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निर्मला/१

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निर्मला
प्रेमचंद

पृष्ठ १ से – ९ तक

 
 

निर्मला

पहला परिच्छेद

यों तो बाबू उदयभानुलाल के परिवार में बीसों ही प्राणी थे; कोई ममेरा भाई था, कोई फुफेरा; कोई भाञ्जा था, कोई भतीजा; लेकिन यहाँ हमें उनसे कोई प्रयोजन नहीं। वह अच्छे वकील थे, लक्ष्मी प्रसन्न थी; और कुटुम्ब के दरिद्र प्राणियों को आश्रय देना उनका कर्त्तव्य ही था। हमारा सम्बन्ध तो लोग उनकी दोनों कन्याओं से है, जिनमें बड़ी का नाम निर्मला; और छोटी का कृष्णा था। अभी कल तक दोनों साथ-साथ गुड़िया भी मैं थीं। निर्मला का पन्द्रहवाँ साल था, कृष्णा का दसवाँ; फिर 
भी उनके स्वभाव में कोई विशेष अन्तर न था। दोनों चञ्चल, खिलाड़िन और सैर-तमाशे पर जान देती थीं। दोनों गुड़ियों का धूम-धाम से ब्याह करती थीं, सदा काम से जी चुराती थीं। माँ पुकारती रहती थी; पर दोनों कोठे पर छिपी बैठी रहती थीं कि न जाने किस काम के लिए बुलाती हैं। दोनों अपने भाइयों से लड़ती थीं, नौकरों को डाटती थीं; और बाजे की आवाज़ सुनते ही द्वार पर आकर खड़ी हो जाती थीं; पर आज एकाएक एक ऐसी बात हो गई है, जिसने बड़ी को बड़ी और छोटी को छोटी बना दिया है। कृष्णा वही है; पर निर्मला गम्भीर, एकान्तप्रिय और लज्जाशीला हो गई है। इधर महीनों से बाबू उदयभानुलाल निर्मला के विवाह की बातचीत कर रहे थे। आज उनकी मिहनत ठिकाने लगी है। बाबू भालचन्द्र सिन्हा के ज्येष्ठ पुत्र भुवनमोहन सिन्हा से बात पक्की हो गई है। वर के पिता ने कह दिया है कि आप की खुशी हो दहेज़ दें या न दें, मुझे इसकी परवाह नहीं; हाँ, बारात में जो लोग जायँ उनका आदर-सत्कार अच्छी तरह होना चाहिए, जिसमें मेरी और आपकी जग-हँसाई न हो। बाबू उदयभानुलाल थे तो वकील; पर सञ्चय करना न जानते थे। दहेज उनके सामने कठिन समस्या थी। इसलिए जब वर के पिता ने स्वयं कह दिया कि मुझे दहेज की परवाह नहीं, तो मानो उन्हे आँखें मिल गई। डरते थे, न जाने किस-किस के सामने हाथ फैलाना पड़े, दो-तीन महाजनों को ठीक कर रक्खा और उन्हे अनुमान था कि हाथ रोकने पर भी बीस हजार से कम
खर्च न होंगे। यह आश्वासन पाकर वे खुशी के मारे फूले न समाए!

इसी सूचना ने अज्ञात वालिका को मुँह ढाँप कर एक कोने में विठा रक्खा है। उसके हृदय में एक विचित्र शङ्का समा गई है, रोम-रोम में एक अज्ञात भय का सञ्चार हो गया है--न जाने क्या होगा? उसके मन में वे उमङ्गे नहीं हैं, जो युवतियों की आँखों में तिरछी चितवन बन कर, ओठों पर मधुर हास्य बन कर; और अङ्गों में आलस्य वन कर प्रकट होती हैं। नहीं, वहाँ अभिलाषाएँ नहीं हैं; वहाँ केवल शङ्काएँ, चिन्ताएँ और भीर कल्पनाएँ हैं। यौवन का अभी तक पूर्ण प्रकाश नहीं हुआ है!

कृष्णा कुछ-कुछ जानती है, कुछ-कुछ नहीं जानती। जानती है, बहिन को अच्छे-अच्छे गहने मिलेंगे, द्वार पर बाजे बजेंगे, मेहमान आएंगे, नाच होगा--यह जान कर प्रसन्न है; और यह भी जानती है कि वहिन सबके गले मिल कर रोएगी, यहाँ से रो-धो कर विदा हो जायगी, मैं अकेली रह जाऊँगी।। यह जान कर दुखी है; पर यह नहीं जानती कि यह सब किसलिए हो रहा है, माता जी और पिता जी क्यों बहिन को घर से निकालने को इतने उत्सुक हो रहे हैं। बहिन ने तो किसी को कुछ नहीं कहा, किसी से लड़ाई नहीं की; क्या इसी तरह एक दिन मुझे भी लोग निकाल देंगे? मैं भी इसी तरह कोने में बैठ कर रोऊँगी; और किसी को मुझ पर दया न आएगी? इसलिए वह भयभीत भी है। सन्ध्या का समय था, निर्मला छत पर जाकर अकेली बैठी आकाश की ओर तृषित नेत्रों से ताक रही थी। ऐसा मन होता था कि पङ्ख होते तो वह उड़ जाती; और इन सारी झन्झटों से छूट जाती। इस समय बहुधा दोनों बहिनें कहीं सैर करने जाया करती थीं। बग्घी खाली न होती, तो बगीचे ही में टहला करतीं। इसलिए कृष्णा. उसे खोजती फिरती थी। जब कहीं न पाया, तो छत पर आई; और उसे देखते ही हँस कर बोली-तुम यहाँ आकर छिपी बैठी हो; और मैं तुम्हें ढूँढ़ती फिरती हूँ। चलो, बग्घी तैयार करा आई हूँ!

निर्मला ने उदासीन भाव से कहा--तू जा, मैं न जाऊँगी।

कृष्णा--नहीं, मेरी अच्छी दीदी; आज ज़रूर चलो। देखो, कैसी ठण्डी-ठण्डी हवा चल रही है।

निर्मला--मेरा मन नहीं चाहता, तू चली जा।

कृष्णा की आँखें डबडबा आई। काँपती हुई आवाज़ से बोली--आज तुम क्यों नहीं चलती? मुझसे क्यों नहीं बोलती? क्यों इधर-उधर छिपी-छिपी फिरती हो? मेरा जी अकेले बैठे-बैठे घबराता है। तुम न चलोगी, तो मैं भी न जाऊँगी। यहीं तुम्हारे साथ बैठी रहूँगी।

निर्मला--और जब मैं चली जाऊँगी, तब क्या करेगी? तब किसके साथ खेलेगी, किसके साथ घूमने जायगी; बता?

कृष्णा--मैं भी तुम्हारे साथ चलँगी। अकेले मुझसे यहाँ न रहा जायगा। निर्मला मुस्करा कर बोली--तुझे अम्माँ न जाने देंगी।

कृष्णा--तो मैं भी तुम्हें न जाने दूँगी। तुम अम्माँ से कह क्यों नहीं देतीं कि मैं न जाऊँगी?

निर्मला--कह तो रही हूँ, कोई सुनता है?

कृष्णा--तो क्या यह तुम्हारा घर नहीं है?

निर्मला--नहीं; मेरा घर होता तो कोई क्यों ज़बरदस्ती निकाल देता।

कृष्णा--इसी तरह किसी दिन मैं भी निकाल दिया जायगा?

निर्मला--और नहीं क्या तू वैठी रहेगी? हम लड़कियाँ हैं, हमारा घर कहीं नहीं होता।

कृष्णा--चन्दर भी निकाल दिया जायगा?

निर्मला--चन्दर तो लड़का है; उसे कौन निकालेगा?

कृष्णा--तो लड़कियाँ बहुत खराब होती होंगी?

निर्मला--खराब न होती; तो घर से भगाई क्यों जातीं।

कृष्णा--चन्दर इतना बदमाश है, उसे कोई नहीं भगाता। हम तुम तो कोई बदमाशी भी नहीं करतीं।

एकाएक चन्दर धम-धम करता हुआ छत पर आ पहुँचा; और निर्मला को देख कर बोला--अच्छा! आप यहाँ बैठी हैं। ओहो! अब तो बाजे बजेंगे, दीदी दुल्हन बनेंगी, पालकी पर चढ़ेगी, ओहो! ओहो!!

चन्दर का पूरा नाम चन्द्रभानु सिन्हा था। निर्मला से तीन साल छोटा; और कृष्णा से दो साल बड़ा था। निर्मला--चन्दर! मुझे चिढ़ाओगे, तो अभी जाकर अम्माँ से दूँगी।

चन्द्र--तो चिढ़ती क्यों हो? तुम भी बाजे सुनना। ओहो, हो! अब आप दूल्हन बनेंगी! क्यों किशनी, तू बाजे सुनेगी न? वैसे बाजे तूने कभी न सुने होंगे।

कृष्णा--क्या बैण्ड से भी अच्छे होंगे?

चन्द्र--हाँ हाँ, बैण्ड से भी अच्छे, हजार गुने अच्छे, लाख गुने अच्छे। तुम जानो क्या? एक बैण्ड सुन लिया, तो समझने लगी, उससे अच्छे बाजे ही नहीं होते। बाजे बजाने वाले लाललाल बर्दियाँ और काली-काली टोपियाँ पहने होंगे। ऐसे खूबसूरत मालूम होंगे कि तुमसे क्या कहूँ। आतशबाज़ियाँ भी होंगी; हवाइयाँ आसमान में उड़ जायँगी; और वहाँ तारों में लगेंगी तो लाल, पीले, हरे, नीले तारे टूट-टूट कर गिरेंगे। बड़ा मज़ा आएगा।

कृष्णा--और क्या-क्या होगा चन्दर, बता दे मेरे भैया!

चन्द्र--मेरे साथ घूमने चल, तो रास्ते में सारी बातें बता दूँ। ऐसे-ऐसे तमाशे होंगे कि देख कर तेरी आँखें खुल जायँगी। हवा में उड़ती हुई परियाँ होंगी; सचमुच की परियाँ।

कृष्णा--अच्छा चलो; लेकिन न बताओगे तो मारूँगी।

चन्द्रभानु और कृष्णा चले गए; पर निर्मला अकेली बैठी रह गई। कृष्णा के चले जाने से इस समय उसे बड़ा क्षोभ हुआ। कृष्णा जिसे वह प्राणों से भी अधिक प्यार करती थी, आज इतनी

निठुर हो गई! अकेली छोड़ कर चली गई! बात कोई न थी, लेकिन दुखी हृदय दुखती हुई आँख है, जिसमें हवा से भी पीड़ा होती है। निर्मला बड़ी देर तक बैठी रोती रही। भाई-बहिन, माता-पिता सभी इसी भॉति मुझे भूल जायँगे, सब की आँखें फिर जायँगी! फिर शायद इन्हें देखने को भी तरस जाऊँ!

चारा में फूल खिले हुए थे। मीठी-मीठी सुगन्ध आ रही थी। चैत की शीतल, मन्द समीर चल रही थी। आकाश में तारे छिटके हुए थे। निर्मला इन्हीं शोकमय विचारों में पड़ी-पड़ी सो गई और आँख लगते ही उसका मन स्वप्न-देश में विचरने लगा। क्या देखती है कि सामने एक नदी लहरें मार रही है; और वह नदी के किनारे नाव की वाट देख रही है। सन्ध्या का समय है। अँधेरा किसी भयङ्कर जन्तु की भाँति बढ़ता चला आता है। वह घोर चिन्ता में पड़ी हुई है कि कैसे यह नदी पार होगी; कैसे घर पहुँचूँगी। रो रही है कि कहीं रात न हो जाय, नहीं तो मैं अकेली यहाँ कैसे रहूँगी। एकाएक उसे एक सुन्दर नौका घाट की ओर आती दिखाई देती है। वह खुशी से उछल पड़ती है; और ज्योंही नाव घाट पर आती है, वह उस पर चढ़ने के लिए बढ़ती है। लेकिन ज्योंही नाव के पटरे पर पैर रखना चाहती हैं, उसका मल्लाह बोल उठता है--तेरे लिए यहाँ जगह नहीं है। वह मल्लाह की खुशामद करती है, उसके पैरों पड़ती है, रोती है; लेकिन वह यह कहे जाता है--तेरे लिए यहाँ जगह नहीं है।

एक क्षण में नाव खुल जाती है। वह चिल्ला-चिल्ला कर रोने लगती है। नदी के निर्जन तट पर रात भर कैसे रहेगी, यह सोच, वह नदी में कूद कर उस नाव को पकड़ना चाहती है कि इतने में कहीं से आवाज़ आती है--ठहरो-ठहरो, नदी गहरी है, डूब जाओगी। वह नाव तुम्हारे लिए नहीं है, मैं आता हूँ; मेरी नाव पर बैठ जाओ, मैं उस पार पहुँचा दूँगा। वह भयभीत होकर इधर-उधर देखती है कि यह आवाज़ कहाँ से आई। थोड़ी देर के बाद एक छोटी-सी डोंगी आती दिखाई देती है। उसमें न पाल है, न पतवार; और न मस्तूल। पेंदा फटा हुआ है, तख्ते टूटे हुए, नाव में पानी भरा हुआ है; और एक आदमी उसमें से पानी उलीच रहा है। वह उससे कहती है, यह तो टूटी हुई है, यह कैसे पार लगेगी? मल्लाह कहता है-- तुम्हारे लिए यही भेजी गई है, आकर बैठ जाओ। वह एक क्षण सोचती है--इसमें बैठूँ या न बैठें। अन्त में वह निश्चय करती है, बैठ जाऊँ। यहाँ अकेली पड़ी रहने से नाव में बैठ जाना फिर भी अच्छा है। किसी भयङ्कर जन्तु के पेट में जाने से तो यही अच्छा है कि नदी में डूब जाऊँ। कौन जाने, नाव पार पहुँच ही जाय; यह सोच कर वह प्राणों को मुट्ठी में लिए हुए नाव पर बैठ जाती है। कुछ देर तक नाव डगमगाती हुई चलती है; लेकिन प्रति क्षण उसमें पानी भरता जाता है। वह भी मल्लाह के साथ दोनों हाथों से पानी उलीचने लगती है, यहाँ तक कि उसके हाथ रह जाते हैं; पर पानी बढ़ता ही चला जाता है।
आखिर नाव चकर खाने लगती है; मालूम होता है-अब डूबी, अब डूवी । तब वह किसी अदृश्य सहारे के लिए दोनों हाथ फैलाती है, नाव नीचे से खिसक जाती है। और उसके पैर उखड़ जाते हैं। वह जोर से चिल्लाई और चिल्लाते ही उसकी आँखें खुल गई। देखा तो माता सामने खड़ी उसका कन्धा पकड़ कर हिला रही थीं।