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दुर्गेशनन्दिनी द्वितीय भाग/ बाईसवां परिच्छेद

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दुर्गेशनन्दिनी द्वितीय भाग
बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, अनुवादक गदाधर सिंह

वाराणसी: माधोप्रसाद, पृष्ठ ८९ से – ९४ तक

 

बाईसवां परिच्छेद।

समाप्ति।

अभिराम स्वामी ने मान्दारणगढ़ में जा कर बड़े धूमधाम से कन्या को जगतसिंह को समर्पण कर दिया।

उत्सव के निमित्त राजकुमार ने अपने सहचरों को जहानाबाद से निमन्त्रण भेजकर बुलवा लिया था। तिलोत्तमा के पितृवान्धव भी निमन्त्रित होकर इस आमोद में आये हुए थे।

आयेशा की इच्छा के अनुसार राजकुमार मे उसको भी बुलवा भेजा और वह अपनी किशोरावस्था के सहोदर और, और २ अनेक लोगों को सङ्ग लेकर आई।

यद्यपि आयेशा यवन की पुत्री थी किन्तु जगतसिंह और तिलोत्तमा दोनों उसको बहुत चाहते थे अतएव वह अपनी सहचारियों के साथ महल में उतारी गई। पाठक लोगों, संदेह होगा कि उस तापित हृदया को इस उत्सव में आनन्द न मिला होगा किन्तु यथार्थ में ऐसा नहीं था वह अपने हंसते स्वभाव के प्रभाव से सबको आनन्दित करती थी।

आनन्द के दिन निर्विघ्न समाप्त हुए और आयेशा घर जाने का उद्योग करने लगी, हँसते हंसते बिमला से बिदा हुई। विमला कुछ जानती तो थी ही नहीं हंसकर बोली ‘शाहज़ादी।’ जब ऐसाही शुभ दिन तुम्हारा आवेगा हमलोग तुम्हारे नेवरे में आधेगे।

वहां से उठकर। आयेशा तिलोत्तमा के पास गई और एकान्त कोठरी में लेजा कर उसका हाथ पकड़ कर बोली।

बहिन, अब में जाती हू मेरो मनसा वाचा कर्मणा यही

आशीर्वाद है कि ईश्वर तुम्हारा अहिषात अचल करे।'

तिलोत्तमा ने कहा ' अब कब तुमसे भेंट होगी?'

आयेशा ने कहा 'मिलने का क्या भरोसा है।'

तिलोत्तमा उदास होगई और दोनों चुप रह गई।

थोड़ी देर के पीछे आयेशा ने कहा 'भेट हो या न हो किन्तु हमको भूल न जाना।

तिलोत्तमा ने हंसकर कहा 'यदि मैं आयेशा को मल जाऊंगी तो राजकुमार मेरा मुंह नहीं देखेंगे।'

आयेशा ने गम्भीर भाव धारण करके कहा 'मैं इस बात से सन्तुष्ट नहीं हुई, तुम कभी मेरी शत युवराज से न कहना। कहोगा।'

आयेशा ने सोचा था कि जगतर्सिद के लिये जो मैंने इस जन्म का सुख परित्याग किया, यह बात उनके हृदय में कांटेसी कसकती होगी। उसके नामही लेने से उनको पीड़ा होगी।

तिलोत्तमा ने अंगीकार किया । आयेशा ने कहा " मुझको भूलना मत और लो यह एक स्मारक चिन्ह देती हूँ इसको यत्न से रखना।"

यह कहकर आयेशाने लौंडी को बुलाकर कहा और उसने एक हाथी दांत का डब्बा रत्नालंकार से भरा लाफर आगे धर दिया, जब बाहर चली गयी आयेशा ने वह सब गहना अपने हाथ से तिलोत्तमा को पहिनाया।

यद्यपि तिलोत्तमा राजा की बेटी थी तथापि उन अलंकारों की बनत और उत्तम २ नग देखकर उसको बड़ा आश्चर्य हुआ और उन्ही की ओर तीव्र दृष्टि से देखती रही। आयेशा ने अपने पिता का दिया हुमा सब भूषण तोड़वा कर यह अलंकार तिलोत्तमा कोलिये बनवाया था।‌‌‍‌‌‌‌‌‌‌ आयेशा ने कहा "बहिन ! इसकी कुछ प्रशंसा करने की आवश्यकता नहीं है ! आज जो रत्न तुमने अपने हृदय में धारण किया है उसकी अपेक्षा यह सब तृण के समान है।' यह बात कहतै २ आयेशा के आंखों में आंसू भर आये किन्तु बड़े कष्ट से उसने सम्भाल लिया और तिलोतमा को कुछ 'मालूम नहीं हुआ।

सम्पूर्ण अलंकार से सुसज्जित करके आयेशा तिलोत्तमा के दोनों हाथधर उसका मुंह देखने लगी। मनमें विचारने लगी "इस सरल प्रेम मूर्ति को देख कर तो बोध होता है कि प्रीतम कभी दुःखी न होंगे। यदि विधना बाम न हो तो मेरी यही कामना है कि इसको लेकर वह सदैव सुख भोग करें।"

तिलोसमा से बोली।

'तिलोत्तमा । मैं जाती है। तुम्हारे स्वामी काम में होंगे उनके पास जाने से काल हरण होगा जगदीश्वर तुम लोगो को चिरजीवी करे मैंने जो रत्न दिया है उसको मङ्ग में धारण करना और मेरे न, अपने साररत्न को हदय में धारण करना।'

अपने साररत्न कहते की बेर आयेशा की कंठ संग रूंघ आया तिलोत्तमा ने देखा कि आयेशा की पलकेैं भीगी हुई थरपरा रही है और महा दुःख प्रकाश पूर्वक कहा 'बहिन रोती क्यों हो इतने में आयेशा के नेत्रों से आंस की धारा चलने लगी । फिर वह एक क्षण नहीं ठहरी और शीघ्रता पूर्वक घर से निकल पालकी पर सवार होगयी।

जब आयेशा अपने घर पर पहुंची रात हो गयी थी। वस्त्र उतार कर खिड़की के सामने खड़ी होकर शरीर को शीमल पवन द्वारा शीतल करने लगी। नील वर्ण गगन मण्डल में फोटियों तारे चमक रहे थे भौर पवन संचारित पूसलवाद
झर झर शब्द कर रहे थे। दुर्ग के शिखर देश में उलूक बैठा गम्भीर स्वर से बोल रहा था और सामने जहां आयेशा खड़ी थी जल परिपूर्ण दुर्ग परिखा में आकाश पटल की परछाहीं चमक रही थी।

आयेशा बड़ी देर तक खिड़की में बैठी सोच रही थी। उंगली से एक अंगूठी उतारा कि जिसमें हीरे की कनी जड़ी थी। एकबेर मन में आया कि 'इसको चाट कर अभी से इस जगत से नाता छोड़ दें, फिर सोचा 'क्या विधाता ने मुझको इस संसार में इसी हेतु भेजा था यदि इतना भी दुःख सहन नहीं कर सकती तो जन्म धारण करके ही क्या किया? जगतसिंह सुनकर क्या कहेंगे?

फिर अंगूठी को पहिन लिया कुछ सोंच कर फिर उतार लिया मन में बिचारा कि 'इस लोभ को सम्हालना स्त्री के प्रति असाध्य है अतएव प्रलोभन को दूरही करना उचित है!'

यह कहकर आयेशा ने अंगूठी को उसी दुर्ग परिखा के जल में फेंक दिया।


मगास्थनीज।

इतिहास प्रकाशक समिति द्वारा प्रकाशित !

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पुस्तक मिलने का पता---

माधोप्रसाद पुस्तक कार्यालय काशी

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