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धर्म के नाम पर/8 कुरीति और रूढ़ियां

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धर्म के नाम पर
आचार्य चतुरसेन शास्त्री

दिल्ली: इंद्रप्रस्थ पुस्तक भंडार, पृष्ठ ११५ से – १४४ तक

 
 

आठवां अध्याय
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कुरीति और रूढ़ियां

ग़ुलाम और नामर्द क़ौमें हमेशा कुरीतियों और रूढ़ियों की दास हुआ करती हैं। हिन्दू जाति में भी इन दोनों चीजों की कमी नहीं। ये दोनों ही बातें अन्य जङ्गली और पतित जातियों के समान हिन्दुओं में धर्म विश्वास पर ही निर्भर हैं।

प्रत्येक जाति के जीवन का आधार प्रगति शीलता है, जिसमें प्रगतिशीलता नहीं—वह जाति ज़िन्दा नहीं रह सकती। हिन्दू जाति की प्रगति कब की नष्ट हो गई है। अब वह जाति केवल मौत की सांस ले रही है। सनातन धर्म हमारी आत्मा में रम गया है और हम उसी गढ़े का सड़ा हुआ ज़हरीला पानी पी पी कर मर रहे हैं जिसमें नये जल के आनेका कोई सुभीता ही नहीं है। यह सनातन धर्मदो हज़ार वर्ष से पुराना नहीं। पुराना होने पर भी मान्य नहीं। मैं इस सिद्धान्त को मानने से इन्कार करता हूँ कि जो कुछ पुराना है वह सब शुभ और माननीय है। मेरा कहना यह है कि जो कुछ हमारे लिये बुद्धि गम्य और शुभ है, वही हमारे लिये माननीय है। और धर्म तथा जातियाँ तो वही जिन्दा रह सकती हैं—जो समय के अनुकूल अपनी प्रगति को तत्कालीन बनाये रक्खें।

हमारी सब से भयानक कुरीति हिंदुओं की विवाह पद्धति है। इस प्रथा की आड़ में अनगिनत पाप, पाखण्ड, अपराध और अन्याय धर्म के नाम पर किये जा रहे हैं।

विवाह का मूल उद्देश्य स्त्री पुरुष का परस्पर आत्म भावना का नैसर्गिक विनिमय है। जिस के आधार पर प्रकृति का प्रवाह चल सकता है। स्वभाव ही से स्त्री पुरुष दोनों मिल कर एक सत्त्व बनता है। अतः समय पर उपयुक्त स्त्री पुरुषों का परस्पर सहयुक्त होना आवश्यक है।

परन्तु यह सहयोग वैज्ञानिक भित्ती पर है। इसका सब से मोटा उदाहरण तो यही है कि सपिण्ड और सगोत्र स्त्री पुरुष संयुक्त नहीं हो सकते। यह बहुत गम्भीर और वैज्ञानिक बात है कि भिन्न रक्त और वंश को मिला कर सन्तानें उत्पन्न की जाये। परन्तु वह विज्ञान तो प्रायः नष्ट कर दिया गया है।

विवाह की प्रथा में सब से ज़्यादा बेहूदा और अधर्म की परिपाटी 'कन्यादान' की परिपाटी है। पिता कन्या को वर के लिए दान देता है। हिन्दू विवाह में यह सर्वाधिक प्रधान बात है। मैं यह कहता हूँ कि कन्या अपने पिता की मेज, कुर्सी या कलम, दावात नहीं, उसकी ख़रीदी हुई सम्पत्ति भी नहीं, मकान, दुकान या जायदाद भी नहीं, सोना चाँदी या अन्न भी नहीं—फिर उसे कन्या को दान करने का किस ने अधिकार दिया? क्या कन्या के कोई आत्मा नहीं? वह जीवित नहीं? उसे अपने लाभ हानि पर, जीवन की समस्या पर विचार करने का ज़रा भी अधिकार नहीं? शोक तो यह है कि आर्य समाज की पुत्रियाँ भी विवाह के अवसरों पर पिताओं द्वारा दान की जाती हैं। आर्य समाज अपने को वैदिक धर्मी होने की डींग तो हाँकता है पर मैं डंके की चोट उसे चैलेंज देता हूँ कि वह साबित करे कि कन्या दान का विधान कौन से वेद मन्त्र में है? वेद में तो साफ़ ये शब्द मिलते हैं कि:—

'ब्रह्मचर्येण कन्या युवानं विन्दते पतिम्'

सनातन धर्मियों के विवाह की अपेक्षा मुझे आर्य समाज के विवाह ज़्यादा भ्रष्ट और बेहूदे प्रतीत होते हैं। और मैं उन्हें कदापि नहीं सहन कर सकता। सनातन धर्म को कन्याऐं—बालक, अभागिनी, अबोध, मूर्खा, और पिता की सम्पति होती हैं। पिता वर का स्वागत करता है, आसन देता है, गोदान करता है, मधुपर्क देता है, पाद्य और आचमनीय देता है तब कन्या को भी दे देता है। इस के बाद वर वधू सप्तपाद आदि भी करते हैं। इन सब बातों में जैसा भी पातक या अनीति हो वह क्रमबद्ध तो है। पर आर्य समाज की पुत्रियाँ युवती हैं, पढ़ी लिखी हैं, विवाह के प्रश्नों पर उन्हें विचार करने का अवसर दिया जाता है, बहुधा कन्या को भावी वर से और पसन्द करने का अवसर भी दिया जाता है। विवाह की वेदी पर कन्या स्वयं वर का स्वागत करती और अध्यपाद्य आदि देती हैं। इसके बाद पिता कन्या दान देता हैं। और तब प्रतिज्ञाऐं या सप्तपदी की क्रियाएँ की जाती हैं। अजी जनाब, मैं यह पूंछता हूं, जब कन्या दान ही कर दी तब प्रतिज्ञाओं का क्या महत्व है? यदि वर वधू प्रतिज्ञाओं से इन्कार कर दे तो क्या कन्यादान वापस हो सकता है? आर्य समाज के पण्डित गण वेद मन्त्रों की व्याख्या करके वर वधू को प्रतिज्ञाओं के अर्थ समझाने की चेष्टा करते हैं। सनातन धर्मी तो एक रस्म पूरी कर के छुट्टी लेते हैं। इसी लिये मैं कहता हूं कि आर्य समाज की विवाह पद्धति ज्यादा आपत्ति जनक है।

यदि मैं यह कहूं कि मनुस्मृति जो वास्तव में मनु की बनाई नहीं है। इस भयानक अनर्थ की जड़ है, तो बेजान साधारणतया यह कहा जाता है कि स्मृतियां वेद के अनुकूल चलती हैं, पर विवाह के मामलों में इस स्मृति ने वेद के नियम के विरुद्ध ही नियम बनाये हैं। यह स्मृति ८ प्रकार के विवाहों को बयान करती है। प्रथम विवाह आर्ष है जिसमे कन्या का पिता अलंकृता कन्या को श्रेष्ठ वर को दान करता है। दूसरा विवाह ब्राह्म है जिसमें पिता एक बैल का जोड़ा लेकर वर को कन्या देता है। तीसरा विवाह दैव है जिस में पुरोहित को दक्षिणा के तौर पर कन्या देदी जाती है। चौथा गन्धर्व है जिस में वर कन्या चुपचाप पति पत्नी भाव से रहने लगते हैं। एक विवाह राक्षस है जिस में रोती कलपती बालिका को बल पूर्वक हरण करके ज़बर्दस्ती ले जाया जाता है।

इन नियमों में ग़ौर करने की बात यह है कि कन्या को अपना वर स्वयं चुनने का गन्धर्व विवाह को छोड़कर कहीं भी अधिकार नहीं दिया गया। गन्धर्व विवाह की बात हम पीछे करेंगे। प्रथम तो हम दैव विवाह पर ग़ौर किया चाहते हैं कि एक आदमी जो यज्ञ कराने आया है, उसे बहुत सी दान दक्षिणा की चीज़ें दी जाती हैं, उसमें कन्या भी दी जा सकती है। यह केवल नियम ही नहीं, हम ऐसे उदाहरण दे सकते हैं। जिसमें राजाओं ने अपनी सुकुमारी राजपुत्रियाँ पुरोहितों को दे डाली हैं।

अच्छा, राक्षस विवाह को किस आधार पर विवाह माना जाता है? ज़बर्दस्ती, रोती, कलपती कन्या को बलपूर्वक हरण करके ले जाना अपराध है कि ब्याह? भीष्म जैसे ज्ञानी और महावीर ने यह अपराध किया था, वह काशीराज की तीन कुमारियों को ज़बर्दस्ती युद्ध करके छीन लाया था। न कन्या का पिता और न कन्या ही इसके अनुकूल थे। मैं जानना चाहता हूँ कि यदि भीष्म को ताजीरात दफा ३६६ के अनुसार मजिष्ट्रेट के सामने अभियुक्त बनाकर खड़ा किया जाय तो वे चाहे भी इस कर्म को धर्म की दुहाई दें वे सात वर्ष की सख़्त सज़ा पाये बिना नहीं रह सकते। और कोई भी आदमी न नैतिक दृष्टि से और न सामाजिक दृष्टि से किसी कन्या को इस प्रकार हरण कर सकता है, फिर यह कुकर्म विवाह तो हो ही नहीं सकता।

गान्धर्व विवाह का हमें प्राचीन इतिहास में एकही उदाहरण मिलता है, शकुन्तला और दुष्यन्त का। यह गान्धर्व विवाह कितना बेहूदा और नीच कर्म था इसका ज्ञान हमें इसी विवाह से मिल जाता है। हमें कालिदास की रसीली कवित्वमयी लच्छेदार बातों से कुछ सरोकार नहीं, हम असली कथा पर ग़ौर किया चाहते हैं।

दुष्यन्त जैसा श्रेष्ठ चक्रवर्ती राजा शिकार को जाता है। वहाँ कण्व के आश्रम में पहुँचता है। कण्व वहाँ नहीं है, उनकी पोष्य पुत्री शकुन्तला है, वह उस युग के धर्म के अनुसार राजा का आतिथ्य करती है। राजा इस सुयोग से लाभ उठाकर बेचारी कुमारी बालिका को फुसलाकर वही उसका कौमार्य नष्ट करके और बहुत से सब्ज़ बाग़ दिखाकर घर चल देता है। जब ऋषि आते हैं और उन्हें सब बातें मालूम होती हैं, वे यही निर्णय देते हैं कि इसे उसके यहाँ पहुँचा आओ और जब वह वहाँ जाती है तो दुष्यन्त साधारण लम्पट की भाँति निर्लज्जता से कह देता है कि यह कौन है इसे मैं जानता भी नहीं। अन्त में वह माता के पास जाकर दिन काटती है, जिसे उसी की भाँति एक ऋषि भ्रष्ट कर चुका था, और जिसका फल वह ख़ुद थी, बहुत दिन बाद राजा को वृद्ध होने पर भी जब पुत्र नहीं होता तब वह उसे ख़ुशामद कर कराकर ले आता है।

यह असल कथा है। मेहमान का इस से ज्यादा नीच कर्म कौनसा हो सकता है कि वह जिसके घर में अतिथि बने उसी की कुमारी कन्या को उसकी ग़ैर हाज़िरी मे कुछ ही घण्टों में बहका कर न केवल उसे विवाह पर राजी करें, प्रत्युत तुरन्त ही उसका कौमार्य भी नष्ट करदे। और फिर उसके पहिचानने से भी इन्कार करदे।

द्रौपदी सीता और दमयन्ती आदि के स्वयंवरों की चर्चा भी हमें प्राचीन पुस्तकों में मिलती हैं। परन्तु वे नाम मात्र के स्वयम्वर थे। सभी में पिता की एक शर्त थी, उसे पालन करके कोई भी वर उस कन्या को प्राप्त कर सकता था। यदि रावण और वाणासुर जनक के धनुष को चढ़ा पाते तो वे अवश्य ही सीता को प्राप्त करने के अधिकारी हो सकते थे। चाहे सीता उन्हें प्रेम न कर सकती।

स्त्रियों की बिना रुचि जाने, उनको अपने जीवन पर विचार करने का अवसर बिना दिये पुरुषों का स्वेच्छा से उनका विवाह कर देना यह स्त्री जाति मात्र का घोर अपमान है। और इस कुकर्म ने हिन्दू जाति की स्त्रियों के सब सामाजिक अधिकार छीन लिये, उन्हें निरीह पशु के समान बना दिया। इसी कन्यादान की प्रथा के कारण पति की सम्पत्ति में उनका कुछ भी अधिकार नहीं। विधवा होने पर वे केवल रोटी कपड़ा पा सकती हैं, मानों वे घर की कोई बूढ़ी निकम्मी गाय भैंस हैं। संसार की किसी भी सभ्य देश की स्त्री विवाह होने पर हिन्दू स्त्री की भाँति बेबस नहीं हो जाती। इसका कारण यही है कि वह दान की हुई वस्तु है। और उसके प्राण आत्मा और शरीर पर उसके पति का पूर्णाधिकार है।

बाल विवाह इस कुकर्म का दूसरा स्वरूप है। आज ढाई करोड़ विधवायें इस कुकर्म के फल स्वरूप हिन्दुओं की छाती पर बैठी ठण्डी सांसे ले रही हैं। कोई ज़हर खाकर दुःख से छुटकारा पाती है, कोई भंगी, कहार, मुसलमान के साथ भागकर ख़ानदान का नाम रोशन करती हैं।

कन्या विक्रय एक भयानक अपराध तो है ही वह भीषण पाप भी है, परन्तु इस अपराध और पाप की ज़िम्मेदारी उन बदनसीब पशु प्रकृति पिताओं पर नहीं जो लोभ और स्वार्थ में अन्धे होकर अभागिनी, अज्ञान बालिकाओं को बेच देते हैं इसके असली जिम्मेदार तो वे धर्म शास्त्र हैं जिन्होंने बचपन की शादी को धर्म कर्म बताया, जिन्होंने रजस्वला कन्या को देखना नर्क का कारण बताया—जिन्होंने कन्याओं को दान करने की चीज़ बनाया, जिन्होंने पुत्रियों को समाज का अभिपाप-सन्तानों की निषिद्ध वस्तु ठहराया। यदि ये दूषित और लानत भेजने योग्य धर्म शास्त्र ऐसे बेहूदे विधान न करते तो आज पिता अभागिनी बालिकाओं को बेचने के लिये स्वाधीन न हो सकते थे। कन्यायें भी मनुष्य के अधिकारों को प्राप्त करतीं, और अपने जीवन, भविष्य और लाभ हानि पर विचार करतीं।

आज लाखों कन्यायें बूढ़े खूसटों के अत्याचार का शिकार बनती हैं। दो एक रोमांचकारी आँखों देखी घटना हम यहाँ बयान करना आवश्यक समझते हैं। एक करोड़ पति सेठ ने जिन्हें दीवान बहादुर का खिताब था, ६५ वर्ष की अवस्था में एक ११ वर्ष की लड़की से विवाह करने की ठानी। सुना गया कि लड़की बीकानेर राज्य भर में एक मात्र सुन्दरी बालिका है। कन्या को मृत्यु शैया पर हमने देखा था, उसमें तनिक भी अत्युक्ति न थी। कन्या की सगाई उसके पिता ने एक अन्य दुहेजुआ आदमी से साढ़े चार हज़ार रुपया लेकर करदी थी। परन्तु सेठ ने उसके ग्यारह हजार दाम लगा दिये। इस लिये सगाई सेठ को चढ़ा दी गई। इस पर वह व्यक्ति जिसे सगाई चढ़ गई थी, आया और पंचों से फ़रियाद करता फिरा परन्तु कोई भी पंच सेठ के विरुद्ध न कर सकता था। वह व्यक्ति हमारे पास आया और हमने उसे नुसख़ा बता दिया। हमने उसे सलाह दी कि अमुक मन्दिर में अन्न जल त्याग धरना देकर बैठ जाओ। ५०) पुजारी को चुका दो और कहदो जब तक मैं अन्न जल न करूं ठाकुर जी को भोग न लगाया जाय। यही किया गया और दोपहर तक नगर भर में अफवाह फैलगई कि आज ठाकुर जी के पट बन्द हैं दर्शन नहीं होते न भोग लगता है, उसका कारण यह कि एक फरियादी ने वहाँ धरना दिया है। ग़रज भीड़ की भीड़ आने लगी और पंचायत जुड़ी—फैसला यह हुआ कि उसके रुपये वापस दे दिए जायँ। सेठ ने पंचों को ग्यारह हजार की लागत की एक बगी़ची मय अहाते के पंचायत के नाम देकर यह फैसला खरीदा था। विवश वह रुपया ले घर में बैठ रहा। तब नगर के युवकों ने लड़की के मामा को बुलाकर उसे आगे कर दावा दायर किया। वह महायुद्ध के दिन थे। सेठ ने एक लाख के वार बौण्ड ख़रीद कर अपने हक में फैसला ले लिया। और तत्काल विवाह की तैयारी होने लगी। चीफ कमिश्नर पहाड़ पर थे, तार द्वारा अपील की गई, वहाँ से विवाह रोकने की आज्ञा भी आई—पर विवाह जंगल में एक वृक्ष के नीचे कर दिया गया।

बालिका विवाहित होने के ६ महीने बाद सेठ जी मर गये। उनकी मृत्यु के १ मास बाद वह प्रथमवार रजस्वला हुई और ३ मास बाद एकाएक रात को २ बजे हमें बुलाया गया। देखा वह मर रही थी और उसे ज़हर दिया गया था। दूसरे दिन धूमधाम से उसका शव निकाला गया और उस पर अशर्फियाँ लुटाई गई।

यह एक उदाहरण है परन्तु हमारे पास एक से एक बढ़ कर हज़ारों उदाहरण हैं। इन बालिकाओं में न तो प्रतिकार का ज्ञान है, न शक्ति। वे चुपचाप इस अत्याचार का शिकार बन जाती हैं। और इसका परिणाम हिन्दू जाति का सामूहिक नैतिक पतन होता है। ऐसी लड़कियाँ बहुधा नीच जाति वालों या मुसलमानों बदमाशों के साथ भाग जाती हैं जो इस प्रकार के मामलों की ताक में रहते हैं।

मैं ऐसी अनेक छोटी छोटी रियासतों की रानियों को जानता हूँ कि जिन्हें उनके लम्बट रईस पतियों ने बुढ़ापे में ब्याहा और जवानी में छोड़ मरे। और वे खुली व्यभिचारिणी और स्वेच्छाचारिणी की भाँति विचरण करती हैं[]। एक बार एक युवक ने हमें बीस हजार रुपया भेंट करने चाहे थे यदि मैं उसकी माता को जो उस समय मेरी चिकित्सा में थी, विष देकर मार डालता, और उसका कारण यह था कि वह युवक के मृत पिता की चौथी स्त्री थी। जो आयु में उस युवक की स्त्री से बहुत कम और एक मुनीम से खुल्लमखुल्ला फँसी थी, तथा लाखों रुपया उसे लुटा रही थी। एक रियासत में हमारे पुराने परिचित एक मित्र महाराज के प्राइवेट सेक्रेट्री थे, जो उनके मरने पर महारानी के भी प्राइवेट सेक्रेट्री रहे। कुछ दिन पूर्व हमैं दैवयोग से उस स्टेट में जाने का अवसर हुआ। तब युवक राजकुमार अधिकार सम्पन्न हुए थे। चर्चा चलने पर उन्होंने क्रोध रोक के असमर्थ होकर कहा, यदि वह सूअर यहाँ आयगा तो मैं अपने हाथ से उसे गोली मार दूंगा।

वृद्ध विवाह संसार के सभी देशों में होता है, परन्तु बराबर की स्त्रियों के साथ। पोती के समान बालिकाओं को इस प्रकार संसार की कोई भी सभ्य जाति कुर्बान नहीं करती।

इस कुप्रथा के कारण अनेक बूढ़े खूसट धन के लालच में गुणवती कन्यायें पा जाते हैं, और बेचारे दरिद्र युवक रह जाते हैं।

एक कामुक रईस ने सत्तर वर्ष की आयु में विवाह करने की इच्छा प्रकट की। और जब हमने उससे उसका कारण पूंछा तो कहा—हमारे मरने पर रोने वाला भी तो कोई चाहिये। इस पतित रईस की बातें सुनकर मिश्र के पुराने राजाओं का हमें स्मरण हो आया जो अपनी समाधियों में जीवित स्त्रियों को दफनाया करते थे।

बाल पत्नियों के भयानक कष्टों को हमें देखने के बहुत अवसर मिले हैं। इस कुप्रथा से हमारा बहुत कुछ शारीरिक और मानसिक ह्रास हो रहा है। बड़ी उम्र के लोग जो अपना दूसरा और तीसरा विवाह करते हैं। उनकी पत्नियों की बड़ी दुर्दशा होती है। वे प्रायः पति संसर्ग से भागा करती हैं। और अन्त में उनके साथ जो व्यवहार किया जाता है। उसे बलात्कार के सिवा कुछ कहा ही नहीं जा सकता।

एक चालीस वर्ष के पुरुष ने ग्यारह वर्ष की बालिका से शादी की थी। कुछ दिन बाद ही उसके गर्भ रह गया जो उसका आप्रेशन करके बच्चा निकाला गया। और वह लड़की सदा के लिये अपंग होगई।

एक रोमांचकारी घटना हमें मालूम है कि ग्यारह साल की लड़की का विवाह पैंतीस वर्ष के एक व्यक्ति से हुआ था। यह व्यक्ति प्रतिष्ठित और सम्पन्न था। उसने हठ पूर्वक बालिका को बुला लिया। उसकी माता ने विदा करने से पूर्व कृत्रिम रीति से उसके गर्भाशय को बड़ा करने की चेष्टा की। जिससे उसके शरीर से रक्त का प्रवाह जारी होगया। जब वह पति के पास गई और उसने सहवास किसी भी भाँति स्वीकार न किया तब क्रोध में आकर उसने उसे तिमंज़िले पर से सड़क पर फेंक दिया। और वह कुछ देर बाद मर गई।

हाल में बंगाल के अन्तर्गत नोआखाली नामक स्थान से एक ऐसा लोमहर्षक समाचार आया है जिसने रात-दिन घटित होनेवाली पैशाचिक घटनाओं से अभ्यस्त जनता को भी चकित कर दिया है। वहाँ की अदालत में कमला नाम की चौदह वर्ष की लड़की ने अपनी करुण कहानी सुनाई है। लड़की का कहना है कि तीन-चार वर्ष पहिले हरिपदविश्वास नामक एक व्यक्ति के साथ उसका विवाह हुआ था। वह ससुराल ही में रहती थी। उसके पति के चार भाई और थे। वे सब अविवाहित थे। एक साल पहिले की बात है कि उसकी सास ने उससे अपने देवर ननीपद के साथ अवैध सहवास करने के लिये कहा। उसने स्वीकार नहीं किया। उसने बहुत हठ किया, पर वह न मानी। इसका फल यह हुआ कि सास-ससुर ने उसे मारना शुरू कर दिया? पाशविक व्यवहार की भी कोई सीमा होती है? कुछ भी हो, लड़की ने जब अपने पति से ये सब बातें कहीं तो वह क्रुद्ध हो अपने माता-पिता का साथ छोड़कर किसी दूसरे मकान में चला गया। पर फिर वापिस आकर उसके पति ने भी अपने माता-पिता की बात का समर्थन किया। तबसे उसका पति, सास, ससुर तथा देवर सबने मिलकर उसके ऊपर अत्याचार शुरू कर दिया। उसके हाथ-पाँव बाँधकर वे लोग उसे काँटेदार लकड़ी से पीटा करते थे, कभी-कभी पीठपर छुरी से मारते थे; कभी घर की छत से उसे नीचे लटकाकर उसके मुंह में कपड़ा ठूंस दिया जाता था, ताकि रो न सके। एक दिन उसके देवर ननीपद के कहने पर उसकी सास ने पिसी हुई मिर्च बल पूर्वक उसके गुप्त अंग के भीतर डालदी। असह्य वेदना से वह छटपटाने लगी। लगातार तीन दिन तक उसे खाने को नहीं दिया गया। सास-ससुर जिस कमरे में सोते थे, ननीपद भी उसी में सोता था। लड़की स्वयं दूसरे बिस्तर में सोती थी, ननी ने बल-पूर्वक उसका सतीत्व नष्ट करना चाहा। इस समय उसकी आत्महत्या करने की इच्छा हुई। जब वे लोग उसे पीटते तो वह रोती। उसका रोना सुनकर पड़ोस के सम्भ्रांत लोग आते; वे लोग उन्हें ग़ालियाँ देकर निकाल देते। उसे केवल एक जून भात खाने को मिलता था; दाल, तरकारी वग़ैरा कुछ नहीं दिया जाता था। सरसों के कच्चे तेल के साथ वह भात खाती, एक दिन उसका देवर ननी लगातार कई घण्टों तक उसे पीटने के बाद उसके मुँह के भीतर कपड़ा ठूंस कर उसे पकड़ कर उसके बाप के मकान में डाल गया और भाग कर चला गया। इस के पहिले एक दिन उसकी सास तथा देवर ने खिड़की में लगी हुई लोहे की छड़ के साथ एक रस्सी से उसका गला, हाथ और पाँव कस के बाँध दिये, उस ने अदालत को रस्सी के दाग दिखाये। लड़की ने अदालत में यह भी कहा कि दूसरे देवर भी उसे बीच-बीच में तङ्ग किया करते थे। घर का सब काम उसी को करना पड़ता था। सास उसे किसी काम में बिलकुल सहायता नहीं देती थी, उसके ससुर का चरित्र अच्छा नही था; अक्सर रात को कुलटा स्त्रियाँ उसके पास आती थीं। उस ने कहा कि जवानी में उसकी सास का चरित्र भी अच्छा नहीं था—ऐसा उसने सुना है।

सर हरीसिंह गौड़ के सहवास बिल पर अब तक बड़ी भारी दिलचस्पी ली जाती रही है। इस क़ानून के अनुसार १६ वर्ष से कम आयु की विवाहिता पत्नी से भी सहवास न कर सकेगा। यदि ऋतुमती होने के बाद ही कम उम्र में लड़कियों के साथ सम्भोग किया जायगा तो उनकी सन्तान अवश्य ही कमजोर होंगी, पर सनातनधर्मी ब्राह्मणों को कमज़ोर सन्तान उत्पन्न करने से कुछ हानि नहीं। उनकी सन्तान तो जन्मश्रेष्ठ ही ठहरीं इस लिये वे ऋतुकाल से पूर्व ही किसी सद्‌वंश की कन्या का पाणिग्रहण कर अपना और दस पूर्वजों तथा दस आगामी वंशजों का इस प्रकार इक्कीस पीढ़ी का उद्धार कर डालना चाहते हैं।

पाराशर स्मृति के सातवें अध्याय में लिखा है कि लड़की के जो माता पिता या बड़े भाई बारह साल की आयु से प्रथम उसका विवाह नहीं कर देते वे नर्क को जाते हैं। जो ब्राह्मण इससे बड़ी आयु की कन्या से विवाह करे उसे जाति से बाहर निकाल देना चाहिये और इस काम के लिये उसे यह प्रायश्चित करना चाहिये कि वह तीन वर्ष तक भीख मांग कर जीवन निर्वाह करे।

विचारने की बात तो यह है कि मर्द ४० या ५० वर्ष की आयु होने पर भी १०|१२ साल की लड़की से शादी कर लेता है पर शास्त्रों को इस में एतराज़ नहीं। केवल लड़कियों का विवाह ऋतुमती होने से पूर्व हो जाना चाहिये और यदि उनका पति मर जाय तो उन्हें जीवन भर विधवा बन कर बैठा रहना चाहिए।

ये पतित हिन्दू इस कल्पित नर्क से भय खाकर अपनी कुछ भी सार नहीं है। और उन नई प्रथाओं को हम स्वीकार नहीं कर सकते जो हमारी उन्नति और रक्षा के लिये बहुत ज़रूरी है।

सती होना हिन्दू समाज में किसी ज़माने में उच्च कोटि का हिन्दू धर्म समझा जाता था। और शताब्दियों तक स्त्रियां ज़बर्दस्ती सती होती रही जिनके वर्णन ही अत्यन्त रोमांचकारी हैं। हिन्दू विधवा का जीवन कैसा रोमांचकारी, कथापूर्ण, कष्टों का समुद्र और शुष्क है यह प्रत्येक हिन्दू को विचारने के योग्य है। यहां हम एक अभागिनी विधवा का जो समाचार पत्रो में सती कह कर प्रसिद्ध की गई थी थोड़ा सा संक्षिप्त हाल लिखते हैं।

दो वर्ष की आयु में एक धनी घर में उसकी सगाई हुई और ८ वर्ष की आयु में वह विधवा होगई। इसके बाद वह संयुक्त परिवार के १७ स्त्री पुरुषों के बीच में रहने लगी। वह शीघ्र ही उन सब की गालियां और तिरस्कार एवं मारपीट की अधिकारणी हो गई। सब से अधिक अत्याचार उस पर सास और विधवा ननद का था। उसने बड़े कष्ट से ६ साल काटे। उसके ऊपर यौवन आया और संसार का सब से बड़ा संकट उसके सन्मुख आया। उसके ज्येष्ट की कुदृष्टि उस पर पड़ी। वह नीच और लम्पट आदमी था। उसके भाव को ताड़ कर वह अभागिनी भयभीत रहने लगी, और अन्तमें उसने कुए में डूब मरने का इरादा कर लिया। इस इरादे को जान कर उसकी सास ने उसे क्रोध से पकड़ कर उसका हाथ उबलते हुए चावलों में डाल दिया और कहा—अब समझ कि मरना कैसा है? अभागिनी स्त्री उस पीड़ा को सह गई और बराबर काम करती रही। अन्त में न जाने कहां से उस ने कुछ प्राचीन सतियों के कुछ वर्णन सुने और उसे सती होने की धुन सवार होगई। एक प्रकार के उन्माद में ग्रसित होकर उसने अपने सती होने की इच्छा बल-पूर्वक सब पर प्रकट कर दी।

यह जानकर उसकी सास ने प्रसन्न होकर कहा—"तू धन्य है, जा मेरे पुत्र को सुखी कर।" उसके लिए ब्याह के वस्त्र मंगवाये गये और ख़ूब गहने पहिनाये गये। गाँव भर में चर्चा फैल गई। उसे गा बजाकर जंगल में लेगये। उसी के पाथे हुये उपलों से चिता चुनी और उसे उस पर सुला दिया गया। उसका एक हाथ और सिर छोड़ सारा शरीर ढाँप दिया गया था। हाथ में फूंस का पूला दे उसमें आग लगादी। क्रिया कर्म वाले पण्डित ज़ोर ज़ोर से मंत्र पढ़ने और घी डालने लगे—ज़ोर के बाजे बजने लगे। और जय जय कार होने लगा। धुऐं का तूमार उठ खड़ा हुआ इस प्रकार वह अभागिनी जलकर ख़ाक होगई। और सती कहलाई। पीछे पुलिस ने बहुत से लोगों का चालान किया।

श्रीमती डा॰ मुथ्युलक्ष्मी रेड्डी ने एक बार व्यवस्थापक सभा में कहा था—"हिन्दू क़ानून के अनुसार एक साथ कई स्त्रियों से विवाह किया जा सकता है इस लिये जब पति लड़की को अपने घर बुलाना चाहे उसके माता पिता हरगिज़ इनकार नहीं कर सकते क्योंकि सदैव ही इस बात का भय बना रहता है कि लड़के की दूसरी शादी कर दी जायगी।"

शारदा विवाह बिल के विरोध में कुम्भ कोकनम के स्वामीङ्गल मठ के जगतगुरु शंकराचार्य ने घोषणा की थी कि 'यह बिल हिन्दू धर्म के उन पवित्र सिद्धान्तों के सर्वथा प्रतिकूल है। जिन्हें सनातनी ब्राह्मण बहुत प्राचीन काल से मानते चले आए हैं। पवित्र सिद्धान्तों में इस तरह का हस्ताक्षेप हम किसी कारण से भी सहन न कर सकैंगे।'

अब यद्यपि सती की प्रथा क़ानूनन उठादी गई है पर अदालतों के सामने हर साल गैरक़ानूनी सती का एक न एक मुकदमा आता ही रहता है। प्रायः बहुत सी विधवायें जीवन के कष्टों से ऊब कर वस्त्रों पर मिट्टी का तेल डालकर जल मरती हैं ख़ासकर बंगाली अख़बार वाले उन सबको सती का रूप देते हैं। और ख़ूब रंगकर उनका वर्णन छापा करते हैं।

कुछ दिन पूर्व बनारस में अखिल भारतवर्षीय ब्राह्मण कानफ्रेन्स हुई थी जिसमें भारत के सब भागों के तीन हज़ार शास्त्री एकत्रित हुए थे उसमें गहन संस्कृत भाषा में सत्रह प्रस्ताव पास हुए जिनमें एक यह भी था कि लड़कियों का विवाह आठ साल की आयु में कर दिया जाय। अधिक से अधिक नौ या दस साल तक अर्थात् ऋतुमती होने से पूर्व तक।

पर्दा हिन्दू समाज पर एक अभिशाप है। जिसे दूर होने में अभी न जाने कितनी देर है। हमने स्त्रियों को सब तरह से असहाय कर रखा है।

बड़े घरों में हमें जाने का बहुधा अवसर मिलता रहता है। एक प्रतिष्ठित ज़मींदार के घर का हाल सुनिये।

मकान की दूसरी मंजिल पर एक कमरा लगभग १२×९ फ़ीट था। तीन तरफ सपाट दीवारें और सिर्फ एक तरफ एक दरवाज़ा है जो कि एक लम्बी गेलरी में है। कमरे में सदैव ही अन्धकार रहता है। इसमें एक पुरानी दरी का फर्श पड़ा है। जो शायद साल में एकाध बार ही झाड़ा जाता है। दीवारें काली होगई हैं। और उसमें सदैव ही दुर्गन्ध भरी रहती है। घर भर की स्त्रियाँ इसी में दिन भर बैठी रहती हैं। और भाँति भाँति की बातें करती हैं। घर की बूढ़ी गृहणी वहीं पीढ़ी पर बैठती है, उसे घेरकर तीन बेटों की स्त्रियाँ, दो विधवां बेटियाँ कई चचेरे भाइयों भतीजों की स्त्रियाँ एक दो दासियाँ सब वही भरी रहती हैं। कुछ तम्बाकू खाती हैं, वे फर्श पर योंहीं थूकती रहती हैं। बच्चे १५-२० बेतरतीबी से योहीं खेलते कूदते फिरा करते हैं। कभी रोते, कभी मचलते, कभी शोर मचाते और कभी ठूस ठूस कर खाते और वहीं सो रहते हैं।

ये स्त्रियाँ दिन भर कुछ काम नहीं करती। उनका ख़ास काम पतियों की आज्ञा पालन करना या सोना है। वे सब घर में ठाकुर पूजा करती हैं, भोजन के समय पति को खिलाकर खाती हैं। कभी पति से बोलती नहीं, उसके सामने आती नहीं, दिन भर पान कचरती, मिठाइयाँ खाती या सोती रहती हैं, उनकी बातचीत का विषय गहना, कपड़ा, बच्चों की बीमारियाँ, बच्चे पैदा होने की तरकीबें, गंडे, ताबीज़, जन्त्र, मन्त्र, तन्त्र, साधु, पति को वश में करने की तरकीबें, एक दूसरे की निन्दा, कलह यही उनकी नित्यचर्या है।

वे प्रायः सब अपढ़ हैं। एक पढ़ी लिखी बहू है, उसकी उन सबके बीच में आफत है। बुढ़िया सबको हुक्म के ताबे रखना चाहती है, और पढ़ना लिखना भ्रष्टता का लक्षण समझती है।

सब स्त्रियां प्रायः रोगिणी हैं। दो बहुएं क्षय में मर गईं हैं। एक की प्रसूति में मृत्यु हुई है। जब वृद्धा से कहा गया कि आप लोगों को धूप और खुली हवा में रहना चाहिये और परिश्रम करना चाहिये। तब वृद्धा ने कुछ नाराजी के स्वर में कहा—खुली हवा, धूप और परिश्रम नीच जाति की स्त्रियाँ करती हैं या भले घर की बहू बेटियाँ।

जिस स्त्री को खाँसी और ज्वर है उसके दोनों फेफड़े क्षय रोग से आक्रान्त हैं। पर वह अपने बच्चे को दूध बराबर पिलाती है। बच्चा भी अत्यन्त कमज़ोर है वह रात भर रोया करता है। वह स्त्री अपना कष्ट भूल उसे रात भर गोद में लेकर हिलाती रहती है।

स्त्रियाँ और बच्चे इस घर में बराबर मरते ही रहते है पर और नये पैदा होते ही रहते हैं। यह सिलसिला बराबर जारी रहता है।

वे स्त्रियाँ इस गन्दे अन्धेरे घर में प्रसन्न हैं। उन्हे पतियों के प्रति शिकायत नहीं। वे खुली हवा में घूमना अधर्म समझती हैं, पति के साथ घूमना या बात करना तो एक दम पाप की बात है। वे हमारे उपदेशों को उपेक्षा और हँसी में टाल देती हैं। कभी कभी बहस भी करने लगती हैं। वे अपने दुर्बल, काले रोगी बालकों को प्यार करती हैं—उन पर उन्हें अभिमान है, एक स्त्री का जो पढ़ी लिखी है घर भर अपमान करता है—क्योंकि उसके अभी पुत्र नहीं हुआ है और वह उनकी गोष्ठी से अलग रहती है। जो बहुएँ मर चुकी हैं, उन्हें वृद्धा भाग्यवान् समझती है। और अपनी विधवा बेटियों को अभागिनी कहकर रोया करती है।

बुढ़िया को पुत्र पौत्रों को इधर उधर बेतरतीब से रोते मचलते, सोते बैठते, चीख़ते चिल्लाते देख कर बड़ा आनन्द आता है। वे कल्पना नहीं कर सकती कि जगत में उन से ज़्यादा सुखी कोई दूसरा भी है या नहीं।

बच्चों का पालन कुसंस्कारों और रूढ़ियों के कारण ऐसा गर्हीत हो गया है कि अपने जन्म के बाद पहले ही वर्ष में प्रत्येक तीन बच्चों मे एक मर ही जाता है। भारतवर्ष के बच्चे पशुओं और कीड़ों से किसी भांति श्रेष्ठ नहीं समझे जाते। एक बार कृष्णमूर्त्ति ने एक व्याख्यान में कहा था:—

"भारतवर्ष में बच्चे किस भाँति खुश रह सकते हैं? मैं तुमसे अपने ही बचपन की तरफ ख्याल करने को कहता हूँ, मैं नहीं कह सकता कि मेरा बचपन सुख पूर्ण था। मैं अपने माता पिता के विरुद्ध कुछ नहीं कहता। क्योंकि जो कुछ हुआ वह प्राचीन प्रथा के अनुसार चलने का फल था। भारतवर्ष में बच्चे जितनी बुरी हालत मे रहते हैं, संसार के और किसी देश में वे वैसे नहीं रहते भारतवर्ष में बच्चा सब से अभागा प्राणी है। न उसका कोई अलग स्थान होता है और न चित्त विनोद का कोई साधन। वह जब चाहता है सो जाता है। बच्चों की देख भाल का कोई ख़याल नहीं रखता। तुम और मैं इन बातों को भली भाँति जानते हैं। यह सच है कि ज़ाहिर में बच्चों को बहुत प्यार किया जाता है। पर बच्चे के कल्याण के लिये उस प्यार में कोई नियम नहीं है। ...बच्चा गन्दगी कीचड़ और धूल में रह कर बड़ा होता है। मेरा हमेशा से यह विचार था कि मेरा फिर से भारत में जन्म हो, पर अब अगर मेरे लिये ऐसा अवसर आवे तो मैं हिचकूँगा। क्योंकि अमेरिका और योरोप में बच्चे जैसे प्रसन्न रहते हैं उसका तुम को ख़्याल भी नहीं है। बचपन ही वास्तव में आनन्दित रहने का समय है। क्योकि बड़े होने पर हम उसकी याद किया करते हैं। यही अवस्था है जब बालक के भाव दृढ़ हो जाते हैं। आजकल भारत मे चारों तरफ जैसी निन्दनीय बातें फैली हुई हैं इन के बीच मे रह कर बच्चा कैसे खुश रह सकता है?"

कन्यायें सन्तान रूप कलंक हैं यह भावना हिन्दुओं की नीच प्रकृति की परिचायक है। राजपूत लोग घमण्ड से कहा करते हैं कि हम किसी को दामाद न बनावेंगे और इसीलिये वे जन्मते ही कन्याओं को मार डाला करते थे। परन्तु अब भी कुछ लोग ऐसा करते हैं। जाटों में भी ऐसी ही प्रथा प्रचलित है। और यह तो मानी हुई बात है कि लड़की पैदा होते ही घर वालों के मुँह लटक जाते हैं—मानो कोई बड़ा भारी अपशकुन हो गया हो। लड़कियाँ बहुधा घरों में अवज्ञा और अपमान में पला करती हैं। बहुत सी कन्याएं बालकाल में मर जाती हैं। बंगाल में अनेक कन्याएं दहेज की कुप्रथा के कारण जल मरी हैं। ऐसी हत्याओं की कथा ऐसी करुणा पूर्ण है कि उन क्रूर कमीने माता पिताओं तथा जाति बन्धनों और कर्म बन्धनों के प्रति बिना तीव्र घृणा हुए नहीं रह सकती। प्रायः लड़कियों को प्यार के समय भी मरने की गाली दी जाती है। पर बेटे के लिये ऐसा कहना घोर पाप है।

अछूतों का प्रश्न तो खुला प्रश्न है। उन्हें हिन्दुओं ने बलपूर्वक इतना गिरा दिया है कि वे हमारे सामने ही जीते जी नरक भोग करते हैं।

आज महात्मा गान्धी के आत्म यज्ञ के कारण परिस्थिति में चाहे भी जैसी हलचल उत्पन्न हो गई हो फिर भी यह सत्य है कि अभी तक हम अछूतों को पशुओं से बदतर समझते हैं। साइमन कमीशन को जालन्धर के अछूत मण्डल ने जो अपना वक्तव्य दिया था उसका आशय इस प्रकार है—'हमें हिन्दू धर्म पर विश्वास नहीं। न हम उसके पाबन्द हैं। न हम हिन्दुओं से कोई राजनैतिक या सामाजिक सम्बन्ध रखते हैं। जो हमें छूने से भी घृणा करते और छाया से दूर रहना चाहते हैं। यद्यपि वे हमें अपने साथ घसीटना चाहते हैं क्योकि हमारे बिना उनका काम नहीं चल सकता।'

इस वक्तव्य में एक अक्षर का भी असत्य या अतिशयोक्ति पूर्ण नहीं है और हम जब तक अपने समाज से उनकी आवश्यक्ताओं को न निकाल देंगे—हम अछूतों के मित्र नहीं बने रह सकते। लोग पुजारियों और पण्डितों पर नाराज हैं इस लिये कि वे उन्हें मन्दिरों में प्रवेश नहीं करने देते। परन्तु मैं कहता हूं तुम उन्हें अपने रसोई घर में क्यों नही प्रविष्ट होने देते! कौन पुजारी तुम्हें रोकता है। क्या तुम मन्दिरों को रसोई घर से कम पवित्र समझते हो? इस का खुला अर्थ तो यह है कि तुम चीमटे से छू कर धर्म कमाना चाहते हो। दिमागी—गुलामी की भरपूर बू उसमें है।

आज यदि देश के शहरों से पाख़ाने का वर्तमान सिष्टम उठा दिया जाय और भंगियो को शिल्प साहित्य कला के काम सिखाये जायँ और किसी को भी भंगी की आवश्यकता न रहे तो अछूतों का उद्धार हो सकता है, अन्यथा नहीं।

पशुओं के पालन सम्बन्धी अज्ञान हमारा सामाजिक पाप है। बहुत से उपयोगी पशुओ से तो हम कुछ लाभ उठा ही नहीं सकते। भेड़े, बकरियां मुर्ग़े मुर्गी, आदि जानवरों को पालने की तो धर्म की ही आज्ञा नहीं। हम दूध के पशु पालते हैं—कुछ परिन्दों को पालते तथा सवारी और खेती के पशुओं को पालते हैं—परन्तु इतने निकृष्ट ढंग से कि उसे महा मूर्ख़ता कहा जा सकता है।

प्रायः अधमरी गायें और बछड़े गली २ भटकती दीख पड़ती हैं। कहने को हम बड़े भारी गो भक्त हैं पर गोभक्ति की असलियत तो हमारी गोशालाओं की दशा को देखने से खुल जाती है। जैसा कष्ट पशु पक्षी हमारे घरों में पाते हैं वैसा कष्ट मांसाहारी लोग भी पशुओं को नहीं देते। किसी प्राणी को धीरे २ बहुत दिनों तक कष्ट देकर मार डालने की अपेक्षा एक दम ख़तम कर देना कम निर्दयता का काम है।

प्रायः गायों के बच्चे असावधानी से मर जाते हैं। और उनकी खालों में भुस भरवा कर उनके सामने रख कर दूध दुहा जाता है। प्रायः बच्चों को कुत्ते फाड़ खाया करते हैं।

एक समय था कि साधारण गृहस्थियों के पास भी हज़ारों की संख्या में गायें रहती थीं। ईसा से ५०० वर्ष पूर्व कालायन के काल में गौ १० पैसे को, और बछड़ा ४ पैसे को मिलता था। बैल की क़ीमत ६ पैसा थी, भैंस ८ पैसे में आती थी। और दूध १ पैसे में १ मन आता था, इसके २०० वर्ष बाद मसीह से ३०० वर्ष प्रथम जब भारत पर सम्राट चन्द्रगुप्त शासन करते थे घी १ पैसे का २ सेर और दूध २५ सेर मिलता था। ईसवी सन् के शुरू में ४८ पैसे की गाय ९३ पैसे का बैल मिलता था। ५ वीं शताब्दी में विक्रमादित्य के राज्य में गौ ८० पैसे में और बैल ५१२ पैसे में मिलती थी। अलाउद्दीन के जमाने में घी का भाव दिल्ली में ७४ पैसे मन था और अकबर के जमाने में १९५ आने मन।

यह वह ज़माना था जब दूध बेचना पाप समझा जाता था। नगर बस्तियों के बाहर घने बन थे और उनमें गाय स्वच्छंद चरा करती थी। उन दिनों दीर्घायु निरोगी काया और दुर्धर्षबल शरीर में रहता था। आज वे दिन न रहे। आज हमारे दुधमुँहे बच्चों को भी एक बूंद दूध मिलना दुर्लभ हो रहा है। आस्ट्रेलिया की आबादी ४ लाख है और गायें १२ करोड़। पर भारत के ३४ करोड़ नर नारियों में सिर्फ ४ करोड़। भारत में प्रति वर्ष ४० लाख गाय बैल काटे जाते हैं। जिनमें केवल दो लाख भारतीय मुसलमानों के काम आते हैं। शेष ३८ लाख की खपत देश के बाहर होती है। इस समय गो मांस का सबसे सस्ता बाज़ार भारतवर्ष है। इस हत्या से घी दूध ही नहीं अन्न की पैदावार भी कम हो रही है जंगल साफ हो रहे हैं ज़मीनों के रकबे बढ़ रहे है परन्तु मज़बूत गाय बैलों की देश में बराबर कमी हो रही है।

भारत में करीब ८० हज़ार गोरे सिपाही हैं। जिनका मुख्य भोजन गो मांस है। यदि प्रत्येक पुरुष १॥ सेर मांस भी प्रतिदिन खाय तो रोज़ाना ९४६ मन और साल भर में ३ लाख ४५ हजार २९० मन हुआ। इतना कितनी गौओं की हत्या से मिलेगा? फिर ७ करोड़ मुसलमान भी हैं जो जिद या ग़रीबी के कारण बकरे का मांस जिसे हिन्दुओं ने मँहगा कर दिया है, न खाकर सस्ता गाय का मांस खाते हैं।

दर्जन भर सरकारी कसाई घरों के अलावा देश मे ३॥ लाख कसाई हैं। यह जानकर रोमांच होता है आज ऋषियों की पवित्र भूमि पर २० करोड़ मांसाहारी मनुष्य रहते हैं इनमें से ७ करोड़ मुसलमान और १० लाख अंग्रेज़ निकाल दिये जायँ तो भी ८॥ करोड़ हिन्दू बच रहते हैं।

इसके सिवा गत १० वर्षों में ३२ लाख जीते पशु काट जाने के लिये पानी के रास्ते और १६ लाख से ऊपर खुश्की के रास्ते ईरान तिब्बत आदि को मांस के लिये भेजे गये हैं।

यह दया धर्म वाले हिन्दुओं के धर्म का नमूना है। जो लाखों रुपयों की सम्पत्ति रखने पर भी गायें पालना आवश्यक नहीं समझते।

पशुओं का घर में वही स्थान होना चाहिये जो घर में बच्चो का होता है। पशु पालना दया के ऊपर निर्भर नहीं प्रेम के ऊपर रहना चाहिये। परन्तु हमारी पशु दया की रूढ़ि है, हम में त्याग नहीं।

अब हम छोटी छोटी कुछ कुरीतियों का दिग्दर्शन करके इस अध्याय की समाप्ती करेंगे।

संस्कारों को ही लीजिये, उपनयन, कर्णवेध, मुण्डन, आदि सर्वत्र ही कुरीतियों का दौर दौरा है? एक नाटक सा करके इन संस्कारों की रस्में पूरी की जाती हैं।

ग़मी होने पर बिरादरी भोज एक विचित्र और घृणास्पद बात है। घर वालों के आँसू बह रहे हैं और पुरोहित और बिरादरी तर माल उड़ा रहे हैं। पुरोहित की बन आती है, मृतात्मा की सद्‌गति के बहाने गोदान, शैयादान, न जाने क्या क्या दान करवाते हैं। श्राद्धों की धूमधाम विवाह से बढ़ जाती है। क्या मृत व्यक्ति को इससे वास्तव में कुछ लाभ पहुँचता है। गया पिण्ड और तर्पण करते देखा गया है, पण्डे किस भाँति हलाल करते हैं। क्या कोई यह भी पूंछ सकता है कि इन सब दान धर्म का मृत व्यक्ति से क्या सम्बन्ध हो सकता है।

 

  1. ऐसी भयानक कहानियां 'देशी राज्यों में व्यभिचार' नामक पुस्तक में पढ़िये १)