दुखी भारत/८ हिन्दू-वर्णाश्रम-धर्म

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आठवाँ अध्याय
हिन्दू-वर्णाश्रम-धर्म

ऐतिहासिक दृष्टि से विचार किया जाय तो वर्तमान वर्णाश्रम-धर्म मध्य-कालीन युग का अवशिष्टांश-मात्र प्रतीत होगा। प्राचीन भारत में वर्णाश्रम-धर्म कदापि इतना कठोर और संकुचित नहीं था। बौद्धकाल और उसके पश्चात् के समय में जातियों और उपजातियों की बहुत वृद्धि हुई और उनके नियम क्रमशः और भी कठोर होते गये। आरम्भ में केवल चार वर्ण थे। उसके पश्चात् उद्योग-धन्धों के अनुसार अनेक जातियों का निर्माण हुआ। ये जातियाँ मध्यकालीन इँगलेंड के उन व्यापार-संघों से मिलती जुलती थीं जिनका उद्देश परस्पर एक दूसरे की सहायता और रक्षा करना होता था और जिन्हें ट्रेड गिल्ड्स कहते थे। इन्हीं संस्थाओं के आधार पर इँगलेंड के आधुनिक दार्शनिकों ने, जो गिल्ड सोसलिस्ट्स के नाम से विख्यात हैं, अपने विचारों का प्रचार किया है। इस दल के श्रीयुत पेन्टी जैसे नेता प्राचीन 'आनन्दमय इँगलेंड' के सामाजिक जीवन को पुनः वापस लाना चाहते हैं और उसे 'व्यापारयुग के पश्चात् का काल' कहते हैं।

भारतीय जातियों के निर्माण में वर्ण, व्यापार आदि भिन्न भिन्न बातों ने वास्तव में कहाँ तक और क्या योग दिया इस विषय में विद्वानों का मतभेद है। पञ्जाब के सेंसर कमिश्नर और उसके पश्चात् लेफ्टिनेंट गवर्नर सर डेन्ज़िल इबस्टन ने अपनी सेंसर रिपोर्ट[१] में इस विषय की विस्तृत मीमांसा की है। उनके विचार में जाति-निर्माण के विभिन्न कारण ये थे—कुल-सम्बन्धी विभिन्नतायें जो कि सभी आरम्भिक समाजों में समान रूप से पाई जाती थीं; व्यापार-सम्बन्धी विभिन्नतायें जो पीढ़ी दर पीढ़ी चली जाती थीं और 'जो मध्यकालीन युग की सब जातियों में पाई जाती थीं' [ ११६ ]पुरोहितों और राजपूतों की प्रधानता और हिन्दू-धर्म-शास्त्र के उन कृत्रिम नियमों द्वारा इस सिद्धान्त का समर्थन, जो विवाहों और अन्तर्जातीय विवाहों का निश्चय करते हैं, कुछ व्यापारों और खाद्य पदार्थों को अपवित्र बताते हैं, और विभिन्न जातियों के सामाजिक सम्बन्ध की सीमा बाँधते हैं। इबस्टन साहब कहते हैं कि 'यदि इन बातों में सामाजिक और कुल-सम्बन्धी उच्चता का गर्व भी जोड़ दीजिए जो मनुष्य के लिए स्वाभाविक है और जो गार्हस्थिक दृष्टिकोण से दुःखद और आर्थिक दृष्टिकोण से भाररूप होते हुए भी जातियों को सङ्कुचित बनाने के लिए यथेष्ट है तो भारतवर्ष में जातियों ने जो कठोरता धारण कर ली है उस पर आश्चर्य करने का कोई कारण न रह जायगा।'

परन्तु मिस्टर नेस्फील्ड का, जिन्होंने आगरा और अवध के सेंसस कमिश्नर की हैसियत से उस प्रश्न पर विचार किया है, यह मत है कि वर्ण-व्यवस्था एक-मात्र विभिन्न पेशों पर निर्भर है। वे लिखते हैं—कार्य्य, केवल कार्य्य की नींव पर भारतवर्ष की सम्पूर्ण वर्णव्यवस्था की रचना हुई थी[२]। उनके मत में 'प्रत्येक जाति या जातियों का समूह सभ्यता की क्रमोन्नतिप्राप्त उन श्रेणियों में से किसी न किसी की द्योतक है जिन्होंने, मनुष्य की प्रौद्योगिक उन्नति केवल भारतवर्ष में ही नहीं किन्तु संसार के प्रत्येक देश में जहाँ आरम्भिक वन्य जीवन से सभ्य जीवन की कलाओं और उद्योगों की और कुछ उन्नति हुई है, अङ्कित की है। किसी जाति का उच्च या निम्न पद इस बात पर निर्भर है कि वह जाति जो व्यवसाय करती है वह सभ्यता की किस श्रेणी का है; उच्च या निम्न?

सेंसस के कर्मचारियों को छोड़ कर अब हम इतिहासकारों की ओर चलते हैं। भारतीय इतिहासवेत्ता फ़्रांसीसी मिस्टर एम॰ सिनर्ट[३] को हिन्दुओं की वर्णव्यवस्था में केवल रोम और यूनान की सामाजिक समानता दिखाई [ ११७ ]पड़ती है। रिसले के अनुसार एम॰ सिनर्ट का इस सम्बन्ध में यह मत है कि 'भारतवर्ष में प्राचीन आर्यों को जिन परिस्थितियों के संघर्ष में आना पड़ा और उनको अपने अनुकूल बनाने के लिए उन्होंने जो व्यवस्था की वही वर्ण-व्यवस्था है।' मिस्टर सिनर्ट अधिकांश में उस समानता पर विश्वास करते हैं जो हिन्दुओं और आरम्भिक यूनानियों तथा रोमन लोगों के सामाजिक संगठन में पाई जाती है। वे 'रोम के जेन्स क्यूरिया, यूनान के फ्रत्रिया, फुली, और भारतवर्ष के गोत्र इन तीनों प्रकार की मानव जातियों में अत्यन्त निकट की समानता बतलाते हैं।' वे 'प्राचीन साहित्य के आधार पर यह दिखलाना चाहते हैं कि जिन सिद्धान्तों को लेकर वर्ण-व्यवस्था की रचना हुई है वे आर्य्यों की सब शाखाओं में समानरूप से पाई जानेवाली रस्म-रिवाजों और वंशपरम्परा से चली आती हुई कथाओं में अभिन्न रूप से विद्यमान हैं। मिस्टर सिनर्ट यह भी बतलाते हैं कि यूनान के 'जेन्सेज' रोम के 'जेन्स' तथा भारत के 'गोत्रों' में इतनी आश्चर्यजनक समानता है कि यह किसी प्रकार भी नहीं कहा जा सकता कि जाति-भेद को दृष्टि में रख कर विवाह करने की प्रथा केवल भारत में ही पाई जाती है। 'प्लुटर्च' के लेखों से हमें ज्ञात होता है कि रोमन लोग अपने वंश की कन्या से कभी विवाह नहीं करते थे। और रोम की प्राचीन पुस्तकों में जिन वीराङ्गनाओं का वर्णन आया है उनमें से किसी का भी नाम उसके पति के नाम से नहीं मिलता। अपने ही कुल में विवाह करने की प्रथा का अभाव भी नहीं था। यूनान में डिमास्थनीज़ के समय में 'फ्रत्रिया' की सदस्यता उस समूह से सम्बन्ध रखनेवाले कुलों में जन्म लेनेवालों तक ही परिमित थी। रोम में प्लेबियन कुलवाले बहुत समय तक युद्ध में केवल इसी लिए लगे रहे कि पैट्रिसियन कुल की स्त्रियों के साथ उन्हें विवाह करने का अधिकार प्राप्त हो जाय। और मिस्टर सिनर्ट के मतानुसार पैट्रिसियन कुलवाले अपने ही कुल के भीतर विवाह करने की प्रथा की रक्षा में दत्त-चित्त थे, क्योंकि यूनान की भाँति रोम में भी समान कुल की स्त्रियों के साथ विवाह करना मनुष्य का प्रथम कर्त्तव्य समझा जाता था परन्तु फिर भी छोटे कुलों, विदेशियों और मुक्त दासों की स्त्रियों के साथ सम्बन्ध स्थापित हो जाने की सम्भावना बनी ही [ ११८ ]रहती थी। जो इस प्रकार विवाह कर लेते थे उनकी संतान को माता-पिता के धर्मों में महान् अन्तर होने के कारण भारतीय पद्धति के शूद्रों के अनुसार निम्न वर्ग में सम्मिलित होना पड़ता था। मनुस्मृति में हम पढ़ते हैं कि शूद्र की पूजा को देवता लोग स्वीकार नहीं करते। रोम में भी वे जेन्स लोगों की पूजा के समय किसी बाहरी व्यक्ति की उपस्थिति से उसी प्रकार अप्रसन्न होते थे। पञ्जाब में जैसे गोत-कवल अर्थात् स्त्री को पति का जूठा खिला कर पति के गोत्र में उसे मिला लेने की प्रथा है वैसे रोम में 'कानफेरेशों' की प्रथा थी। कानफेरेशों में भी स्त्री पुरुष एक साथ एक प्रकार की रोटी खाते थे और उनका वर्ग एक हो जाता था।

मिस्टर सिनर्ट ने भोजन आदि के सम्बन्ध में भी समानता होने का पता लगाया है। 'भारतवर्ष की भाँति रोम में भी पितरों को प्रतिदिन तर्पण देने की प्रथा थी। हिन्दुओं की श्राद्ध की प्रथा के समान......जो कि कौटुम्बिक सहभोज को दीर्घकाल तक बनाये रखने का एक अच्छा आदर्श है,.....यूनान और रोम में मृत्यु के अवसरों पर दावत देने की प्रथा थी।' भारतवर्ष में जिस प्रकार जाति-बहिष्कृत को फिर जाति में वापस लेने के लिए एक दावत दी जाती है, कुछ कुछ उसी प्रकार की एक दावत का मिस्टर सिनर्ट ने फ़ारस और रोम में भी पता लगाया है। उस दावत में केवल बाहरी लोग ही नहीं किन्तु कुटुम्ब के चरित्रहीन व्यक्ति भी भाग नहीं ले सकते थे। जाति-च्युत करने और जातीय पञ्चायत की शक्तियों के सम्बन्ध में मिस्टर सिनर्ट लिखते हैं कि प्राचीन भारत में अपराधी के बर्तन में किसी दास से पानी भरवा कर और फिर उस पानी को पृथ्वी पर गिरवा कर जैसे जाति से बहिष्कृत करने की प्रथा थी उसी से मिलती जुलती रोम में भी धार्मिक और सामाजिक बहिष्कार करने की प्रथा थी। अब भी भारतवर्ष में 'हुक्का पानी बन्द करने' का रिवाज है। यह रोम के पवित्र अग्नि-द्वारा जातिच्युत करने की प्रथा से मिलता-जुलता है। इन सब अधिकारों को अपने हाथ में रखनेवाली भारतवर्ष की जातीय पञ्चायतों की भाँति भी यूनान, रोम और प्राचीन जर्मनी में कौटुम्बिक सभायें थीं और रोमन जेन्स के मुखियों को इसी प्रकार के अधिकार प्राप्त थे। वे भारतवर्ष के जाति के मातवर की भाँति आपस के [ ११९ ]झगड़ों का फ़ैसला करते थे। और उनका वह फ़ैसला सरकार को भी स्वीकार होता था।

रिसले ने अपने लेख में सर एस॰ डिल*[४] का एक उद्धरण दिया है जिसका आशय यह है कि रोम में जितने भी सार्वजनिक सेवा के कार्य्य हो सकते थे, 'प्रायः वे सब, दरबारी के काम से लेकर कहार और पहरेदार के काम तक पूर्व की वर्ण-व्यवस्था में पाये जाते हैं।' रोमन माझी जो समुद्र में व्यापारिक जहाज़ चलाते थे, भोजन-भण्डारी जो इटलीवालों के लिए रोटियाँ तैयार करते थे, और क़साई जो मांस का व्यवसाय करते थे इन सबका जातीय संगठन उतना ही संकीर्ण और नियन्त्रित था जैसा कि भारत की जातियों में प्रचलित है.....। ये सब जातियाँ अपने वंशपरम्परा से चले आते हुए व्यवसाय को छोड़कर दूसरा काम करने की अधिकारिणी नहीं थीं। और इनमें यह विचित्र नियम था कि पुरुष अपनी जाति के भीतर ही विवाह करें। यदि कोई पुरुष जाति से बाहर किसी स्त्री के साथ विवाह करता था तो उसे अपना काम छोड़कर स्त्री के कुलवालों का पेशा स्वीकार करना पड़ता था। रोमन जातियों की कठोर संकीर्णता का अनुमान निम्नलिखित वर्णन से किया जा सकता है†[५]:—

"वे लोग जो 'ओसतिया' के सार्वजनिक भण्डारों में अफ्रीका से अनाज ले आते थे, रसोइये जो सर्व-साधारण के लिए इस अनाज की रोटी बनाते थे, कसाई जो 'समनियन' 'लुकैनिया' या 'ब्रुटियम' आदि स्थानों से सुअर लाते थे, वे लोग जो शराब और तेल का व्यवसाय करते थे और वे लोग जो सार्वजनिक स्नानगृहों का जल गरम रखने के लिए भट्ठी प्रज्वलित रखते थे, सब पृथक् पृथक् जातियों में विभक्त थे। उन्हें पीढ़ी दर पीढ़ी वही काम करना पड़ता था। यह ग्रामीण दासता का सिद्धान्त था जो सामाजिक कार्य्यों में लगाया गया था। इससे निकल भागने का कोई मार्ग नहीं था। पितृकुल के कार्यों के ही अनुसार नहीं वरन् मातृकुल के कार्यों के अनुसार भी मनुष्य को अपना कार्य्य स्वीकार करना पड़ता था। अपने कार्य्य-क्षेत्र के बाहर किसी [ १२० ]मनुष्य को विवाह करने की आज्ञा नहीं थी। यदि रसोइये आदि की लड़की किसी ऐसे व्यक्ति से विवाह कर लेती थी जो उसकी जाति का नहीं होता था तो उस व्यक्ति को स्व-स्त्री-कुल का पेशा ग्रहण करना पड़ता था। किसी प्रकार राजा से भी नियम भङ्ग करने की आज्ञा प्राप्त कर लेने पर या पादरी की शक्ति का भी सहयोग उपस्थित होने पर भी यह जाति-बन्धन तोड़ा नहीं जा सकता था।"

आज भी वह देश कहाँ है जहाँ जाति-भेद अपना विशेष स्थान न रखता हो? योरपीय समालोचक जब हमारी आँख के तिल के लिए हमें कोसते हैं तब अपनी आँख के बेल को भूल जाते हैं। किसी दूसरे अध्याय में हम यह बताएँगे कि अगौर जातियों के प्रति गौर जातियों का क्या भाव रहता है और संयुक्त राज्य अमरीका के गोरे 'ब्राह्मण' उसके हबसी नागरिकों के साथ कैसा बर्ताव करते हैं। परन्तु यदि अगौर जातियों को पृथक् कर दिया जाय—यद्यपि ऐसा पृथक्करण न्याययुक्त नहीं हो सकता—तो भी क्या योरपीय समाज में धन और जन्म का अत्यन्त भारी प्रभाव नहीं पड़ता? वे जाति के स्थान पर इस प्रकार के समूहों को 'श्रेणियाँ' कहते हैं। फावड़े तो फावड़े ही रहेंगे, नाम उनका आप चाहे जो रख लें।

आधुनिक औद्योगिक समाज में जिस प्रकार 'श्रेणियों' में मनुष्य विभक्त हैं उसी प्रकार भारत में सामाजिक और औद्योगिक सङ्गठन के रूप में जातियों में विभक्त थे। केवल उत्पादन की परिस्थितियों में परिवर्तन होने से उनमें रूपान्तर हो गया है। वर्तमान आर्थिक परिस्थितियों में न आरम्भ काल की वंश-प्रणाली काम दे सकती है और न मध्ययुग की जागीरदारी की प्रथा। भारतवर्ष की वर्णव्यवस्था ने कारीगरों में जिन कलात्मक भावों को विकसित किया वे अन्य देशों में इतने विस्तार के साथ नहीं पाये जाते। इसका मुख्य दोष यह था कि इसने समाज को स्थिर रूप दे दिया। मनुष्यों का वर्तमान श्रेणी-विभाग किसी दशा में भी पूर्ण नहीं कहा जा सकता। और आधुनिक विचारकों के सामने सबसे बड़ी समस्या यही है कि क्या उपाय किया जाय कि इस श्रेणी-युद्ध से सभ्यता का नाश न हो।

इसमें सन्देह नहीं कि वर्तमान भारतीय वर्ण-व्यवस्था समय के अनुकूल नहीं है। युगों का कूड़ा-करकट बुहारा नहीं जा सकता, क्योंकि अपने गृह [ १२१ ] की व्यवस्था करने में भारत स्वतन्त्र नहीं है। परिस्थितियों में परिवर्तन के साथ वर्णव्यवस्था में बराबर परिवर्तन होता रहा है। इस बात का कोई कारण नहीं है कि नई परिस्थितियों के उपस्थित होने पर इसको फिर से नया रूप न दिया जायगा? यदि वैदिक काल का कोई भारतीय उत्तर बौद्धकालीन भारत को देखता तो वह उस समय के समाज में प्रचलित नवीन और जटिल वर्णव्यवस्था को देखकर चकरा जाता। और इसमें ज़रा भी सन्देह नहीं हो सकता कि राजनीति में स्वतन्त्र भारत नवीन सुधार करने में क्षणमात्र का भी विलम्ब न करेगा? जाति-भेद के वर्तमान रूप से हमें बिलकुल लाभ नहीं। इसके दोष ही कतिपय दशाओं में सामने आते हैं।

यह कहा जाता है कि हिन्दू जाति-भेद के रोग से ग्रस्त हैं। इसलिए वे प्रजातन्त्र राज्य के अयोग्य हैं यह भुला दिया जाता है कि भूतकाल में हिन्दुओं का कम से कम इतना प्रजातन्त्र राज्य अवश्य था जितना यूनान और रोम के लोगों का था। पश्चिम की जातियां पहले जापान के सम्बन्ध में भी इसी प्रकार कहा करती थीं। बहुत समय नहीं हुआ जब उस प्रतिभावान् लेखक लैफ़केडियो हर्न ने लिखा था।[६]

"जापान में जाति-भेद भी था। उसे 'कबने' या 'सेई' कहते थे। (प्राचीन जापानी सभ्यता के सम्बन्ध में प्रमाणस्वरूप और प्रमुख लेखक डाक्टर फ्लोरेज के अनुसार मैं भी 'जाति' शब्द का प्रयोग करूँगा। वे बतलाते हैं कि 'सेई' का अर्थ वही है जो संस्कृत के 'वर्ण' शब्द का है जिससे कि 'जाति' या 'रङ्ग' का बोध होता है) जापानी समाज के तीनों बड़े विभागों में प्रत्येक कुटुम्ब का किसी न किसी जाति से सम्बन्ध होता था। और प्रत्येक जाति आरम्भ में किसी पेशा या कर्तव्य का द्योतक थी।"

जापान में ऐसे लोगों की बड़ी बड़ी जातियाँ थीं जो शब्दशः 'मनुष्य से नीचे दर्जे की' समझी जाती थीं। मिस्टर हर्न लिखते हैं:—

"सर्व-साधारण के तीनों विभागों से बाहर और उनमें सबसे निम्न विभाग से भी अत्यन्त निम्न ऐसे लोगों की बड़ी बड़ी जातियाँ थीं जो जापानी [ १२२ ] नहीं कहलाते थे और कठिनता से मानव प्राणियों में उनकी गणना होती थी। सरकारी कागजों में उनका उल्लेख पशुओं के समान 'कोरी' शब्द द्वारा किया जाता था। और पशुओं की गणना करने में 'इप्पिकी', 'निहिकी', 'सम्बिकी', जिन विचित्र संख्यावाचक शब्दों का प्रयोग किया जाता था वही शब्द उनकी गणना करने में भी व्यवहृत होते थे। आज दिन भी उनका उल्लेख साधारणतया मनुष्य-वाचक (हितो) शब्द से नहीं वरन् वस्तुवाचक (मोनो) शब्द ले किया जाता है.....अँगरेज़ी के पाठक उन्हें (मुख्यतः मिस्टर मिटफोर्ड की अद्वितीय पुस्तक 'प्राचीन जापान की कथाएँ' द्वारा) 'इटा' नाम से जानते हैं। परन्तु उनके भिन्न भिन्न कारणों के अनुसार उनके भिन्न भिन्न नाम भी होते थे। वे लोग चाण्डाल थे।" हम सुनते हैं कि "इटा लोग शहरों के बाहर अपनी पृथक बस्ती बसाकर रहते थे। वे नगर में अपनी वस्तुएँ बेचने या खरीदारी करने के निमित्त आ सकते थे। परन्तु जूतों की दूकान के अतिरिक्त अन्य किसी भी दूकान में उनका प्रवेश वजित था। उनमें से जो गायक का पेशा करते थे उनके साथ कुछ रियायत हो जाती थी। परन्तु उन्हें किसी के घर में प्रवेश करने की आज्ञा नहीं मिलती थी। इसलिए वे केवल सड़कों पर बाग़ों में गा बजा सकते थे। अपने वंशपरंपरा से चले आते हुए कार्य्यों के अतिरिक्त और कोई कार्य करने की उन्हें बिलकुल आज्ञा नहीं थी। छोटी से छोटी व्यापारिक जातियों में और 'इटा' में उतना ही अलंध्य अन्तर था जितना भारतवर्ष में वर्ण-व्यवस्था ने उत्पन्न कर रखा है। 'इटा' लोगों की बस्तियाँ जापानी शहर के शेष भाग से सामाजिक विरोध के द्वारा जितनी पृथक् रहती थीं उतनी पृथक् किसी योरपीय शहर की यहूदियों की बस्तियाँ बड़ी बड़ी दीवालों और फाटकों के द्वारा भी नहीं हो पाती थीं। किसी सरकारी कार्य्य से जाने के लिए विवश न किया जाय तो कोई जापानी इटा की बस्तियों में जाने का कभी स्वप्न में भी खपाल नहीं कर सकता।"

'इटा' और इनके पश्चात् चाण्डाल लोग 'हिनिन' नाम से पुकारे जाते थे। जिसका यह अर्थ था कि वे 'मनुष्य नहीं हैं'। भिखारी-पेशावाले, गवैये, स्वाँग भरनेवाले, वेश्याओं की कतिपय श्रेणियाँ और समाज से बहिष्कृत लोग भी इन्हीं में सम्मिलित किये जाते थे। 'हिनिन' लोगों का अपना पृथक राजा होता था और उनके कानून भी पृथक होते थे। जापानी समाज से बहिष्कृत किया हुआ कोई भी व्यक्ति 'हिनिन' में मिल सकता था। परन्तु वह शेष मनुष्यता से सदा के लिए विदा ले लेने के तुल्य होता था।' [ १२३ ]क्या जाति-भेद के रोग से पीड़ित जापानी 'उन्नति करने और प्रजातंत्र-राज्य स्थापित करने के योग्य थे? हर्न का कहना है:—

"जो लोग आज लिख रहे हैं कि जापानी लोगों में सङ्गठन करने की ऐसी असाधारण शक्ति है और उनमें प्रजातंत्र का ऐसा भाव है कि यह बात स्वभावतः सिद्ध है कि वे प्रतिनिधि-सत्तात्मक शासन के, पश्चिमी अर्थ में भी, सर्वथा उपयुक्त हैं, वे भ्रमवश ऊपरी दिखावे को ही वास्तविकता समझ बैठे हैं। सच बात तो यह है कि जापानियों की जातिगत सङ्गठन करने की असाधारण शक्ति ही उनके किसी आधुनिक प्रजातंत्र शासन-पद्धति के अयोग्य होने का प्रबल प्रमाण है। ऊपर से देखने से जापान के सामाजिक सङ्गठन और आधुनिक अमरीका या इंग्लैंड के उपनिवेशों के स्थानिक स्वराज्य में बहुत कम अन्तर प्रतीत होता है और हम किसी जापानी समाज के पूर्ण आत्म-संयम की प्रशंसा कर सकते हैं। परन्तु दोनों में जो वास्तविक अन्तर है वह सिद्धान्तों का अन्तर है और इतना भारी है कि केवल सहस्रों वर्षों नापा जा सकता है। अर्थात् जापान सहस्रों वर्षों में कहीं जाकर अँगरेज़ी उपनिवेश के स्थानिक स्वराज्य के योग्य हो सकता है।"

हर्न की निराशा-पूर्ण भविष्य वाणी के होते हुए भी, अब ये समस्त जाति और श्रेणी के भेद जापान से मिटाये क्योंकि इस सम्बन्ध में राजा ने प्रजा का साथ दिया और समस्त भेद-भावों का नाश करने के लिए अपनी सम्पूर्ण शक्ति का प्रयोग किया। अपनी राजनैतिक और आर्थिक स्वतंत्रता के कारण हुई जापान इस प्रथा को मिटाने में समर्थ हुआ है। यदि भारत स्वतंत्र होता तो वह भी यही करता। भारतवर्ष में सुधारकों को बड़ी ही विपरीत दशाओं के विरुद्ध कार्य करना पड़ रहा है। क्योंकि सरकार की बिना रत्ती भर भी सहायता के उन्हें अज्ञानता और विरोधी धारणाओं से युद्ध करना पड़ता है। वास्तव में विदेशी नौकरशाही ने अपने स्वार्थ सिद्धि के उद्देश्य से इस प्राचीन प्रथा को और भी दृढ़ बनाने के लिए नये नये उपाय खोज निकाले हैं। सेना में केवल वे ही जातियाँ भर्ती हो पाती हैं जो 'सैनिक जातियों' के नाम से प्रसिद्ध हैं। प्रत्येक मनुष्य योग्यता की उस परीक्षा में नहीं पास हो सकता जिसे भर्ती करनेवाला अफ़सर स्वीकार कर सके। उसे [ १२४ ] 'सैनिक जातियों' में से किसी एक का होना चाहिए। क्योंकि अन्य जातियों की अपेक्षा वे ही अधिक मूर्ख और 'राजभक्त' समझी जाती हैं। भूमि खरीदने का अधिकार भी जाति के ही अनुसार दिया जाता है। पञ्जाब में लैंड एलीनेशन एक्ट के लिए कुछ जातियों की एक सूची बनी है। उस सूची में जिन जातियों का नाम दर्ज है वे 'कृषि करनेवाली जातियां' समझी जाती हैं। जो लोग कई पीढ़ियों से वास्तव में कृषि-व्यवसाय नहीं करते थे, जिनका अब मुख्य उद्यम व्यापार या कारीगरी है या नौकरी है, अपनी जाति के पुछल्ले के कारण इस कानून से लाभ उठा रहे हैं। भारतीय वर्ण-व्यवस्था इस प्रकार की भद्दी बातों का कारण नहीं है। किन्तु इसका कारण केवल साम्राज्यवाद है जो असैनिक और अकृषि-व्यवसायी जातियों के विरुद्ध सैनिक और कृषि-व्यवसायी जातियां खड़ी करके और 'राजभत्तों' की एक जाति रचकर अपना स्वार्थ सिद्ध करना चाहता है।

जो लोग यह सोचते हैं कि ब्रिटिश सरकार और ईसाई धर्मप्रचारक भारत को जाति-भेद की बुराइयों से मुक्त कर देंगे, वे हवाई महल बना रहे हैं। नौकरशाही अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए जाति-भेद को केवल एक नया रूप देना चाहती है। जो लोग गम्भीर विचार नहीं करते केवल वे ही ऐसे हैं जिनका यह अनुमान है कि 'ईसाई धर्म' ने 'अछूत जातियों का उद्धार' कर दिया है। परन्तु भारतवर्ष में ईसाई धर्म इतना भी गम्भीर नहीं है जितना इस प्रकार विचार करनेवाले हैं। अपने देश की संरक्षता का आश्रित विदेशी प्रचारक अङ्कों में परिणाम दिखाने को उत्सुक रहता है पर ठोस और सुन्दर कार्य्य की ओर ध्यान नहीं देता।

भारतवर्ष में जो जाति-भेद है, वह केवल हिन्दुओं तक ही परिमित नहीं है। वंश-सम्बन्धी व्यवसायों और धन्धों का जहाँ तक सम्बन्ध है, इस पर इसलाम का भी बहुत प्रभाव नहीं पड़ा। यद्यपि अस्पृश्यता के समान जातिभेद के भयङ्कर रूपों से मुसलमान बचे हैं पर उनके भी जीवन में इसका विशेष प्रभाव पड़ता है। ईसाई-धर्म ने उतना भी नहीं किया जितना इसलाम ने। जैसा कि अगले अध्याय में हम देखेंगे कि जिन लोगों ने ईसाई-धर्म स्वीकार किया है उनकी जाति या अस्पृश्यता पर इस धर्म का बिलकुल प्रभाव नहीं पड़ा। [ १२५ ]इसके लिए केवल राजनैतिक दृष्टि से स्वतन्त्र भारत से ही आशा की जा सकती है; क्योंकि उसमें उन्नतशील जातीय जीवन के अङ्ग नये सुधार करने के लिए उतने ही स्वतन्त्र रहेंगे जितने कि वे जापान में थे और हैं। जब तक वह दिन ना आवे हमें सारे दोषों पर विजय प्राप्त करने का यथाशक्ति अधिक से अधिक उद्योग करते रहना चाहिए। परन्तु प्रत्येक क्षण हम यह जानते रहते हैं कि हमारे उद्योगों के अनुसार हमें फल की प्राप्ति नहीं हो सकती।



  1. पञ्जाब की जातियाँ (इबस्टन की सेंसर रिपोट से संग्रहीत) गवर्नमेंट प्रेस, लाहौर से १९१६ में प्रकाशित पृष्ठ ९ और आगे।
  2. नेस्फील्ड-रचित 'उत्तर-पश्चिम प्रान्त और अवध की वर्णव्यवस्था का संक्षिप्त परिचय' जिसे सर हरबर्ट रिसले ने अपनी पुस्तक 'भारतवर्ष की जातियाँ' (द्वितीय संस्करण कलकत्ता, १९१५) में २६५ और आगे के पृष्ठों पर उद्धृत किया।
  3. रिसले द्वारा उद्धृत, वही पुस्तक पृष्ठ २६७ और आगे।
  4. * पश्चिमी साम्राज्य की अन्तिम शताब्दी में रोमन समाज की स्थिति (१८९९) रिसले की वही पुस्तक पृष्ठ २७१
  5. † रिसले द्वारा सर एस॰ डिल का उद्धरण।
  6. जापान का वास्तविक वर्णन, मैकमिलन क॰ पृष्ठ २६०