देवांगना/प्रव्रज्या

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[  ]प्रव्रज्या



संघारमा का सिंह द्वार बड़ा विशाल था। वह गगनचुम्बी सात खण्ड की इमारत थी। समारोह के पहुँचते ही संघाराम की बुर्जियों पर से भेरीनाद होने लगा।

संघाराम दुर्ग की भाँति सुरक्षित था। उसका द्वार बन्द था। सभी की दृष्टि उस बन्द द्वार पर लगी थी। यह द्वार कभी नहीं खुलता था। केवल उसी समय यह खोला जाता था जब कोई राजा, राजकुमार या वैसी ही कोटि का व्यक्ति दीक्षा ग्रहण कर भिक्षु बनता था। श्रेष्ठिपुत्र को इसी द्वार से प्रवेश होने का सम्मान दिया गया था।

बाजे बज रहे थे। भिक्षुगण मन्द स्वर में 'नमो अरिहन्ताय', 'नमो बुद्धाय’ का पाठ कर रहे थे।

भेरीनाद के साथ ही सिंहद्वार खुला। सोलह भिक्षु पवित्र पात्र लेकर वेदी के दोनों ओर आ खड़े हुए। धीरे-धीरे आचार्य वज्रसिद्धि स्वर्णदण्ड हाथ में ले स्थिर दृष्टि सम्मुख किए आगे बढ़े। उनके पीछे पाँच महाभिक्षु पवित्र जल का मार्जन करते तथा गन्धमाल्य लिए पृथ्वी पर दृष्टि गड़ाए चले। उन्हें देखते ही सब कोई पृथ्वी पर घुटने टेककर झुक गए। आचार्य सीढ़ी उतर शिष्यों सहित कुमार के पास पहुंचे। उन्होंने मंगल पाठ करके पवित्र जल कुमार के मस्तक पर छिड़का तथा स्वस्तिपाठ करके—'नमोबुद्धाय', 'नमोअरिहन्ताय' कहा। कुमार सिर झुकाए उकड़ूँ उनके चरणों में बैठे थे। आचार्य ने कहा—"उठो वत्स, और वेदी पर चलो।"

वेदी पर बुद्ध की विशाल प्रतिमा थी। उसी के नीचे कुशासन पर महासंघस्थविर बैठे। सम्म्मुख कुमार नतजानु बैठे। दीक्षा का प्रारम्भ हुआ।

आचार्य ने भिक्षुसंघ को सम्बोधित करके कहा—"भन्ते संघ सुने। यह सेट्ठिपुत्र आयुष्मान् दिवोदास उपसम्पदापेक्षी है। यदि संघ उचित समझे तो आयुष्मान् दिवोदास को उपाचार्य बन्धुगुप्त के उपाध्यायत्व में उपसम्पन्न करे।"

इस पर संघ ने मौन सम्मति दी। तब आचार्य ने दुबारा पूछा—"भन्ते संघ सुने। संघ आयुष्मान दिवोदास को उपाचार्य बन्धुगुप्त के उपाध्यायत्व में उपसम्पन्न करता है। जिसे आयुष्मान् दिवोदास की उपसम्पदा आचार्य बन्धुगुप्त के उपाध्यायत्व में स्वीकार है, वह चुप रहें। जिसे स्वीकार नहीं वह बोले।"

उन्होंने दूसरी बार भी, और फिर तीसरी बार भी यह घोषणा प्रज्ञापित की। और संघ के चुप रहने पर घोषित किया गया कि संघ को स्वीकार है।

"अब उपाचार्य आयुष्मान् को उपसम्पदा दें—प्रव्रज्या दें।" [  ]

इस पर उपाचार्य बन्धुगुप्त ने दिवोदास से कहा—"आयुष्मान्, क्या उपसम्पदा दूं?"

तब दिवोदास ने उठकर स्वीकृति दी। उसने सब वस्त्रालंकार त्याग दिया और पीत चीवर पहिन, संघ के निकट जा दाहिना कन्धा खोलकर एक कन्धे पर उत्तरासंग रख भिक्षु चरणों में वन्दना की-फिर उकड़ूँ, बैठकर हाथ जोड़कर कहा :

"भन्ते संघ से उपसम्पदा पाने की याचना करता हूँ। भन्ते संघ दया करके मेरा उद्धार करे।"

उसने फिर दूसरी बार भी और तीसरी बार भी यही याचना की।

तब संघ की अनुमति से आचार्य बन्धुगुप्त ने तीन शरण गमन से उसे उपसम्पन्न किया।

दिवोदास ने उकड़ूँ बैठकर—'बुद्धं शरणं गच्छामि।' 'संघं शरणं गच्छामि।' 'धम्म शरणं गच्छामि' कहा।

आचार्य ने पुकारकर कहा—"भिक्षुओ! अब यह भिक्षु धर्मानुज रूप में प्रव्रजित और उपसम्पन्न होकर सम्मिलित हो गया है। तुम सब इसका स्वागत करो।" इस पर भिक्षु संघ ने जयघोष द्वारा भिक्षु धर्मानुज का स्वागत किया।

इसके बाद आचार्य ने कहा—"आयुष्मान्, अब तू अपने कल्याण के लिए और जगत् का कल्याण करने के लिए गुह्य ज्ञान अर्जन कर। द्वार पंडित की शरण में जा और विहार प्रवेश कर।"