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धर्म के नाम पर/3 अन्धविश्वास और कुसंस्कार

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दिल्ली: इंद्रप्रस्थ पुस्तक भंडार, पृष्ठ ३४ से – ५५ तक

 


तीसरा अध्याय

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अन्धविश्वास और कुसंस्कार

अन्ध विश्वास धर्म की जान है, उस धर्म की जो पाखण्ड की भित्ती पर है, और जिसे आज लोग धर्म मानते हैं। इसी अन्ध विश्वास के आधार पर लोगो ने अत्यन्त भयानक कार्य किये हैं। अन्धविश्वास का दास कभी सत्य के तत्व को तो खोज ही नही पाता। यह बात आम तौर पर प्रसिद्ध है कि धर्म के काम में अक्ल को दखल नहीं है। अन्ध विश्वासी के कारण धर्म नीति से फ़िसल कर रीति पर आ गिरा है, अब वह रूढ़ियो का दास है। जव मैं वडे २ सुयोग्य विद्वानों को अन्ध विश्वास के आधार पर अवैज्ञानिक और युक्तिहीन बात करते पाता हूँ तो चित्त को क्लेश होता है। कुसंस्कार अन्ध विश्वास का पुत्र है, जो अन्ध विश्वासी हैं--उनमें कुसंस्कार की भावनाभी है ही। आज महामना मनीषि-वर मालवीय जैसे प्रकाण्ड राजनीति और समाज तथा अर्थशास्त्र के दिग्गज मेधावी पुरुष पत्थर की मूर्तियों को परमेश्वर के समान पूजते हैं, यह अन्ध विश्वास जन्य पीढ़ियों के कुसंस्कार का फल है। मुहम्मद अली और डाकटर अन्सारी जैसे दिग्गज वाणी और राजनीतिज्ञ, अजमलखां जैसे विचारशील पुरुष भी यह न घोषणा कर सके कि फरिश्तों की गप्पें मानने के योग्य नहीं। वे अन्त तक कुरान शरीफ को ईश्वर वाक्य और फरिश्तों द्वारा मुहम्मद साहेब पर उसकी बहीं आना मानते रहे हैं। बहिश्त और दोज़ख में भी उनका पूरा विश्वास है और उनकी आत्मा क़ब्र में प्रलय तक अपने कर्मों के फल की प्रतीक्षा में चुपचाप पड़ी रहेंगी, यह भी उन्हें विश्वास रहा। आज ईसाई संसार ने पृथ्वी के उच्च कोटि के वैज्ञानिक पैदा किये, पर उनके वे अन्ध विश्वास वैसे ही बने हुए हैं। एक ईसाई लड़के ने एकबार पृथ्वी कैसी है, इसके उत्तर मे कहा था—स्कूल में गोल और गिरजे में चपटी।

धर्म का आधार वास्तव में मनुष्य की भलाई बुराई के विचार पर ही है। और वे विचार भिन्न २ देशों के निवासियों की स्थिति के अनुसार अनेक भाँति के होंगे, इसलिये उन विचारों का आधार मूल प्रकृति पर नहीं, प्रत्युत शिक्षा के आधार पर होना चाहिये।

अब मैं यहां योरुप के धर्म विकास और हृास पर एक दृष्टि डालूंगा और फिर भारतीय धर्म विकार पर विचार करूंगा।

बहुत प्राचीन मौखिक कथाओं के आधार पर, जिन्हें प्राचीन धार्मिक गण सत्य मानते थे। भूमध्य सागर के द्वीपों और उसके निकट के देशों को दैवी आश्चर्यों अर्थात् जादूगरनियों, जादूगरों, भूतों, राक्षसो, पंखदार राक्षसो, भयङ्कर रूप धारियो, पङ्घधार नरसिंहो और क्रूरकर्मा दैत्यो से भर दिया था। नीला आकाश स्वर्ग था, जहां जीऊस, देवताओ से घिरा हुआ—मनुष्यों की ही भांति सभा किया करता था।

जब यूनान में जागृति पैदा हुई। और उन्हें नवीन बस्तियां बसाने और भौगोलिक अन्वेषण के चाव उत्पन्न हुए। और उन्होंने कृष्ण सागर और भूमध्य सागर में खूब चक्कर काटे तब उन्हें पता लगा कि वे सारी अद्भुत आश्चर्य की कहानियां जो उनकी अति प्रतिष्ठित पुस्तक 'आडिसी' में वर्णित हैं, वास्तव में कुछ हैं ही नहीं। वे यह भी समझ गये कि आकाश वास्तव में एक धोखा है और वहां कोई भी देवता नहीं रहता। इस प्रकार प्रसिद्ध होमर के सब यूनानी देवता और हींसियड के डोरिक देवता ग़ायब होगये। प्रारम्भ में जिन्होंने साहस पूर्वक जनता में इस अन्ध विश्वास के विरुद्ध आवाज़ उठाई, उसका खूब कड़ा विरोध किया गया। उन्हें नास्तिक कहा गया और उनमें से अनेकों को प्राण दण्ड और देश निकाला मिला, और उनकी सम्पत्ति लूट ली गई। इस अन्ध धर्म विश्वास के नाश में यूनानी तत्त्ववेत्ताओं ने बहुत सहायता दी और कवियों ने उनका खूब करारा अनुमोदन किया। एथेंस में देवी देवताओं के अस्तित्व पर विचार करते करते कुछ ऐसे मनुष्य भी होगये जो संसार को भी मिथ्या और कल्पना मानते थे।

यूनानी लोग सदैव ही गृह युद्ध में लगे रहे। परन्तु जब यूनान ने अन्धविश्वास से मुक्त होकर फारिस की आधीनता से इन्कार कर दिया तो बड़ी खलबली फैल गई। क्योंकि उस समय फारिस का साम्राज्य वर्त्तमान समस्त यूरोप के विस्तार से आधा था और वह राज्य भूमध्यसागर, ईजियन सागर, कृष्ण सागर, कैस्पियन सागर, इण्डियन सागर, फारिस सागर और लाल सागर के किनारों तक फैला था। उस राज्य में दुनिया के ६ बड़े नद बहते थे। जिन में से प्रत्येक की लम्बाई एकहज़ार मील से कम न थी। उसके राज्य की भूमि की सतह समुद्र की सतह से १३०० फीट नीचे से लेकर २०००० फुट तक ऊंची थी। इस कारण वह महाराज्य धन धान्य कृषि से भरपूर था। उस का खनिज द्रव्य भी अतुल था। वहां के बादशाह को नीडियन राज्य, असीरियन राज्य और कैलडियन राज्य के विशेषाधिकार विरासत में मिले थे, जिन के इतिहास दो हज़ार वर्ष पीछे तक का ठीक पता देते थे।

इस महाप्रतापी साम्राज्य के सामने यूरोपियन यूनान अति नगण्य था। पर जब जब यूनान से फारिस का युद्ध संघर्ष हुए, तब २ यूनानी सर्वोत्तम सिपाही प्रमाणित हुये। इन युद्धों से उन के हौसले बढ़ गये और उन्हें साम्राज्य के छिद्र मिल गये। और अन्त में यूनानी सेनाएं दुर्धष साहस से फारिस के मध्य-स्थल तक घुस गई और सफलता पूर्वक निकल भी आईं।

उन्होंने शीघ्र ही फारिस के सम्पन्न नगरों को लूटने का साहस किया जिसे फारिस की सरकार ने रिशवतों के द्वारा शान्त किया।

ऐसे ही समय सिकन्दर का जन्म हुआ। वह एक साधारण राज्य के अधिपति का पुत्र था, पहिले ही धावे में उसने थीव्स को विजय किया और ६ हज़ार निवासियों को मरवा डाला और ३० हज़ार को गुलाम बना कर बेच डाला। इस से उस की धाक बंध गई। फिर वह एशिया की ओर बढ़ा। उस के साथ ३४ हजार पैदल और ४ हज़ार सवार और ७०) रुपये थे। उसने फारिस की असंख्य सेना पर आक्रमण किया और एशिया-माइनर दख़ल कर लिया, वहाँ का अटूट ख़ज़ाना भी उसके हाथ लगा। फारिस का शाह दारा ६ लाख फौज लेकर सामने आया। पर वह हारा और उस के १ लाख सिपाही खेत रहे। इस प्रकार वह एशिया को फतह कर भूमध्य सागर की ओर बढ़ा, रास्ते के सब राज्य उसने विजय कर लिये। और समुद्र के सम्पूर्णतट स्वाधीन कर लिये। मिश्र भी उसने जय कर लिया। सिकन्दर भी अन्धविश्वास का दास था—यहाँ से वह जूपीटर-एमन के दर्शनों को गया जो वहां से दो सौ मील दूर लीविया के बलुए मैदान में था। वहाँ के देवता ने उसे देवता का पुत्र बताया जिस ने सर्प के वेष में उसकी माता को धोखा दिया था। निर्दोष गर्भ धारण और देवी देवताओं की प्रथा उन दिनों ऐसी प्रबल थी कि जो असाधारण काम करता था, अवतार समझा जाता था। यहाँ तक कि रोम में, कई शताब्दियों तक कोई यह कहने का साहस नही कर सकता था कि उस नगर के स्थापक 'रोम्युलस' की उत्पत्ति मंगल और रोसिलविया के अचानक संयोग से नहीं हुई है। प्लेटो जैसे तत्वदर्शी के चेले उन सब लोगों से नाराज़ होते थे जो प्लेटों को अपोला देवता के निर्दोष गर्भ से उसकी माता की कुमारी अवस्था में उत्पन्न होना नहीं स्वीकार करते थे। जब सिकन्दर अपने आज्ञापत्रों और घोषणाओं में अपने को 'सिकन्दर वल्द जूपीटर एमन' लिखकर प्रकाशित करता तो एशिया के निवासियों पर उसका ऐसा प्रभाव पड़ता कि वे उसके विरुद्ध कुछ भी नही कर सकते थे। उसकी माता हंसी में बहुधा कहा करती थी कि सिकन्दर मुझे जूपीटर की जोरू न बनाया करे तो अच्छा है।

परन्तु सिकन्दर ने अपनी अल्पावस्था में जो कार्य किये वे कम आश्चर्यजनक न थे। हेलेस्पोट को पार करना, ग्रेनीकस ज़बर्दस्ती ले लेना, विजित ऐशिया माइनर का राजनैतिक प्रबन्ध करते हुए शीतकाल व्यतीत करना, दक्षिण और केन्द्रस्थ भाग को सेना का भूमध्य सागर के किनारे किनारे सफर करना। टायर के घेरे मे बहुत सी शिल्प सम्बन्धी कठिनाइयो का निवारण करना, गाजानगर को तोपों से उड़ा देना, फारिस का यूनान से पृथक् हो जाना, भूमध्य सागर से फारिस की जल सेना को बिल्कुल निकाल देना, फारिस के उन उद्योगों को रोक दिया जाना, जिन से वह एथेन्स निवासियों और पार्टी के निवासियों से मिल कर षड्यन्त्र रचता था—या रिशवत देता था, मिश्र को आधीन कर लेना, कृष्ण सागर और लाल सागर की सम्पूर्ण सेनाओं का मेसोपोटानिया के रेतीले मैदानों की ओर एकाभिमुख होना, थप्लैक्स के टूटे पुल पर से लम्बे बैतों से पूर्ण किनारे वाली फ्रात नदी को ससैन्य पार कर लेना, हिगरिस नदी को पार करना, अरबेला के बड़े और महत्वपूर्ण युद्ध और पहिली रात मे युद्ध क्षेत्र का निरीक्षण करना, फिर ठीक युद्ध के समय में तिरछी चाल चलना, और शत्रु के मध्य भाग को छेद जाना, दारा को विजय करना—ये सब ऐसे अलौकिक काम थे कि उस समय तक किसी सैनिक ने नहीं किये थे।

इन उदाहरणों से आप देखेंगे कि यूनान को अन्धविश्वासों के दूर होने पर बहुत सी चुस्ती प्राप्त हुई। इस बड़े विजेता के साथ यूनानियो ने डैन्यून से गङ्गा तक का सफर किया, कृष्ण सागर के उस पार वाले देशों की उत्तरी वायु के झोके खाये। मिश्र की 'वादे समूम' के थपेड़े सहे, मिश्र के वे मीमार देखे जो दो हजार वर्षों से खड़े थे। लक्सर के गूढ़ाक्षर वलित स्तम्भ और भेदपूर्ण स्त्रीमुख और सिंह शरीर दानवों की कुञ्ज देखी और उन महाराजों की विशालाकार मूर्तियां भी देखीं जिन्होने संसार के आदि भाग में राज्य किया था। वैवलीन का वह नगर कोट भी तब तक शेष था जिस का घेरा ६० मील से अधिक था। और तीन शताब्दियों से विदेशियो के उपद्रव सहकर भी अभी तक ८० फीट से अधिक ऊंचा था। उन्होंने वह आकाशचुम्बी 'येल' मन्दिर का भग्न अंश भी देखा था जिसकी चोटी पर येलशाला थी। जहाँ से इन्द्रजाली कैलडियन ज्योतिषी रात को नक्षत्रों से बातचीत किया करता था। उन्होंने आकाश में लटकते हुए बाग़ भी देखे थे और उस पानी की कल का भी टूटा भाग देखा था जो नदी से उन वृक्षों तक पानी पहुंचाता था। उन्होंने उस असाधारण कृत्रिम झील को भी देखा जिसमें आरमिनिया के पहाड़ों का बर्फ पिघल पिघल कर आता था, और फ्रात नदी के वंधान से रुककर सारे शहर में बहता था।

इन सब दिग्दर्शनों ने उन मेधावी पुरुषों के मस्तिष्क में वह शक्ति उत्पन्न की जिसके कारण इन्होंने आगे चलकर अलग्ज़ेण्ड्रिया में गणित और व्यवहारिक विद्या की पाठशालाऐं खोलीं। और यूनान ज्ञान का केन्द्र होगया।

सिकन्दर के इस युद्ध संघर्ष में एक बात और भी थी, फारिस वाले सदैव ही यूनानियों के मूर्ति पूजनकों को आश्चर्य की दृष्टि से देखते थे, और जब भी उन्हें आक्रमण करना होता था—वे उनका निरादर करने मे नहीं चूकते थे। फारिस मे भी अनेक प्राचीन राज्यों की भाँति अनेक धर्म प्रचलित हुए, पहिले वहाँ जरदुस्त का चलाया हुआ अद्वैतवाद रहा, पीछे वे द्वैतवादी हुए, फिर मैजियन धर्म चला, सिकन्दर के आक्रमण के समय फारिस एक ईश्वर ही को सर्वव्यापी शक्तिदाता मानता था।

यूनान मे तत्त्व ज्ञान के आधार पर नीच अश्लील चरित्र आलम्पियन देवताओं की मूर्तियां पूजी जाने लगी थी। मैजियन धर्म मे, अग्नि, ईश्वर का सर्वोत्तम प्रतिनिधि समझी गई। और वह सदैव खुले मैदानो मे जलती रहती थी। सिकन्दर की मृत्यु पर अरस्तु का तत्वज्ञान जो आनुमानिक न्याय के आधार पर था शक्तिमान हुआ और उस से बहुत सी वैज्ञानिक उन्नतियाँ हुईं। यूनान में—इतिहास, विज्ञान, अर्थ-शास्त्र, समाज शास्त्र और ज्योतिष मे खूब अन्वेषण हुआ।

ईसाई धर्म रोमन राज्य की दी हुई वस्तु है। भूमध्य सागर के इर्द गिर्द की सब स्वतन्त्र जातियां उस केन्द्रस्थल राज्य के आधीन हो चुकी थीं। वह विजित जातियों की मूर्त्ति पूजा को घृणा सूचक सहन शीलता से देखता रहा। पर देवताओं की भावना मे एक विचित्रता रही, पूर्वी जगत् में देवता स्वर्ग से उतरते थे और मानव शरीर धारण करते थे। पश्चिमी जगत् मे वे पृथ्वी से ऊपर चढ़ते थे और देवताओं से जा मिलते थे। पुरानी मौखिक कथाओं के आधार पर यहूदियों का ऐसा विश्वास था कि उन्हीं की जाति मे एक बचाने वाला पैदा होगा। ईसाके शिष्यों ने ईसा ही को मसीहा बताया, परन्तु पुरोहितों ने उसका विरोध किया। क्योंकि वह उनके स्वार्थों के विपरीत बोलता था। अन्त मे रोमन गवर्नर ने उसे सूली पर चढ़ा कर मरवा दिया। परन्तु उसके मानवीय भ्रात भाव के सिद्धान्त सर्व प्रिय होते ही गये। शीघ्र ही उसके शिष्यों की एक जाति बन गई। और चर्च की स्थापना हुई। यह धर्म धीरे धीरे साईप्रस, यूनान और इटली तक पहुँच कर फ्रान्स और इंग्लैण्ड तक पहुंच गया। बहुत समय तक यह धर्म तीन बातों का प्रचार करता रहा—१. ईश्वर भक्ति, २. पवित्र जीवन, ३. परोपकार।

रोमन सम्राटों ने इस धर्म को दबाने के लिए बड़े बड़े अत्याचार किये। उनका वर्णन हम ने अन्यत्र किया है। यहां हम इतना बता देना चाहते हैं कि मसीह के बाद भी ऐसे धर्म ग्रन्थों का निर्माण होता रहा। जिन में भूत प्रेत आदि का ज़िक्र था। कुछ लोगों को जादूगर होने के सन्देह में जिन्दा जला दिया गया या फांसी देदी गई। उस समय तक भी ईसाई लोग मूर्त्ति की पूजा ठाट बाट से करते थे, धीरे धीरे पुजारियों के अधिकार बढ़ने लगे थे। उनकी मृत्यु पर उनकी समाधि पर गिर्जा बनाये जाते थे। व्रत करना शैतान को भगाने का और अविवाहित रहना नेकी का ठीक उपाय समझा गया था। क़ब्रों की यात्राएं होती थीं, पवित्र जल की महिमा बढ़ गई थी। पुजारी लोग भी देवताओ की भांति पूजे जाते थे। मृतात्माएं मन्त्रों के बल से बुलाई जाती थी और वे संसार भर की ख़बरें जानती थीं। साधुओं की क़ब्रों की मिट्टी और उनके वस्त्र तक पुजने लगे थे। पुरोहितों का पाखण्ड दिन दिन बढ़ने लगा था, वे धूम धाम से गाजे बाजे के साथ सवारी निकलवाते, धार्मिक अवसरों पर कोड़े लगवाते, सिर मुण्डाते, मठो मे रहते और मिथ्या विश्वासों को जन साधारण में उत्पन्न करते थे। इन मूर्त्ति पूजकों में बहुत से प्राचीन उच्चवंश के लोग सम्मिलित थे। उनका दावा था कि मनुष्य के जानने योग्य सब कुछ उनकी धर्म पुस्तकों में है।

धीरे धीरे इन में दूसरा दल उत्पन्न हुआ और वह मानवी बुद्धि पर धर्म की बातों को तोलने लगा। दोनों दलों में पूरी मुठभेड़ हुई। परन्तु पुराने पादरियों की शक्ति इतनी बढ़ गई थी कि उनका धर्म राजनैतिक धर्म हो गया था और उन्हें राज्य की सहायताएं प्राप्त हो गई थीं। इन दिनों पशुओ के बलिदान भी होते थे।

उन दिनों सिकन्दरिया में हिमैशिया एक प्रसिद्ध तात्त्विक स्त्री रहती थी। उसने अफलातून और अरस्तू के सिद्धान्तो की बड़ी गहन विवेचना की थी और रेखागणित में बड़ी योग्यता प्राप्त की थी—उसके घर के सामने उसकी व्याख्या सुनने को ऐलेग्जेन्ड्रिया के अनेक धनीमानी सदैव ही बसे रहते थे। उस विदुषी को साइरिल नामक पादरी ने अपने मठवासी लोगों की सहायता से सड़क पर पकड़ लिया, उसे नंगी करके वे गिरजे में ले गये और वहाँ वह पीरदी रीडर के लठ से वह मार डाली गई। और उसकी लाश के टुकड़े २ करके उसका मांस सीपियों से खुरोचकर आग में डाल दिया गया। इस भयानक हत्या का उस पादरी से कोई जवाब नहीं तलब किया गया।

इस घटना के बाद यूनान का रहा सहा तत्त्वज्ञान भी सदा को सो गया। और यह घोषणा कर दी गई कि प्रत्येक मनुष्य वैसे ही विचार रक्खे जैसे सन् ४१४ में पादरी ने वर्णन किये हैं।

इसी समय एक अंग्रेज़ सन्त पश्चिमी योरोप और उत्तरी अफ्रीका में घूम रहा था। उसका नाम पिलैजियस था, उसने प्रचार किया कि मनुष्य की मृत्यु आदम के पाप के कारण ही नहीं होती जैसा कि बाइबिल में लिखा है—प्रत्युत् वह अवश्य भावी और प्राकृतिक है। अगर कोई पाप न करे तो भी उसे मरना पड़ेगा। वह यह भी कहता था कि मनुष्य स्वयं ही अपने पाप पुण्य का जिम्मेदार है उसका पुत्र नहीं।

उसका यह कहना अपराध ठहराया गया और उसे उसका सर्वस्व छीन कर देश निकाला दे दिया गया। परन्तु लोगों ने इस प्रश्न पर विचार करना शुरू कर दिया कि मृत्यु इस संसार में आदम के पतन से पहिले थी या नहीं। इसी बीच में प्रसिद्ध साधु अगस्टाइन उत्पन्न हुआ और उसके धर्म और विज्ञान में ऐसा विरोध उत्पन्न किया कि लगभग १५०० वर्ष तक धार्मिक लोग उसके वचनों पर श्रद्धा करते रहे। अब ईसाई पादरियों की धन समृद्धि बहुत बढ़ गई थी। क्योंकि राजकीय आय में से एक बंधी रकम धर्म कार्यों के लिये मिलती रही थी।

अब ईसाइयों के ३ बड़े २ केन्द्र थे—रोम, सिकन्दरिया और कुस्तुन्तुनिया। तीनों ही केन्द्रों के विषय अपना सर्व श्रेष्ठ पद प्रमाणित करते थे। इस समय ईसाइयों के स्वर्ग की खूब चर्चा थी। वह स्वर्ग प्राचीन ओलम्वियन पहाड़ था, वहाँ एक श्वेत सिंहासन पर ईश्वर बैठता था और उसकी दाहिनी ओर उसका पुत्र मसीह और उसके बाद खूब सजीधजी कुमारी मरियम। बाईं ओर पवित्रात्माएं होती थीं। चारों ओर बहुत से फरिश्ते बीणा लिये बैठते थे। सामने असंख्य मेज रहती थीं जिनपर अच्छी आत्माएँ सदा मौज उड़ाया करती थी।

इस वर्णन में सैकड़ों वर्ष तक किसी को सन्देह न हुआ। इन्हीं दिनो कुस्तुन्तुनिया के सम्राट ने एक बिशप को कुस्तुन्तुनिया के विषय का पद दिया। इसका नाम नेस्टर था। यह सन् ४२७ की बात है, उसने साहस पूर्वक मनुष्याकृति ईश्वर को मानने से इन्कार कर दिया—और अविनाशी निराकार ईश्वर का प्रचार करना प्रारम्भ किया। वह अरस्तू के सिद्धान्तों को अध्ययन कर चुका था। सिकन्दरिया के साइरससे उसका झगड़ा होगया, यह वही साइरस था जिसने हियेशिया को मार डाला था। परन्तु नेस्टर ने उसकी परवाह न की और वह धड़ल्ले से निराकार ईश्वर की सिद्धि पर व्याख्यान देने लगा। अन्त में कुस्तुन्तुनिया में विद्रोह फैल गया। यह इतना बढ़ा कि सम्राट को दखल देना पड़ा। उसने एक सभा बुलाई। जिसमें साइरस जा धमका, उसके साथ बहुत से गुण्डे थे—और उसने घूस देकर राज्य कर्मचारियों को मिला लिया था। यहाँ तक सम्राट की बहिन भी उसी के पक्ष में थी। वह स्वयं ही सभापति बन गया और सीरिया के धर्माध्यक्षों के पहुँचने के पूर्व ही उसने राजाज्ञा सुना दी। नेस्टर का उत्तर सुनने से पूर्व ही उसे दण्ड दे दिया गया। सीरिया के धर्माध्यक्षों ने बहुत विरोध किया। वहाँ दंगा भी होगया और बहुत कुछ रक्तपात हुआ। अन्त में नेस्टर को देश निकाला दिया गया, और उसे जीवन भर कष्ट दिया गया। उसके मरने पर यह मशहूर किया गया कि उसकी जीभ में कीड़े पड़ गये थे। चूंकि उसने ईश्वर की निन्दा की थी। सिन्धु नदी को पार करके सिकन्दर का भारत में घुस आना धार्मिक दृष्टि से दोनों प्राचीन जातियों के विचार विनिमय का एक जबर्दस्त कारण होगया। भारत ने भयानक कष्ट देने वाले देवताओं को उन लोगों से पहचाना और तन्त्र ग्रन्थों की सृष्टि की आगे चलकर तान्त्रिकों के उपद्रव देश भर में फैल गये। प्राचीन भारतीय देवताओं और आत्मवाद की छाया यूनान में अरस्तू लेगया। जिससे यूनान में तत्त्वदर्शन की बड़ी भारी उन्नति हुई और रोमन सभ्यता में भी उसका बड़ा भारी स्थान रहा।

परन्तु भारतवर्ष में तान्त्रिक लोगों ने अन्ध विश्वास की जड़ें पाताल तक फैला दीं। कापालिक लोग उस समय दर बदर फिरा करते थे, और मरघट में वे कुत्सित जीवन व्यतीत करते तथा उन्हें लोग अलौकिक शक्ति सम्पन्न आदमी समझते थे। पृथ्वीराज रासों में ऐसे तान्त्रिकों का और उनके दर बदर फिरने का बहुत ही ज़िक्र है।

परन्तु अन्धविश्वासों को तो सब से बड़ा सहारा योग के चमत्कार से मिला। आज भी लाखों मनुष्य योग की विभूतियों पर भारी श्रद्धा करते हैं। मैं दृढ़ता पूर्वक कहता हूं कि योग की विभूतियां और सिद्धियां बिलकुल असाध्य और अव्यवहार्य हैं। और मैं विश्वास नहीं करता कि कभी भी पृथ्वी पर कोई ऐसा मनुष्य हुआ होगा कि जो उन विभूतियों से जानकार होगा। मनुष्य का मच्छर होजाना, या पर्वताकार हो जाना, लोप हो जाना, आकाश में उड़ना, दूसरी योनियों में चला जाना, मर कर भी जी उठना बिलकुल गप्प, झूंठ, असम्भव और ढकोसला हैं। यहाँ योगशास्त्र पर मैं और भी गम्भीर दृष्टि डालूंगा। प्रथमतो यह विचारना चाहिये कि योगशास्त्र का निर्माता पतञ्जलि ऋषि कोई अति प्रसिद्ध बड़ा भारी ऋषि नहीं। उसका जन्म पाणिनी के पीछे का है क्योंकि उसने पाणिनी की अष्टाध्यायी पर भाष्य किया है। पाणिनी का जन्म काल मसीह से ३०० वर्ष पूर्व के लगभग है। यह वह समय था जब देश के धर्म में अन्धकार की भावना फैल गई थी। और ब्राह्मणों का देश में जोर था, बड़े बड़े यज्ञ होते थे। अनुष्ठानों और क्रियाओं का बड़ा महत्त्व था। यूनानी लोगों का भारत में नया संस्पर्श हुआ था। और उनसे भारतीयों ने अद्भुत अद्भुत देवताओं, घटनाओं और आश्चर्य की बातें सुनी थीं। पतञ्जलि ने इन सब को हृदयंगम किया और योग-दर्शन लिखा। पतञ्जलि स्वयं योग का ज्ञाता था और उसे वे सारी सिद्धियाँ आती थीं, इसका कुछ भी प्रमाण देखने को नहीं मिलता। न इस बात का ही कोई प्रमाण हमें देखने को मिलता है कि पतञ्जलि से पूर्व किसी भी ऋषि ने इस प्रकार की सिद्धियों की चर्चा की हो, या उन्हें सम्भव माना हो। वास्तव में वह एक रहस्य पूर्ण ढङ्ग से लिखी हुई एक और ही उद्देश्य की पूर्ति की पुस्तक है। उस का उद्देश्य केवल सांख्य के बुद्धिगम्य विषयों को अनुभविक ढङ्ग से व्यक्त करना था। जो चमत्कारिक तो था, व्यवहारिक नहीं।

इस योग-दर्शन के निर्माण के बाद पैशाची भाषा के कुछ ग्रंन्थों में, जिनका मूल उद्गम भी मध्य ऐशिया की जातियों के संसर्ग से था बड़ा प्रभाव पड़ा। पुराणों में जो असंख्य बुद्धि विपरीत बातें हमें देखने को मिलती हैं वे सब इसी की बदौलत गढ़ी गई हैं। और योग—तन्त्र मंत्र, जादू टोने, टोटके की बदौलत आज भी लाखों लोग भेट भर रहे हैं। दो चार उदाहरण देकर हम इस अध्याय को समाप्त करेंगे।

एक बार मैं रुग्ण हो गया था। रक्त की बहुत कमी हो गई थी और अनिन्द्र रोग भी था। उन्हीं दिनों एक योगीराज दिल्ली आए हुए थे। उनकी बड़ी धूम थी। वे सूर्य पर बदली ला देते हैं, अदृश्य हो जाते हैं, और देखते देखते बालरूप धारण कर लेते हैं तथा और भी अद्भुत क्रियाऐं जानते हैं, यह बात अखबारों तक में छप गई थी। मेरे एक मित्र उन्हें मेरे पास पकड़ लाए—उनका कहना था कि योगिराज दृष्टिमात्र से ही उन्हें आरोग्य कर देंगे। नगर के दो प्रतिष्ठित बैरिस्टर और एक डाक्टर साहेब सदैव ही योगिराज के साथ घूमते थे। योगिराज को देखते ही मैं तुरन्त पहचान गया। वह महाविद्यालय ज्वालापुर का एक चलता पुर्जा विद्यार्थी था, परन्तु मैंने ऐसा भाव दिखाया मानों मैंने उन्हें बिल्कुल नहीं पहिचाना। वे बड़ी गम्भीरता से बैठ गये। मूछें मुण्डी हुई, घूघर वाले बाल लहराते हुए, मांग निकली हुई। बढ़िया तंज़ेब का कुरता और पीतल की पच्चीकारी के काम की खड़ाऊं पहिने, रेशमी धोती लपेटे हुए पान कचरते हुए कुर्सी पर डट गये।

मैंने कहा—महाराज, कहाँ से पधारना हुआ। "हम मान सरोवर में ध्यानस्थ थे।"

"कितने वर्षों से?"

"बहुत काल से, लगभग २५ वर्ष हुआ होगा, अधिक भी हो सकता है!"

"आपकी आयु क्या है?"

"आप क्या अनुमान करते हैं?"

"यही २०, २५ वर्ष।"

योगीराज जोर से हंसकर बोले—हम १०० के पेटे मे हैं। परन्तु अभी तो हमारी किशोरावस्था ही है। पूर्ण युवा नहीं हुए हैं।

मैने मन की हंसी दबा कर कहा—

"बालों में तेल कौनसा डालते हैं?"

"हमने पचासों वर्षों से तेल नहीं डाला। बाल स्वयं शरीर से चिकनाई खीच लेते हैं।"

इस के बाद उन्होंने अंग्रेजी मिश्रित हिन्दी में बीच बीच में एकाध टुकड़ा श्लोक बोलते हुए योग की व्याख्या और चमत्कार कैसे प्राप्त किये जाते हैं इस का विवेचन करना शुरू किया। अन्त में दृष्टिमात्र से हमारा रोग अच्छा कर देने का वचन भी दिया। परन्तु दृष्टि में बल लाने को साधना करनी होगी। क्योंकि कई सिद्धियां दिखाने के कारण उनका बल खर्च होगया था। बहुत सी बात सुन कर अन्त में मैंने हंस कर कहा—ख़ैर यह तो हुआ। अब आप यह तो कहिये आपकी माता जी प्रसन्न हैं? और बहिनों का विवाह हुआ या नहीं?

योगीराज एकदम आकाश से गिरे। बोले, क्या आपका हमारा कुछ और भी परिचय है।

मैंने कहा—यार, क्यों पाखण्ड करते हो, अभी पं॰ भीमसेन जी के डण्डों के निशान पीठ पर होंगे। सुनते ही हंस पड़े, लिपट गये। और सब रोना रोया। माता मर गई। एक बहिन विवाह दी गई। दूसरी के विवाह की चिन्ता है। रुपये की फिक्र है। आदि २।

अन्धविश्वास के द्वारा बच्चों मे भूत प्रेत के कुसंस्कार भी जमा दिये जाते हैं। और वे सदैव डरपोक बने रहते हैं। एक वीर जो तोपों की गर्जना और बरसती गोलियों में निर्भय खड़े रहते थे और सेना के उच्च पदस्थ थे, रात को पेशाब करने जब उठते तो किसी सेवक को जगा कर साथ ले लेते थे।

एक पागल हमें देखने को मिला जो मौनी बाबा के नाम से प्रसिद्ध था। यह व्यक्ति एक बार किसी मन्त्र को जगाने मरघट में गया था। वहाँ धरती में एक कील ठोकी। दैव योग से वह कील उस के अंगरखे के पल्ले के साथ गड़ गई थी। जब वह उठकर चलने लगा। पल्ला कील में अटक ही रहा था। बस चिल्ला उठे, समझे भूत ने पकड़ लिया। बेतहाशा भागे। तब से मस्तिष्क में ऐसा विकार आया कि चुप हो गये। २५ वर्ष तक उसी दशा में रह कर मर गये। हमने उन्हें देखा था। यह दशा थी—जहाँ खड़ा करदो जड़वत् खड़े रहते थे। और जिधर उनका कोई अड्ग करदो वैसा ही बना रहता था। बहुधा लोग उनके मुंह में लड्डू दे देते थे। वह घन्टो वैसा ही धरा रहता था। लोग उन्हें सिद्ध समझ कर पूजा करते थे।

अन्धविश्वास और कुसंस्कारों ने ही करोड़ों हिन्दुओं को मूर्त्ति पूजा के कुकर्म में फांस रक्खा है। पढ़ लिखकर भी, समझदार होकर भी वे उस से विमुख नहीं हो सकते। बहुत लोग स्वप्नों पर बड़ा विचार किया करते हैं। अमुक स्वप्न देखने से अमुक फल होगा। एक बार राजा जमोरिन ने एक स्वप्न देखा। कि चन्द्रमा के दो टुकड़े हो गये हैं—राजा ने उसका अर्थ दर्बारियों से पूंछा, परन्तु वे ठीक ठीक उत्तर न दे सके। उन्हीं दिनों कोई अरब के व्यापारी वहाँ आये थे। राजा ने उनसे भी स्वप्न का हाल कहा—उसने अंट संट बता दिया। राजा मुसलमान हो गया। और उसके वंशधर आज भी मोपला हैं।

स्वप्नों की चर्चा महाभारत, भागवत, पुराण आदि में बहुत है। कुछ ऐसी कथाएं भी हैं कि स्वप्न में देखी स्त्रियों से और स्थानों से जागृत होकर भी कुछ राजा मिल सके हैं। वीर विक्रमादित्य की कहानियों में इस प्रकार की बातों का खूब उल्लेख है। फलतः पढ़ने वालों पर उसका बुरा प्रभाव पड़ता है।

शकुन भी अन्धविश्वास की खास चीज़ है। मुगल बादशाहों को शकुन देखने का ख़ब्त सवार था। वे बिना शकुन मुहुर्त दिखाये कोई काम करते ही न थे।

बिल्ली का रास्ता काट जाना, कौवे का बोलना, काने आदमी का सामने मिलना, गीदड़ का रोना, खाली घड़े लेकर किसी स्त्री का सामने आना, किसी का छींकना ये सब अशुभ बातें मानी जाती हैं। कुछ लोग तो इतने अन्धविश्वासी होते हैं कि वे इस क़दर भयभीत हो जाते हैं कि बहुधा उनके प्राण निकल जाते हैं।

इसी प्रकार की एक मज़ेदार घटना है कि किसी देहाती लाला को किसी देहाती ज्योतिषी ने कह दिया कि जिस दिन तुम्हारे मुंह से खून निकलेगा तुम मर जाओगे। एक दिन लाल रंग का डोरा उसके मुंह में कहीं से लिपट गया। उसे देखते ही वह भयभीत होकर समझ बैठा कि मृत्यु आ गई। वह दूकान बन्द करके घर आया। घर दूर था, और गर्मी की ऋतु थी, पसीने से तर होगया। स्त्री से कहा—जल्द खाट बिछादे और लड़के को स्कूल से बुलाले—मेरा अख़ीर वक्त आगया है। स्त्री ने शरीर देखा ठण्डा बर्फ हो रहा था उसने रोकर कहा—अरे तुम तो बिलकुल ठण्ढे हो रहे हो। अब उसे और भी मृत्यु पर विश्वास होगया। वह जल्द जल्द सांस लेने और लेन देन का हिसाब बताने लगा।

लड़का समझदार था—स्कूल से आया और देखकर बोला—पिताजी, आपमे मरने के कोई लक्षण नहीं। आप कैसे मरते हैं। उसने कहा—गधे, हमारे मुंह से आज ख़ून निकला था नहीं? लड़के ने देखकर कहा—कहाँ? यह तो लाल धागा दांतों से लिपट रहा है।

यह सुनते ही लाला खुशी से उछल पड़े। बेटे को छाती से लगा लिया और कहा—बस इसी ने इस वक्त जान बचाई है। इसके बाद खाना खाकर फिर दूकान पर जा डटे।

इस अन्ध विश्वास के चक्कर में फंसकर हमने बहुत कष्ट झेले हैं। परन्तु कही भी कुछ परिणाम देखने को नहीं मिला। एक बार एक व्यक्ति के कहने से २१ दिन अन्न जल त्याग अखंड जप दुर्गा का किया। उस व्यक्ति ने कहा था, साक्षात् दुर्गा दर्शन देगी। पर दुर्गा की दासी ने भी दर्शन नही दिये। एक बार कण्ठ तक जल में कठोर शीत ऋतु में लगातार ४१५ घण्टे प्रतिदिन ३ मास तक खड़े रहकर मृत्युंजय और गायत्री का जप किया, परन्तु हमें उससे कुछ भी सिद्धि न प्राप्त हुई। और भी बहुत से कष्ट साध्य और अद्भुत अनुष्ठान हमने किये। और हम दावे से कह सकते हैं, ये सभी झूठे और पाखण्ड पूर्ण निकले।

हाल ही में मेरे एक मित्र हैदराबाद दक्षिण से आये। दो चार दिन बाद ही उनके घर से जल्द आने का तार आ गया। वे अपने नवजात शिशु को रोगी छोड़ आये थे। उसी की चिन्ता ने उन्हें धर घेरा। बारम्बार उसी बच्चे की अशुभ कल्पना उनके मन में उठने लगी। तार देकर पूछा कि क्या हाल है, पर जवाब का सब्र न था, एक नामी ज्योतिषी के पास गए, ग्रह दशा दिखाई और उन्होंने रंग ढंग देख पितलाया सा मुंह बनाकर कहा—बच्चे पर घोर संकट है, छाती में क़फ का रोग है, १३ तारीख़ तक बुरी दशा है। बचना कठिन है। उस कुसमाचार को संशोधन करके उन्होंने मुझे सुनाया कि उसे डबल निमोनिया हो गया है। विवश उन्हें विदा किया गया। वहाँ पहुँचकर उन्होंने खत लिखा—बच्चे को देखने की आशा न थी, भूखा प्यासा स्टेशन पर उतरा, पागल की भाँति तांगे में बैठकर घर पहुँचा, देखता क्या हूँ छोटे साहब माता की छाती से लगे दूध पी रहे हैं। देखते ही दोनों हाथ उठाकर हंस पड़े। अब दिलको तसल्ली हुई। चले आने का अफसोस है।

कहिये! इस अन्ध विश्वास का और कुसंस्कार का भी कुछ ठिकाना है। सारी पृथ्वी की जातियों में एक से एक बढ़कर कुसंस्कार फैले हुये हैं। और विज्ञान अभी तक उन्हें दूर करने में बिल्कुल असमर्थ है।