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दुखी भारत/३० अँगरेज़ी राज्य पर अँगरेजों की सम्मतियाँ

विकिस्रोत से
दुखी भारत
लाला लाजपत राय

प्रयाग: इंडियन प्रेस, लिमिटेड, पृष्ठ ४१० से – ४२१ तक

 

तीसवाँ अध्याय

अँगरेज़ी राज्य पर अँगरेजों की सम्मतियाँ

मिस मेयो की पुस्तक राजनैतिक आन्दोलन से आरम्भ हुई है और इसी में इसका अन्त भी हुआ है। प्रत्येक अध्याय में भारतवर्ष में ग्रेटब्रिटेन की कारगुज़ारियों की ख़ूबी और अँगरेज़ अफ़सरों की लोक-प्रियता का कुछ न कुछ वर्णन किया गया है। प्रत्येक अध्याय में भारतवासियों के जीवन और आकांक्षाओं की दिल्लगी उड़ाई गई है और उन पर घृणा की बौछारें की गई हैं। पुस्तक को आदि से अन्त तक पढ़ जाइए। एक जाति की हैसियत से भारतवासियों की प्रशंसा में आपको एक शब्द नहीं मिलेगा। और न कोई शब्द ऐसा मिलेगा जिसमें ब्रिटिश की निन्दा की गई हो। इस दृष्टि से पुस्तक एक ही है। भारतवर्ष के सम्बन्ध में अँगरेज़ों ने अनेक पुस्तकें लिखी हैं। परन्तु उनमें ऐसी एक भी नहीं है जो पूर्णरूप से भारतवासियों के विरुद्ध हो या जो पूर्णरूप से अँगरेज़ों का पक्ष समर्थन करनेवाली हो। उनकी पुस्तकें प्रायः भारतवर्ष में ब्रिटिश-नीति को उचित ठहराती हैं और कहीं कहीं उसकी त्रुटियों और दोषों को भी स्वीकार करती हैं। परन्तु मिस मेयो की राय में भारतवर्ष में ब्रिटिश-शासन सब प्रकार से पूर्ण है फिर भी यह देश एक ऐसा नरक बना हुआ है जिससे समस्त संसार को ख़तरा है। यह दोष भी पूरा पूरा भारतवासियों का ही है। अँगरेज़ी राज्य का इसमें ज़रा भी दोष नहीं। आवेशपूर्ण और लम्बी-चौड़ी बातें बनाने में वह सबसे बाज़ी मार ले गई है। ब्रिटिश-राज्य के अत्यन्त निर्लज्ज समर्थकों को भी उसने पछाड़ दिया है। शासन-व्यवस्था श्रेष्ठ है, पूर्ण है, सच्ची है और मानवीय है परन्तु शासित लोग पूर्णरूप से नीच, व्यभिचारी, मैले, गन्दे, अयोग्य, रोगी, पतित, मूर्ख और दरिद्री हैं-यही भारत का चित्र है जो मिस मेयो ने उपस्थित किया है। उसके मस्तिष्क में एक क्षण के लिए भी यह बात नहीं बैठती कि ये दोनों बातें पूर्णरूप से एक दूसरी के प्रतिकूल हैं।

विदेशी शासन-मात्र, चाहे वह प्रजातान्त्रिक हो चाहे नौकरशाही, अनीति-मूलक, अस्वाभाविक और पतन-मय होता है। स्वभाव से ही बह अन्यथा नहीं हो सकता। अँगरेज़ लोग बड़े सदाचारी हो सकते हैं पर आखिरकार वे मनुष्य ही तो हैं। और अच्छे से अच्छे मनुष्य भी दूसरों की भलाई के लिए उन पर शासन नहीं कर सकते। यही कारण है कि लोग एकाधिपत्य शासन की निन्दा करते हैं। परन्तु यदि एकाधिपत्य शासन, अपने स्वरूप में राष्ट्रीय होते हुए भी, बुरा है और सदैव प्रजा को सुख और उन्नति की ओर नहीं ले जाता तो विदेशी प्रजातन्त्र या एकाधिपत्य शासन ('लास्ट डोमीनियम के' लेखक ने भारतवर्ष में ब्रिटिश शासन-पद्धति को एकोऽहं द्वितीयो नास्ति ही कहा है) कदाचित् ही अच्छा हो सकता है! बड़े-बड़े अंगरेजों ने स्वीकार किया है कि भारतवर्ष का अँगरेज़ी राज्य इस साधारण नियम से बाहर की बात नहीं हो सकता। प्रोफ़ेसर जेसीले ने 'इँगलेंड का विस्तार' नामक पुस्तक में भारतवर्ष के लिए अंगरेजी शासन के लाभदायक होने में गम्भीर सन्देह प्रकट किया है। वे बड़े महत्त्व-पूर्ण शब्दों में कहते हैं-'दीर्घकालीन पराधीनता राष्ट्रीय अधःपतन का एक महान् कारण है।' १९१८ ईसवी की मांटेग्यू-लेम्स-फोर्ड रिपोर्ट में उसके संयुक्त रचयिताओं ने तत्कालीन भारतीय शासन को 'दयालु-स्वेच्छाचारिता' कहा था। परन्तु ब्रिटिश मज़दूरदल के साम्राज्यवादी नेता मिस्टर रामसे मैकडानेल के कथनानुसार किसी देश पर 'दयालु-स्वेच्छाचारिता' से शासन करने के समस्त उद्योगों में शासित लोग पिस जाते हैं। 'वे ऐसी प्रजा बन जाते हैं जो आज्ञा मानती है; ऐसे नागरिक नहीं बनते जो कुछ कार्य करें। उनका साहित्य, उनकी कला, उनके प्राध्यामिक विचार सब नष्ट हा जाते हैं-"*[] परन्तु इस सम्बन्ध में हम अपने विचारों के स्थान पर उन अँगरेज़ लेखकों और शासकों की सम्मतियाँ उपस्थित करना अधिक उचित समझते हैं जो भारतवर्ष को और इस पर शासन करनेवाली सरकार को प्रत्येक बात में धृष्टा मिस मेयो की अपेक्षा कहीं अधिक जानते थे†[]प्रसिद्ध अँगरेज़ विचारक और लेखक श्रीयुत जी० लावेस डिकिंसन ने पूर्व की यात्रा करने के पश्चात्, भारतवर्ष, चीन और जापान की सभ्यता पर एक निबन्ध लिखा था। उसमें उन्होंने अंगरेजों के भारतवर्ष में शासन करने की योग्यता पर विचार किया है। नीचे उन्हीं के शब्दों में उनका अनुमान दिया जाता है:-

"पश्चिम की समस्त जातियों में केवल अँगरेज़ ही ऐसे हैं जो भारतीय सभ्यता की खूबियों को सबसे कम समझ सकते हैं। अगरेज़ों में गुणग्राहकता सबसे कम होती है। वे भारतवर्ष में अपने साथ अपनी समस्त आदतों को ले जाते हैं: छावनियों में रहते हैं। निर्वासितों के समान २० या २५ वर्ष व्यतीत करते हैं। उसके पश्चात् वे लौट आते हैं और उनका स्थान लेने के लिए उन्हीं के समान मनुष्य भेजे जाते हैं। मार्ग की सुविधा ने इस प्रवृत्ति को और भी बलवती कर दिया है। जो अँगरेज़ भारतवर्ष में रहते हैं, वे अपने बच्चों को पढ़ने के लिए इंगलैंड भेजते हैं। उनकी स्त्रियाँ अपना आधा समय इगलैंड में ही व्यतीत करती हैं। वे स्वयं भी दूसरे तीसरे वष इंगलैंड जाते रहते हैं। उनका सदर भारतवर्ष नहीं इंगलैंड रहता है। उनके और भारतवासियों के बीच में जो खाड़ी है उसे कोई पार नहीं कर सकता*[]

सर बैम्प फील्ड फुलर, जो पूर्वी बङ्गाल के लेफ्टिनेंट गवर्नर थे और जिन्होंने लार्ड मारले के भारत-मंत्रित्व-काल में अपने पद से स्तीफा दे दिया था, अपनी 'भारतीय जीवन और विचारमीमांसा' नामक पुस्तक में लिखते हैं:-

"नये अँगरेज़ अफ़सर जिन उत्तरदायित्व पूर्ण कार्यो के लिए भारतवर्ष में भेजे जाते हैं, उनके लिए वे अत्यन्त अयोग्य होते हैं। वे उल्लेखयोग्य कोई कानून नहीं पढ़ते, भारतवर्ष का इतिहास नहीं जानते, राजनैतिक और अर्थ-विद्या नहीं सीखते; केवल किसी एक भारतीय भाषा का मामूली ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं। नौकरी के दूसरे विभागों में परिस्थिति और भी असन्तोषजनक है। जो नवयुवक पुलिस विभाग में अफसर होने के लिए भेजे जाते हैं उन्हें तो बिलकुल ही शिक्षा नहीं मिली रहती; यद्यपि उन्हें अपने कर्तव्य पालन के लिए भारतीय जीवन और विचारों का निकट परिचय अवश्य होना चाहिए। वे भारत में जब उतरते हैं तब उन्हें भाषा का ज्ञान बिलकुल नहीं रहता। जङ्गल के अफसरों, डाक्टरों और इम्जीनियरों की भी यही दशा रहती है। और सबसे आश्चर्य्य की बात तो यह है कि शिक्षा-विभाग के अफसर तक भारतीय भाषायों से अनभिज्ञ होते हैं।......यह कहना कदाचिन् ही अनुचित हो कि यह उस देश की बुद्धि का अपमान करना है।"

प्रसिद्ध अँगरेज़ समाज-वेत्ता मिस्टर एच॰ एम॰ हिंड मैन ने, जो भारतीय मामलों में सदा बढ़ी दिलचस्पी रखते थे, लिखा था:-

"जो अँगरेज़ भारतवर्ष में शासन करने आते हैं उनके पालन-पोषण और शिक्षा की व्यवस्था यथासम्भव ऐसे वायुमण्डल में की जाती है जो एशिया के विचारों से दूर और उनके सर्वथा प्रतिकूल होता है। जिन जातियों पर वे शासन करते हैं उनको जहाँ तक हो सकता है अपने कार्यों में और अपने विनादों में सम्मिलित नहीं करते। शासन का प्रधान भी भारतवर्ष में योरप से बिलकुल नया नया लाया जाता है और भारत के सम्बन्ध में उसे बिलकुल ज्ञान नहीं होता। फिर वह अपने कार्य पर पाँच वर्ष से अधिक रहने भी नहीं पाता। (इस प्रकार जैसे ही वह भारतवर्ष के सम्बन्ध में कुछ जानना आरम्भ करता है वैसे ही वह यहाँ से रवाना हो जाता है।) उसके अधीन जो अफसर होते हैं ये प्रायः छुट्टी मनाने के लिए इंगलैंड जाते रहते हैं और नौकरी का समय पूरा हो जाने पर एक बड़ी पेंशन के साथ सदा के लिए इंगलैंड में रहने को भेज दिये जाते हैं। इन अच्छे भावों से प्रेरित पर सहानुभूति-विहीन स्वाथियों का शासन जितने ही अधिक समय तक रहेगा उतना ही भारतवासियों के साथ इनका सम्बन्ध कम धनिष्ट होता जायगा। जाति और वण का भेद जो अँगरेज़ी शासन के प्रारम्भ में बिलकुल साधारण था, अब प्रतिवष अधिकाधिक प्रबल होता जाता है। स्वयं भारतवर्ष में प्राचीन वंश (जिसके सामने प्राचीन से प्राचीन योरपियन राजसत्ता कीचड़ की जात समझी जायगी) के लोग, नौकरशाही के इन नये पहुँच हुए रंगरूटों-द्वारा प्रधान नगरों में और रेलों पर, बराबरी के व्यवहार के अयोग्य समझे जाते हैं।"*[]

मिस्टर हिंडमैन ने भारतवर्ष के एक बड़े अँगरेज़ अफ़सर का निम्नलिखित कथन उद्धृत किया है:

"इस बात के सत्य होने का मुझे दुःख है कि अँगरेज़ लोग भारतवर्ष में वहां के निवासियों से सर्वथा पृथक रहते हैं। यह पार्थक्य किसी अंश में राष्ट्रीय रवाजों, भाषा और जाति के कारण मिटाया नहीं जा सकता पर अधिकांश में इसका कारण अज्ञानता से उत्पन्न वृणा है। पृथक् रहने की यह प्रवृत्ति बढ़ती ही जाती है।"

सरकारी अफ़सरों में भारतवर्ष के सम्बन्ध में जो अज्ञानता पाई जाती है उस पर विचार करते हुए श्रीयुत रामसे मैकडानेल ने कहा था:-

"मैं ऐसे मनुष्यों से मिला हूँ जो भारतीय सिविल सर्विस में बीसौं वर्ष रह चुके हैं। वे बहुत कम भारतवासियों को जानते थे। उनसे उन्होंने सार्वजनिक मामलों में कभी बात ही नहीं की थीं। भारतीय जीवन के सम्बन्ध में बहुत साधारण प्रश्नों का भी वेठीक ठीक उत्तर नहीं दे सकते थे। सामयिक विषयों पर उनकी सम्मतियाँ क्लब की बात या समाचार-पत्रों के रटे हुए जुमलों के अतिरिक्त और कुछ नहीं थीं। वास्तव में वे भारत से उतनी ही दूर थे जितनी दूर मैं यहाँ लन्दन से हूँ। उनकी सम्मतियों को, जब मैंने भारतवर्ष की भूमि पर पैर नहीं रक्खा था, तब भी अपनी सम्मतियों के पश्चात् ग्रहण करता था*[]।"

मिस्टर मैकडानेल ने लार्ड कर्ज़न का यह कथन उद्धृत किया है कि पहले प्रत्येक व्यक्ति जो शासन में भाग लेने के लिए भारतवर्ष में जाता था वह यह सोचता था कि मुझे वहाँ के लोगों से बात-चीत करने के लिए आवश्यक भाषाएँ अवश्य सीख लेनी चाहिएँ।

"परन्तु प्राज-कल के अहंमन्य लोग इसे सर्वथा अनावश्यक समझते हैं। आज-कल भलीभाँत्ति देशी भाषाएँ बोल लेनेवाले अफसरों की संख्या उससे बहुत कम रह गई है जो अब से ५० वर्षया २० ही वर्ष पूर्व थी। और ऐसे अफसरों की संख्या जो उस देश के साहित्य आदि का गम्भीरतापूर्वक अध्ययन करें प्रतिवर्ष घटती जा रही है†[]।"

फ़रवरी १९२६ की 'बुकमैन' में एक साहित्यिक अँगरेज़ श्रीयुत अलडोस हक्सले ने भारत पर शासन करनेवाले अपने देशवासियों की धृष्टता और गर्ड का निम्नलिखित वर्णन किया है:-

"एक नवयुवक लन्दन के समीपवर्ती देहात से भारतीय सिविल सर्विस में कुर्की करने जाता है। वह अपने आपको एक छोटी सी शासन करने. वाली संस्था के सदस्य के रूप में पाता है। आज्ञा देने के लिए उसके पास आवश्यकता से अधिक नौकर हैं और काले चमड़ेवाले ऐसे मातहत हैं जिनके साथ कड़ाई से व्यवहार करना ही उचित और ठीक है। उसके चारों तरफ ३२ करोड़ भारतीय बसे हुए हैं। वह उनसे-कुली से लेकर महाराजा तक से, अछूत से लेकर कुलीन ब्राह्मण तक से, अपढ़ किसान से लेकर योरप के विश्वविद्यालयों की दर्जों डिग्रियाँ रखनेवाले तक से-अपने आपको अतुलनीय उच्च समझता है। वह स्वयं चाहे क्षुद्र परिवार का हो, चाहे मूर्ख हो, चाहे अल्पशिक्षित हो; इसकी उसे कोई परवाह नहीं। उसका चमड़ा सफ़ेद है। भारतवर्ष में बड़प्पन चमड़े का ही प्रश्न है।"

लन्दन 'डेली हेरल्ड' के भूतपूर्व संपादक मिस्टर जार्ज लैंसवरी ने ११ दिसम्बर १९२० ईसवी को एज़ेक्स हाल में व्याख्यान देते हुए कहा था:-

"भारतवर्ष में ३० करोड़ से ज़्यादा मनुष्य हैं। ब्रिटिश द्वीपसमूह में हम अँगरेज़ लोग करोड़ हैं। हम लोग उनके हित के लिए उनकी अपेक्षा अधिक जानने का दावा करते हैं। क्या इससे भी अधिक निर्लज्जता कभी की गई थी? क्योंकि हमारा चमड़ा सफ़ेद है इसलिए हम उनकी अपेक्षा जिनका चमड़ा सूर्य ने काला कर दिया है, अधिक मस्तिष्क रखने का दावा करते हैं। जब मैं भारतवासियों को देखता हूँ तब मुझे अपने आप पर शर्म मालूम होती है। मैं भारतवर्ष के सम्बन्ध में उनकी अपेक्षा अधिक कैसे जान सकता हूँ।"

जुलाई १९१० ईसवी में हाउस आफ़ कामन्स में व्याख्यान देते हुए भारत-मंत्री मिस्टर मांटेग्यू ने कहा था:-

"भारत की शासन-व्यवस्था इतनी जड़-बुद्धि, इतनी कठोर, इतनी हठी और इतनी असामयिक है कि वह आधुनिक बातों के लिए सर्वथा अनुपयुक्त है। भारत-सरकार का समर्थन नहीं किया जा सकता।"

सब बातों पर विचार करते हुए भारतवासी इस शासन को, जिसके अधीन रहने के लिए वे वर्तमान समय में विवश किये जाते हैं, १९१७ ईसवी में की गई मिस्टर मांटेग्यू की कड़ी आलोचना से ज़रा भी अच्छा नहीं समझते। सर लुइस मैलेट ने, जब वे उपभारत-मंत्री थे तब, कहा था:-

"भारतवर्ष की वर्तमान शासन-व्यवस्था केवल इसीलिए अब तक विद्यमान है कि यह सब प्रकार की स्वतंत्र और बुद्धिमानी की आलोचनाओं से बची हुई है।"

नियम के अनुसार वायसराय लोग भी जब भारतवर्ष में आते हैं तब यहाँ की कोई भाषा नहीं जानते होते। और अपने यहां रहने के काल में वे किसी भाषा को टूटे फूटे शब्दों में बोल लेने के अतिरिक्त कदाचित ही सीखते हैं। जनता के सम्पर्क में वे दूसरों के द्वारा-छोटे अँगरेज़ अफसरों या अँगरेज़ी जाननेवाले भारतीयों के द्वारा-आते हैं।

पार्लियामेंट में जान ब्राइट ने अपने एक भाषण में कहा था:-

"भारतवर्ष का गवर्नर जनरल (वायसराय) उस देश के सम्बन्ध में थोड़ा या कुछ न जानते हुए वहाँ जाता है। मैं जानता हूँ कि जब वह नियुक्त किया जाता है तब क्या करता है। वह मिस्टर मिल-रचित 'भारतवर्ष के इतिहास के अध्ययन में निमग्न हो जाता है। और इस बड़ी पोथी को पढ़ कर वह कोई अच्छा गवर्नर जेनरल नहीं हो जाता जैसा कि कोई व्यक्ति मूर्खता वश अनुमान कर सकता है। वह बीस भाषाएँ बोलनेवाले बीस राष्ट्रों के देश भारतवर्ष में जाता है। इन राष्ट्रों के सम्बन्ध में वह कुछ नहीं जानता। और न उसे इन भाषाओं के व्याकरण, उच्चारण या अर्थ का कुछ ज्ञान होता है।......वह देश या उसके वासियों के सम्बन्ध में कुछ नहीं जानता। वह अफसरों से घिरा रहता है, अफसरी हवा में वह साँस लेता है और उसके बाहर उसे प्रत्येक वस्तु धुंधली और अन्धकार से पूर्ण दिखाई पड़ती है। आप उस पर ऐसे ऐसे कार्यों का भार लाद देते हैं जो किसी भी मनुष्य के मानसिक और शारीरिक शक्ति से बाहर होते हैं। इसलिए उन कार्यों को वह पूरा नहीं कर पाता ।......प्रत्येक अच्छी वस्तु को नष्ट करने की उसे महान् शक्ति प्राप्त रहती है। यदि वह चाहे तो भारत के हित के लिए किये गये प्रत्येक प्रस्ताव को रद कर सकता है। परन्तु जहाँ तक कोई अच्छा कार्य करने का सम्बन्ध है, मैं यह दिखला सकता हूँ कि उन बड़े बड़े प्रान्तों का ध्यान रखते हुए जिन पर कि वह शासन करता है, वह वास्तव में कोई ऐसा काय करने के लिए सर्वथा असमर्थ होता है जिसकी उन प्रान्तों को आवश्यकता होती है।......मैं इस समय ऐसा व्यक्ति नहीं देखता हूँ और न मैंने ऐसा व्यक्ति कभी देखा है जो भारतवर्ष का शासन करने के योग्य हो। यदि कोई व्यक्ति कहता है कि वह योग्य है तो वह निश्चय ही अपने को उससे अधिक महत्त्व देता है जितना कि उसका परिचय रखनेवाले उसे दे सकते हैं।"

यह जान ब्राइट की सम्मति है जिसके समान, सावधानी से व्याख्यान देनेवाले और निणयों में न्याय से काम लेनेवाले, व्यक्ति इँगलैंड ने कम देखे थे।

डाक्टर सन्डर लेंड ने ब्राइट के निष्कर्ष के उदाहरण में पार्लियामेंट के सदस्य कर्नेल वेजउड का एक पत्र उद्धृत किया है। यह पत्र उन्होंने मुझे लिखा था और यह मेरे साप्ताहिक पत्र 'पीपुल' में प्रकाशित हुआ था। पत्र में कर्नेल वेजउड ने, लार्ड अरविन के सम्बन्ध में, जब वे भारतवर्ष के गवर्नर नियुक्त हुए थे, निम्नलिखित बात लिखी थी:––

"भारतवर्ष में उनके दिन बड़ी बेचैनी में व्यतीत होंगे। कर्तव्य-पालन के लिए उन्हें अपने आपको प्रकट रूप से बलिदान कर देना पड़ेगा। सबसे भारी कठिनाई उनके मार्ग में यह है कि वे भारतवर्ष के सम्बन्ध में कुछ नहीं जानते। उन्हें विवश होकर नौकरशाही के अनुभवी अधिकारियों के चंगुल में रहना पड़ेगा। जहाँ तक मुझे स्मरण है, वे किसी भारतीय वाद-विवाद के अवसर पर पार्लियामेंट में उपस्थित भी नहीं रहे[]।"

अब एक ऐसे मनुष्य के विषय में सोचिए जिसके सम्बन्ध में पार्लियामेंट के एक प्रसिद्ध सदस्य की यह राय हो और जो विशाल भारतीय राष्ट्र पर शासन करने के लिए नियुक्त किया जाय।

प्रधान सचिव एसक्रिथ ने, '१९०९ ईसवी में यह घोषणा की थी कि ऐसे बहुत से भारतवासी हैं जो भारत में उच्च पदों को सुशोभित करने के लिए पूरी योग्यता रखते हैं। उन्होंने उन अपूर्ण और निम्नकोटि की योग्यताओं की ओर भी ध्यान आकर्षित किया था जो उन पदों के लिए अँगरेज़ों के सम्बन्ध में उपयुक्त समझी जाती हैं। उन्होंने इस बात को भी स्पष्ट रूप से स्वीकार किया था कि यदि उन पदों पर ऐसे भारतीय नियुक्त किये जाते जिनमें उन अँगरेज़ों की आधी भी अयोग्यता होती तो यह सार्वजनिक अपमान समझा जाता[]

डाक्टर बी॰ एच॰ रथ फोर्ड ने अपनी 'आधुनिक भारत और उसकी समस्याएँ[]' नामक पुस्तक में, जो अभी हाल ही में प्रकाशित हुई है, १६१ वें पृष्ट पर अँगरेज़ों की योग्यता की परीक्षा की है और इसे 'भारतवर्ष की निर्धनता का एक मुख्य कारण बतलाया है।' वे इस बात की घोषणा करते हैं कि भारत की अँगरेज़ी सरकार वहीं तक योग्य है जहाँ तक अँगरेज़ों के स्वार्थ का सम्बन्ध है। जिस रीति से वह देश का प्रबन्ध और शासन करती है उससे केवल ग्रेटब्रिटेन को लाभ पहुँच सकता है। भारतवर्ष और भारतवासियों की उन्नति के सम्बन्ध में वे इसे विस्मयोत्पादक और लज्जाजनक अनुपयुक्त बतलाते हैं। इसके सबूत में वे कहते हैं कि:––

"यह सरकार जनता की शिक्षा की अवहेलना करती है; गाँवों में सफाई और चिकित्सा की व्यवस्था नहीं करती; शान्ति नहीं स्थापित रख सकती; निर्धनों के निवास की ओर ध्यान नहीं देती; ऋण देनेवालों से कृषकों की रक्षा करने की परवाह नहीं करती; कृषि-सम्बन्धी बैंक नहीं खोलती, इसी प्रकार कृषि की उन्नति और विकास की ओर ध्यान नहीं देती, भारतीय उद्योग धन्धों की वृद्धि नहीं करती; ट्रामगाड़ियाँ चलाने, बिजली की रोशनी का प्रबन्ध करने और दूसरी सार्वजनिक सेवाओं में अँगरेज़ व्यापारियों के पूरे दखल को नहीं रोकती; और भारतीय करेंसी का लन्दन के हित में प्रयोग किये जाने की रोक-थाम नहीं करती।"

इन बातों के सामने क्या डाक्टर स्थरफोर्ड के निम्नलिखित शब्दों पर किसी को आश्चर्य हो सकता है?––

"भारतवर्ष में जिस पद्धति के अनुसार ब्रिटिश शासन चलाया जा रहा है वह इस संसार में अत्यन्त निकृष्ट और पतित––एक राष्ट्र की दूसरे राष्ट्र द्वारा लूट-खसोट की––पद्धति है[१०]।" श्रीयुत एडवर्ड थामसन अपनी 'तमग़े की पीठ'[११] नामक पुस्तक में लिखते है:––

"हम अँगरेज़ लोग इस बात का खण्डन करेंगे कि हमारा भारत- साम्राज्य गुलामों के ऊपर मालिकों का शासन है। फिर भी हम उनको ऐसे ही देखते हैं जैसे गुलाम बेचने वाले अपने गुलामों को देखते हैं और हम अपने मित्र भारतीय नागरिकों के गुणों को उतना ही महत्व देते हैं जितना एक शिकारी अपने कुत्तों के गुणों को महत्त्व देता है।"

कुछ वर्ष हुए कांगो के अत्याचारों के समय में आयर्लेंड के एक लेखक ने लिखा था[१२]––

"अँगरेज़ों को स्वतन्त्रता प्रिय है, पर केवल अपने ही लिए। अन्याय के समस्त कारणों से वे घृणा करते हैं, केवल उनसे नहीं जिन्हें वे स्वयं करते हैं। वे इतने स्वतन्त्रताप्रिय हैं कि वे कांगो के मामले में हस्ताक्षेप करते हैं और चिंघाड़ते हैं कि––'बेलजियम को धिक्कार है। परन्तु वे यह भूलते जाते हैं कि उनकी एड़ियाँ भारतवर्ष की गरदन पर लगी हुई हैं।"

श्रीयुत विल्फ्रेड स्कावेन ब्लन्ट ने, अपनी 'मिस पर अँगरेज़ी शासन का रहस्यपूर्ण इतिहास' नामक पुस्तक में, भारत में अँगरेज़ी राज्य के सम्बन्ध में कुछ प्रबल और महत्त्व-पूर्ण प्रमाण दिये हैं। इन बातों को उन्होंने अनुकूल परिस्थिति में बहुत निकट से देखा था। वे लार्ड लिटन के व्यक्तिगत रूप से बड़े घनिष्ट मित्र थे और लार्ड लिटन उस समय भारतवर्ष के वायसराय थे ब्लन्ट महाशय भारतवर्ष की परिस्थितियों का अध्ययन करने के लिए यहाँ आये थे। ब्रिटिश राजनीति में वे अपरिवर्तनवादी दल के सदस्य थे और भारतवर्ष में अँगरेज़ों की कारगुज़ारी को बड़े अच्छे रूप में देखना चाहते थे। इसके अतिरिक्त स्वयं वायसराय और बड़े बड़े अफ़सरों ने उन्हें अपने साथ रक्खा और अपने ही दृष्टिकोण से समस्त बातों को उन्हें दिखलाया। परिणाम क्या हुआ? अँगरेज़ों––अपने देशवासियों––के पक्ष में पहले ही से उत्तम विचार रखते हुए भी, और इस बात की कड़ी सावधानी होते हुए भी कि उन्हें सब बातें अँगरेज़ों के ही दृष्टि-कोण से दिखलाई जाँय, वे शीघ्र ही भ्रमजाल से बाहर निकल गये। उन्होंने देखा कि भारतवर्ष में जो अँगरेज़ी राज्य है वह ईश्वरीय कृपा का फल नहीं है। वह तो भारत का नाश करने में लगा है। अँगरेज़ों की साधारणतया साम्राज्य-नीति सम्बन्ध में वे लिखते हैं[१३]––

"ब्रिटिश साम्राज्यवाद का एक दोष यह भी है कि यह अच्छे भावों से प्रेरित होकर मी स्वतन्त्र जातियों के मामले में पड़ता है तो अन्त में बिना बुराई पैदा किये नहीं रहता। इसके अनेक स्वार्थ सदैव काम करते रहते हैं और कोई कार्य कितने ही अच्छे उद्देश्यों से क्यों न प्रारम्भ हो, अन्त उनका बुरा ही होता है।"

भारतवर्ष के सम्बन्ध में वे लिखते हैं:––

"भारतवर्ष से मुझे सन्तोष नहीं है। उसकी शासन-पद्धति उतनी ही बुरी प्रतीत होती है जितनी शेष एशिया की! अन्तर केवल इतना ही है कि इस पद्धति का उद्देश्य अच्छा है या कुछ नहीं है। विदेशी अफ़सरों द्वारा उतना ही भारी कर लगाया जाता है और धन का उतना ही अपव्यय किया जाता है जितना कि टर्की में देखने में आता है। बात एक ही है। भूखे हिन्दुओं पर कलकत्ते में गिरजाघर बनवाने के लिए कर लगाने और बलगोरियनों पर बास- फ़ोरस पर महल बनाने के लिए कर लगाने में मुझे कोई विशेष अन्तर नहीं दिखलाई पड़ता।......भारतवर्ष के निवासियों को वे "नेटिव" कहते हैं। यह नेटिव भयभीत, दुखी और अत्यन्त दुबले-पतले गुलामों की जाति है। मैं स्वयं एक अपरिवर्तनवादी हूँ और लन्दन के कार्ल्टन क्लब का सदस्य हूँ, पर मैं यह स्वीकार करता हूँ कि जिस परवशता में भारतवासियों को रक्खा गया है उसे देख कर मुझे बहुत दुःख पहुँचा है और ब्रिटिश संस्थाओं तथा ब्रिटिश शासन की खूबियों में, मेरे विश्वास को खूब कस कर घूँसा लगा है। भारतीय अर्थनीति के रहस्यों का मैंने, श्रेष्ठ अध्यापकों, सरकार के मन्त्रियों, कमिश्नरों और अन्य अफ़सरों की देख-रेख में, अध्ययन किया है और मैं इस परिणाम पर पहुँचा हूँ कि यदि इसी वेग से कार्य होता रहा तो कभी न कभी भारतनिवासी मनुष्य-भक्षी प्राणियों में परिवर्तित हो जायेंगे क्योंकि उन्हें एक दूसरे के अतिरिक्त और कुछ खाने को शेष ही न रह जायगा।" श्रीयुत सी॰ एफ एंडूज़ अपनी हाल की "भारत को स्वतन्त्रता का अधिकार" नामक पुस्तक में लिखते हैं:––

"गत शताब्दी की इटली और आस्ट्रिया में हम साम्राज्यवाद की विदेशी शासन की एक निराली भूल देखते हैं। आस्ट्रियन साम्राज्य, अपनी इटालियन दुम के साथ––इटली के साथ जिसे इसने बलपूर्वक अपने वश में कर रखा था––बिल्कुल अस्वाभाविक प्रतीत होता था। यह दो राष्ट्रों में, जिन्हें मित्रभाव से रहना चाहिए था, केवल घृणा, निरन्तर बढ़नेवाली घृणा उत्पन्न कर सकता था। ब्रिटिश साम्राज्य भी अपनी भारतीय जिसे इसने बलपूर्वक अपने वश में कर रक्खा है––बिल्कुल अस्वाभाविक प्रतीत होता है। यह भारतवर्ष और इँगलेंड में, दो राष्ट्रों में, जिन्हें मित्रभाव से रहना चाहिए था, केवल कटुता, निरन्तर बढ़नेवाली कटुता और पार्थक्य उत्पन्न कर सकता है।"

डाक्टर सन्डरलेंड ने इस विषय को नीचे लिखे अनुसार समाप्त किया है––

"संसार में इतनी निम्न कोटि की और इतनी निर्दयतापूर्ण कोई कथा नहीं है जितना संसार के सम्मुख यह दावा उपस्थित करना कि इँगलेंड दूरस्थ भारतवर्ष का शासन बड़ी अच्छी तरह कर रहा है। या यह कि सम्भवतः बड़ी अच्छी तरह या बिना अत्यन्त गम्भीर और दुःखान्त अन्याय तथा भूलें किये कर सकता है।"

परन्तु भारतवर्ष को जितना मेकाले या फुलर जानते थे, या रथरफोर्ड या डिकिंसन था सन्डरलेंड जानते हैं उससे कहीं अच्छा उसे मिस मेयो जानती है। प्रत्यक्षतः वह भारतवर्ष के सम्बन्ध में उन सबसे योग्य और उन सबसे सच्ची निरीक्षिका जिन्हें संसार ने गत दो शताब्दियों में उत्पन्न किया है। हे मूर्खते! तेरा नाम केथरिन मेयो है!



  1. * भातरवर्ष में जाग्रति, पृ॰ २१३।
  2. † इस अध्याय की सामग्री का कुछ भाग दिसम्बर १९२७ के माडर्न रिव्यू (कलकत्ता) में प्रकाशित रेवरड, जे॰ टी॰ सन्डरलैंड के 'क्या अँगरेज़ भारत में राज्य करने के लायक़ है? नामक लेख से लिया गया है। इसके लिए हम उनके कृतज्ञ हैं।
  3. * 'भारतवर्ष चीन और जापान की सभ्यता पर निबन्ध' लन्दन, डेन्ट एण्ड सन्स, पृष्ठ ८-१९।
  4. * 'भारत के सम्बन्ध में वास्तविक बातें प्रथम पुस्तक, पृष्ट १०, न्यूयार्क।
  5. * 'भारतवर्ष में जाग्रति, पृष्ट २६१
  6. † "भारतवर्ष में जाग्रति, पृष्ठ २३६
  7. दी "पीपुल" २५ दिसम्बर १९२५
  8. देखिए 'इंडिया' नामक लन्दन का साप्ताहिक पत्र, अप्रेल, १९०९, पृष्ठ २०९ सन्डर लेंड द्वारा उद्धत।
  9. लेबर पब्लिशिंग कम्पनी, १९२६।
  10. 'आधुनिक भारत', पृष्ठ ७७
  11. पृष्ठ ११८
  12. सन्डरलेंड की उसी पुस्तक से।
  13. पृष्ठ ४७