दुर्गेशनन्दिनी प्रथम भाग/नौवां परिच्छेद

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नौवां परिच्छेद।
आसमानी दूती।

बिमला के संकेत के अनुसार आसमानी द्वार पर खड़ी थी। बिमला ने आकर उस्से कहा आज तुझ से एक बात कहनी है। [ ३६ ]आसमानी ने कहा कि मैं तेरा वेश देख कर पहिलेही समझ गई थी आज कुछ है।

बिमला ने कहा "मुझको आज एक काम के लिये जाना है और अकेली रात में जा न सकूंगी अतएव तुझको संग ले चलूगीं।"

आसमानी ने पूछा "कहां?"

बिमला बोली तूंने तो पहिले इतनी बातें नहीं पूछीं थी।

आसमानी ने लजा कर कहा अच्छा तूं यहीं ठहर मैं थोड़ा काम कर के आती हूं।

बिमला ने कहा एक बात और है, तुझको कोई पहिचानता तो नहीं?

आसमानी ने पूछा, कौन?

बिमला ने कहा जैसे कुमार जगतसिंह से भेंट हो जाय तो वे तुझको पहिचान लेंगे।

आसमानी कुछ देर तक चुप रही और फिर गद गद स्वर से बोली "ऐसा कौन दिन होगा?"

बिमला ने कहा यदि हो तो?

आसमानी ने कहा 'कुमार न चीन्हेंगे तो कौन चीन्हेगा?'

बिमला बोली 'तब मैं तुझको न ले चलूंंगी और किसी को ले जाऊंगी क्योंकि अकेले तो जाऊंगी नहीं।

आसमानी ने कहा कि कुमार के देखने को बहुत जी चाहता है।

बिमला बोली फिर मैं क्या करूं, और सोचने लगी। और आसमानी मुंह पर कपड़ा लगाकर हंसने लगी। [ ३७ ]बिमला ने भौंह चढ़ा कर कहा 'चल, वाह! अपने आप हंसती है।

आसमानी ने कहा मैं सोचती हूं कि चांद दिग्गज को तेरे संग करदूं तो अच्छा होय।

बिमला ने कहा "हां यह बात ठीक है, रसिक दासही को संग ले जाऊंगी।,,

आसमानी ने कहा "और मैं क्या हंसी करती थी?"

बिमला ने कहा "हंसी नहीं,मैं उस ब्राह्मण को पतियाती हूं और वह तो पोंगा हुई है—किन्तु वह जाय या न जाय!,, आसमानी ने हंसकर कहा वह मेरा काम है, मैं उसको अभी लिये आती हूं तब तक तू फाटकके बाहर खड़ी रह और हंसते हंसते दुर्ग के एक कुटी की ओर चली।

अभिराम स्वामी के शिष्य गजपति विद्या दिग्गज इसीमें रहते थे। इनका डोल साढ़े पांच हाथ का था, छाती हाथ भर की चौड़ी, लम्बी२ टागें, कुवड़ी पीठ और लम्बी नाके एक अद्भुत स्वरूप दिखलाती थी। माथे के बाल कुल श्वेत हो गए थे बरन टूट२ झरते भी जाते थे और वही मसल थी कि 'सौंच के पानी नाहीं नाम दयीवसिंह।' नाम तो इनका विद्या दिग्गज था परन्तु पढ़े लिखे कुछ ऐसेही थे बाल्य अवस्थामें तो व्याकर्ण प्रारम्भ किया था और साढ़े सात महीने 'महर्णोर्घ' लक्षण शुद्धता पूर्वक नहीं आया। भट्ठाचार्य्य महाशय के अनुग्रह से विद्यार्थियों में बैठ कर पन्द्रह वर्ष में शब्दकाण्ड समाप्त किया जब दूसरा काण्ड आरम्भ होने का समय आया तो गुरूजी ने कहा कि देखैं इसको कुछ आया कि नहीं और परीक्षा लेने बैठे। पूछा कि राम शब्द के परे अम होने से क्या रूप होगा। शिष्य ने देर तक सोच [ ३८ ] के कहा 'रामम्भा।' गुरू ने कहा "बेटा अब तू पण्डित हो गया अब अपने घर जा मैं तुझको नहीं पढ़ा सकता है।"

गजपति ने अहंकार पूर्वक कहा यदि मै पण्डित हो गया तो मुझको कोइ उपाधि मिलना चाहिये।

गुरु बोले हां ठीक है, अच्छा मैंने तुमको विद्या दिग्गज का पद दिया। दिग्गज ने प्रसन्न होकर गुरु का चरण छू कर प्रणाम किया और घर की राह ली।

घर में आकर दिग्गज पण्डित ने विचारा कि व्याकरण तो मैं पढ़ चुका अब कुछ स्मृति पाठ करना चाहिये और सुनते हैं कि अभिराम स्वामी बडे़ पंडित हैं उनके व्यतिरिक्त और कोई हमको भलीभांति पढ़ा न सकेगा, इससे उनके पास चलना अवश्य है और तदनुसार दुर्ग में पहुंचे। अभिराम स्वामी बहुतों को पढ़ाते थे पर किसी के ऊपर विशेष स्नेह नहीं करते थे। दिग्गज भी उनही में मिल गए।

दिग्गज अपने मन में जानते थे कि मैं केवल लीला करने को उत्पन्न हुआ हूं, और इस मेरे वृन्दावन में ईश्वर ने आसमानी को गौ रूपी बनाया है। आसमानी का भी जी बहुत लगता था और कधी २ बिमला भी आकर इस कौतुक की भागी होती थी।

"आज तो मेरी राधा आती है" "वाह विधाता आज तो तू ने दया की।"

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