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नाट्यसंभव

विकिस्रोत से
नाट्यसंभव  (1904) 
किशोरीलाल गोस्वामी

पृष्ठ - से – भूमिका तक

 

श्री

नाट्यसम्भव

रूपक

जिसे

साहित्यानुरागी रसिकजनों के मनोविनोद के लिये

प्रणयिनीपरिणय, लावण्यमयी. मेममयी, कनककुसुम, सुखशर्वरी, हृदयहारिणी,

लपलता, राजकुमारी, स्वर्गीयकुखुम, लीलावती, तारा, चपला

इत्यादि उपन्यासों के रचयिता-

श्रीकिशोरीलालगोस्वामी ने

बनाया

और

बाबू देवकीनन्दन खत्री ने

प्रकाशित किया।

काशी।

लहरी प्रेस में प्रथम वार मुद्रित हुआ।

---

१९०४ ई.

मूल्य ।)
महसूल/)
 

इस

"नाट्यसम्भव"

रूपक

-*का*-

"कापीराइट"

निज मित्र

बाबू देवकीनन्दनजी खत्री
को
सहर्ष अर्पित किया।

 

श्रीकिशोरीलालगोस्वामी

ज्ञानवापी-बनारस।

नाट्यसम्भव रूपक के
पात्र।

स्त्री-
सरस्वती-वागीश्वरी देवी।
ऋद्धि-सरस्वती की चेरी।
सिद्धि-सरस्वती की चेरी तथा।
शची-इन्द्राणी।
उर्वशी, मेनका, रंभा, तिलोत्तमा, धृताची आदि अप्सराएँ।
दैत्यनारियां इत्यादि।
पुरुष-
बृहस्पति-देवताओं के गुरु।
नारद-देवर्षि।
भरत-सङ्गीत और साहित्य के आचार्य्य।
दमनक-भरतमुनि का चेला।
रैवतक-भरतमुनि का चेला तथा।
इन्द्र-स्वर्ग का राजा।
विद्याधर, किन्नर, सिद्ध, यक्ष, गुह्यक, विश्वेदेव, अग्नि, वरुण, धन्वन्तरि, कुबेर, सूर्य, चन्द्रमा, अश्विनीकुमार, कार्त्तिकेय आदि देवगण।
माल्यवान-नन्दनवन का माली।
पिंगाक्ष-इन्द्र का द्वारपाल।
बलि-दैत्यों का राजा।
नमुचि-बलि का दूत।
वज्रदंष्ट्र-बलि का द्वारपाल इत्यादि।

भूमिका।

सन् १८९१ ई॰ में जब हम द्वितीय बार कलकत्ते गए थे, इस "नाट्यसम्भव" रूपक का प्रादुर्भाव उसी समय कलकत्ते मेंही हुआ था। यह भी कैसा अपूर्व समय था और उचितवक्ता सम्पादक पण्डित दुर्गाप्रसाद मिश्र, सारसुधानिधि सम्पादक पण्डित सदानन्द मिश्र, धर्मदिवाकर-सम्पादक पण्डित देवीसहायजी मिश्र आदि विद्वान मित्रवरों के सत्संग से जो आनन्द प्राप्त हुआ था, वह फिर कई बार कलकते जाने पर न मिला। उन्हीं दिनों प्रायः 'नाटक' देखने भी हमलोग जाया करते थे। सो एक दिन 'स्टार' थियेटर में एक ऐसी अच्छी नक़ल देखने में आई कि जो चित्त में चुभती गई और उसीके मूल पर हमने इस "नाट्यसम्भव" रूपक को लिखा, जिसे उपर्युक्त मित्रमण्डली ने सराहा और पसन्द किया।

फिर इस रूपक की खबर बिहार प्रान्त के सूर्यपुराधिपति राजा राजराजेश्वरी प्रसादसिंह बहादुर ने सुनी और जब वे आरा में आए तो उन्होंने हमें बुला कर इस 'रूपक' को आद्यन्त सुना। इसपर वे बहुतही मुग्ध हुए और इसकी कापी उसी समय बाबू रामदीनसिंह के हवाले की। किन्तु खेदपूर्वक कहना पड़ता है कि जब उक्त राजा साहब स्वर्ग सिधार गए और नाटक खङ्गविलास प्रेस सेवन करता रहा, तो हम इसकी कापी वहां से ले आए और बस्ते में बांध कर पटक दिया।

आज बहुत दिनों पीछे यह 'रूपक' मित्रवर वावू देवकीनन्दनजी खत्री के द्वारा छप कर हिन्दीरसिकों के सन्मुख उपस्थित होता है और हम भी इसे स्वर्गीय राजा राजराजेश्वरी प्रसाद सिंह बहादुर की अमर आत्मा को समर्पित कर भूमिका समाप्त करते हैं।

श्रीकिशारीलालगोस्वामी

काशी।

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