दुर्गेशनन्दिनी प्रथम भाग/चौदहवां परिच्छेद

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चौदहवां परिच्छेद।
शैलेश्वर साक्षात।

बिमला मन्दिर के भीतर जाकर पहिले मार्गश्रम निवारणार्थ बैठ गई और फिर शैलेश्वर को सिर नवाय राजकुमार को प्रणाम कर हंस कर बोली "शैलेश्वर की कृपा से आज आप से फिर भेंट हुई, मैं तो अकेली इस मैदान में आते बहुत डरती थी किंतु अब आप के दर्शन से सब भय दूर हुआ।

युवराज ने पूछा सब कुशल तो है!

बिमला तो मन की बात जानती ही थी तिलोत्तमा प्रति राजकुमार के प्रेम की प्रतिज्ञा करने के निमित्त बोली "मैं आज इसी निमित्त शैलेश्वर की पूजा करने आई हूं कि जिसमें मंगल हो किंतु मुझको जान पड़ता है कि आपने अपनी ही पूजा से महादेव को छकित कर रक्खा है अब वे मेरी पूजा क्यों लेंगे।" आज्ञा हो तो मैं फिर जाऊं।

युव०| जाओ—परन्तु अकेली जाना अच्छा नहीं, चलो मैं तुमको पहुंचाय आऊं।

बिमला ने देखा कि युवराज केवल अस्त्र शस्त्र नहीं बरन सर्व विद्या मैं दक्ष है। बोली अकेली जाने में क्या हानि है?

यु०| मार्ग में अनेक प्रकार के भय हैं।

बि०| तब मैं महाराज मानसिंह के निकट जाऊंगी।

राजपुत्र ने पूछा क्यों?

बि०| क्यों? उनके पास जाकर फ़रियाद करूंगी कि जो सेनापति आपने नियत किया है उस्से हमलोगों का [ ५५ ] मार्ग निष्कण्टक नहीं हो सकता, उससे शत्रु का नाश नही हो सक्ता।

राजपुत्र ने हंसकर उत्तर दिया, सेनापति न कहेगा कि शत्रु का तो देवता भी कुछ नहीं कर सकते मनुष्य कौन खेत की मूली है। देखो महादेव जी ने तो कामदेव का नाश कर दिया परन्तु आज पन्द्रह दिन हुए उसने इसी मन्दिर में बड़ा उपद्रव मचाया था। इतना बड़ा बीर है!

बिमला मुसकिरा कर बोली, उसने क्या उपद्रव किया था

युवराज ने कहा कि उसने उसी सेनापति पर आक्रमण किया था।

बिमला बोली कि महाराज यह बात असम्भव है।

युव०| इसके दो साक्षी है।

बि०| ऐसा कौन साक्षी है?

युव०| सुन्दरी-राजकुमार की बात पूरी नहीं होने पाई कि बिमला बोल उठी महाराज! यह योग्य विशेषण नहीं है, हमको बिमला कहा कीजिए।

राजकुमार ने कहा "क्या बिमला साक्षी न देगी?"

बि०| बिमला ऐसी साक्षी न देगी।

युव०| सच है, जो पन्द्रह दिन में भूलती है वह क्या साक्षी देगी।

बि०| महाराज मैं क्या भूल गई बताओ तो सही?

युव०| अपनी सखी का पता।

बिमला शंका परित्याग धीर मन होकर बोली "राजकुमार पता बताने में संकोच होता है और यदि बताने पर आप को दुःख होय तो। [ ५६ ] राजकुमार ने चिंता करके कहा, बिमला सच पता बताने में क्या मेरी कुछ हानि है?

बिमला ने कहा हां हानि है।

राजपुत्र फिर चिन्ता करने लगे। थोड़ी देर बाद बोले जो हो अब तो तुम हमारे चित्त को उद्वेगरहित करो, अब मन नहीं मानता। तुम जो शंका करती हो यदि वह सत्य हो तो क्या इस दुःख से कुछ विशेष क्लेश कर होगा। मैं केवल कुतूहल बस तुमसे मिलने को नहीं आया हूं क्योंकि यह समय कुतूहल का नहीं है, पन्द्रह दिन हुए मैंने घोड़े की पीठ के अतिरिक्त शय्या का दर्शणमात्र भी नहीं किया है, इस समय में व्याकुलता का मिस कर के आया हूं।

बिमला इन बातों को सुनकर बोली युवराज आप राजनीति में बिज्ञ हो बिवेचना करके देखो कि इस दुष्कर संग्राम के समय आप को काम क्रीड़ा करना उचित है! मैं दोनों के हित को कहती हूं आप मेरी सखी का ध्यान छोड़ दीजिए और अपने नियत कर्म्म में बद्धपरिकर होकर नियुक्त हूजिये।

युवराज खिसियायकर हंसने लगे 'प्यारी मैं उसको कैसे भूल जाऊं! उस प्राणेश्वेरी का चित्र मेरे पाहनहृदय पर ऐसा खचित होगया है कि बिधना भी उस को मिटा नहीं सकते और युद्ध की बात जो तूने कही सो तो मैं पहिले कह चुका कि जिस दिन से मैं तेरी सखी को देखकर गया हूं उस दिन से रणक्षेत्र में चलते फिरते जहां रहते हैं सर्वदा वही चन्द्र बदन आखों के सन्मुख रहता है बरन उसी के भ्रम से शत्रु के सिरच्छेदन में भी हाथ रुक जाया करता है। हे बिमला सच कह वह रूपरााशि कब देख पड़ैगी। [ ५७ ] इतना सुन बिमला बोल उठी वह मनमोहनी वीरेन्द्रसिंह की पुत्री है और मान्दारणगढ़ ग्राम में रहती है।

जगतसिंह को सांप सा डस गया और कृपाण के ऊपर टुड्डी टेक कर किञ्चित काल पर्य्यन्त सोचते रहे फिर ठंडी सांस ले कर बोले बिमला तू सत्य कहती थी। तिलोत्तमा मुझको नहीं मिल सकती, अब मैं रणक्षेत्र में जाता हूं और वहीं कट कर मर जाऊंगा।

उनकी यह अवस्था देख विमला ने कहा युवराज आप आशाभग्न न हों कहा है कि "जेहिकर जेहिपर सत्य सनेहू सो तेहि मिलै न कछु सन्देहू।" आज नहीं तो कल ईश्वर अवश्य दया प्रकाश करेगा, संसार आशा ही के स्तंभ पर स्थित है, हथेली पर सरसों नहीं जमती आप मेरी बात सुनिए और दुःख न कीजिए ईश्वर की महिमा को कौन जान सकता है। वह राई से पर्वत और पर्वत से राई बनाता है।

राजपुत्र ने आशा ग्रहण किया और कहा जो हो, अबतो मुझको कुछ भला बुरा नहीं सूझता। जो होना है सो तो हो होगा क्या ब्रह्मा का लिखा कोई मिटा सकता है? अब तो मैं इस शैलेश्वर के सन्मुख संकल्प करता हूं कि तिलोत्तमा के अतिरिक्त और कहीं किसी का पाणि ग्रहण न करूंगा। तुमसे मैं यही प्रार्थना करता हूं कि तुम जाकर यह सब बातें मेरी अपनी सखी से कह देना और यह भी कहना कि मैं एक बेर दर्शन की लालसा रखता हूं।

बिमला बहुत प्रसन्न हुई और बोली कि आपकी बात तो मैं उस्से कह दूंगी पर उस का उत्तर आप के पास कैसे पहुंचेगा! [ ५८ ]युवराज ने कहा मैं कह तो नहीं सकता क्योंकि तुमको क्लेश बहुत होता है पर यदि तुम एक बेर और इस मन्दिर में आओ तो मैं तुम्हारा चिरवाधित हूंगा। मैं , भी कभी तुम्हारे काम आऊंगा।

बिमला बोली युवराज! मैं तो आपकी चेरी हूं किंतु अकेले इस मार्ग में भय लगता है, आज्ञा भंग करना उचित न समझ मैं आज यहां आई हूं फिर तो यहां का आना बड़ा कठिन है।

राजपुत्र चिन्ता करने लगे और फिर बोले अच्छा यदि कुछ हानि न हो तो मैं तुम्हारे संग चलूं और बाहर कहीं खड़ा रहूंगा। तुम मुझसे संदेसा कह जाना।

बिमला ने आनन्दमग्न होकर कहा "चलिए" ओर दोनों मन्दिर में से निकलने चाहते थे कि मनुष्य के चलने की आहट कान में पड़ी राजपुत्र ने विस्मित हो कर बिमला से पूछा क्या तुम्हारे संग और भी कोई है!

बिमला ने कहा नहीं तो।

रा०| फिर चलने का शब्द कैसा सुनाई देता है, मुझे डर मालूम होता है कि किसी ने हमारी बात सुन तो नहीं ली, और बाहर आकर मन्दिर के चारों ओर टहल कर देखा तो कोई दृष्टि न पड़ा।