दुर्गेशनन्दिनी द्वितीय भाग/ सातवां परिच्छेद
'मैं कहचुकी हूं कि मान्दारणगढ़ के एक नीच स्त्री को मेरे पिता से गर्भ रह गया और उसको एक कन्या उत्पन्न हुई थोड़े ही दिनों में वह भी विधवा हो गयी और मेहनत मजूरी करके अपना और कन्या का पालन करती थी। इस कन्या के समान मान्दारणगढ़ में दूसरी रूपवती स्त्री न थी। काल पा कर उसका कलंक भी दूर होगया, जारजा का नाम भी मिट गया और उसके उदर में तिलोत्तमा का उद्भव हुआ!
वह जिस समय पेट में थी मेरे मनमें उसके विवाह के कारण चिन्ता उत्पन्न हुई। उसी समय एक दिन पिता अपने जामाता को साथ लेकर आए और मुझको पहिचनवा दिया उसी दिन से मैं उनको जानने लगी।
जब से मैंने प्राणेश्वर को देखा उसी दिन से परवश हो गयी वे प्रतिदिन पिता के समीप आया जाया करते थे और बैठते भी थे और बातचीत करते थे। मैं चुपचाप उनकी बातें सुना करती थी और मनसा वाचा से अपने को उनकी दासी समझी, वे भी मुझसे घृणा नहीं करते थे। अर्थात् दोनो ओर से आकर्षण होने लगा और मैं उनसे बोली। उन्होंने भी जो बात मेरे कान में कही वह मुझको आज पर्यन्त स्मरण है।
बिना मूल्य उनके हाथ बिक गयी, किन्तु माता की दुर्दशा मुझको भूलती न थी और मैंने अपना धर्म नहीं डगाया, पर इस्से उनका प्रेम कुछ कम नहीं हुआ। पिता को भी यह बातें ज्ञात हुंई। एक दिन दोनों बात कर रहे थे मैंने एक शब्द सुना।
पिता ने कहा 'मैं विमला को छोड़ नहीं सक्ता किन्तु यदि वह तुम्हारी पत्नी हो तो मुझको अंगीकार है पर जो तुम्हारे मन में यह बात न हो—'
पिता की बात पूरी नहीं होने पाई कि 'उन्ने' रोष करके कहा 'शूद्री कन्या को मैं कैसे विवाह सक्ता हूं?'
पिता ने कहा 'जारजा कन्या से कैसे विवाह किया था?'
प्राण प्रीतम ने कहा, उस समय मैं इसबात को नहीं जानता था जान बूझ कर कोई शूद्री की कन्या विवाह करता है? और आपकी पुत्री जारजा भी हो तो शूद्री नहीं हो सक्ती।'
पिताने कहा 'तुमने विवाह अस्वीकृत किया तो बहुत अच्छा तुम्हारे आने जाने से विमला को दुःख होता है अतएव अब यहां तुम्हारे आने का कुछ प्रयोजन नहीं। हमीं तुम्हारे घर पर आया करेंगे।'
उस दिन से उन्होंने आना जाना बन्द कर दिया। किन्तु मैं चातकी की भांति उनकी राह देखा करती थी उनसे भी न रहा गया और फिर आने जाने लगे। विरह ने प्रीत का रस चखा दिया और द्वितीय बार दर्शन होने से मेरा कुछ संकोच भी जाता रहा। पिता ने भी देखा और एक दिन मुझको बुला कर कहा, मैंने उदासी धर्म ग्रहण किया है और कुछ दिन देशाटन करूंगा तब तक तुम कहां रहोगी?'
मैं यह सुन कर रोने लगी और बोली मैं 'तुम्हारे सङ्ग चलूंगी' फिर जो प्राणेश्वर का ध्यान आ गया तो कहा 'नहीं तो जैसे काशी में अकेली रही थी उसी प्रकार अब भी रहूंगी।'
पिताने कहा 'नहीं मैंने एक उत्तम उपाय सोचा है जब तक मैं बाहर रहूं तब तक तुम महाराज मानसिंह की नवोढ़ा स्त्री के साथ रहना।'
मैं तुरन्त बोल उठी 'मैं तुम्हारे ही पास रहूंगी' पिता ने
कहा 'नहीं मैं कहीं न जाऊंगा तुम मानसिंह के घर जाओ। मैं यहीं रहूंगा और नित्य तुमको देख आया करुंगा। जब मैं देख लूंगा कि तुम वहां कैसे रहती हो फिर वैसा प्रबन्ध करूंगा।'
हे युवराज! मैं उस दिन से तुम्हारे घर में रहने लगी और अपने प्राण प्रीतम से विलग हुई।
राजकुमार! मैं बहुत दिनों तक तुम्हारे पिता के घर में रही किन्तु तुम मुझ को नहीं चीन्हते। तब तुम्हारा वय केवल दश वर्ष का था और अपनी माता के साथ खेला करते थे। मैं तुम्हारी नबोढ़ा माता के संग दिल्ली में रहती थी। महाराज मानसिंह के पास स्त्रियां अनेक थीं तुम सब को थोही पहिचानते हो। योधपुर की उर्मिला तुमको स्मरण होगी उसके गुण का मैं तुमसे क्या वर्णन करूं। वह मुझको दासी करके नहीं मानती थी वरन भगिनी के तुल्य जानती थी। उसने मुझको अनेक विद्या सिखायी। उसीके अनुग्रह से मैंने शिल्प विद्या सीखी और नाच गाना भी मैंने उसी के चित्त विनोद के निमित्त सीखा। यह पत्र उन्हीं देवी के अनुग्रह का फल है।
उसकी कृपा से और भी अनेक लाभ हुए। उसने मुझको महाराज तक पहुंचाया और वे मेरा नाच गाना देख सुन कर बहुत प्रसन्न हुए और मुझको अपनी करके समझने लगे। वे मेरे पिता को भी मानते थे और कभी कभी मेरे देखने को आया करते थे। उर्मिला के समीप रहकर मैने बड़ा सुख भोगा किन्तु एक दुःख था कि जिसके लिये सर्वस्व त्याग करने को प्रस्तुत थी वह मन मोहन नहीं मिला। वे क्या मुझको भूल गए? कदापि नहीं। युवराज! आसमानी नाम चेरी को क्या आप पहिचानते होंगे? उनके सङ्ग मेरी बड़ी प्रीत थी मैंने उसको प्रीतम का समाचार लेने को भेजा। उसने उनका पता लगाया उन्होंने अनेक प्रकार की बातें कहीं। उसके उत्तर में मैंने उनको पत्र लिखा। उन्होंने उसका प्रति उत्तर दिया और इसी प्रकार हमारे उनके पत्र व्यवहार होने लगा।
इस रीति से तीन वर्ष बीत गया और परस्पर विस्मरण नहीं हुआ तब मुझको प्रतीत हुई कि यह प्रीत कच्ची नहीं है। इसका कारण क्या था मैं नहीं कह सक्ती। एक दिन रात्रि को मैं अकेली अपने शयनागार में सोई थी और दीप मन्द ज्योति से जल रहा था कि एक मनुष्य की परछांई देख पड़ी और किसी ने मेरे कान में धीरे से कहा 'प्यारी डरो मत मैं तुम्हारा दास हूं।'
मैं क्या उत्तर देती? तीन वर्ष पर भेंट हुई सब बातें खुल गई गले लग कर रोने लगी।
फिर मैंने पूछा 'तुम कैसे इस पुरी में पहुंचे?' उन्होंने कहा 'आसमानी से पूछो, उसको साथ लेकर पवन के रथ पर चढ़कर आया हूँ इसी लिये अभी तक छिपा था।'
मैंने पूछा 'अब?'
उन्होंने कहा 'अब क्या? तुम चाहो सो करो।'
मैं सोचने लगी कि अब क्या करूँ कहाँ रक्खूँ? इतने में किसी ने मेरे शयनागार का द्वार खोला। देखूँ तो महाराज मानसिंह आगे खड़े हैं। और क्या कहूँ प्रीतम बन्दी कर लिये गए और दण्ड देने की भी आज्ञा हुई। मैं जाकर उर्मिला के चरण पर गिर पड़ी और सम्पूर्ण समाचार कह सुनाया। पिता से जब भेंट हुई उनके भी पैर पर गिर पड़ी। महाराज उनकी मानते थे और गुरू के तुल्य समझते थे मैंने उन से कहा
'आप अपनी ज्येष्ठ कन्या का स्मरण करें।' पर उन्होंने मेरी बात न सुनी जान पड़ता था कि महाराज की और उनकी एक मति थी। वरन रोष करके बोले 'पापिन! तू ने लज्जा संकोच सब छोड़ दिया' उर्मिला देवी ने मेरी रक्षा के निमित्त महाराज से बहुत कुछ कहा। महाराज बोले 'मैं इस चोर को छोड़ दूंगा यदि वह विमला से विवाह करले।'
मैं महाराज की मनोगति समझ चुप रही किन्तु प्राणेश्वर ने जब यह बात सुनी कहने लगे 'मैं बन्दी रहूंगा प्राणदण्ड भोगूंगा परन्तु शूद्री कन्या का अंगीकार कदापि न करूंगा। आप हिन्दू होकर ऐसा बात कहते हैं।'
महाराज ने कहा 'जब मैंने अपनी बहिन शाहजादा सलीम के सङ्ग ब्याह दी तो तुमको ब्राह्मण की कन्या ब्याहने कहता हूँ इसमें क्या आश्चर्य?'
पर उनके मन में न समाई। उन्होंने कहा 'महाराज जो होना था सो हो चुका अब आप कृपा करके मुझको बन्धन मुक्त कीजिये मैं अब विमला का नाम भी न लूंगा।'
महाराज ने कहा 'ऐसे तो तुम्हारे अपराध का प्रायश्चित नहीं होता। तुम विमला को त्याग दोगे तो दूसरा उसको कलंकिनी समझ कर ग्रहण नहीं करेगा।
अन्त को जब उनसे कारागार की कठिनता न सही गयी तो कुछ २ ढुले और बोले 'विमला यदि हमारे घर में दासी होकर रहे और इस विवाह के विषय में कभी किसी से कुछ न कहे तो मैं उससे विवाह करलूं नहीं तो न करूंगा।'
लगी बुरी होती है मैंने वही स्वीकार किया। मुझको धन सम्पत्ति और मान की लालसा न थी मैं तो केवल प्रीतम की अभिलाषी थी। पिता और महाराज की भी सम्मति हुई और मैं
दासी का वेष धारण करके अपने भर्ता के गृह गई।
उन्होंने मुझको अपनी इच्छा के विरुद्ध पेंच में पड़ कर ग्रहण किया था, अतएव मुझको बैरी की भांति समझते थे। पूर्वकालीन प्रेम सब मिट्टी में मिल गया और महाराज मानसिंह कृत अपमान का टोकारा देकर मुझको निन्दित किया करते थे। मैं उसी में मगन थी। कुछ दिन के अनन्तर फिर मेरा सौभाग्य चमका और प्राणेश्वर मुझको चाहने लगे किंतु महाराज की ओर उनका वैसाही ध्यान रहा। विधना की करतूति! नहीं तो क्यों इस दशा को पहुंचते।
मैं तो अपना वृत्तान्त कह चुकी। बहुत लोग जानते होंगे कि मैं अपना कुल धर्म्म परित्याग कर मान्दारणगढ़ के स्वामी के पास रहती थी इसलिये मैंने आपको लिख भेजा है कि अब मैं मर जाऊं और लोग मुझको कलंक लगावें उस समय आप मेरी सहायता कीजियेगा।
इस पत्र में मैंने केवल अपना हाल लिखा है, जिसके संवाद जानने की आपको अनेक दिन से लालसा लग रही है उसका इसमें कुछ परिलेख नहीं है, आप उस नाम को अपने मन से भूल जाइये। तिलोत्तमा का अब ध्यान छोड़ दीजिये।
उसमान ने पत्र पढ़ कर कहा "माता तुम ने मेरी प्राण रक्षा की है अब मैं उसका प्रतिउपकार करूँगा"।
विमला ने ठंढी सांस लेकर कहा 'हमारा क्या उपकार आप कीजियेगा? और उपकार'—
उसमान ने कहा "मैं वही करूँगा।"
बिमला का बदन चमकने लगा और बोली "उसमान तुम क्या कहते हो? इस दग्धहृदय को अब ललचाते हो?"
उसमान ने हाथ से एक अँगूठी उतार कर कहा, यह अँगूठी लो दो एक दिन तो कुछ नहीं हो सकता। कतलू खाँ की वर्ष गांठ समीप है उस दिन बड़ा उत्सव होगा। पहरे वाले मारे आनन्द के उन्मत्त हो जाते हैं। उसी दिन मैं तुम को मुक्त करूँगा तुम उस दिन रात को महल के द्वार पर आना यदि वहाँ कोई तुमको ऐसी हो दुसरी अँगूठी दिखावे तो तुम उसके सङ्ग हो लेना। आशा है कि निर्विघ्न निकल जाओगी' आगे हरि इच्छा बलवान है।
बिमला ने कहा परमेश्वर तुमको चिरंजीव रक्खें, और मैं क्या कहूँ, और उसका हृदय भर आया और मुँह से बोली नहीं निकली। आशीर्वाद देकर जब बिमला जाने लगी उसमान ने कहा "एक बात तुम से बता दें अकेली आना। यदि कोई तुम्हारे सङ्ग होगा तो काम न होगा। वरन उपद्रव का भय है।"
बिमला समझ गई कि उसमान तिलोत्तमा को सङ्ग लाने का निषेध करता है और अपने मन में सोची कि यदि दो जन नहीं जा सकते तो अच्छी बात है तिलोत्तमा अकेली जायगी।
बिमला बिदा हुई॥
आठवां परिच्छेद।
आरोग्य।
सदा किसी का दिन बराबर नहीं रहता। किसी को मुख किसी को दुःख यह परम्परा से चला आया है।
समय एकसा नहीं रहता। क्रमशः जगतसिंह आरोग्य होने लगे। यमराज के पास से बच कर दिन २ शक्ति बढ़ने लगी, ग्लानि दूर हुई और क्षुधा लगने लगी जब भोजन किया बल हुआ और उसी के सङ्ग चिन्ता का भी प्रादुर्भाव हुआ।
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