देवांगना/द्वार प्रवेश
द्वार प्रवेश
महासन्धिक वज्रसिद्धि दिवोदास को प्रव्रज्या और उपसम्पदा देकर विहार में लौट गए।
सिंह द्वार बन्द हो गया। नगर सेट्ठि धनंजय ने आँखों में आँसू भरकर अवरुद्ध कण्ठ से
कहा—"धर्म के लिए, स्वर्ग के लिए, कल्याण के लिए मैंने तुझे विसर्जित किया। जा पुत्र,
अमरत्व प्राप्त कर।"
उन्होंने पुत्र की परिजनों सहित प्रदक्षिणा की और चौधारे आँसू बहाते घर को लौट गए। शेष बन्धु-बान्धव भी चले गए। अकेला सुखदास दिवोदास के पास खड़ा रह गया। दिवोदास ने भरे हुए बादलों के स्वर में कहा—"पितृव्य, अब तुम भी जाओ। मेरा मार्ग तो अब सबसे ही पृथक् है।"
परन्तु सुखदास ने कहा—“पुत्र, तेरे बिना मैं कैसे जीऊँगा। स्वामी के पास धन-रत्न है, मेरे पास तो वह भी नहीं। तुम जैसे रत्न को गँवाकर भला अब मैं कैसे लौट जाऊँ? मैं भी मूड़ मुड़ाकर भिक्षु बन साथ ही रहूँगा। बिना मेरी सहायता के तो तुम पानी भी नहीं पी सकते पुत्र।"
दिवोदास ने कहा—"पितृव्य, तब बात और थी। और अब बात दूसरी है। अब तो मैंने त्याग का व्रत लिया है। उन सब बातों से अब क्या प्रयोजन है भला।"
"तो पुत्र, तू इस अकिंचन दास को भी त्याग देगा? ऐसा तू निर्मम और कठोर कैसे बन सकता है पुत्र, फिर मेरी वृद्धावस्था को तो देख तनिक।"
सुखदास ने दिवोदास को अंक में भर लिया। दिवोदास ने कहा—"पितृव्य, सबसे प्रथम हमें माया-मोह-ममता ही को तो त्यागना है। इसका त्याग नहीं हुआ तो फिर भला सद्धर्म की शरण जाकर क्या किया!"
"किन्तु पुत्र, तुम्हारे इस सद्धर्म में मेरी तनिक भी श्रद्धा नहीं है। इन पाखण्डी भिक्षुओं को मैं भलीभाँति जानता हूँ। यह सब तुम्हारे पिता की सम्पदा को हरण करने के ढोंग हैं। तुम्हीं इस मार्ग में कण्टक थे, सो उन्होंने इस प्रकार तुम्हें उखाड़ फेंका। परन्तु मैं अपने जीते जी उनकी नहीं चलने दूँगा। तुम्हें भी मैं अपनी आँखों से ओझल नहीं होने दूँगा।"
"पितृव्य, अब यह समय इन बातों पर विचार करने का नहीं है। मैं तो शुद्ध बुद्धि ही से धर्म की शरण आया हूँ। किसी षड्यन्त्र का शिकार मैं नहीं बनूँगा। तुम निश्चिन्त रहो, पितृव्य।"
"तो पुत्र, मैं तुम्हारे साथ हूँ। आज से इस धर्म-पाखण्ड का उन्मूलन करना मेरा धर्म हुआ।"
"और मैं भी सद्धर्म की शुद्धि के प्रयत्न में कुछ उठा न रखूँगा। अब तुम जाओ पितृव्य। अभी मुझे द्वार पण्डितों की कठिन परीक्षाओं में उत्तीर्ण होना है। ऐसा न हो-द्वार पण्डित मुझे अयोग्य घोषित कर दें और मेरा कुल दूषित हो। जाओ तुम, पिता जी और माता को सान्त्वना देना।"
"जाता हूँ पुत्र, पर शीघ्र ही मिलूंगा।"
सुखदास ने आँखें पोंछी और चल दिया। अब दिवोदास पूर्व द्वार की ओर बढ़े–– रत्नाकर शान्ति पूर्वी द्वार का द्वारपण्डित था। यह महावैयाकरण था। द्वार पर पहुँचकर उसने घण्टघोष किया। घोष सुनकर द्वारपण्डित ने गवाक्ष से झाँककर कहा––"कौन हो?"
"अकिंचन भिक्षु।”
"क्या चाहते हो?"
"प्रवेश।"
"तो यह पूर्वी द्वार है। इसका सम्बन्ध शब्दशास्त्र विद्यालय से है। क्या तूने शब्द शास्त्र का अध्ययन किया है? तू मेरे साथ शास्त्रार्थ करने को उद्यत है?"
"मैं ज्ञानान्वेषी हूँ, मैं धर्म की शरण आया हूँ। मैं धर्मतत्त्व सीखना चाहता हूँ।"
"तो भद्र, तू दूसरे द्वार पर जा। इस द्वार से तेरा प्रवेश नहीं होगा। तब दिवोदास दक्षिण द्वार पर गया। यहाँ का द्वारपण्डित प्रज्ञाकर यति था। क्या तू हेतु-विद्या सीखना चाहता है, क्या तूने अभिधर्म कोष पढ़ा है?"
"नहीं आचार्य, मैं ज्ञानान्वेषी हूँ। मैं धर्म की शरण आया हूँ। मैं धर्मतत्त्व सीखना चाहता हूँ।"
"तो भद्र, तू तीसरे द्वार पर जा। इस द्वार से तेरा प्रवेश नहीं होगा।"
दिवोदास ने तब पच्छिम द्वार पर पहुँचकर घण्टघोष किया। पच्छिम द्वार का द्वारपण्डित ज्ञानश्री मित्र था। घण्टघोष सुनकर उसने कहा—“भद्र, क्या तू सांख्य और वेद पढ़ना चाहता है, क्या तूने निरुक्त और षडंग पाठ किया?"
दिवोदास ने कहा—“मैं ज्ञानान्वेषी हूँ, मैं धर्म की शरण आया हूँ, मैं धर्मतत्त्व सीखना चाहता हूँ।”
"तो भद्र, तू अन्य द्वार पर जा।"
तब दिवोदास उत्तर द्वार पर पहुँचा और घण्टघोष किया। वहाँ का द्वार पण्डित नरोपन्न था। उसने पूछा—“क्या चाहता है भद्र!"
"मैं ज्ञानान्वेषी हूँ। मैं धर्म की शरण आया हूँ। मैं धर्मतत्त्व सीखना चाहता हूँ।"
तब द्वारपण्डित ने पूछा—“क्या तू भिक्षु-पातिभिक्ख का पाठ करता है?"
"करता हूँ भन्ते।"
"क्या तू पूर्वकरण और उपोसथ कर्म करता है?"
"करता हूँ भन्ते।"
"तू अन्तरायिक कर्म नहीं करता है?"
"नहीं करता हूँ भन्ते।"
"तो भद्र, तू भीतर आ और प्रथम केन्द्रीय द्वारपण्डित रत्नवज्र की शरण में जा।" दिवोदास ने विहार के भीतर प्रवेश किया। तब वह केन्द्रीय द्वारपण्डित रत्नवज्र के सम्मुख आ बद्धांजलि खड़ा हुआ।
रत्नवज्र कठोर और शुष्क प्रकृति के पुरुष थे। वज्रयान मन्त्र-तन्त्र और सिद्धियों के ज्ञाता प्रसिद्ध थे। रंग उनका काला और आकृति बेडौल थी। उन्होंने भाँति-भाँति के प्रश्न दिवोदास से पूछे। अनेक मन्त्र-तन्त्र, जादू-टोनों से उसकी परीक्षा ली, और अन्त में उन्होंने उसे अन्तेवासी बना विहार का द्वार खोल दिया। दिवोदास विहार में प्रवेश पा गए। नियमानुसार उनके निवास आदि की व्यवस्था हो गई। यह एक असाधारण कठिनाई थी, जिस पर उन्होंने विजय पाई।