देवांगना/प्रतिमा

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[ ८३ ]प्रतिमा



दिवोदास की छेनी खटाखट चल रही थी। भूख-प्यास और शीत-ताप उसे नहीं व्याप रहा था। अपने शरीर की उसे सुध नहीं थी। वह निरन्तर अपना काम कर रहा था। छेनी पर हथौड़े की चोटें पड़ रही थीं, और शिलाखण्ड में से मंजु की मूर्ति विकसित होती जा रही थी। वह सर्वथा एकान्त स्थल था। वहाँ किसी को भी आने की अनुमति न थी। वह कभी गाता, कभी गुनगुनाता, कभी हँसता और कभी रोता था। कभी करुण स्वर में क्षमा माँगता, कभी मूर्ति से लिपट जाता। उसकी तन्मयता, तन्मयता की सीमा को पार कर गई थी। जैसे वह मूर्ति में मूर्तिमय हो चुका हो।

मूर्ति बनकर तैयार हो गई। दिवोदास के शरीर में केवल हड्डियों का ढाँचा मात्र रह गया था। उसके दाढ़ी और सिर के बालों ने उलझकर उसकी सूरत भूत के समान बना डाली थी। परन्तु उस एकान्त अनुष्ठान में कोई उसके पास नहीं आ पाता था।

वह बड़ी देर तक मूर्ति के मुख को एकटक देखता रहा। वह मुँह हूबहू मंजु का मुँह था।

उसे ऐसा प्रतीत हुआ कि वह मुँह मुस्करा रहा है। उसे उसके ओठ हिलते दीख पड़े। उसने जैसे सुना कि उन ओठों में से एक शब्द बाहर हुआ, 'झूठे'। उसकी आँखों में आँसू भर आए। उसने मूर्ति के पैरों में गिरकर कहा—"मुझे क्षमा करो मंजु, मैं नहीं आ सका।" पर तुमने मेरा पुत्र भी तो खो दिया, दिवोदास कोप कर धरती पर गिर पड़ा। और अन्त में द्वार तोड़ चिल्लाता हुआ गहन वन में भाग गया!

वज्रतारा पूजा महोत्सव पर्व था। सहस्रों भिक्षु एकत्रित थे। संघाराम विविध भाँति सजाया गया था। दूर-दूर से श्रद्धालु श्रावक, गृहस्थ और श्रेष्ठिजन आए थे। बीच प्रांगण में स्वर्ण-मण्डित रथ था। उस पर वस्त्र में आवेष्टित वज्रतारा की मूर्ति थी। आचार्य वज्रसिद्धि बड़े व्यस्त थे। उन्होंने व्यग्रभाव से कहा—"क्या अभी तक धर्मानुज का कोई पता नहीं लगा?"

"नहीं आचार्य, चारों ओर गुप्तचर उसे खोजने गए हैं।"

"परन्तु पूजन तो नियमानुसार वही कर सकता है जिसने मूर्ति बनाई है-अतः उसका अनुसन्धान करो। मुहूर्त में अब देर नहीं है।" आज्ञा होने पर और भी चर भेज दिए गए।

दिवोदास अति दयनीय अवस्था में भूख-प्यास से व्याकुल, अर्धमृत-सा हो एक शिलाखण्ड पर अचेत पड़ा था। उसी समय चरों ने वहाँ पहुँचकर उसे देखा। उसे चेत में
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लाने की बहुत चेष्टा की, परन्तु उसकी मूर्छा भंग न हुई। निरुपाय हो चर उसे पीठ पर लादकर संघाराम में ले आए। संघाराम के चिकित्सकों ने उसका उपचार किया। उपचार से तथा थोड़ा दूध पीने से वह कुछ चैतन्य हुआ। परन्तु उसकी संज्ञा नहीं लौटी।

बाहर बहुत कोलाहल हो रहा था। सहस्रों भिक्षु और भावुक भक्त चिल्ला रहे थे। डफ-मृदंग-मीरज बज रहे थे। सारा प्रांगण मनुष्यों से भरा था। महाराज श्री गोविन्द पालदेव आ चुके थे। उन्होंने अधीर होकर कहा—"आचार्य, अब पूजन-अनुष्ठान प्रारम्भ हो।"

आचार्य ने चिन्तित स्वर में कहा—"भिक्षु धर्मानुज को यहाँ लाओ। वह विधिवत् पूजन करे।"

कुछ भिक्षु उसे पकड़कर ले आए। वह गिरता-पड़ता आकर मूर्ति के सम्मुख खड़ा होकर हँसने लगा। इसी समय मूर्ति का आवरण उठाया गया। मूर्ति के मुख पर दिवोदास ने दृष्टि डाली। उसे प्रतीत हुआ जैसे मूर्ति मुस्करा रही है। उसने फिर देखा, मूर्ति ने दो उँगली ऊपर उठा कर कहा-"झूठे।" उसने स्वयं वह शब्द सुना, स्पष्टतया। उसने मूर्ति के ओठों को हिलते देखा। यह देखते ही दिवोदास मूर्च्छित होकर मूर्ति के चरणों में गिर गया। अनुष्ठान खण्डित हो गया। आचार्य वज्रसिद्धि असंयत होकर उठ खड़े हुए। सहस्र-सहस्र भिक्षु—'नमो अरिहन्ताय नमो बुद्धाय' चिल्ला उठे। आचार्य ने उच्च स्वर से कहा—"इस विक्षिप्त भिक्षु को भीतर ले जाओ। मैं स्वयं अनुष्ठान सम्पूर्ण करूँगा।"

परन्तु इसी समय मेघ गर्जन के समान एक आवाज आई—"ठहरो।"

सहस्रों ने देखा। एक भव्य प्रशान्त मूर्ति धीर स्थिर गति से चली आ रही है। उसके पीछे सुनयना वस्त्र में कुछ लपेटे हुए आयी हैं। उनके पीछे सुखदास और वही वृद्ध ग्वाला है। लोगों ने देखा, उसी सौम्य मूर्ति के साथ महाश्रेष्ठि धनंजय भी हैं।

सौम्य मूर्ति सबके देखते-देखते वेदी पर चढ़ गई। उसने प्रतिमा के सिर पर हाथ रखा। हाथ रखते ही प्रतिमा सजीव हो गई। वह हिलने लगी। प्रतिमा में सजीवता के लक्षण देख सहस्रों कण्ठ 'भगवती वज्रतारा की जय' चिल्ला उठे। प्रतिमा ने हाथ उठाकर सबको शान्त और चुप रहने का संकेत किया।

क्षण-भर ही में सन्नाटा छा गया। मूर्ति ने वीणा की झंकार के समान मोहक स्वर में कहा—"मूढ़ भिक्षुओ, तुम जानते हो कि धर्म क्या है?"

सहस्रों कण्ठों ने विस्मित होकर कहा—"माता, आप हमें धर्म की दीक्षा दीजिए।"

मूर्ति ने कहा—"मनुष्य के प्रति मनुष्यता का व्यवहार करना सबसे बड़ा धर्म है, संसार को संसार समझना धर्म का मार्ग है।"

सहस्रों कण्ठों से निकला—"मातेश्वरी वज्रतारा की जय हो।"

मूर्ति ने फिर वज्रसिद्धि की ओर उँगली से संकेत करके कहा—"यह धर्मढोंगी पुरुष, लाखों मनुष्यों को धर्म से दूर किए जा रहा है। मैं इस पाखण्डी का वध करूँगी।" मूर्ति ने सहसा खड्ग ऊँचा किया। जनपद स्तब्ध रह गया। भिक्षु गण चिल्ला उठे-

"रक्षा करो, देवि, रक्षा करो।"

वज्रसिद्धि अब तक विमूढ़ बना खड़ा था। अब उसने मूर्ति के रूप में मंजु को पहचानकर कहा—"यह देवी वज्रतारा नहीं है। यह पापिष्ठा धूत पापेश्वर के मन्दिर की अधम देवदासी मंजुघोषा है, इसे बाँध लो।" [ ८५ ]मंजु ने कहा—"वही हूँ, और तुमसे पूछती हूँ, कि तुम मनुष्य को मनुष्य की भाँति क्यों नहीं रहने देना चाहते?"

वज्रसिद्धि ने फिर गरज कर कहा—"बाँधो, इस पापिष्ठा को।"

जनता में कोलाहल उठ खड़ा हुआ। सहस्रों भिक्षु रथ पर टूट पड़े।

अब उस भव्य सौम्य पुरुष-मूर्ति ने हाथ उठाकर कहा—"सब कोई जहाँ हो-वहीं शान्त खड़े रहो।"

इस बार फिर सन्नाटा हो गया। उसी भव्य मूर्ति ने उच्च स्वर से पुनः कहा—"मैं ज्ञानश्री मित्र हूँ। तुम्हें शान्त रहने को कहता हूँ।"

आचार्य ज्ञानश्री मित्र का नाम सुनते ही-सहस्र-सहस्र सिर पृथ्वी पर झुक गये। महाराज गोविन्दपाल देव ने उठकर साष्टांग दण्डवत् किया। लोग आश्चर्य विमुग्ध उस महापुरुष को देखने लगे जिसका दर्शन पाना दुर्लभ था तथा जो त्रिकालदर्शी प्रसिद्ध था।

आचार्य ने देवी सुनयना को संकेत किया। उन्होंने वस्त्र में आवेष्टित बालक को मंजु की गोद में दे दिया। मंजु ने खड्ग रखकर बालक को छाती से लगाकर कहा—"यह मेरा पुत्र है, जिसे वे अभागे धर्म-पाखण्डी पाप का फल कहते हैं, जिनके अपने पाप ही अगणित हैं।"

भिक्षुओं में फिर क्षोभ उठ खड़ा हुआ।

आचार्य ज्ञान ने मेघ गर्जन के स्वर में कहा—"भिक्षुओ, शान्त रहो।" फिर उन्होंने दिवोदास के मस्तक पर हाथ रखकर कहा—"उठो श्रेष्ठि पुत्र।"

दिवोदास जैसे गहरी नींद से जग गया हो। उसने इधर-उधर आश्चर्य से देखा-फिर पुत्र को गोद में लिए मंजु को सम्मुख मुस्कराती खड़ी देखकर बारम्बार आँख मलकर कहा—"यह मैं क्या देख रहा हूँ-स्वप्न है या सत्य।"

"सब सत्य है, प्राणाधिक, यह तुम्हारा पुत्र है, इसका चन्द्रमुख देखो।"

दिवोदास का लुप्त ज्ञान पीछे लौट रहा था-उसने भुन-भुनाकर कहा—"कैसी मीठी भाषा है, कैसे ठण्डे शब्द हैं, अहा, कैसा सुख मिला, जैसे कलेजे में ठण्डक पड़ गई।"

मंजु ने कहा—"प्यारे, प्राणेश्वर, इधर देखो।"

उसने दिवोदास का हाथ पकड़ लिया। दिवोदास का उस स्पर्श से चैतन्य हो जाग उठा-उसने कहा—"क्या, क्या, तुम हो-सचमुच? तो यह स्वप्न नहीं है?" वह फिर आँखें मलने लगा।

मंजु ने कहा—"स्वामिन्, आर्य पुत्र, यह तुम्हारा पुत्र है, लो।"

"मेरा पुत्र?" उसने दोनों हाथ फैला दिए। पुत्र को लेकर उसने छाती से लगा लिया।

वज्रसिद्धि ने एक बार फिर अपना प्रभाव प्रकट करना चाहा। उसने ललकारकर कहा—"भिक्षुओ, इन धर्म-विद्रोहियों को बाँध लो।"

भिक्षुओं ने एक बार फिर शोर मचाया। वे रथ पर टूट पड़े। दिवोदास ने रोकना चाहा-परन्तु वह धक्का खाकर गिर गया।

सहसा महाराज गोविन्दपाल देव ने खड़े होकर कहा—“जो जहाँ है, वहीं खड़ा रहे।"

महाराज की घोषणा सुनते ही एक बार स्तब्धता छा गई। महाराज ने सेनापति को
[ ८६ ]आज्ञा दी—"सेनापति, इन उन्मत्त भिक्षुओं को घेर लो।"

क्षण-भर ही में सेना ने समस्त भिक्षु मण्डली को तलवारों की छाया में ले लिया। आतंकित होकर भिक्षु मन्त्रपाठ भूल गए। जनता भयभीत हो भागने की जुगत सोचने लगी।

वज्रसिद्धि ने क्रुद्ध होकर कहा—"महाराज, यह आप अधर्म कर रहे है।"

महाराज ने कहा—"मैं यह जानना चाहता हूँ आचार्य, यह कैसा धर्म-कार्य हो रहा है?"

"देव, आप धर्म व्यवस्था में बाधा मत डालिए।"

"परन्तु मैं पूछता हूँ कि यह कैसी धर्म व्यवस्था है!"

"आप अपने गुरु का अपमान कर रहे हैं।"

"मेरी बात का उत्तर दें आचार्य, क्या आपने काशिराज से मिलकर मेरे विरुद्ध षड्यन्त्र नहीं किया? श्रेष्ठिराज धनंजय के धन को हड़पने के लिए उनके पुत्र को अनिच्छा से भिक्षु बनाकर उसे गुप्त यन्त्रणाएँ नहीं दी हैं? क्या आप लिच्छविराज के गुप्त धन को पाने का षड्यन्त्र नहीं रच रहे हैं?"

"देव, इन अपमानजनक प्रश्नों का मैं उत्तर नहीं दूँगा।"

"तो आचार्य वज्रसिद्धि, इन आरोपों के आधार पर मैं आपको आचार्य पद से च्युत करता हूँ और बन्दी करता हूँ।" उन्होंने सेनापति से ललकार कहा :

"सेनापति इन्द्रसेन, वज्राचार्य और इनके सब साथियों को अपनी रक्षा में ले लो। तथा संघाराम और उसके कोष पर राज्य का पहरा बैठा दो। तुम्हारे काम में जो भी विघ्न डाले उसे बिना विलम्ब खड्ग से चार टुकड़े करके संघाराम के चारों द्वारों पर फेंक दो!" सेनापति ने अपनी नंगी तलवार आचार्य के कन्धे पर रखी।

वज्रसिद्धि ने कहा—"भिक्षुओ, यह राजा पतित हो गया है। इसे अभी मार डालो।"

भिक्षुओं में क्षोभ उत्पन्न हुआ; सैनिक शस्त्र लेकर आगे बढ़े।

अब श्रीज्ञान ने दोनों हाथ ऊँचे करके कहा—"सावधान, भिक्षुओ! यह श्रीज्ञान मित्र तुम्हारे सम्मुख खड़ा है। तुमने तथागत के वचनों का अनादर किया है। बन्धु प्रेम के स्थान पर रक्तपात, अहिंसा के स्थान पर माँसाहार, संयम के स्थान पर व्यभिचार और त्याग के स्थान पर लोभ ग्रहण किया है जिससे तुम्हारे चारों व्रत भंग हो गये हैं। तुमने भिक्षु वेश को कलंकित किया है, और तथागत के पवित्र नाम को कलुषित किया है। मैं तुम्हें आदेश देता हूँ कि अपने आचरणों को सुधारो, या भिक्षुवेश त्याग दो।"

सहस्र-सहस्र भिक्षु श्रीज्ञान के सम्मुख घुटनों के बल बैठ गए। महाराज ने कहा—"भिक्षुओ, तुम्हारे अनाचार की बहुत बातें मैंने सुनी हैं। प्रजा तुम्हारे अत्याचारों से तंग है। तुम्हारे गुरु घण्टाल का भण्डाफोड़ हो गया है। मैं चाहता हूँ, भगवान् श्रीज्ञान के आदेश का पालन करो। अपने-अपने स्थान को लौट जाओ।"

भिक्षुओं ने एक स्वर से महाराज और ज्ञानश्री मित्र का जय-जयकार किया।

महारजा ने कहा—"श्रेष्ठि धनंजय, आओ अपने पुत्र-पौत्र और पुत्र-वधू को आशीर्वाद दो।"

धनंजय दौड़कर पुत्र से लिपट गया। दिवोदास ने पिता के चरणों में गिरकर अभिवादन किया। मंजु ने भी सबको प्रणाम किया और बच्चे को श्वसुर की गोद में दे दिया। [ ८७ ]महाराज ने कहा—"श्रेष्ठिराज, यह सौभाग्य तुम्हें भगवान् श्रीज्ञान की कृपा से मिला है। उन्होंने मंजुघोषा और उसके पुत्र की प्राण रक्षा की। और बड़े कौशल से मूर्ति के स्थान पर उसे प्रकट किया।"

सुनयना ने करबद्ध होकर कहा—"तो भगवान्, आप ही मेरे बच्चे के चोर हैं?"

"यह कार्य भी मुझ वीतराग पुरुष को करना पड़ा। जब मंजु को मैंने जंगल में असहाय वृक्ष के नीचे मूर्छितावस्था में पड़ा देखा, तो उसे मैं अपने आश्रम में उठा लाया। उपचार से वह स्वस्थ हुई तो बच्चे के लिए उसने बहुत आफत मचाई। मैं जानता था कि तुम राजी से बच्चा मुझे न दोगी। मंजु का जीवित रहना मैं तुम पर प्रकट करना नहीं चाहता था- इसी से चौर्यकार्य मुझे करना पड़ा। अब बुद्ध शरणं।"

"भगवान्, मैं तो ऐसी अन्धी हो गई कि पुत्री को अरक्षित छोड़कर भाग निकली, परन्तु मुझे बालक की रक्षा का विचार था।"

"यह सब भवितव्य था जो अकस्मात् हो गया।"

"किन्तु भगवन्, यहाँ मूर्ति के स्थान पर मंजु कैसे आ गई?"

"यह हमसे पूछिए," सुखदास ने आगे बढ़कर कहा—"हम लोग जब स्थान आदि की सुव्यवस्था करके वृक्ष के निकट पहुँचे, तो वहाँ कोई न था। इससे हम बहुत व्याकुल हुए। सारा जंगल छान मारा। तब भगवान् के हमें दर्शन हुए। और जब मंजु को हमारी देख-रेख में छोड़कर भगवान् बच्चा चुराने के लिए गये, तो हमने मिलकर यह योजना बना ली। फिर तो मूर्ति को अपने स्थान से हटाकर वहाँ मंजु को बैठा देना आसान था। परन्तु चमत्कार खूब हुआ!"

यह कहकर सुखदास हँसने लगा। सभी लोग हँस दिए।

सुखदास ने वृद्ध ग्वाले की ओर संकेत करके कहा—"इन महात्मा ने प्राणपण से मंजु की सेवा करके प्राण बचाये। हमारी योजना न सफल होती यदि यह मदद न करते।"

ग्वाले ने चुपचाप सबको हाथ जोड़ दिए। आचार्य श्रीज्ञान ने कहा—"यह सब विधि का विधान है लिच्छवि-राजमहिषी?"

राजा ने अकचकाकर कहा—"यह आपने क्या शब्द कहा! लिच्छवि राजमहिषी कौन!"

"महाराज, यह देवी सुनयना लिच्छविराज श्री नृसिंहदेव की पट्टराजमहिषी कीर्तिदेवी हैं, जिन्हें काशिराज ने छल से मारकर उनके राज्य को विध्वंस किया था। मंजुघोषा इन्हीं की पुत्री हैं।"

महाराज ने कहा—"महारानी, इस राज्य में मैं आपका स्वागत करता हूँ। और राजकुमारी, आपका भी तथा कुमार को मैं वैशाली का राजा घोषित करता हूँ, और उनके लिए यह तलवार अर्पित करता हूँ जो शीघ्र काशिराज से उनका बदला लेगी।"

रानी ने कहा—"हम दोनों-माता पुत्री-कृतार्थ हुईं। महाराज, आपकी जय हो। अब इस शुभ अवसर पर यह तुच्छ भेंट मैं दिवोदास को अर्पण करती हूँ।"

उसने अपने कण्ठ से एक तावीज निकालकर दिवोदास के हाथ में देते हुए कहा—"इसमें उस गुप्त रत्नकोष का बीजक है, जिसका धन सात करोड़ स्वर्ण मुद्रा है।"

"पुत्र, मुझ अभागिन विधवा का यह तुच्छ दहेज स्वीकार करो।" [ ८८ ]श्रेष्ठि धनंजय ने आगे बढ़कर कहा—"महारानी, आपने मुझे और मेरे पुत्र को धन्य कर दिया।"

आचार्य श्रीज्ञान ने हाथ उठाकर कहा—"आप सबका कल्याण हो। आज से मैं आचार्य शाक्य श्रीभद्र को इस महाविहार का कुलपति नियुक्त करता हूँ।" महाराज ने स्वीकार किया। और सबने आचार्य को प्रणाम किया और अपने गन्तव्य स्थान की ओर चले गए।