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धर्म के नाम पर/2 सदुपयोग और दुरुपयोग

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दिल्ली: इंद्रप्रस्थ पुस्तक भंडार, पृष्ठ १४ से – ३३ तक

 

 

दूसरा अध्याय

सदुपयोग और दुरुपयोग

मेरा कहना यह है कि हिंसा कोई पाप नही है और अहिंसा कोई धर्म नहीं है। इन दोनों वस्तुओं का सदुपयोग धर्म और दुरुपयोग पाप है। एक जज अपराधी को फाँसी की आज्ञा देता है, अपराधी ने उस का कुछ नहीं बिगाड़ा, अपराधी से वह परिचित भी नहीं है, अपराधी पर वह क्रुद्ध भी नहीं। वह न्याय और शान्ति के अधिपत्य के पद पर बैठा है, वह बहुत गम्भीरता और विवेचन में यह देखता है कि अपराधी सार्वजनिक शान्ति के लिये वर्तमान समाज के नियमों के आधार पर विघ्न करता है या नहीं और जब वह ऐसा पाता है तो अपने उन बंधे हुए अधिकारों के आधार पर, जो उसे उस पद के कारण प्राप्त हैं, अपराधी को मृत्यु तक फाँसी पर लटकने तक की आज्ञा देता है। समय पर जेल अधिकारी और जल्लाद उसे फाँसी देकर मार डालते हैं। जज, जेल अधिकारी, जल्लाद सभी को उस व्यक्ति से समवेदना होती है। इसलिये वे लोग हिंसक होते हुए भी पापी नहीं समझ गये।

मैं स्वयं भी जज का स्थान ले सकता हूँ। एक व्यक्ति ने मेरा वही अपराध किया है जो हर तरह जज की दृष्टि में अपराधी को फांसी का अधिकारी निर्णय करेगा। मैं स्वयं भी जज के बराबर ही बुद्धिमान और योग्यता सम्पन्न व्यक्ति हूँ। मैंने स्वयं ही उसे फांसी देदी, जेल के और जल्लादों के प्रपंचों में भी मैं नहीं पड़ा। ऐसी दशा में मैं हिंसक और पापी हूँ।

क्यों? सुनिये, पहिली बात तो यह कि मैं न्याय करने का उत्तरदाई नहीं, यह मेरा काम न था, दूसरे सिर्फ घटना का सम्बन्ध मेरे साथ था। इसलिये मैंने यह न्याय अपने हाथ में ले लिया। ऐसा करने में मन से राग द्वेष तो था ही। तीसरे, आज मैंने लिया कल दूसरा लेगा। उसे मेरा उदाहरण काफ़ी है, उसे मेरी योग्यता से कोई सरोकार नहीं। अपराधी को कब्जे में करके फांसी देने की योग्यता तो उस में है। तीसरे, अपराधी और उस के संरक्षकों को अपील का स्थान नहीं। मैं स्वयं ही आरोपी और स्वयं ही अधिकारी बन गया, इसलिये मैं संमत, विवेकी, स्थिर और सत्य पर नहीं रह सका अतः मैं हत्याकारी हूँ और पाप का भागी हूँ।

मुसलमानों के पूज्य हज़रत अली एक बार एक अपराधी को क़त्ल करने लगे। जब वे तलवार लेकर अपराधी के पास आये तो अपराधी ने क्रोध में भर कर उन्हें गालियां दीं और उन पर थूक दिया। इस पर अली को गुस्सा आगया। उन्होंने तलवार रख दी और कहा—इस वक़्त मैं इसे कत्ल नहीं कर सकता क्योंकि मुझे गुस्सा आ गया है।

यह उदाहरण इस बात पर प्रकाश डालेगा कि वास्तव में हत्या या हिंसा में निर्भयता किस दर्जे तक उसे पुण्य बनाती है।

आप के पास एक घोड़ा है, उस की शक्ति का आप सदुपयोग कीजिये वह आपकी गाड़ी को खींच कर जहां आप चाहें ले जायगा। और दुरुपयोग होने पर वही घोड़ा गाड़ी को गिरा कर चकनाचूर कर देगा।

मैं सत्य बोलना पसन्द करता हूँ, मैं सत्य को धर्म समझता हूँ, परन्तु मैं चिकित्सक हूँ। एक रोगी को देखने मैं गया, उसका हृदय बहुत दुर्बल है और उस की हालत अच्छी नहीं है, अब यदि उसे उत्साह और साहस नहीं मिलता है तो वह तत्काल मर जा सकता है। उसे देख कर मैं चिन्तित होता हूँ, परन्तु ऊपर से हंस कर लापरवाही दिखाता हूँ, रोगी से गप सप करता हूँ, हंसता हूँ और उसे अतिशीघ्र आरोग्य लाभ होने की आशा दिलाता हूँ यह सब बिलकुल झूठ है, परन्तु पाप नहीं। मैं इसे धर्म समझता हूँ।

और इस का कारण यह है कि इस झूंठ में मेरा कोई स्वार्थ न था केवल परोपकार की भावना ही थी। पिछले अध्याय में मैंने चोर का उदाहरण दिया है। अब मैं फिर आप से पूंछता हूँ कि चोर को सत्य के नाम पर गड़ा हुआ गुप्त धन बता देना धर्म है या बेवकूफी? सब लोग यही कहते हैं कि धर्म की परीक्षा यह है कि वह सदा सज्जनों की रक्षा करे और दुष्टों का दमन करे। तब वह 'सत्य' धर्म कहां रहा? जो चोर को तो माल दिलवाये और मालिक को लुटवा दे। वहां तो झूठ बोलना ही धर्म है।

एक सिपाही दर्प से अपने को योद्धा कहता है, उसे शत्रुओं के हनन करने का गर्व है। जब वह खून की नदी बहा कर आता है, लोग गाजे बाजे से उस का सत्कार करते हैं वह वीर की भांति ऊंची गर्दन करके सब के बीच मे चलता है। मै पूंछता हूँ—किस लिये उसकी हत्या हिंसा नहीं मानी गई? पाप में नहीं सम्मिलित की गई? इस में क्या युक्ति है?

इस का उत्तर वही है जो मैं कह चुका हूँ। उस की उस खून ख़राबी में सार्वजनिक शान्ति की भावना है, वह मानव जाति के प्रति कुछ त्याग भाव रख कर ही यह कार्य करता है। यहां हम उस विषय पर न जायेंगे कि उस का वह भाव ठीक है या नहीं।

इसी प्रकार और भी अनेक ऐसी बातें हैं कि जिन का सदुपयोग ही धर्म कहा जा सकता है। महाभारत में विश्वामित्र ऋषि का चण्डाल के घर मे घुस कर कुत्ते का सूखा मांस चुराने की बड़ी मज़ेदार घटना है। जब ऋषि वह सूखी हुई टांग चुरा कर चलने लगे। तब चाण्डाल ने जग कर और ऋषि को पहचान कर बहुत भला बुरा कहा। इस पर ऋषि तनिक भी न झेपे, उन्होंने चाण्डाल को ऐसा आड़े हाथो लिया कि बेचारे की बोलती बन्द हो गई। उन्होंने कहा "अरे, ढीढ़! तू मुझे उपदेश देने का साहस करता है? मैं जो कुछ करता हूँ उसे खूब समझता हूँ और मैं अवश्य करूंगा।"

जहां एक तरफ ऐसी कुत्सित और वीभत्स चोरी-ऐसे बड़े महात्मा द्वारा की जाने पर भी वह दोष पूर्ण नही मानी गई, वहां हम महाभारत ही में एक दूसरी घटना पाते हैं।

शंख और लिखित दो भाई थे। शंख ज्येष्ठ था, दोनों ऋषि थे। दोनों के आश्रम पृथक् २ थे। लिखित भाई से मिलने उन के आश्रम में गये। भाई बाहर गये हुये थे। लिखित ने आश्रम से एक पका मधुर फल तोड़ा और खाने लगे। इतने ही में शंख आ गये। शंख ने देख कर कहा—अरे! यह तुम ने क्या किया? यह फल कहां से पाया?

लिखित ने हंस कर कहा—"यहीं से तोड़ा!"

शंख ने चिन्तित होकर कहा—"यह तो बुरा हुआ, अरे! यह तो चोरी हुई?"

लिखित ने व्याकुल होकर कहा—"क्या यह चोरी हुई?"

शंख ने दुःखी होकर कहा—"निःसन्देह! तुम अभी राजा सुधन्वा के पास जाओ और दण्ड की याचना करो।"

लिखित उसी समय सुधन्वा की ड्योढ़ियों पर पहुँचे। ऋषि का आगमन सुन कर उन्होंने मन्त्रियों सहित द्वार पर आकर उनका सत्कार किया और भीतर ले गये। कुशल पूंछा, पूजा की और हाथ बांध कर कहा "ऋषिवर! आज्ञा से कृतार्थ कीजिये।"

ऋषि ने कहा "राजन् हमने चोरी की है—हमें दण्ड दीजिये। उन्होंने सब घटना भी सुना दी। राजा ने सुन कर कहा—ऋषिवर! राजा को अभियोग सुनकर अपराधी को अपराध के गुरुत्व पर विचार करके जैसे दण्ड देने का अधिकार है; वैसे ही उसे क्षमा करने का भी। मैं आप को क्षमा करता हूँ। ऋषि ने कहा—"नहीं राजन्, मैं दण्ड की याचना करता हूँ"। तब राजा ने विवश हो राजनियमानुसार ऋषि के दोनों हाथ कटवा लिये। तब लिखित खून से टपकते दोनों कटे हुये हाथों को लिये भाई के पास जाकर बोले—भाई, मैंने राजा से दण्ड प्राप्त कर लिया है; अब आप भी क्षमा कर दीजिये।

यह छोटी सी हृदय को हिला देने वाली घटना इस बात पर प्रकाश डालती है कि अकारण एक फल भाई के बाग़ से बिना आज्ञा तोड़ कर खाना कितना गुरुतर अपराध है, और सकारण चाण्डाल के घर से सूखा कुत्सित मांस चुराना भी अपराध नहीं प्रत्युत कर्तव्य है।

इन सब बातों के अलावा कुछ ऐसी बातों का दुरुपयोग होता रहा है जिनका यदि सदुपयोग होता तो अवश्य ही उससे जगत् का कल्याण होता। पुण्य के भागी हैं। क्योंकि वह रुपया तो उन्हीं की कमाई का है। यदि वे न कमावे तो पूञ्जी के द्वारा कोई भी धन पति रुपया कमा नहीं सकता। उस पर उन का अधिकार है। परन्तु कैसे मज़े की बात है कि वे कमाने वाले मज़दूर लोग तो कुत्तो की तरह मैले कुचैले, भूखे नंगे और संसार के सब भोगो से रहित होकर जीवन व्यतीत करते हैं और उन की कमाई को हड़पने वाले उनके रुपयों से सुनहरी दीवारो के मन्दिर बनवाते हैं—जिन में हीरे और पन्नोकी प्रतिमाएं रहती हैं।

अफसोस तो यही है कि इन स्वार्थी ठगों और लुटेरे अमीरो के दांतों में उंगली डाल कर ग़रीबो के हक के पैसे निकालने वाले अभी देश में नही पैदा होते। सेठ मोटेमल जी ने एक लाख रुपया अछूतोद्धार को दिया, उन्हें धन्यवाद है। अखबारों में मोटे हैडिंग छपते हैं। पर कोई सम्पादक यह नहीं पूंछता कि यह रुपया देने में उन्होंने कुछ त्याग भी किया है? उन्हें कुछ कष्ट भी इससे हुआ है? क्या उन्होंने अपनी रहने की कोठी बेच कर दिया है, या स्त्री के निकम्मे गहने बेच कर? या अपना अनावश्यक फर्नीचर बेच कर। हम तो देखते हैं कि सट्टे में बीस लाख कमाया। एक लाख दे दिया। वाह वाही लूट ली।

अजी, मैं यह पूंछता हूँ कि मैं डाका डाल कर, खून करके या और कोई जालसाज़ी करके कही से दश बीस लाख रुपया ले आऊं तो उसमें लाख पचास हजार रुपये दान कर देने से क्या धर्म नहीं होगा? मेरा पाप नष्ट हो होगा तो इन चालाक अमीरों के दान भी धर्म खाते नहीं समझे जावेंगे, और उन के अपराध पूर्ण आमदनी के ज़रिये कभी क्षमाकी दृष्टि से नहीं देखे जावेंगे।

बड़े बड़े व्यापारियों के यहां, कलकत्ता, बम्बई और दिल्ली में एक धर्मादा खाता होता है। वे ब्यापारी जितने रुपये का माल ग्राहकों को बेचते हैं उन से धर्मादा भी कुछ लेते हैं। यह यद्यपि उनके गांठ का नहीं होता, पर उसे स्वेच्छा पूर्वक ख़र्च करने का उन्हें पूर्ण अधिकार होता है। और आप क्या कल्पना कर सकते हैं कि यह रुपया किस काम में ख़र्च किया जाता है? वे बेईमान धूर्त अमीर उस से अपनी बेटी का ब्याह करते हैं। मरे हुये माता पिताओ का कारज करते हैं। मैंने स्वयं ऐसे उदाहरण देखे हैं। यह धन लाखों रुपयों की संख्या में एकत्र हो जाता है।

अब सत्यवादी हरिश्चन्द्र का उदाहरण लीजिये। आज तक लोग लाखों वर्ष से इस सत्यवादी राजा के दान की प्रशंसा करते, और उसकी रानी के कष्टों पर आँसू बहाते हैं। परन्तु मैं यह जानना चाहता हूं कि इस राजा को अपना समस्त राज्य एक मंगते को दे डालने का क्या अधिकार था। मुझे इससे कोई बहस नहीं कि वह मंगता श्रेष्ठ ऋषि विश्वामित्र थे—और इन्द्र के भेजे हुए उसकी परीक्षा के लिये आये थे। मैं तो इस बात पर विचार करना चाहता हूं कि क्या राजा को इस बात का अधिकार होना चाहिए कि वह चाहे भी जिसको अपना राज पाट दान करदे? फिर मंगते की इस निर्दयता की भी कहीं निन्दा नहीं की गई कि उसने दक्षिणा के लिये उसे और उसकी स्त्री पुत्र तक को बिकवा दिया। यह भी जानना चाहता हूं कि यदि मैं स्वीकार कर लूं कि राजा को ऋषि का कर्जा चुकाना ज़रूरी था—तो क्या अपनी स्त्री और पुत्र को बेचकर कर्जा चुकाना उनका धर्म था? क्या मैं इस बात को स्वीकार कर लूं कि भविष्य में जब कभी कोई निर्दयी ज़ालिम कर्जदार मेरी गर्दन पर सवार हो तब मैं अपनी स्त्री को और बच्चे को बाज़ार में बेच दूं—यही मेरा धर्म है? मेरी स्त्री और बच्चा गोया अपना कोई व्यक्तित्व ही नहीं रखते। मैं इस पुस्तक के पाठकों से पूछता हूं कि उनमें कितने ऐसे हैं जो ऐसे मौके पर इस धर्म का पालन करेंगे। अपनी स्त्री और बच्चे को बीच बाजार बेच देंगे।

राज्य राजा की सम्पति है या राष्ट्र की, इसका फैसला तो आज पृथ्वी भर की जातियां मिलकर कर ही रही हैं, शीघ्र ही लोहू की लाल नदियां एशिया और योरुप के मैदानों में बहने वाली हैं, पर वह हमारी चर्चा का विषय नहीं। मैं तो यह कहना चाहता हूँ कि राजा हरिश्चन्द्र का इस प्रकार मंगते को राज्य दान देना, और अपनी स्त्री पुत्र को बाजार में इस प्रकार बेचना—अक्षम्य अपराध है।

इस से भिखारियों के प्रति लोगों के असाधारण अधिकार के भाव उत्पन्न होगये हैं। और भिखारी भी धृष्ट हो गये हैं। मैं समझता हूँ आज हज़ारों वर्ष से भिखारी लोग राजाओं और सर्व साधारण को कर्ण और हरिश्चन्द्र के उदाहरण देकर बढ़ावा दे देकर बेवकूफ़ बनाते और ठगते रहे हैं। मैं फिर कहता हूँ देश के व्यापारी जो अपनी भयानक मशीनों और रहस्यपूर्ण बही खातों तथा पाप पूर्ण सट्टों और जुआ चोरियों के द्वारा करोड़ों रुपये कमाते और उन में से लाखों दान करते हैं; वे कभी भी धर्म के अधिकारी नही, क्षमा के योग्य भी नहीं। मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि ये व्यापारी देश के पुत्र नहीं, देश के साथ उन की कोई सहानुभूति भी नहीं। देश के दुःख के साथ उन का दुःख और देश के सुख के साथ उन का सुख भी नहीं। वे विदेशी सरकार की भांति, तस्मे के लिये भैंस हलाल करने वाले निर्दयी स्वार्थी हैं। हाल ही में रूई, घी, अन्न, सस्ते होने पर ये लोग सिर पीटने लगे और इन के पेट फट गये। ये लोग महंगाई बने रखने को सभी सद्, असद् उपाय काम में लाते रहते हैं। आज देश सरकार की स्वार्थान्धता को भी नहीं सहन करता तो इन पतली दाल खाने वालों को योंही कैसे छोड़ देगा। ये घरेलू चूहे हैं जो स्वयं क्षुद्र होने पर भी सिर्फ कुतर कुतर कर अनगिनत हानि कर रहे हैं।

ये श्रीमन्त व्यापारी केवल बड़े बड़े दान करके देशके भाई या धर्मात्मा नहीं बन सकते। इन के लाखों रुपये के ये दान पाप की कमाई का हिस्सा है। जो सट्टा, सूद, हरामीपन और ग़रीबों के पसीने से निचोड़ी हुई है। प्राचीन रजवाड़ों में राजा लोग डाकू लोगों से लूट का भाग लिया करते थे और वह रकम पाकर उन की तरफ से आंख मीच लिया करते थे। ऐसे दोनों को ग्रहण करने वाले भी उसी श्रेणी के हैं। ऐसे धनको दान करने वाले तो पापिष्ठ हैं ही, स्वीकार करने वाले भी धर्म हीन हैं। धर्मग्रन्थों में यह बात भी विचार से लिखी पाई गई है कि धर्मात्मा को किस किस का धन, अन्न, और आतिथ्य स्वीकार करना चाहिये। तेजस्वी लोग कभी अन्याई का दान और आतिथ्य नहीं स्वीकार करते। महापुरुष कृष्ण ने जिस वीरता से दुर्योधन का राजसी स्वागत और आतिथ्य अस्वीकार करके धर्मात्मा विदुर का दरिद्र आतिथ्य स्वीकार किया था, यह बात विचारने के योग्य है।

यदि कोई अमीर अपने सतखण्डे महलों को सामने खड़ा हो कर ढहा दे, या उन्हें अस्पताल बनवा दे, ठाठ बाट की चीजें, जवाहरात, ज़ेवर, जायदाद, सब सार्वजनिक सेवा में दान करदे और भविष्य में देश के साथ मजूरी करके खाय, जैसा कि देश खाता है। वैसे ही घरों में रहे जैसे में देश रहता है और निर्वाह के बाद देश के साथ कन्धे से कन्धा मिला कर सार्वजनिक कार्य करे—कटे, मरे, जिए, फले फूले, तो निस्सन्देह वह धर्मात्मा है।

राजा महेन्द्रप्रताप और दर्बार गोपालदास के दान यद्यपि राजनैतिक भावनाओ से परिपूर्ण हैं, पर वे मेरी दृष्टि में धर्म दान की श्रेणी में हैं।

भाग्यहीन दारा, जब औरङ्गजेब द्वारा पकड़ा जाकर जल्लादों के साथ एक गन्दी और नङ्गी हथिनी पर दिल्ली के बाज़ारों में घुमाया गया, जहाँ वह सदा ही हीरे मोती लुटाता निकलता था। तब एक भिखारी ने उसे देख कर इस प्रकार कहा—दारा, ओ बादशाह! तूने हमेशा ही कुछ न कुछ मुझे दिया, आज भी कुछ दे। दारा के पास कुछ न था, वह जो वस्त्र पहने था, उसे उस ने उतारा और भिक्षुक को दे दिया!!

महाभारत में एक सुन्दर कथा उल्लेख है—

जिस समय सम्राट् युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ समाप्त किया। और विश्व भर की सम्पदा को दान कर दिया, तब उन्हें कुछ गर्व हुआ और कृष्ण से कहने लगे कि महाराज! अब मैं सार्वभौम पद का अधिकारी हुआ।

भगवान् कृष्ण कुछ न कह पाये थे कि इतने में एक अद्भुत मामला हुआ। सबने देखा—एक नौला जिसका आधा शरीर सोने का और आधा साधारण है, किसी तरफ से आकर यज्ञ के पात्रों में लोट रहा है। सब लोग परम आश्चर्य से इस जीव को देखने लगे। तब कृष्ण ने कहा—हे कीटयोनिधारी! तुम कौन हो? यक्ष हो कि पिशाच, देव हो या दानव, सत्य कहो। और किस अभिप्राय से पवित्र यज्ञ पात्रों में तुम लोट रहे हो।

सब को चकित करता हुआ वह जीव मनुष्य वाणी से बोला—हे महाराज! मै न यक्ष हूँ न देव, मै वास्तव में क्षुद्र कीट हूँ। बहुत दिन हुए एक महान पात्र के अवशिष्ट जल में मुझे स्नान करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। उस पवित्र जल से मेरा आधा शरीर भीगा था, उतना ही वह सोने का होगया। मैंने सुना था कि सार्वभौम चक्रवर्ती महाराज युधिष्ठिर ने महायज्ञ किया है। मन में विचारा कि चलो मरती जाती दुनिया है—एक बार लोट कर बाकी का आधा शरीर भी स्वर्ण बना लूं। इसी इरादे से आया था, परन्तु यहां तो ढाक के तीन ही पत्ते दीखे, नाम ही था। मेरा इतने दूर का प्रवास व्यर्थ ही हुआ। मेरा शरीर तो वैसा ही रहा।

बात सुनकर युधिष्ठिर सन्न होगये। उन्होंने उत्सुकता से पूछा कि भाई, वह कौन सा महान् राजा था जिसने भारी यज्ञ किया था। दया कर उसका आख्यान सुनाकर हमारे कौतूहल को दूर करो।

नवले ने शान्त वाणी से कहना शुरू किया—"एक बार देश में भीषण दुर्भिक्ष पड़ा, बारह वर्ष तक वर्षा न हुई। पशु पक्षी सब मर गये। वृक्ष वनस्पति सब जलकर राख होगई। मनुष्यों के नर कंकालों के ढेर लग गये। वृक्षों की पत्ती, जड़ और छाल तक लोग खा गये। मनुष्य मनुष्य को खाने लगा। ऐसे समय में एक छोटे से ग्राम में एक दरिद्र ब्राह्मण परिवार रहता था। उसमें चार आदमी थे। एक ब्राह्मण, दूसरी उसकी स्त्री, तीसरा उस का पुत्र और चौथी पुत्र बधू। इस धर्मात्मा का यह नित्य नियम था कि भोजन से पूर्व वह किसी भी अतिथि को पुकारता था कि कोई भूखा हो तो भोजन करले। यह नियम इसने इन दुर्दिनों में भी अखण्ड रक्खा। भूख के मारे चारों अधमरे हो गये थे। सप्ताह में एकाध बार कुछ मिलता, पर नियम से ब्राह्मण किसी अतिथि को पुकारता। इस काल में अतिथि की क्या कमी थी? कोई न कोई आकर उसका आहार खा जाता था। एक दिन पन्द्रह दिनके पीछे कुछ साधारण खाद्य द्रव्य मिला। जब चार भाग करके चारों खाने बैठे—तब फिर उसने किसी भूखे को पुकारा और एक बूढ़े ने आकर कहा—मैं भूख से मर रहा हूँ ईश्वर के लिये मुझे भोजन दो। गृहस्थ ने आदर से उसे बुलाया और अपना भाग उसके सामने धर दिया। खा चुकने पर जब उसने कहा—अभी मैं और भूखा हूँ। तब गृहणी ने, और उसके पीछे बारी बारी से पुत्र और पुत्र बधू ने भी अपने अपने भाग दे दिये। इतने पर अतिथि ने तृप्त होकर आशीर्वाद दिया और हाथ धोकर वह अपने रास्ते लगा। वह धर्मात्मा ब्राह्मण परिवार भूख से जर्जरित होकर मृत्यु के मुख में गया। उस अतिथि ने जो अपने झूठे हाथ धोये थे। उस पानी से जो उस महात्मा का घर गीला होगया था उसमें मैं सौभाग्य से लोट लिया था। पर उस पुण्य जल में मेरा आधा ही शरीर भीगा वह उतना ही स्वर्ण का होगया। अब शेष आधे के स्वर्ण होने की कोई आशा नहीं है। आधा शरीर चर्म का लेकर ही मरना होगा।

क्षुद्र जन्तु की यह गर्वीली कथा सुनकर युधिष्ठिर की गर्दन झुक गई। और अपने तामसिक कर्म तथा गर्व पर लज्जा आई।

श्री रामचन्द्र जी, पिता की आज्ञा मान कर अपना राज्याधिकार त्याग जो वन को गये, उन के इस कार्य को मैं दृढ़तापूर्वक अधर्म घोषित करता हूँ। ज्येष्ट पुत्र होने के कारण श्रीराम का राज्य पर पूर्ण अधिकार था। श्रीराम आदर्श शासक भी होने योग्य थे। दशरथ जी की आज्ञा अनुचित थी, लोग कहते हैं कि उन्होंने केकई को वर दिया था, वे वचन बद्ध थे। मैं कहता हूँ उन्होंने श्रीराम को वचन दिया कि तुम्हारा राजतिलक होगा और वे केकई की अपेक्षा श्रीराम के प्रति अधिक वचन बद्ध थे। फिर श्रीराम का राज्यारोहण अत्यन्त सुखद, उत्तम, न्यायनीतियुक्त और उचित था। यदि दो वचनों का बराबरी का ही संघर्ष था तो उन्हें राम को दिये वचन को ही पालन करना चाहिये था। मैं कह सकता हूँ कि यह झूठ बात है कि दशरथ ने केवल प्रण के कारण ही राम को वनोवास जाने दिया। वास्तव में असल बात तो यह थी कि वे परले दर्जे के स्त्रैण और दुर्बल हृदय राजा थे। जैसे कि आज भी स्त्रियों के गुलाम बूढ़े रईस देख पड़ते हैं जो पुत्रों पर अत्याचार करते हैं। राम एक असाधारण धैर्यमय महापुरुष थे, इसलिये उन्होंने वन में भी चाहे जितने कष्ट भोगे—पर यश का ही सञ्चय किया, परन्तु यदि इतिहास को खोज कर देखा जाय तो दशरथ जैसे स्त्रियों के दास राजाओं की कमी नहीं। पूर्णमल को ऐसे हो पतित पिता ने स्त्री के वशीभूत होकर हाथ पाँव कटवा कर कुएं में डलवाया था। अशोक जैसे प्रिय दर्शी ने अपने पुत्र कुण्डाल को ऐसी ही स्त्री की दासता करके आँखे निकाल ली थीं। ऐसे स्त्रैण पुरुषों के बहुत उदाहरण हैं। दशरथ ने न तो अपने राज्य के अधिपति होने के उत्तर दायित्व पर विचार किया और न पिता के उत्तर दायित्व पर। उसने न केवल राम पर, प्रत्युत अपनी ज्येष्ठा पत्नी कौशिल्या पर भी घोर अन्याय किया। बिनाही अपराध एक ज्येष्ठ पत्नी के ज्येष्ठ पुत्र को, जिस का अधिकार था, अधिकार च्युत करके वन भेजना और कनिष्ठा और दुष्टा पत्नी के पुत्र को अनधिकार राज्याधिकार देना, दशरथ के दुर्बल हृदय का खुला उदाहरण है जिसकी अधिक से अधिक निन्दा की जानी चाहिये।

मैं यह कहता हूँ कि राम को अपने ऐसे पिता की ऐसी आज्ञा नहीं पालन करनी चाहिये थी। उन्हें दृढ़ता पूर्वक इन्कार कर देना उचित था। इस स्त्रैण वृद्ध के इस कुकर्म के फल स्वरूप फूलसी सीता को क्या क्या लांच्छनाएं और विपत्तियाँ नहीं सहनी पड़ीं? और राम को जीवन भर किन किन मुसीबतों से न टकराना पड़ा?

लोग चिउंटियों को, कीड़े मकोड़ों को आटे में गुड़ या चीनी मिला कर जिमाया करते हैं। और इसे धर्म समझते हैं। उधर बड़े बड़े वैज्ञानिक और डाक्टर लोग पृथ्वीभर से रोग कीटाणुओं को, मक्खियों को, मच्छरों को, खटमलों को, पिस्सुओं को जड़मूल से नष्ट करने पर तुले हुए हैं। मैं पूछता हूँ इन दोनो श्रेणियों मे धर्मात्मा कौन हैं? वे वैज्ञानिक और डाक्टर लोग या चिउंटियो को गुड़ शक्कर खिलाने वाले? बहुधा देखा जाता है कि म्यूनिसिपेल्टियां बन्दरों को, कुत्तों को और चूहों को पकड़ कर नष्ट किया चाहती हैं, परन्तु लोग प्रायः उसका विरोध किया करते हैं। बन्दर हिन्दुओं की दृष्टि में देवता हैं क्योकि वे सभी अंगद और हनुमान के भतीजे ठहरे, उन्होंने गढ़लङ्का फ़तह की थी। इसलिये वे मङ्गलवार के दिन बन्दरों को गुड़धानी खिलाना धर्म समझते हैं। इसी प्रकार गौ उन की माता है। उसे वे यदि उन के घर में कोई असाध्य बीमार हो जाय तो आटे के पिण्ड खिलाते हैं यह उन का धर्म है। कुत्ता भैरों जी की और चूहा गणेश जी की सवारी है, इन सब को जिमाना धर्म है। ख़ास कर काले कुत्ते को दूध पिलाना।

सर्प एक भयानक कीड़ा है। और उसका तुरन्त ही नाश कर देना उचित है, परन्तु हिन्दुओं के लिये एक देवता है, जिसकी पूजा करना और दूध पिलाना धर्म का काम है। अब मैं जानना चाहता हूँ कि विज्ञान, स्वास्थ्य कला, और सामाजिक जीवन के विरोध करने वाले ये नियम क्या बिल्कुल दया के दुरुपयोग के उदाहरण नहीं है?

मैं एक परिवार को जानता हूँ—इन्हें सनक सवार हुई है कि इनके घर में गड़ा हुआ धन है—और उसकी रखवाली सर्प देवता कर रहे हैं। मैंने देखा है—घर पुराना है और उसमें सर्प रहता है, वह सांप बहुधा घर में घूमा करता है, पर ये महाशय उसे मारते नहीं—दूथ पिलाते हैं, देखते ही हाथ जोड़ते हैं। इनके यहां एक किरायदार बुढ़िया रहती थी, दैव योग से एक दिन सर्प से उसका स्पर्श होगया। दूसरे ही दिन उसके पुत्र की सगाई चढ़ गई और यह सर्प देवता का प्रसाद समझा गया।

यही नहीं, और भी बहुत से कीड़े मकोड़े और जीव-जन्तु इसी भांति पूजे जाते हैं। अब इन धर्म के अन्धों में और वैज्ञानिकों में एक न एक दिन तो गहरी ठनेगी ही।

मेरे कहने का यह अभिप्राय है कि किसी भी कार्य या विचार की अच्छाई और बुराई उस के सदुपयोग और दुरुपयोग में है। बुराइयों का सदुपयोग धर्म हो सकता है, और भलाइयों का दुरुपयोग अधर्म। परन्तु बुराइयों का दुरुपयोग तो सदैव ही पातक और अधर्म है। यह पातक किस भांति मनुष्यों को गले तक ले डूबा है। इसका वर्णन हम अगले अध्यायों में करेंगे।