निर्मला/१०

विकिस्रोत से
निर्मला
द्वारा प्रेमचंद
[ ११९ ]
 

दसवाँ परिच्छेद

मन्साराम दो दिन तक गहरी चिन्ता में डूबा रहा। बार-बार अपनी माता की याद आती; न खाना अच्छा लगता, न पढ़ने ही में जी लगता। उसकी काया-पलट सी हो गई। दो दिन गुज़र गए और छात्रालय में रहते हुए भी उसने वह काम न किया, जो स्कूल के मास्टरों ने घर से कर लाने को दिया था। परिणाम-स्वरूप उसे बैञ्च पर खड़ा रहना पड़ा। जो बात कभी न हुई थी, वह आज हो गई! यह असह्य अपमान भी उसे सहना पड़ा!

तीसरे दिन वह इन्हीं चिन्ताओं में मग्न हुआ अपने मन को समझा रहा था—क्या संसार में अकेले मेरी ही माता मरी है। विमाताएँ तो सभी इसी स्वभाव की होती हैं। मेरे साथ कोई नई बात नहीं हो रही है। अब मुझे पुरुषों की भाँति द्विगुण परिश्रम से अपना काम करना चाहिए; जैसे माता-पिता राज़ी रहें, वैसे उन्हें राज़ी रखना चाहिए। इस साल अगर छात्रवृत्ति मिल गई, तो मुझे घर से कुछ लेने की ज़रूरत ही न रहेगी। कितने ही लड़के अपने ही बल पर बड़ी-बड़ी उपाधियाँ प्राप्त कर लेते हैं। [ १२० ]बाधाओं पर विजय पाना और अवसर देख कर काम करना ही मनुष्य का कर्तव्य है। भाग्य के नाम को रोने और कोसने से क्या होगा?

इतने में जियाराम आकर खड़ा हो गया।

मन्साराम ने पूछा-घर का क्या हाल है जिया? नई अम्माँ जी तो बहुत प्रसन्न होंगी?

जिया०-उनके मन का हाल तो मैं नहीं जानता; लेकिन जव से तुम आए हो, उन्होंने एक जून भी खाना नहीं खाया। जब देखो तब रोया ही करती हैं। जब बाबू जी आते हैं, तब अलबत्ता हँसने लगती हैं। तुम चले आए, तो मैं ने भी शाम को अपनी किताबें सँभाली। यहीं तुम्हारे साथ रहना चाहता था। भुङ्गी चुडैलने जाकर अम्माँ जी से कह दिया। बाबू जी बैठे थे, उनके सामने ही अम्माँ जी ने आकर मेरी किताबें छीन ली;और रोकर बोलोंतुम भी चले जाओगे, तो इस घर में कौन रहेगा? अगर मेरे 'कारण तुम लोग घर छोड़-छोड़ कर भागे जा रहे हो,तो लो मैं ही कहीं चली जाती हूँ! मैं तो भल्लाया हुआ था ही, वहाँ बाबू जी भी न थे; बिगड़ कर बोला-आप क्यों कहीं चली जाएँगी! आपका तो घर है, आप आराम से रहिए। गैर तो हमी लोग हैं। हम न रहेंगे, तब तो आपको आराम ही आराम रहेगा।

मन्साराम-तुमने खूब कहा,बहुत ही अच्छा कहा। इस पर और भी भलाई होंगी और जाकर बाबू जी से शिकायत की होगी? [ १२१ ]जियाराम-नहीं, यह कुछ नहीं हुआ। बेचारी जमीन पर वैठ कर रोने लगी, मुझे भी करुणा आ गई। मैं भी रो पड़ा,तब उन्होंने आँचल से मेरे आँसू पोंछे और बोलीं-जिया! मैं ईश्वर को साक्षी देकर कहती हूँ कि मैंने तुम्हारे भैया के विषय में तुम्हारे वाबू जी से एक शब्द भी नहीं कहा। मेरे भाग्य में कलङ्क लिखा हुआ है, वही भोग रही हूँ। फिर और न जाने क्या-क्या कहा, जो मेरी समझ में नहीं आया। कुछ बाबू जी की बात थी।

मन्साराम ने उद्विग्नता से पूछा-बाबू जी के विषय में क्या कहा, कुछ याद है?

जियाराम-बातें तो भई मुझे याद नहीं आती। मेरी मैमोरी(Memory) कौन बड़ी तेज़ है;लेकिन उनकी बातों का मतलब कुछ ऐसा मालूम होता था कि उन्हें बाबू जी को प्रसन्न रखने के लिए यह स्वॉग भरना पड़ रहा है। न जाने धर्म-अधर्म की कैसी बातें करती थीं,जो मैं बिलकुल न समझ सका। मुझे तो अब इसका विश्वास आ गया है कि उनकी इच्छा तुम्हें यहाँ भेजने की न थी।

मन्साराम-तुम इन चालों का मतलब नहीं समझ सकते। ये बड़ी गहरी चालें हैं।

जियाराम-तुम्हारी समझ में होंगी, मेरी समझ में तो नहीं हैं। मन्साराम-जब तुम ज्योमेटरी (Geometry) नहीं समझ सकते, तो इन बातों को क्या समझ सकोगे! उस रात को जब मुझे [ १२२ ]खाना खाने के लिए बुलाने आई थीं; और मैं उनके आग्रह पर जाने को तैयार भी हो गया था, उस वक्त बाबू जी को देखते ही उन्होंने जो कैंडा बदला वह क्या मैं कभी भूल सकता हूँ?

जियाराम- यही बात मेरी समझ में भी नहीं आती। अभी कल ही मैं यहाँ से गया तो लगी तुम्हारा हाल पूछने। मैंने कहा-वह तो कहते थे कि अब कभी इस घर में कदम न रखूंगा। मैंने कुछ झूठ तो कहा नहीं, तुमने मुझसे कहा ही था। इतना सुनना था कि फूट-फूट कर रोने लगी। मैं दिल में बहुत पछताया कि कहाँ से कहाँ मैंने यह बात कह दी। बार-बार यही कहती थी, क्या वह मेरे कारण घर छोड़ देंगे? मुझसे इतने नाराज हैं? चले गए और मुझसे मिले तक नहीं! खाना तैयार था,खाने तक नहीं आए! हाय! मैं क्या बताऊँ, किस विपत्ति में हूँ! इतने में बाबू जी आ गए। बस, तुरन्त आँखें पोंछ कर मुस्कराती हुई उनके पास चली गई। यह बात मेरी समझ में नहीं आती। आज मुझसे बड़ी मिन्नत की कि उनको साथ लेते आना। आज मैं तुम्हें खींच ले चलूँगा। दो दिन में वह कितनी दुबली हो गई हैं, तुम्हें यह देख कर उन पर दया आएगी। तो चलोगे न ?

मन्साराम ने कुछ जबाब न दिया। उसके पैर काँप रहे थे। जियाराम तो हाजिरी की घण्टी सुन कर भागा; पर वह बैञ्च पर लेट गया और इतनी लम्बी साँस ली, मानो बहुत देर से उसने साँस नहीं ली है। उसके मुख से दुस्सह वेदना में डूबे हुए यह शब्द निकले-हाय ईश्वर! इस नाम के सिवा उसे अब अपना [ १२३ ]जीवन निराधार मालूम होता था। इस एक उच्छवास में कितना नैराश्य, कितनी समवेदना, कितनी करुणा, कितनी दीनता-प्रार्थना भरी हुई थी,इसका कौन अनुमान कर सकता है? अब सारा रहस्य उसकी समझ में आ रहा था; और बार-बार उसका पीड़ित हृदय आर्तनाद कर रहा था-हाय ईश्वर! इतना घोर कलङ्क!!

क्या जीवन में इससे बड़ी विपत्ति की कल्पना की जा सकती है? क्या संसार में इससे घोरतर नीचता की कल्पना हो सकती है? आज तक किसी पिता ने अपने पुत्र पर इतना निर्दय कलङ्कन लगाया होगा! जिसके चरित्र की सभी प्रशंसा करते थे,जो अन्य युवकों के लिए आदर्श समझा जाता था, जिसने कभी अपवित्र विचारों को अपने पास नहीं फटकने दिया, उसी पर यह घोरतम कलङ्क! मन्साराम को ऐसा मालूम हुआ, मानो उसका दिल फटा जाता है!

दूसरी घण्टी भी वज गई। लड़के अपने-अपने कमरों में गए; पर मन्साराम हथेली पर हाथ रक्खे अनिमेष नेत्रों से भूमि की ओर देख रहा था,मानो उसका सर्वस्व जल-मग्न हो गया हो; मानो वह किसी को मुँह न दिखा सकता हो। स्कूल में गैर-हाजिरी हो जायगी, जुर्माना हो जायगा, इसकी उसे चिन्ता नहीं! जब उसका सर्वस्व लुट गया, तो अब इन छोटी-छोटी बातों का क्या भय? इतना बड़ा कलङ्क लगने पर भी अगर जीता रहूँ, तो मेरे जीने को धिक्कार है!

उसी शोकातिरेक की दशा में वह चिल्ला पड़ा-माता जी, [ १२४ ]तुम कहाँ हो? तुम्हारा बेटा, जिस पर तुम प्राण देती थीं-जिसे तुम अपने जीवन का आधार समझती थीं, आज घोर सङ्कट में है! उसी का पिता उसकी गर्दन पर छुरी फेर रहा है! हाय, तुम कहाँ हो!!

मन्साराम फिर शान्त चित्त से सोचने लगा-मुझ पर यह सन्देह क्यों हो रहा है? इसका क्या कारण है? मुझमें ऐसी,कौन सी बात उन्होंने देखी जिससे उन्हें यह सन्देह हुआ। वह मेरे पिता हैं;मेरे शत्रु नहीं हैं, जो अनायास ही मुझ पर अपराध लगाने बैठ जायँ । ज़रूर उन्होंने कोई न कोई बात देखी या सुनी है। उनका मुझ पर कितना स्नेह था! मेरे बगैर भोजन करने न जाते थे,वही मेरे शत्रु हो जायें, यह बात अकारण नहीं हो सकती!

अच्छा इस सन्देह का बीजारोपण किस दिन हुआ? मुझे बोर्डिङ्ग हाउस में ठहराने को बात तो पीछे की है। जिस दिन रात को वह मेरे कमरे में आकर मेरी परीक्षा लेने लगे थे,उसी दिन उनकी त्योरियाँ बदली हुई थी। उस दिन ऐसी कौन सी बात हुई, जो उन्हें अप्रिय लगी हो! मैं नई अम्माँ से कुछ खाने को माँगने गया था। बाबू जी उस वक्त वहाँ बैठे था। हाँ, अब याद आता है उसी वक्त. उनका चेहरा तमतमा गया था। उसी दिन से नई अम्माँ ने मुझसे पढ़ना छोड़ दिया। अगर मैं जानता कि मेरा घर में आना-जाना,अम्माँ जी से कुछ कहना-सुनना और उन्हें पढ़ाना-लिखाना पिता जी को बुरा लगता है, तो आज क्यों यह नौबत आती? और नई अम्माँ! उन पर क्या बीत रही होगी? [ १२५ ]मन्साराम ने अब तक निर्मला की ओर ध्यान ही नहीं दिया था। निर्मला का ध्यान आते ही उसके रोएँ खड़े हो गए! हाय, उनका सरल स्नेहशील हृदय यह आघात कैसे सह सकेगा? आह! मैं कितने भ्रम में था? मैं उनके स्नेह को कौशल समझता था! मुझे क्या मालूम था कि उन्हें पिता जी का भ्रम शान्त करने के लिए मेरे प्रति इतना कटु व्यवहार करना पड़ता है। आह! मैंने उन पर कितना अन्याय किया है। उनकी दशा तो मुझसे भी खराब हो रही होगी। मैं तो यहाँ चला आया, मगर वह कहाँ जाएंगी। जिया कहता था,उन्होंने दो दिन से भोजन नहीं किया! हर दम रोया करती हैं! कैसे जाकर समझाऊँ? वह इस अभागे के पीछे क्यों अपने सिर यह विपत्ति ले रही हैं! वह क्यों बार-बार मेरा हाल पूछती हैं? क्यों बार-बार मुझे बुलाती है? कैसे कह दूँ कि माता मुझे तुमसे ज़रा भी शिकायत नहीं,मेरा दिल तुम्हारी तरफ से साफ है।

वह अब भी बैठी रो रही होगी! कितना बड़ा अनर्थ है? बाबू जी को यह क्या हो गया है? क्या इसीलिए विवाह किया था? एक बालिका की हत्या करने ही के लिए उसे लाए थे! इस कोमल पुष्प को मसल डालने ही के लिए तोड़ा था?

उनका उद्धार कैसे होगा? उस निरपराधिनी का मुख कैसे उज्ज्वल होगा? उन्हे केवल मेरे साथ स्नेह का व्यवहार करने के लिए यह दण्ड दिया जा रहा है! उनकी सज्जनता का उन्हें यह उपहार मिल रहा है! मैं उन्हे इस प्रकार निर्दय आघात सहते देख [ १२६ ]कर बैठा रहूँगा! अपनी मान-रक्षा के लिए न सही उनकी आत्म-रक्षा के लिए इन प्राणों को बलिदान करना पड़ेगा! इसके सिवाय उद्धार का और कोई उपाय नहीं। आह! दिल में कैसे कैसे अरमान थे। वे सब खाक में मिला देने होंगे। एक सती पर सन्देह किया जा रहा है;और मेरे कारण! मुझे अपने प्राणों से उसकी रक्षा करनी होगी,यही मेरा कर्तव्य है। इसी में सच्ची वीरता है! माता,मैं अपने रक्त से इस कालिमा को धो दूंगा। इसी में मेरा और तुम्हारा दोनों का कल्याण है!

वह दिन भर इन्हीं विचारों में डूबा रहा। शाम को उसके दोनों भाई आकर घर चलने के लिए आग्रह करने लगे।

सियाराम-चलते क्यों नहीं? मेरे भैया जी, चले चलो न!

मन्साराम-मुझे फुरसत नहीं है कि तुम्हारे कहने से चला चलूँ।

जिया०-आखिर कल तो इतवार ही है!

मन्सा०-इतवार को भी काम है।

जिया-अच्छा,कल आओगे न?

मन्सा०-नहीं,कल मुझे एक मैच में जाना है।

सिया०-अम्माँ जी मूंग के लड्डू बना रही हैं। न चलोगे तो एक भी न पाओगे। हम-तुम मिल के खा जायँगे;'जिया, इन्हें न देंगे।

जिया०-भैया, अगर तुम कल न गए,तो शायद अम्माँ जी यहीं चली आयें। [ १२७ ]मन्सा-सच! नहीं,ऐसा क्यों करेंगी। यहाँ आई,तो बड़ी परेशानी होगी। तुम कह देना,वह कहीं मैच देखने गए हैं।

जिया-मैं झूठ क्यो बोलने लगा। मैं कह दूँगा वह मुंह फुलाए बैठे थे। देख लेना उन्हें साथ लाता हूँ कि नहीं!

सिया०-हम कह देंगे कि आज पढ़ने नहीं गए। पड़े-पड़े सोते रहे। मन्साराम ने इन दूतों से कल आने का वादा करके गला छुड़ाया। जब दोनों चले गए,तो फिर चिन्ता में डूबा। रात भर उसे करवट बदलते गुजरी। छट्टी का दिन भी बैठे ही बैठे कट गया,उसे दिन भर शङ्का होती रही कि कहीं अम्माँ जी सचमुच न चली आवें। किसी गाड़ी की खड़खड़ाहट सुनता,तो उसका कलेजा धकधक करने लगता। कहीं आ तो नहीं गई!

छात्रालय में एक छोटा-सा औषधालय था। एक डॉक्टर साहव सन्ध्या समय एक घण्टे के लिए आ जाया करते थे। अगर कोई लड़का बीमार होता,तो उसे दवा देते। आज वह आए तो मन्साराम कुछ सोचता हुआ उनके पास जाकर खड़ा हो गया। वह मन्साराम को अच्छी तरह जानते थे। उसे देख कर आश्चर्य से वोले-यह तुम्हारी क्या हालत है जो? तुम तो मानो गले जा रहे हो। कहीं वाज़ार का चस्का तो नहीं पड़ गया? आखिर तुम्हें हुआ क्या? जरा यहाँ तो आओ!

मन्साराम ने मुस्करा कर कहा-मुझे जिन्दगी का रोग है। आपके पास इसकी भी कोई दवा है? [ १२८ ]डॉक्टर-मैं तुम्हारी परीक्षा करना चाहता हूँ। तुम्हारी तो सूरत ही बदल गई जी,पहचाने भी नहीं जाते!

यह कह कर उन्होंने मन्साराम का हाथ पकड़ लिया और छाती, पीठ,आँखें, जीभ सब बारी-बारी से देखी । तब चिन्तित होकर बोले-वकील साहब से मैं आज ही मिलूँगा। तुम्हें थाइसिस हो रहा है। सारे लक्षण उसी के हैं।

मन्साराम ने बड़ी उत्सुकता से पूछा-भला कितने दिनों में काम तमाम हो जायगा;डॉक्टर साहब?

डॉक्टर-कैसी बातें करते हो जी! मैं वकील साहब से मिल कर तुम्हें किसी पहाड़ी जगह भेजने की सलाह दूंगा। ईश्वर ने चाहा तो तुम बहुत जल्द अच्छे हो जाओगे। बीमारी अभी पहले ही स्टेज में है।

मन्साराम-तब तो अभी साल-दो साल की देर मालूम होती है। मैं तो इतना इन्तजार नहीं कर सकता। सुनिए,मुझे थाइसिसवाइसिस कुछ नहीं है न कोई दूसरी शिकायत ही है। आप बाबूजी को नाहक तरदुत में न डालिएगा। इस वक्त मेरे सिर में दर्द है, कोई दवा दीजिए। कोई ऐसी दवा हो,जिससे नीद भी आ जाय। मुझे दो रात से नींद नहीं आती।

डॉक्टर साहब ने जहरीली दवाइयों की आलमारी खोली और एक शीशी में थीड़ी सी दवा निकाल कर मन्साराम को दी। मन्साराम ने पूछा- यह तो कोई जहर है? भला कोई इसे पीले तो मर जाय? [ १२९ ]डॉक्टर-नहीं,मर तो न जाय;पर सिर में चकर जलर आ जाय।

मन्सा०-कोई ऐसी दवा भी इसमें है,जिसे पीत ही प्राण निकल जायें?

डॉक्टर-ऐसी एक-दो नहीं,कितनी ही दवाएँ हैं। यह जो शीशी देख रहे हो,इसकी एक बूंद भी पेट में चली जाय नो जान न वचे आनन-फानन में मौत हो जाय।

मन्सा०-क्यों डॉक्टर साहब,जो लोग जहर खा लेते हैं,उन्हें बड़ी तकलीफ होती होगी?

डॉक्टर-सभी जहरों से तकलीफ नहीं होती। वाज़ तो ऐसे हैं कि पीते ही आदमी ठण्डा हो जाता है। यह शीशी इसी किस्म की है। इसे पीते ही आदमी वेहोश हो जाता है,फिर उसे होश नहीं आता।

मन्साराम ने सोचा-तब तो प्राण देना बहुत आसान है। फिर लोग क्यों इतना डरते हैं? यह शीशी कैसे मिलेगी? अगर दवा का नाम पूछ कर शहर के किसी दवा-करोश से लेना चाहूँ, तो वह कभी न देगा। उँह, इसके मिलने में कोई दिक्कत नहीं। यह तो मालूम हो गया कि प्राणों का अन्त बड़ी आसानी से किया जा सकता है । मन्साराम इतना प्रसन्न हुआ, मानो कोई इनाम पा गया हो। उसके दिल पर से एक वोझ सा हट गया। चिन्ता की मेघ-राशि, जो सिर पर मँडला रही थी,छिन्न-भिन्न हो गई। महीनों के बाद आज उसे मन में एक स्फूर्ति का अनुभव हुआ। [ १३० ]कई लड़के थियेटर देखने जा रहे थे, निरीक्षक से आज्ञा ले ली थी। मन्साराम भी उनके साथ थियेटर देखने चला गया । ऐसा खुश था, मानो उससे ज्यादा सुखी जीव संसार में कोई नहीं है। थियेटर में नकल देख कर तो वह हँसते-हँसते लोट गया । बारबार तालियाँ बजाने और 'वंसमोर !' की हाँक लगाने में सबसे पहला नम्बर उसी का था । गाना सुन कर वह मस्त हो जाता था, और 'ओहो हो !' करके चिल्ला उठता था। दर्शकों की निगाहें बार-बार. उसकी तरफ उठ जाती थीं। थियेटर के पात्र भी उसी की ओर ताकते थे; और यह जानने को उत्सुक थे कि कौन महाशय इतने रसिक और भावुक हैं। उसके मित्रों को उसकी उच्छङ्खलता पर आश्चर्य हो रहा था। वह बहुत ही शान्तचित्त, गम्भीर स्वभाव का युवक था। आज वह क्यों इतना हास्यशील हो गया है, क्यों उसके विनोद का वारापार नहीं है ?

दो बजे रात को थियेटर से लौटने पर भी उसका हास्योन्माद कम नहीं हुआ। उसने एक लड़के की चारपाई उलट दी, कई लड़कों के कमरों के द्वार बाहर से बन्द कर दिए; और उन्हें भीतर से खटखट करते सुन कर हँसता रहा। यहाँ तक कि छात्रालय के अध्यक्ष महोदय की नींद भी शोर-गुल सुन कर खुल गई; और उन्होंने मन्साराम की शरारत पर खेद प्रकट किया । कौन जानता है कि उसके अन्तस्तल में कितनी भीषण क्रान्ति हो रही है ? सन्देह के निर्दय आघात ने उसकी. लज्जा और आत्मसम्मान को कुचल डाला है ! उसे अपमान और तिरस्कार का लेश [ १३१ ]मात्र भी भय नहा है। यह विनोद नहीं-उसकी आत्मा का करुण विलाप है। जब और सब लड़के सो गए, तो वह भी चारपाई पर लेटा, लेकिन उसे नींद नहीं आई। एक क्षण के बाद वह उठ बैठा; और अपनी सारी पुस्तकें बाँध कर सन्दूक में रख दी। जब मरना ही है तो पढ़ कर क्या होगा ? जिस जीवन में ऐसी-ऐसी वाधाएँ हैं ऐसी-ऐसी यातनाएँ हैं, उससे मृत्यु कहीं अच्छी!

यही सोचते-सोचते तड़का हो गया। तीन रात से वह एक क्षण भी न सोया था। इस वक्त वह उठा तो उसके पैर थर-थर कॉप रहे थे; और सिर में चक्कर सा आ रहा था। आँखें जल रही थीं; और शरीर के सारे अङ्ग शिथिल हो रहे थे। दिन चढ़ता जाता था; और उसमें इतनी शक्ति भी न थी कि उठ कर मुँह-हाथ धो डाले । एकाएक उसने भुगी को रूमाल में कुछ लिए हुए एक कहार के साथ आते देखा । उसका कलेजा सन हो गया। हाय ईश्वर ! वह आ गई ! अब क्या होगा ? भुङ्गी अकेले नहीं आई होगी, वग्धी ज़रूर बाहर खड़ी होगी। कहाँ तो उससे उठा न जाता था। कहाँ भुगी को देखते ही दौड़ा और घवराई हुई आवाज़ में बोला-अम्माँ जी भी आई हैं क्या रे ? जब मालूम हुआ कि अम्माँ जी नहीं आई, तब उसका चित्त शान्त हुया । भुङ्गी ने कहा-भैया ! तुम कल गए नहीं, वहू जी तुम्हारी राह देखती रह गई। उनसे क्यों रूठे हो भैया ? वह तो कहती हैं, मैंने उनकी कुछ भी शिकायत नहीं की है । मुझसे आज रोकर कहने [ १३२ ]लगी-उनके पास यह मिठाई लेती जा और कहना मेरे कारण घर क्यों छोड़ दिया है ? कहाँ रख दूंँ यह थाली ?

मन्साराम ने रुखाई से कहा-थाली अपने सिर पर पटक दे, चुडैल वहाँ से चली है मिठाई लेकर ! खबरदार, जो फिर कमी इधर आई । सौगात लेकर चली हैं ! जाकर कह देना मुझे उनकी मिठाई नहीं चाहिए! जाकर कह देना तुम्हारा घर है, तुम रहो; वहाँ वे बड़े आराम से हैं। खूब खाते और मौज करते हैं। सुनती है, बाबू जी के मुंह पर कहना, समझ गई ? मुझे किसी का डर नहीं है ; और जो करना चाहें कर डालें, जिससे दिल में कोई अरमान न रह जाय । कहें तो इलाहाबाद, लखनऊ, कलकत्ता चला जाऊँ । मेरे लिए जैसे बनारस वैसे दूसरा शहर ! यहाँ क्या रक्खा है।

भुङ्गी-भैया, मिठाई रख लो, नहीं रो-रोकर मर जायेंगी। सचं मानो, रोकर मर जायँगी।

मन्साराम ने आँसुओं के उठते हुए वेग को दवा कर कहामर जायँगी, मेरी बला से ! कौन मुझे बड़ा सुख दे दिया है, जिसके लिए पछताऊँ। मेरा तो उन्होंने सर्वनाश कर दिया। कह देना मेरे पास कोई संदेशा न भेजें, कुछ जरूरत नहीं !

भुङ्गी-भैया, तुम तो कहते हो यहाँ खूब खाता हूँ और मौज करता हूँ; मगर देह तो आधी भी नहीं रही। जैसे आए थे उसके आधे भी नहीं रहे !

मन्साराम-यह तेरी आँखों का फेर है, देखना दो-चार दिन में [ १३३ ]मुटा कर कोल्हू हो जाता हूँ कि नहीं। उनसे यह भी कह देना कि रोना-धोना बन्द करें। जो मैंने सुना कि रोती हैं और खाना नहीं खाती, तो मुझसे बुरा कोई नहीं। मुझे घर से निकाला है, तो अब चैन से रहें । चली हैं प्रेम दिखाने ! मैं ऐसे त्रिया-चरित्र वहुत पढ़े वैठा हूँ।

भुङ्गी चली गई। मन्साराम को उससे बातें करते ही करते कुछ ठण्ड मालूम होने लगी थी। यह अभिनय करने के लिए उसे अपने मनोभावों को जितना दवाना पड़ा था, वह उसके लिए असाध्य था। उसका आत्म-सम्मान उसे इस कुटिल व्यापार का जल्द से जल्द अन्त कर देने के लिए वाध्य कर रहा था; पर इसका परिणाम क्या होगा ? निर्मला क्या यह आघात सह सकेगी ? अब तक वह मृत्यु-कल्पना करते समय किसी अन्य प्राणी का विचार न करता था, पर आज एकाएक उसे ज्ञात हुआ कि मेरे जीवन के साथ एक और प्राणी का जीवन-सूत्र भी बँधा हुआ है। निर्मला यही समझेगी कि मेरी निष्ठुरता ही ने इनकी जान ली। यह समझ कर उसका कोमल हृदय क्या फट न जाएगा ? उसका जीवन तो अब भी सङ्कट में है। सन्देह के कठोर पजे में फंसी हुई अवला क्या अपने को हत्यारिणी समझ कर बहुत दिन जीवित रह सकती है ?

मन्साराम ने चारपाई पर लेट कर लिहाफ़ ओढ़ लिया, फिर भी मारे सर्दी से कलेजा कॉप रहा था । थोड़ी ही देर में उसे जोर से ज्वर चढ़ आया-वह बेहोश हो गया। इस अचेत दशा में [ १३४ ]उसे भाँति-भाँति के स्वप्न दिखाई देने लगे। थोड़ी देर के बाद चौंक पड़ता-आँखें खुल जाती;फिर बेहोश हो जाता।

सहसा वकील साहब की आवाज़ सुन कर वह चौंक पड़ा। हाँ, वकील साहब ही की आवाज़ थी। उसने लिहाफ़ फेंक दिया और चारपाई से उतर कर नीचे खड़ा हो गया। उसके मन में एक आवेग हुआ कि इसी वक्त इनके सामने प्राण दे दूं। उसे ऐसा मालूम हुआ कि मैं मर जाऊँ,तो इन्हें सच्ची खुशी होगी। शायद इसीलिए यह देखने आए हैं कि मेरे मरने में कितनी देर है। वकील साहब ने उसका हाथ पकड़ लिया,जिसमें वह गिर न पड़े और पूछा-कैसी तबीयत है लल्लू,लेटे क्यों न रहे? लेट जाओ, लेट जाओ,तुम खड़े क्यों हो गए?

मन्साराम-मेरी तबीयत तो बहुत अच्छी है। आपको व्यर्थ ही कष्ट हुआ।

मुन्शी जी ने कुछ जवाब न दिया। लड़के की दशा देख कर उनकी आँखों से आँसू निकल आए। वह हृष्ट-पुष्ट बालक,जिसे देख कर चित्त प्रसन्न हो जाता था,अब सूख कर काँटा हो गया था। पाँच-छः दिन में ही वह इतना दुबला हो गया था कि उसे पहचानना कठिन था। मुन्शी जी ने उसे आहिस्ता से चारपाई पर लिटा दिया;और लिहाफ अच्छी तरह ओढ़ा कर सोचने लगे कि अब क्या करना चाहिए। कहीं लड़का हाथ से तो न जायगा? यह ख्याल करके वह शोक से विह्वल हो गए;और स्टूल पर बैठ कर फूट-फूट कर रोने लगे। मन्साराम भी लिहाफ में मुँह लपेटे [ १३५ ]रो रहा था। अभी थोड़े ही दिनों पहले उसे देख कर पिता का हृदय गर्व से फूल उठता था लेकिन आज उसे इस दारुण दशा में देख कर भी वह सोच रहा है कि इसे घर ले चलूं या नहीं। क्या यहाँ दवा नहीं हो सकती? मैं यहाँ चौबीसों घण्टे बैठा रहूँगा। डॉक्टर साहब यहाँ हैं ही,कोई दिक्कत न होगी। घर ले चलने में उन्हें बाधाएँ ही बाधाएँ दिखाई देती थीं;सबसे बढ़ा भय यह था कि वहाँ निर्मला इसके पास हरदम वैठी रहेगी; और मैं मना न कर सकूँगा यह उनके लिए असह्य था।

इतने में अध्यक्ष ने आकर कहा-मैं तो समझता हूँ,आप इन्हें अपने साथ ले जायँ। गाड़ी है ही, कोई तकलीफ न होगी। यहाँ अच्छी तरह देख-भाल न हो सकेगी।

मुन्शी जी-हाँ,आया तो मैं इसी ख्याल से था;लेकिन इनकी हालत बहुत ही नाजुक मालूम होती है। जरा सी असावधानी होने से सरसाम हो जाने का भय है।

अध्यक्ष-यहाँ से उन्हें ले जाने में तो थोड़ी सी दिक्कत जरूर है। लेकिन यह तो आप खुद ही सोच सकते हैं कि घर पर जो आराम मिल सकता है,वह यहाँ किसी तरह नहीं मिल सकता। इसके अतिरिक्त किसी बीमार लड़के को यहाँ रखना,नियम-विरुद्ध भी है।

'मुन्शी जी-कहिए तो मैं हेडमास्टर से आज्ञा ले लूं। मुझ इनको यहाँ से इस हालत में ले जाना किसी तरह मुनासिब नहीं. मालूम होता। [ १३६ ]अध्यक्ष ने हेडमास्टर का नाम सुना,तो समझे कि यह महाशय मुझे धमकी दे रहे हैं। जरा तिनक कर बोले-हेडमास्टर नियम-विरुद्ध कोई बात नहीं कर सकते। मैं इतनी बड़ी जिम्मेदारी कैसे ले सकता हूँ?

अब क्या हो? क्या घर ले जाना ही पड़ेगा? यहाँ रखने का तो यह वहाना था कि ले जाने से बीमारी बढ़ जाने की शङ्का है। यहाँ से ले जाकर अस्पताल में ठहराने के लिए कोई बहाना नहीं है। जो सुनेगा वह यही कहेगा कि डॉक्टर की फीस बचाने के लिए लड़के को अस्पताल फेंक आए;पर अब ले जाने के सिवा और कोई उपाय न था। अगर अध्यक्ष महोदय इस वक्त रिश्वत लेने पर तैयार हो जाते,तो शायद दो-चार साल का वेतन ले लेते; लेकिन कायदे के पाबन्द लोगों में इतनी बुद्धि,इतनी चतुराई कहाँ! अगर इस वक्त मुन्शी जी को कोई आदमी ऐसा उन्न सुझा देता,जिसमें उन्हें मन्साराम को घर न ले जाना पड़े,तो वह आजीवन उसका एहसान मानते। सोचने का समय भी नहीं था। अध्यक्ष महोदय शैतान की तरह सिर पर सवार थे। विवश होकर मुन्शी जी ने दोनों सईसों को बुलाया और मन्साराम को उठाने लगे। मन्साराम अर्द्ध-चेतना की दशा में था। चौंक कर बोला-क्या है? कौन है?

मुन्शी जी-कोई नहीं है;बेटा! मैं तुम्हें धर ले चलना चाहता हूँ; आओ मैं गोद में उठा लूँ।

मन्साराम-मुझे घर क्यों ले चलते हैं? मैं वहाँ नहीं जाऊँगा। [ १३७ ]मुन्शी--जी यहाँ तो रह नहीं सकते,नियम ही ऐसा है।

मन्साराम--कुछ भी हो,मैं वहाँ न जाऊँगा। मुझे और कहीं ले चलिए-किसी पेड़ के नीचे,किसी झोपड़े में,जहाँ चाहे रखिए;पर घर न ले चलिए।

अध्यक्ष ने मुन्शी जी से कहा-आप इन बातों का ख्याल न करें, यह तो होश में नहीं हैं।

मन्साराम-कौन होश में नहीं है? मैं होश में नहीं हूँ? किसी को गालियाँ देता हूँ,दाँत काटता हूँ? क्यों होश में नहीं हूँ? मुझे यहीं पड़ा रहने दीजिए,जो कुछ होना होगा यहीं होगा,अगर ऐसा ही है तो मुझे अस्पताल ले चलिए। मैं वहाँ पड़ा रहूँगा। जीना होगा जिऊँगा,मरना होगा मरूँगा;लेकिन घर किसी तरह भी न जाऊँगा।

यह जोर पाकर मुन्शी जी फिर अध्यक्ष से मिन्नतें करने लगे; लेकिन वह कायदे का पावन्द आदमी कुछ सुनता ही न था। अगर छूत की बीमारी हुई और किसी दूसरे लड़के को छूत लग गई, तो कौन उसका जबावदेह होगा? इस तर्क के सामने मुन्शीजी की कानूनी दलीलें भी मात हो गई।

आखिर मुन्शी जी ने मन्साराम से कहा-वेटा, तुम्हें घर चलने से क्यों इन्कार हो रहा है? वहाँ तो सभी तरह का आराम रहेगा। मुन्शी जी ने कहने को तो यह बात कह दी;लेकिन डर रहे थे कि कहीं सचमुच मन्साराम चलने पर राजी न हो जाय । वह मन्साराम को अस्पताल में रखने का कोई वहाना खोज रहे थे; और [ १३८ ]उसकी सारी जिम्मेदारी मन्साराम ही के सिर डालना चाहते थे। यह अध्यक्ष के सामने की बात थी, यह इस बात की साक्षी दे सकते थे कि मन्साराम अपनी जिद्द से अस्पताल जा रहा है। मुन्शी जी का इसमें लेशमात्र भी दोष नहीं है।

मन्साराम ने भल्ला कर कहा-नहीं, नहीं, नहीं, सौ बार नहीं । मैं घर नहीं जाऊँगा। मुझे अस्पताल ले चलिए और घर के सब आदमियों को मना कर दीजिए कि मुझे देखने न आवें। मुझे कुछ नहीं हुआ है, विलकुल वीमार नहीं हूँ। आप सुझे छोड़ दीजिए, मैं अपने पाँव से चल सकता हूँ।

वह उठ खड़ा हुआ और उन्मत्त की भाँति द्वार की ओर चला; लेकिन पैर लड़खड़ा गए। यदि मुन्शी जी ने सँभाल न लिया होता, तो उसे बड़ी चोट आती। दोनों नौकरों की मदद से मुन्शी जी उसे बग्घी के पास लाए और अन्दर विठा दिया।

गाड़ी अस्पताल की ओर चली। वही हुआ जो मुन्शी जी. चाहते थे। इस शोक में भी उनका चित्त सन्तुष्ट था। लड़का अपनी इच्छा से अस्पताल जा रहा था,क्या यह इस बात का प्रमाण नहीं था कि घर से इसे कोई स्नेह नहीं है? क्या इससे यह सिद्ध नहीं होता कि मन्साराम निर्दोष है? वह उस पर अकारण ही भ्रम कर रहे थे।

लेकिन जरा ही देर में इस तुष्टि की जगह उनके मन में ग्लानि का भाव जाग्रत हुआ। वह अपने प्राण-प्रिय पुत्र को घर न ले जाकर अस्पताल लिये जा रहे थे। उनके विशाल भवन में उनके [ १३९ ]पुत्र के लिए भी जगह न थी,इस दशा में भी,जबकि उसका जीवन सङ्कट में पड़ा हुआ था,कितनी विडम्बना है?

एक क्षण के बाद एकाएक मुन्शी जी के मन में प्रश्न उठा--कहीं मन्साराम उनके भावों को ताड़ तो नहीं गय ? इसीलिए तो उसे घर से घृणा नहीं हो गई! अगर ऐसा है,तो ग़ज़ब हो जायगा! उस अनर्थ की कल्पना ही से मुन्शी जी के रोएँ खड़े हो गए और कलेजा धक-धक करने लगा । हृदय में एक धक्का सा लगा। अगर इस ज्वर का यही कारण है, तो ईश्वर ही मालिक है। इस समय उनकी दशा अत्यन्त दयनीय थी। वह आग जो उन्होंने अपने ठिदुरे हुए हाथों को सेंकने के लिए जलाई थी, अब उनके 'घर में लगी जा रही थी। इस करुणा, शोक, पश्चात्ताप और शङ्का से उनका चित्त घबरा उठा। उनके गुप्त रुदन की ध्वनि वाहर निकल सकती, तो सुनने वाले रो पड़ते ! उनके आँसू बाहर निकल सकते, तो उनका तार बध जाता ! उन्होंने पुत्र के वर्ण-हीन मुख:की ओर एक बार वात्सल्यपूर्ण नेत्रों से देखा, वेदना से विकल होकर उसे छाती से लगा लिया; और इतना रोए कि हिचकी बँध गई।

सामने अस्पताल का फाटक दिखाई दे रहा था !