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नाट्यसंभव/पहिला दृश्य

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नाट्यसंभव
किशोरीलाल गोस्वामी

पृष्ठ ९ से – १९ तक

 

पहिला दृश्य।

(रङ्गभूमि का परदा उठता है)

स्थान नन्दनवन-माधवीकुंज।

(उदासीन बेश बनाये आगे २ इन्द्र औपीछे २ सोने का आमा लिए प्रतिहारी आता है)

इन्द्र। (घूम कर) अहा! यह किसने कानों में अमृत की चंद टपकाई? (हे सुख सूरज उद इत्यादि फिर से पढ़कर) हा क्या वह दिन जल्दी आवेगा? हे प्यारी पुलोमजे! कय तुम्हारी माधुरी मूर्ति का दर्शन होगा? प्रिये! तुम्हारे वचनामृत के प्यासे इन कानों की कब वृति होगी? अरे निर्दई विधाता! हमने तेरा क्या बिगाड़ा था जो तूने बैठे बैठाये वैर विसाह कर प्रियतमा के विरहरूपी वज्र से हमारे मनोमुकुर को चकना चूर कर दिया! आह! यह किम जन्न के पापों का फल भोग रहे हैं? हे दुर्दैव! जो तुझे यही सूझा था तो फिर हमें अखिललोकवांछित वर्ग के सिंहासन पर क्यों बैठाया? हा!

प्रतिहारी। महाराज की जय होय! स्वामी यही माधवी कुंज है। आप यहां पर विराजैं।

इन्द्र। (घूम कर और प्रतिहारी को देखकर) अरे पिंगाक्ष! तू निकुंज के द्वार पर बैठकर पहरा दे कि जिसमें कोई यहां आकर विघ्न न करने पावै। तबतक हम इसी सूनी लता से अपना जी बहलावैं।

पिंगाक्ष। जो आज्ञा (गया)

इन्द्र। (घूम कर) हा! प्यारी के बिना आज यह माधवी कुंज सांपिनसी इसे लेती है। (पन्ने की शिला पर बैठकर) और यह पत्रे की शिला आज कांटे की भांति शरीर में चुभ रही है। (ठहर कर) हाय! हमने जो यक्ष को*[] शाप देकर उसकी प्रणयिनी को असह्य विरह की यातना दी थी, उसीकी हाय के भभूके से हमारा हृदय आज भुना जाता है। (लम्बी सांस लेकर) अरे! यह मूर्ख अविवेकी पामरों का


प्रलाप मात्र है कि "संसार के समस्त भोग विलामादि सुखों का एकमात्र स्वर्गही आकर है और उस स्वर्ग के नायक परमप्रतापशाली देवेन्द्र की सौभाग्य लक्ष्मी से तीनो लोक प्रकाशित और गौरवान्वित हैं" इत्यादि। तो अब वही लोग आंख पसार कर देखें कि उसी बड़भागी देवेश की आज कैसी दुर्दशा हो रही है? (उठकर इधर उधर घूमता है) हा! आंखों के आगे अंधेरा हुआ जाता है, निकुंज के पक्षियों का चहचहाना कानों में वज्र की भांति गूंजता है, हाथ पांच सन्न और अङ्ग प्रत्यङ्ग शिथिल हुए जाते हैं, हृदय सूना होगया और प्राण ओठों पर नाच रहे हैं। (चारों ओर देखकर) आह! जिस स्वर्ग में सदा शोभादेवी क्रीड़ा किया करती थीं, आज वहीं कैसी घटा कीसी उदासी छागई है। जहां सदैव आनन्द कीसी सरिता बहा करती थी, वहां पर आज भयंकर ज्वालमालासी लपट फैल गई है। जहां शोक दुःख सन्ताप का नाम तक न था, आज वहीं इन लोगों ने अपना अड्डासा जमा रक्खा है (ठहर कर) और यह बात सोचने से तो कलेजा फटा जाता है कि हत्यारे असुरों ने न जाने प्राणप्रिया की कैसी दुर्दशा की होगी! हा! हमारे इस जीने पर कोटि कोटि धिक्कार है!!!

दोहा।
छिन छिन बीतै मोहि जुग, तुव विन चतुर सुजान।
विरहानल छाती दहै, प्रान लगे पिलखान॥
सोरठा।
कैसे रहिहैं प्रान, प्रिया तिहारे दरम बिन।
सूनो लगत जहान, इक तो बिन मनभावती॥
(विरहनाट्य करता हुआ गाता है)
राग मारू।

प्यारी तो बिन विकल प्रान मम तलफत हैं इत।
सूनो लागै मनिमंदिर अब चितवों जित तित॥
छाई आंसुन बूंद सदा इन नैनन माहीं।
किये कोटि उपचार धरै हिय धीरज नाहीं॥
बिकल प्रान अकुलान लगे या तन में दुखसों।
हाय भैंट ह्वै है बहोरि मोकों कब सुखसों।
या नन्दनवन माहिं दुखी मानस सबही को॥
पै जानत नहिं भेद कोऊ लहि मेरे जी को।
हरै कौन जग माहिं अहो! गम्भीर पीर को॥
बिना तिहारे चैन परै कैसे सरीर को॥
अब नहिं ढाढ़स बंधे हिये में प्यारी तो बिन।
कैसे कटि हैं हाय दुसह दुखदाई दुरदिन॥
अब तो कोऊ भांति हमें प्यारि मरिवो है।
जैसे वने प्रेम-परिपाटी अनुसरिवो है॥

विरह-बज्र की मार सहौं कैसे हिय ऊपर।
कौन अहै, दुख सहै अहो! या भांतिन भूपर!!?
गई सबै सोभा हेराय नन्दनवन केरी।
छाई वनि विकराल कालसी घटा घनेरी॥
मानत नाहिं मनाये कैसेहूं जिय मेरो।
आंखिन आगे रह्यो घेरि चहुं ओर अंधेरो॥
कोऊ दीखत नाहिं ताहि सम प्यारी दस दिक।
अबही लों जीवत हों, तो बिन मोकों धिक धिक॥
करौं प्रतिज्ञा बज्रधारि कर अब हम दृढ़तर।
जारि असुरकुल, मारि मूढ़, संहारि दनुजवर॥
करौं बेगि उद्धार, याहि हाथन सों प्यारी।
जौं चितवैं करि नेह विलोचन सों त्रिपुरारी॥

(शिला पर बैठकर आंख मूंदे हुए "करों बेगि उद्वार, इत्यादि फिर पढ़ता है)
(नेपथ्य में)
राग सम्माच।
जय जय अखिल भुवन की बानी।
कवि की रसना माहिं जासुको मन्दिर वेद बखानी॥
अतुल रूप, गुन अमित, विस्व में जाकी छटासमानी।
जेहि लहि पुनि कछु करैं आस नहिं सुर, नर, मुनि विज्ञानी॥

(इन्द्र चौंक कर इधर उधर देखता है और सरस्वती का गुन गाते हुए भरतमुनि आते हैं)

इन्द्र। (उठकर और आसन देकर) पुनिवर को प्रणाम है।

भरत। (बैठकर) हे स्वर्गलोक के शानन करनेवाले पाक शासन! जस रमानेवाले भवानीपति भूतनाथ भगवान तुम्हारा कल्याण करैं। ऐं सुरेश! तुम्हारा प्रसन्नमुख आज इतना मलिन क्यों होरहा है? बैठो तो सही।

इन्द्र। (बैठकर) मुनिवर! हमारा अपराध क्षमा कीजिए, क्योंकि इस समय हम ऐची घोर चिन्ता में डूबे हुए हैं। कि अच्छी तरह आपका आदर सत्कार नहीं कर सकते। हा! अपनी दुःख से भरी कहानी हम कहांतक सुनावें, आपसे क्या कुछ छिपा है?

भरत। हे इन्द्र! तुम्हारे ऐसे धीर वीर पुरुष को ऐसा अधीर होना कदापि उचित नहीं है।

(धुन विरहनी)

इन्द्र। कहा कहौं बनि परे न भाखे यह दुखरी कहानी।
भरत। पै धीरज उर धरै, भए दुःख जे नर हैं विज्ञानी॥
इन्द्र। विरहानल यों हियो जरावै समय पाय मननानो।
भरत। कासों कहा बसाय सबै जग विधि के हाय बिकाने॥
इन्द्र। नैन नीर बरसावैं निस दिन वपु बरसात बनाए।
भरत। ह्वैहै वहुरि बसन्त, गाई है कोकिल कल मन भाए॥

इन्द्र। बिकल प्रान अकुलान लगे इत राखि सकै किमि कोऊ।
भरत। मिटिहैं सब सन्ताप बेगि, बहु भांतिन सों सुख होऊ॥
इन्द्र। मिलै न मांगी मौत भए दुख विधि कृत मेटै को जग।
भरत। याहीसों बुध बिपति परे, गहि चलैं सुगन धीरज मग॥
इन्द्र। दोहा।

प्रियाविरह व्याकुल अतिहि, मैं इत भयो बिहाल।
पै उत मेरे विरह में, वाको कौन हवाल!!

भरत। दोहा।
सती नारि के तेज सों, दुर्ज्जन दुष्ट-पतंग।
जरि जरि मरै, न करि सकै छलबल भरित उमंग॥
सती नामतें ह्वै रह्यो, दीपित भुवन अनन्त।
कौन ताहि दुख दै सकै, मूढ़ नारकी जन्त॥

इन्द्र। मुनिवर! आपका कहना बहुतही सत्य और उपयोगी है, पर क्या करें; जब उस माधुरी मूर्ति का ध्यान करते हैं, तभी मन मचलने, हृदय फटने और प्राण तड़फने लगते हैं।

भरत। ऐं इन्द्र! जो तुम इतने बड़े वर्ग के स्वामी होकर ऐसे ब्याकुल होगे तो साधारण प्राणियों की क्या गति होगी? यद्यपि सुरलोक की श्री (शची) को हरण करके दुष्ट दैत्यों ने इस लोक को उजाड़सा कर डाला है, पर किया क्या जाय? जबतक सुख दुख की अवधि रहती है, तबतक उसे भोगनाही पड़ता है। परन्तु इस यात को तुम अपने मन में निश्चय नममा कि उस सतीशिरोमणि शची देवी के अमल और कोमल शरीर में कोई उंगली भी नहीं लगा सकता। इसलिये धीरज धरकर अमुरी के संहार करने का उपाय करो। सर्वशक्तिमान जगदीश्वर की अनन्त दया से शीघ्रही तुम असुरों का नाश कर अपनी प्रणयिनी को पाओगे।

इन्द्र। आपका उपदेश बहुतही मधुर और हितकारी है और हम भी अपने मन की बहुत समझाते हैं, पर यह अमाना मन जब मचलता है, तब किसी तरह मानताही नहीं। हा!

चौपाई।
बहै सहस लोचन सों नीर।
मन चंचल नहिं धरै सुधीर॥
पिरह ज्वाल जारैमम देह।
अहो! सची विन सुनो गेह॥

(लम्बी सांस लेता है)

भरत। धीरज धरो, देवेन्द्र! धीरज धरो! अपने चंचल चित्त को शांत करो। सुनो-

दोहा।
परम दयासागर सदा, सांत सच्चिदानन्द।
करि है कृपा कटांच्छसों, मेटि सबै दुख दन्द ॥

इन्द्र। (मन में) ऐं! ऐसा भी कोई उपाय है कि जिससे अमर लोग भी मर सकैं? हा! इस विरह की वेदना से तो मौत रोगुनी सुखदाई है। (प्रगट)


दोहा।
जल बिनज्योंजलचर दुखी, रवि बिन सकल जहान।
त्यों बिन सची, मची इहां, बिरहानल धुंधुकान॥

भरत। हे देवेश! अपने मन को व्यर्थ शोकसागर में डुबाने से हानि छोड़ लाभ कुछ भी नहीं है। इस लिये अब कलेजे पर पत्थर रखकर ऐसा यत्न करो, जिसमें शीघ्रही शची देवी प्रास हो। (कुछ सोचकर) अच्छा देखो! हम अपने भरसक तुम्हारे मन बहलाने का कोई उपाय करेंगे (मन में) हा। बिचारे इन्द्र की दशा देखकर जबकि हमारा भी धीरज भागा जाता है तो इसे हम कहां तक समझा? सच है, प्यारी वस्तु का बिछोह बहुतही दुखदाई होता है। जिसके कलेजे पर यह चोट लगती है, उसीका जी जानता है। बहै सहस्र नेत्र सोय, नीर, धीर छाडि के।

बहै सहस्र नेत्र सो य, नीर, धीर छाड़ि कै।
दहै अतीव सांत चित्त हीय गेह फाड़ि कै॥
तथापि जो कृपा करैं सरस्वती तबै इहां।
वहै अन्दर-धार मोद,मोह मेटि कै महा ॥

इन्द्र। मुनिवर! हम भी यही चाहते हैं कि किसी भांति हमारे मन का बोझा कुछ हलका हो। यदि आपकी कृपा से जी ठिकाने होजाय तो फिर क्या कहना है? हां यह तो हम भी जानते हैं कि एक न एक दिन हमारी प्रानप्यारी फिर से हमारे अँधेरे को उंजेला करैंगी और यह भी निश्चय है कि उस सती स्त्री का कोई बाल तक बांका नहीं कर सकता। परन्तु इस समय कोई ऐसा उपाय निकालना चाहिए, जिसमें चित्त चंचल न हो। तभी उसके उद्धार और असुरों के संहार का भी प्रबंध अच्छी तरह हो सकैगा।

भरत। हाँ हां! जो भगवती ने कृपा की तो ऐसाही होगा।

इन्द्र। हृदय यातना अतुल यहै मेटे को आई।

भरत। समय पाय के मिटै आपुही दुखसमुदाई।

इन्द्र। बिना मन्त्री के कौन इन्द्र को मन हरखावै।

भरत। धीरजही के धरे, मनुज आगे सुख पावै॥

इन्द्र। सोरठा।
को करिसकै खान, प्यारी तेरे गुन अतुल ।
बेधत हैं मम प्रान, ज्योज्यों सोचत हाँ तिन्हें ॥

भरत। हे स्वर्ग की शोभा बढ़ानेवाले सहस्रलोचन! धीरज धरो। धीरज से दुरन्त दुख भी उतना दुखदाई नहीं होता, जितना कि थोड़ा दुःख अधीर होने से देखा! सुख दुख बराबर चक्र की शांति घूमा करते हैं। संताप विपतवृक्ष की छायामात्र है। अतएव ज्ञानी पुरुष दुःख को धैर्य्य से और अज्ञानी जीव रोकर काटते हैं। देखो संसार में सबकी सदा एकसी नहीं निभती। सदा सब कोई एकही पलरे पर नहीं तुलता। इसलिए जो विपत्ति में धीरज घरते हैं, वही सच्चे महा पुरुष हैं।

इन्द्र। (शांत होकर) आपके हितोपदेश ने हमारे हृदय की चोट पर औषधि कासा काम किया।

भरत। अच्छा! अव हमारे संध्यावन्दन का समय हुआ, इसलिए हम आश्रम को जाते हैं। तुम घबराहट छोड़ कर अपने मन को सम्हालो। हम फिर आवैंगे। (उठते हैं)

इन्द्र। (उठकर) इस तापदग्ध इन्द्र के मानसिक रोग की औषधि शीघ्रही कीजिएगा। भूल न जाइयेगा।

भरत। यह क्या! तुम बालकों कीसी बातें करते है! भला हम तुम्हें भूल जायंगे! और ऐसे समय में! धीरज धरो।

इन्द्र। जो आज्ञा (प्रणाम करता है)

भरत। शीघ्र मनोकामना पूरी हो।

(दोनो दो ओर से जाते हैं)
परदा गिरता है।
इति दूसरा दृश्य।

  1. * महाकवि कालिदास ने इसी यक्ष की पौराणिक कया लेकर मेघन काव्य बनाया है।