निर्मला/२

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निर्मला
द्वारा प्रेमचंद
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दूसरा परिच्छेद

बाबू उदयभानुलाल का मकान बाज़ार में बना हुआ है। बरामदे में सुनार के हथौड़े, और कमरे में दर्ज़ी की सुइयाँ चल रही हैं। सामने नीम के नीचे बढ़ई चारपाइयाँ बना रहा है। खपरैल में हलवाई के लिए भट्ठा खोदा गया है। मेहमानों के लिए अलग एक मकान ठीक किया गया है। यह प्रबन्ध किया जा रहा है कि हरेक मेहमान के लिए एक-एक चारपाई, एक-एक कुर्सी और एक-एक मेज़ हो। हर तीन मेहमानों के लिए एक-एक कहार रखने की तजवीज़ हो रही है। अभी बारात आने में एक महीने की देर है, लेकिन तैयारियाँ अभी से हो रही हैं। बारातियों का ऐसा सत्कार किया जाय कि किसी को ज़बान हिलाने का मौक़ा न मिले। वे लोग भी याद करें कि किसी के यहाँ बारात में गए थे। एक पूरा मकान बर्तनों से भरा हुआ है। चाय के सेट हैं, नाश्ते की [ ११ ]
तश्तरियाँ, थाल, लोटे, गिलास! जो लोग नित्य खाट पर पड़ हुक्का पीते रहते थे, बड़ी तत्परता से काम में लगे हुए हैं। अपनी उपयोगिता को सिद्ध करने का ऐसा अच्छा अवसर उन्हें फिर बहुत दिनो के वाद मिलेगा। जहाँ एक आदमी को जाना होता है, पाँच दौड़ते हैं। काम कम होता है, हुल्लड़ अधिक। जरा-जरा सी बात पर घण्टों तर्क-वितर्क होता है; और अन्त में वकील साहब को आकर निश्चय करना पड़ता है। एक कहता है, यह घी खराब है। दूसरा कहता है, इससे अच्छा बाजार में मिल जाय, तो टाँग की राह निकल जाऊँ। तीसरा कहता है, इसमें तो हीक आती है। चौथा कहता है, तुम्हारी नाक ही सड़ गई है, तुम क्या जानो घी किसे कहते हैं। जव से यहाँ आए हो, घी मिलने लगा है; नहीं तो घी के दर्शन भी न होते थे। इस पर तकरार बढ़ जाती है; और वकील साहब को झगड़ा चुकाना पड़ता है।

रात के नौ बजे थे। उदयभानुलाल अन्दर बैठे हुए खर्च का तखमीना लगा रहे थे। वह प्रायः रोज ही तखमीना लगाते थे; पर रोज़ ही उसमें कुछ न कुछ परिवर्तन और परिवर्द्धन करना पड़ता था। सामने कल्याणी भौहैं सिकोड़े हुए खड़ी थी। बाबू साहव ने बड़ी देर के बाद सिर उठाया; और बोले--दस हजार से कम नहीं होता, बल्कि शायद और बढ़ जाय।

कल्याणी--दस दिन में पाँच हजार से दस हजार हुए। एक महीने में तो शायद एक लाख की नौबत आ जाय! [ १२ ] उदयभानु--क्या करूँ, जग-हँसाई भी तो अच्छी नहीं लगती। कोई शिकायत हुई, तो लोग कहेंगे नाम बड़े, दर्शन थोड़े। फिर जब वह मुझसे दहेज एक पाई नहीं लेते, तो मेरा भी तो यह कर्त्तव्य है कि मेहमानों के आदर-सत्कार में कोई बात उठा न रक्खूँ!

कल्याणी--जब से ब्रह्मा ने सृष्टि रची, तब से आज तक कभी बारातियों को कोई प्रसन्न नहीं कर सका। उन्हें दोष निकालने और निन्दा करने का कोई न कोई अवसर मिल ही जाता है। जिसे अपने घर सूखी रोटियाँ भी मुयस्सर नहीं, वह भी बारात में जाकर नानाशाह बन बैठता है। तेल खुशबूदार नहीं, साबुन टके सेर का जाने कहाँ से बटोर लाए, कहार बात नहीं सुनते, लालटेनें धुआँ देती हैं, कुर्सियों में खटमल हैं,चारपाइयाँ ढीली हैं, जनवासे की जगह हवादार नहीं; ऐसी-ऐसी हजारों शिकायतें होती रहती हैं। उन्हें आप कहाँ तक रोकिएगा? अगर यह मौका न मिला, तो और कोई ऐब निकाल लिए जायँगे। भई, यह तेल तो रण्डियों के लगाने लायक है, हमें तो सादा तेल चाहिए; जनाब यह साबुन नहीं भेजा है, अपनी अमीरी की शान दिखाई है; मानो हमने साबुन देखा ही नहीं। ये कहार नहीं, यमदूत हैं; जब देखिए सिर पर सवार; लालटेनें ऐसी भेजी हैं कि आँखें चमकने लगती हैं। अगर दस-पाँच दिन इस रोशनी में बैठना पड़े, तो आँखें फूट जायँ। जनवासा क्या है, अभागे का भाग्य है, जिस पर चारों तरफ़ से झोंके आते रहते हैं। मैं तो फिर यही कहूँगी कि बारातियों के नखरों का विचार ही छोड़ दो। [ १३ ] उदयभानु--तो आखिर तुम मुझे क्या करने कहती हो?

कल्याणी--कह तो रही हूँ, पक्का इरादा कर लो कि पाँच हजार से अधिक न खर्च करेंगे। घर में तो टका है नहीं; कर्ज ही का भरोसा ठहरा, तो इतना क़र्ज क्यों ले लो कि जिन्दगी में अदा न हो। आखिर मेरे और बच्चे भी तो हैं, उनके लिए भी तो कुछ चाहिए।

उदयभानु--तो क्या आज मैं मरा जाता हूँ?

कल्याणी--जीने-मरने का हाल कोई नहीं जानता।

उदयभानु--तो तुम बैठी यही मनाया करती हो?

कल्याणी--इसमें बिगड़ने की तो कोई बात नहीं है। मरना एक दिन सभी को है। कोई यहाँ अमर होकर थोड़े ही आया है। आँखें बन्द कर लेने से तो होने वाली बात न टलेगी। रोज ऑखों देखती हूँ, बाप का देहान्त हो जाता है, उसके बच्चे गली-गली ठोकरें खाते फिरते हैं। आदमी ऐसा काम ही क्यों करे?

उदयभानु ने जल कर कहा-- तो अब समझ लूँ कि मेरे मरने के दिन निकट आ गए, यह तुम्हारी भविष्यवाणी है। सुहाग से स्त्रियों का जी ऊवते नहीं सुना था, आज यह नई बात मालूम हुई! रँडापे में भी कोई सुख होगा ही!!

कल्याणी--तुम से दुनिया की भी कोई बात कही जाती है, तो जहर उगलने लगते हो। इसीलिए न कि जानते हो इसे कहीं ठिकाना नहीं है--मेरी ही रोटियों पर पड़ी हुई है; या और
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कुछ? जहाँ कोई बात कही, बस सिर हो गए; मानो मैं घर की लौंडी हूँ, मेरा केवल रोटी और कपड़े का नाता है। जितना ही मैं दबती हूँ, तुम और भी दबाते हो। मुफ्तख़ोरे माल उड़ाएँ, कोई मुँह न खोले: शराब-कबाब में रुपये लुटें, कोई जबान न हिलाए। ये सारे काँटे मेरे बच्चों ही के सिर तो बोए जा रहे है!

उदयभानु--तो मैं क्या तुम्हारा गुलाम हूँ?

कल्याणी--तो क्या मैं तुम्हारी लौंडी हूँ?

उदयभानु--ऐसे मर्द और होंगे, जो औरतों के इशारों पर नाचते हैं।

कल्याणी--तो ऐसी स्त्रियाँ भी और होंगी, जो मर्दों की जूतियाँ सहा करती हैं।

उदयभानु--मैं कमा कर लाता हूँ; जैसे चाहूँ खर्च कर सकता हूँ। किसी को बोलने का अधिकार नहीं है।

कल्याणी--तो आप अपना घर सँभालिए। ऐसे घर को मेरा दूर ही से सलाम है, जहाँ मेरी कोई पूछ नहीं। घर में तुम्हारा जितना अधिकार है, उतना ही मेरा भी। इससे जो भर भी कम नहीं। अगर तुम अपने मन के राजा हो, तो मैं भी अपने मन की रानी हूँ। तुम्हारा घर तुम्हें मुबारक रहे, मेरे लिए पेट की रोटियों की कमी नहीं है । तुम्हारे बच्चे हैं; मारो या जिलाओ। न आँखों से देखूगी, न पीड़ा होगी। आँखें फूटीं, पीर गई!

उदयभानु--क्या तुम समझती हो कि तुम न सँभालोगी, वो
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मेरा घर ही न सँभलेगा? मैं अकेले ऐसे-ऐसे दस घर सँभाल सकता हूँ।

कल्याणी--कौन! अगर आज के महीनवें दिन मिट्टी में न मिल जाय, तो कहना कोई कहती थी।

यह कहते-कहते कल्याणी का चेहरा तमतमा उठा। वह झमक कर उठी; और कमरे से द्वार की ओर चली। वकील साहब मुक़दमों में तो खूब मीन-मेख निकालते थे;लेकिन खियों के स्वभाव का उन्हें कुछ यों ही सा ज्ञान था। यही एक ऐसी विद्या है, जिसमें आदमी बूढ़ा होने पर भी कोरा रह जाता है। अगर अब भी वह नरम पड़ जाते; और कल्याणी का हाथ पकड़ कर विठा लेते, तो शायद वह रुक जाती, लेकिन आप से यह तो नहो सका; उलटे चलते-चलाते एक और चर्का दिया।

बोले--मैके का घमण्ड होगा।

कल्याणी ने द्वार पर रुक कर पति की ओर लाल-लाल नेत्रों से देखा; और बफर कर बोली--मैके वाले मेरी तक़दीर के साथी नहीं हैं; और न मैं इतनी नीच हूँ कि उनकी रोटियों पर जा पडूँ।

उदयभानु--तब कहाँ जा रही हो?

कल्याणी--तुम यह पूछने वाले कौन होते हो? ईश्वर की सृष्टि में असंख्य प्राणियों के लिए जगह है, क्या मेरे ही लिए जगह नहीं है?

यह कह कर कल्याणी कमरे के बाहर निकल गई। आँगन में [ १६ ]
आकर उसने एक बार आकाश की ओर देखा, मानो तारागण को साक्षी दे रही है कि मैं इस घर से कितनी निर्दयता से निकाली जा रही हूँ। रात के ग्यारह बज गए थे। घर में सन्नाटा छा गया था, दोनों बेटों की चारपाई उसी के कमरे में रहती थी। वह अपने कमरे में आई, देखा चन्द्रभानु सोया है। सब से छोटा सूर्यभानु चारपाई पर से उठ बैठा है। माता को देखते ही वह बोला--तुम तहाँ दईती अम्माँ? कल्याणी दूर हो खड़े-खड़े बोली--कहीं तो नहीं बेटा, तुम्हारे बाबू जी के पास गई थी।

सूर्य०--तुम तली दई, मुजे अतेले दर लदता ता। तुम त्यों तली दुई ती; बतायो?

यह कह बच्चे ने गोद चढ़ने के लिए दोनों हाथ फैला दिए। कल्याणी अब अपने को न रोक सकी। मातृ-स्नेह के सुधा-प्रवाह से उसका सन्तप्त हृदय परिप्लावित हो गया। हृदय के कोमल पौधे, जो क्रोध के ताप से मुरझा गए थे, फिर हरे हो गए। आँखें सजल हो गई। उसने बच्चे को गोद में उठा लिया; और उसे छाती से लगा कर बोली--तुमने मुझे पुकार क्यों न लिया; बेटा?

सूर्य०--पुकालता तो ता, तुम छुनती ही न तीं। बताओ, अब तो तबी न दाबोगी?

कल्याणी--नहीं भैया, अब कभी न जाऊँगी।

यह कह कर कल्याणी सूर्यभानु को लेकर चारपाई पर लेटी। माँ के हृदय से लिपटते ही बालक निःशङ्क होकर सो गया। कल्याणी के मन में सङ्कल्प-विकल्प होने लगे। पति की बातें याद
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आती, तो मन होता--घर को तिलाञ्जली देकर चली जाऊँ; लेकिन बच्चों का मुँह देखती, तो वात्सल्य से चित्त गद्गद् हो जाता। बच्चों को किस पर छोड़ कर जाऊँ! मेरे इन लाल को कौन पालेगा, ये किसके होकर रहेंगे। कौन प्रातःकाल इन्हें दूध और हलवा खिलाएगा; कौन इनकी नींद सोएगा, इनकी नींद जागेगा? वेचारे कौड़ी के तीन हो जाएँगे। नहीं प्यारो, मैं तुम्हें छोड़ कर न जाऊँगी। तुम्हारे लिए सब कुछ सह लूँगी। निरादर-अपमान, जली-कटी, खोटी-खरी, घुड़की-झिड़की सब तुम्हारे लिए सहूँगी।

कल्याणी तो बच्चे को लेकर लेटी; पर बाबू साहब को नींद न आई। उन्हें चोट करने वाली बातें बड़ी मुश्किल से भूलती थीं। उफ! यह मिजाज! मानो मैं ही इनकी स्त्री हूँ! बात मुँह से निकालनी मुश्किल है। अब मैं इनका गुलाम होकर रहूँ। घर में अकेली यह रहें; और वाकी जितने अपने-वेगाने हैं, सब निकाल दिए जायें। जला करती हैं। मनाती हैं कि यह किसी तरह मरे, तो मैं अकेली आराम करूँ। दिल की बात मुँह से निकल ही आती है, चाहे कोई कितना ही छिपाए। कई दिन से देख रहा हूँ, ऐसी जली-कटी सुनाया करती हैं। मैके का घमण्ड होगा; लेकिन वहाँ कोई वात भी न पूछेगा। अभी सवआवभगत करते हैं। जबजाकर सिर पड़ जायँगी, तो आटे-दाल का भाव मालूम हो जायगा। रोती हुई आएँगी। वाह रे घमण्ड,सोचती हैं--मैं ही यह गृहस्थी चलाती हूँ। अभी चार दिन को कहीं चला जाऊँ, तो मालूम हो। तव देवू क्या करती हैं? बस, चार दिन ही में तो मालूम हो जायगा। सारी शेखी किरकिरी।

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हो जायगी। एक बार इनका घमण्ड तोड़ ही दूँ, जरा वैधव्य का मजा भी चखा दूँ। न जाने इनकी हिम्मत कैसे पड़ती है कि मुझे यों कोसने लगती हैं? मालूम होता है प्रेम इन्हें छू नहीं गया या समझती हैं यह घर से इतना चिमटा हुआ है; कि इसे चाहे जितना कोसूँ, टलने का नाम न लेगा। यही बात है; पर यहाँ संसार से चिपटने वाले जीव नहीं हैं। जहन्नुम में जाय वह घर; जहाँ ऐसे प्राणियों से पाला पड़े। घर है या नरक! आदमी बाहर से थका-माँदा आता है, तो घर में उसे आराम मिलता है। यहाँ आराम के बदले कोसने सुनने पड़ते हैं। मेरी मृत्यु के लिए व्रत रक्खे जाते हैं। यह है पचीस बरस के दाम्पत्य जीवन का अन्त! बस चल ही दूँ। जब देख लूँगा कि इनका सारा घमण्ड धूल में मिल गया; और मिज़ाज ठण्ढा हो गया, तो लौट आऊँगा। चार-पाँच दिन काफ़ी होंगे। ले, तुम भी क्या याद करोगी कि किसी से पाला पड़ा था।

यही सोचते हुए बाबू साहब उठे, रेशमी चादर गले में डाली, कुछ रुपये लिए, अपना कार्ड निकाल कर एक दूसरे कुर्ते के जेब में रक्खा, छड़ी उठाई; और चुपके से बाहर निकले। सब नौकर नींद में मस्त थे। कुत्ता आहट पाकर चौंक पड़ा; और उनके साथ हो लिया।

पर यह कौन जानता था कि यह सारी लीला विधि के हाथों रची जा रही है। जीवन-रङ्गशाला का वह निर्दय सूत्रधार किसी अगम्य, गुप्त स्थान पर बैठा हुआ अपनी जटिल क्रूर-क्रीड़ा दिखा रहा है? यह कौन जानता था कि नकल असल होने जा रही है, अभिनय सत्य का रूप ग्रहण करने वाला है? [ १९ ] निशा ने इन्दु को परास्त करके अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया था। उसकी पैशाचिक सेना ने प्रकृति पर आतङ्क जमा रक्खा था !सद्ववृत्तियाँ मुँह छिपाए पड़ी थीं; और कुवृत्तियाँ विजय-गर्व से इठलाती फिरती थीं। वन में वन्य-जन्तु शिकार की खोज में विचर रहे थे; और नगरों में नर-पिशाच गलियों में मँडलाते फिरते थे।

वाबू उदयभानुलाल लपके हुए गङ्गा की ओर चले जा रहे थे। उन्होंने अपना कुर्ता घाट के किनारे रख कर पाँच दिन के लिए मिर्जापूर चले जाने का निश्चय किया था। उनके कपड़े देख कर लोगों को उनके डूब जाने का विश्वास हो जायगा। कार्ड कुर्ते की जेब में था। पता लगने में कोई दिक्कत न हो सकती थी। दम के दम में सारे शहर में खवर मशहूर हो जायगी। आठ बजते-बजते तो मेरे द्वार पर सारा शहर जमा हो जायगा, तब देखूँ देवी जी क्या करती हैं?

यही सोचते हुए बाबू साहब गलियों में चले जा रहे थे, सहसा उन्हें अपने पीछे किसी दूसरे आदमी के आने की आहट मिली; समझे कोई होगा। आगे बढ़े; लेकिन जिस गली में वह मुड़ते, उसी तरफ वह आदमी भी मुड़ता था। तब तो बाबू साहब को आशङ्का हुई कि यह आदमी मेरा पीछा कर रहा है। ऐसा आभास हुआ कि इसकी नीयत साफ नहीं है। उन्होंने तुरन्त जेबी लालटेन निकाली; और उसके प्रकाश में उस आदमी को देखा। एक बलिष्ट मनुष्य कन्धे पर लाठी रक्खे चला आता था। बाबू साहब उसे देखते ही चौंक पड़े। यह शहर का छटा हुआ बदमाश था। तीन साल पहले उस पर डाके का अभियोग चला [ २० ]
था। उदयभानु ने उस मुक़दमे में सरकार की ओर से पैरवी की थी; और इस बदमाश को तीन साल की सजा दिलाई थी। तभी से वह इनके खून का प्यासा हो रहा था। कल ही वह छूट कर आया था। आज दैवात् बाबू साहब अकेले रात को दिखाई दिए, तो उसने सोचा यह इनसे दाँव चुकाने का अच्छा मौका है। ऐसा मौका शायद ही फिर कभी मिले। तुरन्त पीछे हो लिया; और वार करने के घात ही में था कि बाबू साहब ने जेबी लालटेन जलाई। बदमाश ज़रा ठिठक कर बोला--क्यों बाबू जी, पहचानते हो न? मैं हूँ मतई।

बाबू साहब ने डपट कर कहा--तुम मेरे पीछे-पीछे क्यों आ रहे हो?

मतई--क्यों, किसी को रास्ता चलने की मनाही है। यह गली तुम्हारे बाप की है?

बाबू साहब जवानी में कुश्ती लड़े थे, अब भी हृष्ट-पुष्ट आदमी थे। दिल के भी कच्चे न थे। छड़ी सँभाल कर बोले--अभी शायद मन नहीं भरा। अब की सात साल को जाओगे।

मतई--मैं सात साल को जाऊँ या चौदह साल को; पर तुम्हें जीता न छोड़ँगा। हाँ, अगर तुम मेरे पैरों पर गिर कर क़सम खाओ कि अब किसी की सजा न कराऊँगा, तो छोड़ दूँ। बोलो मञ्जूर है?

उदयभानु--तेरी शामत तो नहीं आई है?

मतई--शामत मेरी नहीं आई, तुम्हारी आई है। बोलो खाते! हो कसम--एक!

उदयभानु--तुम हटते हो कि मैं पुलीसमैन को बुलाऊँ? [ २१ ]मतई-दो!

उदयभानु-(गरज कर ) हट जा बदमाश सामने से ।

मतई-तीन!

मुँह से 'तीन' का शब्द निकलते ही बाबू साहब के सिर पर लाठी का ऐसा तुला हुआ हाथ पड़ा कि वह अचेत होकर जमीन पर गिर पड़े। मुँह से केवल इतनाही निकला-हाय ! मार डाला ! मतई ने समीप आकर देखा, तो सिर फट गया था; और खून की धार निकल रही थी। नाड़ी का कहीं पता न था। समझगया कि काम तमाम हो गया। उसने कलाई से सोने की घड़ी खोल ली, कुर्ते से सोने के बटन निकाल लिए, उँगली से अँगूठी उतारी और अपनी राह चला गया; मानो कुछ हुआ ही नहीं । हाँ, इतनी दया की कि लाश रास्ते से घसीट कर किनारे डाल दी। हाय ! बेचारे घर से क्या सोच कर चले थे; और क्या हो गया, जीवन ! तुझसे ज्यादह असार भी दुनिया में कोई वस्तु है ? क्या वह उस दीपक की भाँति ही क्षणभङ्गुर नहीं है, जो हवा के एक झोंके से बुझ जाता है ? पानी के उस बुलबुले को देखते हो; लेकिन उसे टूटते भी कुछ देर लगती है ; जीवन में उतना सार भी नहीं। साँस का भरोसा ही क्या ? और इसी नश्वरता पर हम अभिलाषाओं के कितने विशाल भवन बनाते हैं ! नहीं जानते नीचे जाने वाली साँस ऊपर आएगी या नहीं; पर सोचते इतनी दूर की हैं, मानो हम अमर हैं। '