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दुखी भारत/३१ सुधारों की कथा

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प्रयाग: इंडियन प्रेस, लिमिटेड, पृष्ठ ४२२ से – ४४१ तक

 

इकतीसवाँ अध्याय
सुधारों की कथा

मिस मेयो ने १९१९ में भारतीय शासन-पद्धति में किये गये सुधारों के सम्बन्ध में पूरा एक अध्याय लिखा है। उसकी सम्मति यह है कि इन सुधारों के उपस्थित करने में भूल की गई है और १९१९ के पूर्व भारतवर्ष की शासन-व्यवस्था सर्वथा अच्छी थी और उसमें किसी प्रकार के परिवर्तन की आवश्यकता नहीं थी।

यही उसका साधारण विषय प्रतीत होता है। परन्तु उस अध्याय को पढ़ने के पश्चात् यह बतलाना कठिन हो जाता है कि वह वास्तव में चाहती क्या है? यह अध्याय अनुपयुक्त और अबोधनीय वक्तव्यों से भरा है। उपयुक्त और बोधगम्य बात केवल इतनी ही है कि उसने भारतीय राष्ट्रवादियों के प्रति असीम घृणा प्रकट की है और उन्हें इतना काला, बेहूदा, झूठा, मूर्ख और धृष्ट चित्रित करने की चेष्टा की है जितना कि वह कर सकती है। प्रथम वाक्य में ही हमें बताया गया है कि 'जो शासन-पद्धत्ति भारतवर्ष में क्रमशः अपना काम कर रही है उसकी जड़ें गत शताब्दियों तक फैली हुई हैं और अपनी क्रम-वृद्धि के कारण वे हमें दिखलाई पड़ रही हैं।' इसी अध्याय में ज़रा आगे चलकर वह लिखती है कि 'इस आयोजना के वर्तमान स्वरूप में बलूत के वृक्ष के समान मंद गति से बढ़ने की शक्ति नहीं है।' इस आयोजन की उसने निन्दा की है कि 'यह उस पौधे के समान है जो अपने घर से निकाल कर अपरिचित देश में उदारता और जोश की गर्मी से अपनी शक्ति के विरुद्ध बढ़ाया जाय।'

इसके पश्चात् २६८ वें पृष्ठ पर 'सुधार क़ानूनों की समालोचना करने का कोई विचार न रखते हुए' भी वह समालोचना करने का साहस करती है और लिखती है कि 'मुख्य कठिनाई वस्तुओं की जड़ में इतनी गहराई में है कि किसी प्रकार की शत्रुता भी वहाँ तक नहीं पहुँच सकती। सुधारों के सम्पूर्ण महत्त्व की रचना सार्वजनिक निर्वाचन की नींव पर की गई है...कठिनाई यह है कि यह महल तो बीच आकाश में लटक रहा है पर जो नींव इसको सम्भालने के लिए बनाई गई है उसका वास्तव में अस्तित्व ही नहीं है।'

सम्पूर्ण अध्याय असम्बद्ध विषयों और विचारों का संग्रह है। अँगरेज़ अफ़सरों की असीम प्रशंसा और हिन्दू राष्ट्रवादियों की निर्दयतापूर्ण निन्दा के अतिरिक्त इसमें और कुछ नहीं है; न कोई क्रम, न परस्पर कोई सम्बन्ध और न कोई स्पष्ट विचार। कथओं और वर्णनों को आपस में मिला दिया गया है। ये सब काल्पनिक हैं पर इन्हीं के आधार पर भयङ्कर और बेहूदी बातों का अनुमान किया गया है। गुप्त मनुष्यों के वार्तालाप दिये गये हैं जिनकी सत्यता की जांच नहीं की जा सकती। पर उनमें अधिकांश ऐसे हैं जो पाठकों को धोखे में डाल सकते हैं। बार बार वह अपने पाठकों से कहती है कि भारतीय राष्ट्रवादी कहते कुछ हैं और उनका तात्पर्य कुछ और ही होता है। २६७ वे पृष्ठ पर वह लिखती हैं कि एक दिन मैंने व्यवस्थापिका सभा के एक विख्यात ब्रिटिश-विरोधी सदस्य से बातें कीं और उससे पूछा कि क्या तुम्हारे साथी सदस्य, सरकार की नीति के विरुद्ध भयङ्कर दोष लगाते हैं, वास्तव में वैसा ही सोचते भी हैं?" उसने जवाब दिया, 'कैसे सोच सकते हैं? व्यवस्थापिका सभा ऐसा एक भी व्यक्ति नहीं है जिसका ऐसी बातों पर विश्वास हो।' परन्तु यदि व्यवस्थापिका सभा के मनुष्य वास्तव में इतने बड़े धोखा देनेवाले होते तो वे एक अज्ञात विदेशी यात्री के सम्मुख कोई बात इस प्रकार स्पष्ट रूप से नहीं स्वीकार कर सकते थे। फिर २६६ वें पृष्ठ पर एक ऐसा वक्तव्य है जिसे कोई व्यक्ति, जिसके जरा भी बुद्धि हो, नहीं लिख सकता था। वह लिखती है:––

"सरकार के कर्तव्यों और उत्तरदायित्वों के सम्बन्ध में इन निर्वाचित प्रतिनिधियों की अपेक्षा गाँव का मुखिया [जो दस में नौ निरक्षर होता है] कहीं अधिक समझता है और अनुभव करता है।"

ऐसी परिस्थितियों में मिस मेयो को अकेली छोड़ कर सुधारों की यथासम्भव संक्षिप्त कथा––उनका जन्म और उनकी कारगुज़ारी––दे देना अच्छा होगा। स्थान की कमी के कारण, भारत में अँगरेज़ी शासन का इतिहास और किन किन परिस्थितियों से होता हुआ वह १९१९ के सुधार तक पहुँचा, आदि बातों का वर्णन हम यहीं नहीं कर होगा सकेंगे। वह कथा मेरी 'यंग इंडिया' और 'पोलिटिकल फ्युचर आफ़ इंडिया' (भारत का राजनैतिक भविष्य) नामक दोनों पुस्तकों में लिखी है। दोनों पहले अमरीका के संयुक्त राज्य में प्रकाशित हुई थीं, पहली १९०९ में और दूसरी १९१९ में[]

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१९१४ में महायुद्ध के आरम्भ होने से पूर्व भारतवर्ष के कुछ भागों में क्रान्तिकारी थे। समस्त भारत अपनी राजनैतिक अवस्था पर उत्तेजित हो उठा था। युद्ध के समय में मित्रराष्ट्रों के नेताओं और प्रेसीडेंट विलसन की युद्ध के उद्देश्य आदि के सम्बन्ध में की गई घोषणाओं से भारतीय राष्ट्रवादियों के हृदयों में यह आशा उत्पन्न हो गई थी कि यदि मित्रराष्ट्रों की विजय हुई तो उनके देश के प्रति न्याय किया जायगा। ईसवी में, जब युद्ध ने बड़ा भयङ्कर रूप धारण कर लिया था, भारतीय कांग्रेस ने और अखिल भारतवर्षीय मुसलिम लीग ने ऐसे राजनैतिक सुधारों की एक सम्मिलित योजना तैयार की जिन्हें वे अपने देश में शीघ्र कराना चाहते थे। इसके साथ ही साथ युद्ध में उन्होंने ब्रिटिश सरकार की अत्यन्त सहायता की। महात्मा गान्धी ब्रिटिश सेना में सिपाहियों की भर्ती करने के लिए चारों तरफ़ फिरे और उन्होंने सेवा-दल श्रादि का संगठन किया। युद्ध में विजय प्राप्त करने के लिए भारतवर्ष मे अपने रक्त की नदियाँ बहा दी। यदि भारतवर्ष धन-जन, शस्त्र और सामग्री आदि से सहायता न करता तो ब्रिटेन के रुतबे में बड़ा भयानक आघात पहुँचता और कदाचित् मित्रराष्ट्र जर्मनी को पेरिस की ओर बढ़ने से रोक न सकते।

"महायुद्ध में भारत का योग' नामक सरकार की ओर से प्रकाशित पुस्तक में यह बात स्वीकार की गई है कि––"भारतीय फौजें फ्रान्स में ऐन मौके पर पहुँची और १९१४ के पतझड़ की ऋतु में इन्होंने इपरिज़ और चैनल पोर्ट स की ओर जर्मनों के हमले रोकने में बड़ी सहायता दी। समय ब्रिटिश साम्राज्य के किसी भाग में केवल यही फौजें प्राप्त हो सकती थीं और इन्होंने अपने कर्तव्य का बड़ी खूबी के साथ पालन किया!

"मिस्र और पैलेस्टाइन में मेसोपोटामिया फ़ारस, पूर्वी और पश्चिमी अफ्रीका में और सहायता के अन्य मैदानों में उन्होंने अपने अँगरेज़ और उपनिवेशों के सिपाही दोस्तों के साथ अन्तिम विजय में भाग लिया"[]

अप्रेल १९१६ ईसवी में लोअर मेसोपोटामिया पर विपत्ति टूट पड़ी और इसका सारा उत्तरदायित्व भारत-सरकार पर लादा गया। जाँच के लिए जो कमीशन नियुक्त किया गया था उसने सावधानी और शीघ्रता के साथ जाँच करके यह घोषणा कर दी कि मेसोपोटामिया का झगड़ा भारत सरकार की अयोग्यता के कारण हुआ है। हाउस आफ़ कामन्स में जब इस रिपोर्ट पर वाद-विवाद छिड़ा तद मिस्टर मांटेंग्यू ने, जो उस समय युद्ध-सामग्री-विभाग के मन्त्री थे, एक बड़ा तीक्ष्ण भाषण दिया। उसके बीच में उन्होंने कहाः––

"भारत की शासन-व्यवस्था इतनी जड़-बुद्धि, इतनी कठोर, इतनी हठी और इतनी असामयिक है कि वह आधुनिक बातों के लिए, जिन्हें हम सोच रहे हैं, सर्वथा अनुपयुक्त है। मैं नहीं समझता कि आधुनिक आवश्यकताओं की दृष्टिकोण से कोई कभी भारत सरकार का समर्थन कर सकता परन्तु यह करेगी। भारतीय सिपाही-विद्रोह के पश्चात् से कोई गम्भीर बात नहीं उपस्थित हुई थी इससे जनता भारतीय मामलों में दिलचस्पी नहीं ले रही थी। इसके लिए एक ऐसे जोखिम के समय की आवश्यकता थी जो सर्वसाधारण का ध्यान इस ओर आकर्षित करता कि भारत-सरकार एक ऐसी शासन-पद्धति है जिसका समर्थन नहीं किया जा सकता।"

आगे चल कर उन्होंने कहाः––

"मैं इस सभा से कहता हूँ कि भारतीय कार्यालय का शाही सङ्गउन एक ऐसा 'लाल फीते' का दफ्तर है और इस प्रकार उन्हीं बातों को घुमा फिराकर कहता है कि कोई साधारण नागरिक उसे स्वप्न में भी नहीं सोच सकता।"

यह 'लाल फीता' तो उसमें सदा ही रहा है परन्तु, जैसा कि डिसरेली बहुत पहले कह चुका था, इस ओर इँगलेंड का ध्यान आकर्षित करने के लिए एक भयानक समस्या के उपस्थित होने की आवश्यकता थी।

मिस्टर मांटेग्यू के जिस व्याख्यान से ऊपर हम उद्धरण दे आये हैं, उसी में आगे चल कर उन्होंने कहा––

"परन्तु भारतवर्ष में आपके शासन करने का चाहे जो उद्देश्य हो, जिन भारतवासियों से मैं मिला हूँ या जिनसे मैंने पत्र-व्यवहार किया है उन सबकी एक माँग यही है कि आप अपने उस उद्देश्य को बतला दें। उसको बतला देने के पश्चात् उसकी कुछ किश्तें आप उन्हें दें जिससे यह मालूम हो कि आप वास्तव में ऐसा करने के लिए उत्सुक हैं। आपको अपनी जिन नवीन योजनाओं से भारतवासियों को किसी न किसी रूप में अधिक बड़ी प्रतिनिधि-सत्तात्मक व्यवस्थाएँ देने का अवसर मिलता है उनका कुछ आरम्भ होना चाहिए।......

"परन्तु मुझे इसका निश्चय है कि जिस अनुपयुक्त पद्धति पर हमने अब तक भारतवर्ष में शासन किया है उसको बनाये रखने का आपका सबसे बड़ा दावा यही है कि उसमें कोई कमी नहीं है। वह अपूर्ण सिद्ध की जा चुकी है। यह सिद्ध किया जा चुका है कि इसमें इतनी कोमलता नहीं है कि यह भारतवासियों की इच्छाओं को प्रकट होने दे; उनको, जैसा कि वे चाहते एक लड़नेवाली जाति बनने दे। इस युद्ध के इतिहास से आपको ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति भारतवासियों की भक्ति का––यदि पहले कभी सन्देह रहा हो तो भी––भरोसा हो जायगा। यदि आप उस भक्ति का उपयोग करना चाहते हैं तो आप उस देश-प्रेम से लाभ उठाइए जो भारतवर्ष में धर्म समझा जाता है। और केवल कौसिलों-द्वारा ही नहीं, जो कि कुछ काम नहीं कर सकती हैं, किन्तु स्वयं कार्यकारिणी सभा पर अधिकार देकर भी, उन्हें स्वयं अपना भाग्य-निर्माता बनने का वह महान् अवसर प्रदान कीजिए......तब आपको अपने दूसरे युद्ध में––यदि फिर कभी युद्ध हुआ––शान्ति के पश्चात् दूसरे सङ्कट के समय में आपको एक सन्तुष्ट भारत मिलेगा, ऐसा भारत ओ आपकी सहायता करने के लिए सब प्रकार से सुसज्जित हो। मिस्टर स्पीकर! मेरा विश्वास कीजिए; यह आवश्यकता का प्रश्न नहीं है; या चाह का प्रश्न नहीं है। यदि आप इस सौ वर्ष के पुराने और कष्टदायक यंत्र का आधुनिक अनुभव के प्रकाश में पुनर्निर्माण न करेंगे तो मैं विश्वास करता हूँ और ठीक विश्वास करता हूँ कि आप भारतीय साम्राज्य के भविष्य-निर्माण करने का अपना अधिकार खो बैठेंगे।"

इसी बीच में युद्ध एक भयानक रूप धारण कर रहा था! जाने के निकट पहुँच गया था। जान पड़ता था कि यदि भारतवर्ष से मनुष्यों और रुपयों से सहायता न ली गई तो मित्रराष्ट्र मैदान खो देंगे। लायड़ जार्ज ने निश्चय किया कि क्या करना चाहिए। उन्होंने मांटेग्यू को भारत मन्त्री नियुक्त कर दिया और उन्हें २० अगस्त १९१७ की निम्नलिखित घोषणा करने का अधिकार दे दिया:––

"हिज़ मैजेस्टी के सरकार की नीति, जिससे कि भारत सरकार भी पूर्ण रूप से सहमत है, यह होगी कि शासन के प्रत्येक विभाग में भारतवासियों के सहयोग की वृद्धि की जाय और ब्रिटिश साम्राज्य के एक अभिन्न भाग की भाँति भारतवर्ष में उत्तरदायित्वपूर्ण शासन स्थापित करने के लिए स्वतः शासन करनेवाली संस्थाओं का क्रमशः विकास किया जाय। इस लोगों ने यह निश्चय किया है कि जितनी शीघ्र हो सके इस और ठोस रूप से कदम बढ़ाना चाहिए और यह बात अत्यन्त महत्व की है कि ये कदम क्या होगे इस पर आरम्भिक विचार करने के लिए इंगलैंड के अधिकारियों और भारतवर्ष में स्वतन्त्र और शुद्ध विचारों का आदान-प्रदान हो। इसी के अनुसार हिज मैजेस्टी की सरकार ने, हिज़ मैजेस्टी की स्वीकृति से यह निश्चय किया है कि मैं भारतवर्ष जाने के लिए वायसराय का निमन्त्रण स्वीकार कर लू और वहाँ जाकर वायसराय से और भारत सरकार से इन बातों पर वाद-विवाद करूँ और वायसराय के साथ स्थानिक सरकारों की सम्मतियों पर विचार करूँ और उसके साथ प्रातिनिधिक संस्थाओं और दूसरों की सम्मतियाँ प्राप्त करूँ।

"मैं यह कह देना चाहता हूँ कि इस नीति में उन्नति क्रम से ही प्राप्त हो सकती है। ब्रिटिश सरकार और भारत सरकार ही, जिन पर भारत निवासियों की भलाई और उन्नति का उत्तरदायित्व है, प्रत्येक सुधार के समय और मात्रा का निर्णय देंगी। और वे अवश्य ही उनका सहयोग प्राप्त करने पर आगे बढ़ेगी जिनको इस प्रकार नबीन अधिकार ग्रहण करने का अवसर प्रदान किया जायगा और यह उस सीमा तक किया जायगा जहाँ तक यह देखा जायगा कि उनके उत्तरदायित्व के भाव में विश्वास किया जा सकता है।" ब्रिटिश प्रधानमन्त्री के वक्र मस्तिष्क के भीतर चाहे जो रहा हो यह स्पष्ट है कि यह घोषणा किसी 'शीघ्र और दयालु हृदयोद्गार' के परिणाम स्वरूप नहीं की गई थी, यह एक नपा तुला क़दम था जो इँगलेंड और साम्राज्य के हितों पर विचार करने के पश्चात् आगे रखा गया था। इस समझौते में यदि कहीं 'जल्दबाज़ी और उदारता' से काम लिया गया था तो वह भारत की ओर से था। भारतीय नेताओं ने ब्रिटिश राजनीतिज्ञों के विश्वास पर इस वादे को स्वीकार कर लिया था। उन्हें यह नहीं ज्ञात था कि 'झूठ बोलने की कला' अभी तक चली ही जा रही है। और इस बात की और उनका बिल्कुल ध्यान नहीं गया था कि एक दिन कैथरिन मेयो के समान अँगरेज़ों के स्तुति-गायक लोग उनकी 'राजभक्ति के अत्यधिक प्रकाशन' की दिल्लगी उड़ावेंगे। भारतीयों ने आयलेंड के राष्ट्रवादियों की नीति का कभी अनुसरण नहीं किया, जिनका सदा यह सिद्धान्त रहा है कि 'इँगलेंड की कठिनाई आयर्लेंड का सुअवसर है।' जब जब आवश्कता पड़ी है, भारत ने इँगलेंड का साथ दिया है परन्तु ब्रिटेन इन सुधारों की स्थापना में केवल एक इञ्च दे रहा था, क्योंकि उसे अय था कि कहीं सवा हाथ न देना पड़े। और उसके राजनीतिज्ञ लोग बड़े अच्छे भाव प्रदर्शित कर रहे थे क्योंकि उन्हें भारतीय सहयोग की अत्यन्त आवश्यकता थी। जहां तक मिस्टर माँटेग्यू का सम्बन्ध था, वे सम्भवतः पूरी सचाई से काम कर रहे थे।

१९१७ की इस घोषणा का भारतवर्ष पर प्रभाव पड़ा। राजनैतिक विचारवाले भारतीय इसकी भाषा और सीमाओं से सन्तुष्ट नहीं थे और उन्होंने अपने असन्तोष को छिपाया भी नहीं। परन्तु जब उन्हें यह मालूम हुआ कि जैसे कनाडानिवासी कनाडा में, आस्ट्रेलियानिवासी आस्ट्रेलिया में, दक्षिणी अफ्रीका में रहनेवाले दक्षिणी अफ्रीका में अपने गृह के स्वामी हैं वैसे ही भारतवासियों के भी अपने गृह के स्वामी बनने के दावे के प्रति इँगलेंड न्याय करना चाहता है तो उन्होंने इसे इस बात के प्रमाण-स्वरूप स्वीकार कर लिया।

अपने वादे को कार्यरूप में परिणत करने के लिए मिस्टर माँटेग्यू भारतवर्ष आये। और तत्कालीन वायसराय लार्ड चेम्सफोर्ड की सहायता से उन्होंने एक रिपोर्ट तैयार की। यह रिपेार्ट इन दोनों सज्जनों के नाम से विख्यात हुई। इस घोषणा और रिपोर्ट की समालोचना करते हुए मैंने अपनी 'भारतवर्ष का राजनैतिक भविष्य' नामक पुस्तक में १९१९ ईसवी के आरम्भिक भाग में लिखा था कि[]:––

"यह स्पष्ट है कि ऊपर की घोषणा में दूसरे पैराग्राफ का दूसरा वाक्य प्रत्येक राष्ट्र के आत्मनिश्चय के मार्ग में घोर बाधक है, यद्यपि आत्मोन्नति की स्वतंत्रता का अधिकार सबको है और अब सिद्धान्त-रूप से यह बात सबके लिए स्वीकार भी की जाती है। (ब्रिटिश प्रधानमन्त्री के अनुसार युद्ध के पहले जिन उपनिवेशों पर जर्मनी का अधिकार था उनकी काली जातियाँ भी इसी सीमा के अन्तर्गत हैं) भारतवर्ष के लोगों का दर्जा इन जातियों के बराबर भी नहीं समझा गया। यदि यह मान भी लिया जाय कि वे अभी इस स्थिति में नहीं हैं कि उस अधिकार का पूर्ण और समुचित रूप से पालन कर सके तो यह मान लेना भी उचित नहीं है और न न्यायानुकूल है कि उनकी ऐसी स्थिति कभी होगी ही नहीं। इसके अतिरिक्त उस वाक्य ने जिन योग्यताओं के लिए कहा गया है वे बिल्कुल अनावश्यक और निरर्थक हैं। जब तक भारत 'ब्रिटिश साम्राज्य का एक अभिन्न भाग' बना रहेगा तब तक वह कोई ऐसा विधान नहीं तैयार कर सकता जो अँगरेज़ी पार्लियामेंट और वादशाह के इच्छानुकूल न हो। यह दुःख की बात है कि ब्रिटिश राजनीतिज्ञ समय के साथ नहीं चल सके और ऐसी घोषणा नहीं कर सके जो एकाधिपत्य के अहङ्कार और जातीय अभिमान से रहित हो, और ऐसे समय में जब कि वे साम्राज्य का भार घटाने के लिए और उसकी रक्षा करने के लिए भारतीय पुरुषों से धन और जन की सहायता माँग रहे थे। मांटेग्यू चेम्सफोर्ड रिपोर्ट के १७९ वे पृष्ट पर जो वक्तव्य दिया गया है वह इस भाव के कुछ प्रतिकूल है। उस स्थान पर इस रिपोर्ट के प्रसिद्ध लेखकों ने, 'आत्म-निश्चय की और बढ़ने की इच्छा के स्वाभाविक विकास का उल्लेख करते हुए लिखा है कि 'भारतवर्ष की शिक्षित श्रेणियाँ हमारे सामने जो मांगें उपस्थित कर रही हैं वह हमारे सौ वर्ष के कार्य के ठीक और स्वाभाविक परिणाम के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।

"इस घोषणा में इस अनावश्यक सीमा के होते हुए भी यह सर्वधा सत्य है कि 'इस घोषणा से एक युग का अन्त और एक नवीन युग का आरम्भ होता है। इस घोषणा के महत्त्वपूर्ण होने का कारण, इसमें प्रयोग की गई भाषा नहीं है, क्योंकि पहले वारेन हेस्टिंगज, मेकाले, मुनरो, मेटकाफ, और दूसरे ऐसे ही पदों के प्रसिद्ध ब्रिटिश राजनीतिज्ञ इससे भी अधिक ज़ोरदार वाक्यों का प्रयोग कर चुके हैं। परन्तु इसके महत्त्व पूर्ण होने का कारण यह है कि यह घोषणा भारत सचिव ने की है जो ब्रिटिश के ताज और मन्त्रि- मण्डल के प्रतिनिधि हैं और विधान के अनुसार ब्रिटिश के ताज और मन्त्रिमण्डल ग्रेट ब्रिटेन के निवासियों के प्रतिनिधि हैं।"

आगे चल कर मैंने इस बात पर जोर दिया था कि––

"इस घोषणा में और १८३३ के एकृ की शाही घोषणा से तथा १८५८ की शाही घोषणा हो जो विशेषता है वह भाषा की विशेषता नहीं है बल्कि इस बात की विशेषता है कि इसने भारतीयों के विचारों को जानने की चेष्टा की गई, समय के अनुसार उनको समझा गया और उपस्थित किया गया तया ऐसे दो राजनीतिज्ञों ने अपनी सम्मिलित रिपोर्ट में सम्पूर्ण समस्या का स्पष्ट रूप से और न्याय के साथ वर्णन किया है जो वर्तमान समय में भारत सरकार के सब अफसरों से ऊपर हैं। इस बात को भी अस्वीकार नहीं किया जा सकता कि भारतीय नेताओं ने इस घोषणा और रिपोर्ट की हृदय से प्रशंसा की है।"

हमने ये लम्बे उद्धरण पाठकों को यह बतलाने के लिए उपस्थित किये हैं कि जब यह घोषणा की गई थी तब हम भारत के राष्ट्रवादियों ने इसे किस रूप में ग्रहण किया था।

ऐंग्लो इंडियन अफसरों ने भी भारत-मंत्री के कार्य का उदारता के साथ समर्थन किया था। उनके एक मुख्य और विश्वासपात्र वक्ता सर हारकोर्ट बटलर ने, जो उस समय संयुक्त-प्रान्त श्रागरा और अवध के लेफ्टिनेंट गवर्नर थे, नवीन परिवर्तन की आवश्ययकता पर जोर दिया था। सर हारकोट' बटलर ने तत्त्ववेत्ता के समान व्यवस्था दी थी कि 'कोई वस्तु सदा एक ही सी नहीं रहेगी और कहा था कि:––

"इतना तो निश्चय है कि हमें अपने समस्त प्राचीन आदर्शों को हटा देना पड़ेगा और नये सिरे से आरम्भ करना होगा।......हम जल-विभाजक को पार कर चुके हैं और अब नवीन भूमि की ओर देख रहे हैं। प्राचीन भविष्यबाणियाँ अब गूँगी पड़ गई हैं। प्राचीन पहरेदारों के बोल अब नहीं सुनाई पड़ते। प्राचीन आदर्श, विधान और गहरे जमे विचार अब बिना तर्क या समालोचना या यादगार के हटाये जा रहे हैं........."

मांटेग्यू की भाँति बटलर ने भी शासन के प्राचीन मंत्र को अत्यन्त जड़ कठोर और असामयिक बतलाया था। उन्हीं के शब्दों में पढ़िए:––

"हमारे शासन के यन्त्र का सम्बन्ध दूसरे युग से है। यह ऊपर से भारी है। यह जान बूझ कर मन्द और दुःखदायक गति से चलता है। विलम्ब में ही इसे प्रसन्नता है। इसकी उत्पत्ति उस समय हुई जब कोई लक्ष्य नहीं था, जब कोई परिवर्तन नहीं चाहता था और जब केन्द्रीय और प्रान्तीय सरकारों की प्रबल इच्छा इतनी ही थी कि धन बचाया जाय। अब राष्ट्रीय नवयुग की उमङ्ग पैदा हुई है; आर्थिक वसन्त ऋतु का समय है; जल्दी जल्दी कार्य करने, जल्दी उत्तर देने और नये नये साहसपूर्ण प्रयोगों की पुकार मची है।"

'लाल फीते' के सम्बन्ध में बोलते हुए उन्होंने एक पादरी की बातों का स्मरण किया। जिसने उनसे कहा था कि 'रोम ने शताब्दियों के अनुभव के पश्चात् विलम्ब को विज्ञान बना दिया था। वह स्थापित करने और भविष्य पर डालने की ही बातें सोचा करता था। पर भारत सरकार ने रोम की भी नाक काट ली है।'

इस व्याख्यान की मैंने नीचे लिखे अनुसार समालोचना[]की थी। इस उस समय के प्रचलित विचारों का नमूना ही समझिए––

"भारतवासियों के लिए यह वक्तव्य ब्रिटिश प्रधानमन्त्री के भी वाक्यों से अधिक महत्वपूर्ण है। क्योंकि यह नौकरशाही के एक एँग्लो इंडियन सदस्य के मुँह से निकला है। यदि यह वक्तव्य केवल जुबानी नहीं है बल्कि भारतवर्ष में नौकरशाही के हृदय के सच्चे परिवर्तन का द्योतक है तो हम लोगों के लिए यह समझना और भी कठिन हो जाता है कि भारत-मंत्री और वासयराय की नवीन योजना में शिक्षित भारतीयों के प्रति इतना अविश्वास क्यों प्रकट किया गया है। कुछ भी हो, हमें उस स्पष्टवादिता और न्याय के भाव की प्रशंसा करनी चाहिए जो उस रिपोर्ट का विशेष गुण है। जिस परिणाम पर वे पहुँचे हैं उससे हमारा कितना ही मतभेद क्यों न हो, हमें यह स्वीकार करना चाहिए कि समस्याओं की व्याख्या और विधानात्मक बातें अत्यन्त अच्छे ढङ्ग से उपस्थित की गई हैं और परिस्थिति को जैसा उन्होंने समझा है उसके अनुसार आवश्यकताओं की पूर्ति के उन्होंने जो उपाय सोचे हैं वे पूर्ण रूप से हार्दिक और सच्चे हैं। इसलिए यह और भी आवश्यक है कि सब श्रेणियों के और सब विचारों के भारतीय राष्ट्रवादी छिद्रान्वेषण के भाव से नहीं, रचनात्मक भाव से और सहयोग के विचार से इस समस्या पर गम्भीरता के साथ विचार करें।"

ये सब बातें १९१९ ईसवी के आरम्भिक भाग में रौलट बिल का क़ानून बनने और महात्मा गान्धी का सत्याग्रह आन्दोलन आरम्भ होने से पहले हुई। उस समय भी नौकरशाही का एक ऐसा दल था जो मांटेग्यू को गालियाँ दे रहा था और उनके ऊपर दाँत पीस रहा था। तथा उन्होंने जो कुछ थोड़ा बहुत किया था उसको नष्ट करने का पूरा निश्चय किये हुए था। इस दल के प्रतिनिधि सर माइकल ओडावर और जनरल डायर थे। पहले महाशय ने एक विद्रोह की गढ़न्त की और दूसरा भारतवासियों को उस स्थान पर पहुँचाने चला, जहाँ उसकी समझ में उन्हें रहना चाहिए था। अमृतसर के नर-संहार और मार्शल ला के अत्याचार इन्हीं भावनाओं के परिणाम थे।

परन्तु उस समय भी अमृतसर की काँग्रेस (दिसम्बर १९१९) ने यह स्वीकार करते भी कि सुधार अपूर्ण और असन्तोष तथा निराशाजनक है निश्चय किया था कि वे जिस योग्य हो उसी के अनुसार उन पर कार्य करना चाहिए। इसमें सन्देह नहीं कि उन्होंने इसको समझने में भूल की थी। 'शीघ्र और उदार भावों की प्रेरणा' के एक क्षण में ही उन्होंने यह विश्वास कर लिया था कि अगस्त १९१७ की घोषणा निष्कपट और यथार्थ है और ब्रिटिश लोग अपने वचन पर दृढ़ रहेंगे। ब्रिटेन के उपनिवेशों और आयर्लेंड के प्रति किये गये व्यवहारों को उन्होंने जान बूझ कर भुला देना ही पसन्द किया। और अपने विचारों में असंशयात्मक भाव से ग्रेटब्रिटेन के प्रति आशा और विश्वास को स्थान दिया। उन्हें यह भूल गया कि साम्राज्यवाद के कोष में कृतज्ञता जैसा कोई शब्द नहीं है और उन्हें प्रत्येक पद पर पराजित करने के लिए स्वार्थ-भावनाएँ अब भी वैसी ही प्रबल हैं। अब ब्रिटेन का काम निकल गया था। नवीन समय के लिए नवीन विधान होने चाहिए। युद्ध विजय प्राप्त हो चुकी थी, साम्राज्य सुरक्षित हो चुका था, इसलिए ब्रिटेन ने फिर अपनी मनमानी आरम्भ कर दी। यहाँ तक कि मांटेग्यू को जो थोड़े से सुधार उपस्थित करने की आज्ञा दी गई थी, उनको भी नष्ट करने की तैयारी होने लगी। वे लूट-खसोट की नीति को ही जारी रखना चाहते थे। जैसा कि मांटेग्यू ने कहा था, भारत सरकार कुछ कम या अधिक एक व्यक्ति- हीन यंत्र के समान निर्जीव, निर्दय और क्रूर थी। यह अपनी उसी प्राचीन नीति को फिर से व्यवहार में लाने का अवसर ढूँढ़ रही थी जिसका सर जार्ज विज़नी ने अपनी 'भारतवर्ष में प्रयोग'[] नामक पुस्तक में समर्थन किया उस पुस्तक के अन्तिम शब्द ऐंग्लो-इंडियन के वास्तविक विचारों को प्रकट करते हैं और मिस मियों की पुस्तक के उस भाग का ख़ासा मुँहतोड़ जवाब देते हैं जिसमें उसने यह सिद्ध करने की चेष्टा की है कि ब्रिटेन अपने भारतवर्ष में शासन से कोई आर्थिक लाभ नहीं उठाता।

सर जार्ज की समझ में 'विधानात्मक सुधारों की सारी चर्चाओं में––बढ़ाने या घटाने की समस्त सम्भतियों में––एक प्रकार की निरर्थकता का भाव होता है।' क्योंकि उन्हीं के शब्दों में 'मुख्य प्रश्न' यह है कि 'शासन करेगा कौन?' प्रमाण देने के लिए सर जार्ज ब्रिटेन की नैपोलियन के समय से लेकर सदा की वैदेशिक नीति को नीचे लिखे अनुसार उपस्थित करते हैं:––

"भारतवर्ष में अँगरेज़ों की जिस शक्ति ने इतनी कठिनाइयों को पार किया था, जिसे पूर्ण रूप से स्थापित होने से पहले नेपोलियन की आकांक्षाओं को परास्त करना पड़ा था, जो हाल की स्मृति में प्रत्यक्षतः रूस के अनिवार्य आक्रमणों को रोकने की खुशी खुशी तैयारी कर रही थी, यदि उसे राष्ट्रीय सनक की एक क्षणिक मौज में त्याग दिया जाय तो एक विचित्र परिस्थिति उत्पन्न हो जायगी।"

अन्तिम चेतावनी के रूप में सर जार्ज ब्रिटिश जनता से प्रार्थना करते हैं कि 'आप लोग प्राकृतिक अधिकार, आत्म-निश्चय और ऐसे अन्य भ्रमोत्पादक राजनैतिक धर्माचरण के शब्दों को सदा के लिए खारिज कर दीजिए और प्रत्येक वस्तु को इस दृष्टिकोण से देखिए कि उससे आपको क्या लाभ हो सकता है।' इस वक्तव्य से ब्रिटिश शासन उतना लोकोपयोगी सिद्ध नहीं होता जितना मिस मेयो उसे बतलाती है। लोकोपयोगी उद्देश्यों के प्रश्न पर सर जार्ज ने इतना बढ़कर और इतने स्पष्ट रूप से विचार किया है कि नीचे उनकी पुस्तक से एक लम्बा उद्धरण देना अनुचित न होगाः––

"भारतवर्ष दो स्वामियों के अधीन नहीं रह सकता। यदि ब्रिटेन पृथक् खड़ा होता है तो भारतवासी तुरन्त लड़ मरेंगे। भारत निर्वाचन नहीं चाहता; पर इँगलैंड के लोग उस पर बलपूर्वक यह बला लादने जा रहे हैं इसलिए उन्हें अपने इस सरल प्रतीत होनेवाले कार्य के परिणामों को खूब अच्छी तरह समझ लेना चाहिए। यह देखते हुए कि रूस से भारत की रक्षा करना, १९ वीं शताब्दी के मध्य से उसके अन्त तक, हमारी मुख्य वैदेशिक नीति रही है––वर्तमान समय में भी यह देखते हुए कि ब्रिटेन की कर सहन करने की पीड़ित शक्तियों पर एशिया में अपना राज्य कायम रखने के लिए कितना ख़र्चीला बोझा लादा जा रहा है, इस बात पर कठिनता से विश्वास किया जा सकता है कि वे (इँगलैंडनिवासी) इस ओर से उदासीन हैं। मेसोपोटामिया में हमारे युद्ध करने का इसके अतिरिक्त और क्या उद्देश्य हो सकता है कि शत्रु के प्रभावों को भारतवर्ष से दूर पर रक्खा जाय? इससे यह प्रतीत होगा कि हम लोगों का भी बहुत कुछ वहीं विश्वास है जो हमारे पूर्वजों का था। अर्थात् यदि हम संसार की ईष्या के विरुद्ध इस महान् पुरस्कार को जीत लें और इसे अपने अधिकार में बनाये रहें तो इसके सामने कोई बलिदान या उद्योग या संयोग कुछ नहीं है। परन्तु यदि इन अन्तिम दिनों में प्रजातांत्रिक मस्तिष्क को राष्ट्र की शान का बिल्कुल ध्यान नहीं रह गया है तो कम से कम उस आर्थिक परिणाम की ओर ध्यान देना चाहिए जो भारतवर्ष के हमारे हाथ से निकल जाने पर हमारे प्रत्येक गृह में उपस्थित हो जायगा। बेशक, अभी से उनका कोई विवरण नहीं दिया जा सकता परन्तु उनका साधारण प्रभाव बिना बहुत बड़ा हुए नहीं रहेगा।

"अपने विभिन्न स्वार्थों पर, अपनी पूँजी पर, ब्याज से पलने- वालों की संख्या पर, ब्रिटिश के धन्धों के लिए भारत के उद्भिज पदार्थों के महत्त्व पर, सरकारी या व्यापारी कार्य्य में लगे अँगरेज़ों की संख्या पर, अपने देश के मनुष्य-समूह-व्यापारी, जहाज़ी, विभाजन-कर्ता, उत्पादनकर्ता और व्ययकर्ता जिनकी उन्नति और सुविधा भारतीय सम्बन्ध पर अवलम्बित है-पर विचार किया जाय तो क्या यह स्पष्ट नहीं है कि भारतीय सम्बन्ध के ज़रा भी विच्छेद से इन पर और इनके द्वारा देश के समस्त लोगों पर बड़ा गहरा प्रभाव पड़ेगा। भारतवर्ष में हिन्दू राज्य स्थापित होते ही, चाहे वहाँ अशान्ति रहे चाहे शान्ति, अँगरेज़ों की आर्थिक स्थिति में क्रान्ति उत्पन्न हो जायगी।" (मोटे वाक्य हमारे हैं)

कुछ समय हुआ बाल्डविन-शासन-काल के गृह मन्त्री सर विलियम जानसन हिक्स ने बिलकुल इसी प्रकार की भाषा में 'लोकोपयोगी' उद्देश्यों को ख़ारिज कर दिया था। उनके व्याख्यान का इस विषय से सम्बन्ध रखनवाला अंश नीचे दिया जाता है:-

"हमने भारतवर्ष को भारतवासियों के हित के लिए नहीं जीता। मैं जानता हूँ कि ईसाई-धर्म-प्रचारकों की सभाओं में यह कहा जाता है कि हमने भारतवासियों की स्थिति सुधारने के लिए उस देश को जीता था। यह छल-मात्र है। हमने भारतवर्ष को ब्रिटेन का माल बेचने के लिए जीता है। भारतवर्ष को हमने तलवार से जीता है और तलवार से ही हम इसे अपने अधिकार में रक्खेंगे.........मैं ऐसा पाखण्डी नहीं हूँ कि यह कहूँ कि हम भारतवर्ष पर भारतवासियों के लिए अधिकार किये हुए हैं। हम इसे ब्रिटिश माल की बिक्री का सबसे अच्छा बाज़ार समझ कर अपने वश में किये हुए हैं। साधारण रूप से सब ब्रिटिश वस्तुएँ बेचते हैं और विशेष रूप से लङ्का-शायर का रुई का वस्त्र।"

हमारा यह कहना है और अनेक राष्ट्रवादियों की यही सम्मति है कि सुधारों में जन्म के दोष तो हैं ही वे उस उत्साह के साथ कार्य्यरूप में नहीं परिवर्तित किये गये जिस उत्साह के साथ वे दिये गये थे। इँगलेंड-सरकार और भारत-सरकार दोनों सुधारों के द्वारा जिस भँवर में पड़ गईं थीं उससे निकलने के लिए आरम्भ ही से छटपटाने लगी थीं। क़ानून के शब्दों का भी सदा पालन नहीं किया गया है। सुधरी हुई सरकार की प्रान्तीय क्षेत्र में और राष्ट्रीय क्षेत्र में सर्वत्र यह सिद्ध करने की चिन्ता प्रतीत होती है कि (क) सुधारों के देने में भूल हुई है। (ख) सुधारों में सफलता नहीं प्राप्त हुई। (ग) सुधारों में वृद्धि करने का कोई कारण नहीं है परन्तु इस बात के लिए कारण है कि जो कुछ दिया गया है वह वापस क्यों न ले लिया जाय? प्रत्येक अवस्था में यह बात स्पष्ट हो जाती है कि राष्ट्रवादियों के हृदय में और विश्व में शान्ति और उन्नति चाहनेवाले अन्तर्राष्ट्रवादियों के हृदय में सुधारों से जो बड़ी आशा थी वह पूरी नहीं हुई।

जब सुधारों की रचना हो रही थी तब मैं अमरीका में था। मांटेग्यू चेम्सफ़ोर्ड रिपोर्ट का मेरे दिल पर जो प्रभाव पड़ा था उसे मैंने अपनी 'भारतवर्ष का राजनैतिक भविष्य' नामक पुस्तक में लिखा था। उस पुस्तक को मैंने अमरीका में प्रकाशित किया था। सुधारों का प्रत्येक अवस्था में भारतवर्ष की राजनीति पर क्या प्रभाव पड़ेगा? इसकी मैंने उस पुस्तक में विवेचना की थी। मैंने यह भी लिखा था कि पञ्जाब के प्रति किये गये अत्याचार के होते हुए भी अमृतसर की कांग्रेस ने सुधारों को किस प्रकार स्वीकार किया था। अमृतसर का प्रस्ताव एक प्रकार का समझौता था। यह समझौता-जो सुधारों का बहिष्कार करना चाहते थे क्योंकि वे 'असन्तोषजनक, अपूर्ण और निराशाजनक' थे और जो त्रुटियों पर ध्यान न देते हुए उन पर कार्य्य करना चाहते थे-उनके बीच में हुआ था। प्रस्ताव महात्मा गांधी की व्यक्तिगत जीत का फल था। स्वर्गीय लोकमान्य तिलक और स्वर्गीय देशबन्धुदास सुधारों को अस्वीकार करने के पक्ष में थे और अपने विचारों के लिए वे उग्र रूप से लड़े थे।

१९२० ईसवी में परिस्थिति क़रीब क़रीब बिलकुल बदल गई। पञ्जाब के अत्याचारों के सम्बन्ध में हन्टर कमेटी की रिपोर्ट, उस पर पार्लियामेंट में बहस और भारत सरकार की कार्य्यवाही से हमें उस परिवर्तन का प्रथम आभास मिला जो भारत के ब्रिटिश शासकों के हृदयों में आरम्भ हो चुका था। सितम्बर १९२० ईसवी में कांग्रेस ने अपने कलकत्ते के विशेष अधिवेशन में एक बड़े बहुमत से प्रसद्ध असहयोग का प्रस्ताव पास किया जिसके अनुसार कांग्रेस ने कौंसिलों और सुधारों के बहिष्कार करने का निश्चय किया। यहाँ भी महात्मा गान्धी की व्यक्तिगत रूप से विजय हुई। लोकमान्य तिलक की मृत्यु हो चुकी थी परन्तु कहा जाता है कि मरने से पूर्व उन्होंने अपनी यह इच्छा प्रकट की थी कि कौंसिलों का बहिष्कार न होना चाहिए। देशबन्धुदास, बाबू विपिनचन्द्र पाल, और अन्य दूसरे भारतीय राजनीति में प्रसिद्ध नेता बहिष्कार के विरुद्ध थे। पण्डित मोतीलाल नेहरू महात्मा के साथ थे। प्रस्ताव राजनैतिक मस्तिष्क की अपेक्षा जनता के विचारों का प्रतिबिम्ब प्रतीत हो रहा था।

सुधारों के अनुसार अन्तिम चुनाव नवम्बर १९२० में हुआ। कांग्रेस का कोई सदस्य चुने जाने को नहीं खड़ा हुआ। नर्म दलवाले बड़ी व्यवस्थापिका सभा में और छोटी व्यवस्थापिका सभाओं में खूब अधिक संख्या में पहुँचे। उस समय तक वे ब्रिटिश राजनीतिज्ञों के प्रियपात्र थे। लार्ड मारले उन्हें एक हिबा दे गये थे। सरकार का अब तक उनमें विश्वास था और उनके नेता भिन्न-भिन्न प्रान्तों में मंत्री और कार्य्यकारिणी सभा के सदस्य बनाये जाते थे। इनमें से एक को भारत सरकार ने अपना 'ला' मेम्बर भी नियुक्त किया था। इस प्रकार १९२१ ईसवी में सुधारों का कार्य्य नरम दलवालों की ओर से आशा और कांग्रेस के राष्ट्रवादियों की ओर से सन्देह की स्थिति में प्रारम्भ हुआ। १९२१ ईसवी में असहयोग अपने शिखर पर था। १९२१ ईसवी के अन्त में यह ४०,००० राष्ट्रवादियों की जेल-यात्रा के साथ, जिनमें उत्तरी भारत के सबसे बड़े नेता भी सम्मिलित थे, सर्वोच्च सीमा पर पहुँचा। मार्च १९२२ ईसवी में स्वयं महात्मा गान्धी भी गिरफ़्तार कर लिये गये। नरम दल के नेता, मंत्री और कार्य्यकारिणी के सदस्य तब भी सरकार के साथ थे। और सरकार असहयोग आन्दोलन का दमन करने के लिए जो उपाय सोचती थी उसका वे साधारणतया समर्थन ही करते थे। असहयोग आन्दोलन क्यों और कैसे आरम्भ हुआ और उसने क्या किया; आदि बातों पर विचार करने का यहाँ स्थान नहीं है। परन्तु इस बात को कोई अस्वीकार नहीं कर सकता कि देश में इसने ऐसी राजनैतिक जाग्रति उत्पन्न कर दी जैसी पहले कभी नहीं हुई थी और ब्रिटिश के प्रति लोगों में इसने अविश्वास और घृणा भी ऐसी उत्पन्न कर दी जैसी पहले कभी नहीं थी। यदि नरम दलवाले भी असहयोग आन्दोलन में भाग लेते तो सरकार की निश्चय पराजय होती और यह सन्धि के लिए प्रस्ताव करती। परन्तु सम्पूर्ण युद्ध में इन लोगों ने सरकार का ही साथ दिया।

प्रथम सुधार-शासन तीन वर्ष रहा। १९२० से १६२३ तक। और इसको जो कुछ भी सफलता मिली उसका मुख्य कारण नर्म दलवालों का हार्दिक सहयोग था। १९२३ ईसवी के साधारण निर्वाचन में नर्मदलवाले कांग्रेस के मनुष्यों द्वारा हराये गये। उन्हीं के शब्दों में कहें तो हराये ही नहीं गये, मैदान से भगा दिये गये। परन्तु उसी समय एक विचिन्न परिस्थिति यह उत्पन्न हो गई कि सरकार ने भी उनको छोड़ना प्रारम्भ कर दिया और उनके स्थान पर ऐसे लोगों को भर्ती करना प्रारम्भ कर दिया जिन्होंने अब तक देश की राजनीति में जरा भी भाग नहीं लिया था। और जो अपने उलटे विचारों के लिए प्रसिद्ध थे।

इससे सुधारों की अधोगति आरम्भ हुई। अब असहयोग आन्दोलन निर्बल पड़ गया था। हिन्दू-मुसलिम-वैमनस्य बढ़ रहा था। सरकार ने इसकी सृष्टि की थी और वही इसका पालन कर रही थी तथा सरकारी अफ़सर और अन्य स्वार्थ रखनेवाले व्यक्ति इसको जानबूझ कर प्रोत्साहन दे रहे थे। नौकरशाही अपना खोया हुआ प्रभाव फिर से प्राप्त कर रही थी। इसी अवसर पर अधिकारियों ने राष्ट्रविरोधी शक्तियों से अपना अपवित्र सम्बन्ध स्थापित किया और उन्हें राष्ट्र को पीछे ढकेलने के लिए अपना हथियार बनाया। उसके पश्चात् सुधार विरोध का पर्यायवाची हो गया; और ऐसी कार्य्यवाहियाँ की गई जिन्होंने सुधारों को केवल मज़ाक की ही वस्तु नहीं बना दिया बल्कि भारतवासियों की स्वराज्य की मांग के प्रति ब्रिटिश राजनीतिज्ञों के भावी निश्चय का भी स्पष्ट आभास करा दिया। स्थानाभाव के कारण हम इन बाधक कार्य्यवाहियों का विस्तृत वर्णन नहीं कर सकते। उनके सम्बन्ध में हम केवल दो चार मोटी मोटी बातें बता सकते हैं।

महत्त्व और समय के अनुसार पहले हम उस निर्णय का उल्लेख कर सकते हैं जो सरकार ने सार्वजनिक नौकरियों के सम्बन्ध में ली कमीशन के विवरण पर दिया था। इस निर्णय के अनुसार देश पर एक करोड़ रु॰ वार्षिक व्यय का भार और आ पड़ा। परन्तु यही इसमें सबसे बुरी बात नहीं थी। इसने भारतवर्ष में अँगरेज़ी शासन के 'लोहे के पिंजड़े' को और भी दृढ़ कर दिया। मिस्टर लायड जार्ज उस समय भी ग्रेटब्रिटेन में शासन के प्रधान पद पर थे और उनके भाषण से यह स्पष्ट प्रकट हो गया था कि ब्रिटिश लोगों के हृदय में क्या है? मिस्टर लायड जार्ज अपने निकृष्ट प्रकार के ढोंग के लिए प्रसिद्ध हैं। अन्तरात्मा की पुकार उनके लिए व्यर्थ है और वादों तथा प्रतिज्ञाओं की पवित्रता की भी वे परवाह नहीं करते। स्वयं उनके मित्र उन्हें विश्वास के योग्य नहीं समझते।

परन्तु इस सम्बन्ध में उन्होंने जो कुछ कहा वह वास्तव में ग्रेटब्रिटेन के साम्राज्यवादी मस्तिष्क की बात थी। ली कमीशन की रिपोर्ट पर सरकार ने जो कार्य्यवाही की है उसने भारत की बेड़ियों को आनेवाले दसों वर्ष के लिए और भी कस दिया है। कोई भारतीय इसे भुला नहीं सकता। जब तक उच्च नौकरियों पर अँगरेज़ नियुक्त किये जायँगे तब तक भारतवर्ष में न स्वराज्य हो सकता है और न वास्तविक स्वशासन की ओर कोई उन्नति हो सकती है। इस विषय में भारत के विरोधी 'दी लास्ट डोमिनियन, के रचयिता अल कारथिल के भी वही विचार हैं जो भारतवासियों के हैं।

कोष और सेना ही शासन की कुञ्जियां हैं। सुधारयुक्त सरकार भारतीय कोष के कुप्रबन्ध के लिए और कानूनी शक्तियों का जानबूझ कर दुरुपयोग करने के लिए बदनाम हो चुकी है। कर-सम्बन्धी जिन प्रस्तावों को व्यवस्थापिका सभा ने अस्वीकार कर दिया था उन्हें गवर्नर जेनरल ने स्वीकार कर लिया है। उन्होंने सर्वमान्य और प्रातिनिधिक सभा के विरुद्ध व्यय करने की स्वीकृति दी है। इसके अतिरिक्त सरकार ने 'एक्सचेंज' को अपने हाथ में रखकर और 'करेंसी' का चतुरता के साथ प्रयोग करके भारतीय करदाताओं के अरबों रुपये छीन लिये हैं। इसने व्यवस्थापिका सभा के निर्णय का और देश के ग़ैर सरकारी बुद्धिमान् व्यक्तियों की सम्मति का घोर तिरस्कार किया है।

भारतवर्ष का व्यापार अँगरेज़ी जहाजों-द्वारा होता है। अँगरेज़ सरकार की नीति सदा यह रही है कि भारतीय जहाज़ी कम्पनियों को कोई प्रोत्साहन न मिलने पावे। अँगरेज़ी जहाज़ भारतीय माल उत्पन्न करनेवालों के हितों की कोई परवाह नहीं करते, तिस पर भी भारत को अपना निजी सामुद्रिक व्यापार-संघ स्थापित करने की आज्ञा नहीं मिलती। भारतीय सामुद्रिक व्यापार-सभा की १९२४ की सिफ़ारिशें चुपचाप ताक पर रख दी गईं।

इस भाव के पीछे जो नीति काम कर रही है वह अब भी प्रबल ही होती जाती है। रेलवे शासन की लगाम सरकार दृढ़ता के साथ अपने हाथ में लिये हुए है। और व्यापारिक कर की ऐसी व्यवस्था की जाती है कि ब्रिटिश व्यापार को सहायता मिलती है और भारतीय औद्योगिक विकास की उन्नति में बाधा पहुँचती है। रेल का प्रबन्ध पूर्ण-रूप से अँगरेज़ों के ही हाथ में है और सरकार ने रेलवे बोर्ड में एक भी भारतीय सदस्य रखना अस्वीकार कर दिया है। इसका भयानक कारण यह बतलाया है कि भारतवर्ष में एक सिरे से लेकर दूसरे सिरे तक कोई ऐसा व्यक्ति नहीं है जो इस पद के योग्य हो। इससे भारतवासियों को और भी यह विश्वास हो गया है कि भारतवासियों के लिए स्वराज्य के प्रति सरकार की सच्ची सहानुभूति नहीं है।

व्यापार-कर की नवीन नीति यह है कि ब्रिटेन और साम्राज्य की वस्तुओं को दबे दबे पहले मौक़ा दिया जाता है। इस देश का सबसे अधिक अपमान करने वाली मदर इंडिया की लेखिका का सरकारी अफ़सरों ने बहुत ही अधिक आदर-सत्कार किया है फिर भी वे पाखण्ड के साथ हमसे कहते हैं कि अमरीका की फ़िल्मों में भारतीय जीवन अपमान के साथ उपस्थित किया जाता है इसलिए हमें ब्रिटिश फ़िल्मों को पहले ख़रीदना चाहिए। यह उपदेश केवल इसलिए दिया जा रहा है कि ब्रिटिश के फ़िल्म बनानेवाले अपने अमरीकन प्रतिद्वन्द्वियों की समता गुणों में नहीं कर सकते।

कोष से सेना की ओर आने पर हम देखते हैं कि एक ओर तो हमसे यह कहा जाता है कि हम भारतवासी लोग भारतवर्ष की रक्षा करने में असमर्थ हैं इसलिए यहाँ ब्रिटिश शासन की बराबर आवश्यकता है और दूसरी ओर हमें उस कार्य के योग्य बनने के लिए जान बूझ कर और बलपूर्वक अवसर नहीं दिया जाता। सेना-विभाग अत्यन्त पवित्र है। इसके व्यय पर मत नहीं दिया जा सकता और इसके उच्च पदों तक भारतवासियों को नहीं पहुँचने दिया जाता। ३१ करोड़ ५० लाख मनुष्यों की संख्या में से केवल ९ भारतीय प्रतिवर्ष सेना में उच्च पदों के लिए भर्ती किये जाते हैं।

१९२५ ईसवी में बड़ी व्यवस्थापिका सभा की लगातार मांग पर सरकार ने सेना में उच्च पदों पर भारतीयों के लिए जाने के प्रश्न पर विचार करने के लिए सरकारी और ग़ैर सरकारी व्यक्तियों, सेना के सम्बन्ध में अनुभव रखनेवाले व्यक्तियों और प्रातिनिधिक भारतीयों की एक कमेटी नियुक्त की। कमेटी का सभापति एक सरकारी अफ़सर नियुक्त हुथा। इस कमेटी ने सर्वसम्मति से एक विवरण उपस्थित किया जिस पर एक वर्ष तक कोई आज्ञा नहीं दी गई। और अन्त में 'गोरी सभा' ने इसकी मुख्य सिफ़ारिशों को भी रद कर दिया। भारतवासियों को न थल-सेना में अवसर दिया जाता है, न जल-सेना में और न हवाई सेना में।

सुधारों की कार्य्यवाही की परीक्षा करने और भारतवर्ष के लिए नये विधान की सिफ़ारिश करने के लिए पूर्ण-रूप से अँगरेज़ी कमीशन नियुक्त करके सरकार ने अपनी विरोध नीति को उसकी पराकाष्ठा पर पहुँचा दिया है। तब क्या यह कोई आश्चर्य्य की बात है कि भारतवासियों को ब्रिटिश की नेकनीयती में ज़रा भी विश्वास नहीं रह गया है; और वे अपने इस अविश्वास को बड़ी व्यवस्थापिका सभा की बैठकों में प्रायः बड़े कटु शब्दों में प्रकट करते हैं?

 

  1. दोनों को बी॰ डब्ल्यू॰ ह्मूबच, न्यूर्याक में प्रकाशित किया था। यंग इंडिया को हालही में लाहौर की सर्वेंट आफ़ दी पीपुल सोसाइटी में प्रकाशित किया है।
  2. पृष्ठ १२१
  3. पृष्ठ ९ और आगे।
  4. उसी पुस्तक से, पृष्ठ १३-१४।
  5. जान मर्रे लन्दन द्वारा प्रकाशित।