भारतेंदु-नाटकावली/१–धनंजयविजय

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[ १२३ ]


धनंजय-विजय






व्यायोग






संवत् १९३०

[ १२४ ]





प्यारे!

निश्चय इस ग्रंथ से तुम बड़े प्रसन्न होगे; क्योंकि अच्छे लोग अपनी कीर्ति से बढ़कर अपने जन की कीर्त्ति से संतुष्ट होते हैं। इस हेतु इस होली के आरंभ के त्योहार माघी-पूर्णिमा में हे धनंजय और निधनंजय के मित्र ! यह धनंजय-विजय तुम्हे समर्प्पित है, स्वीकार करो।

तुम्हारा

ह--

[ १२५ ]








विदित हो कि यह जिस पुस्तक से अनुवाद किया गया है वह संवत् १५३७ की लिखी है और इसी से बहुत प्रामाणिक है, इससे इसके सब पाठ उसी के अनुसार रखे हैं। [ १२६ ]



धनंजय-विजय


व्यायोग

――――●――――

हरेलींलावराहस्य, दंष्ट्रादण्डः स पातु वः।
हेमाद्रिकलशा यत्र, धात्री छत्रश्रियं दधौ॥

(सूत्रधार आता है)

सू०-(चारों ओर देखकर) वाह ! वाह ! प्रातः काल की कैसी शोभा है!

(भैरव)

भोर भयो लखि काम-मातु श्रीरुकमिनि महलन जागीं।

बिकसे कमल, उदय भयो रवि को, चकई अति अनुरागीं॥
हंस-हंसिनी पंख हिलावत, सोइ पटह सुखदाई।
आँगन धाइ धाइ कै भँवरी, गावत केलि बधाई॥

(आगे देखकर) अहा शरद ऋतु कैसी सुहावनी है!
[ १२७ ]
सब को सुखदाई अति मन भाई शरद सुहाई आई।

कूजत हंस कोकिला, फूले कमल सरनि सुखदाई॥
सूखे पंक, हरे भए तरुवर, दुरे मेघ, मग भूले।
अमल इंदु तारे भए, सरिता-कूल कास-तरु फूले॥
निर्मल जल भयो, दिसा स्वच्छ भइँ, सो लखि अति अनुरागे।

जानि परत हरि शरद विलोकत रतिश्रम आलस जागे॥

(नेपथ्य की ओर देखकर) अरे ! यह चिट्ठी लिए कौन आता है?

(एक मनुष्य चिट्ठी लाकर देता है, सूत्रधार खोलकर पढ़ता है।

“परम प्रसिद्ध श्रीमहाराज जयदेवजी--

दान देन मैं, समर मैं, जिन न लही कहुँ हारि।
केवल जग में विमुख किय, जाहि पराई नारि।
जाके जिय में तूल सो, तुच्छ दोय निरधार॥

खीझे अरि को प्रबल दल, रीझे कनक पहार।

वह प्रसन्न होकर रंगमंडन नामक नट को आज्ञा करते है।

अलसाने कछु सुरत-श्रम, अरुन अधखुले नैन।

जगजीवन जागे लखहु, दैन रमा चित चैन॥
शरद देखि जब जग भयो, चहुँ दिसि महा उछाह।

तौ हमहूँ को चाहिए मंगल करन सचाह॥
[ १२८ ]इससे तुम वीर रस का कोई अद्भुत रूपक खेलकर मेरे गदाधर इत्यादि साथियो को प्रसन्न करो।" ऐसा कौन सा रूपक है? (स्मरण करके) अरे जाना।
कवि मुनि के सब सिसुन को धारि धाय सी प्रीति।

सिखवत आप सरस्वती नित बहु विधि की नीति॥
ताही कुल में प्रगट भे नारायन गुनधाम।
लह्यो जीति बहु वादिगन जिन वादीश्वर नाम॥
अभय दियो जिन जगत को धारि जोग-संन्यास।
पै भय इक रवि को रही मंडल भेदन त्रास॥
तिनके सुत सब गुन भरे कविवर कांचन नाम।

जाकी रसना मनु सकल विद्यागन की धाम॥

तो उस कवि का बनाया धनंजय-विजय खेलै। (नेपथ्यय की ओर देखकर) यहाँ कोई है?

(पारिपार्श्वक आता है)


पा०-कौन नियोग है कहिए?


सू०-धनंजय-विजय के खेलने में कुशल नटवर्ग को बुलायो।


पा०-जो आज्ञा।[जाता है


सू०-(पश्चिम की ओर देखकर)

सत्य प्रतिज्ञा करन कों छिप्यौ निसा अज्ञात।
तेजपुंज अरजुन सोई रवि सों कढ़त लखात॥
[ १२९ ]

(विराट के अमात्य के साथ अर्जुन आता है)

अ०-(उत्साह से) दैव अनुकूल जान पड़ता है क्योकि-

जो औषध खोजत रहै मिलै सु पगतल आइ।
बिना परिश्रम तिमि मिल्यौ कुरुपति आपुहि धाइ॥

सू०-(हर्ष से देखकर) अरे यह शामलक तो अर्जुन का भेस लेकर आ पहुँचा, तो अब मैं और पात्रो को भी चलकर बनाऊँ।

[जाता है

इति प्रस्तावना।

अ०-(हर्ष से)

गोरक्षन, रिपु-मान-बध, नृप विराट को हेत।

समर हेत इक बहुत सब भाग मिल्यौ या खेत॥
और भी
वहै मनोरथ फल सुफल, वहै महोत्सव हेत।

जो मानी निज रिपुन सो अपुनो बदलो लेत॥

अमा०-देव, यह आपके योग्य संग्राम-भूमि नहीं है।

जिन निवात-कवचन बध्यौ, कालकेय दिय दाहि।
शिव तोष्यौ रनभूमि जिन, ये कौरव कहँ ताहि॥

अ०-वाह सुयोधन वाह ! क्यों न हो।

लह्यौ बाहुबल जीति कै जो तुव पुरुखन राज।
सो तुम जूआ खेलि कै जीत्यौ सहित समाज॥
[ १३० ]
अब भीलन की भाँति इमि छिपिकै चोरत गाय।
कुल-गुरु-ससि, तुव नीचपन, लखि कै रह्मौ लजाय॥

अमा०-देव!

जदपि चरित कुरुनाथ के ससि-सिर देत झुकाय।
तऊ रावरो विमल जस राखत ताहि उचाय॥

अ०-(कुछ सोचकर) कुमार नगर के पास घरे हुए शस्त्रों को लेने रथ पर बैठकर गया है, सो अब तक क्यो नहीं आया?

(उत्तर कुमार आता है)

कु०-देव, आपकी आज्ञानुसार सब कुछ प्रस्तुत है, अब आप रथ पर विराजिए।

अ०-(शस्त्र बाँधकर रथ पर चढना नाट्य करता है)

अमा०-(विस्मय से अर्जुन को देखकर)

रनभूषन भूषित सुतन, सुषन सब गात।
सग्द सूर सम धन-रहित सूर प्रचंड लखात॥

(नायक से)

दच्छिन खुर महि मरदि हय गरजहिं मेघ-समान।
उड़ि रथ-धुज आगे बढ़हिं तुव बस व़िजय-निसान॥

अ०-अमात्य ! अब हम लोग गऊ छुड़ाने जाते हैं। आप नगर में जाकर गोहरण व्याकुल नगरवासियों को धीरज दीजिए। [ १३१ ]अमा०-महाराज जो आज्ञा।[जाता है

अ०-(कुमार से) देखो, गऊ दूर न निकल जाने पावै, घोड़ों को कसके हॉको।

कु०-(रथ हॉकना नाट्य करता है)

अ०-(रथ का वेग देखकर)

लीकहु नहिं लखि परत चक्र की, ऐसे धावत।

दूर रहत तरु-वृंद छनक मैं आगे आवत॥
जदपि वायु-बल पाइ धूरि आगे गति पावत।
पै हय, निज-खुर-वेग पीछहीं मारि गिरावत॥
खुर-मरदित महि चूमहिं मनहु धाइ चलहिं जब बेगि गति।

मनु होड़ जीत-हित चरन सो आगेहि मुख बढि जात अति॥

(नेपथ्य की ओर देखकर) अरे अरे अहीरो! सोच मत करो, क्योंकि-

जब लौं बछरा करुना करि महि तृन नहिं खैहैं।

जब लौं जननी बाट देखिकै नहिं डकरैहै॥
जब लौं पय पीयन हित वे नहिं व्याकुल ह्वैहैं॥

ताके पहिलेहि गाय जीतिक हम ले ऐहैं॥

(नेपथ्य में) बड़ी कृपा है।

कु०-महाराज ! अब ले लिया है कौरवों की सेना को, क्योकि-

हय-खुर-रज सों नभ छयो वह आगे दरसात।
मनु प्राचीन कपोत गल सांद्र सुरुचि सरसात॥
[ १३२ ]
करिवर मद-धारा तिया रमत रसिक जो पौन।
सेाई केलिमद गंध लै, करत इतैही गौन॥

अ०-वह देखो कौरवो की सेना दिखा रही है।

चपल चवँर चहुँ ओर चलहिं सित छत्र फिराहीं।

उड़हिं गीधगन गगन जबै भाले चमकाहीं॥
घोर संख के शब्द भरत बन मृगन डरावति।
यह देखौ कुरुसैन सामने धावति आवति॥
(बाँह की ओर देखकर उत्साह से)

बन-बन धावत सदा धूर धूसर जो सेाहीं।
पंचाली-गल-मिलन-हेतु अब लौं ललचौहीं॥
जो जुवती-जन-बाहु-बलय मिलि नाहि लजाहीं।
रिपुगन ! ठाढ़े रहौ सोई मम भुज फरकाहीं॥
(नेपथ्य में)

फेरत धनु टंकारि दरप शिव-सम दरसावत।
साहस को मनु रूप काल-सम दुसह लखावत॥
जय-लक्ष्मी सम वीर धनुष धरि रोष बढ़ावत।
को यह जो कुरुपतिहि गिनत नहिं इतही आवत॥

(दोनों कान लगाकर सुनते हैं)

कु०-महाराज ! यह किसके बड़े गंभीर वचन है?

अ०-हमारे प्रथम गुरु कृपाचार्य के। [ १३३ ]
(फिर नेपथ्य में)

शिव-ताषन खांडव-दहन सेाई पांडवनाथ।
धनु खींचत घट्टा पडे दूजे काके हाथ॥
छूटि गए सब शस्त्र तबौं धीरज उर धारे।
बाहु-मात्र अवशेष दुगुन हिय क्रोध पसारे॥
जाहि देखि निज कपट भूलि ह्वै प्रगट पुरारी।

साहस पै बहु रीझि रहे आपुनपौ हारी॥

अरे यह निश्चय अर्जुन ही है, क्योकि--

सागर परम गँभीर नध्यो गोपद-सम छिन मैं।

सीता-विरह-मिटावन की अद्भुत मति जिन मैं॥
जारी जिन तृन फूस हूस सी लंका सारी।
रावन-गरब मिटाइ हने निसिचर-बल भारी॥
श्रीराम-प्रान-सम, बीर-वर, भक्तराज, सुग्रीव-प्रिय।
सोइ वायुतनय धुज बैठि कैगरजि डरावत शत्रु-हिय॥

(दोनों सुनते हैं)

कु०-आयुष्मान्,

भरो बोर रस सों कहत चतुर गूढ अति बात।
पक्षपात सुत सों करत को यह तुम पै तात॥
अ०-कुमार ! यह तो ठीक ही है, पुत्र सा पक्षपात करता है, यह क्यों कहते हो ! मैं आचार्य का तो पुत्र ही हैं। [ १३४ ]

(नेपथ्य में)

करन ! गहौ धनु वेग, जाहु कृप ! आगे धाई।

द्रोन ! अस्त्र भृगुनाथ-लहे सब रहौ चढ़ाई॥
अश्वत्थामा ! काज सबै कुरुपति को साधहु।
दुरमुख ! दुस्सासन ! विकर्ण ! निज ब्यूहन बाँधहु॥
गंगासुत शांतनु-तनय बर भीष्म क्रोध सों धनु गहत।

लखि शिव-शिक्षित रिपु सामुहें तानि बान छॉड़ो चहत॥

अ०-(आनंद से) अहा ! यह कुरुराज अपनी सैन्य को बढावा दे रहा है।

कु०-देव ! मैं कौरव योधओ का स्वरूप और बल जानना चाहता हूँ।

अ०-देखो इसके ध्वजा के सर्प के चिह्न ही से इसकी टेढाई प्रगट होती है।

चंद्र-वंश को प्रथम कलह-अंकुर एहि मानो।

जाके चित सौजन्य भाव नहिं नेकु लखानो॥
विष जल अगिन अनेक भॉति हमको दुख दीनो।

सो देह आवत ढीठ लखौ कुरुपति मतिहीनो॥

कु०-और यह उसके दाहिनी ओर कौन है?

अ०-(आश्चर्य से)

जिन हिडंब-अरि रिसि भरे लखत लाज-भय खोय।
कृष्णा-पट खींच्यौ निलज यह दुस्सासन सोय॥
[ १३५ ]कु०-अब इससे बढ़कर और क्या साहस होगा?

अ०-इधर देखो (हाथ जोड़कर प्रणाम करके)

कंचन-वेदी बैठि बड़ोपन प्रगट दिखावत।

सूरज को प्रतिबिंब जाहि मिलि जाल तनावत॥
अस्त्र उपनिषद भेद जानि भय दूर भजावत।

कौरव-कुल-गुरु पूज्य द्रौन आचारज आवत॥

कु०-यह तो बड़े महानुभाव से जान पड़ते है।

अ०-इधर देखो।

सिर पै बाँकी जटा-जूट-मंडित, छवि धारी।

अस्त्र-रूप मनु आप, दूसरो दुसह पुरारी॥
सत्रुन कों नित अजय मित्र को पूरनकामा।

गुरु-सुत मेरो मित्र लखौ यह अश्वत्थामा॥

कु०-हाँ और बताइए।

अ०-
धनुर्वेद को सार जिन घट भरि पूरि प्रताप।
कनक-कलस धरि धुज धस्यौ, सो कृप कुरु-गुरु आप॥

कु०-और यह कुरुराज के सामने लड़ाई के हेतु फेट कसे कौन खड़ा है?

अ०-(क्रोध से)

सब कुरुगन को अनय-बीज अनुचित अभिमानी।

भृगुपति छलि लहि अस्त्र वृथा गरजत अघखानी॥
सूत-सुअन बिनु बात दरप अपनो प्रगटावत।

इंद्रशक्ति लहि गर्व-भरो रन कों इत आवत॥
[ १३६ ]कु०-(हँसकर) इनका सब प्रभाव घोष-यात्रा में प्रगट हो चुका है। (दूसरी ओर दिखाकर) यह किसका ध्वज है?

अ०-(प्रणाम करके)

परतिय जिन कबहूँ न लखी निज ब्रतहिं दृढ़ाई।

श्वेत केस मिस सो कीरति मनु तन लपटाई॥
परशुराम को तोष भयो जा सर के त्यागे।

तौन पितामह भीष्म लखौ यह आवत आगे॥

सूत ! घोड़ो को बढ़ाओ।

(नेपथ्य में)

समर बिलोकन को जुरे चढि बिमान सुर धाइ।
निज-बल बाहु-विचित्रता, अरजुन देहु दिखाइ॥

(इंद्र, विद्याधर और प्रतिहारी आते हैं)

इंद्र-आश्चर्य से

बातहु सो झगरै बली तौ निबलन भय होय।

तो यह दारुन युद्ध लखि, क्यो न डरै जिय खोय॥
एक रथी इक ओर उत बली रथी समुदाय।

तौहू सुत तू धन्य अरि इकलो देत भजाय॥

कु०-(आगे देखकर) देव, कौरव-राज यह चले आते हैं।

अ०-तो सब मनोरथ पूरे हुए।

(रथ पर बैठा दुर्योधन आता है)

दु०-(अर्जुन को देखकर क्रोध से) [ १३७ ]
बहु दुख सहि बनबास करि, जीवन सों अकुलाय।
मरन-हेतु आयो इतै इकलो गरब बढ़ाय॥

अ०-(हँसकर)

कालकेय बधि के, निवात-कवचन कहँ मार्यौ।

इकले खांडव दाहि, उमापति जुद्ध प्रचार्यौ॥
इकले ही बल कृष्ण लखत भगिनी हरि द्यौनी।

अरजुन की रन नाहिं नई इकली गति लीनी॥

दु०-अब हँसने का समय नहीं है; क्योकि अंधाधुंध घोर संग्राम का समय है।

अ०-(हँसकर)

दूर रहौ कुरुनाथ नाहिं यह छल जूआ इत।

पापीगन मिल द्रौपदि को दासी कीनी जित॥
यह रन-जूआ जहाँ बान-पासे हम डारै।

रिपुगन सिर की गोट जीति अपुने बल मारै॥

दु०-(क्रोध से)

चूड़ी पहिरन सों गयो, तेरो सर-अभ्यास।
नर्त्तनसाला जाव किन, इत पौरुष परकास॥

कु०-(मुँह चिढ़ाकर) आर्य ! यह आप ठीक कहते है कि इनका बहुत दिन से धनुष चलाने का अभ्यास छूट गया है।

जब बन मैं गंधर्व-गनन तुम को कसि बाँध्यौ।
तब करि अग्रज-नेह गरजि जिन तहँ सर साध्यौ॥
[ १३८ ]
लीन्हें तुम्हैं छुड़ाइ जीति सुरगन छिन माहीं।
तब तुम सर-अभ्यास लख्यो बिहवल ह्वै नाहीं॥

विद्या०–देव ! यह बालक बड़ा ढीठा है।

इंद्र-क्यों न हो ! राजा का लड़का है।

दु०-सूत ! गुणों की भाँति इस कोरी बकवाद से फल क्या है? यह पृथ्वी ऊँची-नीची है इससे तुम अब समान पृथ्वी पर रथ ले चलो।

अ०-जो कुरुराज की इच्छा। (दोनों रथ जाते हैं)

विद्या०—(अर्जुन का रथ देख कर) देव० !

तुव सुत-रथ-हय-खुर बढ़ी, समय-धूरि नभ जौन।
अरि-अरनी मंथन अगिनि-धूम-लेख सी तौन॥

इंद्र-क्यों न हो तुम महाकवि हो।

विद्या०-देव! देखिए अर्जुन के पास पहुँचते ही कौरवों में कैसा कोलाहल पड़ गया, देखिए-

हय हिनहिनात अनेक गज सर खाइ घोर चिकारहीं।

बहु बजहिं बाजे मारु धरु धुनि दपटि बीर उचारहीं॥
टंकार धनु की होत घंटा बजहिं सर संचारहीं।

सुनि सबद रन को बरन पति सुरबधू तन सिंगारहीं॥

प्रति०-देव! केवल कोलाहल ही नहीं हुआ वरन् आपके पुत्र के उधर जाते ही सब लोग लड़ने को भी एक संग उठ दौड़े। देव ! देखिए, अर्जुन ने कान तक खींच-खींचकर जो बान चलाए हैं, उनसे कौरव-सेना में किसी

भा० ना०-२ [ १३९ ] के अंग-भंग हो गए हैं, किसी के धनुष दो टुकड़े हो गए हैं, किसी के सिर कट गए हैं, किसी की आँखें फूट गई हैं, किसी की भुजा टूट गई है, किसी की छाती घायल हो रही है।

इंद्र-(हर्ष से) वाह बेटा ! अब ले लिया है।

विद्या०-देव ! देखिए देखिए।

गज-जूथ सोई घन-घटा मद-धार-धारा सरत जे।

तरवार-चमकनि बीजु की दमकनि, गरज बाजन बजे॥
गोली चलें जुगनू सोई, बकवृन्द ध्वज बहु सोहई।
कातर बियोगिन दुखद रन की भूमि पावस नभ भई॥
तुव सुत-सर सहि, मद-गलित, दंत केतकी खोय।

धावत गज, जिनके लखें, हथिनी को भ्रम होय॥

इंद्र-(संतोष से)

हर-सिच्छित सर-रीति जिन कालकेय दिय दाहि।
जो जदुनाथ सनाथ कह कौरव जीतन ताहि॥

प्रति०-महाराज देखें।

कटे कुंड सुंडन के रुंड मैं लगाय तुंड,

झुंड मुंड पान करै लोहू भूत चेटी हैं।
घोड़न चबाइ, चरबीन सों अघाय, मेटी
भूख सब मरे मुरदान मैं समेटी हैं॥
लाल अंग कीने सीस हाथन में लीने अस्थि,

भूखन नवीने आँत जिन पै लपेटी हैं।
[ १४० ]
हरष बढ़ाय ऑगुरीन को नचाय पिधैं,
सोनित-पियासी सी पिसाचन की बेटी हैं॥

विद्या०-देव ! देखिए-

हिलन धुजा सिर ससि चमक मिलिकै व्यूह लखात।
तुव सुत-सर लगि घूमि जब गज-गन मंडल खात॥

इंद्र-(आनंद से देखता है)

प्रति०-देव, देखिए ! देखिए ! आपके पुत्र के धनुष से छूटे हुए बानो से मनुष्य और हाथियों के अंग कटने से जो लहू की धारा निकलती है उसे पी-पीकर यह जोगिनिएँ आपके पुत्र ही की जीत मनाती हैं।

इंद्र-तो जय ही है, क्योंकि इनकी असीस सच्ची है।

विद्या०-(देखकर) देव ! अब तो बड़ा ही घोर युद्ध हो रहा है। देखिए-

बिरचि नली गजसुंड की काटि काटि भट सीस।

रुधिर पान करि जोगिनी विजयहि देहि असीस॥
टूटि गई दोउ भौंह स्वेद सों तिलक मिटाए।
नयन पसारे लाल क्रोध सों ओठ चबाए॥
कटे कुंडलन मुकुट बिना श्रीहत दरसाए।
वायु वेग बस केस मूछ दाढ़ी फहराए॥
तुव तनय-बान लगि बैरि-सिर एहि बिधि सों नभ में फिरत।

तिन संग काक अरु कंक बहु रंक भए धावत गिरत॥
बड़े (आश्चर्य से इधर-उधर देखकर) देव ! देखिए[ १४१ ]
सीस कटे भट सोहहीं नैन जुगल बल लाल।
बरहिं तिनहिं नाचहिं हँसहिं गावहिं नभ सुरबाल॥

इंद्र-(हर्ष से) मैं क्या-क्या देखूँ? मेरा जी तो बावला हो रहा है।

इत लाखन कुरु सँग लरत इकलो कुंतीनंद।
उत बीरन कों बरन को लरहि अप्सरावृंद॥

विद्या०-ठीक है (दूसरी ओर देखकर) देव ! इधर देखिए-

लपटि दपटि चहुँ दिसन बाग बन जीव जरावत।

ज्वाला-माला लोल लहर धुज सी फहरावत॥
परम भयानक प्रगट प्रलय सम समय लखावत।

गंगा-सुत कृत अगिन-अस्त्र उमग्यो ही आवत॥

प्रति०-देव ! मुझे तो इस कड़ी आँँच से डर लगती है।

विद्या०-भद्र ! व्यर्थ क्यों डरता है, भला अर्जुन के आगे यह क्या है? देख-

अर्जुन ने यह वरुन अस्त्र जो बेगि चलायो।

तासों नभ में घोर घटा को मंडल छायो॥
उमड़ि उमड़ि करि गरज बीजुरी चमकि डरायो।

मुसलधार जल बरसि छिनक मैं ताप बुझायो॥

इंद्रर-बालक बड़ा ही प्रतापी है।

प्रति०-देव ! राधेय ने यह भुजंगास्त्र छोड़ा है, देखिए अपने मुखों से आग सा विष उगलते हुए, अपने सिर के मणियों से चमकते हुए इंद्रधनुष से पृथ्वी को व्याकुल करते हुए, [ १४२ ] देखने ही से वृक्षों को जलाते हुए, ये कैसे-कैसे डरावने साँप निकले चले आते हैं।

विद्या-दुष्ट मनोरथ सरिस लसैं लॉबे दुखदाई।

टेढ़े जिंमि खल-चित्त भयानक रहत सदाई॥
बमत बदन विष निंदक सो मुख कारिख लाए।

अहिगन नभ मैं लखहु धाइ कै चहुँ दिस छाए॥

इंद्र-क्या खांडव वन का बैर लेने आते हैं?

विद्या -आप शोच क्यों करते हैं; देखिए, अर्जुन ने गारुड़ास्त्रर छोड़ा है।

निज कुल गुरु तुव पुत्र सारथिहि तोष बढ़ावत।

झपटि दपटि गहि अहिन टूक करि नास मिलावत॥
बादर से उड़ि खींचि खींचि दोउ पंख हिलावत।

गरुड़न को धन गगन छयो अहि हियो डरावत॥

इंद्र-(हर्ष से) हाँ तब।

प्रति०-देखिए, यह दुर्योधन के वाक्य से पीड़ित होकर द्रोणाचार्य ने आपके पुत्र पर वारणास्त्र छोड़ा है।

विद्या०-(देखकर) वैनायक-अस्त्र चल चुका, देखिए--

रँगे गंड सिंदूर सों, घहरत घंटा घोर।

निज मद सो सींचत धरनि, गरजि चिकारहिं जोर॥
सँड़ फिरावत सीकरन धावत भरे उमंग।

छावत धावत घन सरिस मरदत मनुज मतंग॥

इंद्र-तब, तब। [ १४३ ]विद्या-तब अर्जुन ने नरसिंहास्त्र छोड़ा है, देखिए-

गरजि गरजि जिन छिन मैं गर्भिनि गर्भ गिरायो।

काल सरिस मुख खोलि दॉत बाहर प्रगटायो॥
मारि थपेड़न गंड सुंड को मॉस चबायो।
उदर फारि चिक्कारि रुधिर पौसरा चलायो॥
करि नैन अगिनि सम मोछ फहराइ पोंछ टेढ़ी करत।

गल-केसर लहरावत चल्यौ क्रोधि सिंह-दल दल दलत॥

इंद्र-तो अब जय होने में थोड़ी ही देर है।

विद्या०-देव ! कहिए कि कुछ भी देर नहीं है।

गंगा-सुत के बधि तुरग, द्रोन-सूत हति खेत।

करन-रथहि करि खंड बहु, कृप कहँ कियो अचेत॥
और भजाई सैन सब, द्रोनसुवन-धनु काट।

तुब सुत जोहत अब खड़ो, दुरजोधन की बाट॥

प्रति०-दुर्योधन का तो बुरा हुआ।

विद्या-नहीं।

व्याकुल तुव सुत-बान सों विमुख भयो रन-काज।
मुकुट गिरन सों क्रोध करि फिर्यो फेर कुरुराज॥

(नेपथ्य में)

सुन-सुन कर्ण के मित्र!

सभा मॉहि लखि द्रौपदिहिं क्रोध अतिहि जिय लेत।
अग्रज परतिज्ञा करी तुव उरु तोड़न हेत॥
[ १४४ ]
ताही सों तोहि नहिं बध्यो, न तरु अबै कुरु-ईस।
जा सर सों तोर्यो मुकुट तासों हरतो सीस॥

प्रति०-देव अपने पुत्र का वचन सुना?

इंद्र-(विस्मय से)

दैव भए अनुकूल तें सब ही करत सहाय।
भीम-प्रतिज्ञा सों बच्यो अनायास कुरुराय॥

विद्या०—देव ! दुर्योधन के मुकुट गिरने से सब कौरवों ने क्रोधित होकर अर्जुन को चारों ओर से घेर लिया है।

इंद्र-तो अब क्या होगा?

विद्या०—देव अब आपके पुत्र ने प्रस्थापनास्त्र चलाया है।

नाक बोलावत, धनु किए तकिया, मूँँदे नैन।
सब अचेत सोए, भई मुरदा सी कुरु-सैन॥

इंद्र-युद्ध से थके वीरों को सोना योग्य ही है। हाँ फिर-

विद्या-
एक पितामह छोड़ि के सबको नॉगो कीन।

बॉधि अँधेरी आँख मैं, मूँड़ि तिलक सिर दीन॥
अब जागे भागे लखौ रह्यो न कोऊ खेत।
गोधन लै तुव सुत अबै ग्वालन देखौ देत॥
शत्रु जीति निज मित्र को काज साधि सानंद।

पुरजन सों पूजित लखौ पुर प्रविसत तुव नंद॥

इंद्र-जो देखना था वह देखा।

(रथ पर बैठे अर्जुन और कुमार आते हैं)

अ०-(कुमार से) कुमार! [ १४५ ]
जो मो कहँ आनँद भयो करि कौरव बिनु सेस।
तुव तन को बिनु घाव लखि तासों माद बिसेस॥

कु०-जब आप सा रक्षक हो तो यह कौन बड़ी बात है।

इंद्र-(आनंद से) जो देखना था वह देख चुके।

(विद्याधर और प्रतिहारी समेत जाता है)

अ०-(संतोष से) कुमार !

करी बसन बिनु द्रौपदी इन सब सभा बुलाय।
सो हम इनको वस्त्र हरि बदलो लीन्ह चुकाय॥

कु०-आपने सब बहुत ठीक ही किया क्योंकि-

बरु रन मैं मरनो भलो पाछे सब सुख सींव।
निज अरि सो अपमान हिय खटकत जब लौं जीव॥

अ०-(आगे देखकर) अरे अपने भाइयों और राजा विराट समेत आर्य धर्मराज इधर ही आते हैं।

(तीनों भाई समेत धर्मराज और विराट आते हैं)

धर्म-मत्स्यराज! देखिए -

धूर धूसरित अलक सब मुख श्रमकन झलकात।
असम समर करि थकित पै, जय सोभा प्रगटात॥

विरा०-सत्य है।

द्विज सोहत विधा पढ़ें, छत्री रन जय पाय।
लक्ष्मी सोहत दान सों, तिमि कुलबधू लजाय॥
[ १४६ ]अ०-(घबड़ाकर) अरे क्या भैया आ गए? (रथ से उतरकर दंडवत् करता है)

सब-(आनंद से एक ही साथ) कल्याण हो-जीते रहो।

धर्म-

इकले सिव रिपुपुर दह्यो, निसचर मारे राम।
तुम इकले जीत्यो कुरुन, नहि अब चौथे नाम॥

अ०-(सिर झुकाकर हाथ जोड़कर) यह केवल आपकी कृपा है।

विरा०—(नेपथ्य की ओर हाथ से दिखाकर) राजपुत्र! देखो।

मिलि बछरन सों धेनु सब श्रवहिं दूध की धार।

तुव उज्जल कीरति मनहुँ फैलत नगर मँझार॥
और,
खींच्यो कृष्णाकेस जो सभा मॉहि कुरुराज।

सो तुम मुकुट गिराइ कै बदलो लीन्हो आज॥

भीम०-(सुनकर क्रोध से) राजन् ! अभी बदला नहीं चुका, क्योकि-

तोरि गदा सों हृदय दुष्ट दुस्सासन केरो।

तासों ताजो सद्य रुधिर करि पान घनेरो॥
ताही कर सो कृष्णा को बेनी बँधवाई।

भीमसेन ही सो बदलो लैहै चुकवाई॥
धर्म-बेटा, तुम्हारे आगे यह क्या बड़ी बात है। [ १४७ ]
लही बधू सुत-हित भयो सुख अज्ञात निवास।
तौ अब का नहिं हम लह्यो जाकी राखैं आस॥

तौ भी यह भरतवाक्य सत्य हो-

राजवर्ग मद छोड़ि निपुन विद्या में होई।

आलस मूरखतादि तजैं भारत*[१] सब कोई॥
पंडितगन पर कृति लखि कै मति दोष लगावैैं।
छुटै राज-कर, मेघ समै पै जल बरसावें॥
कजरी ठुमरिन सों मोरि मुख सत कविता सब कोउ कहै।
हिय भोगवती सम गुप्त हरि प्रेम धार नितही बहै+[२]
और भी
"सौजन्यामृतसिन्धवः परहितप्रारब्ध वीरव्रताः
वाचालाः परवर्णने निजगुणालापे च मौनव्रताः।
आपत्स्वप्यविल्लुप्तधैर्य्ययनिचया सम्पत्स्वनुत्सेकिनो

मा भूवन् खलवक्र्तनिर्ग्गतविषम्लानाननाः सज्जनाः"+[३]

विरा०-तथास्तु।

(सब जाते हैं)

  1. * पाठा० श्री हरिपद मैं भक्ति करें छल बिनु।
  2. + पाठा० यह कविबानी बुध बदन मैं रवि ससि लौं प्रगटित रहै।
  3. +सौजन्य रूपी अमृत के समुद्र, दूसरे की भलाई में दृढ़व्रती, दूसरे की प्रशंसा में बकवादी पर अपनी प्रशंसा करने में मौनी बाबा, कष्ट में धैर्य के
    समूह को न छोड़ने वाले और सम्पत्ति कान में नम्र जो सज्जन हैं, वे दुष्टों के मुख से निकले बिष भरी बातों से उदास मुख न हों।