दुर्गेशनन्दिनी प्रथम भाग/पांचवां परिच्छेद

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पांचवां परिच्छेद ।
अभिराम स्वामी का मंत्र ।

तिलोत्तमा और विमला दोनों मन्दिर से चलकर कुशल पूर्वक अपने घर पहुंच गईं। तीन चार दिन के अनन्तर एक दिवस बीरेन्द्रसिंह अपने 'दीवानखाने' में मसनद पर बैठे थे कि अभिराम स्वामी वहां आन पहुंचे, बीरेन्द्रसिंह ने उठकर स्वामीजी को दण्डवत किया और बैठने के निमित्त एक कुशासन बिछा दिया और आज्ञा पाकर आप भी बैठ गए । अभिराम स्वामी बोले ।

बीरेन्द्र ! आज मैं तुमसे कुछ कहा चाहता हूँ ।

बीरेन्द्रसिंह ने कहा आज्ञा-महाराज ? [ २१ ]अ० | आजकल मोगल पठानों में बड़ा युद्ध हो रहा है।

वी० | हां कोई भारी आपत्ति आवेगी।

अ० | आवेगी! क्या कहते हो? यह कहो कि अब क्या करना होगा?

वी० | (दम्भ पूर्वक) शत्रु आवेगा तो उस का नाश करूंगा और क्या करूंगा।

परमहंस ने मधुर स्वर से कहा, बीरेन्द्र! तुमसे वीरों के यही काम हैं किन्तु केवल कथन मात्र से जय न होगी, कुछ कर्तव्य भी चाहिये तुम्हारी वीरता में कुछ सन्देह नहीं परंतु तुम्हारे पास सेना नहीं है, मोगल पठान दोनों सेना बल में तुमसे श्रेष्ठ हैं बिना एक की सहायता दूसरे पर जय पाना सहज नहीं है, तुम हमारी बातों से अप्रसन्न न होना सोचो और मनमें विचारों और एक बात यह है कि दोनों से शत्रुता करही के क्या करोगे? पहिले तो शत्रुता अच्छी नहीं और यदि ऐसाही आनपड़े तो दो शत्रु से एक अच्छा है। हमारी बातों को भलीभांति विचार करके देखो।

बीरेंद्रसिंह कुछ काल पर्य्यन्त चुप रहे फिर बोले कि आप किधर की संधि चाहते हैं?

स्वामीजी ने कहा 'यतोधर्म्मस्ततोजय:' जिधर जाने में अधर्म्म न हो वही पक्ष लेना चाहिये, राज का द्रोही होना महां पाप है अतएव राजपक्ष प्रहण करो।

बीरेन्द्र ने थोड़ा सोचकर कहा कि राजा कौन है? मोगल पठान दोनों में राजत्व का विवाद है?

अभिराम स्वामी ने उत्तर दिया 'जो कर ले वही राजा'

बी० | अकबरशाह?

अ० | और क्या? [ २२ ]इस बातको सुनकर बीरेन्द्रसिंह को गुस्सा आगया और आंखें लाल होगईं। अभिराम स्वामी ने उनकी चेष्टा देखकर कहा, बीरेन्द्र! गुस्सा न करो हम तुमको दिल्ली के महाराज के पक्षपाती होने को कहते हैं कुछ मानसिंह का अनुगामी होना नहीं कहते।

बीरेन्द्रसिंह ने दहिना हाथ फैलाकर परमहंस को दिखाया और बायें हाथ की उंगली से शपथ कर कहा 'आपके चरण के प्रभाव से इसी हाथसे मानसिंह का नाश करूंगा'

अभिराम स्वामी ने कहा ज़रा शान्त हो क्रोध बस हो कर अपना काम बिगाड़ना न चाहिये मानसिंह को उसके अपराधों का दण्ड देना उचित है पर अकबरशाह से लड़ने में क्या लाभ होगा?

बीरेन्द्र ने क्रोध से कहा कि अकबर के पक्षपाती होने से उसके सेनापति के आधीन होना होगा, उसकी सहायता करनी पड़ैगी और मानसिंह के अतिरिक्त और कौन सेनापति है? गुरु देव! जबतक देह में प्राण है तब तक तो यह कर्म्म बीरेन्द्रसिंह से न होगा।

यह सुनकर अभिराम स्वामी चुप हो रहे फिर कुछ कालान्तर में बोले 'क्या पठानों की सहायता करनी तुम्हारे मन में है?'

बीरेन्द्र ने उत्तर दिया 'पक्षापक्ष के भेद से क्या लाभ होगा?' अभिराम स्वामी लम्बी सांस लेकर फिर चुप रहे और आंखों में आंसू भर लाये। बीरेन्द्रसिंह ने उनकी यह दशा देख कहा 'गुरूजी क्षमा कीजिये'। मैने बिना जाने यदि कोई अपराध किया हो तो बताइये। [ २३ ]स्वामीजी ने कपड़े से आंसू पोछकर कहा 'सुनो' मे कई दिन से ज्योतिष का हिसाब लगाता था, और विशेष करके तुम्हारी लड़की का फल बिचार रहा था क्योंकि तुम जानते हो कि मैं तुमसे उसपर अधिक तर स्नेह रखता हूं। वीरेन्द्र का मुंह सूख गया और उन्होंने आग्रह से कहा कि 'ज्योतिष में क्या निकला' परमहंस ने उत्तर दिया "मोगल सेनापति कर्तृक तिलोत्तमा को बड़ा क्लेश होगा।" बीरेन्द्रसिंह के मुख पर श्यामता आगई।

परमहंस ने फिर कहा कि मोगलों से विरोध करने में यह अमंगल होगा मेल करने से न होगा इसी लिये मैं तुमको उनका पक्षपाती होने को कहता हूं। कुछ तुमको खिझाने की मुझको लालसा नहीं है। मनुष्य का करना सब निषफल है। विधाता ने जो लिख दिया है वह अवश्य होगा नहीं तो तुम्हारी बुद्धि ऐसी न होती। बीरेन्द्रसिंह सन्नाटे में आगए। अभिराम स्वामी ने कहा वीरेन्द्र! द्वार पर कतलूखां का दूत खड़ा है। मैं उसे देखकर तुम्हारे पास आया था। मैंने उसे रोक दिया था इस कारण द्वारपाल ने अभी तक उसको आने नहीं दिया अब मेरी बातैं चुक गईं उसको बुलवा भेजिये बीरेन्द्रसिंह ने दीर्घ श्वास लेकर सिर उठाकर कहा "हे गुरूदेव जबतक मैंने तिलोत्तमा को देखा नहीं था उसे अपनी लड़की नहीं समझता था अब मुझको संसार में उससे प्रिय और कोई वस्तु नहीं है मैंने आपकी आज्ञा मानी और अपने पूर्व संकल्प को त्याग किया। मानासिंह का अनुगामी हूंगा आप द्वारस्थित दूत को बुलवा भेजिये।”

आज्ञा होते ही द्वारपाल ने दूत को लाकर उपस्थित किया। उसने आते ही कतलूखां का पत्र निकालकर बीरे[ २४ ]न्द्रसिंह को दिया जिसका आशय यह था कि एक सहस्त्र सवार और पांच सहस्त्र 'अशरफी' तुरन्त भेज दो नही तो बीस 'हजार' सेना भेजकर मान्दारणगढ़ घेर लूंगा।

पत्र पढ़कर बीरेन्द्रसिंह ने कहा "दूत!" तुम जाकर अपने स्वामी से कह दो कि सेना भेज दो मैं देख लूगा और वह सिर नीचा करके चला गया।

विमला यह सब बातें भीतर से सुन रही थी॥

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