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दुखी भारत/२८ भेद-नीति

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प्रयाग: इंडियन प्रेस, लिमिटेड, पृष्ठ ३९१ से – ३९९ तक

 

अट्ठाईसवाँ अध्याय
भेद-नीति

हाल के हिन्दू-मुसलिम दङ्गों के कारण मिस मेयो ने हमारी हँसी उड़ाई है। यह सच है कि गत पाँच वर्षों से हिन्दू मुसलमान बड़ी बुरी तरह लड़ रहे हैं। संक्षेप में परिस्थिति इस प्रकार है।

१९१९ ईसवी में जब रौलट एक्ट पास हुआ था तब हिन्दू मुसलमान दोनों ने मिलकर एक साथ सरकार का विरोध किया था। मार्शल ला के समय की सामयिक फ़ौजी अदालतों में पंजाब के नेताओं पर एक अभियोग यह भी लगाया गया था कि वे हिन्दू-मुसलमानों में मेल बढ़ाने का प्रयत्न करते हैं। इस बात के अपराधी ठहराये गये थे कि उन्होंने ब्रिटिश-सरकार का तो तख़्ता उलट देने के लिए एका किया था। १९२० और १९२१ में समस्त भारतवर्ष के हिन्दू-मुसलमानों ने असहयोग आन्दोलन में एक दूसरे का साथ दिया। यह देखकर विदेशी नौकरशाही की आँख में फोड़ा हो गया। हिन्दू-मुसलमानों का मेल भङ्ग करके असहयोग आन्दोलन को मार डालने के लिए अनेक उपाय किये गये। इसमें सरकर को निर्वाचित संस्थाओं के लिए हिन्दू-मुसलमानों का निर्वाचन-क्षेत्र पृथक् पृथक् कर देने से बड़ी ठोस सहायता मिली। पृथक् निर्वाचन के साथ साथ सार्वजनिक नौकरियों में सरकार ने साम्प्रदायिक पक्षपात की भी नीति बर्तनी आरम्भ कर दी। विशेष कर हिन्दुओं को दवाया गया और उन्हें सरकारी लोहे का अनुभव कराया गया।

फूट उत्पन्न करके राज्य करने की नीति समस्त साम्राज्यों का अमोघ अस्त्र है। भारतवर्ष में ब्रिटिश-सरकार की बराबर यही नीति रही है। ब्रिटिश-अधिकारियों के लेखों से यही निष्कर्ष निकलता है। आरम्भ में उनकी पुकार यह थी–'मुसलमानों को दबाना चाहिए।' अब है–'उन्हें मिला लेना चाहिए और राष्ट्रवादियों के विरुद्ध उनका प्रयोग करना चाहिए। यह भागे आनेवाले उद्धरणों से स्पष्ट हो जायगा[]

४ अक्टूबर १८४२ ईसवी को लाई एलेनबरा ने, जो उस समय भारतवर्ष के गवर्नर जेनरल थे, काबुल और गज़नी को परास्त करने के पश्चात् क आफ़ वेलिंगटन को एक पत्र में लिखा था:––

"मुसलमान लोग अफगानिस्तान में हमारी असफलता कहाँ तक चाहते थे इसका मुझे विश्वास न होता यदि मुझे चे बातें मालूम न हो जाती जिनसे यह सिद्ध होता है कि जो मुसलमान सर्वथा हमारे अधिकार में हैं––उनमे भी हमारे विरुद्ध यही भाव विद्यमान है।

"...इसके विरुद्ध हिन्दू प्रसन्नता प्रकट कर रहे हैं। मैं समझता हूँ कि अब के विरोध का हमें निश्चय है तब ६० के उत्साहपूर्ण सहयोग से, जो हमारे भक्त भी हैं, लाभ न उठाना बड़ी भूर्खता होगी।"

एलेनबरा ले १८ जनवरी १८४३ ईसवी में बेलिंगटन को फिर लिखा था:––

"मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि वह जाति (मुसलमान) सिद्धान्तरूप से हमारी शत्रु है। इसलिए हमारी वास्तविक नीति यह होनी चाहिए कि हम हिन्दुओं को अपनावें।

मुसलमानों को अँगरेज़ों का कोप-भाजन क्यों बनना पड़ा ? यह बात १८५८ में प्रकाशित एक पुस्तिका[] में बतलाई गई थी। इसे बङ्गाल सिविलसर्विस के हेनरी हैरिंगटन थामस नामक एक रिटायर्ड सदस्य ने लिखा था। नीचे उसले कुछ अंश दिये जाते हैं:––

"मैं बतला चुका हूँ कि १८५७ के बलवे के संचालक या जन्मदाता हिन्दू नहीं थे। अब मैं यह बतलाने की चेष्टा करूँगा कि यह मुसलमानों क ही षड्यन्त्र का फल था। जितना सन्देह किया जाता है उससे अधिक काल पूर्व से यह पड्यन्त्र अपना काम कर रहा था; यद्यपि इसके रचयिताओं को इतना शीघ्र इसके भड़क उठने की आशा नहीं थी।......परन्तु प्रश्न यह है कि समस्त देश में ईसाई पुरुषों, स्त्रियों और बच्चों की हत्या करने के लिए इस विद्रोह की आयोजन किसने की? और किसने इसका संगठन किया? केवल अपनी इच्छा और साधनों पर छोड़ दिये जाने पर हिन्दू ऐसा कृत्य करना कदापि पसन्द न करते और न दे कर ही सकते।......नहीं, हिन्दुओं में नहीं, बल्कि मुसलमानों में, हमें ऐसे भयानक षड्यन्त्र के रचनेवाले का पता लगाना चाहिए।...परन्तु जिन कारणों ने हमारी अन्य भारतीय प्रजा की अपेक्षा मुसलमानों को हमारा नाश करने के लिए अधिक प्रेरित किया उन्हें भली भाँति समझने के लिए हमें मुसलमानों के साधारण स्वभाव और धार्मिक-भाव पर विचार करना आवश्यक होगा। वे प्रथम खलीफ़ा के समय में जैसे दम्भी, असहिष्णु और निर्दयी थे वैसे ही आज भी बने हैं। उनमें कुछ परिवर्तन नहीं हुआ। वे चाहे जिस प्रकार हों मुसलिम प्रधानता को सदा बन्दाये रखना चाहते उनसे भिन्न हो, अच्छी प्रजा नहीं हो सकते। कुरान की शिक्षा इसे सहन नहीं करेगी। सिवाय मुस्लिम राज्य के वे सर्वत्र अपने प्रापको विपरीत परिस्थिति में पाते हैं। इसलिए उनका कितना ही पक्षपात कीजिए या उन्हें कितना ही सम्मान प्रदान कीजिए, वे कदापि आपके मित्र नहीं हो सकत। हाँ, जब तक उन्हें अपना अवसर न मिले वे मैत्री का पूरा ढोंग बनाये रह सकते हैं। जहाँ जरा भी अवसर मिला कि बस उनका वास्तविक रूप प्रकट हो जाता है।......परन्तु भारतवर्ष में मुसलमानों ने हमारे नाश का जो आयोजन किया उसमें उनके ईसाई-धर्म से वृणा-भाव के अतिरिक्त और भी उद्देश्य थे। वे यह नहीं भूल सकते कि वे कई पीढ़ियों तक इस देश के शासक रहे हैं। वे मन ही मन निरन्तर सोचते रहते हैं कि यदि अँगरेजों की शक्ति पूर्णरूप से नष्ट कर दी जाय तो वे अपना स्थान फिर प्राप्त कर लेंगे और हिन्दुओं पर एक बार फिर बादशाहत का सिक्का जमा देंगे। देशी सैनिकों में जो असन्तोष फैल रहा था उसको वे समझ गये थे। उसे उन्होंने अपने कपट-प्रेम से प्रज्वलित करना आरम्भ कर दिया। इस बात को वे भलीभाँति जानते थे कि बिना हिन्दू-सैनिकों की सहायता के सफलता नहीं मिल सकती। हिन्दुओं को उत्तेजित करने के लिए उन्होंने ब्राह्मणों को यह विश्वास दिला देना उचित समझा कि उनका धर्म सङ्कट में है। इसलिए मुसलमानों ने यह समाचार फैला दिया कि ब्रिटिश-सरकार हिन्दू-धर्म की जड़ काट रही है। वह धोखे ले सब हिन्दुओं को ईसाई बना लेना चाहती है। ब्राह्मणों ने भी इसी सुर में सुर मिलाया।......चरित्र की दृढ़ता, शिक्षा और बुद्धि में मुसलमान हिन्दुओं से बहुत बढ़े चढ़े हैं। तुलनात्मक दृष्टि से कहा जाय तो हिन्दू उनके हाथ में गिरे बच्चे हैं। इसके अतिरिक्त कार्य में अधिक दक्ष होने के कारण प्रायः सार्वजनिक नौकरियों में वे अधिक लिये गये हैं। इससे उन्हें सरकारी नीति को समझने का भी मौका मिल गया है और उनकी बातें गम्भीर और महत्त्वपूर्ण समझी जाने लगी हैं।......इस बलबे (क्रान्ति) की सुसलमानों ने एक-मान्न अपनी महत्ता के लिए आयोजना की और उन्हीं ने इसका संगठन किया। बङ्गाल फौज के अबोध हिन्दू सिपाही उनके हाथों में कटपुतलो-मात्र थे।"

एक और कारण उपस्थित करके यह लेखक बतलाता है कि मुसलमानों को ईसाई बनाना असम्भव है[]। जरा उसको भी पढ़ लीजिए:––

"ईसाई-धर्म-प्रचारक किसी मुसलमान को कदाचित् ही अपना सिद्धान्त समझा सकता है। उसका ईसाई होना ही उसकी सफलता में बाधक जाता है। प्रायः मुसलमान ईसाइयों से वादविवाद करने से बचते रहते हैं। और यदि कान नहीं बन्द कर लेते तो उनके तर्कों को बड़ी अधीरता के साथ सुनते हैं। हिन्दू उतने रूखे और हठी नहीं होते। इसलिए वे ईसाई-धर्म-प्रचारकों के उपदेशों से प्रायः प्रभावित हो जाते हैं।

३८२१ ईसवी में ही एक ब्रिटिश अफसर ने 'एशियाटिक जर्नल में 'कर्नाटिकस' नाम से लिखा था कि[]––

'फूट उत्पन्न करके राज्य करना' हमारे भारतीय शासन का मूल मन्त्र होना चाहिए। राजनीति, सिविल, मिलीटरी, सर्वत्र इसी नीति का प्रसार होना चाहिए। यही बात लेफ़टिनेन्ट कर्नेल जांन कोक ने, जो मुरादाबाद में सेनाध्यक्ष थे, १८५७ के सिपाही-विद्रोह के समय में, बड़े स्पष्ट शब्दों में लिखी थी[]:––

"हमारा उद्योग यह होना चाहिए कि (हमारे सौभाग्य से) इस देश में भिन्न भिन्न धर्मों और जातियों में जो भेद उपस्थित है उसे हम पूर्णरूप से बनाये रहें। उनको मिलाने का प्रयत्न न करें। 'फूट उत्पन्न करके राज्य करना' ही भारत सरकार का सिद्धान्त होना चाहिए।"

बम्बई के गवर्नर लार्ड एलफिन्स्टन ने १४ नई १८५९ ईसवी के एक विवरण-पत्र में लिखा था[]––"प्राचीन रोमन राज्य का सिद्धान्त था––'शासित प्रजा में फूट उत्पन्न करके राज्य करो'। यही हमारा सिद्धान्त होना चाहिए।"

एक प्रसिद्ध अँगरेज़ सिविलियन और भारतीय समस्याओं के लेखक सर जॉन स्ट्रेची ने कहा था––'जिन बातों से भारतवर्ष में हमारी राजनैतिक स्थिति दृढ़ रह सकती है उनमें एक भारतीय जनता में दो परस्पर विरोधी मतों का होना भी है[]

इस निर्दोष प्रमाण से मिस मेयो के इस कथन की तुलना कीजिए कि 'ब्रिटिश ताज के शासन की प्रथम शताब्दी के पूर्वार्द्ध-काल में सिविल सर्विस के अँगरेज़ अफसरों-द्वारा शासन तथा न्याय दोनों विभागों का कार्य संचालन होता रहा। अपने कर्तव्य का पालन करते समय ये अफसर हिन्दू-मुसलमानों में कोई भेद नहीं मानते थे। सर्वहित को एकही दृष्टि से देखते थे।'

उस अर्धशताब्दी में भी आज ही की भाँति भारतवर्ष में फूट उत्पन्न करके शासन करने की नीति मुख्य थी।

अन्तर केवल इतना ही है कि पहले मुसलमानों का 'दमन' करने की नीति थी अब उनकी पीठ ठोंकी जाती है और वे कृपा-दान से मिलाये। आरम्भ में क्या परिस्थिति थी? इसको स्पष्ट करने के लिए हम सरकारी कागजात से कुछ उद्धरण दे चुके हैं। इसके पश्चात् ही ब्रिटिश अधिकारियों को यह मालूम हुआ कि यदि हिन्दू अपनी गाड़ी निद्रा से एक बार जग पड़ेंगे तो फिर भारत में विदेशी शासन को कठिन कर देंगे। बोझा पूरा करने के लिए अल्पसंख्यक मुसलिम-जनता से विदेशियों ने मैत्री स्थापित करना आवश्यक समझा। गत शताब्दी के गत बीस वर्षों ने बड़ी के लटकन का यह हिलना भी देखा। सिविलियन एच॰ एच॰ थामस ने, जैसा कि हम ऊपर देख चुके हैं, यह निष्कर्ष निकाला था कि 'मुसलमान किसी भी राज्य की, जिसका धर्म उनसे भिन्न हो, अच्छी प्रजा नहीं हो सकते। कुरान की आज्ञा इसे सहन न करेगी।' परन्तु कुरान की आज्ञा को लेकर दूसरे प्रकार का उद्योग क्यों न किया जाय? इसलिए हन्टर ने एक नई समस्या पर विचार करना आरम्भ किया कि क्या मुसलमान अच्छे मुसलमान भी बने रह सकते हैं और महारानी विक्टोरिया की अच्छी प्रजा भी बन सकते हैं?––और वह एक बिल्कुल भिन्न परिणाम पर पहुँचा!

'फूट उत्पन्न करो' वाला पुराना जूता अब भी वहीं है––हाँ अब यह दूसरे में है। इस अध्याय के कुछ उद्धरणों से इसलाम और मुसलमानों पर आघात पहुँचता है

इन उद्धरणों को हमने इसलिए नहीं दिया कि हम इनसे सहमत हैं बल्कि इसलिए दिया है कि हम संसार को यह बतलाना चाहते हैं कि आरम्भिक अँगरेज़ अफसरों की मुसलमानों के सम्बन्ध में क्या सम्मति थी, ताकि वर्तमान समय में वे हिन्दुओं के सम्बन्ध में जो सम्मतियाँ प्रकट कर रहे हैं––उनके मूल्य का अनुमान किया जा सके।

मिस मेयो लिखती है कि १९०६ ईसवी में बड़ी चख-चख मची।' उसका लक्ष्य मिन्टो मारले सुधार कानून की ओर है––जिसने भारतवर्ष में साम्प्रदायिक निर्वाचन को जन्म दिया था।

सर सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने कहा था[] कि साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व की पद्धति भारतवर्ष को लार्ड मिन्टो से मिली। जो लोग यह सोचते हैं कि लार्ड मिन्टो को मुसलमानों की माँग पूरी करनी पड़ी थी उन्हें प्रमुख मुसलमान नेता मिस्टर मुहम्मद अली के शब्दों पर ध्यान देना चाहिए। मिस्टर मुहम्मद अली ने कोकोनाडा कांग्रेस (१९२३) में अपने व्याख्यान में कहा था:––

"कुछ मास पूर्व मुसलमानों का एक डेपूटेशन वायसराय लार्ड मिन्टो की सेवा में शिमला पहुँचा। यह डेपूटेशन मिन्टो-मारले सुधारों के संबन्ध में, जो उस समय होनेवाले थे, वायसराय और उनकी सरकार के सामने मुसलसानों की कुछ माँगें उपस्थित करने गया था। युद्ध के समय में अँगरेज़ पत्रकारों की नीति के अनुसार 'अब यह कहने में कोई हानि नहीं है कि इस डेपुटेशन का काम केवल 'आज्ञा-पालन था। यह स्पष्ट होगया था कि सरकार पढ़े-लिखे भारतीयों की माँगों को सहन नहीं कर सकती थी। और सदा की भाँति वह उनके सामने एक आध मुट्ठी कुछ फेक देना चाहती थी ताकि वे कुछ वर्षों के लिए चुप हो जाय! अब तक मुसलमानों का व्यवहार आययलैंड के उस कैदी के समान था जिसने जज के यह पूछने पर कि क्या तुम्हारी ओर से पैरवी करने के लिए कोई वकील है, स्पष्ट शब्दों में यह उत्तर दिया था कि निस्संदेह मैंने वकील नहीं किया पर 'पञ्चों में मेरे मित्र बैठे हैं।' अव 'पञ्चों में जो मुसलमानों के मित्र थे' उन्होंने उन्हें गुप्त रूप से यह हिदायत कर दी कि तुम भी औरों की भांति प्रमाण-पत्र-प्राप्त वकील कर लो।

मिन्टो-मारले सुधारों के संयुक्त रचयिता लार्ड मारले स्पष्ट रूप से यही दृष्टिकोण रखते थे। मिन्टो को एक चिट्ठी[] में उन्होंने लिखा था––मैं पुनर्वार इन मुसलमानी झगड़ों में आपका साथ नहीं दूँगा––मैं विनय के साथ आपको यह स्मरण दिला देना चाहता हूँ कि मुसलमानों की विशेष माँगों के सम्बन्ध में आपने जो पहले व्याख्यान दिया था पहले पहल उसी ने इस मुस्लिम-खरगोश को दौड़ाया है।'

ये विशेष माँगें अंशतः ब्रिटिश शासन के प्रति मुसलमानों की राजभक्ति पर निर्भर थीं।

भेद उत्पन्न करनेवाली साम्प्रदायिक निर्वाचन की यह नीति ब्रिटिश शासकों को बड़े काम की प्रतीत हुई। हाल के दृङ्गों से इसका कम संबन्ध नहीं है––जैसा कि मिस मेयो के वर्णनों से भी स्पष्ट है अतः इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि जब मांटेग्यू और चेम्सफोर्ड––और उसके पश्चात् पार्लियामेंट की कमेटियाँ १९१९ के सुधारों को गढ़ने बैठीं तब भारत का जिन बातों से बोध होता है वे सब उनके बिल से अदृश्य हो गई और उनके स्थान पर हिन्दू, मुसलमान, सिक्ख, मराठा, ब्राह्मण, अब्राह्मण, भारतीय ईसाई, ऐंग्लो इंडियन और अँगरेज़ आदि भेद उत्पन्न करनेवाले शब्द आ गये।[१०]

ब्रिटिश-वादी लोग इस बात को पूर्ण रूप से जानते हैं कि साम्प्रदायिक निर्वाचन (उनके लिए) हितकर है। यही कारण है कि टोरी दल और अन्य भारत के विरोधी दलों के टाइम्स आदि लन्दन के समाचार-पत्र साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व का इतने ज़ोर-शोर के साथ समर्थन कर रहे हैं।

उत्तरदायी अँगरेज़ राजनीतिज्ञों ने भी भारतवर्ष में नौकरशाही की कारगुजारियों पर सन्देह प्रकट किया है। ब्रिटेन के भूतपूर्व और भावी प्रधान मन्त्री श्रीयुत रामसे मैकडानेल इस चारों ओर फैले हुए सन्देह के सम्बन्ध में कहते हैं

"गवर्नमेंट की ओर से अनुचित उपाय काम में लाये जा रहे हैं और लाये गये हैं। किन्हीं किन्हीं अँगरेज़ अफसरों ने मुसलमान नेताओं को उत्साहित किया है और कर रहे हैं। इन अफसरों ने शिमला और लन्दन में तार खड़-खड़ाये हैं और खड़खड़ा रहे हैं। ये पूर्व निश्चित द्वेष-भाव से मुसलमानों के साथ विशेष पक्षपात करके मुसलमान और हिन्दुओं में वैमनस्य का बीज बोते हैं[११]।"

पञ्जाब-कार्यकारिणी सभा के भूतपूर्व सदस्य सर जान मेनर्ड ने हाल ही में लन्दन के 'फारेन अफेयर्स में एक लेख प्रकाशित कराया है। उसमें आप लिखते हैं:––

"इस बात के सत्य होने में सन्देह नहीं कि यदि भेदोत्पादक नीति से काम न लिया जाता तो भारत में ब्रिटिश अधिपत्य न तो स्थापित हो सकता था और न सुरक्षित रह सकता था। हिन्दू-मुसलिम बैमनस्य भी इस नीति का एक स्वरूप है। यह भी सत्य है कि इन दोनों जातियों की सामूहिक प्रतिद्वन्द्विता अँगरेज़ी राज्य के समय से आरम्भ हुई। अँगरेज़ों के शासन-काल स पूर्व अत्याचारी शासक समय समय पर प्रकट होते रहे हैं। धर्म पर विश्वास न करनेवालों पर कर लगाते रहे हैं या धर्म के जोश में गोहत्या करनेवालों को दण्ड देते रहे हैं। परन्तु हिन्दू और मुसलमान जनता––इस ज्ञान के वृक्ष का फल खाकर धर्म-वेता बनने से पूर्व––शान्ति के साथ पास पास उन्हीं देवस्थलों में ईश-पूजा करती थी।"

कर्जन की रचना––पूर्वी बङ्गाल––के शासक सर बेम्पफ़ील्ड फुलर ने अपने प्रायः उद्धृत किये जानेवाले साहित्यिक व्याख्यान में कहा था कि भारत-सरकार के दो पत्नियों हैं, हिन्दू और मुसलमान। इनमें मुसलमान उसकी 'प्रिय-पत्नी' है।

अभी गत वर्ष लाई ओलबियर ने, जो रामसे मैकडानेल के शासनकाल में भारत-मन्त्री थे, लन्दन के टाइम्स में लिखा था––

"कोई भी व्यक्ति, जिसका भारतीय समस्याओं से निकट-परिचय है यह अस्वीकार न करेगा कि अँगरेज़ अफ़सरों में मुसलमानों के प्रति प्रबल पक्षपात का भाव विद्यमान है। इसका कुछ कारण तो मुसलमानों के प्रति और अधिक सहानुभूति प्रकट करना है पर विशेष कारण हिन्दू राष्ट्रीयता के विरुद्ध पलरा भारी करना है।"

ऐसे उच्चाधिकारी की इस स्वीकारोक्ति से सर बेम्पफील्ड द्वारा अंकित किये गये 'प्रिय-पत्नी' के चित्र का पुनः स्मरण हो आता है।




  1. जनवरी १९२८ के मार्डन रिब्यू (कलकत्ता) में डाकृत जे॰ टो॰ सन्डरलेंड का 'हिन्दू मुस्लिम दंगे' शीर्षक लेख देखिए। उसी पत्थर की सितम्बर १९२५ की संख्या में डाकृर बी॰ डी॰ बसु का 'इसलाम दबाया जाना चाहिए' शीर्षक लेख देखिए।
  2. 'गत भारतीय विद्रोह और हमारी भविष्य नीति' पृष्ठ १३-१७। बसु द्वारा उद्धत।
  3. उसी पुस्तक से, पृष्ठ २६।
  4. वस्तु द्वारा उनकी 'भारत में ईसाइयों की बढ़ती' नामक पुस्तक में उद्धत‌। पृष्ठ ७४-५
  5. बसु द्वारा उद्धत, उसी पुस्तक से।
  6. उसी पुस्तक से,
  7. बसुकृत, उसी पुस्तक से।
  8. 'जागता हुआ राष्ट्र' (आक्स फोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, पृष्ठ २८३।
  9. मारले की स्मृतियाँ, भाग २ पृष्ठ ३२५।
  10. 'पीपुल' (लाहौर) की १ मई १९२७ की संख्या में प्रकाशित जोहिया सी॰ वेजउड––मेम्बर, पार्लियामेंट––का एक लेख।
  11. "भारतवर्ष में जाग्रति," पृष्ठ २८३।