धर्म के नाम पर/9 पाखण्ड

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नवां अध्याय

पाखण्ड

पाखण्ड में सब से पहिला नम्बर मूर्त्ति पूजा का है। दो हजार वर्ष से भी अधिक काल से इस पाखण्ड ने मनुष्य जाति को बेवकूफ बनाया है। आज संसार भर की सभ्य जातियों ने मूर्त्ति पूजा को नष्ट कर दिया है। वह या तो कुछ जङ्गली जातियों में जो तातार के उजाड़ प्रदेश में हैं, अथवा अफ्रीका के असभ्य लोगो में या फिर अपने को सब से श्रेष्ठ समझने वाले हिन्दुओं में प्रचलित है। यहाँ हम संक्षेप से इस मूर्त्ति पूजा का इतिहास दिये देते हैं।

सब से प्रथम मैं दृढ़ता पूर्वक आप को यह बता देना चाहता हूँ कि प्राचीन काल के हिन्दुओं का कोई मन्दिर न था और वे मूर्त्ति की पूजा नहीं करते थे। वेद में मूर्त्ति पूजा का कोई विधान नहीं है। वेद में उन देवताओं का भी कोई जिक्र नहीं है, [ १४६ ]जिन्हें इन पेशेवर गुनहगारो ने कल्पित करके झूठ और बेईमानी की दुकान खोली है।

हम आपको बता चुके हैं कि प्राचीन काल में आर्य लोग यज्ञ करते थे और वहीं उनका प्रधान धर्म चिह्न था। इसके बाद जब बौद्धो ने अपने उतुङ्ग काल में भारत की सीमाओं को पार करके चीन, तातार, यूनान और उन प्राचीन प्रदेशो में धर्मप्रचार के लिये भ्रमण किया जहाँ असंख्य भयानक देवताओं, जिनो, प्रेतो और भयानक अद्भुत शक्तिशाली जीवो का विश्वास प्रचलित था। वे मूर्त्तिपूजा की भावना को लेकर भारत में लौटे और लगभग इस से था छ ही पूर्व सिकन्दर के साथ जो यूनानी भारत में आये वे भी अपने संस्कार छोड़ गये। जिस के फल स्वरूप प्रथम बौद्धों में और बाद को हिन्दुओं में मूर्त्तिपूजा का प्रचार हो गया। यज्ञों के देवता मूर्त्तिमान बनकर बदल गये। वेद का 'रुद्र' जो वास्तव में वायु का नाम था 'गिरीश' या नीलकण्ठ बन गया। मण्डूक उपनिषद् में वर्णित अग्नि की सात जिह्वाएं काली कराली, सुलोहिता, सुधूमवर्णी आदि शिव की पत्नियाँ हो गईं। केनोपनिषद् की उमा हैमवती जिस ने इन्द्र को ब्रह्मज्ञान का उपदेश दिया था--शिव की पत्नी कल्पित की गई। शतपथ ब्राह्मण के असुरो को असुरोरने वाले विष्णु को भी महत्व मिल गया। जो वास्तव में सूर्य का नाम था। परन्तु इस काल तक भी देवकी पुत्र कृष्ण की देवताओं में गणना न थी। वह छान्दोग्य उपनिषद्पु त्रवल अंगिरस ऋषि का एक शिष्य बताया गया है। [ १४७ ]

धीरे धीरे इन पाखण्ड पूर्ण विधानों के प्रति लोगों की श्रद्धा बढ़ने लगी और प्रसिद्ध पौराणिक देवता ब्रह्मा, विष्णु, शिव के नाम प्रसिद्ध हो गये। ये तीनों देवता सृष्टि के उत्पादन, पालन और संहार इन तीन कामों के प्रथम देवता थे। वास्तव में यह हिन्दुत्रैकत्व बौद्धत्रैकत्व की नकल थी।

वर्त्तमान मनुस्मृति में जो बौद्ध काल के प्रारम्भ में बनी है इस त्रिदेव की कुछ भी चर्चा नहीं है। न उस में हिन्दुओं की मूर्त्तिपूजा का ही ज़िक्र है। हाँ, उस समय मूर्त्तिपूजा प्रारम्भ हो चली थी और उच्च कोटि के हिन्दू उस से घृणा करते थे। परन्तु यह अद्भुत रीति बढ़ती ही गई और हिन्दू धर्म की प्रधान वस्तु हो गई। अब अग्निहोत्र एक अतीत वस्तु बन गया था। ईसा की छठी शताब्दी में कालीदास के समय में यह प्रथा खूब प्रचलित हो गई थी। फाहियान चीनी यात्री जो भारत में सन् ४०० ईस्वी में आया था। उस ने काबुल में बौद्धों का पूर्ण विस्तार देखा था और वह कहता है वहाँ ५०० बौद्ध विहार है। उसने तक्ष शिला का विश्व-विख्यात विश्वविद्यालय देखा था और पेशावर में बहुत बड़ा बौद्ध स्तम्भ देखा था। मथुरा में उसने तीन हज़ार बौद्ध भिक्षुओं का सङ्घ देखा था और यहाँ उसने बौद्धधर्म का भारी प्रचार देखा था। राजपूताने के सब राजाओं को उसने बौद्ध धर्मी पाया था उसने सर्वत्र ऐसे विहार देखे थे जिनके लिये राजाओं और श्रीमन्तों ने लाखों रु॰ लगाये थे। सर्वत्र घूमता हुआ वह पटने गया और उस ने वहाँ बौद्धों के सङ्घ में प्रथम बार [ १४८ ]मूर्त्ति को देखा। वह लिखता है:—

"प्रति वर्ष दूसरे मास के आठवें दिन मूर्त्तियों की एक यात्रा निकलती है, इस अवसर पर लोग एक चार पहिये का रथ बनवाते हैं और उस पर बांसों का ठाठ बांधकर पांच खण्ड का बनातें हैं उसके बीच में एक खम्भा रखते हैं जो तीन फल वाले भाले की भाँति होता है। और ऊँचाई में २२ फीट या इस से अधिक होता है। और एक मन्दिर की भांति दीख पड़ता है। तब वे सफेद मलमल से उसे ढकते हैं। और चटकीले रङ्गों से रङ्गते हैं। फिर देवों की चाँदी सोने की मूर्त्तियाँ बना कर चाँदी सोने और काँच से आभूषित करके कामदार रेशमी चन्दुए के नीचे बैठाते हैं। रथ के चारों कोनों पर वे ताख बनाते और उन में बुद्ध की बैठी मूर्त्तियाँ जिन की सेवा में एक बोधिसत्व खड़ा रहता है—बनाते हैं। ऐसे ऐसे बीस रथ बनाए जाते हैं। इस यात्रा के दिन बहुत से गृहस्थ और सन्यासी एकत्रित होते हैं। जब वे फूल और धूप चढ़ाते हैं तो बाजा बजता है और खेल होता है। श्रमण लोग पूजा को आते हैं। तब बौद्ध एक एक करके नगर में प्रवेश करते हैं। और वहाँ वे ठहरते हैं। तब रात भर रोशनी करते हैं। गाना और खेल होता है। पूजा होती है...।"

यहाँ से यह यात्री राजगृही, गया, काशी, कौशाम्बी और चम्पा तक पहुँचा जो पूर्वी बिहार की राजधानी थी। परन्तु उस ने कहीं भी एक भी मन्दिर हिन्दुओं का इन तीर्थों में नहीं देखा, सर्वत्र बौद्धों के सङ्घाराम देखे। फिर वह ताम्रपल्ली गया वहाँ भी [ १४९ ]उसने २४ सङ्घाराम देखे। अन्त में वह सिंहल को जहाज़ में बैठ गया।

इस यात्री के दो सौ वर्ष बाद ह्वेनसांग चीनी यात्री भारत में आया, वह फर्गन, समरकन्द, बुख़ारा और बलख होता हुआ भारतवर्ष में आया। वह सन् ६४० ईस्वी में भारतवर्ष में था।

उसने जलालाबाद को सम्पन्न नगर पाया जो बौद्धों से परिपूर्ण था, उसने यहां ५ शिवाले हिन्दुओं के देखे। और सौ पुजारी भी देखे। कन्दहार और पेशावर में उसने १ हजार बौद्ध संघारामों को उजड़ और खण्डहर पाया तथा हिन्दुओं के सौ मन्दिर देखे।

वह मालवे के राजा शिलादित्य का वर्णन करता है जो प्रसिद्ध विक्रमादित्य का पुत्र था। विक्रम ने एक बौद्ध भिक्षु को जिसका नाम मतोत्हृत् था हिन्दुओं के पक्ष पाती होने के कारण अपमानित किया था—परन्तु शिलादित्य ने उसे बुला कर प्रतिष्ठा की थी। इससे आगे इस यात्री ने पौलुश नगर के निकट एक ऊंचे पर्वत पर नीले पत्थर से काटकर गढ़ी हुई एक दुर्गा देवी की मूर्ति देखी थी। यहां उसने धनी और दरिद्र सब को एकत्रित हो कर मूर्ति की पूजा करते देखे थे। पर्वत के नीचे महेश्वर का एक मन्दिर था और वहां वे साधु रहते थे जो राख लपेटे रहते थे।

काबुल और चमन मे जहां दो शताब्दि प्रथम फाहियान ने [ १५० ]बौद्ध धर्म का प्रबल प्रताप देखा था—इस यात्री ने सब संघारामों को उजाड़ तथा देवताओं के दस मन्दिर देखे थे, वह तक्षाशीला और कश्मीर भी गया—वहां उसे जैन मिले जो महावीर की मूर्ति पूजते थे। काश्मीर में बौद्ध अभी भी काफी थे। वहां उस समय कनिष्क राज्य करता था जो बौद्ध था। और जिसने एक बार बौद्धों के उन्नत करने की सभा बुला कर महायान समुदाय प्रचलित किया था। उसने पंजाब के राजा मिहिरकुल का भी जिक्र किया है जो बौद्धों का प्रसिद्ध बैरी था। जिसने पांचो खण्डों के बौद्ध भिक्षुओं को मार डालने की आज्ञा दी थी और जिसने कन्दहार को विजय कर वहां के राजवंश को नष्ट कर डाला तथा बौद्ध धर्म के संघारामों स्तूपों और भिक्षुओं को छिन्न भिन्न कर दिया था। सिंध के तट पर इसने ३ लाख बौद्धों को कतल कराया था।

मथुरा में इसने अभी तक बौद्धों का प्रताप देखा था। वहां अभी २० संघाराम थे और दो हज़ार भिक्षु यहां की पूजा उत्सव आदि करते थे।

द्वाव में आकर उसने गंगा की प्रशंसा सुनी, जो पापों का नाश करने वाली प्रसिद्ध थी। वह उसकी भारी धार को देखकर भी बहुत प्रभावित हुआ था। हरद्वार में उसने एक बड़ा देव मन्दिर देखा जिसमें बड़े चमत्कार किये जाते थे। हर की पैड़ी तब पत्थर की बन चुकी थी, और उसमें नहाने का महात्म्य भी प्रसिद्ध होगया था।

कन्नौज को उसने गुप्त राजाओं की सम्पन्न नगरी पाया [ १५१ ]था। यहाँ उसने बौद्धों और हिन्दुओं को बराबर पाया। यहाँ १०० संघाराम और १० हज़ार भिक्षु तथा २०० देव मन्दिर और उसके कई हज़ार पुजारी उसने देखे थे। यहाँ के प्रतापी बौद्ध राजा शिलादित्य द्वितीय से वह मिला था। जिसने गंगा के पूर्वी किनारे पर १०० फीट ऊँचे स्तम्भ पर एक पूरे कद की सोने की बुद्धमूर्ति स्थापित की थी।

वह लिखता है—

"बसन्त ऋतु के तीन मास तक वह भिक्षुओं और ब्राह्मणों को भोजन देता था, संघाराम से महल तक का सब स्थान तम्बुओं और गवैयों के ख़ीमों से भर जाता था। बुद्ध की एक छोटी सी मूर्ति एक अत्यन्त सजे हुये हाथी पर रखी जाती थी और शिलादित्य इन्द्र की भाँति सजा हुआ उस मूर्ति की बाईं ओर और कामरूप का राजा दाहिनी ओर ५|५ सौ युद्ध के हाथियों की रक्षा में चलता था। राजा चारों ओर मोती, सोने चान्दी के फूल एवं अनेक बहुमूल्य चीज़ें फेंकता जाता था। मूर्ति को स्नान कराया जाता। और शिलादित्य उसे स्वयं कन्धे पर रखकर पच्छिम के बुर्ज पर ले जाता था। और उसे रेशमी वस्त्र तथा रत्न जटित भूषण पहनाता था। फिर भोजन और शास्त्र चर्चा होती थी।"

इन सब उदाहरणों से पाठक अनुमान लगा सकते हैं कि हिन्दुओं ने मूर्ति पूजा ही नहीं उत्सव और त्यौहारों का मनाना भी बौद्धों से सीख लिया था। इस यात्री ने अयोध्या में भी [ १५२ ]बौद्धों के १० संघाराम और ३००० जन अर्हत देखे थे। हिन्दू भी बहुत थे। इलाहाबाद में उसने कट्टर हिन्दू देखे थे। और संगम पर सैकड़ों मनुष्यों को स्वर्ग पाने की इच्छा से मरते देखा था।

वह कहता है कि नदी के बीच में एक ऊँचा स्तम्भ था। लोग इस पर चढ़ कर डूबते सूर्य को देखने जाते थे। श्रावस्ती, कौशाम्बी और काशी में भी उस ने हिन्दुओं का ज़ोर देखा था। काशी में उसने ३० सन्घाराम और ३००० भिक्षुओं को देखा था। साथ ही सौ मन्दिर और दस हज़ार मनुष्य पुजारी देखे थे। यहाँ भी सिर्फ महेश्वर की पूजा होती थी। महेश्वर की ताम्बे की मूर्त्ति सौ फीट ऊँची थी और वह इतनी गम्भीर और तेज पूर्ण थी कि जीवित जान पड़ती थी।

काशी में, एक विहार में एक कदे आदम बुद्ध मूर्त्ति भी इस यात्री ने देखी थी। वैशाली में उसने सङ्घरामों को खण्डहर देखा था और बहुत कम भिक्षुक वहाँ रहते थे—देव मन्दिर बहुत बन गये थे। मगध में उस ने पचास सङ्घाराम देखे जिन में दस हज़ार भिक्षु रहते थे। यहाँ दस हिन्दुओं के मन्दिर थे। पाटलीपुत्र इस के समय में उजड़ गया था। गया में उस ने ब्राह्मणों के हज़ार घर देखे थे। गया के बोधि वृक्ष और विहार की चढ़ी-बढ़ी शोभा इस यात्री ने देखी थी। वह लिखता है:—

"यह १६० या १७० फीट ऊँचा है। और बहुत सुन्दर बेल बूटों का काम इस पर हुआ है। कहीं तो मोतियों से गुथी हुई [ १५३ ]मूर्तियां बनी हैं—कहीं ऋषियों या देवताओं की मूर्तियां हैं। इन सबके चारों ओर ताम्बे का सुनहला आमलक फल है इसके निकट ही महाबोधि संघाराम की बड़ी इमारत है। जिसे लंका के राजा ने बनवाया है। उसकी ६ दीवारें तथा तीन खण्ड ऊंचे बुर्ज हैं। इसके चारो ओर ३०|४० फिट ऊंची सफील है। ...इसमें शिल्प की बहुत भारी कला ख़र्च की गई है। बुद्ध की सोने चांदी की मूर्तियाँ हैं और उन में रत्न जड़े हैं। वर्षा ऋतु में यहाँ बौद्धों का भारी मेला लगता है लाखों मनुष्य आते और, दिन रात उत्सव मनाते हैं।"

इसने नालंद विश्वविद्यालय में कामरूप के राजा के साथ कुछ दिन व्यतीत किये थे। और बड़े २ विद्वानों से इसने बात चीत की थी। मुंगेर और पूर्वी बिहार में तथा उत्तरी बंगाल में बौद्धों और हिन्दुओं के संघाराम और मन्दिर दोनों ही देखे। फिर वह आसाम, मनीपुर, सिलहट आदि में आया जहां हिन्दुओं के बहुत से मन्दिर बन गये थे। और बौद्धों का बहुत कुछ ह्रास होगया था।

यहां उसने एक भी संघाराम नहीं देखा। ताम्रलिप्त राज्य जो आजकल मिदनापुर के आस पास है बौद्धों के सङ्घाराम जहां तहां देखे। कर्ण सुवर्ण (मुरशिदाबाद) में उसने बौद्धों और हिंदुओं दोनों को देखा था। उड़ीसा में उसने बौद्धों के १०० सङ्घाराम तथा १० हजार भिक्षु देखे थे। पुरी का मन्दिर नहीं बना था, पर वहां १० मन्दिर हिन्दुओं के बन गये थे और यह स्थान बौद्धों की [ १५४ ]रक्षा का एक मात्र स्थान था। बौद्धों की रीति पर आज भी पुरी में जगन्नाथ जी की रथ यात्रा होती है। कलिंग राज्य में बौद्ध धर्म न था। बरार में बौद्ध हिन्दू दोनों समान थे। यहीं प्रसिद्ध सिद्ध नागार्जुन रहता था। आन्ध्र प्रदेश में उसने २० सङ्घाराम और ३० देव मन्दिर देखे थे। अधिकांश मठ उजड़ गये थे। मन्दिर और उनके पुजारी बढ़ गये थे, द्राविड़ देशमें उसने बौद्धों का भारी ज़ोर देखा था, यहां १०० सङ्घाराम और १० हजार भिक्षु थे। मलाबार में भी उसने बौद्धों और हिन्दुओं को समान देखा था। लंका वह नहीं गया पर वह लिखता है वहां १०० मठ और २० हजार भिक्षु हैं। महाराष्ट्र प्रदेश में उसने अनेक बड़े २ सङ्घाराम देखे, ऐजेन्टा की प्रसिद्ध गुफाएँ भी उसने देखी थी, यहां ७० फुट ऊँची बुद्ध की एक पत्थर की मूर्ति थी। जिस पर एक ही पत्थर का ७ मंजिला चंदवा था जो अधर खड़ा था। मालवे में उसने १०० सन्घाराम और १०० देव मन्दिर देखे थे। कच्छ गुजरात और सिन्ध में भी उसने सर्वत्र घटते हुऐ बौद्ध धर्म और बढ़ते हुए मूर्ति पूजक हिंदू धर्म को देखा था।

इन मन्दिरों में इनके पुजारियों ने कुछ ही शताब्दियो में अटूट सम्पदा इकट्ठी कर ली और समस्त हिन्दू जाति का धन इन मन्दिरों में एकत्र हो गया। भारत के सभी नगर इन मूर्ख पुजारियों से भर गये। सन् ६१२ ई॰ में जब मुहम्मद बिनकासिम ने दाहर को परास्त किया तब सिन्ध (हैदराबाद) के एक मन्दिर से उसे ४० डेगें ताम्बे की भरी हुईं मिली थीं जिन में १७२०० मन [ १५५ ]सोना भरा था। इसके अतिरिक्त ६००० ठोस सोने की मूर्त्तियाँ थीं जिन में सब से बड़ी का वज़न ३० मन था। हीरा, पन्ना, मोती मानिक इतना था जो कई ऊँटों पर लादा गया था।

महमूद गजनवी ने ११ वीं शताब्दी के प्रारम्भ में नगरकोट के मन्दिर को लूटा और उस में से ७०० मन अशर्फ़ी और ७०० मन सोने चाँदी के बर्तन; ७४० मन सोना २००० मन चाँदी और २० मन हीरा मोती लूट में मिले थे। इसी साहसी योद्धा ने आगे बढ़ कर गुजरात का सोमनाथ का वह प्रसिद्ध मन्दिर लूटा था जिस में अनगिनत रत्नजटित ५६ खम्भे लगे थे और मूर्त्ति के ऊपर ४० मन वज़नी ठोस सोने की ज़ञ्जीर से घण्टा लटक रहा था। इस लूट की सम्पदा की गणना न थी।

आज भी यदि आँख के अन्धे हिन्दू आँख खोल कर देखें तो उन्हें अपनी कमाई का सब से बड़ा भाग मन्दिरों में सञ्चित मिलेगा। नाथद्वारा के मन्दिर की ही मैं अपने अनुभव की बात कहता हूँ। इस मन्दिर के लिये उदयपुर राज्य से २८ गाँव जागीर में मिले हैं। और उसका दैनिक ख़र्च १०००) रुपये का है आमदनी चढ़ावे की बेशुमार है। ठाकुर जी पर चढ़ावा अलग चढ़ता है, गुसांई जी पर अलग, उनकी स्त्री और बच्चों पर अलग। इस प्रकार करोड़ों रुपये के जवाहरात इस मन्दिर में सुरक्षित हैं। १०००) रुपये रोज़ाना का जो ख़र्चा होता है इस में से किसी भी दीन दुखिया को एक पाई नहीं मिलती न किसी का इस से उपकार होता है। यह रुपया सब भोग में ख़र्च होता है और वह [ १५६ ]भोग तनख़ाह के तौर पर काम करने वालों को बांटा जाता है जो उसे घर २ बेच देते हैं।

अन्य मन्दिरों की भी यही दशा है और उन के पुजारियों को वह सब आमदनी स्वेच्छा से ख़र्च करने का पूरा अधिकार है। सब लोग जानते हैं कि ये पुजारी प्रायः मूर्ख, शराबी, लम्पट, व्यभिचारी और नीच प्रकृति होते हैं। पत्थर पूजने का जड़ काम कोई भी बुद्धिमान नहीं कर सकता। ईश्वर ही जान सकता है कैसे इस महामूर्खता के विचार हिन्दुओं के दिमाग़ों से दूर होंगे।

पण्डे पुजारियों के बाद पाखण्डियों में दूसरा नम्बर साधु महात्माओं का है। भारतवर्ष में इस समय ५२ लाख मुसण्डे साधु हैं। जिनका पेशा गृहस्थों की गाढ़ी कमाई को हरण करना। खाना पीना मौज उड़ाना और गृहस्थ की स्त्रियों में व्यभिचार फैलाना है। ये लोग धेले का गेरू और एक पैसा सिर मुड़ाई का देकर एकदम महात्मा बन जाते हैं। इनके अनेक पन्थ और अखाड़े हैं। दादूपन्थी, रामसनेही, कबीर पन्थी, निरंजनी, उदासी, नागर नाथ, आदि न जाने क्या क्या। इनके बड़े बड़े मठ और गुरद्वारे हैं। और उसमें लाखों की सम्पत्ति है। ये लोग जाट, माली, गूजर, बिसनोई, कुरमी आदि किसान पेशा लोगों से चेला मूंडते हैं। यहाँ आलसी, निकम्मे लड़के मेहनत से बचने के लिए आसानी से मिल जाते हैं। साहूकार के क़र्ज़े से भी बच जाते हैं। ये लोग दिन भर राम नाम भजने या माला फेरने का ढोंग किया [ १५७ ]करते हैं। और ख़ूब माल मलीदे उड़ाते हैं। एक अंग्रेज़ यात्री ने इन्हें 'इटेलियन-स्टेलियन' कहा है। यह वास्तव में नरों में सांड हैं। वे अपने को 'अहं ब्रह्मास्मि' कहते हुये अपने ही समान सबको ब्रह्म ही समझने लगते हैं। वे प्रायः अपने शिष्यों को सदा यही उपदेश देते हैं 'ब्रह्मनी ब्रह्म लग्नम्'। और वे आँख के अन्धे गांठ के पूरे 'हरेनमः बापजी' कह देते हैं। मौका पाकर ये ब्रह्मनी से ब्रह्म का सचमुच लग्नम् कर देते हैं। एकबार गुरुदेव की एक ब्रह्मनी (चेली) पर उनके एक ब्रह्म ने ऐसा ही कुछ अनुभव कर डाला—इस पर गुरू ने फटकार कर कहा—अरे पापी, यह क्या किया? उसने कहा—महाराज मैंने तो ब्रह्म से ब्रह्म मिलाया, यह तो पाप नहीं। गुरूजी ताव पेंच खाकर चुप रहे। अवसर पा उन्होंने भी चेले की स्त्री को एक दिन गुरुमन्त्र का अभ्यास करा दिया। परन्तु शिष्य भी पहुँच गये और लगे गुरू की जूती से पूजा करने। गुरूजी जब हाय तोबा करने लगे तो शिष्य ने कहा—'महाराज, चर्मनी चर्म लग्नम्। ब्रह्मनी लग्नम् किम्?' अर्थात् चमड़े से चमड़ा लगा ब्रह्म को क्या लगा—वह क्यों रोता चिल्लाता है?

गांजा, सुलफा, भंग, चरस आदि का पीना इनका धर्म है। और गालियाँ बकना इनका स्वभाव। इनके द्वारा जो जो अनर्थ और अपराध समाज में किये जाते हैं उनका वर्णन हम स्थान स्थान पर इस पुस्तक में कर चुके हैं।

अब तीसरे दर्जे़ के पाखण्डियों की सुनिये। ये जोशी [ १५८ ]बाबा भड्डरी और पत्रा देखकर शकुन मुहूर्त बताने वाले हैं। ये लोग प्रत्येक गाँव शहर और क़स्बों में मक्खी की औलाद की भाँति भिनभिनाते घूमते रहते हैं और अवसर पाते ही स्त्रियों और बेवकूफों को ठगा करते हैं।

मुहूर्त के लोग इतने क़ायल हैं कि बिना मुहूर्त पूछे वे कोई काम ही नहीं किया चाहते। ज्योंहीं आपने किसी जोशी बाबा को बुलाया कि वे पत्रा खोलकर गणित करने का पाखण्ड करेंगे, उँगलियों पर कुछ गिनती करेंगे, और फिर सिर हिलाकर धीरे धीरे गम्भीरता से ऐसी बातें बतायेंगे कि आप चक्कर और चिन्ता में पड़ जायँ। इसके बाद उपाय के बहाने आपसे वे ख़ूब ठग विद्या करेंगे।

एक बार ऐसा हुआ कि मैं एक क़स्बे में ठहरा हुआ था। पड़ौस में किसी के बच्चा हुआ था। एक ऐसा ही ठग वहाँ जा पहुँचा। अवश्य ही उसने सुराग लगा लिया था। वहाँ पहुँच कर उस ने गणित द्वारा बता दिया कि इस घर में कोई जीव जन्मा है। उस पर चौथा चन्द्रमा है। अभी किसी भड्डरी को अमुक अमुक वस्तु दान करदो—वरना ख़ैर नहीं। लोगों ने भयभीत होकर कहा—महाराज, आप ही यह दान ले लें—अब हम भड्डरी को यहाँ कहाँ पावेंगे। उसने कहा—नहीं, बाबा—यह दान जो लेगा उस पर आफत आवेगी, मैं नहीं ले सकता, तुम किसी और को ढूँढो। यह कह चला गया। गली के दूसरी छोर पर एक भड्डरी खड़ा देख कर घर वाले उसे बुला लाये [ १५९ ]और वे पदार्थ उसे दे दिये। पीछे देखा दोनों की मिली भगत थी।

मुहुर्त बताने के इन के ढङ्ग सुनिये, गिनगिना कर और लकीर खींच कर कहेंगे—महाराज, असाढ़ शुक्ला ३ रविवार ३ घड़ी ९ पल चढ़े दिन का मुहुर्त बनता तो है।

आप सन्देह से कहेंगे। बनता तो है क्या माने, ठीक ठीक बताइये। अब वे पितलाया सा मुँह बना कर कहेंगे—

'और सब ठीक है' सिर्फ चन्द्रमा अपने घर का नहीं! परन्तु दिन रविवार है, इससे हानि नहीं। आप यही मुहुर्त रखिये इस प्रकार पीछे के लिये अपना कुछ बचाव के निकाल ही लेते हैं। बहुधा लोग कहा करते हैं—

दिशा शूल ले जावे बांया, राहू योगिनी पूठ।
सन्मुख लेवे चन्द्रमा, लावे लक्ष्मी लूट॥

विवाह शादियों का तो एक खास साहलग होता है, उन दिनों के अलावा आप विवाह आदि शुभ कर्म कर ही नहीं सकते। बहुधा यह उस्ताद लोग बिना मुहुर्त भी मुहूर्त का कुछ उपाय निकाल ही लेते हैं। एक पूजा बृहस्पति की कराई। एक दुघड़िया मुहूर्त भी होता है, जो बहुत आवश्यकता से जल्दी के कामों में निकाला जाता है। बहुधा मुहूर्त के समय कहीं जाना न हो सके तो यारों ने उसका भी संशोधन निकाल रखा है अर्थात् प्रस्थान करके रख दिया जाता है—वह इस प्रकार, कि जाने वाला—अपने दुपट्टे में पांच मंगल पदार्थ—यथा सुपारी, मूंग, हल्दी, धनिया, गुड़ [ १६० ]और एक चांदी का सिक्का बांधकर जिधर जाना हो उस तरफ घर से दूर रख आता है। बस फिर ३ दिन तक उस दुपट्टे के साथ जाने में कोई ख़तरा नहीं रहता।

शकुनों का भी इन अवसरों पर अद्भुत प्रयोग होता है। एक बार कोटा के महाराज ज़ालिमसिंह उल्लू के बोल जाने पर महलों का निवास छोड़ कर खेतों में रहने चले गये थे। इसी प्रकार जयपुर नरेश ने मथुरा का प्रसिद्ध मन्दिर किसी अप शकुन के कारण ही अधूरा छोड़ दिया था। विद्यार्थी परीक्षा में जाने से प्रथम शकुन देखते हैं। वैद्य रोगी देखने के समय शकुन देखते हैं। चोर चोरी करने के समय शकुन देखते हैं। यह शकुन पशु पक्षियों की बोली, उनका दांयां बांयां होना व्यक्ति के सामने से होता है।

स्वप्न भी शकुनों से सम्बन्ध रखते हैं। रात को उल्लू का मकान पर आकर बोलना भारी अपशकुन समझा जाता है। एक बार एक वैद्यराज रोगी को देखने गये रास्ते में दाहिने तीतर बोला, आगे चले—ऊँट का पाँव उखड़ गया। ऊँट वाले ने कहा—महाराज ये शकुन तो अच्छे नहीं। परन्तु वैद्य जी रोगी को अच्छा कर ५०० रु॰ लेकर घर लौटे। घरसे चलती बार साग सब्ज़ी सामने आना शुभ शकुन है, पानी के घड़े मिलना शुभ शकुन है, खाली मिलना अशुभ है। रोटियाँ शुभ और आटा अशुभ है। दही शुभ और दूध घी अशुभ हैं। सुहागन शुभ और विधवा अशुभ है। भंगी शुभ है। सुनार का मिलना अशुभ है। एक बार हम सीकर गये थे। एक [ १६१ ]आदमी दौड़ता आया, सुनारों को सामने से हटाता चला, क्योंकि राजा साहेब की सवारी आ रही थी।

काने पुरुष का मिलना अशुभ है। गधा बांई ओर और साँप दाँई ओर मिलना शुभ है। चलती बार टोकना अशुभ है। देवी देवताओं से भी शकुन देखे जाते हैं। मूर्त्ति के ऊपर चढ़ाई माला या फूल खिसक पड़ना अशुभ है। प्रायः देवी देवताओं के सामने आग पर नारियल की गिरी या घी डाला जाता है, यदि आग भभक उठे तो जोत जगना कहते हैं और कार्य सिद्धि का लक्षण समझते हैं। और भी बहुत से टोटके किये जाते हैं—जिन की गिनती नहीं हो सकती।

सर्प और छिपकली भी शकुन देखने की चीज़ें हैं। दो साँपों का लड़ना घर में लड़ाई होने का लक्षण है। दो साँपों का एक ही ओर जाना दरिद्र आने के समान है। सर्प को हरे वृक्ष पर चढ़ते देखना इतना अच्छा है कि देखने वाला सम्राट् होगा। राजा यदि साँप को पेड़ से उतरता देख ले तो अशुभ है। सोते हुए साँपका सिर पर फन फैलाना शुभ है। साँप को घर में प्रवेश करते देखना धन प्राप्ति का लक्षण है। भूमि पर मरा साँप देखना घर में होने वाली मृत्यु की सूचना है। छिपकली का अध्याय भी बड़ा टेढ़ा है। शरीर पर ६५ स्थान हैं उन पर छिपकली के गिरने से भिन्न २ शुभाशुभ फल होते हैं। प्रातः काल सो कर उठने पर शुभ शकुन देखने की हिन्दुओं को बड़ी फिक्र रहती है। प्रायः वे हथेली को रगड़ कर देखा करते हैं। क्योंकि पाखण्ड शास्त्र मे लिखा है :— [ १६२ ]

कराग्रे वसति लक्ष्मी, कर मध्ये सरस्वती।
कर पृष्ठे च गोविन्दः प्रभाते कर दर्शनम्॥

प्रायः कोई बुरी घटना होने पर लोग कहते हैं आज सुबह किस का मुँह देखा था।

छींक भी शकुन की ख़ास निशानी है। शुभ अवसरों पर छींक होना निहायत वाहियात समझा जाता है। पर दो छींके होना शुभ है। खाते, पीते, सोते समय छींकना शुभ है।

नज़र लग जाना भी भारत भर में फैला है। लोग कहा करते हैं कि नज़र ऐसी कड़ी चीज़ है कि पत्थर को भी तोड़ सकती है। प्रायः बच्चों को नज़र का बड़ा ही भय रहता है। नज़र उतारने के अद्भुत अद्भुत उपाय काम में लाए जाते हैं। माता, पिता, कुटुम्बी, सम्बन्धी चाहे भी जिसकी नज़र बच्चे को लग सकती है। नज़र से बचने के बड़े बड़े टोटके किये जाते हैं। काजल का टीका लगाया जाता है। नोन, राई उतार कर आग में डाली जाती है। राख चटा दी जाती है। मकानों को भी नज़र से बचाने के लिये ख़ास तौर पर चिह्नित कर दिया जाता है। नज़र के डर से बहुत से सम्पन्न गृहस्थ भी बच्चों को साफ नहीं रखते न अच्छे वस्त्र पहनाते हैं।

बहुधा जिनके बच्चे कम जीते हैं वे उन्हें माँगकर वस्त्र पहिनाते है। और न जाने क्या क्या कार्य करते हैं जिनसे मनुष्य की बुद्धि का कोई भी सरोकार नहीं है। बहुधा बच्चा होने पर उसकी नाक में छेद करके लोहे की कील डाल देते हैं। और [ १६३ ]उसका नाम नत्था या नथमल रख देते हैं। यह कड़ी उसके विवाह में उसकी सास ही खोल सकती है, ऐसा मारवाड़ में रिवाज़ है। प्रायः जिनकी सन्तान मर मर जाती हैं वह माता किसी अन्य बालक के बाल या कपड़ा कतर लेती हैं, और इस बात का जब उस बालक के अभिभावकों को पता लगता है तो बड़ा भारी घर युद्ध होता है।

बच्चे के रूप की तारीफ़ करने से उसकी माता बुरा मान जाती है। वह उसे भद्दे रूप में रखना और भद्दे नामों से पुकारना पसन्द करती है। प्रायः वह बच्चे को रोगी और दुबला बताया करती है। चाहे वह कितना ही मोटा क्यों न हो। बच्चे के रोगी होने पर नज़र ही का सन्देह रहता है। फिर तो लाल मिर्चों की धूनी दी जाती है या देवी देवताओं का चरणामृत दिया जाता है।

इस पाखण्ड के आप ज़रा दो एक नमूने सुनिऐ—एक चलते पुर्जे ज्योतिषी जी ने देखा कि अमुक लाला जी रोज वेश्याओं में घूमा करते हैं। उन्होंने अपनी सिद्धाई की शोहरत उनकी स्त्री तक पहुँचाई और वहाँ पहुँच भी गए। स्त्री ने अपना दुख रोया और पति को वश में करने का उपाय पूंछा—ज्योतिषी जी ने अनुष्ठान का एक ही दिन में चमत्कार दिखाने का वचन दिया और २०) लेकर चम्पत हुए। अब वे लाला जी के पास गये। उन्होंने पूंछा—कहो महाराज, आज कल दिन कैसे हैं? ज्योतिषी जी ने पत्रा खोल, उंगली पर गिनती गिन कर कहा—तुम्हें तो आज मार [ १६४ ]केश का योग है। कहीं न कहीं जान का ख़तरा है। लाला जी घबरा गये। उपाय पूंछा। ज्योतिषी जी ने अनुष्ठान की सलाह दी और २०) वसूल कर चलते बने। चलती बार कह गये—शाम के ६ बजे से सुबह तक घर ही में रहना। किसी से इस ग्रह का हाल न कहना, न ख़याल में लाना। उन्होंने यही किया। अनुष्ठान का हाथो हाथ फल पाकर स्त्री प्रसन्न हो गई। दोपहर को पण्डित जी फिर पहुँचे और स्त्री से २००) ठग लाए कि पक्का प्रयत्न हमेशा के लिये कर दूंगा। पक्का इन्तज़ाम ऐसा हुआ कि बेचारी को कुछ दिन बाद और भी बुरा दिन देखना पड़ा।

एक ज्योतिषी जी को एक सेठानी ने बुलाकर कहा कि मेरा पति वेश्या के यहाँ जाता है कुछ उपाय कीजिए। उसने अनुष्ठान करने का वादा किया। उसने सेठ से कहा—आप के ग्रह ठीक नहीं, यदि आप उस स्त्री के पास अमुक तिथि तक जायेंगे तो बड़ा घाटा रहेगा। उन दिनों घाटा हो भी रहा था। लाला घर में सोने लगे। स्त्री ने प्रसन्न हो १००) नज़र कर दिये। वेश्या को पता लगा तो उसने उन्हें बुला कर बहुत लल्लो चप्पो की और २००) नज़र किये तब ज्योतिषी जी ने सेठ से कहा अब रास बदल गई है—उसके पास जाने से ही लक्ष्मी आवेगी। आँख और गाँठ के अन्धे सेठ जी फिर वहाँ जाने लगे।

एक बार एक ज्योतिषी जी ने एक जिमींदार को, जिसका मुकदमा चल रहा था जाकर कहा आपके ग्रह बहुत अच्छे पड़े हैं यज्ञ करो मुकदमा जीतोगे। यज्ञ में भैंसे की बलि दी जायेगी। यज्ञ [ १६५ ]किया गया और जीता भैंसा आग में डाल दिया गया। कुछ दिन बाद मुकदमा वे जीत भी गये। और ज्योतिषी जी को १०००) रु॰ और दुशाला भेंट मिला। कहाँ तक हम इस प्रकार के उदाहरण दें। पाठक इसी से बहुत कुछ अनुमान कर सकते हैं। इस लिये अधिक विस्तार न कर इस विषय को यहीं समाप्त करते हैं।