दुर्गेशनन्दिनी प्रथम भाग/चौथा परिच्छेद
जगतसिंह जिस मार्ग से विष्णुपुर से जहानाबाद को गए थे उसका चिन्ह अद्य पर्य्यन्त बर्तमान है। उसके दक्षिण मान्दारणगढ़ नाम एक ग्राम है और जिन स्त्रियों से मन्दिर में साक्षात हुआ था वे वहां से चलकर इसी गांव की ओर गई। प्राचीन समय में इस स्थान पर कई दुर्ग थे इसी कारण इसका नाम मान्दारणगढ़ पड़ा। दामोदर नदी इसके बीच से बहती है और एक स्थान पर यह नदी ऐसी टेढ़ी होकर निकली है कि एक त्रिकोणसा बनगया है और आगे इस त्रिभुज के जहां नदी का मोड़ था एक बड़ा भारी दुर्ग बना था। नीचे से ऊपर तक एक रंग कृष्ण पत्थर की श्यामता दूरसे पर्वत की भ्रान्ति उत्पन्न करती थी और दोनों ओर इसके नदी की धारा और ही छबि दिखाती थी। काल पाकर ऊपर का भाग तो इसका गिरगया परन्तु नीह अभी पड़ा है और तदुपरस्थित वृक्षों के कुञ्ज में नाना प्रकार के जीवजन्तु बास करते हैं। नदी के उस पार भी अनेक गढ़ बने थे और उनमें एक कुलके कई धनाड्य और तेजस्वी पुरूष पृथक २ रहते थे। ऊर्ध्व लिखित हुर्ग के अतिरिक इस स्थान पर और किसी से मतलब नहीं है।
दिल्ली के महराज वालीन जब सेना लेकर बंग देश जीतने को आए थे उनके साथ एक जयधरसिंह नामी सैनिक भी आया था और जिस दिन महराज के जयपाई उस दिन
इसने बड़ा साहस दिखलाया था। उक्त बालान ने प्रसन्न होकर यह मान्दारणगढ़ उसको पुरस्कार में दिया था क्रमश: इस बीर का वंश बहुत बढ़ा और काल पाकर बंगाधिपति को प्रचार के इस स्थान पर गढ़ निर्माण पूर्वक स्वाधीन होकर रहने लगा। जिस गढ़ का सविस्तर वर्णन हुआ है उस में ९९८ के साल में बीरेन्द्रसिंह नामी जयधरसिंह का एक वंशज रहता था।
वीरेन्द्रसिंह दम्भ और अधीरता के कारण अपने पिता की आज्ञा नहीं मानता था और इसी कारण उनका आपुस में मेल नहीं था। पुत्र के विवाह के निमित्त पिता ने निकटस्थ एक अपने जाति वाले की कन्या ठहराई थी। बेटी वाले को और कोई सन्तान नहीं थी किन्तु कन्या परम सुन्दरी थी। बूढे़ने इस सम्बन्ध को अति उत्तम समझा और यथोचित उद्योग करने लगा। किन्तु बीरेन्द्रसिंह के मन का यह विवाह नहीं था उसने अपनेही ग्राम की एक पति पुत्रहीन दरिद्र स्त्री के कन्या से छिपकर अपना विवाह कर लिया, पिता ने जब यह समाचार सुना बहुत रुष्ट हुआ और बीरेन्द्र को घर से निकाल दिया। उसने अपनी स्त्री को यहीं छोड़ दिया क्योंकि वह गर्भिणी थी और आप सिपाहियों में नौकरी करने की इच्छा कर वहां से चल दिया।
पुत्र के चले जाने से वृद्ध पिता को बड़ा क्लेश हुआ और उसके पता लगाने का यत्न करने लगा परन्तु क्या हो सकता था। तब उसने बहू को बुला कर अपने घर में रक्खा, समय पाकर उसको एक कन्या उत्पन्न हुई। थोड़े दिन के अनन्तर माता इस लड़की की मर गईं और वह अनाथ अपने दादा के यहां बड़ी हुई। वीरेन्द्रसिंह ने दिल्ली में जाकर राजपूतों की सेवा करली और अपने गुण करके थोड़े ही दिनों में 'पदवी' पाई कुछ दिन में खूब धन और यश संचय किया। इतने में पिता के मरने का समाचार मिला और नौकरी छोड़ कर घर चले आये। दिल्ली से उनके साथ बहुत से लोग आये थे, उनमें एक दासी और एक परमहंस भी थे। परिचारिका का नाम विमला और परमहंस का नाम अभिराम स्वामी था।
विमला को हमने परिचारिका करके लिखा है वही परिपाटी अभी चली जायगी, वह घर में गृहस्थी के कर्म और विशेष कर बीरेन्द्रसिंह की लड़की का लालन पालन किया करती थी इसके अतिरिक्त और कोई काम वह नही करती थी परन्तु, उसके लक्षण दासी के से न थे। जैसे गृहिणी का आदर होता है उसी प्रकार उसका भी होता था ओर सब लोग उस को मानते थे रूप भी उसका कुछ बुरा न था उस की ढलती हुई जवानी देख कर ज्ञात होता था कि अपने समय में वह एकही रही होगी। गजपति विद्या दिग्गज नामी अभिराम स्वामी का एक शिष्य था यद्यपि उसको अलंकर शास्त्र का कुछ ज्ञान न था परन्तु रस अंग अंग से भरा था। उसने विमला को देखकर कहा परचारिका तो घड़े के घी की प्रकृति रखती है ज्यों ज्यों कामाग्नि कम होती है त्यों २ शरीर उसका पुष्ट होता जाता है।'
जिस दिन गजपति विद्या दिग्गज ने यह बोली बोली उसी दिन से विमला ने उनका नाम 'रसिकदास स्वामी, रक्खा।
विमला विधवा थी कि सधवा यह कोई नहीं जानता था पर आचरण उसके सब सधवा के थे। दुर्गेशनन्दिनी विलोत्तमा का जैसा स्नेह था वह मन्दिर में प्रकाश हो चुका है, तिलोत्तमा भी उसको वैसाही चाहती थी। बीरेन्द्रसिंह के दूसरे साथी अभिराम स्वामी सर्वदा दुर्ग में नहीं रहते थे कभी २ बाहर भी चले जाते थे, उनकी बहुदर्शिता और बुद्धिमानी में कुछ सन्देह नहीं, संसारिक विषयों को त्याग अहर्निश नेम धर्म में लगे रहते थे और राग क्षोभ का भी उन्होंने त्यागन कर दिया था। बीरेन्द्रसिंह ने इनको अपना दीक्षा गुरु बना रक्खा था।
इन दोनों के अतिरिक्त आसमानी नाम की एक और परिचारिका बीरेन्द्रसिंह के साथ आई थी॥
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