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दुखी भारत/२ अमर-प्रकाश

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प्रयाग: इंडियन प्रेस, लिमिटेड, पृष्ठ ६१ से – ८१ तक

 
दूसरा अध्याय
अमरप्रकाश

मिस मेयो की पुस्तक में १३ वें अध्याय से १६ वें अध्याय तक भारतवर्ष की शिक्षा का वर्णन है। इनमें से पहले अध्याय का शीर्षक है—'हमें काम दीजिए या मौत' मिस मेयो अज्ञानता से ऐसा शीर्षक चुन कर जिससे भारत में ब्रिटिश सरकार की शिक्षा-नीति पर बड़ा घोर कलङ्क लगता है, इस बात का परिचय देती है कि उसे हास्य रस का बिलकुल ज्ञान नहीं है। पर जान पड़ता है कि वह भारत-सरकार के शिक्षा-सम्बन्धी कर्त्तव्य को स्वीकार ही नहीं करती। हिन्दुओं में दोष ढूँढना और शिक्षा की कमी तथा ब्रिटिश सरकार की शिक्षण-पद्धति की त्रुटियों के लिए उन्हीं को दोषी ठहराना उसका एक-मात्र उद्देश है। मदर इंडिया का तेरहवां अध्याय इस प्रकार आरम्भ होता है:—

"कुछ भारतीय राजनीतिज्ञ इस बात पर डटे हैं कि भारतीय जनता के लिए अनिवार्य्य शिक्षा की व्यवस्था होनी चाहिए। वे कहते हैं:—इंगलैंड ने अपने घर में तो बहुत समय पूर्व अनिवार्य्य शिक्षा आरम्भ की थी। हमारे देश में वह ऐसा ही क्यों नहीं करता? क्योंकि भारतीय जनता को मूर्ख रखने से ही उसका स्वार्थ सधता है।"

मिस मेयो लिखती है कि 'उस समय मद्रास-प्रान्त में अब्राह्मण-दल के नेता' पनगल नरेश ने उसे इस बात का 'बढ़ा ज़ोरदार उत्तर दिया था।

"उन्होंने कड़क कर कहा—'सब व्यर्थ बक रहे हैं। अँगरेज़ों के आने से पहले ५,००० वर्षों में ब्राह्मणों ने हमारी शिक्षा के लिए क्या किया? क्या मैं आपको स्मरण दिलाऊँ कि नीची जाति के लोग यदि कभी पुस्तके पढ़ने का साहस करते थे तो ब्राह्मण लोग उनके कानों में सीसा गला कर छोड़ देना अपना अधिकार समझते थे। वे कहते थे कि सब विद्याओं का सम्बन्ध केवल उन्हीं से है। हमारे लिए मुसलमानी राज्य भी प्राचीन हिन्दू-शासन की अपेक्षा अच्छा था। पर केवल ब्रिटेन के राज्य में शिक्षा का द्वार सबके लिए खुला है। अब सरकारी स्कूल, कालिज और विश्वविद्यालयों में सब जाति, सब संप्रदाय और सब वर्ग के लोग भर्ती हो सकते हैं।"

इस वक्तव्य के पक्ष में एबे डुबोइस की पुस्तक से दो उद्धरण दिये गये हैं। पहले उद्धरण को अपने साधारण स्वभाव के अनुसार मिस मेयो ने उसके प्रासङ्किक प्रकरण से बिलकुल छिन्न-भिन्न करके रखा है। उसे हम नीचे देते हैं :—

"डुबोइस लिखता है—'ब्राह्मण लोग इस बात को भली भांति जानते थे कि ज्ञान उन्हें दूसरी जातियों पर कितना नैतिक प्रभुत्व देगा। इसलिए उन्होंने इसे एक रहस्य की वस्तु बना दिया और यथाशक्ति अन्य जातियों को कभी इसके पास फटकने भी नहीं दिया?"

जिस पैरा ग्राफ़ से यह उद्धरण लिया गया है उसके प्रथम दो वाक्यों को मिस मेयो ने छोड़ दिया है क्योंकि उसमें हिन्दुओं की इस बात की प्रशंसा की गई थी कि वे अति प्राचीन काल से विद्योपार्जन करते चले आ रहे हैं और ब्राह्मण तो सदा इसके भाण्डार[] ही रहे हैं। मिस मेयो इस प्रकार का 'हानिकारक' वक्तव्य अपनी पुस्तक में नहीं जाने देना चाहती थी।

एवे की बातें कहाँ तक सत्य हैं इस पर हम विषय-प्रवेश में विचार कर चुके हैं। और पुनर्वार इस बात के स्मरण दिलाने की आवश्यकता नहीं है कि कोई निष्पक्ष जिज्ञासु उस दूषित सामग्री पर विश्वास नहीं कर सकता। मिस मेयो के दूसरे साक्षी पनगल-नरेश ने—जैसा कि विषय-प्रदेश में उद्धृत उनके लेख से पता चलेगा—यह स्पष्ट कर दिया है कि अन्य स्थानों की भाँति यहाँ भी मिस मेयो ने 'इनवर्टेड कामाओं' के अनुचित प्रयोग का अपराध किया है। इनवर्टेड कामाओं में जो भाषा लिखी गई है वह इसी अमरीका की पत्रकार महिला की है। पनगल-नरेश की नहीं। राजा ने केवल शूद्रों के लिए वेदाध्ययन की मनाही का उल्लेख किया है। पर मिस मेयो ने अपने सुप रिचित व्यापार की चालों का सहारा ले कर उसे अत्यन्त घातक रूप दे दिया है। इसमें सन्देह नहीं कि वेदपाठ 'सब विद्याएँ सीखने' और 'सब पुस्तकें अध्ययन करने' के बराबर नहीं है। इसके उपरान्त, ब्राह्मणों ने प्राचीन काल में क्या किया और क्या नहीं किया उससे वर्तमान निरक्षरता का क्या सम्बन्ध है? परन्तु मिस मेयो एक ऐसा आधार उपस्थित करने के लिए चिन्तित थी कि जिसकी सहायता से वह यह सिद्ध कर सके कि भारत में शिक्षा के लिए सरकार ने जो कुछ किया वह प्रशंसनीय है और इस ओर हिन्दू जो पिछड़े हुए हैं उसका सारा दोष उन्हीं के मत्थे है।

पनगल-नरेश का वक्तव्य एक दल-विशेष से सम्बन्ध रखता है और डुबोइस का वक्तव्य प्रामाणिक नहीं है। यह मान लिया जाय कि ब्राह्मण इतने दुष्ट थे कि उन्होंने सम्पूर्ण अब्राह्मण जाति के लिए शिक्षा का द्वार बन्द कर दिया—जो कि सर्वथा असत्य है—तो क्या एक पश्चिनीय शासन के लिए, जो ब्राह्मणों का तीव्र आलोचक है और जो अपने को सभ्य और 'अप-टू-डेट' कहता है, इस शताब्दी में भी ऐसा व्यवहार करना उचित है, क्या हम इसका यह अर्थ निकालें कि आधुनिक सफेद ब्राह्मणों ने प्राचीन भारत के काले और पीले ब्राह्मणों का स्थान ले लिया है और योरपीय जातियों से भिन्न वंशज जातियों को अज्ञान और बन्धन में रखने के लिए वे उन्हीं का अनुगमन कर रहे हैं।

परन्तु हिन्दू ब्राह्मणों को जो दोष लगाया जाता है वह निराधार है। और इसको निराधार सिद्ध करने के लिए हमारे पास प्रबल प्रमाण हैं। इस विषय पर एक ईसाई मिशनरी रेवरेंड 'एफ॰ ई॰ की' की लिखी एक छोटी सी पुस्तिका[] हमारे सामने है। की महाशय ब्राह्मणों के दलाल नहीं हैं। आगे मैं इसी पुस्तक के आधार पर कुछ निवेदन करूँगा।

'रेवरेंड' 'की' ने ब्राह्मणों की शिक्षण-पद्धति को अति प्राचीन बतलाया है। वेदों के भिन्न भिन्न अङ्ग जिस समय पूर्णता प्राप्त कर चुके थे उस समय ब्राह्मणों की शिक्षण-पद्धति अति प्राचीन ही नहीं बरन भली भांति सुसङ्गठित भी थी।[] ब्राह्मणों की विद्यापीठों में पढ़ाई का क्रम आदि क्या था इस विषय का सविस्तर वर्णन करना अनावश्यक होगा। साधारणतः ब्राह्मणों के बालक वेद और दर्शन-शास्त्र का अध्ययन करते थे और इन्हीं विषयों के वे विशेषज्ञ होते थे। क्षत्रियों और वैश्यों के लिए ब्राह्मणों की अपेक्षा वेदाध्ययन की कम आवश्यकता समझी जाती थी। क्षत्रियों और वैश्यों को जीवन में जो कार्य्य करने पड़ते थे उनके लिए जिस प्रकार की शिक्षा आवश्यक होती थी वही वे वयस्क होने से पहले प्राप्त करते थे। धीरे धीरे उनका ब्राह्मणों के स्कूलों में जाना कम होने लगा और उनके भविष्य के कार्य्यों के लिए औद्योगिक स्कूल या कम से कम गार्हस्थ शिक्षा की उत्पत्ति[] हुई। जब सबसे प्राचीन धर्मशास्त्रों की रचना हुई थी तब यह शिक्षण-पद्धति पूर्ण रीति से अपना कार्य्य कर रही थी। यह रचना-काल ईसा से ५०० वर्ष पहले का माना जाता है और ये धर्मशास्त्र अब तक प्रचलित हैं। यह प्रथा चल पड़ी थी कि ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य तीनों का यज्ञोपवीत संस्कार होता था। इस संस्कार के अनुसार वे ब्राह्मण गुरुओं के यहाँ पढ़ने जाते थे। और कम से कम १२ वर्ष[] तक विद्याध्ययन[] करते थे।

इसके पश्चात् (ईसा से पहले छठी और चौथी सदी के मध्य में) क्षत्रियों की शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया जाने लगा। उस समय राजनीतिविद्या की उन्नति हो चुकी थी। 'भारतीय राजकुमारों की शिक्षा बहादुरी के समय के योरपीय वीरों की शिक्षा से किसी अंश में घट कर न थी। सबसे प्रबल विचार यह था कि राजा और सरदारों का कर्तव्य है कि वे निर्बलों की रक्षा करके समाज के प्रति अपने कर्त्तव्य का पालन करें। उनका पद गौरव के लिए या सुखभोग के लिए इतना नहीं समझा जाता था जितना दूसरों की सेवा के लिए।"

मनुस्मृति के आधार पर रेवरेंड 'की' लिखते हैं:—

"वैश्य को रत्नों, भोतियों, धातुओं, वस्त्रों, सुगन्धों और रसों का मूल्य अवश्य जानना चाहिए। उसे अच्छे और बुरे खेतों का ज्ञान होना चाहिए। तथा उसे बीज बोने की कला आनी चाहिए। उसे नाप और तौल का भी पूर्ण ज्ञान होना चाहिए। इसके अतिरिक्त उसे क्रय-विक्रय की वस्तुओं के गुणागुण, भिन्न भिन्न देशों की सुविधा और असुविधा, बिक्री के माल पर लाभ या हानि का अन्दाज़ा और पशुपालन आदि की जानकारी होनी चाहिए। उसे कर्मचारियों के समुचित वेतन का और भिन्न भिन्न भाषाओं का ज्ञान भी रहना चाहिए।[]

ब्राह्मणों के विद्यालय 'तोल' कहलाते थे और चारों तरफ़ गाँवों और शहरों में फैले हुए थे[], कभी कभी किसी मुख्य तीर्थस्थान में या राजधानी में भी पास पास बहुत से तोल होते थे और सब मिल कर एक प्रकार के विश्व-विद्यालय की सृष्टि करते थे। बनारस और नदिया इसके उदाहरण हैं।

रेवरेंड की ईसा से कई शताब्दियों पूर्व की प्राचीन भारतीय शिक्षण-पद्धति के अनुसार गुरु और शिष्य के जीवन में एक अत्यन्त चित्ताकर्षक और सुन्दर चित्र[] का अनुभव करते हैं। अध्यापक किसी आर्थिक लाभ की दृष्टि से शिक्षा नहीं देता था, बल्कि शिक्षा देना वह अपना एक मात्र कर्त्तव्य समझता था। उसे शुल्क लेने की आज्ञा नहीं थी। शिक्षा समाप्त कर चुकने पर शिष्य गुरु को दक्षिणा देता था। किन्तु धनी शिष्य को छोड़कर और किसी अवस्था में वह समुचित दक्षिणा नहीं होती थी[१०]। शिष्य को, चाहे वह धनी हो चाहे निर्धन, सादा जीवन व्यतीत करने की शिक्षा दी जाती थी और उसका स्वभाव आत्म-संयम, श्रद्धा और आत्म-सम्मान के साँचे में ढाला जाता था। नियंत्रण कठिन होता था पर उसमें कटुता या पाशविकता का भाव नहीं रहता था। शिष्य को दण्ड देने में डिकेन्स के समय के अँगरेज़ों की अपेक्षा हिन्दू कहीं अधिक दयालुता से काम लेते थे। 'की' ने गौतम के यह नियम बनाने का उल्लेख किया है। 'शिष्य को शारीरिक दण्ड कदापि न दिया जाय। यदि उसके सुधार करने का कोई और उपाय न हो तो महीन कोड़े या बेत का प्रयोग किया जाय। यदि अध्यापक उसे किसी और चीज़ से मारेगा तो वह राज-दण्ड का भागी होगा।' मनु भी यही नियम स्वीकार करते हैं पर इतना और कहते हैं कि शरीर के कोमल अङ्गों पर चोट न की जाय। हाँ, आपस्तम्भ ने 'डराने, उपवास कराने, ठंडे पानी से नहलाने और स्कूल से निकाल देने' की भी आज्ञा दी है।[११]

अधीर पाठक पूछेंगे कि शूद्रों के लिए क्या विधान है? रेवरेंड 'की' इसके उत्तर में लिखते हैं कि 'ब्राह्मण की शिक्षा से शूद्रों को सदा दूर रखा जाता था। पर शूद्रों ने अपने बच्चों के शिक्षा के लिए अपनी खास पद्धति का निर्माण कर लिया था। सर्वसाधारण की जिन आवश्यकताओं की पूर्ति ब्राह्मणों के स्कूलों की शिक्षा से नहीं हो सकती थी उनके लिए सर्वप्रिय शिक्षा-प्रणाली का जन्म हुआ[१२]'। अपने में बहुत से दोषों के होते हुए भी वर्णाश्रम-धर्म कला-कौशल को उच्च कोटि का बनाये रखने में बड़ा सहायक हुआ था। 'एबे डुबोइस' ने भी इसकी प्रशंसा की थी। 'की' महाशय कहते हैं—'भारतवर्ष में सुन्दर कला और दस्तकारी की ओर शताब्दियों से जन-प्रवृत्ति थी। और भविष्य में इनकी और भी उन्नति होने की आशा है।' प्रत्येक व्यापारी या दूकानदार के बालकों को घर पर ही शिक्षा मिलती थी। प्रायः वे अपने पिता के से ही कार्य करने के लिए शिक्षित किये जाते थे।' 'बालकों के हाथ में वास्तविक वस्तुएँ दी जाती थीं उन्हीं पर प्रयोग करते करते उन्हें अनुभव होता था और वे शिक्षित होते थे। उनकी शिक्षा में स्कूल के कमरों की कृत्रिमता न थी।' अपना गुण अपने पुत्र को सौंपने में पिता को बड़ा आनन्द आता था। 'भारतीय संग्रहालय के नक्क़ाशी के पत्थरों में एक हौदा है जिस पर नाक्क़शी का काम करने के लिए दिल्ली के मुगल बादशाहों ने एक कुटुम्ब को उसकी तीन पीढ़ियों तक नौकर रखा था।' कारीगरी के कई एक कामों के लिए बालकों को एक खास सीमा तक नियमित रूप से ड्राइङ्ग की शिक्षा दी जाती थी। 'भारतवर्ष में दस्तकारी की शिक्षा एक-मात्र व्यापारिक उद्देश से दी जाती थी। और इसलिए वह संकुचित रूप में भी थी।' 'बहुत से कामों में लिखने-पढ़ने के ज्ञान की सीधी आवश्यकता न पड़ती थी इसलिए उन कामों को करनेवाले लोग लिखते-पढ़ते भी नहीं थे। परन्तु कुछ कामों के लिए संस्कृत के तत्सम्बन्धी ग्रन्थ कंठ कर लिये जाते थे।'

रेवरेंड 'की' ब्राह्मणों की शिक्षा-प्रणाली के सम्बन्ध में अपने निरीक्षण का सारांश इस प्रकार देते हैं[१३]:-

"ब्राह्मणों की शिक्षण-पद्धति, मुस्लिम शिक्षा-प्रणाली की भांति—जिससे कि यह कई बातों में मिलती जुलती श्री—शिक्षा के नवीन उत्थान के पहले योरप में जो शिक्षा प्रचलित थी उससे किसी अंश में न्यून नहीं थी। ब्राह्मण शिक्षकों ने केवल एक ऐसी शिक्षा-पद्धति की रचना ही नहीं की जो राज्यों के विध्वंस और समाजों के परिवर्तन के पश्चात् भी जीती जागती बनी रही वरन उन्होंने इन सहस्रों वर्ष तक उच्च शिक्षा के प्रदीप को भी प्रज्वलित रखा। उनमें ऐसे ऐसे दार्शनिक उत्पन्न हुए जिनकी छाप भारत की शिक्षा पर ही नहीं वरन सम्पूर्ण संसार के बौद्धिक जीवन पर लगी है"।

बुद्ध-धर्म के समय में भी एक विशेष प्रकार की शिक्षण-प्रणाली का विकास और संगठन हुआ। बौद्धों की शिक्षण-पद्धति बहुत कुछ ब्राह्मणों के ही ढङ्ग की थी क्योंकि उसी के आधार पर इसकी रचना हुई थी। बौद्धों के कुछ विद्यापीठ बहुत ही बड़े थे। उनके शिक्षा के उच्च आदर्श ने चीन के कितने ही विद्यार्थियों को भी आकर्षित किया था। उनमें से कुछ ने इन विद्यापीठों के वर्णन लिखे थे जो अब तक मिलते हैं। बौद्धिक शिक्षा केवल धार्मिक शिक्षा न थी। बौद्धिक विद्यापीठों में वैद्यक के अध्ययन पर विशेष ध्यान रखा जाता था। उनका द्वार सब जातियों और सब संप्रदायों के लिए खुला था। कुलीन, अकुलीन, बौद्ध, भावी-बौद्ध और अबौद्ध सभी का स्वागत होता था। बौद्ध भिक्षुकों ने सर्वसाधारण में शिक्षा-प्रचार का महत् प्रयोग किया था। वर्मा में ब्रिटिशों के प्रवेश के समय बौद्ध-आश्रमों के कारण वहाँ का क़रीब क़रीब प्रत्येक पुरुष निवासी साक्षर था। रेवरेंड की कहते हैं—'वर्मा में ब्रिटिश अधिकार के पूर्व वहाँ का प्रत्येक बालक बौद्धिक आश्रमों में जाकर रहता था और भिक्षुकों से शिक्षा ग्रहण कर निकलता था।[१४] इसमें सन्देह नहीं कि ब्रिटिश-शासन में वह देश-व्यापी साक्षरता जीवित न रह सकी। जब मुसलमानों के हाथ में राज्य गया तब भी ये शिक्षण-पद्धतियाँ उसी प्रकार अपना काम करती रहीं। रेवरेंड 'की' लिखते हैं[१५]

"अधिक निर्दयी या अधिक कट्टर मुसलमान बादशाहों में से कुछ ने ब्राह्मणों के विद्यापीठों को नष्ट कर दिया था और विद्यार्थियों को तितर-बितर कर दिया था, पर इस रुकावट के होते हुए भी ब्राह्मणों की शिक्षा जारी रही। हिन्दू-धर्म में बौद्ध-धर्म के मिल जाने से बौद्धों की शिक्षा-सम्बन्धी संस्थाएँ धीरे धीरे नष्ट हो गईं पर कठिनाइयों के होते हुए भी ब्राह्मणों की शिक्षा का काम चलता रहा। और जब बौद्धों की शिक्षा के बड़े केन्द्र नष्ट हो गये तो ब्राह्मणों के विद्यापीठों का महत्व और भी बढ़ गया।"

सर्वसाधारण में प्रचलित प्रारम्भिक शिक्षा का उल्लेख हम पीछे कर आये हैं। यह शिक्षा उच्च कोटि की संस्कृत-शिक्षा के साथ साथ फलती-फूलती रही। यहाँ हम इसके सम्बन्ध में ज़रा विस्तार के साथ विचार करेंगे ताकि इस बात का निर्णय हो जाय कि क्या सार्वजनिक साक्षरता का वास्तव में भारत में पता नहीं था जैसा कि मिस कैथरिन मेयो हमें विश्वास दिलाना चाहती हैं।

रेवरेंड 'की' लिखते हैं।[१६]:—

"ब्राह्मण, बौद्ध और मुसलिम शिक्षा-पद्धति के साथ ही साथ भारतवर्ष के अधिकांश भागों में किसी समय सर्वसाधारण में भी एक प्रकार की आरम्भिक शिक्षा का प्रचार हो उठा था। (इस शिक्षा का द्वार सबके लिए खुला रहता था।) पढ़ना-लिखना और गणित सीखने की सर्वसाधारण को आवश्यकता पड़ी होगी। उसी की पूर्ति के लिए इस शिक्षा का जन्म हुआ था। इससे व्यापारी और किसान लोग विशेष लाभ उठाते थे।"

कोष्टक के शब्द हमारे हैं। और यह स्पष्ट करने के लिए लिखे गये हैं कि यह उक्ति कि भारत की वर्तमान निरक्षरता का सम्पूर्ण या अधिकांश उत्तरदायित्व वर्णाश्रम-धर्म और ब्राह्मणों पर है, किसी अकारण झूठ से कम नहीं हैं। रेवरेंड 'की' का यह कथन बिलकुल ठीक है कि यह स्वभावतः उत्पन्न हुई सर्वसाधारण में प्रचलित आरम्भिक शिक्षण-पद्धति संस्कृत-पाठशालाओं से बिलकुल स्वतन्त्र थी। 'दोनों प्रकार की शिक्षाएँ एक दूसरे पर बिलकुल निर्भर न थीं और उनमें आपस में कोई सम्बन्ध भी नहीं था।' ये आरम्भिक पाठशालायें व्यापारी कृषक और कारीगर आदि के लिए थीं और संस्कृत-पाठशालाएं धार्मिक तथा विद्वान् लोगों के लिए।

इस बात का पता लगाना कि इस राष्ट्रीय शिक्षा-पद्धति की उत्पत्ति कब हुई थी। कठिन है। पर इसमें ज़रा भी सन्देह नहीं कि मुसलमानों के समय में यह बड़ी सफलता के साथ अपना काम करती रही और जब ब्रिटिश लोगों के हाथ में शासन की बागडोर आई तब तक यह मरी नहीं थी। सरकारी काग़जातों में इस अस्त होती हुई शिक्षण-पद्धति का जो वर्णन आया है वह यद्यपि अपूर्ण है पर उससे इसके देशव्यापी होने के सम्बन्ध में कोई सन्देह नहीं रह जाता। 'की' महाशय सरकारी अफ़सरों के लेखों तथा सरकारी काग़जातों में आई बातों का संक्षेप में उल्लेख करते हैं—

"ब्रिटिश सरकार के हाथों में शिक्षा का कार्य्य आने से पहले भारत में यहाँ की खास शिक्षा-पद्धति चारों तरफ़ प्रचलित थी। यह एक या दो प्रान्तों में ही कै़द नहीं थी परन्तु भारत के भिन्न भिन्न भागों में पाई जाती थी। हाँ, कुछ ज़िले औरों की अपेक्षा अधिक उन्नति पर थे। १८२२-२६ में मदरास प्रान्त में शिक्षा सम्बन्धी जाँच हुई थी। उसमें यह गणना की गई थी कि स्कूल जाने योग्य बालकों के छठे भाग से कुछ कम को किसी न किसी प्रकार की शिक्षा मिलती है। इसी प्रकार की एक जाँच १८२३-२८ में बम्बई-प्रान्त में हुई थी। उसमें शिक्षा पानेवाले बालकों की संख्या ८ में १ लिखी गई थी। बङ्गाल के एक ज़िले में आदम ने जाँच करके पता लगाया था कि सम्पूर्ण पुरुषजन-संख्या में १३.२ प्रतिशत मनुष्य शिक्षा ग्रहण करते हैं। दूसरे ज़िले में उन्होंने पता लगाया था कि स्कूल जाने योग्य आयु वाले बालकों में ९ प्रति शत बालक शिक्षा पाते हैं। विलियम वार्ड का कहना है कि बङ्गाल की पुरुष जन-संख्या के पांचवें भाग के पढ़ लिख सकने का अनुमान किया जाता था। सम्भव है भारत के कुछ भागों में जिन तीन प्रान्तों का उल्लेख किया गया है उनकी अपेक्षा पढ़ने लिखने वालों की संख्या कम हो। यद्यपि यह आरम्भिक शिक्षा देशव्यापी थी पर इसमें पुरुष-जन-संख्या का भी बहुत अधिक भाग सम्मिलित नहीं था। और स्त्रियों में तो यह कदाचित थी ही नहीं[१७]।"

अन्तिम वाक्य में 'की' महोदय ने जो अनुमान किया है वह इस शिक्षण-पद्धति के ह्रास के समय जो अङ्क मिल सकते थे उन्हीं के आधार पर है। तब भी कम से कम पञ्जाब की स्त्रियों में साक्षरता का बिलकुल अभाव होने की बात प्रमाणों से सिद्ध नहीं होती। इस बात को आगे हम सरकारी वक्तव्यों से दिखलायेंगे। यहाँ 'की' की पुस्तक के अन्तिम अध्याय का थोड़ा सा रोचक अंश और देख लीजिए[१८]:—

"(बहुत कम देश ऐसे हैं, योरप में तो निश्चय रूप से एक भी नहीं है, जहाँ की शिक्षण-पद्धति का इतना क्रमबद्ध इतिहास पाया जाता हो और जिसका इतना कम परिवर्तन हुआ हो जितना कि भारत की शिक्षण-पद्धति का।) वे लम्बी शताब्दियाँ जिनमें ये शिक्षण-पद्धतियाँ अपना काम कर रही थीं, इस बात की प्रमाण है कि इन शिक्षण-पद्धतियों में कुछ मूल्यवान् बातें अवश्य थीं और वे बातें, जिन्होंने इन पद्धतियों को अपनाया और विकसित किया उनकी आवश्यकता के प्रतिकूल नहीं थीं। उन्होंने कितने ही महान् पुरुषों और सत्य के धुनी खोजकों को उत्पन्न किया है। और बौद्धिक क्षेत्र में उनका कार्य्य किसी दशा में कम नहीं हो सकता। उन्होंने शिक्षा-सम्बन्धी कितने ही महान् आदर्शों को विकसित किया है जो शिक्षा-सम्बन्धी विचार और अभ्यास के लिए बहुत मूल्यवान् हैं (कोष्ठक के शब्द हमारे हैं)

ये उद्धरण एक ऐसी प्रामाणिक पुस्तक से दिये गये हैं जिसके लेखक को कोई हिन्दुओं और भारतीयों का कदापि पक्षपाती नहीं कह सकता। इनसे किसी भी जिज्ञासु को यह विश्वास हो जाना चाहिए कि मिस मेयो की स्थिति बड़ी भद्दी है और जिन आधारों पर उसने अपनी रचना की है वे सर्वथा असत्य हैं।

सौभाग्य से कुछ सरकारी पर्चे भी हमें ऐसे प्राप्त हो गये हैं जिनसे प्रकट होता है कि भारतवर्ष में शिक्षा का कितना अच्छा प्रचार था और प्राचीन पद्धति से हमारी आवश्यकताओं की कैसी पूर्ति होती थी। ब्रिटिश लोगों ने इस देश पर अधिकार करके हमारी उस प्राचीन पद्धति को तो समूल नष्ट कर दिया परन्तु उसके स्थान पर हमारी शिक्षा का कोई ऐसा प्रबन्ध नहीं किया जो पर्याप्त और सन्तोषजनक कहा जा सके। इन पर्चों के सम्बन्ध में डाक्टर लीटनर-कृत 'पञ्जाब में प्राचीन शिक्षण-पद्धति का इतिहास' नामक एक उल्लेखनीय ग्रन्थ है। डाक्टर लीटनर पञ्जाब में शिक्षा विभाग के प्रमुख व्यक्तियों में से थे। लाहौर के गवर्नमेंट-कालेज के वे प्रथम प्रिंसिपल थे और उसके बाद पञ्जाब में शिक्षा-विभाग के सर्वोच्च अधिकारी हुए थे। उन्होंने अपने समय तक अर्थात् १८८० तक जीवित प्राचीन शिक्षण-पद्धति की अत्यन्त तत्परता और सचाई के साथ जो खोज की थी उसी को सरकार ने १८८२ ई॰ में 'नीली किताबों' के रूप में प्रकाशित किया था। अकस्मात् डाक्टर लीटनर ने अपने विषय से सम्बन्ध रखनेवाले कई प्राचीन कर्मचारियों और लेखकों के अनुभव भी अपनी पुस्तक में दे दिये हैं। डाक्टर लीटनर की अमूल्य पुस्तक से अधिक उद्धरण देने के लिए हम पाठकों से क्षमा-प्रार्थना करने की आवश्यकता नहीं समझते क्योंकि इससे अँगरेज़ों के शासन-काल से पहले भारत की शिक्षा-सम्बन्धी स्थिति का पता चलता है। और सत्य तक पहुँचने के लिए विशुद्ध परीक्षा से जो बातें ज्ञात हुई हों उनका सहारा लेना चाहिए न कि मिस मेयो के समान विरुद्ध-मत प्रचारिका के खोखले शब्दों का। प्राचीन प्रारम्भिक शिक्षा-पद्धति का भारतीय ग्राम्य पञ्चायतों[१९] के साथ इतना अधिक सम्बन्ध था कि यहां ग्राम्य पञ्चायतों के सम्बन्ध में एक पैराग्राफ उद्धृत कर देना अनुचित न होगा[२०]

लडलो के मत के अनुसार हिन्दू धर्म की एक बड़ी विशेषता यह है कि—"इस धर्म में सर्वत्र नगर-समितियाँ ग्राम-पञ्चायतों के रूप में मिलती हैं।... इनके अनुसार स्थानिक भूमि का सारा प्रबन्ध इस प्रकार होता है मानो एक व्यक्ति अपनी निजी सम्पत्ति का कर रहा हो......किसी स्थानविशेष पर अधिकार रखनेवाले लोग केवल मनुष्य-समूह के ही रूप में नहीं रहते बल्कि एक सुसंगठित संस्था के रूप में निवास करते हैं।

ऐसे व्यक्तियों के रहते हुए भी कि जिन्हें हम पूर्ण अधिकारी कह सकते हैं, उस संस्था को उस भूमि-भाग पर कुछ विशेष अधिकार प्राप्त रहते हैं और उसके ख़ास कर्मचारी होते हैं.......ग्राम्य जीवन के लिए जो बातें आवश्यक समझी जाती हैं उनके प्रत्येक के पृथक् पृथक् कार्य्यकर्ता होते हैं। पहला मुखिया होता है जिसका सरकार के साथ सम्पूर्ण गाँव के प्रतिनिधि के रूप में सम्बन्ध रहता है। दूसरा पटवारी होता है जो सम्पूर्ण भूमि का, अधिकारियों का और उनके अधिकार के समय आदि का लेखा रखता है तथा व्यक्तियों का हिसाब, पट्टा और पत्र आदि लिखता है। इसके बाद चौकीदार होता है, वह केवल पहरा देने वाला नौकर नहीं होता बल्कि उसी गाँव का एक सदस्य होता है और उसका कार्य वंशपरम्परागत होता है। बदले में उसे भूमि का एक निश्चित भाग प्राप्त रहता है। इन कर्म्मचारियों में एक पुरोहित भी होता है जो प्रायः ब्राह्मण होता है। नियमानुसार पुरोहित का कार्य भी 'वंशपरम्परागत होता है और इस कार्य के लिए उसे भी भूमि का एक भाग प्राप्त रहता'। (एक अध्यापक भी होता है) जो प्रायः ज्योतिषी का भी काम करता है। (कहीं कहीं ज्योतिषी का पद पृथक् ही होता है) यह न सोचिए कि यह पद अपना प्राचीन महत्त्व नहीं रखता......(प्रत्येक हिन्दू ग्राम में) जहाँ कुछ भी प्राचीन श्रादर्श शेष रह गया है (साधारण ज्ञान वितरण का यंत्न होता रहता है) जाति से बहिष्कृत लोगों को छोड़ कर— जिनका समाज से कोई सम्बन्ध नहीं होता—ऐसा कोई बच्चा नहीं जिसे पढ़ना, लिखना और गणित न आता हो? गणित में तो वे निःसन्देह बहुत ही पटु होते हैं......।" (कोष्ठक के शब्द हमारे हैं)

इसमें सन्देह नहीं कि कम्पनी बहादुर के डाइरेक्टर लोग भारत का पक्ष समर्थन करनेवाले नहीं थे। फिर भी श्रीयुत ए॰ पी॰ हावेल[२१] अपनी "१८५४ से पूर्व और १८७०-७१ में ब्रिटिश भारत में शिक्षा" नामक पुस्तक में कम्पनी के कोर्ट आफ़ डाइरेक्टर्स की जून १८१४ में भेजी गई शिक्षा-सम्बन्धी प्रथम डाक से ऐसे अवतरण उद्धृत करते हैं जिनसे हमारी प्राचीन शिक्षण-पद्धति की पूर्णता का ज्वलन्त प्रमाण मिलता है और अकस्मात् यह भी बतला देते हैं कि उसका ख़र्च कैसे चलता था। पाठकों को मालूम होगा कि इनमें और मिस मेयो की अज्ञानयुक्त उथली बातों में कितना प्रबल अन्तर है:—

"इस अवसर पर हम विशेष संतोष के साथ उस प्रसिद्ध आन्तरिक सङ्गठन का उल्लेख करते हैं जो भारत के कुछ भागों में प्रचलित है और जो भूमि की उपज पर एक निश्चित कर लगाकर सार्वजनिक शिक्षा का प्रबन्ध करता है तथा गाँव के अध्यापकों को दूसरे प्रकार के दान भी दिलाता है जिससे अध्यापक समाज के सेवक बन कर काम करते हैं।

"इन अध्यापकों की देख-रेख में शिक्षा की जो पद्धति अतीत काल से चली आ रही है उसे इस देश (इँगलैंड) ने मदरास के भूतपूर्व पादरी रेवरेंड डाक्टर बेल की अध्यक्षता में स्वीकार करके सर्वोच्च आदर प्रदान किया है। अब इसी पद्धति के अनुसार हमारी ( इँगलिश) राष्ट्रीय संस्थाओं में शिक्षण-कार्य्य हो रहा है। क्योंकि यहाँ के लोगों को यह विश्वास हो गया है कि यह पद्धति शिक्षा-क्रम को संक्षिप्त करके भाषा सीखने में बड़ी सुविधा प्रदान करती है।

"कहा जाता है कि हिन्दुओं की यह सम्माननीय और सुसङ्गठित संस्था विप्लवों की चोट से बच गई है। इसी के प्रयत्नों का यह फल है कि भारतवासी ख़त-किताबत और मुनामी में बड़े चतुर होते हैं। इसकी महान् उपयोगिता का हम पर ऐसा प्रबल प्रभाव पड़ा है कि हम चाहते हैं कि आप लोग इसकी वर्तमान दशा को शीघ्र समझ लें और अपनी जांच-पड़ताल के फलों से हमें भी सूचित करें। गांव के अध्यापकों के उचित अधिकारों और स्वत्वों की रक्षा के लिए उन्हें सरकारी सहायता दें और यदि उनमें कोई अधिक गुणी और दक्ष हो तो उसे इस योग्यता के चिह्न स्वरूप कोई अनुकूल सम्मान दें। क्योंकि यद्यपि उनकी स्थिति बहुत निम्नकोटि की प्रतीत होती है, पर यदि उनकी तुलना उन्हीं की स्थितिवाले किसी इस देश के व्यक्ति से की जाय तो पता चलेगा कि सम्पूर्ण भारत में उन अध्यापकों को कितना बड़ा आदर मिलता है।"

इस पर श्रीयुत हावेल निम्नलिखित सम्मति प्रकट करते हैं:—

"इसमें सन्देह नहीं कि अतीतकाल से, जैसा कि यहाँ कहा गया है, ये पाठशालायें चली आ रही हैं। १८३५ ई॰ में केवल बङ्गाल में श्रीयुत आदम ने इन स्कूलों की संख्या १,००,००० तक अनुमान की थी। मदरास में सन् १८२२ ईसवी में सर टामस मुनरो ने इस सम्बन्ध में एक जाँच-समिति नियत की थी। उसने १२,४९८ पाठशालाओं की सूचना दी थी जिनमें १,८८,६५० विद्यार्थी शिक्षा-लाभ करते थे। उन्हीं दिनों बम्बई में भी सम्पूर्ण प्रान्त में उसी प्रकार की पाठशालाएँ पाई गई थीं। यह अत्यन्त दुःख की बात है कि जब प्रत्येक प्रान्त हमारे अधिकार में आया और लोगों में हमारी जीत की धाक जमी तथा उनके हृदयों में युद्ध और दमन से मुक्ति मिलने के लिए हमारे प्रति कृतज्ञता का भाव पैदा हुआ, तब हमने ग्राम्य पाठशालाओं को ग्राम्य शासन-प्रणाली का जो हमें सर्वत्र सुरक्षित रूप में प्राप्त हुई थी, एक आवश्यक अङ्ग बनाकर उस अवसर से लाभ नहीं उठाया।"

कोर्ट आफ़ डाइरेक्टर्स की शिक्षा-सम्बन्धी डाक से लिये गये अवतरण का दूसरा पैराग्राफ़ विशेष ध्यान देने योग्य है। डाक्टर लीटनर कहते हैं:— "जिस प्रकार भारतीय कला-कौशल के नमूने देखकर वर्तमान अँगरेज़ कारीगरों की कला-सम्बन्धी रुचि विकसित हुई है उसी प्रकार भारत की प्राचीन शिक्षण-पद्धति से इँगलैंड के स्कूल भी प्रभावित हुए हैं।[२२]

बङ्गाल का एक स्कूल-निरीक्षक जो १८६८ ई॰ में पञ्जाब के स्कूल देखने के लिए भेजा गया था अपनी रिपोर्ट में एक स्थान पर लिखता है:—

"भारत की इस प्राचीन शिक्षण-पद्धति का निर्माण शास्त्रों के आज्ञानुसार हुआ था, इसी से इसमें धार्मिक कर्त्तव्यों की प्रधानता तथा जीवन के प्रतिदिन के साधारण काय्यों में भी गम्भीरता पाई जाती थी। ग्रामीण समाजों से, जिन्होंने केवल सफ़ाई आदि के कार्य्य ही नहीं वरन माल और जजी के शासन-कार्य्य भी जनता के हाथों में सौंप रखे थे, समाज के भिन्न भिन्न अङ्गों में शिक्षा-प्रचार में अत्यन्त सहायता पहुँचती थी। इस प्राचीन शिक्षण-पद्धति का ही फल है कि इस समय भी देश में अगणित पारशालाएँ चटशालाएँ और तोल फैले हुए हैं और जो, उनकी वर्तमान अवस्था कितनी ही गिरी क्यों न हो, सहस्त्रों वर्ष की उदासीनता, घृणा और अन्य प्रतिकूल परिस्थितियों के बीच में भी जीवित रह कर यह सिद्ध करते हैं कि जन्म के समय उनमें कितनी प्रबल क्षमता रही होगी। वर्तमान समय में धार्मिक आज्ञा निर्बल होती जा रही है, ग्रामीण समाज क़रीब क़रीब नष्ट हो गया है, दस्तकारी सर्वनाश के कगार पर पहुँच गई है, राज्य-कर के अत्यन्त भारी बोझ से देश दबा जा रहा है और एक विदेशी भाषा कचहरी और व्यापार की भाषा बन गई है। इस प्रकार इस प्रचलित शिक्षा के स्वाभाविक प्रोत्साहनों के निर्बल हो जाने से इसकी उन्नति केवल एक उदार सरकार पर, जो जनता को विदेशी शासन से पहुँची हानियों का बदला देने की इच्छुक हो, निर्भर रह गई है। ब्रिटिश-शासन की देख-रेख में जब तक राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक स्थिति फिर से नहीं सुधर जाती तब तक कृत्रिम उपायों से इसे जितना प्रोत्साहन मिल सके, मिलना चाहिए।[२३]

मिस मेयो का द्वेषपूर्ण आक्षेप कि भारतवासियों को मूर्खता और निरक्षरता प्रिय है एक ऐसा असत्य है जिसको कोई आधार नहीं मिल सकता। डाक्टर लीटनर की रिपोर्ट में हम देखते हैं कि[२४]:—

"मैं इस बात का उल्लेख किये बिना नहीं रह सकता कि हिन्दू-मुसलमान और सिक्ख-समाजों के सब वर्गों में शिक्षा की अत्यन्त चाह और उसके प्रति महान् आदर है। और इस 'सूर्य्य के देश' ने अपने बेटों को आवश्यकता से कहीं अधिक आश्चर्य्यजनक प्रतिभा दे रखी है....। पूर्व का देश जैसे तीन हज़ार वर्ष पहले मानसिक संयम, संकृति, और शान्ति का घर था वैसे ही अब भी है। वहाँ की प्रतिभा जैसी व्यापक है, प्रकाशन और मिलने जुलने के साधनों के अभाव से वैसे ही उसकी उपेक्षा भी हुई है। हमारे पास ये सुविधाएँ न हों तो जिन पूर्वी जातियों का हम तिरस्कार करते हैं उनसे बहुत पीछे रह जायँ। अपने हज़ारों मूर्ख भाइयों के बीच से एक चतुर योरप-निवासी अपने विचारों और अविष्कारों को चारों तरफ़ इस तरह पहुँचा देता है मानों वह सम्पूर्ण महाद्वीप की सभ्यता से उत्पन्न हुए विचार या आविष्कार हों। जब पूर्व को भी समाचार-पत्रों और रेलों की सुविधा प्राप्त हो जायगी तब वह यदि अपने सुधारों में पश्चिम का अनावश्यक अनुकरण न करेगा तो अपनी जातियों की प्रतिभा के कारण अपने प्राचीन पद को प्राप्त कर लेगा।"

इस प्रकार के सैकड़ों प्रमाण दिये जा सकते हैं। पर जो ऊपर दिये गये हैं वे पर्य्याप्त हैं। यदि मिस मेयो इन ब्रिटिश लेखकों, शासकों और जान कम्पनी के डाइरेक्टरों को भी हिन्दुओं का पक्षपाती समझे तो इसमें सन्देह नहीं कि उसमें राजा से भी अधिक राज्यवाद होगा। अस्तु, पाठको की विशेष जानकारी के लिए हम यहाँ डाक्टर लीटनर की वह गणना दिये देते हैं जो उन्होंने ब्रिटिश-शासन से कुछ ही समय पूर्व पञ्जाब की साक्षरता के सम्बन्ध में की थी। डाक्टर लीटनर ने पञ्जाब में अपने समय की और ब्रिटिश-शासन से पूर्व की साक्षरता में अत्यन्त शोचनीय अन्तर पाया था। उनकी रिपोर्ट के तीसरे पृष्ठ पर लिखा है:—

"१८५२ के बन्दोबस्त को रिपोर्ट से पता चलता है कि होशियारपुर जैसे पिछड़े ज़िलों में भी प्रति १९.६५ पुरुष-संख्या पर (बालक और युवा सब मिलाकर) एक स्कूल था। यदि इसकी तुलना प्रति २८१८७ जनसंख्या पर एक सरकारी या इमदादी स्कूल से की जाय तो महान् अन्तर प्रतीत होगा।"

सम्पूर्ण प्रान्त के सम्बन्ध में लीटनर साहब लिखते हैं।[२५]

१८५४ की मनुष्य-गणना के अनुसार जिसमें बहुत सी त्रुटियां भी रह गई थीं, सारे प्रान्त में दिल्ली और हिसार की कमिश्नरियों को लेकर जिनमें अब ४,४७८ गाँव और क़स्बे हैं, कुल ३३,३५५ गाँव और कस्बे थे। सम्भवतः यही संख्या १८४९ में भी थी। यदि हम कम से कम ३३,३५५ ऐसी मसजिदों, मन्दिरों, धर्मशालाओं और पवित्र स्थानों के होने की बात मान ले जहाँ कुछ न कुछ शिक्षा दी जाती थी (१८५४ की जांच-पड़ताल के अनुसार जो ३,३७२ पाठशालाओं का पता चला था वे तथा अध्यापकों के घरों पर जो सहस्रों स्कूल लगते थे तो अलग ही हैं।) और प्रति स्कूल में कम से कम दस छात्रों की उपस्थिति मान लें तो हमें पञ्जाब-प्रान्त में ३,३३,५५० छात्रों के पढ़ने का पता चलता है जहाँ अब सरकारी या इमदादी स्कूलों में मिलाकर केवल १,१३,००० छात्र पढ़ते हैं। और प्राचीन ढङ्ग की पाठशालाओं में और भी कम। (क्योंकि पिछली मनुष्य-गणना के अनुसार सब प्रकार की शिक्षा पानेवालों की संख्या केवल १,५७,६२३ है।) रणजीतसिंह के समय में शिक्षा की क्या अवस्था थी इसका पता पिछले अध्याय में दी गई सिक्ख लेखकों की संख्या से चल सकता है। दूसरे प्रकार के प्रसिद्ध विद्वानों की सूची और भी लम्बी है। स्वयं शासन-सम्बन्धी और बन्दोबस्त की रिपोर्टों से भी (जहाँ तक कि मुझे देखने दिया गया है) हम इसी परिणाम पर पहुँचते हैं कि सम्पूर्ण प्रान्त में पढ़ने पढ़ाने का भाव विद्यमान था।"

ब्रिटिश-शासकों ने उपयोगी और प्राचीन शिक्षण पद्धति को निर्मूल करके और उसके स्थान पर कोई नवीन पद्धति प्रचलित करने की परवाह न करके भारतवर्ष के प्रति एक महान् अपराध किया है। डाक्टर लीटनर पञ्जाब से प्राचीन प्रथा के उठने पर विचार करते हुए अन्य बातों के साथ निम्नलिखित परिणामों पर पहुँचे हैं[२६]:—

(१) पञ्जाब में ब्रिटिश-शासन से पहले आरम्भिक शिक्षा और किसी किसी अवस्था में उच्च कोटि की पूर्वीय साहित्यिक और भाषा-सम्बन्धी शिक्षा का भी जैसा विस्तार था वैसा लीटनर के समय में नहीं रह गया था।

(२) पञ्जाब के शासन-विभाग को यह आज्ञा दी गई थी कि वह माफ़ी के मूल्यवान् भूमि-भागों पर, चाहे वे पाठशालाओं और धार्मिक स्थानों के ही लिए क्यों न हों, कर लगा दे। इस प्रकार यहाँ भी बङ्गाल की भांति माफ़ी की भूमि वापस ली जाने लगी।

(३) इसके परिणाम-स्वरूप प्राचीन पाठशालाओं में से धीरे धीरे बहुतों की भूमि छिन गई।

(४) बार बार चेतावनी पाने पर भी पञ्जाब के शिक्षा-विभाग की प्रवृत्ति प्राचीन पाठशालाओं के विनाश की ही ओर अधिक थी, साथ ही इसने अपनी ख़ास आरम्भिक पाठशालाओं की ओर भी कुछ ध्यान नहीं दिया। यह बात १८८० के आस पास के उदार वर्षों की है।

कदाचित् मिस मेयो समझती है कि हिन्दू स्त्रियों की शिक्षा पर कुछ लिखना 'सूत न कपास जुलाहों में लट्ठमलट्ठा' की कहावत चरितार्थ करना है। वह सम्भवतः एबे डुबोइस के मतानुसार जिसका विश्वास नहीं किया जा सकता, लिखती है—'भारतवर्ष के लोग जैसा कि बतलाया जा चुका है स्त्री-शिक्षा के बड़े घोर विरोधी हैं।' यह पहला असत्य है। जो मदर इंडिया के अध्याय १५ में आया है। उसने भारतवर्ष की निरक्षरता की गणना के लिए एक विचित्र दुष्टता से भरा ढङ्ग निकाला है। ब्रिटिश भारत की २४,७०,००,००० जन-संख्या में ५० प्रतिशत स्त्रियाँ हैं। इसलिए जिस संख्या को साक्षर किया जा सकता है उसमें से वह १२,५०,००,००० निकाल देती है। इसके पश्चात् वह '६० लाख अछूतों' को निकालने चलती है। यह दूसरा असत्य है।

अभी हम केवल प्रथम असत्य पर विचार करेंगे। आगे चलकर हम स्त्रियों के स्थान के सम्बन्ध में हिन्दू-मत उद्धृत करेंगे। यहाँ हम केवल स्त्रियों की वर्तमान साक्षरता की समस्या पर विचार करेंगे।

डाक्टर लीटनर ने, जिसकी बहुमूल्य पुस्तक से हम इतने उद्धरण दे चुके हैं, पञ्जाब में, ब्रिटिश शासन से कुछ ही समय पूर्व की स्त्री-शिक्षा पर बड़ा प्रखर प्रकाश डाला है[२७]

"पञ्जाबी स्त्रियाँ कम या अधिक मात्रा में केवल स्वयं-शिक्षिता ही नहीं होती थीं बरन दूसरों को भी सदैव शिक्षादान करती थीं। उदाहरण के लिए पञ्जाब पर ब्रिटिश का अधिकार होने से पूर्व हमें दिल्ली में बालिकाओं की ६ सार्वजनिक पाठशालाएँ मिलती हैं जिन्हें पञ्जाबी स्त्रियाँ चलाती थीं और जो इसी कार्य्य के लिए दक्षिण में आई थीं।

"इसी प्रकार दूसरे स्थानों में भी पञ्जाबी स्त्रियां शिक्षिका का कार्य्य करती हुई पाई जाती थीं, ठीक वैसे ही जैसे वे गुरु या पाधाजी अपने प्रान्त में न पूछे जाने के कारण उसके बाहर शिक्षा देने जाते थे। मुसलमानों में कितनी ही विधवाएँ बालिकाओं को कुरान की शिक्षा देना अपना पवित्र कर्त्तव्य समझती थीं। और दिल्ली यद्यपि उत्तर पच्छिम सीमा-प्रान्त (वर्तमान संयुक्त प्रान्त) की भांति स्त्री-शिक्षा में पञ्जाब से बहुत पीछे थी तो भी १८४५ ई॰ में वहां लोगों के अपने निजी घरों पर बालिकाओं की अनेक पाठशालाएँ थीं।"

१८८२ ई॰ में शिक्षा-सम्बन्धी जांच कमीशन के सामने डाक्टर लीटनर ने जो गवाही दी थी उसके निम्न लिखित अंश से स्त्री-शिक्षा की प्राचीन प्रणाली का सविस्तर वर्णन मिलता है[२८]:—

"प्रश्न ४१—क्या इस प्रान्त में बालिकाओं की शिक्षा लिए कोई प्राचीन पद्धति है जिससे आप परिचित हैं? यदि है तो उसका स्वरूप क्या है?"

"उत्तर ४१—हाँ, उदाहरण के लिए मौलवियों और भाइयों की पत्नियाँ अपने पतियों से शिक्षा ग्रहण करती हैं और अपने बालकों को एक निश्चित आयु तक पढ़ने और धार्मिक कर्तव्यों की शिक्षा देती हैं। प्रतिष्ठित मुसलमानों की पत्नियां भी प्रायः पढ़ और लिख सकती हैं। (यद्यपि लिखना सीखने के लिए उन्हें इतना प्रोत्साहन नहीं मिलता जितना पढ़ना सीखने के लिए। इसका कारण बताने की यहाँ आवश्यकता नहीं है।) कुछ स्त्रियां फ़ारसी से बड़ी विद्वान होती हैं। एक प्रसिद्ध मुसलमान परिवार से मैं परिचित हूँ और मुझे मालूम हुआ है कि उसमें कई एक स्त्रियाँ उच्च कोटि की कवि हैं। मुसलमानों और सिक्खों में स्त्रियों का स्थान जैसा अनुमान किया जाता है उससे बहुत ऊँचा है। और यदि उनके गार्हस्थ्य जीवन के पर्दे में व्यतीत होने में बाधा न पहुँचे तो उनकी शिक्षा का विरोध किसी को नहीं हो सकता। देशी राज्यों में भी पढ़ी-लिखी स्त्रियों का यही औसत है यद्यपि वहाँ स्त्री-शिक्षा का इतना ढोल नहीं पीटा गया जितना ब्रिटिश राज्य में। ब्रिटिश राज्य में भी मुझे इस बात में सन्देह नहीं कि बहुत सी प्रतिष्ठित स्त्रियाँ लिख-पढ़ सकती हैं....। चिनाव और अटक के बीच के जिलों में सिक्खों की स्त्रियों के लिए देशी स्कूल सदैव से चले आ रहे हैं। पुरोहितों की स्त्रियाँ अपनी समाज की अन्य स्त्रियों के यहाँ जायें और उन्हें पढ़ावें यह तो उचित और ठीक कहा जाता है पर बालिकाओं का विशेषकर विवाह के योग्य होने पर पाठशाला जाने के लिए बाज़ार से निकलना, जहां तक मैं समझता हूँ, वर्जित है। धार्मिक ग्रन्थों का खूब पढ़ना, सीना पिरोना, गोटा पट्टा करना, गृहस्थी के लिए अत्यन्त सावधानी के साथ भोजन पकाना, सफ़ाई से रहना, दुःख में कोमल व्यवहार करना; और घरेलू झगड़ों का नर्मी से अन्त करना आदि गृह-शासन की और उच्च जातियों में स्त्री-शिक्षा की विशेष बातें हैं। वे अपनी स्त्रियों के प्रति जो आदर और पवित्र प्रेम प्रदर्शित करते हैं उसका बाह्य रूप भी हमें योरप में नहीं मिलता।"

तो यह है कि इस देश में ब्रिटिश लोगों का अधिकार होने के पश्चात से ही स्त्री-शिक्षा का ह्रास आरम्भ हो गया था। डाकर लीटनर ने जो बातें अपने जाँच पड़ताल में मालूम की थीं उन्हीं के कारण विवश होकर उन्हें इस निश्चय पर पहुंचना पड़ा था। डाक्टर लीटनर को इस ह्रास के जो कारण प्रतीत हुए वे उनकी 'नीली किताब में' संक्षेप में इस प्रकार दिये गये हैं[२९]

पञ्जाब में अँगरेज़ों का अधिकार जमने के बाद से स्त्री-शिक्षा का बड़ा ह्रास हुआ है। इसके कारण निम्नलिखित हैं:—

(क) पहले माता बच्चे को पञ्जाबी पढ़ा सकती थी। अब जहाँ जहाँ बच्चे उर्दू पढ़ते हैं, वहाँ वहाँ माता की शिक्षा देने की शक्ति नष्ट हो जाती है।

(ख) धार्मिक भावों के निर्बल हो जाने से प्राचीन पद्धति की पाठशालाओं की संख्या कम हो गई है यही हाल स्त्रियों द्वारा संचालित पाठशालाओं का भी हुआ है।

(ग) पहले बुरे आचरण के लिए स्त्रियों को कठोर दण्ड मिलता था इसलिए आचरण की रक्षा का पूरा ध्यान रखा जाता था। और स्त्रियों को अधिक शिक्षा और अधिक स्वतन्त्रता देने में कम विरोध हो सकता था। पर हमारे कानून के अनुसार, यदि तुलनात्मक दृष्टि से कहा जाय तो व्यभिचार बड़ी स्वतन्त्रता से किया जा सकता है और इसका परिणाम यह हुआ है कि स्त्रियों की स्वाधीनता के पक्ष में जो भी उद्योग किया जाता है उस पर पुरुष जनता द्वेष से तीव्र दृष्टि रखती है।

(घ) हम लोगों द्वारा दी गई स्त्री-शिक्षा से उच्च कोटि के लोग सदैव बचते थे। क्योंकि यह एक ऐसे वर्ग की स्त्री-शिक्षा से मिलती-जुलती थी जो यद्यपि दोष-पूर्ण नहीं था जैसा कि हम उसे बना रहे हैं, पर सम्माननीय भी नहीं था।

(ङ) सार्वजनिक स्थानों में कन्यापाठशालायें रख कर और 'स्त्री-शिक्षा-प्रचार आन्दोलन के समय की गई समस्त प्रतिज्ञाओं को भुलाकर सदैव उनके निरीक्षण करने का उद्योग करके हम लोग स्वयं उन पाठशालाओं के अभिभावकों को भी अपनी कन्यायें भेजने से रोक देते हैं।

"इसलिए पदाधिकारियों के हस्तक्षेप के कारण उच्च कोटि के लोगों में स्त्री-शिक्षा का कोई महत्त्व नहीं रहा। और इसी हस्तक्षेप के कारण पञ्जाब में कितनी ही बातों में बड़े बड़े अनर्थ भी हो चुके हैं। अब इसका उपाय एक-मात्र यही है कि जन-साधारण की भलाई के लिये पदाधिकारी वर्ग परस्पर मिलकर कुछ समय के लिए अपना अधिकार उठा लें और जनता को इस सम्बन्ध में स्वराज्य दे दें।"

हमने अपनी ओर से अत्यन्त सावधानी से इन बड़े बड़े उद्धरणों को प्रस्तुत किया है। पाठकों पर यह प्रभाव डालने की हमारी इच्छा नहीं है कि अपना मत सिद्ध करने के लिए या मिस मेयो की अज्ञानता पूर्ण पर दुष्टतावश लिखी गई बातों को असत्य ठहराने के लिए, हमने इन प्रमाणों को बिना परिश्रम ही इकट्ठा कर लिया है। इस विषय का किञ्चित् मात्र अध्ययन भी निम्नलिखित परिणामों पर बलात् पहुँचा देता है:—

(१) कि अति प्राचीन काल से ही सम्पूर्ण भारतवर्ष में एक सुसङ्गठित और व्यापक शिक्षण-पद्धत्ति काम कर रही थी।

(२) कि इस पद्धति के दो रूप थे। एक केवल ब्राह्मणों और उच्च कोटि के सुसंस्कृत लोगों के लिए थी जिसका उद्देश्य धार्मिक और साहित्यिक ग्रन्थाध्ययन आदि था। दूसरी व्यापारियों, किसानों और कारीगरों के लिए थी जिसका उद्देश्य आर्थिक योग्यता और कारीगरी में निपुणता प्राप्त करना था। यह पद्धति इंगलैंड की ट्यूढर पद्धति से जिसमें कि लोग स्वानुभव से काम सीखते थे, मिलती-जुलती थी।

(३)कि यह पद्धति हमारी ग्राम्य शासन-पद्धति का एक अङ्ग थी और इस देश में ब्रिटिश का अधिकार होने तक सुसङ्गठित रूप में सुरक्षित थी।

(४) कि इस पद्धति के विशेष राजनैतिक होने का भ्रम हो गया था और इससे यह ब्रिटिश शासकों द्वारा निर्मूल की गई, विशेषतः उन शासकों द्वारा जो लार्ड मेकाले के समय से अपने अधीन कर्मचारियों और किराये के टट्टू-क्लर्कों की सृष्टि करने के लिए चिन्तित थे।


  1. हिन्दू मैनर्स तृतीय संस्करण (आक्सफ़ोर्ड यूनीवर्सिटी प्रेस, पृष्ठ ३७६)
  2. एन्सियंट इंडियन एज्युकेशन। (प्राचीन भारत में शिक्षा) आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस १९१८
  3. वही पुस्तक पृष्ठ २७
  4. उसी पुस्तक से, पृष्ठ ५७
  5. पृष्ठ ९७
  6. पृष्ठ ७१, ७२
  7. वही पुस्तक, पृष्ट ७२-७३
  8. पृष्ठ ५१
  9. पृष्ठ ३६
  10. पृष्ठ, ३५
  11. पृष्ठ ३५
  12. पृष्ठ ५७ इसके आगे कला-कौशल-सम्बन्धी शिक्षा के जो वाक्य उद्धृत किये गये हैं वे 'की' की पुस्तक के ७८-८० पृष्ठों से लिये गये हैं।
  13. वही पुस्तक, पृष्ट ५७
  14. पृष्ठ ५०-५१।
  15. 'की' के आरम्भिक शिक्षा-सम्बन्धी उद्धरण उसकी पुस्तक के पाँचवें अध्याय से लिये गये हैं।
  16. वही पुस्तक, पृष्ठ १०७।
  17. हम यह कह सकते हैं कि प्राचीन भारतीय पाठशालाशों और उनमें पढ़ने वाले छात्रों की संख्या कम अनुमान की गई थी। जहाँ सहानुभूति रखने वाले अफ़सरों की प्रधानता में काम होता था वहाँ भी नीचे के कर्म्मचारी जो संख्या एकत्रित कर रहे थे इस शिक्षण पद्धति के प्रति उचित सहानुभूति से काम न लेते थे। इसके अतिरिक्त जो इस कार्य्य में लगे थे उन्हें स्वयं जनता भी सन्देह की दृष्टि से देखती थी। डाक्टर लीटनर इन कठिनाइयों का वर्णन करते हुए पञ्जाब में रावलपिण्डी ज़िले की प्राप्त संख्याओं का उल्लेख करते हैं:— "इस जिले में जनता से जो संख्या प्रात हुई थी उसके अनुसार १७१ स्कूल और ३,७०० विद्यार्थी थे। ज़िले के अफ़सरों की दी हुई पहली संख्या १८७८-७९ की ३०२ स्कूलों और ५,४५४ विद्यार्थियों की थी। पर जब मिस्टर मिलर ने इस कार्य्य को अपने हाथ में लिया तो ६४१ स्कूलों और ७,१४५ विद्यार्थियों का होना सिद्ध हुआ।" लीटनर-कृत 'पञ्जाब में प्राचीन भारतीय शिक्षा का इतिहास, पृष्ठ, १४।
  18. उसी पुस्तक से, पृष्ट १६९।
  19. "जहाँ हम लोगों ने ग्राम्य पंचायतों को नष्ट कर दिया, जैसे बङ्गाल में, वहीं उन्हीं के साथ ग्राम्य पाठशालाओं का भी अन्त हो गया। यह उद्धरण लीटनर ने अपनी पुस्तक के १८ वें पृष्ठ पर लडलो लिखित ब्रिटिश भारत का ......दिया है।
  20. वही पुस्तक, पृष्ट १८।
  21. डाक्टर लीटनर द्वारा उद्धृत। वही पुस्तक पृष्ठ—२१,२२
  22. वही पुस्तक, पृष्ठ २०
  23. उसी पुस्तक से, पृष्ठ ४२
  24. उसी पुस्तक से, पृष्ठ ८५
  25. वही पुस्तक, पृष्ट १४५
  26. वही पुस्तक, पृष्ठ १४८
  27. वही पुस्तक, पृष्ठ ९७-९८
  28. वही पुस्तक, पृष्ठ १०३-१०४
  29. उसी पुस्तक से, पृष्ठ १०८-१०९