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दुखी भारत/७ शिक्षा क्यों नहीं दी जाती?

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प्रयाग: इंडियन प्रेस, लिमिटेड, पृष्ठ १०९ से – ११४ तक

 
सातवाँ अध्याय
'शिक्षा क्यों नहीं दी जाती?

मिस मेयो ने स्वयं भारत-सरकार के काग़जों में लिखी हुई इन सब बातों की उपेक्षा की है। पैसा बटोरनेवाले लेखक गम्भीर और सत्य विषयों को नहीं उपस्थित कर सकते। ऐसे लेखक भारतीयों की विषय-वासना को खींच-खाँच कर प्रत्येक बात के साथ जोड़ने का मदर इंडिया का ही ढङ्ग अधिक सुगम समझते हैं। अपनी पुस्तक के 'शिक्षा क्यों नहीं दी जाती?' शीर्षक अध्याय में उसने भारतवर्ष में चारों तरफ़ फैली निरक्षरता का कारण बताने की चेष्टा की है। वह हमें बतलाती है कि बिना अध्यापिकाओं के गाँवों में शिक्षा का प्रबन्ध नहीं किया जा सकता। और अध्यापिकाएँ गाँवों में जाती नहीं क्योंकि 'सन्तानोत्पत्ति की अवस्थावाली स्त्रियाँ बिना विशेष संरक्षण के भारतीय पुरुषों की पहुँच में जाने का साहस नहीं कर सकतीं[]।' भारतीय राष्ट्र पर यह दुष्टतापूर्ण दोषारोपण सर्वथा निराधार है। सदाचार में औसत दर्जे का भारतीय ग्रामीण अमरीका और योरप के लोगों की अपेक्षा कहीं अधिक संयमशील, दृढ़व्रती और उच्च होता है। मनुष्यों से बसे लगभग आधे संसार का अनुभव करने के पश्चात् मैं यह कह रहा हूँ। मिस मेयो ने अपने पक्ष का समर्थन करने के लिए कलकत्ता-विश्वविद्यालय के जाँच कमीशन के विवरण से एक वाक्य उद्धृत किया है। अपने प्रकरण में मिस मेयो ने उस वाक्य को स्वयं कमीशन की सम्मति[] बतलाया है परन्तु सच बात यह है कि वह वाक्य कमीशन की निजी राय नहीं, उसके अन्य स्थान से लिये गये उद्धरण का एक अंश-मात्र है। कमीशन की सम्मति केवल इसी कथन तक परिमित है कि 'अध्यापिकाओं की स्थिति बड़ी संकटमय है क्योंकि उनके सम्बन्ध में लोगों के अच्छे विचार नहीं हैं।' मिस मेयो जो बात सिद्ध करना चाहती है उससे इन शब्दों का अर्थ सर्वथा भिन्न है। इससे उस वाक्य का भी अर्थ स्पष्ट हो जाता है जिसे मिस मेयो ने कमीशन की सम्मति कहा है; यद्यपि वह कमीशन के सामने दी गई एक गवाही का अंश है जिसमें इस बात पर खेद प्रकट किया गया था कि जो स्त्रियाँ पर्दे में नहीं रहतीं लोग उनकी रक्षा और सम्मान का ध्यान नहीं रखते। ठीक हो या ग़लत बङ्गाल के देहात में स्त्रियों का पर्दे में ही रहना सम्मानसूचक समझा जाता है।[] क्या इस सम्मति से जिसका उल्लेख केवल बङ्गाल के सम्बन्ध में किया गया है मिस मेयो द्वारा समस्त भारतीयों पर लगाया गया भयङ्कर अपराध न्याययुक्त कहा जा सकता है?

उत्तर-भारत के एक अमरीकन मिशन कालिज के प्रधान के साथ जिस वक्तव्य का सम्बन्ध लगाया गया वह भी इसी प्रकार शैतानी और द्वेष से भरा हुआ है। उसकी सत्यता पर विश्वास करने का कोई मार्ग नहीं है।

मिस मेयो ने अपनी पुस्तक के १९१ पृष्ठ पर मध्यप्रान्त के शिक्षा-विभाग के भूतपूर्व डाइरेक्टर मिस्टर आर्थर मेह्यू की 'भारतवर्ष में शिक्षा-प्रचार' नामक पुस्तक से उद्धरण दिया है। यह उद्धरण देने में उसने मिस्टर मेह्यू के कुछ शब्द छोड़ दिये हैं ताकि शेष उद्धरण का पाठकों के दिल पर अनुचित प्रभाव पड़े। नीचे मूल और उद्धृत अंश दोनों बराबर पर दिये जाते हैं। आशा है इससे पाठकों को उसके कुटिल कौशल का पता लग जायगा:—

"एक अत्यन्त गम्भीर विरोध की बात यह है कि जो स्त्रियाँ अपने कुटुम्ब से बाहर काम करती हैं उनकी रक्षा.....करनी कठिन है। उनका बिना अपराध या पतन के काम करना केवल

"एक अत्यन्त गम्भीर विरोध की बात यह है कि जो स्त्रियाँ अपने कुटुम्ब से बाहर काम करती हैं उनकी रक्षा के लिए अनुकूल निवासस्थान और साथियों का प्रबन्ध करना कठिन है।

मिशन-सम्बन्धी संस्थानों में और अच्छे निरीक्षण में रहनेवाले स्कूलों में ही संभव प्रतीत होता है। सब प्रकार के सार्वजनिक स्कूलों के चलाने में वे (विधवाएँ) कोई उल्लेखनीय भाग नहीं ले सकतीं।" [इस प्रकार मदर इंडिया में उद्धृत किया गया है।

उनका बिना अपराध या पतन के काम करना केवल मिशन-सम्बन्धी संस्थाओं में और अच्छे निरीक्षण में रहनेवाले स्कूलों में ही सम्भव प्रतीत होता है। सब प्रकार के सार्वजनिक स्कूलों के चलाने में वे (विधवायें) कोई उल्लेखनीय भाग नहीं ले सकती!" [इस प्रकार मूल पुस्तक में है]

झूठे बिन्दुओं! केवल दो चार शब्दों को हटाकर तुमने इस उद्धरण का बिलकुल भिन्न अर्थ कर दिया। परन्तु यह उस व्यापार का कौशल है जिसमें मिस मेयो विशेषज्ञ होना चाहती है। भारतीय विधवा के गाँवों में जाकर बिना अनुकूल निवासगृह और साथियों के नहीं रह सकती इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि 'सन्तानोत्पत्ति योग्य आयुवाली होने के कारण वह भारतीय पुरुषों की पहुँच में जाने का साहस नहीं कर सकती।'

अध्यापिकाओं के विरुद्ध लोगों में जो बुरी धारणाएँ उत्पन्न हो गई थीं उनका वर्णन, संयुक्तप्रान्त की जन-संख्या-गणना के विवरण में एक स्थान पर, जिसे मिस मेयो ने अपनी पुस्तक में उद्धृत भी किया है, इस प्रकार पाया जाता है[]:—

"कहा जाता है कि लोगों में यह भाव फैला हुआ है कि लज्जावती स्त्रियाँ अध्यापन कार्य नहीं कर सकतीं। पहले तो इसी बात का पता लगाना कठिन है कि ऐसे भावों की उत्पत्ति कैसे हुई? जहाँ तक हम समझते हैं इसके पक्ष में जो भारतीय मत है वह कुछ इस प्रकार का होगा—'स्त्री के जीवन का उद्देश्य गृहणी बनना है। यदि वह विवाहिता होगी तो उसके गृह-कार्य्य उसे अध्यापिका बनने से रोकेंगे। यदि वह अध्यापिका बनेगी तो गृहकार्य्यों को कैसे करेगी? यदि किसी स्त्री के सम्बन्ध में यह कहा जाय कि वह गृह-कार्य्यों से मुक्त है तो वह अवश्य अविवाहिता होगी। और अविवाहिता स्त्रियाँ जैसा उनको होना चाहिए उससे अच्छी नहीं हो सकतीं। अर्थात् यदि कोई स्त्री अपने गृहकार्यों की उपेक्षा करती है तो इस दशा में उसे जैसी होना चाहिए उससे अच्छी वह नहीं हो सकती।" कदाचित् अध्यापिकाओं के अल्प-संख्यक होने का वास्तविक और प्रबल कारण यह है कि भारतवर्ष में आजन्म-कुमारियां नहीं होती[]

इसमें सन्देह नहीं कि ग्रेट ब्रिटेन और अन्य योरपीय देशों में स्त्री-पुरुषों के जीवन में जो सम्बन्ध है उससे कतिपय जटिल समस्याएँ उत्पन्न हो गई हैं। परन्तु इससे एक यह लाभ भी है कि यह अध्यापिकाओं की भी सृष्टि करता है जो बहुत से लोकोपयोगी कार्य करती हैं। भारतवर्ष में स्त्री-पुरुषों का सम्बन्ध ऐसा नहीं है कि वह आजन्म-कुमारी अध्यापिकाओं की सेना उत्पन्न कर सके। कितने ही योरपीय देशों में विवाहिता अध्यापिकाएं बहुत कम मिलती हैं। हमें यह मालूम हुआ है कि गत महायुद्ध के बाद से ग्रेट ब्रिटेन के शिक्षा विभाग के अधिकारी विवाहिता अध्यापिकाओं के मार्ग में बड़ी अड़चने उपस्थित कर रहे हैं।

पूर्वी आसाम और बङ्गाल की पञ्च-वार्षिक रिपोर्ट से एक प्रमाण उद्घृत कर मिस मेयो लिखती है कि 'ईसाई और ब्रह्मसमाजी स्त्रियों के अतिरिक्त अन्य किसी अच्छे पद पर पहुँची स्त्री को अध्यापन कार्य्य की शिक्षा प्राप्त करने के लिए राज़ी करना अत्यन्त कठिन है। और जो अध्यापन-कार्य्य में योग्यता का प्रमाण-पत्र प्राप्त भी कर लेती हैं......उनमें से अधिकांश जहाँ उनकी आवश्यकता होती है वहाँ जाना अस्वीकार कर देती हैं।'

माना, परन्तु जब गाँवों की आरम्भिक पाठशालाओं में इतना कम वेतन मिलता है तब अच्छे पदों पर पहुँची स्त्रियाँ दूर के गाँवों में जाने के लिए कैसे राज़ी की जा सकती हैं? शिक्षा-सम्बन्धी आठवें पञ्चवार्षिक विवरण में (जो १९१७ से १९२२ तक के लिए है) मिस्टर ऋची लिखते हैं[] कि 'निःसन्देह अधिकांश प्रान्तों में वेतन बढ़ जाने से अध्यापकों की दशा में वास्तविक उन्नति हुई है।......अप्रैल १९२१ में उपस्थित किये गये नवीन वेतन-क्रम के अनुसार संयुक्त प्रान्त में बिना ट्रेनिंग पास किये सहायक अध्यापक कम से कम १२ रुपये प्रतिमास वेतन पाते हैं। ट्रेनिंग पास सहायक अध्यापक १५ रुपये से २० रुपये तक प्रति मास वेतन पाते हैं। और प्रधान अध्यापक २० रुपये से ३० रुपये तक पाते हैं।' मदरास के सम्बन्ध में कहा जाता है कि बिना ट्रेनिंग पास अध्यापकों का वेतन बढ़ाकर १० रुपये प्रतिमास कर दिया गया है और ट्रेनिंग पास अध्यापकों का १२ रुपये। बङ्गाल में अध्यापकों को ८ रूपये से १६ रुपये प्रतिमास तक वेतन दिया जाता है। आसाम में ट्रेनिंग पास अध्यापकों का वेतन ८ रुपये से बढ़ाकर १२ रुपये कर दिया गया है। इसी प्रकार अन्य प्रान्तों में भी कुछ न कुछ वृद्धि हुई है। हमको यह बात भली भाँति मालूम है कि इस 'वास्तविक उन्नति' के पहले आरम्भिक पाठशालाओं के अध्यापक ६ रुपये से ८ रुपये तक वेतन पाते थे जो कि कुलियों की मज़दूरी से भी कम था। पुरुष कोई और काम भी करके इस आय पर अपना दुःखी जीवन व्यतीत कर सकता था पर स्त्री यह नहीं कर सकती थी। मिस्टर पाल[] ने अध्यापकों की जिस योग्यता और बुद्धि पर विशेषरूप से विचार किया है उसका निपटारा इसी ६ रुपये से लेकर १२ रुपये मासिक आय से हो जाता है। मिस मेयो भारत के ग्रामीण अध्यापक को 'उदासी से भरा और अयोग्य' तथा असमर्थ बच्चों के ढेर पर 'लुढ़के हुए भारी कम्बल' के समान बतलाती है तब उसे यह स्मरण रखना चाहिए कि उस बेचारे ग्रामीण अध्यापक का एक मास का वेतन उसकी पुस्तक मदर इंडिया की एक प्रति मोल लेने के लिए भी यथेष्ट नहीं है। यदि आप प्रति मास दो डालर वेतन दें तो आपको २० डालर की योग्यता का व्यक्ति नहीं मिल सकता[]मिस मेयो द्वारा वर्णित भारतीय शिक्षा-कथा का क्या तात्पर्य्य है इसका पता हमें उसके दो परस्पर-विरोधी दृष्टान्तों द्वारा लग जाता है। पहले दृष्टान्त में जो उसकी पुस्तक के 'एक महान वकील' नामक अध्याय में मिलता है हमारे सामने एक अज्ञात पर 'सम्माननीय उच्च हिन्दू' उपस्थित किया गया है जिस पर मिस मेयो ने यह दोष लगाया है कि वकालत में ख़ूब उन्नति करने पर भी वह अपने 'रोग, गन्दगी और अज्ञानता से भरे' गाँव की कोई परवाह नहीं करता। इसके विपरीत हमारे सामने पञ्जाब का एक 'मुसलमान ज़मींदार' उपस्थित किया गया है जिसके सम्बन्ध में यह कहा गया है कि उसने अपने गाँव के किसानों के लिए बहुत कुछ किया है। परन्तु यह बात निश्चय के साथ कही जा सकती है कि इस मुसलमान जमींदार में मिस मेयो का कृपापात्र होने की मुख्य योग्यता यही है कि यह 'भारतवासियों को सार्वजनिक नौकरियों में शीघ्रता(!) के साथ भर्ती करने की सरकार की नई नीति का घोर विरोध करता है,' और 'स्वराज्य-सम्बन्धी राजनीति में कोई दिलचस्पी नहीं लेता।' मिस मेयो का भारत-यात्रा करने और मदर इंडिया नामक पुस्तक लिखने का सम्पूर्ण उद्देश एक बार फिर हमारे सामने आ जाता है जब हम इन परस्पर-विरोधी दृष्टान्तों के बाद ही उसकी पुस्तक में ब्रिटिश डिप्टी कमिश्नर की निम्नलिखित प्रशंसा पढ़ते हैं:—

"परन्तु केवल अँगरेज़ ही एक ऐसा व्यक्ति है जिससे भारत का वर्तमान ग्रामवासी सहानुभूति और अपनी अनेक आवश्यकताओं में स्थायी और व्यावहारिक सहायता की आशा कर सकता है। केवल अँगरेज़ डिप्टी जिला कमिश्नर ही, और कोई नहीं, गाँववालों का माँ-बाप है। और उस डिप्टी ज़िला कमिश्नर के ही सिर पर उनके दुःख और सुख की चिन्ता रात-दिन सवार रहती है।"


  1. मदर इंडिया, पृष्ठ १८६
  2. "कलकत्ता-विश्वविद्यालय के जाँच कमीशन ने इस सम्बन्ध में अपनी सम्मति इस प्रकार प्रकट की थी—जब तक बङ्गाली लोग पर्दे में न रहनेवाली स्त्रियों के प्रति आदर प्रदर्शित करना नहीं सीख लेते तब तक अध्यापिकाओं का मिलना असम्भव होगा। इस कठिनाई का हमें सामना करना चाहिए।" मदर इंडिया पृष्ठ १
  3. यद्यपि शहरों में इस बात पर विशेष ध्यान नहीं दिया जाता। मदरास तथा कतिपय दूसरे प्रान्तों में भी यह बात नहीं मानी जाती, जैसा कि मिस मेयो ने स्वयं स्वीकार किया है।
  4. भारतीय सेंसस रिपोर्ट १९११, भाग १५ पृष्ठ २२९
  5. "यह कहना अधिक सुविधाजनक है कि १७ या १८ वर्ष की आयु के पश्चात् वेश्या और रोगिणी जैसी अन्धी या कोढ़िन को छोड़ कर और कोई स्त्री अविवाहिता नहीं रह सकती। बीस वर्ष से ऊपर आयु की अविवाहिताओं की संख्या बहुत ही कम होती है। और आजन्म कुमारी का मिल जाना तो बड़ी ही आश्चर्यजनक घटना होगी।" भारतीय सेंसस रिपोर्ट १९११ भाग १५ (संयुक्त प्रान्त के सम्बन्ध में) पृष्ठ २२९
  6. पैराग्राफ २०२ और उसके आगे।
  7. मदर इंडिया के चौथे पृष्ठ पर मिस मेयो द्वारा उद्धृत।
  8. ग्रेट ब्रिटेन में प्रमाणपत्र-प्राप्त अध्यापक का वेतन २५० पौंड वार्षिक है और जिसे प्रमाण-पत्र न मिला हो उसका १४५ पौंड वार्षिक है। (लेबर इयर बुक १९२६ ई॰ पृष्ठ २७३) अमरीका में अध्यापकों का औसत दर्जे का वेतन १२४३ शिलिंग वार्षिक से भी अधिक होता है (अमरीकन इयर बुक १९२५ ई॰ पृष्ठ १०९२)