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निर्मला/९

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निर्मला
प्रेमचंद

पृष्ठ ११३ से – ११८ तक

 
 

नवाँ परिच्छेद

मन्साराम के जाने से घर सूना हो गया। दोनों छोटे लड़के उसी स्कूल में पढ़ते थे। निर्मला रोज़ उनसे मन्साराम का हाल पूछती। आशा थी कि छुट्टी के दिन वह आएगा; लेकिन जब छुट्टी के दिन गुज़र गए; और वह न आया, तो निर्मला की तबीयत घबराने लगी। उसने उसके लिए मूँग के लड्‌डू बना रक्खे थे। सोमवार को प्रातः भुङ्गी को लड्‌डू देकर मदरसे भेजा। नौ बजे भुङ्गी लौट आई। मन्साराम ने लड्‌डू ज्यों के त्यों लौटा दिए थे।

निर्मला ने पूछा—पहले से कुछ हरे हुए हैं रे?

भुङ्गी—हरे-वरे तो नहीं हुए, और सूख गए हैं!

निर्मला—क्या जी अच्छा नहीं है क्या?

भुङ्गी—यह तो मैंने नहीं पूछा बहू जी, झूठ क्यों बोलूँ। हाँ, वहाँ का कहार मेरा देवर लगता है। वह कहता था कि तुम्हारे बाबू जी की ख़ुराक कुछ नहीं है। दो फुलकियाँ खाकर उठ जाते हैं। फिर दिन भर कुछ नहीं खाते। हर दम पढ़ते रहते हैं। निर्मला-तूने पूछा नहीं,लड्डू क्यों लौटाए देते हो?

भुङ्गी-यह तो नहीं पूछा बहू जी,झूठ क्यों बोलूं। उन्होंने कहा इसे लेती जा,यहाँ रखने का कुछ काम नहीं, मैं लेती आई।

निर्मला और कुछ नहीं कहते थे। पूछा नहीं,कल क्यों नहीं आए ? छुट्टी तो थी।

भुङ्गी-बहू जी,झूठ क्यों बोलू;यह पूछने की तो मुझे सुध ही न रही। हाँ, यह कहते थे कि अब तू यहाँ कभी न आना, न मेरे लिए कोई चीज लाना;और अपनी बहू जी से कह देना कि मेरे पास कोई चिट्ठी-पत्तर न भेजें; लड़कों से भी- मेरे पास कोई सन्देशा न भेजें। और एक बात ऐसी कही बहू जी कि मेरे मुँह से निकल नहीं सकती। फिर रोने लगे।

निर्मला-कौन बात थी? कह तो।

भुङ्गी क्या कहूँ बहू जी,कहते थे मेरे जीने को धिक्कार है। यही कह कर रोने लगे!

निर्मला के मुँह से एक ठण्डी साँस निकल गई। ऐसा मालूम हुआ, मानो कलेजा बैठा जाता है। उसका रोम-रोम आर्तनाद से रुदन करने लगा। वह वहाँ बैठी न रह सकी। जाकर बिस्तर पर मुंह ढाँप कर लेट रही-और फूट-फूट कर रोने लगी। 'वह भी जान गए'उसके अन्तःकरण में बार-बार यही आवाज गजने लगी-वह जान गए! भगवान् अब क्या होगा? जिस सन्देह की आग में वह भस्म हो रही थी,अब शत-गुण वेग से धधकने लगी। उसे अपनी कोई चिन्ता न थी। जीवन में अब सुख की क्या आशा थी, जिसकी उसे लालसा होती ? उसने अपने मन को इस विचार से समझाया था कि यह मेरे पूर्व कर्मोंका प्रायश्चित्त है। कौन प्राणी ऐसा निर्लज्ज होगा, जो इस दशा में बहुत दिन जी सके ? कर्तव्य की वेदी पर उसने अपना जीवन और उसकी सारी कामनाएँ होम कर दी थीं । हृदय रोता रहता था; पर मुख पर हँसी का रङ्ग भरना पड़ता था। जिसका मुंह देखने को जी न चाहता था, उसके सामने हँस-हँस कर, बातें करनी पड़ती थीं। जिस देह का स्पर्श उसे सर्प के शीतल स्पर्श के समान लगता था, उससे आलिङ्गित होकर उसे जितनी घृणा, जितनी मर्म-वेदना होती थी, उसे कौन जान सकता है ? उस समय उसकी यही इच्छा होती थी, कि धरती फट जाय; और मैं उसमें समा जाऊँ! लेकिन सारी विडम्बना अपने ही तक थी, और अपनी चिन्ता करनी उसने छोड़ दी थी;लेकिन वह समस्या अब अत्यन्त भयङ्कर हो गई थी। वह अपनी आँखों से मन्साराम की आत्म-पीड़ा नहीं देख सकती थी। मन्साराम जैसे मनस्वी, साहसी युवक पर इस आपेक्ष का जो असर पड़ सकता था, उसकी कल्पना ही से उसके प्राण काँप उठते थे। अव चाहे उस पर कितने ही सन्देह क्यों न हों, चाहे उसे आत्महत्या ही क्यों न करनी पड़े. पर वह चुप नहीं बैठ सकती थी। मन्साराम की रक्षा करने के लिए वह विकल हो गई। उसने सङ्कोच और लज्जा की चादर उतार कर फेंक देने का निश्चय कर लिया।

वकील साहब भोजन करके कचहरी जाने के पहले एक बार उससे अवश्य मिल लिया करते थे। उनके आने का समय हो गया था। आ ही रहे होंगे,यह सोच कर निर्मला द्वार पर खड़ी हो गई और उनका इन्तजार करने लगी;लेकिन यह क्या! वह तो बाहर चले जा रहे हैं। गाड़ी जुत कर आ गई,यह हुक्म वह यहीं से दिया करते थे। तो क्या आज वह न आएँगे, बाहर ही बाहर चले जाएँगे। नहीं ऐसा नहीं होने पावेगा। उसने भुङ्गी से कहा-जाकर बाबू जी को बुला ला। कहना एक जरूरी काम है;सुन लीजिए।

मुन्शी जी जाने को तैयार ही थे। यह सन्देशा पाकर अन्दर आए; पर कमरे में न आकर दूर ही से पूछा-क्या बात है,भाई? जल्दी कह दो, मुझे एक जरूरी काम से जाना है। अभी थोड़ी देर हुई हेडमास्टर साहब का एक पत्र आया है कि मन्साराम को ज्वर आ गया है, बेहतर हो कि आप घर ही पर उसका इलाज करें। इसलिए उधर ही से होता हुआ कचहरी जाऊँगा। तुम्हें कोई खास बात तो नहीं कहनी है।

निर्मला पर मानो वज्र गिर पड़ा। आँसुओं के आवेग और कण्ठ-स्वर में घोर संग्राम होने लगा। दोनों ही पहले निकलने पर तुले हुए थे। दो में से कोई एक कदम भी पीछे हटना नहीं चाहता था । कराठ-स्वर की दुर्बलता और आँसुओं की सबलता देख कर यह निश्चय करना कठिन नहीं था कि एक क्षण यही संग्राम होता रहा, तो मैदान किसके हाथ रहेगा? आखिर दोनों साथ-साथ निकले लेकिन बाहर आते ही बलवान ने निर्बल को दबा लिया। केवल इतना मुँह से निकला-कोई खास बात नहीं थी। आप तो उधर जा ही रहे हैं।

मुन्शी जी-मैंने लड़कों से पूछा था तो वे कहते थे,कल वैठे पढ़ रहे थे। आज न जाने क्या हो गया!

निर्मला ने आवेश से कॉपते हुए कहा-यह सव आप कर रहे हैं।

मुन्शी जी ने स्रियोयाँ वदल कर कहा-मैं कर रहा हूँ! मैं क्या कर रहा हूँ?

निर्मला-अपने दिल से पूछिए।

मुन्शी जी-मैंने तो यही सोचा था कि यहाँ उसका पढ़ने में जी नहीं लगता,वहाँ और लड़कों के साथ खामख्वाह ही पढ़ेगा। यह तो कोई बुरी बात न थी, और मैंने क्या किया?

निर्मला-खूब सोचिए,इसीलिए आपने उन्हें वहाँ भेजा था? आप के मन में कोई और बात न थी?

मुन्शी जी जरा हिचकिचाए और अपनी दुर्बलता को छिपाने के लिए मुस्कराने की चेष्टा करके वोले-और क्या बात हो सकती थी? भला तुम्हीं सोचो!

निर्मला-खैर, यही सही। अब आप कृपा करके उन्हें आज ही लेते आइएगा, वहाँ रहने से उनकी बीमारी बढ़ जाने का भय है। यहाँ दीदी जी जितनी बीमारदारी कर सकती हैं,दूसरा नहीं कर सकता।

एक क्षण के बाद उसने सिर नीचा करके फिर कहा-मेरे कारण न लाना चाहते हों,तो मुझे मेरे घर भेज दीजिए। मैं वहाँ आराम से रहूँगी।

मुन्शी जी ने इसका कुछ जवाब न दिया। बाहर चले गए;और एक क्षण में गाड़ी स्कूल की ओर चली।

मन! तेरी गति कितनी विचित्र है,कितनी रहस्य से भरी हुई, कितनी दुर्मेध? तू कितनी जल्द रङ्ग बदलता है? इस कला में तू निपुण है। आतिशबाज़ की चर्बी को भी रङ्ग बदलते कुछ देर लगती है; पर तुझे रङ्ग बदलने में उसका लक्षांश समय भी नहीं लगता! जहाँ अभी वात्सल्य था,वहाँ फिर सन्देह ने आसन जमा लिया।

वह सोचते जाते थे-कहीं उसने बहाना तो नहीं किया है?