दुखी भारत/२४ भारतवर्ष-'दरिद्रता का घर'
चौबीसवाँ अध्याय
भारतवर्ष-'दरिद्रता का घर'
भारतवर्ष शेष साम्राज्य के लिए सदा पानी भरनेवाला और लकड़ी चीरनेवाला बनकर रहना पसन्द न करेगा और न उसे करना ही चाहिए।
जे॰ अस्टिन चम्वरलेन,
भारत मन्त्री,
लन्दन 'टाइम्स' ३० मार्च १९१७
ब्रिटिश साम्राज्य के भीतर भारतवर्ष की आर्थिक स्थिति क्या है? इसका पता उपरोक्त उद्धरण से भली भाँति चल जाता है। भारतवर्ष ने ग्रेट-ब्रिटेन को धनी बनाया है और ग्रेटब्रिटेन ने भारतवर्ष को दरिद्र कर दिया है। यह कथा सब प्रकार से योग्य अँगरेज़ और भारतीय प्रामाणिक लेखकों द्वारा अनेक पुस्तकों में कही गई है। मैंने अपनी 'इँगलेंड पर भारतवर्ष का ऋण' नामक पुस्तक में उन्हीं सब बातों को घनीभूत किया है। वर्तमान अध्याय मुख्यतः उसी पुस्तक से लिया गया है।
ब्रिटेन को अपनी औद्योगिक काया-पलट में जो सफलता मिली है उसमें भारतवर्ष का एक बड़ा भाग रहा है। इस बात को सब स्वीकार करते हैं। परन्तु ग्रेटब्रिटेन की औद्योगिक और आर्थिक उन्नति में भारत ने कितना अधिक योग दिया है? यह बात बहुत कम लोगों को विदित है।
भाप के इञ्जिनों के बनने तथा यन्त्रों द्वारा कताई बुनाई आरम्भ होने से ब्रिटेन के व्यवसाय की जो कायापलट हुई है उसके पहले भारतवर्ष की क्या आर्थिक स्थिति थी और क्या इँगलेंड की थी? आइए इस पर पृथक् पृथक् विचार करें।
अँगरेज़ों के आने से पहले भारतवर्ष की कैसी आर्थिक उन्नति थी? यह हम पाठकों को पिछले अध्याय में बता आये हैं। सत्रहवीं और अठारहवीं शताब्दी में भारतवर्ष की सम्पत्ति का ठिकाना नहीं था। उसके नरेशों के कोष सोने चाँदी की ईंटों और अमूल्य रत्नों से भरे थे। व्यवसाय और दस्तकारी की बड़ी उन्नति थी और विदेशों में बिक्री के लिए सब प्रकार की वस्तुएँ बहुत अधिक मात्रा में भेजी जाती थीं। बदले में भारतवर्ष को खूब सोना और चाँदी मिलती थी। एशिया, योरप और अफ्रीका के साथ भारतवर्ष का बहुत बड़ा व्यापार चल रहा था और भारत में बनी वस्तुओं की इन देशों में बिक्री से हमें बड़ा लाभ हो रहा था। हमारे सूती मलमल, रेशमी कपड़ों, ऊनी दुशालों और पीतल तथा कांसे के बर्तने की समस्त एशिया और योरप में धूम मची हुई थी। लगभग डेढ़ शताब्दी ले अधिक इँगलैंड भारतवर्ष से रेशमी और सूती कपड़े नील और मसाले ख़रीदता रहा है और बदले में उसे सोने चाँदी की ईंटें देता रहा है। इस काल में भारतवर्ष ने विदेशों से एक कौड़ी की भी वस्तु नहीं खरीदी। बस लिखता है कि दस वर्षों में, १७४७ से १७१७ ई॰ तक में इंगलैंड ने भारतीय वस्तुओं के लिए यहाँ ५,१२,४२३ पैड की लागत की सोने-चाँदी की ईंट भेजी थीं। इसके पहले भी यही औसत था। पर इसके पश्चात् भारतीय माल का खरीदना बन्द होगया*[१]।
ईस्ट इंडिया कम्पनी ने इस व्यापार से कितना महान् लाभ उठाया? यह कथा उस समय के समस्त इतिहासकारों ने लिखी है। मेकाले लिखते हैं:
"द्वितीय चार्ल्स के शासन-काल के अधिकांश भाग में कम्पनी की इतनी उन्नति हुई कि व्यापार के इतिहास में उसकी कहीं उपमा नहीं मिलती थी और इससे सम्पूर्ण राजधानी (लन्दन) आश्चर्य से चकित हो उठी थी और उसके प्रति ईयां करने लगी थी।.........कम्पनीको पुनार अधिकार दिये जाने के पश्चात् के २३ वर्षों में उस प्रसिद्ध और धनी प्रान्त (गङ्गा का डेल्टा) से वार्षिक खरीद की लागत ८,००० पैड से बढ़कर ३.००,००० पौड हो गई थी।" इसके आगे वे लिखते हैं कि-"इस संस्था (कम्पनी) को लाभ इतना होता था कि उस पर विश्वास नहीं किया जा सकता था।...... लाभ की अधिकता का कुछ पता इसी एक बात से चल सकता है कि १६७६ ईसवी में प्रत्येक साझीदार को उतनी ही बढ़ोतरी प्राप्त हुई जितनी कि उसकी पूजी थी। और इस प्रकार द्विगुणित हुई पूँजी पर प्रत्येक हिस्सेदार को उसके पश्चात् पांच वर्षों तक औसत २० प्रतिशत का लाभ होता रहा*[२]।"
१६७७ ईसवी में स्टाक का मूल्य २४५ प्रतिशत था। १६१ ईसवी में यह बढ़ कर ३०० होगया और उसके पश्चात् ३६. और ५०० तक बढ़ा। कम्पनी के लाभ में कोई कमी होती थी तो उसका कारण केवल इंगलैंड के ताज की भेंट, अँगरेज़ एक्सचेकर की मांग या उसके नौकरों की बेईमानी थी।
उस समय व्यापार की तुला पूर्ण रूप से भारतवर्ष के अनुकूल थी। ब्रिटिश इतिहासकार ऊर्स अपनी 'हिस्टारिकल फ्रेगमेंट्स' नामक पुस्तक में लिखता है कि रुई के कपड़े का व्यवसाय समस्त भारतवर्ष में होता था। जिस रुपये की दर आज-कल १ शिलिंग ६ ल है पहले वही २ शिलिंग ८ पेंस का होता था। यह भारतवर्ष की आर्थिक स्थिति थी।
अब ज़रा इँगलेंड की भी आर्थिक स्थिति पर विचार कर लीजिए। राबर्टसन का कहना है कि 'सोलहवीं शताब्दी में इंगलैंड बहुत पिछड़ा हुअा देश था; और समस्त धनी देशों के पूंजीपति लोग जो सूद पर रुपया देना चाहते थे, इसी की ओर देखते थे।' मिल का कहना है कि-'सत्रहवीं शताब्दी के प्रारम्भकाल में अँगरेजों में उच्च लोगों की प्रतिद्वन्द्विता करने की क्षमता नहीं थी, क्योंकि उनका देश कुशासन के कारण कुचल गया था और गृहयुद्ध के कारण उजाड़ हो गया था। वह व्यापार बढ़ाने या व्यापार की रक्षा करने के लिए पूजी नहीं लगा सकता था।'
सत्रहवीं शताब्दी के अन्त में केवल इंगलैंड की ही नहीं बल्कि समस्त योरप की परिस्थिति बड़े भयङ्कर रूप से बिगड़ गई थी। अक आदम्स के लेखों से यह बात स्पष्ट हो जाती है। आदम्स कहते हैं कि सत्रहवीं शताब्दी के अन्त में योरप रुपये से करीब करीब शून्य होने की दशा में पहुंच गया था। इसका कारण यह था कि व्यापार में योरप का सारा धन एशिया को खिंचता चला जाता था और व्यापार की मांग बढ़ती जाती थी। अगस्तस के शासन काल के समय से योरप और एशिया के बीच में जो व्यापार होता था वह एशिया के ही अनुकूल अधिक था। रुपये की कमी के कारण इँगलेंड में करसी का महत्त्व बहुत घट गया था।
विप्लव-काल के सम्बन्ध में रडिङ्ग लिखते हैं:-
"उस समय रुपये का मूल्य इतना घट गया था और नकली सिक्के इतने चल पड़े थे कि अच्छी चांदी को लोग प्राधे मूल्य पर भी मुश्किल से लेते थे और अधिकांश सिक्के लोहे, पीतल या तांबे के टुकड़े-मात्र थे। और कुछ इसके अतिरिक्त कि ज़रा धुले हुए हों और कोई विशेषता नहीं रखते थे।"
१७१० और १७२० ईसवी के बीच के १० वर्षों में ईस्ट इंडिया कम्पनी ने औसत दर्जे पर ४३,४४,००० पौंड लागत की सोने-चांदी की ईंटे इंगलैंड से बाहर भेजी थीं।
इस समय इँगलैंड अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति कैसे कर रहा था? इस विषय का इतिहास में बड़ा औपन्यासिक वर्णन किया गया है। जेवन्स ने कहा है कि 'एशिया मूल्यवान् धातुओं का एक बड़ा भाण्डार है। वहाँ के निवासी इन धातुओं को पृथ्वी में गाड़ रखते हैं। श्रतीत-काल से पूर्व में धन एकत्र करने की प्रथा चली आ रही है। प्राचीन काल में प्रत्येक हिन्दू, गोलकुण्डा के रत्नों से देदीप्यमान मुग़ल से लेकर अपनी तुच्छ आय से भूखे मरते हुए किसान तक, दुर्दिन के लिए कुछ धन पृथक इकट्ठा कर रखता था:-
"शताब्दियों से लाखों मनुष्यों के एकत्रित किये इ. धन पर अँगरेज़ों ने अधिकार कर लिया और उसे वे लन्दन ले गये। ठीक उसी प्रकार जैसे रोमन लोग यूनान और पोतस में लूट से मिले माल को इटली ले गये थे। यह कोई नहीं कह सकता कि इस धन का मूल्य कितना था। परन्तु ग्रह लाखों पौड के लगभग रहा होगा। उस समय यारपवासियों के पास जितने रत्न और जवाहर रहे होंगे यह धन उससे कहीं अधिक रहा होगा*[३]।" हम इस बात का उल्लेख कर चुके हैं कि बस के अनुसार इंगलैंड ने भारतवर्ष को १७१७ ईसवी में अन्तिम बार सोना और चाँदी भेजा था। उसी वर्ष पलासी का युद्ध हुआ था। उसके पश्चात् फिर भारतवर्ष को सोना-चाँदी नहीं भेजा गया। इसी समय से चीन को भी बहुत कम सोनाचांदी जाने लगा था। पर चीन को यदा कदा यह उन अवसरों पर भेजा जाता था जब भारतवर्ष से भाल नहीं मिल सकता था। कम्पनी के सञ्चालक अपने मदरास और बङ्गाल के नौकरों को जो चिट्रियां दिखते थे उन सबमें यह बात स्पष्ट रूप से लिखी रहती थी। उनमें उनको ये हिदायते भी रहती थीं कि वे भारतवर्ष में सोने-चाँदी की जितनी ईंटे इकट्टी कर सके, करते रहे और मदरास तथा चीन से विलायत जानेवाले जहाजों द्वारा उन्हें बराबर भेजते रहें और पत्रोत्तरों में यह भी लिख दिया करें कि वे किस जहाज़ से कितना भेज रहे हैं*[४]।
उस समय भारतवर्ष में कम्पनी के कर्मचारियों द्वारा सोने-चाँदी की ईंटे इकट्ठी करने के लिए परिस्थिति बड़ी अनुकूल थी। मेकाले के शब्दों में 'तब धन समुद्रों में बह बह कर विलायत को जा रहा था।' और वाह आदि के यान्त्रिक आविष्कारों से पूर्ण लाभ उठाने के लिए इंगलैड में जिस बस्त का अभाव था, उसकी पूर्ति भारतवर्ष कर रहा था। भारतवर्ष से गई इस प्रचुर सम्पत्ति से इंगलैंड की नकद पू जी में बहुत बड़ी वृद्धि हो गई थी।
इससे यह स्पष्ट है कि जिस औद्योगिक काया-पलट पर इंगलैंड की आर्थिक उन्नति प्रारम्भ हुई वह एक-मात्र भारतीय धन की विपुल राशि के ही बल पर संभव हो सकी थी। भाप के इञ्जिन और कल-पुर्जों में जो महान् उत्पादन-शक्ति है उसका उपयोग इँगलेंड भारतवर्ष की उसी सम्पत्ति के बल पर कर सका है जो उसने इस देश से कर्ज नहीं लिया था बल्कि छीन लिया था और जिसके लिए उसने कोई सूद भी नहीं दिया। इस प्रकार भारतवर्ष की जो हानि हुई वही इंगलड का लाभ था। यह हानि भारत वर्ष के व्यवसायों को नष्ट कर देने और उसकी कृषि-सम्बन्धी उन्नति को रोक देने के लिए यथेष्ट से भी अधिक थी। कोई देश कितना ही धनी और साधन-सम्पन्न क्यों न हो बिना हानि के ऐसे निकास को सहन नहीं कर सकता।
ईस्ट इंडिया कम्पनी अपना व्यापार किस प्रकार करती थी? इसका एक उदाहरण नीचे सरजेंट ब्रैगो के एक लेख से दिया जाता है:—
"कोई महाशय ख़रीदने या बेचने के लिए अपना गुमाश्ता भेजते हैं। गुमाश्ता अपने आपको यह समझता है कि वह प्रत्येक स्थानिक निवासी के हाथ अपना माल बेचने या उसका माल स्वयं खरीदने के लिए उसे विवश कर सकता है। यदि कोई अस्वीकार करता है (असमर्थता की अवस्था में भी) तो तुरन्त उसे कोड़ों से पीटा जाता है या उसे जेलख़ाने में भेज दिया जाता है। परन्तु यदि कोई गुमाश्ते की इच्छानुसार उसका माल ख़रीदने और उसके हाथ अपना माल बेचने पर तैयार हो जाता है तो भी गुमाश्ते को सन्तोष नहीं होता। तब एक दूसरे प्रकार का बलप्रयोग किया जाता है। व्यापार की भिन्न भिन्न शाखाओं पर गुमाश्ते अपना ही अधिकार रखते हैं। और जिन वस्तुओं का वे व्यापार करते हैं उन्हें दूसरे देशी व्यापारियों को न तो ख़रीदने देते हैं और न बेचने देते हैं और देशी व्यापारी ऐसा कर देते हैं तो गुमाश्ते फिर वही कोड़े मारना या जेल में बन्द करना आरम्भ कर देते हैं। और फिर जो वस्तुएँ वे ख़रीदते हैं उसके लिए अन्य व्यापारियों की अपेक्षा बहुत कम मूल्य देने का वादा करते हैं और प्रायः मूल्य देना भी अस्वीकार कर देते हैं। यदि मैं रोक-टोक करता हूँ तो तुरन्त मेरी शिकायत की जाती है। ये और इसी प्रकार के अन्य अत्याचार जिनका वर्णन नहीं हो सकता, इसी प्रकार प्रतिदिन बङ्गाल के गुमाश्तों द्वारा होते रहते हैं। यही कारण है कि यह स्थान (बाकरगञ्ज, का एक फलता फूलता ज़िला) अब उजाड़ होता जा रहा है। प्रतिदिन बहु-संख्यक लोग किसी सुरक्षित स्थान में बसने के लिए इस शहर को छोड़ कर चले जा रहे हैं। और बाजारों में, जहां पहले सब वस्तुएँ बहुतायत से मिलती थीं, अब कोई काम की वस्तु देखने में नहीं आती। गुमाश्तों के नौकर गरीब लोगों को सताते हैं। यदि ज़मींदार कुछ हस्ताक्षप करता है तो वे उसके साथ भी वैसा ही बर्ताव करने की धमकी देते हैं। पहले कचहरी में न्याय किया जाता था पर अब प्रत्येक गुमाश्ता जज बन बठा है और प्रत्येक व्यक्ति का घर कचहरी बन रहा है। वे स्वयं ज़मींदारों पर भी दफ़ाएँ लगा देते हैं और बनावटी क्षति, जैसे उनके नौकरों के साथ झगड़ा हो जाना या उनकी किसी वस्तु की चोरी हो जाना, जो वास्तव में उन्हीं के नौकर चुराते हैं, पर ज़मींदारों के मत्थे जाता है—के लिए उनसे रुपये ऐठते हैं[५]।"
इस करुण-कथा के इस अंश को विलियम बाल्ट्स नामक एक अँगरेज़ व्यापारी ने निम्नलिखित शब्दों में वर्णन किया है:—
"इस देश का भीतरी व्यापार वर्तमान समय में जिस रूप में है और कम्पनी ने जिस विचित्र ढङ्ग से योरप के लिए पूँजी लगा रक्खी है उसको देखते हुए अब यह सचाई के साथ कहा जा सकता है कि यह व्यापार आदि से अन्त तक अत्याचारों से भरा है। इसका लज्जाजनक परिणाम प्रत्येक जुलाहे तथा कारीगर पर भीषण रूप से प्रकट हो रहा है। कोई भी वस्तु जो तैयार होती है उसके क्रय-विक्रय का एक-मात्र अधिकार कम्पनी को होता है। अँगरेज़ अपने बनियों और गुमाश्तों के साथ स्वेच्छापूर्वक यह निर्णय कर दिया करते हैं कि प्रत्येक कारीगर को कितना माल तैयार करके देना पड़ेगा और उसके बदले में उसे क्या मिलेगा?........औरङ्ग या दस्तकारी के क़स्बे में पहुँचने पर गुमाश्ता एक मकान में डेरा डाल देता है। उस मकान को वह अपनी कचहरी कहता है। वहां वह अपने चपरासियों और हरकारों से दलालों, पैकारों तथा बुनकरों को बुलवाता है बुनकरों को वह अपने मालिकों के हुए रुपयों में से कुछ पेशगी दे देता है और उनसे यह प्रतिज्ञापत्र लिखवा लेता है कि मैं अमुक तिथि को अमुक वस्तुएँ अमुक मूल्य पर तैयार करके दूँगा। इस लिखा-पढ़ी में ग़रीब बुनकर की स्वीकृति लेने की प्रायः आवश्यकता नहीं समझी जाती। कम्पनी के गुमाश्ते जो चाहते हैं उनसे लिखवा लेते हैं। और यदि गुमाश्ते अत्यन्त न्यून होने के कारण पेशगी के रुपये को लेना अस्वीकार करते हैं तो वे रुपये उनकी कमर में बाँध दिये जाते हैं और उन्हें कोड़े मार कर भगा दिया जाता है।.........कम्पनी के गुमाश्तों के रजिस्टरों में प्रायः इन बुनकरों के नाम लिखे रहते हैं और इन बुनकऱों को कम्पनी के अतिरिक्त और किसी का काम करने की आज्ञा नहीं दी जाती। जब एक गुमाश्ते के स्थान पर दूसरा गुमाश्ता आता है तो गुलामों की तरह ये सब बुनकर भी उसके सिपुर्द कर जाते हैं और बराबर उनके साथ अत्याचार और दुष्टता का बर्ताव होता रहता है। इस विभाग में दुष्टता तो इतनी अधिक की जाती है कि कोई उसकी कल्पना भी नहीं कर सकता। बेचारे बुनकरों को सब प्रकार से ठगा जाता है। कम्पनी के गुमाश्ते और जँचेन्दर (सूत की परीक्षा करनेवाले) मिल कर वस्त्रों का जो मूल्य नियत करते हैं वह उन वस्त्रों के उस मूल्य से जो उनके बाज़ार में स्वतन्त्रता के साथ बेचे जाने पर मिलता प्रायः १५ या कभी कभी ४० प्रतिशत तक कम होता है।... जो बुनकर अपनी असमर्थता-वश कम्पनी के एजंटों द्वारा बलपूर्वक स्वीकार कराई गई इस शर्त को, जो बङ्गाल में सर्वत्र मुतचुलका के नाम से विख्यात है, पूरी नहीं कर पाते तो उनकी वस्तुएँ उसी समय छीन ली जाती हैं और उसी स्थान पर उन्हें बेच कर कम्पनी का घाटा पूरा कर लिया जाता है। और रेशम का काम करनेवालों के साथ भी, जिन्हें निगोद कहते हैं, इतना अधिक अन्याय किया गया कि उन बेचारों ने अपने अंगूठे काट डाले ताकि उन्हें रेशम तैयार करने के लिए विवश न होना पड़े।"
इस सम्बन्ध में लार्ड क्लाइव ने भी इँग्लैंड में रहनेवाले कम्पनी के सञ्चालकों को कड़े शब्दों में एक वर्णनात्मक पत्र लिखा था[६]। परन्तु स्वयं क्लाइव के लाभों के सम्बन्ध में मेकाले लिखते हैं:—
"क्लाइव के धन एकत्र करने के मार्ग में स्वयं उसके संयम के अतिरिक्त और कोई बाधक नहीं था। बङ्गाल के राज-कोष का द्वार उसके लिए खुला था। भारतीय राजाओं के अग्रचलित सिक्कों का ढेर लगा था। उनमें योरप के चाँदी और सोने के वे सिक्के पहचाने नहीं जा सकते थे जिनकी सहायता से योरप का कोई भी जहाज़ पहले केप आप गुडहोप का पता लगा सकता था और वेनिस के सौदागर पूर्व की सब प्रकार की वस्तुएँ और मसाले खरीद सकते थे। क्लाइव सोने और चाँदी के ढेरों में होकर चलता था। उन ढेरों के ऊपर हीरों और लालों का ढेर लगा होता था। उसमें से वह अपनी इच्छानुसार लेने के लिए स्वतन्त्र था।"
क्लाइव के विलायत चले जाने पर क्या हुआ इसका वर्णन संक्षेप में मैकाले ने इस प्रकार किया है:—
"इस प्रकार एक ओर तो कलकत्ता में शीघ्रता के साथ विपुल सम्पत्ति जोड़ी जा रही थी और दूसरी ओर ३ करोड़ मानव-प्राणी दरिद्रता की पराकाष्टा पर पहुँचा दिये गये थे। अँगरेज़ों का शासन बहुत बिगड़ गया था। वैसा बुरा शासन कभी भी किसी समाज के अनुकूल देखा नहीं गया।" क्लाइव के ईस्ट इंडिया कम्पनी की नौकरी से अलग होकर चले जाने के पश्चात् के पांच वर्षों में कम्पनी के नौकरों ने बङ्गाल के राजाओं और निवासियों से प्रत्येक उपाय ले जितना धन ऐंठ सकते थे उतना ऐंठने में एक भी बाक़ी नहीं लगा रक्खा। इस समय में जो 'व्यापारिक अत्याचार' किया गया वह विलियम बोल्टस् के शब्दों में भली भांति दर्शाया जा सकता है। ये महाशय कम्पनी के नौकर थे। इस सम्बन्ध में लिखी गई इनकी 'भारतीय समस्या पर विचार' नामक पुस्तक १७७२ ईसवी में प्रकाशित हुई थी। प्रोफ़सर मुइर का कहना है कि यह वर्णन 'ठोस-रूप से सत्य' है[७]।
मिस्टर बाल्टस् अपनी पुस्तक के ७३ वें पृष्ठ पर लिखते हैं:—
"इस देश के निर्धन कारीगरों और व्यवसायियों के प्रति जिस कठोरता के साथ अत्याचार किया जा रहा है उसकी कोई कल्पना भी नहीं कर सकता। कम्पनी ने इन लोगों पर इस प्रकार अधिकार कर रक्खा है मानों ये इसके क्रीत-दास हों।......बेचारे बुनकरों को सताने के लिए भांति भांति के अगणित उपाय प्रचलित हैं। कम्पनी के एजेन्ट और गुमाश्ते गांवों में उन सबको काम में लाते हैं। किसी पर जुर्माना कर दिया, किसी को जेल में बन्द कर दिया; किसी पर कोड़े लगाये, किसी से स्वेच्छानुसार कोई प्रतिज्ञापत्र लिखवा लिया; इत्यादि। इन अत्याचारों के कारण गांवों में बुनकरों की संख्या बहुत न्यून होगई है। इसका स्वाभाविक परिणाम यह हुआ है कि वस्त्र कम मात्रा में तैयार होता है, महँगा बिकता है और अच्छा नहीं मिलता। इसके साथ ही कर में भी बहुत कमी हो गई है। अब व्यवसाय में केवल कम्पनी ही रुपया लगाती है। किसी और को अधिकार नहीं रह गया। हाँ, कम्पनी के सर्वोच्च पदाधिकारी, जिनके हाथ में कम्पनी के व्यवसाय का प्रबन्ध रहता है निजी तौर पर पृथक् व्यवसाय में भी रुपया लगाते हैं। उस दशा में ये अपने लिए, कम्पनी के लिए और अपने कृपा-पात्रों के लिए जहाँ तक उनकी आत्मा आज्ञा देती है वहाँ तक व्यवसाय करते हैं। इसके अतिरिक्त योरप में पारस्परिक संघर्ष रोकने के उद्देश्य से कुछ विदेशी कम्पनियों को भी थोड़ी थोड़ी पूँजी के व्यवसाय करने की आज्ञा दे दी जाती है।...."
इस प्रकार कम्पनी के नौकरों ने देश के व्यापार को नष्ट कर दिया और अवरोध तथा अत्याचार की नीति से अपना एकाधिकार स्थापित कर लिया। ध्रूक ने इन सारी बातों को उस सेलेकृ कमेटी की रिपोर्ट में बड़े स्पष्ट रूप से रख दिया था जो बाद को हाउस आफ़ कामल्स की ओर से ईस्ट इंडिया कम्पनी की करामातों की जाँच करने के लिए नियुक्त हुई थी:––
"व्यापार की इस नवीन पद्धति ने, जो पशुबल और सार्वजनिक कर की आय से अपना काम करती थी, बहुत शीघ्र अपने स्वाभाविक परिणाम को प्रकट कर दिया। बङ्गाल में व्यापार करनेवाले देशी और विदेशी सभी व्यापारी अत्यन्त उच्च स्वर से चिल्ला चिल्ला कर इसकी निन्दा करने लगे। देश की सम्पूर्ण व्यापार-नीति को इसने अवश्य बड़ी उलझन में डाल दिया होगा? और किसी की एक न सुनी होगी। इस देश के निवासियों की रक्षा का कोई उपाय नहीं सोचा गया। परन्तु योरपियन शक्तियों का विषय जरा गम्भीर था। सूबा-हाकिम ने कम्पनी के सन्चालकों को स्पष्ट रूप से लिख दिया कि विदेशी राष्ट्रों के साथ किसी न किसी प्रकार का सुलहनामा कर लेना चाहिए। और किसी सीमा तक उन्हें व्यापार करने देना चाहिए। यदि ऐसा न हुआ तो जो समस्याएँ उपस्थित हो गई फ्रान्स के साथ, खुल्लम-खुल्ला युद्ध का रूप धारण कर लेंगी[८]
"१७७० ईसवी में उस भयङ्कर अकाल के पड़ने पर भी, जिसकी कहीं उपना नहीं मिल सकती थी, कम्पनी ने बङ्गाल में वस्त्र आदि बुनने के लिए लोगों को जो ठीके दिये थे उसको बलपूर्वक विभिन्न उपायों द्वारा उनसे पूरा करवाया। इस प्रकार कम्पनी ने व्यवसाय में जो लागत लगाई थी वह लोगों पर बल-पूर्वक लादी गई और अस्वाभाविक दशा में भी प्रतिवर्ष दृढ़ होती गई। इस पद्धति के आरम्भ-काल में ऋण का जो नियम था वह क्रमशः कम हो गया और ठीकेदारों को तथा कारीगरों को पेशगी रुपये दिये जाने लगे। इससे १७८० ईसवी को समाप्त होनेवाले चार वर्षों में, जब कि अधिक कर की आय को व्यापार में लगाने की नीति अन्तिम बार बन्द कर दी गई थी, राज्य कर की आय से योरपियन वस्तुओं की बिक्री से प्राप्त धन से, और अपने एकाधिकार के व्यापारों की आय से बङ्गाल की जो वस्तुएँ खरीदी गई उनका मूल्य १० लाख मुहरों से कम न रहा होगा या साधारण तौर पर बारह सौ हज़ार पौंड से कम न रहा होगा। बङ्गाल की जो वस्तुएँ विलायत भेजी गई उनका यह कम से कम मूल्य था। यद्यपि इस मूल्य के लिए भी सन्तोष नहीं किया जाता[९]। (इस रकम से ग्रेट ब्रिटेन की वस्तुओं की बिक्रा का मूल्य एक सौ हज़ार पौंड वार्षिक निकाल देना चाहिए) "अन्य समस्त देशों में स्वाभाविक नियम के अनुसार व्यापार से कर की उत्पत्ति होती है। यहाँ उस नियम का धूर्तता के साथ विपरीत प्रयोग हो रहा है। और जलमार्ग से होनेवाले समस्त विदेशी व्यापार अँगरेज़ों के, फ्रांसीसियों के, डचों के और ढैनिशों के कर की आय से ही चलाये जा रहे हैं। ये व्यापार देश से बाहर किये जाते हैं और इससे देश की जो भारी क्षति होती है उसकी पूर्ति का कोई उपाय नहीं किया जाता!"
ग्रह इस कथा का एक भाग है।
धन का बहिर्गमन
अँगरेज़ लेखकों में इस प्रश्न पर घोर मत्तभेद था और है कि क्या भारतवर्ष इँगलैंड को कर-स्वरूप कुछ देता है अथवा या उसने कभी कुछ दिया है? एक दल इस बात को स्वीकार करता है कि भारतवर्ष एक बहुत बड़ा कर देता रहा है और अब भी दे रहा है। जब से भारतवर्ष के साथ ब्रिटेन का सम्बन्ध स्थापित हुआ है तब से भारतवर्ष की सम्पत्ति का इँगलैंड के लिए एक क्रमबद्ध निकास होता रहा है। १८५८ ई॰ के पश्चात् से भारतवर्ष के सीधा इँगलैंड के ताज के शासन में आ जाने से वह निकाय बन्द नहीं हुआ प्रत्युत और भी बढ़ गया है। अपनी सम्पत्ति के इस बहिर्गमन के कारण भारतवर्ष इतना दरिद्र हो गया है कि उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। दूसरे दल का यह मत है कि भारतवर्ष ने इँगलैंड को कभी कोई कर नहीं दिया। इँगलैंड के लिए भारतवर्ष की सम्पत्ति का बिल्कुल निकास नहीं होता। भारतवर्ष ने जो कुछ भी दिया अथवा इँगलैंड ने जो कुछ भी लिया वह केवल उन सेवाओं का मूल्य था जो इंगलैंड ने की या उस पूँजी का सूद था जो इंगलैंड ने भारतवर्ष की उन्नति के लिए लगाया। यही नहीं, इंगलैंड के शासन में आने पर भारतवर्ष की ऐसी उन्नति हुई जैसी कि उसके इतिहास में कभी नहीं हुई थी। मिस मेयो दूसरे दल के लेखकों का पक्ष समर्थन करती है और उन्हीं के दृष्टिकोण से विचार करती है।
गतांश में हम यह दिखला चुके हैं कि पलासी के युद्ध उससे ठीक पूर्व दो शताब्दियों से भी अधिक काल तक इँगलैंड की आर्थिक स्थिति क्या थी? हम यह भी दिखला चुके हैं कि किस प्रकार भारतवर्ष का कोष पानी की भाँति इँगलेंड की ओर बहा दिया गया और वहाँ जाकर उसने इँगलेंड की सम्पूर्ण आर्थिक परिस्थिति का किस प्रकार काया-पलट कर दिया। हम किसी ऐसे अँगरेज़ या भारतीय लेखक को नहीं जानते जो उन बातों को अस्वीकार करता हो या उनमें सन्देह करता हो जिन पर सम्पत्ति के बहिर्गमन का सिद्धान्त अवलम्बित है। इस बात में तो सब दलों के लोग सहमत हैं कि कम से कम तीस वर्षों तक, १७५७ ईसवी से लेकर १७८७ ईसवी तक, ईस्ट इंडिया कम्पनी के नौकरों-द्वारा बङ्गाल बराबर 'लूटा गया'।
समाजवाद के प्रसिद्ध नेता स्वर्गीय मिस्टर एच॰ एम॰ हिंडमैन ने २ जुलाई १९०१ ईसवी को लन्दन के 'मार्निग पोस्ट' नामक समाचार-पत्र में एक चिट्ठी प्रकाशित करवाई थी। उसमें उन्होंने लिखा था:––
"बीस वर्ष से अधिक हुए स्वर्गीय सर लुइस मैलेट ने (मैं समझता हूँ उस समय के भारत-मंत्री लार्ड क्रैनबुक और सहायक मंत्री स्वर्गीय एडवर्ड स्टैनहोप, जो मेरे मित्र भी थे, को बता कर और उनकी स्वीकृति लेकर) मुझे इंडिया आफ़िस के उन गुप्त पर्चों आदि को दिखलाया जिनमें इँगलेंड के लिए भारतवर्ष की इस सम्पत्ति-निकासी और उस देश पर उसके प्रभावों का वर्णन था तथा जिन्हें भारतवर्ष के अर्थमंत्रियों और दूसरे लोगों ने लिखा था। परिस्थिति इतनी भयङ्कर जान पड़ती है कि मैं लार्ड जार्ज हैमिल्टन से यह कह देना अपना कर्तव्य समझता हूँ कि वे १८८० तक के और उसके पश्चात् के इस विषय से सम्बन्ध रखनेवाले इन गुप्त पर्चों को हाउस आफ़ कामन्स में विचार के लिए उपस्थित करें। यहाँ मैं यह भी कह देना चाहता हूँ कि जनता को उन लोगों के नाम सुन कर आश्चर्य होगा जो व्यक्तिगत रूप से इस बात में मुझसे सहमत हैं। उपाय केवल एक यही है, और सम्भवतः उसके लिए बहुत देर भी हो गई है, कि यह धन-हरण रोक दिया जाय और हमारी वरर्मान नाशक शासन-पद्धति के स्थान पर अँगरेज़ों की मामूली देख-रेख में दृढ़ देशी राज्य स्थापित किये जायँ।"
मिस्टर विलियम डिग्बी ने अपनी 'सम्मुन्नत ब्रिटिश-भारत' नामक पुस्तक में भारतीय नीली किताब के दो पृष्ठों का फ़ोटो दिया है। उसमें इस बहिर्गमन को इस प्रकार स्वीकार किया गया है:––
"ग्रेट ब्रिटिन भारतवर्ष से चुंगी-द्वारा कर तो बसूल ही करता है वह तीनों सूबों की नौकरियों की उस बचत से भी लाभ उठाता है जो भारतवर्ष के बजाय इँगलैंड में व्यय की जाती है। और इन बचत की रक़मों के अतिरिक्त वह योरपियन व्यापारियों की उस सम्पत्ति से भी लाभ उठाता है जो भारतवर्ष में अर्जित की जाती है पर सबकी सब इँगलैंड भेज दी जाती है[१०]।"
नीचे हाउस आफ़ कामन्स की कमेटियों के विवरण से कुछ उद्धरण दिये जाते हैं (भाग ५, १७८१-८२, १८०४ में मुद्रित) मिस्टर फिलिप फ्रान्सिस जो बङ्गाल की कौंसिल के कभी सदस्य रह चुके थे, देशी राज्य और ईस्ट इंडिया कम्पनी के राज्य की तुलना करते लिखते हैं:––
"किसी अँगरेज़ को यह सोचकर दुःख होना चाहिए कि जब से इस देश की दीवानी कम्पनी के हाथ में आई है तब से यहाँ के निवासियों की दशा पूर्व की अपेक्षा और भी शोचनीय हो गई है। मैं यह कह सकता हूँ कि इस बात के सत्य होने में जरा भी सन्देह नहीं। मेरी सममा में इसके कारण इस प्रकार हैं––कम्पनी का व्यापार में पूँजी लगाने का डङ्ग; विदेशों में भारतीय माल की बिक्री से जो बड़ी वार्षिक आय थी उसका बन्द हो जाना और उसके स्थान पर विदेशी माल खरीदने में देश का रुपया लगना; उगाही की कड़ाई; प्रत्येक पदाधिकारी का बिना परिणाम सोचे प्रशंसा प्राप्त करने के उद्देश्य से अपने शासन-काल में कर बढ़ा देना; उगाही की भूलें विशेष कर 'बामिलों का नौकर रखना। यही मुझे इस देश के, जो अत्यन्त कठोर और स्वेच्छाचारी राजाओं के शासन काल में भी फलता फूलता रहा, विनाश की और ले जाने के कारण प्रतीत होते हैं, और उस अवस्था में जब कि इसके शासन-प्रबन्ध में अँगरेज़ों का वास्तव में बहुत बड़ा भाग है!"
मिस्टर डिग्बी कहते हैं[११] कि इसके दस वर्ष बाद इंडिया हाउस के चार्लस ग्रेट ने, जो भारत में ब्रिटिश शासन का सबसे बड़ा प्रशंसक था––साथ ही ब्रिटिश भारत के साहित्य में भारतवासियों का सबसे बडा निन्दक भी था, विवश होकर यह स्वीकार किया था कि––'हम उनकी वार्षिक आय का एक बड़ा भाग ग्रेट ब्रिटेन के काम में ले आते हैं।' माननीय एफ॰ जे॰ शोर, जो एक बार बङ्गाल के शासक रह चुके थे, अपनी 'भारतीय समस्या-सम्बन्धी टिप्पणियों में कहते हैं[१२]:––
"मुझे इस देश में आये सत्रह वर्ष से अधिक हो गये; परन्तु पहले पहल कलकत्ता पहुँचने पर और वहाँ लगभग एक वर्ष पर्यन्त रहने पर मैंने वहाँ की अँगरेज़ जनता में जो आनन्ददायिनी और दृढ़ धारणा पाई थी––कि भारतवासियों का यह बड़ा सौभाग्य है कि इस देश में अँगरेज़ी राज्य स्थापित हो गया––उसका मुझे अब तक स्मरण बना......
"इस प्रकार भारतवर्ष में ब्रिटिश शासन के सिद्धान्तों और उसकी करतूतों के सम्बन्ध में जाँच करने की मेरी इच्छा हुई। इस प्रयोग में मैंने यहाँ के लोगों के अपने सम्बन्ध में और अपनी सरकार के सम्बन्ध में जो विचार मालूम किये उनसे मुझे कोई घाटा नहीं हुआ। मुझे आश्चर्य तभी होता जब इसे किसी दूसरे रूप में पाता। [सम्पूर्ण भारतीय राष्ट्र को प्रत्येक उपाय से अपने स्वार्थ और लाभ का साधन बनाना ही अँगरेज़ों का मुख्य उद्देश्य रहा। भारतवासियों पर अधिक से अधिक कर लादे गये; एक के पश्चात् दूसरे प्रत्येक प्रान्त पर, जो हमारे अधिकार में आया, हमने खूब कर लगाया; और हमें इस बात का सदा गर्व रहा कि देशी नरेश जितना कर वसूल कर सकते थे, हम उससे अधिक वसूल कर रहे हैं। दर्जा या पद से, जिसे स्वीकार करने के लिए छोटे से छोटे अँगरेज़ से प्रार्थना की जा सकती है, भारतवासियों को वञ्चित रक्खा गया है] [कोष्टक के शब्द हमारे हैं।]
दूसरे स्थान पर वे लिखते हैं:––
"भारत के सुख-शान्ति के दिन गये। किसी समय में उसके पास जो ऐश्वर्य था, उसका एक बड़ा भाग इँग्लेड ने हड़प कर लिया है। एक कठोर कुशासन में पड़कर उसकी शक्तियों का नाश हो गया है। थोड़े से व्यक्तियों के लाभ के लिए लाखो मानवों के सुखों का बलिदान कर दिया गया है[१३]।"
प्रसिद्ध अँगरेज़ शासक जोन सल्लिवन ने, जिसने सन् १८०४ से १८४३ ई॰ तक भारत-सरकार की नौकरी की थी, १८५३ ईसवी में ईस्ट इंडिया कम्पनी का चार्टर बदलने के समय हाउस आफ़ कामन्स की सेलेक्ट कमेटी के सामने गवाही देते हुए कहा था:––
"प्रश्न––क्या आप समझते हैं उनमें (भारतवासियों में ऐसी कथाएँ चली आती हैं जिनसे यह विदित होता है कि उनकी आर्थिक स्थिति पूर्वकाल में देशी नरेशों के अधीन वर्तमान समय की अपेक्षा अच्छी थी?
"उत्तर––मैं समझता हूँ कि साधारणतया इतिहास यही कहता है कि पहले उनकी आर्थिक स्थिति अच्छी थी। आरम्भ-काल से लेकर जहाँ तक का इतिहास मिलता है, सबसे यही ज्ञात होता है कि वे सदैब अच्छी से अच्छी दशा में रहे हैं।
"प्रश्न––जब वे हम लोगों की अपेक्षा युद्ध में अधिक प्राणों की बलि करते थे और अधिक धन नष्ट करते थे और युद्ध भी उनकी सीमा के बाहर न हेकर प्रायः उनके राज्य के भीतर ही होते रहते थे, तब आप यह कैसे कहते हैं कि उनकी आर्थिक स्थिति हमारे समय की अपेक्षा अच्छी थी और उन्हें नहर सिंचाई और तालाबों के निर्माण आदि में पूजी लगाने की योग्यता हम से अच्छी थी?
"उत्तर––हममें अधिक व्यय करने का दोष है जिससे कि वे स्वतन्त्र हम अपने दीवानी और सेना-विभाग में राज्य-कर का बहुत बड़ा भाग व्यय कर देते हैं। हमारा यह दोष योरपियन ढङ्ग का ही दोष है। इस कारण हमारा शासन आवश्यकता से बहुत अधिक खर्चीला है। मैं समझता हूँ इसका यही एक बड़ा कारण है।"
जब जोन सल्लिवन से यह प्रश्न किया गया कि क्या आप साम्राज्य का सेना-विभाग ब्रिटिश के हाथों में देकर शेष ब्रिटिश-राज्य के स्थान पर देशी राज्य पसन्द करेंगे? तब उसने अपनी सम्मतियों को तर्क-पूर्ण निष्कर्ष के रूप में उपस्थित करने में ज़रा भी सङ्कोच नहीं किया:––
"क्या न्याय के सिद्धान्त पर ब्रिटिश राज्य का एक बड़ा भाग देशी नरेशों को दे देंगे?"
"हाँ!"
"क्या इसलिए कि हमने बिना किसी न्याय या उचित दावे के बल प्रयोग या अन्य उपायों से उन पर अधिकार कर लिया है? "मैं न्याय के सिद्धान्त पर और आर्थिक मित-व्ययता के सिद्वान्त पर ऐसा करना चाहूँगा[१४]।"
उन्होंने यह भी कहा था कि:––
"वर्तमान राज्य-कर के सम्बन्ध में भारतवासियों को जो शिकायत है वह, मैं समझता हूँ, केवल कर की रकम की ही शिकायत नहीं है। मैं सममाता हूँ जो रकम वसूल की जाती है उससे कहीं अधिक शिकायत उनको उसके प्रयोग से हैं। देशी राजवंशों के शासन काल में राज्य-कोष में देश का जितना धन जमा होता था, वह सब देश में ही व्यय भी होता था। परन्तु हमारे शासन काल में राज्य-कर का एक बड़ा भाग बाहर भेज दिया जाता है और उसका कोई बदला नहीं चुकाया जाता। [गत ६० या ७० वर्षों से इसी प्रकार राज्य का रुपया बहाया जा रहा है और यह घटने की अपेक्षा दिनों दिन बढ़ता ही जा रहा है......] हमारी शासन-पद्धति बिल्कुल स्पंज की भाँति काम करती है। वह गङ्गा के किनारे की समस्त अच्छी वस्तुओं को सोख लेती है और उन्हें टेम्स के किनारे लाकर निचोड़ देती है।......" (कोष्ठक के शब्द हमारे हैं।)
हाउस आफ कामन्स की सेलेक्ट कमेटी ने १८३२ ईसवी में सर जान माल्कम की गवाही ली थी। ये महाशय १८२७ ईसवी में बम्बई के गवर्नर थे और भारतवर्ष में ब्रिटिश साम्राज्य के निर्माण-कर्ताओं में से एक थे।
"क्या आपकी सम्मति में जनता की कृषि और व्यापार-सम्बन्धी विशेष उन्नति होने का कारण यह है कि देशी नरेशों के कुशासन के स्थान पर अब हमारा राज्य स्थापित हो गया है?"
"मैं इस प्रश्न का उत्तर प्रत्येक प्रान्त के सम्बन्ध में नहीं दे सकता। परन्तु मैं वहाँ तक बतलाऊँगा जहाँ तक का कि मुझे अनुभव है। मैं नहीं समझता कि इस परिवर्तन से अधिकांश देशी रियासतों के निवासियों को व्यापारिक, आर्थिक या कृषि-सम्बन्धी लाभ पहुँचा है। कदाचित् पहुँच भी नहीं सकता। हाँ, इससे दूसरों को लाभ पहुँच सकता है। ईसवी में जब मैं वर्तमान ड्यूक आफ वेलिंगटन के साथ मरहठों के दक्षिणी जिलों में गया था तक मैंने वहाँ खेती और व्यापार की जैसी उन्नति देखी थी वैसी अन्यत्र कभी नहीं देखी.......। "मालवा के सम्बन्ध में......... मैं नहीं समझता कि सीधा हमारा शासन स्थापित होने से वहाँ कृषि और व्यापार की विशेष उद्धति होती; कदाचित् उतनी भी न होती जितनी कि वहाँ के प्राचीन राजाओं और सरदारों के योग्य शासन के पुनःसंस्थापन से हुई हैं।......
"मरहठों के दक्षिणी ज़िलों की उन्नति के सम्बन्ध में मैं पहले ही कह चुका हूँ ......यह कहने में मुझे ज़रा भी सङ्कोच नहीं कि कृष्णा नदी के किनारे पटवर्धनवंश के तथा अन्य राजाओं के जो प्रान्त हैं उनकी जैसी कृषि और व्यापारिक उन्नति मैने भारतवर्ष में कहीं नहीं देखी......के जितने कारण हो सकते हैं उनमें सर्वश्रेठ कारण यह है कि देशी शासन में ग्राम्य-पञ्चायतों तथा अन्य देशी संस्थाओं को अभिन्न रूप से सहायता मिलती है और राज्य में जितने मनुष्य बसे होते हैं सबको काम दिया जाता है। जो कि हमारे शासन में इतना सम्भव नहीं है[१५]।"
१८५८ ईसवी में जब साम्राज्य का शासन कम्पनी के हाथ से निकल कर इंगलैंड के ताज के अधीन पाया तब सर जार्ज विगेट ने, जो बम्बई गवर्नमेंट के एक उच्च पदाधिकारी थे, अपने देशवासियों के विचारार्थ अपने चिम्नाङ्कित अनुभव लिखे थे:––
"यदि हमने केवल भारतवासियों के ही लिए नहीं बल्कि अपने लिए भारतवर्ष पर शासन किया है तो हम स्पष्ट रूप से ईश्वर और मनुष्य की निगाह में उस शासन के लागत की ओर अपनी जेब से कुछ व्यय न करने के कारण अपराधी हैं।
"हमारे शासन का भारतवर्ष की आर्थिक स्थिति पर क्या प्रभाव पड़ता है, इसके सम्बन्ध में इतना ही कह देना यथेष्ट है, कि हमारी वर्तमान पद्धति के अनुसार भारतवर्ष को जो कर इंगलैंड को देना पड़ता है वह अत्यन्त आक्षेप के योग्य है। किसी देश से कर वसूल करके उसी देश में उसके व्यय किये जाने का एक अर्थ है और किसी देश से कर वसूल करके दूसरे देश में उसके व्यय किये जाने का बिल्कुल दूसरा।......
"ग्रेट ब्रिटेन भारत से जो लेता है वह, चाहे न्याय की तुला पर तोला चाहे उस पर हमारे सच्चे स्वार्थ की दृष्टि से विचार किया जाय, प्रत्येक अवस्था में मनुष्यता के विपरीत, साधारण-बुद्धि के विपरीत, और अर्थशास्त्र के सर्वमान्य सिद्धान्तों के विपरीत पाया जायगा।"
पुनश्च:––
"यदि भारतवर्ष इस निर्दयी राज्यदण्ड के बोझ से छुटकारा पा जाय और वहाँ के कर से जो आय हो वह वहीं व्यय की जाय तो वहीं का राज्य-कर शीघ्र ही उस अवस्था में पहुँच जाय जिसकी हमें वर्तमान समय में कोई आशा नहीं है।"
दत्त महाशय ने अपनी 'विक्टोरिया-कालीन भारतवर्ष' नामक पुस्तक के १२६ वें पृष्ठ पर कम्पनी के एक प्रसिद्ध सञ्चालक कर्नेल साइक्स की सम्मति उद्धत की है कि 'भारतवर्ष की जो सम्पत्ति प्रतिवर्ष विलायत चली जाती है वह ३,३०,००,००० पौंड से लेकर ३,७०,००,००० पौंड तक है। इस सञ्चालक का यह भी कहना है कि 'यह राज्य-दण्ड भारत तभी सह सकता है जब वह विदेशों को अधिक माल भेजे पर मँगावे कम।'
ईस्ट इंडियन कम्पनी के सभापति हेनरी सेंट जोन टकर ने कहा था। (दत्त द्वारा उद्धृत) कि भारतवर्ष की सम्पत्ति का यह बहिर्गमन बढ़ता ही जा रहा है क्योंकि हमारा गृह-व्यय लगातार बढ़ रहा है।' यह बात आवश्यकता से अधिक सत्य प्रमाणित हुई है।
इसी प्रकार पार्लियामेंट की १८५३ की रिपोर्ट में ईस्ट इंडिया कम्पनी के एक और सौदागर का मत उद्धृत किया गया है। उसने कहा था:––
"साधारण रूप से मैं यह कह सकता हूँ कि १८४७ ईसवी तक हम भारतवर्ष के हाथ ६०,००,००० पौंड का माल बेचते रहे हैं और उससे १५,००,००० पौंड का माल खरीदते रहे हैं। इसमें जो अन्तर है उसकी पूर्ति उस धन से होती रही है जो कम्पनी को भारतवर्ष से कर-स्वरूप मिलता था। वह धन लगभग ४०,००,००० पौंड था[१६]। दुखी भारत
"सम्पत्ति के इतने अधिक और क्रम-बद्ध विकास से इँगलैंड भी शीघ्र दरिद्र हो जा सकता है। तब भारतवर्ष पर इसका कितना भयङ्कर प्रभाव पड़ता होगा, जहाँ एक मज़दूर की दिन भर की मजदूरी केवल दो या तीन पेंस होती है[१७]।"
भारतवर्ष के इतिहासकार प्रोफेसर एच॰ एच॰ विलसन सम्पत्ति के वार्षिक विकास के सम्बन्ध में लिखते हैं:––
"इस सम्पत्ति के इँगलैंड चले जाने का अर्थ है भारतवर्ष की पूँजी का बेकार हो जाना, जिसका कि कोई बदला भी नहीं दिया जाता। विकास देश को दरिद्र कर देनेवाला है क्योंकि इसकी किसी प्रकार पूर्ति नहीं की जाती। यह राष्ट्रीय व्यवसाय की नसों के रक्त को इस प्रकार चूस लेनेवाला है कि पश्चात् को किसी उपचार से उसकी रक्षा नहीं हो सकती।"
श्रीयुत ए॰ जे॰ विलसन ने 'फोर्ट नाइटली पत्रिका' की मार्च १८८४ की संख्या में प्रकाशित एक लेख में लिखा था:––
"किसी न किसी रूप में हम उस दुखी देश (भारत) से प्रतिवर्ष पूरे ३,००,००,००० पौंड खींच लेते हैं; और वहाँ के निवासियों की प्राय का औसत केवल ५ पौंड वार्षिक है या कहीं कहीं इससे भी कम। इसलिए भारत से जो हमें प्राप्त होता है वह ६० लाख से अधिक कुटुम्बों की या ३ करोड़ व्यक्तियों की सम्पूर्ण कमाई का धन होता है। इसका अर्थ यह है कि भारतवर्ष की सम्पूर्ण खुराक का दसवाँ अंश प्रतिवर्ष उनके लिए बेकार घर दिया जाता है।"
महान् अँगरेज़ राजनीतिज्ञ लार्ड सैलिसबरी ने १८७५ ईसवी में भारतवर्ष के सम्बन्ध में कहा था कि उसकी 'कर की आय का एक बड़ा भाग बाहर चला जाता है और बदले में उसे कुछ नहीं मिलता।' संयुक्त राज्य अमरीका के एक-ईश्वरवादी संप्रदाय के मन्त्री डाक्टर जे॰ टी॰ सन्डर लेंड अपनी 'भारतवर्ष में अकाल के कारण' नामक पुस्तिका (पृष्ट २२) में लिखते हैं कि 'भारत के निवासियों की दरिद्रता का सबसे बड़ा कारण यह है कि यहाँ की सम्पत्ति विदेश को ढोई चली जा रही है।
भारतवर्ष इँगलैंड को जो राजदण्ड देता है और एक डेढ़ शताब्दियों से भी अधिक काल से दे रहा है, या भारतवर्ष की सम्पत्ति का इँगलैंड के लिए जो निकास हो रहा है, उसके सम्बन्ध में ऊपर विभिन्न लेखकों के जो मत दिये गये हैं, उन्हीं से समाप्त नहीं हो जाता। वास्तव में यदि कोई चाहे तो ऐसे उद्धरणों से एक बड़ा ग्रंथ भर सकता है। इसके अतिरिक्त हमने बुद्धिमानी के साथ उन ब्रिटिश राजनीतिज्ञों (जिन में सर हेनरी काटन––आसाम के भूतपूर्व चीफ कमिश्नर और पार्लियामेंट के पुराने सदस्य; बम्बई कौंसिल के भूतपूर्व सदस्य और पार्लियामेंट के पुराने सदस्य सर विलियम बेडरबर्न; पार्लियामेंट के भूतपूर्व सदस्य श्रीयुत डब्लू॰ एस॰ केन; भूतपूर्व भारतमन्त्री श्रीयुत ए॰ ओ॰ ह्मूम के सहश कई एक प्रभावशाली एँगलो इंडियन शासक और कितने ही अन्य सज्जन हैं) की सम्मतियों को रोक रखा है जिन्होंने किसी न किसी प्रकार प्रकटरूप से भारतीय राष्ट्रीयता का साथ दिया है। इसी प्रकार हमने स्वयं भारतीयों की सम्मतियों का भी उल्लेख नहीं किया।
यह स्पष्ट है कि १७५७ से १८५७ तक के १०० वर्षों में या वर्तमान समय तक में जो रक़म भारतवर्ष से विलायत को भेजी गई है उसका, ठीक ठीक अनुमान उस कमी से नहीं लगाया जा सकता जो व्यापार में विदेश को दिये गये धन की अपेक्षा विदेश से प्राप्त धन में हुई। क्योंकि इसमें वह सार्वजनिक ऋण भी जोड़ा जाना चाहिए जो इस समय में ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत पर किया था और वह धन भी जुड़ना चाहिए जो सोने-चांदी की इंटों और रत्नों के रूप में विलायत भेजा गया पर उसका कहीं हिसाब नहीं दिखाया गया।
अँगरेज़ों की भारत-विजय करने की खूबी इस बात में है कि इस विजय में आदि से लेकर अन्त तक ब्रिटिश को अपने पास से एक पैसा भी नहीं खर्च करना पड़ा। अँगरेज़ों ने भारतवर्ष को इसी के रुपये और इसी के रक्त से जीता है। इसके पश्चात् एशिया में ब्रिटिश ने देश जीतने, व्यापार बढ़ाने, अन्वेषण करने आदि में जो भी धन व्यय किया वह सब भारत के कोष से चुकाया गया। जो लाभ हुआ वह सब का सर अँगरेज़ों की जेब में गया और जो हानि हुई वह सब की सब भारत के मत्थे मढ़ी गई।
श्रीयुत्त आर॰ सी॰ दत्त बतलाते हैं कि भारतवर्ष की आय व्यय से सदैव अधिक होती रही है।
"कम्पनी के १०० वर्षों के शासन में भारतवर्ष के भत्ये जो ऋण मढ़ा गया उसका कारण वह व्यय था जो इँगलेंड में किया जाता था।"
१७९२ ईसवी में भारतवर्ष पर कुल ऋण, जिसका ब्याज दिया जाता था, ७० लाख से कुछ अधिक था। १७९९ ईसवी में वह एक करोड़ हो गया। इसके पश्चात् लार्ड वेलेज़ली के युद्ध आरम्भ हुए और १८०५ ईसवी में भारतवर्ष पर २ करोड १० लाख का ऋण होगया। १८०७ ई॰ में यह २ करोड ७० लाख हुआ। १८२९ में यह ३ करोड़ तक पहुँच गया। भारतवर्ष पर कुल ऋण (रजिस्टर्ड और ख़ज़ाने के नोट का ऋण तथा डिपाज़िट और होम बांड का ऋण) ३० अप्रेल १८३६ ईसवी को ३,३३,५५, ५३६ पौंड था[१८]। १८४४-४५ ईसवी में ४,३५,००,००० पौंड हो गया। इसमें अफ़ग़ानिस्तान के साथ किये गये भारी युद्ध का व्यय भी सम्मिलित था। इस युद्ध में कुल मिलाकर ५ करोड ५० लाख व्यय हुआ था। इँगलेंड ने इस व्यय में अत्यन्त न्यून भाग लिया था; यद्यपि जोन ब्राइट के शब्दों में 'इस युद्ध का सम्पूर्ण व्यय इँगलैंडनिवासियों पर कर लगाकर वसूल करना चाहिए था क्योंकि यह युद्ध अँगरेज़ी मन्त्रिमण्डल की आज्ञा से हुआ था और इसका उद्देश्य अँगरेज़ों का हित-साधन अनुमान किया गया था।
सिन्ध को ब्रिटिश राज्य में सम्मिलित करने और पञ्जाब की लड़ाईयाँ लड़ने में हार्डिंज और डलहौसी ने १८५०-५१ में इस ऋण को बढ़ाकर ५ करोड ५० लाख पौंड तक पहुँचा दिया। तब १८५७ का बलवा हुआ और भारत के इस सार्वजनिक ऋण में १ करोड़ मुहरों की और वृद्धि हुई। ३० अप्रेल १८५८ में यह ऋण बढ़कर ६,९५,००,००० पौंड हो गया।
बलवे को दबाने में जो व्यय हुआ उसके सम्बन्ध में अँगरेजों की निम्नलिखित सम्मतियाँ पढ़ने लायक हैं:––
एक पक्षपात-रहित इतिहासकार[१९] का कथन है कि 'यदि संसार में कभी कोई न्याय-युक्त विद्रोह हुआ है तो वह कारतूसों पर गाय और सुअर की चर्बी लगाने की घृणोत्पादक नीति के विरुद्ध भारतवर्ष के हिन्दू और मुसलमानों का सिपाही-विद्रोह था। यह भयङ्कर भूल हुई ब्रिटिश शासको से और फल भुगतना पड़ा भारतवर्ष को। इसके पहले भारतवर्ष की फौज चीन और अफ़गानिस्तान में युद्ध करने के लिए भेजी गई थी; और ईस्ट इंडिया कम्पनी को भारतीय सेना-द्वारा भारत की सीमा के बाहर की गई सेवाओं लिए कुछ नहीं दिया गया था। परन्तु जब वलका दबाने के लिए ब्रिटिश-सेना भारतवर्ष को भेजी गई तब इँगलैंड ने उसका व्यय बड़ी कड़ाई के साथ वसूल कर लिया।'
"औपनिवेशिक कार्यालय का सम्पूर्ण व्यय या दूसरे शब्दों में भारतवर्ष को छोड़कर शेष समस्त उपनिवेशों और रक्षित राज्यों के गृह-शासन तथा स्थल और जल-सेना का व्यय ग्रेट ब्रिटेन के संयुक्त राज्य के कोष से दिया जाता है। यह सोचना स्वाभाविक ही है कि भारतवर्ष का भी इसी प्रकार का व्यय इँगलैंड को संभालना चाहिए। परन्तु होता क्या है? हमारे भारतीय साम्राज्य की सैनिक-रक्षा के लिए ब्रिटेन के कोष से कभी एक शिलिंग भी नहीं निकला।
"कितने आश्चर्य की बात है कि जो राष्ट्र अपने उपनिवेशों और विदेशी राज्यों को, उनकी आवश्यकता के समय में, बड़ी उदारता के साथ आर्थिक सहायता प्रदान करता है वही स्वयं अपने विशाल भारतीय साम्राज्य को उसके असीम आर्थिक कष्ट के समय में भी विचित्र और अचिन्त्य कन्जूसी के साथ सहायता देना अस्वीकार कर दे।
"सबसे निकृष्ट बात अभी कहने को बाक़ी ही है। जय भारतवर्ष को विशेष सेना भेजी जाती है, जैसा कि गत अशान्ति के समय में हुआ, तब उस सेना के जहाज़ में सवार होने से ६ मास पूर्व ही उसका सम्पूर्ण व्यय भारत के कर से चुका लिया जाता है। भारत सरकार उसे अपने ऊपर ब्रिटिश-सेना के वेतन-विभाग का ऋण मान लेती है। भारतीय सिपाही विद्रोह के सङ्कट काल में, जब कि भारतवर्ष की आर्थिक अवस्था अत्यन्त शोचनीय हो गई थी, ग्रेट ब्रिटेन ने समस्त विशेष सेना का, उसके भारत के लिए रवाना होने के समय से व्यय ही नहीं लिया किन्तु भारत को रवाना होने के पूर्व ६ मास तक उसने जो ब्रिटिश की सेवा की थी उसका भी व्यय मांगा[२०]"
परन्तु विद्रोह के व्यय सम्बन्ध में सर जार्ज विंगेट से भी एक बहुत बड़े व्यक्ति ने अपने स्पष्ट और निर्भय शब्दों में कहा था:––
"जोन ब्राइट ने कहा––'मेरी सम्मति से विद्रोह का ४ करोड़ व्यय का भार भारतवर्ष के निवासियों पर रखना उनके लिए एक बड़ा ही दुखदायी बोझा होगा। यह विद्रोह इँगलैंड के निवासियों और पार्लियामेंट के कुप्रबन्ध का फल है। यदि प्रत्येक व्यक्ति को उसका न्यायोचित भाग दिया जाय तो इसमें सन्देह नहीं कि यह ४ करोड़ उस कर की आय से चुकाया जाना चाहिए जो इस देश के लोगों पर लगाया जाता है[२१]।"
यह ऋण इँगलेंड ने भारतवर्ष को सार्वजविक हित के लिए दिया हो सो बात भी नहीं; क्योंकि भारतवर्ष में १८५० ई॰ से पहले रेल-मार्ग नहीं थे। जब भारत कम्पनी के हाथों से निकलकर ब्रिटिश-ताज के तले आया तब इस बात की व्यवस्था की गई कि ईस्ट इंडिया कम्पनी की पूँजी का भाज्य, ग्रेट ब्रिटेन में कम्पनी के किये ऋण, तथा कम्पनी के अन्य समस्त राज्य सम्बन्धी ऋण 'केवल भारत के कर की आय से वसूल किये जायँगे और वसूल किये जाने चाहिए। इस प्रकार उस समय तक कम्पनी की पूँजी पर भारतवर्ष जो वार्षिक व्याज देता था वह स्थायी कर दिया गया क्या संसार के इतिहास में इसके समान कोई बात मिल सकती है? १८६० ईसवी से भारतवर्ष पर लिया गया यह ऋण १० करोड़ पौंड हो गया। इसके पश्चात् यह ऋण बड़ी तेजी के साथ बढ़ा है। १९१३-१४ में भारत सरकार पर कुल ३०,७३,९१,१२१ पौंड का ऋण था। यह तर्क कि यह समस्त ऋण व्यापारिक लेन-देन है और इससे भारतवर्ष को उत्पादक कार्यों के रूप में लाभ पहुँचा है, भारतवर्ष की दशा देखते हुए, किसी प्रकार सिद्ध नहीं किया जा सकता। यह बड़े दुःख की बात है कि जब प्रसिद्ध अँगरेज़ व्यक्ति 'धन के बहिर्गमन' के प्रश्न पर विचार करने बैठते हैं तब वे प्रश्न के इस पहलू की अवहेलना कर देते हैं और सदैव वही बेसुरा राग अलापते हैं कि भारतवर्ष इंगलैंड को जो व्याज देता है वह उसके उत्पादक कामों में लगी पूँजी का व्याज है जिसके लिए भारतवर्ष को इँगलैंड से नाना प्रकार की वस्तुओं के रूप में उचित बदला मिल चुका है। इस ऋण के उत्पादनशील होने में क्या सन्देह! इम्पीरियल गज़ेटियर यह लँगड़ा तर्क उपस्थित करता है कि गृह-व्यय के रूप में इँगलैंड भारतवर्ष से जो १,७२,५०,००० पौंड वार्षिक होता है उसमें लगभग १,१०,००,००० पौंड 'उस पूँजी का व्याज तथा उन वस्तुओं का मूल्य होता है जो भारतवर्ष को इँगलैंड से प्राप्त हुई थीं।' (यह किस वर्ष का लेखा है, यह नहीं बतलाया गया।) कुल रक़म के निकास के सम्बन्ध में भिन्न भिन्न आचार्यों के भिन्न भिन्न मत हैं। उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त तक का विकास मिस्टर डिग्बी ने ६ अरब ८ करोड़ पौंड अनुमान किया था[२२]। इसमें गत २७ वर्षों के अङ्क भी सम्मिलित होने चाहिए। १९०६ ईसवी में मिस्टर हिंडमैन ने इसे ४ करोड़ पौंड वार्षिक अनुमान किया था। मिस्टर ए॰ जी॰ विलसन ने ३ करोड ५० लाख पौंड प्रतिवर्ष बतलाया था[२३]। सरकार के पक्षसमर्थक सर थ्योडर मोरिसन ने इसे एक 'ठोस निकास' कहा था और इसे २ करोड १० लाख पौंड वार्षिक बतलाया था। इन अङ्कों को रुपयों में परिवर्तित कीजिए तब ये और भी भयङ्कर प्रतीत होंगे। श्रीयुत के॰ टी॰ शाह ने भारतवर्ष का जो कुल धन बाहर जाता है उसकी बड़ी गवेषणा-पूर्ण व्याख्या की है। उनके अनुमान का सार नीचे दिया जाता है:-
| | रुपया |
---|---|---|
गृह-व्यय | … | ५०.०० करोड़ |
विदेशी पूँजी पर ब्याज | … | ६०.०० „ |
विदेशी रेलवे कम्पनियों को दिया गया भाड़ा | … | ४१.६३ „ |
बैंक कमीशन | … | १५.०० „ |
विदेशी व्यापारियों और नौकरों की भारतवर्ष में कमाई | … | ५३.२५ „ |
| … कुल | २१९.८८ „ |
या पूर्ण अङ्कों में इसे २२० करोड़ कह सकते हैं।
इसके पश्चात् मिस्टर शाह एक दीर्घ काल से प्रचलित व्यापार के अङ्कों पर विचार करते हैं और वर्तमान अवस्था के सम्बन्ध में अपनी सम्मति निम्नलिखित शब्दों में प्रकट करते हैं*[२४]:-
"वर्तमान समय (११२३-२४) में अवस्था यह है। विदेशी लेन देन का हिसाब चुकता करने पर व्यापार में भारतवर्ष को १५० करोड़ की बचत होती है। परन्तु उस पर जो तकाज़ा होता है उसका योग १७८ करोड़ तक पहुँच जाता है। इस प्रकार भारत प्रतिवर्ष लगभग ३० करोड़ का ऋणी हो जाता है। यह ठीक है कि प्रकट रूप से उसे यह ऋण चुकाना नहीं पड़ता। पर यह उसी के नाम पर लिख लिया जाता है और इस प्रकार यह भारतवर्ष की उपज के स्थायी रूप से गिरवी हो जाने में सहायक होता है।"
- ↑ * जे॰ ब्रूस-कृत 'ब्रिटिश भारत के उपाय' नामक पुस्तक से, पृष्ठ ३१६।
- ↑ * मेकाले-लिखित इँगलेंड का इतिहास, भाग ५, पृष्ट २०९४
- ↑ * ब्रूक्स आदम्स-कृत 'सभ्यता की उन्नत्ति और अवनति के सिद्धान्त' पृष्ठ ३०५।
- ↑ * जे॰ ब्रूस-लिखित "ब्रिटिश भारत के उपाय" नामक पुस्तक से, पृष्ठ ३१४-३१५
- ↑ रमेशदत्त द्वारा उनकी 'ब्रिटिश शासन के आरम्भ में भारत की दशा' नामक पुस्तक से उद्धृत। पृष्ठ २३-२४।
- ↑ मालकम-लिखित क्लाइव का जीवन-चरित्र, पृष्ठ ३७९
- ↑ मुइर-लिखित ब्रिटिश भारत का निर्माण, पृष्ठ ८९
- ↑ नवम विवरण, पृष्ठ ४७, बुक रचित "संगृहीत निबन्ध" भाग ३ डिग्बी द्वारा उद्घृत, पृष्ठ २८।
- ↑ उसी पुस्तक से, पृष्ठ ४७-४८
- ↑ पार्लर के पर्चे, १८५३ (४४५-११) पृष्ठ ५८०
- ↑ 'उन्नतशील ब्रिटिश भारत', पृष्ठ २१४।
- ↑ लन्दन, १८३७, भाग दो, पृष्ठ ५१६
- ↑ उसी पुस्तक से, पृष्ठ २८।
- ↑ सेलेक्ट कमेटी का तृतीय विवरण, १८५३, पृष्ठ १९२०
- ↑ १८३२ की सेलेक्ट कमेटी के सामने दी गई गवाहियों का विवरण, भाग ६, पृष्ठ ३०, ३१
- ↑ प्रथम विवरण, १८५३ ईसवी।
- ↑ पूर्व भारत का इतिहास इत्यादि; भाग २, पृष्ठ १२। दत्त लिखित "आरम्भिक ब्रिटिश शासन" भी देखिए, पृष्ठ ६०९।
- ↑ आर॰ सी॰ दत्त लिखित "विक्टोरियाकालीन भारत" पृष्ठ २१५, १६ और पादटिप्पणी।
- ↑ लेकी, 'जीवन का मानचित्र' आर॰ सी॰ दत्त द्वारा उद्धत।
- ↑ 'भारतवर्ष के साथ हमारा आर्थिक सम्बन्ध' मेजर बिंगेट-लिखित, लन्दन, १८५९।
- ↑ ईस्ट इंडिया कम्पनी के ऋण के सम्बन्ध में जोन ब्राइट का व्याख्यान मार्च १८५९।
- ↑ 'उन्नत-शील ब्रिटिश भारत' पृष्ठ २३०।
- ↑ "गिरवी साम्राज्य" ए॰ जी॰ विलसन-लिखित, लंदन (१९११) पृष्ठ ६४-६५
- ↑ *"भारत का धन और उसकी कर सहन की शक्ति" पृष्ठ २३६