दृश्य-दर्शन/देहली।
देहली।
देहली भरतखण्ड का रोम है। योरोप में रोम नगर जिस दृष्टि से देखा जाता है, भारत में देहली भी उसी दृष्टि से देखी जाती है। रोम नगर इटली की राजधानी है। प्राचीन समय में, रोम के राजराजेश्वरों ने चिरकाल तक प्रायः सारे योरोप में अपनी राजसत्ता चलाई है। इसी लिए रोम बड़े आदर का पात्र माना जाता है। देहली के हिन्दू और मुसलमान राज-राजेश्वरों ने भी अनेक काल-पर्य्यन्त अपनी राजसत्ता इस देश पर चलाई है; हजारों वर्ष तक यह नगर इस देश की राजधानी रहा है। यही कारण है जो इसकी समता रोम से की जाती है; यही कारण है जो कलकत्ता और बम्बई आदि प्रसिद्ध नगरों को छोड़ कर यही नगर बड़े बड़े दरबारों के लिए चुना जाता है। जब हम प्राचीन इतिहासों को देखते हैं और टेवर्नियर, बर्नियर और फिञ्च आदि की लिखी हुई पुस्तकें पढ़ते हैं तब मुग़ल बादशाहों के समय की शोभा और समृद्धि का विचार करके बुद्धि चकित हो जाती है।
देहली का प्राचीन नाम हस्तिनापुर है। परन्तु इस हस्तिनापुर का पता ठीक ठीक नहीं लगता कि वह कहाँ पर था। प्राचीन हस्तिनापुर से कुछ दूर पर एक नगर इन्द्रप्रस्थ नाम का था। उसे पहले पहिल युधिष्ठिर ने अपनी राजधानी बनाया। ३० पीढ़ियों तक युधिष्ठिर के वंशज राजा लोग वहां राज करते रहे। उनके अनन्तर पांच सौ वर्ष तक एक दूसरे वंश ने वहां राज्य किया। फिर, वहां गौतम-वंश का राज्य हुआ। उस वंश के पन्द्रह राजा वहाँ हुए। गौतम के अनन्तर मयूरों ने वहां अपना अधिकार जमाया। मयूर-वंश का पिछला राजा पाल हुआ। इस पाल राजा को, आज से कोई दो हजार वर्ष पहले, उज्जयिनी के राजा विक्रमादित्य ने परास्त किया। उसी समय के लगभग दिलु अथवा दिलप नाम के राजा ने एक नया ही नगर बसाया; उस का नाम देहली पड़ा। कोई आठ सौ वर्ष तक देहली उजाड़ पड़ी रही। तदनन्तर तोमर घराने के लोग वहाँ रहने लगे। उनसे, कुछ दिनों में, चौहानों ने राज्य छीन लिया। चौहानों के प्रसिद्ध राजा विशालदेवने तोमर लोगों को वहांसे निकाल दिया। इस विशालदेव का नाम, फीरोजशाह की लाट पर जो शिलालेख है उस में, खुदा है। प्राचीन देहली पृथ्वीराज के उजाड़ किले के पास कहीं पर थी। लोहे का स्तम्भ जो अब वहां शेष है वह हिन्दुओं के उस प्राचीन नगर का एक मात्र चिन्ह है।
देहली के चारों ओर अनेक उजाड़ इमारतें पड़ी हुई हैं। उन सब उजाड़ इमारतों का क्षेत्रफल ४५ वर्गमील के लगभग है। वहां पर पृथक् पृथक् राजों ने सात नगर बसाये थे। देहली की उजाड़ इमारतें और उनके बचे हुए चिन्ह उन सात प्राचीन नगरों की साक्षी देते हैं। इन सातों में से एक नगर लालकोट था, जिसे राजा अनङ्गपाल ने, १०५२ ईसवी में, बसाया था। दूसरा नगर वह है जहाँ पृथ्वीराज का खंडहर किला इस समय दिखाई देता है। उसे पृथ्वाराज ने, ११८० ईसवी के लगभग, बसाया था। शेष पांच नगरों में एक सीरी के पास रहा होगा; उसे अलाउद्दीन ने १३०४ ई° में बसाया था। दूसरा १३२१ ईसवी में तुग़लक शाह का बसाया हुआ तुगलकाबाद है। तीसरा १३२५ ईसवी में मुहम्मद तुग़लक का बसाया हुआ आदिलाबाद है। दो और नगर भी इसी मुहम्मद तुगलक बादशाह ने बसाये थे। १६११ ईसवी में फिञ्च साहब आगरे से देहली गये थे। वे लिखते हैं कि उन्होंने उस समय प्राचीन देहली के अवशेष भाग को देखा था। उन छिन्न भिन्न हुए मकानों और किलों को "सात किला और बावन फाटक" के नाम से लोगों को कहते हुए उन्होंने सुना था। कई विद्वान्, जिन्होंने इस बात की खोज की है, अनुमान करते हैं कि युधिष्ठिर का इन्द्रप्रस्थ कहीं उस जगह रहा होगा जिसे पुराना किला कहते हैं। ११९१ ईसवी में मुसलमानों ने हिन्दुओं को निकाल कर जब देहली अपने अधिकार में कर ली तब उन्होंने प्राचीन नगर को बिलकुल ही छिन्न भिन्न कर दिया। इसीलिए अब उसके बहुत ही कम चिन्ह पाये जाते हैं। मुसलमानों का राज्य होने पर पहली इमारत कुतबुद्दीन ऐबक ने १२०६ ईसवी में बनाई। वह कुतुबमीनार के नाम से प्रसिद्ध है। उसके अनन्तर अलाउद्दीन ने भी कसरे-हज़र-सितून अर्थात् हज़ार खम्भों का एक महल बनाया, जिसके चिन्ह शाहपुर के उजड़े हुए किले में अब तक पाये जाते हैं। उसके अनन्तर गयासुद्दीन तुग़लक ने तुगलकाबाद में एक क़िला बनवाया। उसके लड़के महम्मद ने आदिलाबाद नामक एक उत्तम गढ़ निर्माण कराया। फीरोज़ तुग़लक ने १३५१ से १३८८ ईसवी के बीच अनेक इमारतें बनवाईं। एक नहर उसने यमुना से निकलवाई और उसे अपनी नई राजधानी फीरोज़ाबाद तक वह ले गया। यह नहर अब तक वर्त्तमान है। इसी फ़ीरोज़ तुग़लक ने फ़ीरोज़ाबाद को बसाया और कुशके-फीरोज़ाबाद और कुशके-शिकार नाम के दो महल भी उसने बनवाये। १५३३ ईसवी में हुमायूं ने इन्द्रप्रस्थ अर्थात् पुराने किले की मरम्मत कराई और उस का नाम दीनपनाह रक्खा। १५४० इसवी में शेरशाह ने उसी का नाम शेरगढ़ रक्खा। इसी शेरशाह ने क़िला कोहना मसजिद नाम की एक मसजिद और शेरमहल नाम का एक महल बनवाया। १५४६ ईसवी में शेरशाह के लड़के सलीम शाह ने सलीमगढ़ का क़िला बनवाया।
जिस देहली को हम आज देख रहे हैं और जिसे शाहजहानाबाद भी कहते हैं वह, १६३८ ईसवी के लगभग, शाहजहां की बसाई हुई है। वहां का प्रसिद्ध किला और प्रसिद्ध बादशाही महल जो उसी क़िले के भीतर हैं, १६३८ और १६४८ ईसवी के बीच बने हैं। जो दीवार शहर के चारों ओर है वह और जुमा मसजिद भी उसके थोड़े ही दिन पीछे निर्माण हुई है। औरङ्गज़ेब के द्वारा क़ैद किये जाने के पहले केवल छः वर्ष तक शाहजहाँ ने अपने बनवाये हुए महल में वास किया। उसके अनन्तर औरंगज़ेब कोई २० वर्ष तक वहाँ रहा। फिर १६८० ईसवी में दक्षिण की ओर वह विजययात्रा के लिए निकला। शाहजहां के अनन्तर फिर कोई अच्छी इमारत देहली में नहीं बनी।
१७३९ ईसवी में फ़ारस के बादशाह नादिरशाह ने देहली पर चढ़ाई की और १२ मार्च को प्रातःकाल से दो पहर तक नगर के प्रत्येक गलीकूचे में उसने रुधिर की नदियां बहाईं। नादिरशाह की सेना ने देहली के असंख्य निवासियों का संहार किया। यह मनुष्य-हत्या देहली के बादशाह महम्मदशाह के विनय करने पर बन्द हुई; परन्तु, तब तक, नगर का बहुत कुछ भाग उजाड़ हो चुका था। देहली की शोभा की क्षीणता उसी समय से आरम्भ हुई। नादिरशाह वहांसे असंख्य धन के साथ बादशाह का मयूर-सिंहासन और कोहेनूर हीरा भी ले गया।
१७९० ईसवी में महादाजी सेंधिया ने देहली को विजय किया और १८०३ ईसवी के सितम्बर तक उसे उसने अपने अधीन रक्खा। १८०३ ईसवी में जनरल लेक ने सेंधिया की सेना को परास्त करके शाह आलम और उसके कुटुम्ब को अपने अधीन कर लिया। १८०४ ईसवी के आक्टोबर महीने में यशवन्तराव होलकर ने बहुत दिनों तक देहली को घेर रक्खा; परन्तु अँगरेज़ी सेना को वह वहांसे न निकाल सका। उस समय से लेकर १८५७ इसवी तक इस देश की प्राचीन राजधानी देहली अँगरेज़ों ही के अधीन रही। औरङ्गजेब के वंशज उस समय तक नाममात्र के लिए बादशाह थे। १८५७ ईसवी में, जिस समय सिपाहियों ने विद्रोह मचाया, देहली में बहादुरशाह नाममात्रको बादशाही चला रहे थे। उस समय उनकी अवस्था ८० वर्ष के लगभग थी। विद्रोहियों का साथ देने के कारण अँगरेज़ों ने उन्हें रंगून भेज दिया। तब से देहली का राज्यासन सदा के लिए सूना हो गया। विद्रोह के अनन्तर देहली पञ्जाब में मिला दी गई और वह एक साधारण नगर रह गई। उस का राजकीय ठाठ लोप हो गया। यह लिखने का स्थान इस छोटे से लेख में नहीं है कि विद्रोह के समय देहली में कौन कौन घटनायें हुईं और किस किस कारण से उसे क्या क्या हानियां उठानी पड़ीं।
देहली में अनेक स्थान देखने योग्य हैं। उन में से ये मुख्य हैं—
१ क़िला | ५ समन बुर्ज और रङ्गमहल |
२ मक्क़ारख़ाना | ६ मोती-मसजिद |
३ दीवाने-आम | ७ जुमामसजिद |
४ दीवाने-ख़ास | ८ चान्दनीचौक |
देहली का क़िला लाल पत्थर का है। वह यमुना के किनारे है। कहीं कहीं उस में सङ्गमरमर भी लगा हुआ है। क़िले में जाने के लिए कई फाटक हैं; उन में से लाहौरी दरवाज़ा, जो चाँदनीचौक के सामने है, बहुत प्रसिद्ध है। लाहौरी दरवाज़े और क़िले के बीच में अनेक अच्छी अच्छी इमारतें थीं। उन इमारतों में, बादशाही समय में, बाज़ार लगते थे और शाही कर्म्मचारी रहा करते थे। विद्रोह के समय वे सब गिरा दी गईं; परन्तु अभी जो कुछ शेष है उससे उनके वैभव का बहुत कुछ अनुमान किया जा सकता है। लाहौरी दरवाज़े से निकलकर, पूर्व की ओर थोड़ी दूर जाने पर, नक्कारख़ाना मिलता है। बड़े बड़े अमीर और अधिकारी, बादशाही समय में, वहां तक अपने अपने हाथियों पर चढ़े हुए चले आते थे। वहां पर वे उतर पड़ते थे और शाही दरबार को पैदल जाते थे।
क़िले के भीतर प्रवेश करने पर दीवाने-आम, दीवाने ख़ास और मोती-मसजिद पर दृष्टि पड़ती है। दीवाने-आम बादशाही दरबार का स्थान है। वहां प्रायः सब को प्रवेश मिलता था। वह तीन ओर से खुला है। पीछे दीवार में एक ज़ीना है जो सिंहासन के स्थान तक चला गया है। वह स्थान पृथ्वी से १० फुट ऊंचा है। उसपर संगमरमर के चार खम्भों पर एक छत्र है। उस का काम बहुत ही अच्छा है। सिंहासन के पीछे एक दरवाज़ा है, जिस से बादशाह दरबार में आते थे। पीछे की दीवार बहुमूल्य पत्थरों से पच्ची की हुई है। वहां नाना प्रकार के सुन्दर सुन्दर फल, फूल और पशु-पक्षियों के चित्र चित्रित हैं। वह काम आस्टिन डी बोरडक्स नामक फरासीसी कारीगर ने, शाहजहाँ के समय में, किया था।
दिवाने-आम से कोई १०० गज़ पूर्व की ओर, आगे, दीवाने-ख़ास है। वह बादशाह के बैठने की जगह थी। वहां मुख्य मुख्य अमीर-उमरा और अधिकारियों के सिवा और कोई नहीं जाने पाता था। वहीं राज्य के कार्यों की गूढ़ बातें अपने मन्त्रियों के साथ बैठकर बादशाह करते थे। वह संगमरमर का बना हुआ है। उस में सुनहरा काम है। उसकी छत चांदी के पत्रों से मढ़ी हुई थी, जिसे १७६० ईसवी में मराठे निकाल ले गये। मध्य में, पूर्व की ओर, सङ्गमरमर का एक चबूतरा है, जिसपर प्रसिद्ध मयूर-सिंहासन (तख्ते-ताऊस) रक्खा रहता था। उसे १७३९ ईसवी में नादिरशाह फारस को उठा ले गया। वहां वह अब तक, तेहरान में, विद्यमान है।
समनवुर्ज और रंगमहल, दीवाने-ख़ास के दक्षिण ओर हैं। वह बादशाह का अन्तःपुर था। उसमें जो काम किया हुआ है उसका वर्णन नहीं हो सकता। उसे देख सुन्दरता और शोभा स्वयं लज्जित होती है। पहले इन इमारतों के चारों ओर वाटिका थी और स्थान स्थान पर फौवारे लगे थे। उस समय इनकी जो शोभा और समृद्धि थी उसका शतांश भी नहीं रह गया है। तथापि जो कुछ बचा है उसको देखकर यह अनुमान किया जा सकता है कि उस समय इनकी समता करने योग्य दूसरी इमारत शायद कहीं भी न रही होगी। अब यहां अँगरेजी सेना का निवास है।
मोती मसजिद भी वहीं पास है। उसे १६३५ में औरंगजेब ने बनवाया था और उस के बनाने में १,६०,००० रुपये खर्च हुए थे। वह भी सङ्गमरमर की है। उसकी भी शोभा और सुन्दरता देखने ही योग्य है।
जुमा-मसजिद को यदि संसार भर की मसजिदों से अच्छी कहें तो कोई अत्युक्ति न होगी। वह २०१ फुट लम्बी और १२० फुट चौड़ी है। वह ६५८ ईसवी में बनी थी। ५००० कारीगर ६ वर्ष तक उस के बनाने में लगे रहे थे। उसके मीनार बहुत ऊंचे और बहुत ही मनोहर हैं। उनमें से दो की उंचाई कोई १३० फुट है। वहां हाथ के लिखे हुए कुरान की कई पुस्तकें देखने योग्य हैं। अली के हाथ का लिखा हुआ एक कुरान, सातवीं शताब्दी का वहां है; एक इमामहुसेन के हाथ का भी है। कफशेमुबारक (महम्मद की जूती), कद्-मुल-मुबारक (महम्मद के पैरों का चिन्ह) और मूये-मुबारक (महम्मद का केश) भी वहां देखने की वस्तु है।
चाँदनी-चौक देहली का मुख्य बाज़ार है। उसके दोनों ओर वृक्ष लगे हुए हैं। वहां देहली के प्रसिद्ध प्रसिद्ध दूकानदार बैठते हैं। चौक के बीच में नार्थब्रुक नाम का फौवारा है। १७२१ ईसवी में रोशनुद्दौला जफ़र खां की बनवाई हुई सुनहली मसजिद इसी फौवारे के पास है। यह मसजिद छोटी, परन्तु सुन्दर, है। इसी मसजिद में बैठकर नादिरशाह ने देहली की नरहत्या का कौतुक देखा था।
काली मसजिद, घण्टाघर, जैनमन्दिर, रानीबाग इत्यादि और भी कितने ही स्थान देहली में देखने योग्य हैं।
देहली में ऐसे अनेक स्थल हैं जो १८५७ के विद्रोह का स्मरण दिलाते हैं। उनमें से शस्त्रागार, सेन्ट जेम्स का गिरजाघर, काश्मीरी दरवाज़ा, कुदसियां बाग़, लडलो कैसल, हिन्दूराव का मकान मुख्य हैं।
देहली के आस पास भी अनेक दर्शनीय स्थान हैं। अशोक का एक बहुत प्राचीन स्तम्भ है। वह पहले मेरठ में था। ईसा के ३०० वर्ष पहले वह बना था। १३५६ ईसवी में उसे फीरोजशाह बादशाह देहली में लाया। फीरोजाबाद में भी अशोक का एक स्तम्भ है। इन स्तम्भों पर १३१२, १३५९ और १५२४ ईसवी के कई छोटे छोटे लेख हैं। फीरोज़ाबाद के स्तम्भ (लाट) पर, पाली भाषा में, अशोक के समय का भी एक लेख है। इस लाटकी उंचाई ४२ फुट है। इस का व्यास १० फुट १० इंच है।
कुतुबमीनार देहली के अजमेरी दरवाज़े से ५१ मील है। वह उसी स्थान पर है जहां शायद प्राचीन देहली थी। उसीके पास पृथ्वीराज के किले के भी चिन्ह हैं। वह २४० फुट ६ इञ्च ऊंचा है। उसके नीचे का व्यास ४७ फुट है। वह पांच खण्डों में बना हुआ है। देहली में यह मीनार एक अनोखी ऐतिहासिक वस्तु है। उसीके पास कुतुबुल-इसलाम नाम की प्राचीन मसजिद है। उसे ११९१ ईसवी में कुतुबुद्दीन ऐबक ने बनवाया था। इसके एक दरवाज़े पर, अरबी में, एक लेख खुदा हुआ है, जिस में लिखा है कि २७ मन्दिरों को तोड़ कर उन्हींके ईंट-पत्थर इत्यादि से यह मसजिद बनवाई गई है।
इसी मसजिद के पास लोहे का एक प्राचीन स्तम्भ है। वह बिलकुल ठोस लोहे का है। उसका व्यास १६ इञ्च और उंचाई २३ फुट ८ इञ्च है। उसपर एक लेख, संस्कृत में, खुदा हुआ है। उसमें लिखा है कि यह राजा धव का यशोबाहु है। इस राजा ने सिन्धु-नदी के पास रहने वाली वाल्हीक जाति पर बड़ी विजय पाई थी। उसीके स्मरण में उसने यह स्तम्भ खड़ा किया था। वह ईसा की चौथी शताब्दी का बना हुआ जान पड़ता है। परन्तु किसी किसी का मत है कि राजा अनङ्गपाल ने इस स्तम्भ को बनवाया था। अनङ्गपाल का नाम इसी स्तम्भ में एक जगह खुदा भी है। अनङ्गपाल वाले लेख की तारीख़ संवत् ११०९ अर्थात् १०५२ ईसवी है।
इन स्थलों और इन वस्तुओं के सिवा और भी अनेक स्थल, देहली के इर्द गिर्द, देखने योग्य हैं। इन्द्रप्रस्थ अर्थात् पुराना किला, निज़ामुद्दीन अवलिया की क़ब्र, हुमायूं की क़ब्र, सफदरजङ्ग की क़ब्र, अलतमश की क़ब्र, हौज़ख़ास, जयसिंह का मानमन्दिर, तुग़लकाबाद और मेटकाफ़ हाउस इत्यादि देहली के प्राचीन वैभव का अभी तक साक्ष्य दे रहे हैं।