्शन करते थे; तथा स्पेन के वे वायसराय––जो मेक्सिको या लीमा-निवासियों के शाप को पीछे छोड़ सुनहली बग्घियों की लम्बी क़तार और चांदी से सजे टट्टुओं के साथ मैडरिड में प्रवेश करते थे––भात हो गये।......करीब करीब सम्पूर्ण भीतरी व्यापार का अधिकार कम्पनी के नौकरों ने केवल अपने लिए प्राप्त कर रखा था। वे बङ्गाल के निवासियों को महँगा खरीदने और सस्ता बेचने के लिए विवश करते थे। लत, पुलिस और माल के कर्मचारियों का बड़ा अपमान करते थे।......ब्रिटिश की दूकानों का प्रत्येक नौकर कम्पनी की पूरी शक्ति से सुसज्जित रहता था। इस प्रकार एक ओर तो कलकत्ता में शीघ्रता के साथ विपुल सम्पत्ति जोड़ी जा रही थी और दूसरी ओर ३ करोड़ मानव-प्राणी दरिद्रता की पराकाष्टा पर पहुँचा दिये गये थे।...... प्राचीन स्वामियों की पराधीनता में जब अत्याचार अलह्य हो उठता था तो प्रजा विद्रोह कर बैठती थी और राजा को खींचकर नीचे गिरा देती थी परन्तु अँगरेज़ी राज्य को उखाड़ना सरल था। वह शासन अत्यन्त निर्दय पाशविक एकाधिपत्य शासन-पद्धति की भाँति क्रूर था और सभ्यता की समस्त शक्ति को अपने साथ लेकर और भी सबल बना हुआ था।" [ ३१७ ]कम्पनी को शासन-पद्धति के सम्बन्ध में लिखते समय वारेन हेस्टिंग्ज़ को भी कड़ी भाषा का प्रयोग करना पड़ा था। उसने लिखा था[१६]:––

"मुझे भय है कि हमारी दूसरों के अधिकारों के दबाने की प्रवृत्ति तथा उसके उद्दण्डतापूर्ण प्रयोग के कारण हिन्दुस्तान की समस्त शक्तियां हमसे उसी भाँति शङ्कित हो रही हैं जैसे वे हमारी सेना के कारण शङ्कित रहती हैं। हमारी इस अधिकार-प्रवृत्ति तथा हमारे व्यक्तियों की अनियन्त्रित व्यभिचारलीला से हमारे राष्ट्रीय सम्मान को बड़ा आधात पहुँचा है।...... भारतवर्ष में प्रत्येक व्यक्ति हमसे सम्बन्ध जोड़ने से डरता है।

"नवाब के कोप और अधिकार पर हमारे नौकरों की तनरब्बाहों और पेंशनों का भार तथा कम्पनी की सैनिक और प्रबन्ध-सम्बन्धी सेवाओं के व्यय का दबाव इतना अधिक पड़ता है कि उससे सहन नहीं होता। देशी नौकरों और वज़ीर के आदमियों को उनकी सेवा और सम्बन्ध के लिए पुरस्कार आदि न देने के कारण सारा देश हमसे द्वेष और घृणा करने लगा है। मुझे भय है कि मेरे आशय को कम लोग समझेंगे यदि मैं पूछूँ की संरक्षित व्यक्तियों के लिए हम नवाब वज़ीर पर किस अधिकार या नीति से कर लगाते हैं। और इससे भी कम लोग इस बात को समझेंगे यदि मैं पूछूँ कि नवाब की रक्षा के लिए उस पर एक सेना किस अधिकार-नीति से लादी जाती है जिसके लिए वह व्यय नहीं दे सकता और जिसको वह चाहता भी नहीं। मैं उसके मुँह पर यह बात कैसे कहूँ कि 'आप इसे चाहते तो नहीं परन्तु इसके लिए आपको व्यय देना होगा।'......अवध में प्रत्येक अँगरेज़ को वही अधिकार प्राप्त थे जो एक स्वाधीन व्यक्ति और बादशाह के हो सकते हैं।...वे एक लाख के कर का दावा करना अपना अधिकार समझते थे यद्यपि वे एक ही बार में दो लाख से भी अधिक जुए में गँवा देते थे। (मैंने यह एक जानी हुई बात के आधार पर लिखा है)[१७]।"

अब मरहठों के राज्य के सम्बन्ध में सुनिए। ऐंक्वेटिल डु पेरन नामक यात्री ने अपने 'भारत-यात्रा का संक्षिप्त वर्णन' नामक लेख में जो १७६२ [ ३१८ ]ईसवी में 'जेन्टिलमैन्स मैगज़ीन' नामक पत्रिका में प्रकाशित हुआ था, लिखा था:––

"सूरत से मैंने घाटों को पार किया।......प्रातःकाल के करीब १० बजे का समय था। जब मैंने मरहठों के देश में प्रवेश किया तो मुझे ऐसा प्रतीत हुआ मानों मैं स्वर्णयुग के सरल और आनन्दमय प्रदेश में पहुँच गया हूँ। वहाँ प्रकृति में अब भी कोई परिवर्तन नहीं हुआ था। और युद्ध और अकाल का किसी को पता नहीं था। लोग प्रसञ्जचित्त, पुरुषार्थी और खूब स्वस्थ थे और अतिथि-सत्कार का भाव चारों ओर विद्यमान था। प्रत्येक द्वार खुला रहता था और मित्रों, पड़ोसियों और अपरिचितों, सबका समान रूप से स्वागत किया जाता था।"

सर जान मालकम ने मरहठा शासक नाना फरनवीस के सम्बन्ध में अपनी सम्मति नीचे लिखे अनुसार प्रकट की थी[१८]:--

"मुझे ऐसे देशों के देखने का कभी अक्सर नहीं मिला जहाँ इतनी अच्छी खेती होती हो, और खाद्य-सामग्री तथा व्यापार की वस्तुएँ इतनी अधिक मात्रा में उत्पन्न की जाती हों जितनी कि दक्षिणी मरहठा जिलों में।......पेशवा की राजधानी पूना अत्यन्त धन-सम्पन्न और गुलज़ार व्यापारिक नगर था। और दक्षिण भारत में भी इतनी खेती होती थी जितनी कि एक मरु-प्रदेश में सम्भव हो सकती थी।......

"मालवा को मैंने उजड़ी हुई दशा में देखा था। इसका कारण यह था कि इस पर भारतवर्ष के दल के दल लुटेरों ने अधिकार कर लिया था। परन्तु उस समय में भी मुझे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि बड़े बड़े शहरों के बीच में रुपयों का लेन-देन––बड़ी बड़ी रक़मों में––जारी था। साहूकारों की दशा उन्नति पर थी और प्रान्त से होकर व्यापारिक माल का खूब आना जाना जारी था।......वीमा के दफ्तर जो समस्त भारत में थे यहाँ भी अपना कार्य कर रहे थे। मैं नहीं समझता कि मालवा में हम लोगों के सीधे शासन से कृषि और व्यापार-सम्बन्धी उससे अधिक या उतनी भी उन्नति होती जितनी कि पुराने राजाओं और सरदारों के ये ग्य शासन के पुनः संस्थापन से हुई है। दक्षिणी मरहठा ज़िलों के सम्बन्ध में भी, जिनकी उन्नति के विषय में ऊपर लिखा जा चुका है,......मैं नहीं समझता कि हमारे शासन में कोई व्यापारिक या कृषि-सम्बन्धी उन्नति हो सकती है। उनकी शासन-पद्धति औसत दर्जे पर [ ३१९ ] कोमल और पितृवत् है। मैं समझता है उनकी क्षति का कारण हिन्दयों का कृषि-सम्बन्धी ज्ञान तथा कृषि-प्रेम है। उन्हें इस बात का ज्ञान हमसे कहीं अधिक है कि नगरों और गांवों की उन्नति किस प्रकार करनी चाहिए। इसी उद्देश से धनाढ्यों को प्रोत्साहन दिया जाता हैं और वे व्यापार में पूजी लगाते हैं।... परन्तु उन्नति के समस्त कारणों में से सर्वश्रेष्ठ कारण यह है कि लोग ग्राम्य तथा अन्य देशीय संस्थाओं की अमित रूप से सहायता करते हैं और बस्ती के सब श्रेणियों के लोगों के लिए कार्य करने की व्यवस्था रहती है। हमारी शासन-पद्धति में इसकी बड़ी कमी है।"

अवध के सम्बन्ध में भी हमें विशप हीवर के 'जरनल' में इधर-उधर कुछ बाते मिलती हैं। विशप ने भरतपुर के सम्बन्ध में इस प्रकार लिखा है*[१९]:-

"भारतवर्ष में हमने जो सर्वोत्तम कृषि-प्रधान और सुसिंचित देश देखे उनमें से एक यह भी है। भूमि पर जो फसल खड़ी थी, बद वास्तव में बड़ी सुन्दर लगती थी। रुई की फसल......तो बहुत ही सुन्दर थीं। मैंन कई एक शक्कर बनाने के कारखाने देखे और बड़े बड़े भूमि-खण्ड देखे जिनमें से ईख काट ली गई थी। यह इस देश के धनी होने का निश्चित अमात्य है।......जन-संख्या अधिक नहीं प्रतीत होती थी परन्नु घाम अच्छी स्थिति में थे। सव बातों ने मिलकर आँखों के सामने व्यवसाय का जो दृश्य खड़ा किया वह मैंने राजपूताने में जो देखने की आशा की थी और कम्पनी के राज्य में जो देखा था, उससे इतना अच्छा था.........कि मैंने यह अनुमान किया कि या तो भरतपुर का राजा एक आदर्श भूप था और अपनी प्रजा का पुत्र के समान पालन करता था या ब्रिटिश प्रान्तों में जिस शासन-पद्धति से काम लिया जा रहा था वह कुछ देशी राज्यों की अपेक्षा देश के सुख और उन्नति के लिए कम अनुकूल थी।"

१८२७ ईसवी में गवर्नर जनरल लार्ड हेस्टिंग्ज़ ने घोषणा की थी (पार्लियामेंट-सम्बन्धी काग़ज़ात, पृष्ठ १५७) कि:-

"हमारे शासन में एक नवीन वंश की उत्पत्ति हुई है। हमारे कानून की छाया के नीचे पले इस वंश की दो मुख्य विशेषताएँ ये हैं-मुकदमेबाज़ी की प्रवृत्ति जिसके लिए हमारी न्याय सम्बन्धी संस्थाएँ पूरी नहीं पड़ती और एक विशेष प्रकार का धर्माचरण जो वास्तव में बहुत गिरा हुआ है।" [ ३२० ]स्वयं क्लाइव के सम्बन्ध में हाल का ही एक ब्रिटिश इतिहासकार लिखता है*[२०]:-

"बङ्गाल के अच्छे शासन के लिए लाइव को किसी प्रकार के उत्तरदायित्व की परवाह नहीं थी। उसकी एक-मान्न इच्छा यही रहती थी कि नवाब और उसकी प्रजा की कमजोरियों से लाभ उठाकर वह कम्पनी की राजनैतिक प्रधानता सुरक्षित रक्खे।" परन्तु ब्रक्स आदम के शब्दों में "लाइव ने अपने लिए या सरकार के लिए जो कुछ छीना-झपटी की वह उस पूर्णरूप से जारी लूट-खसोट के मुकाबले में कुछ भी नहीं थी जो उसके चले जाने के पश्चात् से प्रारम्भ हुई थी। तब असहाय बङ्गाल पर लाखों लालची कर्मचारी टूट पड़े थे। वे 'उत्तरदायित्व से शून्य और अत्यन्त लोलुप थे और व्यक्तिगत सम्पत्ति को भी हड़प लेते थे।"


  1. * इस अध्याय की सामग्री मुख्यत: मेरी पुस्तक––'इँग्लेंड पर भारतवर्ष का ऋण'––से ली गई है।
  2. भारतवर्ष का आरम्भिक इतिहास, तृतीय संस्करण, पृष्ठ ३३।
  3. बौद्धकालीन भारत, लन्दन, १९०३, पृष्ठ ४९।
  4. एशिया में साम्राज्य-स्थापन लन्दन, पृष्ठ १००
  5. एलफ़िन्स्टन, भाग २, पृष्ठ २०३
  6. पृष्ठ १०
  7. एलफ़िन्स्टन, भाग २, पृष्ठ १५१, रिफार्म पैम्फलेट, पृष्ठ १०-११
  8. रिफार्म पैम्फलेट, पृष्ठ १२।
  9. उसी पुस्तक से, पृष्ठ १६
  10. मिल कृत ब्रिटिश भारत का इतिहास, भाग ६ पृष्ठ ५१-५२
  11. मुअर कृत 'टीपू सुल्तान के साथ युद्ध-वर्णन, पृष्ठ २०१, रिफ़ार्म पैम्फलेट द्वारा उद्धत।
  12. रिफार्म पैम्फलेट, पृष्ठ २१
  13. स्टिवर्ट कृत बङ्गाल का इतिहास, पृष्ठ ४३०, रिफार्म पैम्फलेट, पृष्ठ २२
  14. रिफार्म पैम्फलेट में उद्घृत स्टिवर्ट का मत, पृष्ठ २२।
  15. मेकाले; क्लाइव के सम्बन्ध में एक निबन्ध।
  16. ग्लीग कृत हेस्टिंग्ज़ का जीवन-चरित्र, भाग २, रिफ़ार्म पैम्फलेट के २०वें पृष्ठ पर उद्धृत।
  17. हेस्टिंग्ज़ का जीवन-चरित्र भाग २, पृष्ठ ४५८, रिफार्म पैम्फलेट, पृष्ठ २६।
  18. रिफार्म पैम्फलेट, पृष्ठ २८-९
  19. * जरनल। भाग २, रिफा़र्म पैम्फलेट में उद्धृत।
  20. * मुइर: ब्रिटिश भारत का निर्माण, मैंनचेस्टर १९११ ई॰ पृष्ठ, ८२