देवांगना/वज्रगुरु
वज्रगुरु
आचार्य शाक्य श्रीभद्र महायान के आचार्य थे। शून्यवाद के परम पण्डित थे। उसके नाम और पाण्डित्य की बड़ी धूम थी। विक्रमशिला विश्वविद्यालय के पीठाधीश्वर हो जाने पर भी वज्र गुरुओं का गुट विक्रमशिला से टूटा नहीं। यद्यपि आचार्य वज्रसिद्धि अब कुलपति नही रहे थे, पर वे वज्र गुरुओं के शिरोमणि थे। ये वज्र गुरु वैपुल्यवादी थे और उनका संगठन साधारण न था। उनके सामने आचार्य शाक्य श्रीभद्र की चलती नहीं थी। जो हजारों-लाखों तरुण-तरुणियाँ पीत-कफनी पहिन कच्ची उम्र में ही भिक्षु-भिक्षुणी हो जाते थे, उनकी कामवासना तो कायम ही रहती थी। किसी भी ज्ञान और उपदेश से वह दबती न थी। वह तो स्वस्थ शरीर का नैसर्गिक धर्म था। वैपुल्यवादी एकाभिप्रायेण स्त्री-गमन कर सकते थे। वे गृहस्थों की भाँति मानव शरीर की प्राकृतिक आवश्यकता को गृहस्थाश्रम के सीधे-सादे सरल मार्ग द्वारा पूर्ण नही करते थे-वे तो 'एकाभिप्राय' की आड़ लेकर रहस्यपूर्ण शब्दजाल द्वारा सम्भोग क्रिया का 'सम्यक्-सम्बुद्ध' बनने के लिए वज्रगुरु की सहमति से स्त्री-सेवन कर सकते थे। वे किसी नीच जाति की युवती को मुद्रा बनाकर गुरु के निकट जाते और गुरु की आज्ञा से मिथुन योग करते थे। वज्रगुरु की आज्ञा से यह मैथुन सेवन कामवासना की तृप्ति के लिए नहीं होता था; सम्यक्-सम्बुद्ध और सिद्ध बनने के लिए होता था। ये सब नियम गुह्य थे। और उसी से भैरवीचक्र का जन्म हुआ।
बौद्धों के प्राचीन सुत्त बहुत लम्बे-लम्बे होते थे। उन्हें घोखने और याद करने में बहुत समय लगता था इसलिए वैपुल्यवादियों ने छोटी-छोटी धारणियाँ बनाई थीं। उनके पाठ से भी वही प्राप्त होता था जो सूत्रों के पाठ से होता था। पर धारणियों को कण्ठ करने भी दिक्कत पड़ती थी। इसलिए अब उसके स्थान पर मन्त्रों को रचा गया था। जिनमें अस्त-व्यस्त शब्द ही थे। जैसे 'ओं मुने-मुने महामुने स्वाहा,' अथवा 'ओं, आहुँ।' लोगों का विश्वास था कि इस मन्त्रों के जाप से अभिलषित फल प्रापत होता है। मन्त्र-शक्ति के इस विश्वास के साथ-साथ वे कुछ भोग की क्रियाओं को भी सीखते थे। वे समझते थे कि इन क्रियाओं द्वारा शारीरिक और मानसिक शक्तियों का विकास होता है। इस समय बुद्ध को भी अलौकिक या अमानव माना जाता था। ये वज्रगुरु खान-पान, रहन-सहन में आचार-विचार का कोई ध्यान नहीं करते थे। उचित-अनुचित, कर्त्तव्य-अकर्तव्य का भेद सिद्ध पुरुषों में नहीं होता-यही लोग समझते थे। स्त्री मात्र से सम्भोग करना वे अपनी साधना में सहायक मानते थे। साथ ही मद्य-माँस का सवेन भी योग क्रियाओं के लिए आवश्यक था। ऐसा ही यह युग था जिसका केन्द्र विक्रमशिला-नालन्दा और उदन्तपुरी के विहार बने हुए थे। एक ओर इन विद्याकेन्द्रों में भाँति-भाँति के शास्त्र और विद्याएँ पढ़ाई जाती थीं, जिसकी ख्याति देश- देशान्तरों में थी, तो दूसरी ओर ये धर्मपाखण्ड और अत्याचार चल रहे थे।
इस काल में सद् गृहस्थ ब्राह्मणों और बौद्ध भिक्षुओं का समान आदर सत्कार करते थे। शैवों-शाक्तों और वाममार्गियों के कई अघोरी पन्थ भी थे जिनसे गृहस्थ भयभीत रहते थे। पौराणिक धर्म के पुनरुत्थान के साथ जिन देवी-देवताओं की उपासना का आरम्भ हुआ, बौद्ध उनकी उपेक्षा नहीं कर सके। उन्होंने उन्हें नये नामों से अपने धर्म में सम्मिलित कर लिया। मंजुश्री तारा, अवलोकितेश्वर आदि नामों से अनेक देवी-देवताओं ने बौद्धधर्म में भी प्रवेश कर लिया था। कुछ तो इस कारण से और कुछ तन्त्रवाद के प्रवेश ने शक्ति के उपासक पौराणिक और वज्रयानी बौद्धों को परस्पर निकट ला दिया था। पौराणिकों ने बुद्ध को दस अवतारों में गिन लिया था। पालदेशी बौद्ध राजा थे-पर ब्राह्मणों को भी मानते थे। सातवीं शताब्दी ही में अनेक ऐसे पौराणिक पण्डितों ने जन्म लिया, जिन्होंने अपनी तर्कशक्ति और विद्वत्ता के प्रभाव से सबको चकाचौंध कर दिया। कुमारिल भट्ट और प्रभाकर के नाम इनमें विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। शंकर भी एक असाधारण पुरुष थे। इनके कारण बौद्ध भिक्षुओं का प्रताप कम अवश्य पड़ गया था पर बौद्ध संघ को स्थापित हुए हजार साल से भी ऊपर हो चुके थे। उनके मठों में अतोल सम्पदा जमा हो गई थी। और मगध के विहारों में हजारों भिक्षु निश्चिंत होकर आनन्द के साथ जीवन व्यतीत करते थे। वे केवल अब नाम के भिक्षु थे। भिक्षा माँगने भिक्षा पात्र लेकर उन्हें अब लोगों के घर जाना नहीं पड़ता था। इधर आश्रमों और मठों के रहने वाले सन्यासियों में भी स्फूर्ति उदय हुई थी। इससे भारत में उस समय बौद्धों के प्रति उदासीनता बढ़ती जाती थी। परन्तु आठवीं शताब्दी से बारहवीं शताब्दी तक पाँच सौ वर्षों में वज्रयान ने एक प्रकार से सारी ही भारतीय जनता को कामी, व्यसनी, शराबी और अन्धविश्वासी बना दिया था। राजा लोग तो अब भी किसी सिद्धाचार्य और उनके तांत्रिक शिष्यों की पलटनें साथ रखते थे जिन पर भारी खर्च किया जाता था।