दुर्गेशनन्दिनी प्रथम भाग/पन्द्रहवां परिच्छेद

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पन्द्रहवां परिच्छेद।
बीर पञ्चमी।

दोनों शैलेश्वर को प्रणाम कर डरते हुए मान्दारणगढ़ [ ५९ ] का ओर चले, किश्चित काल पर्य्यन्त तो चुप रहे, फिर राजकुमार ने कहा बिमला मुझको एक सन्देह है कि तू परिचारिका नहीं है।

बिमला मुस्किरा कर कहने लगी "यह संदेह आपको क्यों हुआ?"

रा०| बीरेन्द्रसिंह की कन्या का विवाह राजा के पुत्र से न हो, इसमें कोई विशेष कारण है और तू यदि परिचारिका होती तो यह बात कदापि तुझको न मालूम होती।

विमला ने ठंढी सांस ली और कातरस्वर से बोली "आपका संदेह यथार्थ है मैं परिचारिका नहीं हूं, अदिष्ट बस यही काम करती हूं।"

राजकुमार ने देखा कि बिमला का मन रोआसा हो आया अतएव फिर उस विषय सम्बन्धी और कुछ न कहा। किन्तु विमला ने स्वतः कहा "युवराज मैं आपको बताऊंगी पर इस समय नहीं, देखो पीछे किसी के आने का शब्द सुनाई देता है, ऐसा जान पड़ता है कि दो मनुष्य परस्पर फुसकुसाय रहे हैं।"

राजकुमार ने कहा "मुझको भी सन्देह होता है, ठहरो मैं देख आऊं" और पीछे हटकर इधर उधर मार्ग के पार्श्वों में देखा तो मनुष्य का कहीं नहीं चिन्ह देख पड़ा। फिर आकर बिमला से बोले "मुझको शंका है कि कोई हमारे पीछे आता है, धीरे २ बात करो"। और दोनों धीरे २ बात करते हुए चले और थोड़ी देर में मान्दारणगढ़ में पंहुच कर दुर्ग के सामने आन खड़े हुए। राजपुत्र ने पूछा, "तू इस समय दुर्ग में कैसे जायगी? इतनी रात को फाटक तो बन्द होगा।" [ ६० ] बिमला ने कहा, "आप चिन्ता न करें मैं इसका प्रबंन्ध करके घर से चली थी।"

राजपुत्र ने हंसकर कहा, "क्या कोई चोर द्वार है क्या?" बिमला ने भी हंसकर कहा, "जहां चोर रहते हैं वही सिंह भी रहते हैं।"

फिर राजपुत्र ने कहा "बिमला, अब मेरे जाने का कुछ प्रयोजन नहीं है, मैं इसी अमराई में खड़ा हूं तू जाकर मेरी ओर से अपनी सखी से कह कि पन्द्रह दिन में अथवा महीने भर में अथवा वर्ष भर में एक बेर मुझको और दर्शन दे।"

बिमला ने कहा "यहां भी तो लोग रहते हैं आप मेरे संग चले आइए"।

रा०| तू कितनी दूर जायगी!

बि०| दुर्ग में चलिये।

राजकुमार ने सोच कर कहा 'बिमला यह तो उचित नहीं है। दुर्ग के स्वामी की आज्ञा है नहीं, मैं भीतर कैसे चलूं?'

बिमला ने कहा "कुछ चिन्ता नहीं?"

राजकुमार गर्वपूर्वक बोले 'राजपुत्रों को कहीं जाने मे चिन्ता नहीं है परन्तु देखो राजा के बेटे को बिना दुर्गेश की आज्ञा चोर की भांति भीतर जाना उचित नहीं है।'

बिमला ने कहा "मैं तो आपको संग ले चलती हूं!"

राजकुमार ने कहा 'तुम यह न जानो कि मैं परिचारिका समझ तुम्हारी बात काटता हूं किन्तु बताओ तो मुझको दुर्ग में ले चल कर क्या करोगी? और तुमको अधिकार कब है?' [ ६१ ]अच्छा तो जब तक मैं अपना अधिकार न बताऊं आप न चलेंगे?

राज०| निस्सन्देह न जाऊंगा।

विमला ने झुक कर राजपुत्र के कान में कुछ कहा।

राजपुत्र ने कहा "अच्छा चलो!"

बिमला राजकुमार को अमराई के भीतर से ले चली। किन्तु चलते समय फिर पत्तों के खड़खड़ाने से मनुष्य की आहट मालूम हुई।

बिमला ने कहा "देखो फिर"।

राज कुमार ने कहा "तुम तनिक और ठहरो मैं देख आऊं" और नंगी तलवार लेकर जिधर शब्द सुन पड़ा था उसी ओर चले पर कुछ देख न पड़ा। एक तो उस अमराई में झाड़ियों की बहुतायत तिस पर अन्धेरी रात दृष्टि भी दूर तक नहीं जाती थी और राजपुत्र ने यह भी समझा कि कौन जानि कोई पशु के चलने से पत्ता खड़का हो, किन्तु सन्देह निवाणार्थ एक वृक्ष के उपर चढ़ गए और चारो ओर देखने लगे तो एक वृक्ष के कुञ्ज में दो मनुष्य बैठे देख पड़े। केवल झलक भर देख पड़ती थी। भली भांति उस वृक्ष को चिन्ह धीरे २ नीचे आए और सब समाचार बिमला से कह सुनाया और बोले-यदि इस समय दो बर्छा होता तो अच्छा था।

बिमला ने पूछा बर्छा क्या होगा!

रा०| तो जान लेता कि यह मनुष्य कौन हैं? लक्षण अच्छा नही दीखता। मैं जानता हूं कि कोई पठान दुष्ट इच्छा करके हमारे पीछे आता है! बिमला ने भी उस घोड़े और पगड़ी का समाचार उनसे कहा और बोली की आप [ ६२ ] यहीं टहरैं मैं अभी बर्छा लिए आती हूं और झट पट एक खिड़की की राह से अपनी उसी कोठरी में घुसी जहां श्रृंगार कर रही थी और छत के उपर एक कोठरी का ताला खोल भीतर गई और फिर ताला बन्द कर दीया। इसी प्रकार गढ़ के शस्त्रशाला में पहुंची। और पहरे वाले से बोली 'मैं तुमसे एक वस्तु मांगती हूं किसी से कहना न। मुझको दो बर्छा देओ मैं फिर दे जाऊंगी।'

पहरे वाले ने घबरा कर पूछा 'माता तुम बर्छा लेकर क्या करोगी।?'

बिमला ने कहा आज वीरपंचमी का व्रत है जो स्त्री आज व्रत रहती हैं उनको वीर पुत्र उत्पन्न होता है इसी लिये रात्रि को अस्त्र की पूजा करूंंगी किसी से कहना मत। प्रहरी को विस्वास होगया और उसने दो बर्छा निकाल कर दे दिया और बिमला उसी प्रकार दौड़ती हुई कोठरी में से होकर खिड़की के राह बाहर आई किन्तु शीघ्रता के कारण ताला खुला छोड़ आई यही बुरा हुआ। जंगल के समीप एक वृक्ष था उस पर शस्त्रधारी बैठा था उसने बिमला को आते जाते देखा था, ताला खुला देख वह झट भीतर घुसा और दुर्ग में पहुंच गया।

यहां राज पुत्र ने बिमला से बर्छा ले फिर वृक्ष पर आरोहण करके देखा तो एक मनुष्य देख पड़ा दूसरा जाता रहा। एक बर्छा बायें और एक दहिने हाथ में ले ऐसा तिग कर मारा कि वह मनुष्य तुरन्त लुण्ड मुण्ड हो कर नीचे गिर पड़ा।

जगतसिंह शीघ्र वृक्ष के नीचे उत्तर उसी स्थान पर गए और देखा कि एक मुसलमान सैनिक मरा पड़ा है, बर्छा [ ६३ ]उसके कनपटी में लगा था। जब भली भांति देख लिया कि अब प्राण का लेश कुछ भी न रहा बर्छे को उसके कनपटी से निकाल लिया। उस मुर्दे के बस्त्र में एक पत्र भी पड़ा था। जगतसिंह ने इस पत्र को लेकर चांदनी में पढ़ा उसमें लिखा था।

"कतलू" खां के समस्त आज्ञाकारियों को उचित है कि पत्र वाहक की आशा प्रतिपालन करें।

कतलू खां।"

विमला ने भी सुना परन्तु उसने कुछ समझा नहीं। राजकुमार ने उसके निकट आकर सब बृत्तान्त कह सुनाया! विमला बोली युवराज यदि मैं यह जानती तो कदापि आप के लिए बर्छा न लाती और मैंने बड़ा पाप किया।

युवराज ने कहा बैरी के मारने में कुछ दोष नही वरन धर्म्म होता है।

विमला ने उत्तर दिया योधा लोग ऐसाही करते हैं पर मैं तो जानती हूं। और थोड़ा ठहर कर फिर बोली "राजकुमार अब यहां ठहरना अच्छा नहीं, दुर्ग में चलिए मैं द्वार खुला छोड़ आई हूं।

दोनों जल्दी २ चले। पहिले बिमला भीतर घुसी। राजपुत्र का हृदय और पांव कांपने लगा। प्रेम का पथ ऐसाही है। ऐसा तेजस्वी सेनापति जो शस्त्र धार के संमुख मुंह न मोड़ता इस पथ में पैर रखतेही कांपने लगा। लिखा है। "चढ़ी के मैं न तुरंग पै चलिवो पावक माहिं। प्रेम पंथ ऐसी कठिन सवहीं पावत नाहिं।"

बिमला पूर्वत खिड़की बन्द कर राजपुत्र को अपने में लेगई और बोली कि आप यहीं ठहरें मैं अभी [ ६४ ] आती हूं और वहां से चली गई।

थोड़ी देर में एक दूसरी कोठरी का द्वार खुला और बिमला राजकुमार को पुकार कर कहने लगी "यहां आकर एक बात सुनिये।

युवराज का हृदय और भी कांपने लगा और उठकर उसके पास गए।

बिमला तुरन्त वहां से टर गई, राजकुमार ने देखा कि कोठरी अति उत्तम और स्वच्छ है और भीतर से सुन्दर सुगन्ध आरही है मणिमय दीप जल रहा है और घूंघट काढ़े एक स्त्री बैठी है।